प्रकृति-सौंदर्य
prakrti saundarya
हरिणचरणक्षुण्णोपांता सशाद्वलनिर्झराः,
कुसुमकलितैर्विष्वग्वातैस्तरंगितपादपाः॥
विविधविहगश्रेणीचित्रस्वनप्रतिनादिता,
मनसि न मुद दध्यु. केपां शिवा वनभूमयः॥
—सुभाषित।
भावार्थ—जहाँ हरी-हरी दूब का गलीचा सा बिछा है, जिस पर हिरनों के खुरों के चिह्न चिह्नित हैं, निकट ही सुंदर झरने बह रहे हैं, कमनीय कुसुमों के मधुर सुगंध से सुगंधमय पवन बह रही है और तरुवर हिल रहे हैं, उनपर तरह-तरह के विहंगम अपनी तरह-तरह की मंजुल ध्वनि से संपूर्ण प्रदेश को प्रतिनादित कर रहे हैं, ऐसी परम रमणीय वनस्थली किसके मन को आनंदित न करेगी?
प्रकृति की सुषमा सचमुच सुंदर है परंतु उसे समझने की शक्ति थोड़े ही लोगों में होती है। प्रचंड ऊर्मिमय गंभीरघोषी महासागर का प्रथम दर्शन करने, निर्जन और घोर अरण्य में—जहाँ चिड़ियाँ पंख नहीं मारती—प्रथम ही प्रवास करने, पृथ्वी के ऊँचे पहाड़ों की चोटियों के स्फोट के कारण महाभयंकर ज्वालामुखी के डरावने मुख से पृथ्वी के पेट से वह निकले हुए पत्थर, मिट्टी, धातु इत्यादि पदार्थों के रस के प्रवाह को प्रथम ही देखने अथवा नितांत शीत के कारण बर्फ़ से ढके हुए स्फटिकमय प्रदेश में चलने से जो नया और अपूर्व अनुभव प्राप्त होता है उसका कुछ अकथनीय संस्कार मन पर होता है। ये चमत्कारमयी प्राकृतिक घटनाएँ मानो प्रकृतिदेवी की लीलाएँ हैं। इनके देखनेवाले को ऐसा मालूम होता है कि मानो वह किसी नए जगत में खड़ा है और उसकी कल्पना और वर्णन-शक्ति स्तंभित हो गई है।
प्रकृति के सौंदर्य को समझने के पूर्व हमें उसे देखने का अभ्यास करना चाहिए। प्रकृति की तरफ ध्यान न देने की अपेक्षा उसे देखना सहज है और जिस वस्तु की ओर मनुष्य देखे उसके रहस्य को जान लेना तो मनुष्य का स्वभाव ही है। सौंदर्य-शास्त्र का ज्ञाता रस्किन लिखता है—हमारी जीवात्मा इस भूमि पर एक काम सर्वदा किया करती है अर्थात प्रकृति- निरीक्षण, और जो कुछ वह देखती है उसका वर्णन करती है। ज्ञानवान मनुष्य की आँखें हमारी आँखों से कुछ भिन्न नहीं हैं, परंतु हमें जो नहीं दिखाई देता वह उसे दिखाई देता है। कहा भी है—
वदन, श्रवण, हग, नासिका, सब ही के इक ठौर।
कहियो, सुनिबो, देखिको, चतुरन को कछु और॥
जो कोई ध्यानपूर्वक देखने का अभ्यास करेगा उसे वर्षाऋतु में हर घड़ी एक नया दृश्य दिखाई देगा। खेत में या जंगल में खड़े होकर देखने में अपूर्व वन-शोभा दिखाई पड़ती है। आकाश घड़ी-घड़ी रंग बदलकर अपनी निर्मल शोभा और घनों की घटा की छाया भूमि पर डालता हुआ दिखाई देगा।
प्राकृतिक सौंदर्य को देख आनंदित होना मन का एक उत्तम गुण है। इस गुण का बीज यदि हम नष्ट कर देंगे तो हमारे चरित्र पर उसका अनिष्टकारक परिणाम होगा। इसलिए जिसे प्रकृति की सुंदरता देखकर आह्लाद नहीं होता उसका दुर्जन होना साधारण बात है, किंतु प्राकृतिक सौंदर्य से प्रेम रखनेवाला मनुष्य हंसमुख, आनंदी और प्रसन्नचित्त होता है इसमें संदेह नहीं।
विकसितसहकारभारहारि-परिमल-पुंजित-गुंजित-द्विरेफः।
नव-किसलय-चारु-चामर श्रीहरति मुनेरपि मानसं वसंतः॥
भाव—आम्र मंजरी को सुगंध के चारों ओर फैल जाने से भृंगवृंद गुंजार करते हुए उन पर मोहित हो जाते हैं। वृक्षों के नवीन कोमल पत्ते फूटकर सुंदर चंवर की भाँति सुहाते हैं, ऐसे वसंत की शोभा मुनिजनों के भी मन को हर लेती है, 'फिर मनुष्य का कहना ही क्या है..?
