मैंने यह सोचा है कि अब मैं अपनी बातें लिखा करूँ। उनमें मेरे कर्म-जगत् के साथ मेरे भाव जगत् की भी चर्चा हो। सभी के पास यही तो एक विषय है जो दूसरों के लिए अपूर्व है। मेरा जीवन मेरा ही जीवन है। मैंने जो कुछ अनुभव किया है, वह अन्य के लिए संभव नहीं है। क्षुद्र होकर भी मनुष्य एक वृहत् जीवन में ही मिलकर परिपूर्ण होता है। हमारा जीवन कितना भी स्वार्थमय क्यों न हो, हम पद-पद पर यह अनुभव करते हैं कि एक होकर भी हम अनेक होते जाते हैं। जीवन में जो बात मुझको विलक्षण प्रतीत होती है, वह यही है कि सबसे पृथक् होकर भी एक व्यक्ति किस प्रकार सबसे संबद्ध हो जाता है। मैं भी यह देखता हूँ कि अपनी जीवन-यात्रा में एकाकी होकर भी मैंने कितनों को ही अपने घेरे में ला रखा है। यह सच है कि मेरे चरित्र में मेरे जीवन की ही झलक रहेगी, उसमें विश्व मानवता नहीं रह सकती। जो बातें मेरे जीवन में होती हैं, उन्हें मैं कलापूर्ण नहीं बना सकता। अपने कामों का उत्तरदायित्व मुझे अपने ऊपर ही लेना पड़ेगा। कल्पित पात्रों के लिए हम अपनी इच्छा के अनुसार परिस्थिति उत्पन्न कर उनके प्रति सहानुभूति जागृत करा सकते हैं। पर अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार परिस्थिति निश्चित नहीं कर सकता। मेरे जीवन का क्षेत्र क्षुद्र है, इसी कारण मेरी इच्छाएँ भी क्षुद्र हैं। मेरे कष्टों और असफलताओं में आदर्श की कोई गरिमा नहीं है। मेरे सुख और गौरव में भाव की उच्चता नहीं है। विभिन्न वासनाओं के उत्थान में मैं भावों का घात-प्रतिघात देखकर तटस्थ नहीं रह सकता। मुझे उन्हीं के कारण सुख और दुःख का अनुभव करना पड़ता है। तो भी मैंने यह निश्चय किया है कि आज मैं अपने ही जीवन की कथा लिखा करूँ।
अपने जीवन की बात तो लिखूँगा, पर उससे लाभ क्या है? जो मेरी महत्वाकांक्षा है वह स्वयं इतनी क्षुद्र है कि दूसरों को सुनकर विरक्ति होगी। अपने जीवन में मैंने जिनका विरोध किया अथवा जिनके कारण मैं चिंतित और त्रस्त हुआ वे अन्य लोगों के लिए उपेक्षणीय हैं। मेरे लिए जो स्पृहणीय हैं, वे दूसरों के लिए तिरस्करणीय हो सकते हैं। किसने मेरा अपमान किया, किसने मेरा मान किया, किसने कृपा की, किसने अकृपा की, इन बातों का क्या मूल्य है? फिर भी, उन्हें लिपिबद्ध करने के लिए मुझे इतना आग्रह क्यों है? क्यों मैं यह चाहता हूँ कि दूसरे लोग मेरी इन सब बातों को पढ़ें? मैं अपने क्षुद्र जीवन को इतनी महत्ता क्यों देना चाहता हूँ कि मेरे दैनिक जीवन की बातें साहित्य के अक्षय कोष में संचित रहे। बात यह है कि मेरी इच्छा है कि लोग साधारण मनुष्यों की क्षुद्र बातों को भी उनके यथार्थ रूप में देखें। कल्पना के भव्य भवन में क्षुद्रों का जीवन गौरवमय बनाया जा सकता है, पर उनमें सत्यता नहीं रहती। कल्पना के क्षेत्र में क्लेश, पीड़ा और यातना के निःश्वास और उच्छ्वास कुछ दूसरे ही ढंग के हो जाते हैं और यथार्थ जगत् में वे कुछ और ही ढंग के हो जाते हैं। कल्पना के क्षेत्र में तो हम लोग कितने ही स्कूल-मास्टरों के जीवन से परिचित हो चुके हैं। पर एक मास्टर के यथार्थ जीवन की यथार्थ बातें अब तक हिंदी में किसी ने लिखने की इच्छा नहीं की। अँग्रेज़ी के एक विज्ञ का कथन है कि साधारण व्यक्तियों को भी अपने जीवन का विवरण लिखना चाहिए। मानव-जीवन की परिस्थिति को समझने के लिए यह आवश्यक है। कि हम लोग यह जान लें कि अन्य लोगों की क्या अनुभूति है।
