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कन्यादान

kanyadan

सरदार पूर्ण सिंह

और अधिकसरदार पूर्ण सिंह

    धन्य हैं वे नयन जो कभी-कभी प्रेम-नीर से भर आते हैं। प्रति दिन गंगा-जल में तो स्नान होता हो है परंतु जिस पुरुष ने नयनों की प्रेम-धारा में कभी स्नान किया है वही जानता है कि इस स्नान से मन के मलिनभाव किस तरह बह जाते हैं; अंतःकरण कैसे पुष्प की तरह खिल जाता है; हृदय-ग्रंथि किस तरह खुल जाती है; कुटिलता और नीचता का पर्वत कैसे चूर-चूर हो जाता है। सावन-भादों की वर्षा के बाद वृक्ष जैसे नवीन-नवीन कोपलें धारण किए हुए एक विचित्र मनोमोहिनी छटा दिखाते हैं उसी तरह इस प्रेम-स्नान से मनुष्य की आंतरिक अवस्था स्वच्छ, कोमल और रसभीनी हो जाती है। प्रेम-धारा के जल से सींचा हुआ हृदय प्रफुल्लित हो उठता है। हृदयस्थली में पवित्र भावों के पौधे उगते; बढ़ते और फलते हैं। वर्षा और नदी के नल से तो अन्न पैदा होता है; परंतु नयनों की गंगा से प्रेम और वैराग्य के द्वारा मनुष्य-जीवन को आग और बर्फ़ से बपतिस्मा मिलता है अर्थात् नया जन्म होता है—मानों प्रकृति ने हर एक मनुष्य के लिए इस नयन-नीर के रूप में मसीहा भेजा है, जिससे हर एक नर-नारी कृतार्थं हो सकते हैं। यही वह यज्ञोपवीत है जिसके धारण करने से हर आदमी द्विज हो सकता है। क्या ही उत्तम किसी ने कहा है:—

    हाथ ख़ाली मर्दमे दीदा बुतों से क्या मिलें। 
    मोतियों की पँज-ए-मिजगाँ में इक माला तो हो॥

    आज हम उस अश्रु-धारा का स्मरण नहीं करते जो ब्रह्मानंद के कारण योगी जनों के नयनों से बहती है। आज तो लेखक के लिए अपने जैसे साधारण पुरुषों की अश्रु-धारा का स्मरण करना ही इस लेख का मंगलाचरण है। प्रेम की बूँदों में यह असार संसार मिथ्या रूप होकर घुल जाता है और हम पृथ्वी से उठकर आत्मा के पवित्र नमो-मंडल में उड़ने लगते हैं। अनुभव करते हुए भी ऐसी धुली हुई अवस्था में हर कोई समाधिस्थ हो जाता है; अपने आपको भूल जाता है; शरीराव्यास न जाने कहाँ चला जाता है; प्रेम की काली घटा ब्रह्म-रूप में लीन हो जाती है। चाहे जिस शिल्पकार, चाहे जिस कला-कुशल-जन, के जीवन को देखिए उसे इह परमावस्था का स्वयं अनुभव हुए बिना अपनी कला का तत्त्व ज्ञान नहीं होता। चित्रकार सुंदरता को अनुभव करता है और तत्काल ही मारे ख़ुशी के नयनों में जल भर लाता है। बुद्धि, प्राण, मन और तन सुंदरता में डूब जाते हैं। सारा शरीर प्रेम-वर्षा के प्रवाह में बहने लगता है। वह चित्र ही क्या जिसको देख देखकर चित्रकार की आँखें इस मदहोश करने वाली ओस से तर न हुई हो। वह चित्रकारी ही क्या जिसने हज़ार बार चित्रकार को इस योग-निद्रा में न सुलाया हो।