कूलन में केलिन कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलित कलीन किलकत है।
कहै पदमाकर पराग हू में पौन हू में,
पाँतिन में पीकन पलाशन पगंत है।
द्वार में दिशान में दुनी में देश देशन में,
देखों द्वीप द्वीपन में दीपति दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नलिन में बेलिन में,
बनन में बागन में बगरयो बसंत है॥
यह वसंत-वर्णन अद्वितीय है। अपने प्राचीन कवियों के सृष्टि-चमत्कारों के वर्णन जहाँ-तहाँ ऋतु वर्णन के रूप में देखने से उनकी प्रकृति के सूक्ष्म अवलोकन की शक्ति का परिचय मिलता है।
फूलों को कवि प्रथम स्थान देते हैं। सचमुच वनश्री का दृश्य कल्पना के सम्मुख पाते ही प्रथम फूलों का दर्शन होता है। ऐसा जान पड़ता है कि पुष्पों को प्रकृति देवी ने मनुष्य-जाति के ही सुख के लिए बनाया है। बालक फूलों पर बहुत प्रीति करते हैं। सुंदर और शांतिमय आनंद देनेवाले फूलों पर बागवान, कृषक ऐसे ग़रीब लोग भी प्रीति करते हैं। ऐश आराम में पड़े हुए विषयी लोग फूल तोड़कर अपने उपभोग में लाते हैं। नागरिकों और ग्रामीणों की फूलों पर एक सी प्रीति होती है। हर एक ऋतु के फूल अलग-अलग होते हैं। फूलों के उद्भव का समय वसंत, ग्रीष्म और शरद ऋतु है, तथापि जंगलों में, पहाड़ों में, वनस्थली में, समुद्रतीर पर सर्व काल में भाँति-भाँति के पुष्प खिलते रहते हैं। कुसुम-दर्शन से केवल नयनों को ही सुख नहीं होता उनसे ज्ञान और उपदेश प्राप्त करनेवाले के लिए उपदेश भी मिल सकता है। पुष्पों के मनोहर रंग और विचित्र आकृतियों को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी विशेष और बड़े उद्देश्य के लिए ईश्वर ने उन्हें बनाया है।
फूलों के समान वृक्ष और लताएँ भी बड़ी रमणीय मालूम होती है। वे प्राकृतिक दृश्य के सौंदर्य के पोषक हैं। बड़े-बड़े वृक्षों में छोटे पुष्प लगते हैं और छोटे वृक्षों और वन-लताओं में बड़े फूल आते हैं। उनकी शोभा निराली है। वृक्षों की पल्लव श्री सदा सर्वकाल में अपनी प्रशांत शोभा बनाए रखती है और हर एक वृक्ष एक सुंदर चित्र-सा बना रहता है। शीत प्रदेश के वन ग्रीष्म ऋतु के दिनों में बहुत शोभायमान दिखाई पड़ते हैं, परंतु जाड़े के दिनों में जब बर्फ़ पड़ती है, तब वृक्षों के पत्ते झड़ जाते हैं और 'पल्लव-रहित शाखाओं पर बर्फ़ का मुलम्मा चढ़ जाता है। वह दृश्य अपने ढंग का निराला होता है। उष्ण प्रदेशों के अरण्यों की और जंगलों की शोभा इससे बहुत भिन्न होती है। वहाँ वृक्ष सीधे, ऊँचे गगनचुंबी दिखाई पड़ते है। नीचे कुछ दूर तक एक बड़ा सरल स्कंध होता है। उसके आसपास का भाग सघन छाया के कारण अत्यंत शीतल और रम्य दिखाई देता है। ऊपर घनी शाखाओं का जाल मेंघाडंबर के समान फैला होता है। इन सघन जंगलों में रविकिरणों की अगवानी करने की इच्छा से मानो सब कुछ ऊपर ही को चढ़ता हुआ दिखाई देता है। कुछ जानवर वृक्षों पर चढ़ जाते हैं। पक्षी तो तरुवरों के शिखरों की ऊँची से ऊँची डालियों पर बैठे चहक-चहक कर मधुर गीत गाया ही करते हैं। साँप, अजगर से रेंगनेवाले प्राणी भी ऊपर चढ़ जाते हैं। बेल और लताएँ तो वृक्षों से लिपटती हुई मानो प्रेमालिंगन का सुख उठा रहीं हैं और ऊपर तक बढ़ी