अपने जीवन की सभी छोटी-बड़ी घटनाओं को यदि लिखने बैठूँ तो शायद मेरी जीवन-कथा का अंत ही न हो सकेगा। प्रतिदिन कोई न कोई बात होती ही रहती है। उसमें विलक्षणता भले ही न हो, पर मेरे जीवन के घंटे तो उसी एक बात में केंद्रस्थ हो जाते हैं। यह सच है कि उन घंटों में से कितने ही घंटे उन आवश्यक कामों में व्यतीत हो जाते हैं जो आवश्यक होने पर भी उपेक्षणीय ही होते हैं। हम लोग नहाने-धोने, सोने-उठने, खाने-पीने और घर के काम-धंधे करने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। जिस बात के लिए हम स्वयं अपने हृदय में गौरव रखते हैं उसके लिए अधिक समय नहीं लगता। फिर भी वही एक बात हमारे दैनिक जीवन के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। मान अथवा अपमान, प्रेम अथवा विद्वेष, क्रोध अथवा अनुराग की वह छोटी-सी बात हमारे हृदय पर आघात करती है। इससे दिन-भर में वही एक बात हमारे लिए सबसे अधिक स्पृहणीय हो जाती है। मैं यह जानता हूँ कि मेरे जीवन में ये जो बातें होती हैं वे इतनी छोटी हैं कि लोग देखकर भी उन्हें नहीं देखते, पर मेरे हृदय में तो वही घर बना लेती हैं। समय के साथ हम लोगों के भावों में परिवर्तन हो जाता है। जो बात आज इष्ट है वही कुछ समय के बाद अनिष्ट हो जाती है। मैंने भावों का यह परिवर्तन कितनी ही बार देखा है और स्वयं अनुभव किया है। प्रेम विद्वेष में परिणत हुआ है और स्नेह घृणा में। जो कभी प्रशंसनीय होता है वह कभी निंदनीय हो जाता है। जो हमारा बंधु होता है वही कभी हमारा शत्रु बन जाता है। स्थिति बदलती है, व्यवहार बदलता है, ढंग भी कुछ का कुछ हो जाता है तो भी उन्हीं क्षणिक भावों और बातों को लेकर हम लोग अपने जीवन-पथ में अग्रसर होते हैं। अतएव वे मेरे लिए उपेक्षणीय नहीं हैं। यह सच है कि हम लोगों के जीवन में कोई वैचित्र्य नहीं रहता। प्रतिदिन वही झंझट, वही कष्ट, वही चिंता और वही काम होते रहते हैं। पर संसार में जो बड़ी-बड़ी घटनाएँ होती रहती हैं, उनका तो हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इन्हीं क्षुद्र कष्टों में लिप्त रहकर हम लोग अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
जीवन की इन सब यथार्थ बातों को लिखूँ तो किस तरह लिखूँ? कार्य-क्षेत्र अत्यंत क्षुद्र होने के कारण आत्मचरित्र तो लिखा नहीं जा सकता। अपने अतीत जीवन की बातें सोचने पर मुझे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि मेरे इन 52 वर्षों के जीवन में ऐसे दस-पाँच ही दिन आए हैं, जिन्हें मैं अपने लिए महत्त्वपूर्ण समझता हूँ। मैंने पाँच बार डायरी लिखने का प्रयत्न किया था पर चार दिनों से अधिक मैं नियमित रूप से कभी कुछ न लिख सका। डायरी लिखने में असमर्थ होकर मैंने यह निश्चय किया कि पत्रों के ही रूप में मैं अपने जीवन की बातें लिखा करूँ। किसी विज्ञ का कथन भी है कि साहित्य के क्षेत्र में जो कुछ नहीं लिख सकता