    कवि को देखिए, अपनी कविता के रसपान से मत्त होकर वह अंत:करण के भी परे आध्यात्मिक नमो मंडल के बादलों में विचरण करता है। ये बादल चाहे आत्मिक जीवन के केंद्र हो, चाहे निर्विकल्प समाधि के मंदिर के बाहर के घेरे, इनमें जाकर कवि ज़रूर सोता है। उसका अस्थि-माँस का शरीर इन बादलों में घुल जाता है। कवि वहाँ ब्रह्म-रस को पान करता है और अचानक बैठे बिठाए श्रावण-भादों के मेघ की तरह संसार पर कविता की वर्षा करता है। हमारी आँखें कुछ ऐसी ही हैं। जिस प्रकार वे इस संसार के कर्ता को नहीं देख सकतीं उसी प्रकार आध्यात्मिक देश के बादल और धुँध में सोए हुए कलाधर पुरुष को नहीं देख सकतीं। उसकी कविता जो हमको मदमत्त करती है वह एक स्थूल चीज़ है और यही कारण है कि जो कलानिपुण जन प्रतिदिन अधिक से अधिक उस आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है वह अपनी एक बार अलापी हुई कविता को उस धुन से नहीं गाता जिससे वह अपने ताज़े से ताज़े दोहों और चौपाइयों का गान करता है। उसकी कविता के शब्द केवल इस वर्षा के दाने हैं। यह तो ऐसे कवि के शांतरस की बात हुई। इस तरह के कवि का वीररस इसी शांतरस के बादलों की टक्कर से पैदा हुई बिजली की गरज और चमक है। कवि को कविता में देखना तो साधारण काम है; परंतु आँख वाले उसे कहीं और ही देखते हैं। कवि की कविता और उसका आलाप उसके दिल और गले से नहीं निकलते वे तो संसार के ब्रह्म-केंद्र से आलापित होते हैं। केवल उस आलाप करने वाली अवस्था का नाम कवि है। फिर चाहे वह अवस्था हरे-हरे बाँस की पोरी से, चाहे नारद की वीरणा से, और चाहे सरस्वती के सितार से बह निकले। वही सच्चा कवि है जो दिव्य सौंदर्य के अनुभव में लीन हो जाए और लीन होने पर जिसकी जिह्वा और कंठ मारे ख़ुशी के रुक जाएँ, रोमांच हो उठे, निजानंद में मत्त होकर कभी रोने लगे और कभी हँसने। 

    हर एक कला निपुण पुरुष के चरणों में वह नयनों की गंगा सदा बहती है। क्या यह आनंद हमको विधाता ने नहीं दिया! क्या उसी नीर में हमारे लिए राम ने अमृत नहीं भरा! अपना निश्चय तो यह है कि हर एक मनुष्य जन्म से ही किसी न किसी अद्भुत प्रेम-कला से युक्त होता है किसी विशेष कला में निपुण न होते हुए भी राम ने हर एक हृदय में प्रेम-कला की कुंजी रख दी है। इस कुंजी के लगते ही प्रेम-कला की संपूर्ण सम्भूति अज्ञानियों और निरक्षरों  को भी प्राप्त हो सकती है।

    All arts are nothing but Samadhi applied to love.1

    कवि सदा बादलों से घिरा हुआ और तिमिराच्छन्न देश में रहता है। वहीं से चले हुए बादलों के टुकड़े माता-पिता, भ्राता-भगिनी, सुत, दारा इत्यादि के चक्षुओं पर आकर छा जाते हैं।
    मैंने अपनी आँखों से इनको छम-छम बरसते देखा है। जिस आध्यात्मिक देश में कवि, चित्रकार, योगी, पीर, पैगंबर, औलिया विचरते हैं और किसी और को घुसने नहीं देते, वह सारे का सारा देश इन आम लोगों के प्रेमाश्रुओं से धुल-घुल कर बह रहा है। आओ, मित्रों! स्वर्ग का आम नीलाम हो रहा है।