चली जाती हैं। इनकी इतनी अधिक जातियाँ उष्ण प्रदेशों में होती है जितनी अन्य देशों में देखने में नहीं आती। दक्षिण के अरण्यों का वर्णन जो महाकवि भवभूति ने किया है वह उष्ण प्रदेशों की वन-शोभा का उत्तम दर्शक है—
ये गिरि सोय जहाँ मधुरी मदमत्त मयूरनि की धुनि छाई।
या वन में कमनीय मृगानि की लोल कलोलनि डोलति भाई॥
सोहै सरित्तट धारि धनी जलवृक्षन की नवनील निकाई।
मंजुल मंजु लतानि की चारु चुभीली जहाँ सुखमा सरसाई॥
लसत सघन श्यामल विपिन, जहें हरषावत अंग।
करि कलोल कलरव करत, नाना भाँति बिहंग॥
फल-भारन सों झालरे, हरे वृक्ष मुकि जाहि।
झिलिमिलात्ति माँई सुतिन, गोदावरि जल माहिं॥
जहाँ बाँस-पुंज कंज कलित कुटीर माहि,
घोरत उलूक भीर घोर घुघियायकैं॥
तासु धुनि-प्रतिधुनि मुनि काककुल मूक,
भय-बस लेत ना उड़ान कहुँ धायकैं॥
इत-उत डोलत सु बोलत है मोर, तिन,
सोर सन सरप दरप विसरायके॥
परम पुरान सिरीखंड-तरु-कोटर में,
मारत स्वकुंडली सिकुरि घबरायकैं॥
जिन कुहरनि गदगद नदति, गोदावरि की धार।
शिखर श्याम घन सजल सों, ते दक्खिनो पहार॥
करत कुलाहल दूरि सो, चंचल उठत उतंग।
एक दूसरी सो जहाँ, खाई चपेट तरंग॥
अति अगाध विलसत सलिल, छटा अटल अभिराम।
मनभावन पावन परम, ते सरि संगम धाम॥
—उत्तररामचरित
कितनी ही जंगली जातियाँ वृक्षों को देवता मानकर पूजती हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जब हम अकेले अरण्यों में जाते हैं तब यदि कोई एक वृक्ष हमसे वार्तालाप करने लगे तो हमें उसका कुतूहल होगा और आनंद भी होगा। दिन के समय किसी घोरतर अरण्य में जाने से एक तरह का भय भी मालूम होता है। जहाँ तरुपल्लवश्री का साम्राज्य है वहाँ पानी का स्थल अवश्य ही निकट होता है। नदी, सरोवर, निर्झर इत्यादि जहाँ होते हैं वहाँ की वनज सुंदरता अत्यंत गंभीर होती है। मेघमंडल में घन उमड़कर नीलाकाश की शोभा बढ़ाते हैं। प्रातःकाल के अंधकारमय कुहरे में सरोवर और नदियों का निर्मल जल स्फटिक के समान चमकीला दिखाई पड़ता है। पानी उद्भिद जगत का जीवन है। पानी के आधार पर बड़े-बड़े मैदान हरे-भरे दिखाई देते हैं। पानी के नित्य प्रवाह से नर्मदा नदी के काटे हुए जो संगमरमर के बड़े-बड़े पर्वत और पत्थर जबलपुर जिले में भेड़ाघाट के पास खड़े हैं, उनसे अद्वितीय दृश्य और प्रकृति की कार्य-कुशलता का परिचय मिलता है—महानदी का दर्शन तथा विस्तीर्ण सरोवर का अवलोकन थके हुए पांथ को विश्राम देता है। जलाशय में अवगाहन अत्यंत श्रमहारक और तापनिवारक है। जलागार के सुख का वर्णन महाकवि कालिदास ने बहुत हो मनोहर किया है—
सुभगसलिलावगाहाः पाटलसंसर्ग-सुरभि-वनवाताः।
प्रच्छाय सुलभनिद्रा दिवसाः परिणामरमणीयाः॥
भाव—सुंदर, स्वच्छ और गहरे जलाशय में मनमाना डूब-डूबकर नहाना सुख देता है। वनोपवनों में से पाटल पुष्पों की सुगंधि से भरी मंद, शीतल पवन आनंद देती है। गहरी छाया में नींद तुरंत आ जाती है और सायंकाल का समय नितांत रमणीय होता है। ऐसे ग्रीष्म काल के दिन होते हैं।