वह 'पत्रकार' हो जाता है। पत्रों में सभी तरह की बातें लिखी जा सकती हैं। पर सबसे पहले कठिनता इस बात की हुई कि ये पत्र लिखूँ किसे? लिखने के लिए तो कई पत्र लिख चुका, पर लिखने के बाद बड़ी देर तक मैं यही सोचता रहा कि पत्र भेजूँ या न भेजूँ। तुम्हारे पास यदि पत्र भेजूँ और यदि तुमने उनके प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का भाव प्रकट किया तो पत्र भेजने से मुझे क्या लाभ हुआ? कम से कम मुझे यह तो मालूम होना चाहिए कि तुमने मेरे पत्रों को पढ़ा है। लेखकों का श्रम तभी तो सफ़ल होता है जब कोई एक भी उनकी रचनाओं को पढ़ता है। पर तुम्हारा उत्तर पाना मेरे लिए संभव नहीं, इसलिए मैं बड़ी देर तक चिंता में पड़ा रहा। अंत में मुझे गोर्की की एक कहानी का स्मरण आया। एक थी कुरूपा स्त्री। कुरूप होने के कारण किसी भी नवयुवक का प्रेम वह न पा सकी। तब उसने एक प्रियतम की कल्पना कर ली। वह अपने उसी कल्पित प्रियतम के पास किसी दूसरे से पत्र लिखाती थी। उन पत्रों को वह स्वयं अपने पास रख लेती थी और फिर अन्य किसी से उनका उत्तर लिखाकर, वह यह सोच लेती थी कि कुरूपा होने पर भी उस पर कोई प्रेम रखता है, उसको भी कोई प्रेम-पत्र देता है। इससे उसको सांत्वना मिल जाती थी, इसी से उसको सुख मिल जाता था। तब मैं भी क्यों न समझ लूँ कि तुम भी मेरी कल्पना की सृष्टि हो। मैंने अपने मन में तुम्हारी एक मूर्ति बना ही ली है, तब तुम्हें पत्र भेजने की क्या आवश्यकता और उसके उत्तर पाने की भी क्या चिंता है। मैं तुम्हें पत्र लिखूँगा और तुम्हारी ही ओर से मैं ही उन्हें पढ़ लूँगा और मन ही मन यह कल्पना कर लूँगा कि तुमने इन पत्रों को ख़ूब ध्यान से पढ़ा है; इन्हें पढ़कर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई; तुमने मेरी बड़ी प्रशंसा की है और मुझसे अनुरोध किया है कि ऐसे पत्र मैं बराबर लिखा करूँ, ये पत्र तो हिंदी-साहित्य के अक्षय कोष में स्थायी रत्न बनकर रहेंगे। मेरी सांत्वना के लिए क्या यह कम है? भले ही अब तुम मेरा तिरस्कार करो, पर अब तुम्हारे तिरस्कार, क्रोध, घृणा, उपेक्षा और विरक्ति का कोई प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ सकता। सत्य की कटुता पर कल्पना का मधुर प्रलेप लगाने से ही तो जीवन सह्य होता है। इसलिए अब मैं निश्चिंत होकर ये सब बातें लिख रहा हूँ। एक कवि ने कहा—“There is a pleasure in singing though none may hear.” ये सब बातें लिखने में मुझे भी कम आनंद नहीं होता। अब तुम इन्हें पढ़ो या न पढ़ो।
mainne ye socha hai ki ab main apni baten likha karun. unmen mere karm jagat ke saath mere bhaav jagat ki bhi charcha ho. sabhi ke paas yahi to ek vishay hai jo dusron ke liye apurv hai. mera jivan mera hi jivan hai. mainne jo kuch anubhav kiya hai. wo any ke liye sambhav nahin hai. kshaudr hokar bhi manushya ek brihat jivan mein hi milkar paripurn hota hai. hamara jivan kitna bhi svarthamay kyon na ho, hum pad pad par ye anubhav karte hain ki ek hokar bhi hum anek hote jate hain. jivan mein jo baat mujhko vilakshan