    Paradise is at auction and any body can buy it.2

    सर वाल्टर स्काट (Sir Walter Scott) अपनी लेडी ऑफ दि लेक” (Lady of the Lake) नामक कविता में बड़ी ख़ूबी से उन अश्रुओं की प्रशंसा करते हैं जो अश्रु पिता अपनी पुत्री को आलिंगन करके उसके केशों पर मोती की लड़ी की तरह बखेरता है। इन अश्रुओं को वे अद्भुत दिव्य प्रम के अश्रु मानते हैं। सच है, संसार के गृहस्थ मात्र के संबंधों में पिता और पुत्री का संबंध दिव्यप्रेम से भरा है। पिता का हृदय अपनी पुत्री के लिए कुछ ईश्वरीय हृदय से कम नहीं।

    पाठक, अब तक न तो आपको और न मुझे ही ऊपर की लिखी हुई बातों का ऊपरी दृष्टि से कन्या-दान के विषय से कुछ संबंध मालूम होता है। तो फिर लेखक ने सरस्वती के संपादक को नीली पेंसल फेरने का अधिकार क्यों न दिया। उसका कारण केवल यह है कि ऊपर और नीचे का लेख लेखक की एक विशेष देश-काल-संबंधी मनोलहरी है। पता लगे, चाहे न लगे कन्या-दान से संबंध अवश्यमेव है।

    एक समय आता है जब पुत्री को अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपने पति के घर जाना पड़ता है। 

    त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पतिवेदनम्।
    उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतेः। शु० यजु०

    आओ, आज हम सब मिलकर अपने पतिवेदन उस त्रिकालदर्शी सुगंधित पुरुष का यज्ञ करें जिससे, जैसे दाना पकने पर अपने छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही हम इस घर के बंधनों से छूटकर अपने कर अपने पति के अटलराज को प्राप्त हो।

    प्राचीन वैदिक काल में युवती कुँवारी लड़कियाँ यज्ञाग्नि की परिक्रमा करती हुई ऊपर को प्रार्थना ईश्वर के सिंहासन तक पहुँचाया करती थीं।

    हर एक देश में यह विछोड़ा भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। परंतु इस विछोड़े में त्याग अंश नज़र आता है। यूरोप में आदि काल से ऐसा रवाज चला आया है कि एक युवा कन्या किसी वीर, शुद्ध हृदय और सोहने नौजवान को अपना दिल चुपके-चुपके पेड़ों की आड़ में, या नदी के तट पर, या वन के किसी सुनसान स्थान में, दे देती है। अपने दिल को हार देती है मानो अपने हृत्कमल को अपने प्यारे पर चढ़ा देती है; अपने आपको त्याग कर वह अपने प्यारे में लीन हो जाती है। वाह! प्यारी कन्या तूने तो जीवन के खेल को हारकर जीत लिया। तेरी इस हार की सदा संसार में जीत ही रहेगी। उस नौजवान को तू प्रेम-मय कर देती है। एक अद्भुत प्रेम-योग से उसे अपना कर लेती है उसके प्राण की रानी हो जाती है। देखो! वह नौजवान दिन-रात इस धुन में है कि किस तरह वह अपने आपको उत्तम से उत्तम और महान् से महान् बनाए—वह उस बेचारी निष्पाप कन्या के शुद्ध और पवित्र हृदय को ग्रहण करने का अधिकारी हो जाए। प्रकृति ऐसा दान बिना पवित्रात्मा के किस को नहीं दे सकती। नौजवान के दिल में कई प्रकार की उमंगें उठती है। उसको नाड़ी-नाड़ी में नया रक्त, नया जोश और नया ज़ोर आता है। लड़ाई में अपनी प्रियतमा का ख़्याल ही उसको वीर बना देता है। 

    उसी के ध्यान में यह पवित्र दिल निडर हो जाता है। मौत को जीतकर उसे अपनी प्रियतमा को पाना है। 