समुद्र-यात्रा करनेवालों को समुद्र बड़ा प्रिय मालूम होता है। आकाश की अपेक्षा समुद्र, अधिक स्वाधीन और ऐश्वर्य-शाली है। समुद्र का किनारा अनंत जीवों से तथा वनस्पति से भरा होता है। उनमें से कितने ही प्राणी ज्वारभाटे की राह देखते रहते हैं और कितने ही ऐसे होते हैं जिन्हें समुद्र की लहरों ने समुद्र से बाहर ज़ोर से निकालकर फेंक दिया है। समुद्र-तट पर खड़े रहने से समुद्र के निकट रहनेवाले पक्षियों का कर्णविदारी भयकारी शब्द सुनाई देता है। समुद्र की वायु का स्पर्श होते ही शरीर में फुर्ती पैदा होती है और काम करने की इच्छा हो आती है। समुद्र का स्वरूप सदा बदलता रहता है। प्रातःकाल से सायंकाल तक उसमें कितने ही उलट-फेर हो जाते हैं। कल्पना कीजिए कि हमारा निवास समुद्र-तट पर है और हम अपने मकान की खिड़की में बैठे नीचे देख रहे हैं। खिड़की के नीचे ही छोटा मैदान है और उसके आगे पृथ्वी नीची होती चली गई है, सामने कोसों की दूरी तक पीली रेत के सुंदर टीले चले गए हैं। इधर भगवान मरीचिमाली उदित होकर अपनी झिलमिलाती हुई किरणों से समुद्र के विस्तीर्ण प्रदेश को प्रकाशित कर रहे हैं। जैसे-जैसे सूर्यनारायण ऊपर आते जाते हैं, समुद्र प्रदेश प्रकाशित होता जाता है। दूर के उन्नत भाग कुहरे के धन-पटल से ढक जाते हैं। लगभग नौ बजे के समय समुद्र का रंग फीका होने लगता है। आकाश नीले रंग का होने लगता है और जहाँ-तहाँ धुनी हुई स्वच्छ, रूई के गालों की तरह फैले हुए बादल दिखाई देते हैं। सामने के पथरीले प्रदेश की तराई में खेत, जंगल, पत्थरों की काने और परतें दिखाई देती हैं। टूटी-फूटी चट्टानें विचित्र छटा दिखाती हैं। जहाँ प्रकाश नहीं पड़ता वहाँ का भाग श्यामल छाया में धुंधला दिखाई पड़ता है। दुपहर के समय समुद्र अपना रंग बदल लेता है। वह बिलकुल गहरा नीलांबर पहने दिखाई देता है और सामने के द्वीप में छायामय अरण्य, हरी दूब से भरे मैदान और पीले रंग के खेत साफ़ देखने में आते हैं। टूटी चट्टानों के भाग भी स्पष्ट झलकते हैं और मछुओं की डोगियाँ और काले पाल दृष्टिगोचर होते हैं।
समुद्र का यह स्वरूप बहुत समय तक नहीं टिकता। अचानक आकाश में बादल छा जाते हैं। हवा ज़ोर से बहने लगती है और तूफ़ान के चिह्न दिखाई देते है। वृक्षों के पत्तों पर गिरती हुई पानी की बूँदों की टप-टप आवाज़ सुनाई देती है और सामने का किनारा मानो तूफ़ान के भय से छिप जाता है। देखते-देखते समुद्र का रंग काला हो जाता है। वह खोलता हुआ गंभीर गर्जन करता है। जब वह शांत हो जाता है तब फिर घननील कलेवर धारण करता है और सूर्य के अस्त होने के पूर्व उस पर धुंधलापन छा जाता है। पर अस्तभानु के समय फिर एक नई सुनहरी छटा से उज्ज्वल और चमकीला बन जाता है। इस प्रकार समुद्र के रंग दिनभर बदलते ही रहते हैं।