pratit hoti hai wo yahi hai ki sabse prithak hokar bhi ek vekti kis prakar sabse sambaddh ho jata hai. main bhi ye dekhta hoon ki apni jivan yatra mein ekaki hokar bhi mainne kitnon ko hi apne ghere mein la rakha hai. ye sach hai ki mere charitr mein mere jivan ki hi jhalak rahegi, usmen vishv manavta nahin rah sakti. jo baten mere jivan mein hoti hain unhen main kalapurn nahin bana sakta. apne kamon ka uttardayitv mujhe apne upar hi lena paDega. kalpit patron ke liye hum apni ichha ke anusar paristhiti utpann kar unke prati sahanubhuti jagrit kara sakte hain. par apne jivan mein koi bhi vekti apni ichha ke anusar paristhiti nishchit nahin kar sakta. mere jivan ka kshaetr kshaudr hai, isi karan meri ichhayen bhi kshaudr hain. mere kashton aur asaphaltaon mein adarsh ki koi garima nahin hai. mere sukh aur gaurav mein bhaav ki uchchata nahin hai. vibhinn vasnaon ke utthaan mein main bhavo ka ghaat pratighat dekhkar tatasth nahin rah sakta. mujhe unhin ke karan sukh aur duःkh ka anubhav karna paDta hai. to bhi mainne ye nishchay kiya hai ki aaj main apne hi jivan ki katha likha karun.
apne jivan ki baat to likhunga, par usse laabh kya hai? jo meri mahatvakanksha hai wo svayan itni kshaudr hai ki dusron ko sunkar virakti hogi. apne jivan mein mainne jinka virodh kiya athva jinke karan main chintit aur trast hua ve any logon ke liye upekshanaiy hain. mere liye jo sprihanaiy hain, ve dusron ke liye tiraskarniy ho sakte hain. kisne mera apman kiya, kisne mera maan kiya kisne kripa ki, kisne akrpa ki, in baton ka kya mooly hai? phir bhi, unhen lipibaddh karne ke liye mujhe itna agrah kyon hai? kyon main ye chahta hoon ki dusre log meri in sab baton ko paDhen? main apne kshaudr jivan ko itni mahatta kyon dena chahta hoon ki mere dainik jivan ki baten sahity ke akshay kosh mein sanchit rahe. baat ye hai ki meri ichha hai ki log sadharan manushyon ki kshaudr baton ko bhi unke yatharth roop mein dekhen. kalpana ke bhavy bhavan mein kshudron ka jivan gauravmay banaya ja sakta hai, par unmen satyata nahin rahti. kalpana ke kshaetr mein klesh, piDa aur yatana ke niashvas aur uchchhvaas kuch dusre hi Dhang ke ho jate hain aur yatharth jagat mein ve kuch aur hi Dhang ke ho jate hain. kalpana ke kshaetr mein to hum log kitne hi school mastron ke jivan se parichit ho chuke hain. par ek master ke yatharth jivan ki yatharth baten ab tak hindi mein kisi ne likhne ki ichha nahin ki. angrezi ke ek vij~n ka kathan hai ki sadharan vyaktiyon ko bhi apne jivan ka vivarn likhna chahiye. manav jivan ki paristhiti ko samajhne ke liye ye avashyak hai. ki hum log ye jaan len ki any logon ki kya anubhuti hai.