    The Paradise is under the Shade of Swords.3

    ऊँचे से ऊँचे आदर्श को अपने सामने रखकर यह राम का लाल तन-मन से दिन-रात उसके पाने का यत्न करता है। और जब उसे पा लेता है तब हाथ में विजय का फुरेरा लहराते हुए एक दिन अकस्मात् उस कन्या के सामने आकर खड़ा हो जाता है। कन्या के नयनों से गंगा बह निकलती है और उस लाल का दिल अपनी प्रियतमा की सूक्ष्म प्राणगति से लहराता है, काँपता है, और शरीर ज्ञानहीन हो जाता है। बेबस होकर वह उसके चरणों में अपने आपको गिरा देता है। कन्या तो अपने दिल को दे ही चुकी थी; अब इस नौजवान ने आकर अपना दिल अर्पण किया। इस पवित्र प्रेम ने दोनों के जीवन को रेशमी डोरों से बाँध दिया—तन-मन का होश अब कहाँ है। मैं तू और तू मैं वाली मदहोशी हो गई। यह जोड़ा मानो ब्रह्म में लीन हो गया; इस प्रेम में क़ुदरत लेश मात्र नहीं होती। विक्टर ह्यगो (Victor Hugo) ने ले-मिज्राबल (Les Miserables) में मेरीयस (Marius) और कौसट (Cosett) के ऐसे मिलाप का बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है। चाँदनी रात है। मंद-मंद पवन चल रही है। वृक्ष अजीब लीला में आस-पास खड़े हैं। और यह कन्या और नौजवान कई दिन बाद मिले हैं। मेरीयस के लिए तो कुल संसार इस देवी का मंदिर-रूप हो रहा था। अपने हृदय की ज्योति को प्रज्वलित करके उस देवी की वह आरती करने आया है। कौसट घास पर बैठी है। कुछ मीठी-मोठी प्रेम भरी बातचीत हो रही है। इतने में सरसराती हवा ने कौसर के सीने से चीर उठा दिया। ज़रा सी देर के लिए उस बर्फ़ की तरह सफ़ेद और पवित्र छाती को नग्न कर दिया। मगर मेरीयस ने फ़ौरन अपना मुँह परे को हटा लिया। वह तो देवी-पूजा के लिए आया है; आँख ऊपर करके नहीं देख सकता।

    रोमियो और जूलियट नामक शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक में जूलियट ने किस अंदाज़ से अपना दिल त्याग दिया और रोमियो के दिल की रानी हो गई!

    वे क़िस्से-कहानियाँ जिनमें नौजवान शाहज़ादे अपना दिल पहले दे देते हैं अपवित्र मालूम होते हैं; और उनके लेखक प्रेम के स्वर्गीय नियम से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। कुछ शक नहीं, कहीं-कहीं पर वे इस नियम को दरसा देते हैं, परंतु सामान्य लेखों में पुरुष का दिल ही तड़पता दिखलाते हैं। कन्या अपना दिल चुपके से दे देती है। इस दिल के दे देने की ख़बर वायु, पुष्प, वृक्ष, तारागण इत्यादि को होती है। लैली का दिल मजनूँ की जात में पहले घुल जाना चाहिए और इस अभेदता का परिणाम यह होना चाहिए कि मजनूँ उत्पन्न हो—इस यज्ञ-कुंड से एक महात्मा (मजनूँ) प्रकट होना चाहिए। सोहनी मेंहीवाल 

    (पंजाब के प्रसिद्ध कवि फाज़लशाह की रचित कविता में सोहनी मेंहीवाल के प्रेम का वर्णन है। सोहनी एक कलाल की कन्या थी और मेंहीवाल फ़ारस के एक बड़े सौदागर का पुत्र था जिसने सोहनी के प्रेम में अपना सर्वस्व लुटाकर अपनी प्रियतमा के पिता के यहाँ भैंस चराने पर नौकर हो गया।) के क़िस्से में असली मेंहीवाल उस समय निकलता है जब कि सोहनी अपने दिल को लाकर हाज़िर करती है। राँझा हीर (यह भी पंजाब ही के प्रसिद्ध कवि वारेशाह की कविता की कथा है।)

