सिर्फ़ हज़ार रुपये ही की तो बात थी। वह भी नहीं दे सका। देना एक ओर रहा, पत्र का उत्तर तक नहीं दिया। एक-दो-तीन-चार, सब पत्र हज़म किए। सब पचा लिए? यही मित्रता थी? मित्रता? मित्रता कहाँ है? मित्रता एक शब्द है, एक आडंबर है, एक विडंबना है, एक छल है-ठीक छल नहीं, छल की छाया है। वह भूत की तरह बढ़ती है, रात की तरह काली है और पाप की तरह काँपती है।
तुम लखपति थे? वे तुम्हारे लाख रुपये सुरक्षित लोहे के संदूकों में बंद रखे हैं? और मैं? मैं हाड़-माँस का आदमी, जिसकी छाती में हृदय—जीवित हृदय धरोहर धरा है, इस तरह यातना, अपमान, कष्ट और भयंकरता में झकोरे ले रहा हूँ। मित्रता की ऐसी तैसी। मित्रता के बाप की ऐसी तैसी। निष्ठुर पाखंडी सोने के डले। बिना तपाए और कुचले तुझमें नर्मी आना ही असंभव था!
तुम! तुम मेरे भक्त थे, क्या यह सच है? भक्ति किसे कहते हैं, मालूम है? चुप रहो। बको मत, ज्ञान मत बघारो। मैं ही मूर्ख हूँ। मेरे उपदेशों को तुमने मनोहर कहानी समझा होगा। ठीक, अब समझा, तुम मनोरंजन के लिए ही मेरे पास आते थे। धीरे-धीरे अब सब दीख पड़ता है। जब मैं आवेश में आकर अपने आविष्कृत सिद्धांत ज़ोर-शोर से तुम्हारे सामने बोलता था, तब तुम हँसते थे। उस तुम्हारी हँसी का तब मतलब नहीं समझा था—अब समझा। उफ़, ऐसे भयंकर गंभीर सिद्धांतों को तुम मनोरंजन समझकर सुनते थे। ठीक है। पिशाचों को श्मशान में नृत्य ही की सूझती है। प्रकृति कहाँ जाएगी! पर मुझे मनुष्य को परख नहीं हुई। मैं पूरा वज्र मूर्ख हूँ। मैंने भैंस को बीन बजा-कर सुनाई थी—हाय करम। हाय तक़दीर!!!
कुछ भी समझ नहीं पड़ता। अचंभा है। मनुष्य रूप पाकर मनुष्य हृदय से शुन्य। कैसे जीते हैं? अमीरों के हृदय कहाँ है? सारे अमीर मरकर भेड़िए, चीते, सिंह, साँप, बिच्छू बनेंगे। मनुष्य-जन्म में अपनी बुद्धि से जिस रूप का अभ्यास कर रहे हैं, वही रूप इन्हें मिलेगा। वाह! बड़ा अच्छा तुम्हारा भविष्य है। मैनें सुना है, पुराने ख़जानों पर साँपों का पहरा होता है। तुम सब धनी लोग वही साँप हो। फ़र्क इतना है कि तुम बननेवाले हो और वे बन गए हैं— वे तुमसे सिर्फ़ एक जन्म आगे हैं। उनके तुम्हारे बीच में केवल एक मृत्यु का पुल है। इसे पार किया कि बस, असली रूप पा गए।
है सफेद पगड़ी और सफेद अंगरखेवालो। हे टमटम, मोटर गाड़ियों में खिचड़नेवालो! हे अपाहिजो! अभागो! रोगियों! निपूतो! हीजड़ो! तुम पर मुझे दया आती है। किंतु तुम्हारा भविष्य देखकर मुझे संतोष होता है—सुख मिलता है।
मेरा बच्चा मर गया। उसे दूध नहीं मिला। मेरी स्त्री के स्तनों में जितना दूध था, वह सब पिला चुकी। जब निबट गया, तब लाचार हो गई। बाज़ार से मिला नहीं। पैसा नहीं था! बिना पैसे बाज़ार में कुछ नहीं मिलता। पहले जब संसार में बाज़ार नहीं था, घर थे, तब सबको सब कुछ मिलता था। चीज़ के होते हुए कोई तरसता नहीं था। अब खुल गए बाज़ार और बाज़ार में उन्हीं को मिलता है, जिनका बाज़ार है। बाज़ार है पैसे का। पैसे ही से बाज़ार है। बच्चा कई दिन सूखे मुँह सूखे स्तन चूसकर सिसकता रहा। अंत में ठंडा पड़ गया। मेरे प्यारे मित्र! तुमसे तो कुछ छिपा नहीं है। वही एक मेरा बच्चा था। अब मैं किसे देखूँ? अच्छा, दिखानो तो तुम्हारा बच्चा कितना मोटा हो गया है। हरे राम! साँप के बच्चे को तो देखो, कैसा फूला है! तुमने इसे इतना क्यों चराया है? इतना ख़ून यह क्या करेगा? इसे कितने दिन इस योनि में रखने का इरादा है? यह अपनी काँचली कब बदलेगा?