apne jivan ki sabhi chhoti baDi ghatnaon ko yadi likhne baithun to shayad meri jivan katha ka ant hi na ho sakega. pratidin koi na koi baat hoti hi rahti hai. usmen vilakshanata bhale hi na ho, par mere jivan ke ghante to usi ek baat mein kendrasth ho jate hain. ye sach hai ki un ghanton mein se kitne hi ghante un avashyak kamon mein vyatit ho jate hain jo avashyak hone par bhi upekshanaiy hi hote hain. hum log nahane dhone, sone uthne, khane pine aur ghar ke kaam dhandhe karne mein adhik samay vyatit karte hain. jis baat ke liye hum svayan apne hirdai mein gaurav rakhte hain uske liye adhik samay nahin lagta. phir bhi vahi ek baat hamare dainik jivan ke liye sabse adhik mahattvapurn ho jati hai. maan athva apman, prem athva vidvesh, krodh athva anurag ki wo chhoti si baat hamare hirdai par aghat karti hai. isse din bhar mein vahi ek baat hamare liye sabse adhik sprihanaiy ho jati hai. main ye janta hoon ki mere jivan mein ye jo baten hoti hain ve itni chhoti hain ki log dekhkar bhi unhen nahin dekhte, par mere hirdai mein to vahi ghar bana leti hain. samay ke saath hum logon ke bhavon mein parivartan ho jata hai. jo baat aaj isht hai vahi kuch samay ke baad anisht ho jati hai. mainne bhavon ka ye parivartan kitni hi baar dekha hai aur svayan anubhav kiya hai. prem vidvesh mein parinat hua hai aur sneh ghrinaa mein. jo kabhi prashansniy hota hai wo kabhi nindniy ho jata hai. jo hamara bandhu hota hai vahi kabhi hamara shatru ban jata hai. sthiti badalti hai, vyvahar badalta hai, Dhang bhi kuch ka kuch ho jata hai to bhi unhin kshanaik bhavon aur baton ko lekar hum log apne jivan path mein agrasar hote hain. atev ve mere liye upekshanaiy nahin hain. ye sach hai ki hum logon ke jivan mein koi vaichitr nahin rahta. pratidin vahi jhanjhat, vahi kasht, vahi chinta aur vahi kaam hote rahte hain. par sansar mein jo baDi baDi ghatnayen hoti rahti hain, unka to hum par koi prabhav nahin paDta aur inhin kshaudr kashton mein lipt rahkar hum log apna jivan vyatit karte hain.
jivan ki in sab yatharth baton ko likhun to kis tarah likhun? karyakshaetr atyant kshaudr hone ke karan atmachritr to likha nahin ja sakta. apne atit jivan ki baten sochne par mujhe ye aspasht j~naat ho jata hai ki mere is 52 varshon ke jivan mein aise das paanch hi din aaye hain, jinhen main apne liye mahattvapurn samajhta hoon. mainne paanch baar Diary likhne ka prayatn kiya tha par chaar dinon se adhik main niymit roop se kabhi kuch na likh saka. Diary likhne mein asmarth hokar mainne ye nishchay kiya ki patron ke hi roop mein main apne jivan ki baten likha karun. kisi vij~n ka kathan bhi hai ki sahity ke kshaetr mein jo kuch nahin likh sakta wo patrakar ho jata hai. patron mein sabhi tarah ki baten likhi ja sakti hain. par sabse pahle kathinta is baat ki hui ki ye patr likhun kise? likhne ke liye to kai patr likh chuka, par likhne ke baad baDi der tak main yahi sochta raha ki patr bhejun ya na bhejun. tumhare paas yadi patr bhejun aur yadi tumne unke prati avaj~naa ya upeksha ka bhaav prakat kiya to patr bhejne se mujhe kya laabh hua? kam se kam mujhe ye to malum hona chahiye ki tumne mere patron ko paDha hai. lekhkon ka shram tabhi to safal hota hai jab koi ek bhi unki rachnaon ko paDhta hai. par tumhara uttar pana mere liye sambhav nahin, isliye main baDi der tak chinta mein paDa raha. ant mein mujhe gaurki ki ek kahani ka smarn aaya. ek thi kurupa