    की तलाश में निकलता ज़रूर है; मगर सच्चा योगी वह तभी होता है जब उसके लिए हीर अपने दिल को बेले के किसी झाड़ में छोड़ आती है। शकुंतला जंगल की लता की तरह बेहोशी की अवस्था में ही जवान हो गई। दुष्यंत को देखकर अपने आपको खो बैठी। राजहंसों से पता पाकर दमयंती नल में लीन हो गई। राम के धनुष तोड़ने से पहले ही सीता अपने दिल को हार चुकी। सीता के दिल के बलिदान का ही यह असर था कि मर्यादा-पुरुषोत्तम राम भगवान् वन-वन बारह वर्ष तक अपनी प्रियतमा के क्लेश निवारणार्थ रोते फिरे।

    Nothing but a perfect womanhood can call man to Purity and sacrifice, to manhood and to godhood.4

    यूरोप में कन्या जब अपना दिल ऊपर लिखे गए नियम से दान करती है तब वहाँ का गृहस्थ-जीवन आनंद और सुख से भर जाता है। जहाँ ख़ुशामद और झूठे प्रेम से कन्या फिसली, थोड़ी ही देर के बाद गृहस्थाश्रम में दुख-दर्द और राग-द्वेष प्रकट हुए। प्रेम के क़ानून को तोड़कर जब यूरोप में उलटी गंगा बहने लगी तब वहाँ विवाह एक प्रकार की ठेकेदारी हो गया और समाज में कहीं-कहीं यह ख़्याल पैदा हुआ कि विवाह करने से कुँवारा रहना ही अच्छा है। लोग कहते हैं कि यूरोप में कन्या-दान नहीं होता; परंतु विचार से देखा जाए तो संसार में कभी कहीं भी गृहस्थ का जीवन कन्या दान के बिना सफल नहीं हो सकता। यूरोप के गृहस्थों के दुखड़े तब तक कभी न जाएँगे जब तक एक बार फिर प्रेम का क़ानून, जिसको शेक्सपियर ने अपने “रामियो और जूलियट में इस ख़ूबी से दर्शाया है, लोगों के अमल में न आवेगा। अतएव यूरोप और अन्य पश्चिमी देशों कन्या-दान अवश्यमेव होता है। वहाँ कन्या पहले अपने आपको दान कर देती है; पीछे से गिरजे में जाकर माता, पिता या और कोई संबंधी फूलों से सजी हुई दुल्हन को दान करता है।

    The bride is given away in Europe.5


    यूरोप में गृहस्थों की बेचैनी

    आजकल पश्चिमी देशों में झूठी और ज़ाहिरी शारीरिक आज़ादी के ख़्याल ने कन्या-दान की आध्यात्मिक बुनियाद को तोड़ दिया है। कन्या-दान की रीति ज़रूर प्रचलित है, परंतु वास्तव में उस रीति में मानो प्राण ही नहीं। कोई अख़बार खोलकर देखो, उन देशों में पति और पत्नी के झगड़े वकीलों द्वारा जजों के सामने तय होते हैं। और जज की मेज़ पर विवाह की सोने की अँगुठियाँ, काँच के छल्लों की तरह द्वेप के पत्थरों से टूटती हैं। गिरजे में कल के बने हुए जोड़े आज टूटे और आज के बने जोड़े कल टूटे। 

    ऐसा मालूम होता है कि मौनोगेमी (स्त्री-व्रत) का नियम, जो उन लोगों की स्मृतियों और राज-नियमों में पाया जाता है, उस समय बनाया गया था जब कन्या-दान आध्यात्मिक तरीक़े से वहाँ होता था और गृहस्थों का जीवन सुखमय था। 