कभी तूफ़ान समुद्र की शोभा में रात्रि के समय भी भाँति-भाँति के परिवर्तन होते रहते हैं। कभी घना अँधेरा छा जाता है, कभी अनंत तारागणों से शोभित प्रकाश के सामने वह प्रशांत दर्पण की नाईं स्थिर दिखाई देता है, कभी चंद्र की सुंदर चाँदनी में सारा विश्व धुलकर धवल और शीतल बन जाता है। कभी तूफ़ान के समय आकाश में इंद्रधनुष दिखाई देता है। इस इंद्रधनुष के अत्यंत सुंदर और प्राकृतिक रंगों के मेल को देख नेत्र सुखी हो जाते हैं। यह एक अद्वितीय वस्तु है। जिस रंगरेज़ ने इंद्रधनुष के रंग को रँगा है वह कोई अद्वितीय कारीगर है।
रंगों के ज्ञान का महत्व भली भाँति हमारी समझ में नहीं आता। यदि रंग का ज्ञान होता तो छाया, आकार, प्रकाश इत्यादि की सहायता से जुदे-जुदे पदार्थों की पहचान कठिन हो जाती। तथापि जिस समय हम अपने आपसे यह प्रश्न करते हैं कि सौंदर्य क्या वस्तु है, तो तुरंत ही सहज रीति से हमारे मन में भिन्न-भिन्न रंगों के पक्षी, चिड़ियाँ, कीट, पतंग, पुष्प, रत्न, आकाश, इंद्रधनुष इत्यादि चमत्कारिक पदार्थों की कल्पना होती है।
प्रकृति देवी ने हमें जो ज्ञानेंद्रियाँ दी हैं यह उसकी हम पर बड़ी कृपा है, बड़ा उपकार है। कान न होते और श्रवण की शक्ति न होती तो संसार का सुरवर संगीत, प्रेमीजनों का मधुर वार्तालाप और वाद्यों की मनोहर ध्वनि हमारे लिए कुछ नहीं थी। हमारे नेत्रों की रचना में एक तिल भर फ़र्क़ हो जाता तो इस विशाल विश्व का वैभव, पदार्थों के सुंदर आकार, रंगों की चमक-दमक, प्रकृति की वन-शोभा, पर्वत, नदी, सरोवर इत्यादि के प्राकृतिक दृश्य देखने से हम वंचित रह जाते। रसनेंद्रिय के अभाव से सुंदर सुस्वादु खाद्य पदार्थ हमारे लिए नष्ट हो जाते इस प्रकार प्रकृति के संपादित किए हुए संपूर्ण सुख-साधनों का उपभोग हमें कदाचित् न मिलता।
सौंदर्योपासक रस्किन ने लिखा है कि पर्वतों की ओर देखते ही मालूम होता है कि उन्हें ईश्वर ने केवल मनुष्य ही के लिए रचा है। पर्वत मनुष्यों की शिक्षा के विद्यालय, भक्ति के मंदिर, ज्ञान की पिपासा तृप्त करने के लिए ज्ञाननिर्झरों से पूर्ण, ध्यानस्थ होने के लिए प्रशांत और निर्जन मठ तथा ईश्वराराधन के लिए पवित्र देवालय हैं। इन प्रकांड देवालयों में चट्टानों के द्वार, मेघों के फ़र्श, ऊँचे गिरिशिखरों से गिरते हुए जलप्रपातों की गर्जना का संकीर्तन, बर्फ़ के ढेरों से बनी हुई यज्ञ-वेदियाँ और स्थंडिल तथा अनंत तारकपुंजों से विशोभित नीले आकाश का शामियाना है।
है विश्वमंदिर विशाल सुरम्य सारा।
अत्यंत चित्तहर निर्मित ईश द्वारा॥
जो लोग प्रेक्षक यहाँ पर आ गये हैं।
गंभीर विश्व लख विस्मित वे हुए हैं॥
—कुसुमांजलि
आकाश की सुंदरता मन को मुग्ध कर देती है। जिस समय मन उदास हो और उद्विग्न हो उस समय अपने मन को प्रमन्न करने के लिए सुंदर विशाल आकाश-मंडल की ओर देखो। यदि दुपहर का समय है तो आकाश के नील मंडप में इतस्तत फैले हुए बादल उसे विचित्र बनाते हैं। प्रातःकाल और सायंकाल के समय के आकाश का दर्शन तो सर्वदा ही अवलोकनीय होता है। रात्रि का समय है तो आकाश के ऐश्वर्य का कहना ही क्या है! वह तेजस्वी तारागणों से