मेरी कुशल पूछते हो? ठीक है, वाजबी है। बहुत दिन से मिली नहीं थी। अच्छा सुनो। भयानक युद्ध में फँसा हुआ हूँ। इसी युद्ध में मेरे स्त्री-बच्चे ढह चुके हैं—एक भूखा रहकर और दूसरा रोगी रहकर। मैं भी रोगी हो गया हूँ। अब खाया नहीं जाता। चिंता ने जठराग्नि को बुझा दिया है। सिर झनझनाता रहता है। नींद मर गई है। उसकी लाश को तुम्हारे बच्चे चुरा ले गए हैं। पर ,खैर मुझे सोने की फ़ुर्सत भी नहीं। हींस भी नहीं है। युद्ध कर रहा हूँ— कंगाली से युद्ध कर रहा हूँ। दरिद्रता भीषण दाँत कटकटाकर असंख्य शस्त्र लिये झपट रही है। हाँ हाँ, अब तक परास्त किया है। यह युद्ध का मध्य भाग आ गया है। ठहरो, दो हाथ में साफ़ है। अभी जीतकर आता हूँ। सबर करो—सबर। तब तक तुम अपने बच्चे को मलाई खिलाओ। अजीर्ण बढाओ। बढ़ाओ। और मेरा युद्ध कौशल, वीरता देखनी हो, तो आओ मैदान में देखो, लड़ने को नहीं, देखने को। साँपों का लड़ने का काम नहीं है। वे तो अँधेरे में जहाँ पैर पड़ा, बस वहीं काट लेने के मतलब के हैं। अच्छा, जाने दो। मैं फ़तेह करके आता हूँ। देखो, जिस धन को, जिस सोने के ढेर को तुम छाती में छिपाए उसकी आराधना कर रहे हो, उसे माँ-बाप, भैया, लुगाई, चाचो, ताई, नानी- नाना समझ रहे हो, उसी पर, हाँ उसी पर चाहे—वह तुम्हारा कुछ ही क्यों न हो—बिना किसी लिहाज़ किए उसी पर—उसी ढेर की छाती पर पैर धरके तांडव नृत्य करूँगा। अपनी स्त्री की हड्डियों की ठठरियों की मैंने 'मोगली' बनाई है और अपने बच्चे की खाल से उसे मढ़ लिया है। यह है मेरा डमरू। वह बजेगा ढम-ढमाढम—दिग्दिगंत गूँज उठेंगे। फिर मेरा थिरक-थिरककर तांडव नृत्य होगा। हा! हा! हा! तांडव नृत्य होगा। फिर नाचकर, उसी ढेर का ठुकराकर, जूतों में कुचलकर फेंक दूँगा। उस पर थूक दूँगा। उस पर पेशाब कर दूँगा। तब जी चाहे तो ले जाना। लूटकर ले जाना, आँख बचाकर ले जाना। धन है, वह लात मारने से, थूकने से, अपवित्र, अपमानित तो हो नहीं जाएगा! उसकी रबड़ी, मिठाई, फल लाकर बच्चे को खिलाना। मोटा हो जाएगा! रंगत चढ़ जाएगी। और तुम्हारी स्त्री? हा! हा! हा! उस धन का चाँधरा उसके लिए परम कल्याणकारक होगा। वही हज़ार रुपया—उसमें से दान-धर्म में लगा देना। बस, स्वर्ग में तुम्हारे बाप तुम्हारे लिए द्वार खोले खड़े रहेंगे।
मगर ठहरो। ख़ुशी से उछल न पड़ना। यह लूट का माल देर से मिलेगा। अभी युद्ध भी विजय नहीं हुआ है। संभव है, इसी युद्ध में मेरी जवानी मारी जाए। उसी के सिर तो इस युद्ध का सेहरा है! वही तो इस युद्ध का सेनापति है! उसके चारों ओर गोली बरस रही है। यदि वह मारी गई और तब विजय हुई, तो उसके अनंतर तांडव नृत्य करने में भी कुछ समय लगेगा। ओढ़ने को रक्त भरी ताज़ी खाल चाहिए, और वह भी हाथी की! पर मैं वह किसी काले रंग के भारी सेठ की निकालूँगा, रुपया देकर मोल ले लूँगा। मेरे सफ़ेद केश, दंतहीन मुख, उस पर सज जाएगा। एक बार नाचकर मैं उसे ठोकर मार दूँगा। फिर जिसके भाग्य में हो, वह उसे ले जाए।
मेरी यह विजय-वीरता की कहानी जो सुनेगा, उसे साँप का ज़हर नहीं चढ़ेगा। मेरी शपथ देने से साँप का विष उतर जाएगा। जो साँप मनुष्य काः रूप धरे छल से धन पर बैठे हैं और जो धन निकम्मा पड़ा-पड़ा जंग खा रहा है और उनके डर से जो लोग, बालक, स्त्रियाँ शरीर और लज़्ज़ा की रक्षा तक करने को तरसती हैं, पर उसमें से नहीं ले सकती, मेरे नाम की दुहाई लेते ही, वे सब काले साँप बन जाएगें और क्षण-भर में भाग जाएगें| उस धन से भूखे अन्न लेंगे, बच्चे दूध लेंगे, रोगी ओषधि लेंगे, प्यासे जल लेंगे और दुखी सुख लेंगे।' इतने पर भी जो शेष बचेगा, वह मेरी दिवंगत आत्मा का होगा। विद्वान् लोग मेरी आत्मा की शांति के लिए प्रतिवर्ष भाद्रपद बदी चौथ को उस धन पर एक, दो, तीन, चार, दस, बीस, पचास, सौ, हज़ार, लाख, करोड़, अरब, खरब, असंख्य जूते लगावेंगे! अहा हा! कब होगा वह मेरा तांडव नृत्य! वह युद्ध का यौवन फूटा पड़ता है। हूँ—हूँ वह मारा!! हूँ! हूँ!
- पुस्तक : हिंदी निबंध की विभिन्न शैलियाँ (पृष्ठ 161)
- संपादक : मोहन अवस्थी
- रचनाकार : चतुरसेन शास्त्री
- प्रकाशन : सरस्वती प्रेस
- संस्करण : 1969
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