istri. kurup hone ke karan kisi bhi navyuvak ka prem wo na pa saki. tab usne ek priytam ki kalpana kar li. wo apne usi kalpit priytam ke paas kisi dusre se patr likhati thi. un patron ko wo svayan apne paas rakh leti thi aur phir any kisi se unka uttar likhakar, wo ye soch leti thi ki kurupa hone par bhi us par koi prem rakhta hai, usko bhi koi prem patr deta hai. isse usko santvana mil jati thi, isi se usko sukh mil jata tha. tab main bhi kyon na samajh loon ki tum bhi meri kalpana ki sirishti ho. mainne apne man mein tumhari ek murti bana hi li hai, tab tumhein patr bhejne ki kya avashyakta aur uske uttar pane ki bhi kya chinta hai. main tumhein patr likhunga aur tumhari hi or se main hi unhen paDh lunga aur man hi man ye kalpana kar lunga ki tumne in patron ko khoob dhyaan se paDha hai; inhen paDhkar tumhein baDi prasannata hui; tumne meri baDi prashansa ki hai aur mujhse anurodh kiya hai ki aise patr main barabar likha karun, ye patr to hindi sahity ke akshay kosh mein sthayi ratn bankar rahenge. meri santvana ke liye kya ye kam hai? bhale hi ab tum mera tiraskar karo, par ab tumhare tiraskar, krodh, ghrinaa, upeksha aur virakti ka koi prabhav mujh par nahin paD sakta. saty ki katuta par kalpana ka madhur pralep lagane se hi to jivan sahy hota hai. isliye ab main nishchint hokar ye sahb baten likh rahi hoon. ek kavi ne kaha— “there is a pleasure in singing though none may hear. ” ye sab baten likhne mein mujhe bhi kam anand nahin hota. ab tum inhen paDho ya na paDho.
mainne ye socha hai ki ab main apni baten likha karun. unmen mere karm jagat ke saath mere bhaav jagat ki bhi charcha ho. sabhi ke paas yahi to ek vishay hai jo dusron ke liye apurv hai. mera jivan mera hi jivan hai. mainne jo kuch anubhav kiya hai. wo any ke liye sambhav nahin hai. kshaudr hokar bhi manushya ek brihat jivan mein hi milkar paripurn hota hai. hamara jivan kitna bhi svarthamay kyon na ho, hum pad pad par ye anubhav karte hain ki ek hokar bhi hum anek hote jate hain. jivan mein jo baat mujhko vilakshan pratit hoti hai wo yahi hai ki sabse prithak hokar bhi ek vekti kis prakar sabse sambaddh ho jata hai. main bhi ye dekhta hoon ki apni jivan yatra mein ekaki hokar bhi mainne kitnon ko hi apne ghere mein la rakha hai. ye sach hai ki mere charitr mein mere jivan ki hi jhalak rahegi, usmen vishv manavta nahin rah sakti. jo baten mere jivan mein hoti hain unhen main kalapurn nahin bana sakta. apne kamon ka uttardayitv mujhe apne upar hi lena paDega. kalpit patron ke liye hum apni ichha ke anusar paristhiti utpann kar unke prati sahanubhuti jagrit kara sakte hain. par apne jivan mein koi bhi vekti apni ichha ke anusar paristhiti nishchit nahin kar sakta. mere jivan ka kshaetr kshaudr hai, isi karan meri ichhayen bhi kshaudr hain. mere kashton aur asaphaltaon mein adarsh ki koi garima nahin hai. mere sukh aur gaurav mein bhaav ki uchchata nahin hai. vibhinn vasnaon ke utthaan mein main bhavo ka ghaat pratighat dekhkar tatasth nahin rah sakta. mujhe unhin ke karan sukh aur duःkh ka anubhav karna paDta hai. to bhi mainne ye nishchay kiya hai ki aaj main apne hi jivan ki katha likha karun.
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स्रोत :
पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-7 (पृष्ठ 135)
संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
संस्करण : 2007
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।