भरा मानों रत्नो से भरे थाल की भाँति दिखाई देता है। नक्षत्रों का नियमित अस्तोदय, उनका भ्रमण, उनकी गति इत्यादि देखकर कुतुहल होता है और ईश्वर की अनंतता और विश्व निर्माण-शक्ति देखकर उसके विषय में पूज्य भाव पैदा होता है। जब हम तारों की ओर देखते हैं तो वे हमें स्थिर और शांत दिखाई देते हैं परंतु वे उस समय कल्पनातीत वेग से यात्रा करते रहते हैं। यह चमत्कार स्वप्न में भी हमारी समझ में नहीं आता। संपूर्ण आकाश-मंडल में दस करोड़ से भी अधिक तारे हैं। सिवाय इसके कितने ही ग्रहों के उपग्रह भी हैं। इतना ही नहीं किंतु जिनका अब तेज़ नष्ट हो गया है ऐसे अनेक गोले आकाश में हैं। वे अपने समय में सूर्य के समान प्रकाशमान थे, परंतु अब तेजहीन और शीतल हो गए हैं। एक वैज्ञानिक कहता है कि हमारा सूर्य भी लगभग एक करोड़ सत्तर बरस के बाद वैसा ही तेजहीन हो जाएगा। धूमकेतु अर्थात पुच्छल तारे भी आकाश में हैं। उनमें से थोड़े ही दूरबीन के बिना दिखाई पड़ सकते हैं। इनको छोड़ आकाश में भ्रमण करनेवाले अनंत तारापुंज हैं जो हमारी दृष्टि से बाहर हैं। तारों की अनंत संख्या को देख मनुष्य कुंठित हो जाता है। फिर उनके विशाल आकार और एक दूसरे की दूरी का ज्ञान होने पर उसका क्या हाल होता है, इसका पूछना ही क्या है। समुद्र अत्यंत विस्तृत और गहरा है और उसे असीम कहने की प्रथा है। परंतु आकाश से यदि समुद्र की तुलना की जाए तो समुद्र क्षुद्र प्रतीत होता है। महाकाय बृहस्पति और शनि की तुलना पृथ्वी से कीजिए तो पृथ्वी बिलकुल छोटी मालूम होगी और सूर्य से उन दो ग्रहों का साम्य किया जाए तो सूर्य के सामने वे बिल्कुल छोटे दिखाई देंगे। संपूर्ण सूर्यमाला से यदि अपने नित्य के सूर्य की तुलना की जाए तो वह कुछ भी नहीं है। सिरियस नामक एक ग्रह इस सूर्य से भी हज़ारों गुना विशाल और लाखों कोस दूर है। यह सूर्यमाला आकाश के एक छोटे से प्रदेश में घूमती रहती है। इस सूर्यमाला के चारों ओर दूसरी ऐसी ही बड़ी-बड़ी ग्रहमालाएँ भ्रमण कर रही हैं। नक्षत्रों में कितने ही इतनी दूरी पर हैं कि प्रकाश की गति एक सेकंड में एक लाख अस्सी हज़ार मील होने पर भी उनका प्रकाश हमारी पृथ्वी तक पहुँचने के लिए बरसों का समय लगता है। इन नक्षत्रों के परे और भी न जाने कितने तारे हैं परंतु वे अत्यंत दूर हैं, इस कारण नज़र नहीं आते। दूरबीन से देखने पर भी वे कुहरे की तरह धुंधले दिखाई पड़ते हैं यद्यपि वैज्ञानिकों ने विश्व की अनंतता में घुसकर बहुत कुछ चमत्कारों का पता लगाया है परंतु उसका पार नहीं पाया है। ये चमत्कार चित्त को हरनेवाले और मनुष्य के आनंद प्रवाह के नित्य बहनेवाले झरने हैं। इसलिए इन चमत्कारों के अनुभव से संसार के क्षुद्र दुःख और बाधाओं की परवा नहीं करनी चाहिए।
- पुस्तक : हिंदी निबंधमाला (पहला भाग ) (पृष्ठ 44)
- संपादक : श्यामसुंदर दास
- रचनाकार : गणपति जानकीराम दूबे
- प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा
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