    भला सच्चे कन्या-दान के यज्ञ के बाद कौन सा मनुष्य-हृदय इतना नीच और पापी हो सकता है, जो हवन हुई कन्या के सिवा किसी अन्य स्त्री को बुरी दृष्टि से देखें। उस क़ुर्बान हुई कन्या की ख़ातिर कुल जगत् की स्त्री-जाति से उस पुरुष का पवित्र संबंध हो जाता है। स्त्री जाति की रक्षा करना और उसे आदर देना उसके धर्म का अंग हो जाता है। स्त्री-जाति में से एक स्त्री ने इस पुरुष के प्रेम में अपने हृदय की इसलिए आहुति दी है कि उसके हृदय में स्त्री- जाति की पूजा करने के पवित्र भाव उत्पन्न हों; ताकि उसके लिए कुलीन स्त्रियाँ माता समान, भगिनी समान, पुत्री समान, देवी समान हो जाएँ। एक ही ने ऐसा अद्भुत काम किया कि कुल जगत् की बहनों को इस पुरुष के दिल की डोर दे दी। इसी कारण उन देशों में मौनोगेमी (स्त्री-त्रत) का नियम चला। परंतु आजकल उस क़ानून की पूरे तौर पर पाबंदी नहीं होती। देखिए, स्वार्थ-परायणता के वश होकर थोड़े से तुच्छ भोगों की ख़ातिर सदा के लिए कुँवारापन धारण करना क्या इस क़ानून को तोड़ना नहीं है। लोगों के दिल ज़रूर बिगड़ रहे हैं। ज्यों-ज्यों सौभाग्यमय गृहस्थ-जीवन का सुख घटता जाता है। त्यों-त्यों मुल्की और इख़लाकी बेचैनी बढ़ती जाती है। ऐसा मालूम होता कि यूरोप की कन्याएँ भी दिल देने के भाव को बहुत कुछ भूल गई है। इसी से अलबेली भोली कुमारिकाएँ पारल्यामेंट के झगड़ों में पड़ना चाहती है; तलवार और बंदूक़ लटकाकर लड़ने मरने को तैयार हैं। इससे अधिक यूरोप के गृहस्थ-जीवन की अशांति का और क्या सबूत हो सकता है:—

    On one side the suppragist movement is to my mind the open condemnation of the moral degneration of m6

    सच्ची स्वतंत्रता 

    आर्यावर्त में कन्या-दान प्राचीन काल से चला आता है। कन्या-दान और पतिव्रत-धर्म दोनों एक ही फल प्राप्ति का प्रतिपादन करते हैं। आजकल के कुछ मनुष्य कन्या-दान को ग़ुलामी की हँसली मान बैठे हैं। वे कहते हैं कि क्या कन्या कोई गाय, भैंस या घोड़ी की तरह बेजान और बेज़बान वस्तु है जो उसका दान किया जाता है। यह अल्पज्ञता का फल है—सीधे और सच्चे रास्ते से गुमराह होना है। ये लोग गंभीर विचार नहीं करते। जीवन के आत्मिक नियमों की महिमा नहीं जानते। क्या प्रेम का नियम सबसे उत्तम और बलवान् नहीं है? क्या प्रेम में अपनी जान को हार देना सब के दिलों को जीत लेना नहीं है? क्या स्वतंत्रता का अर्थ मन की बेलगाम दौड़ है, अथवा प्रेमाग्नि में उसका स्वाहा होना है? चाहे कुछ कहिए, सची आज़ादी उसके भाग्य में नहीं, जो अपनी रक्षा ख़ुशामद और सेवा से करता है। अपने आपको गँवाकर ही सच्ची स्वतंत्रता नसीब होती है। गुरु नानक अपनी मीठी ज़बान में लिखते है:—“जा पुच्छो सुहाभनी कीनी गल्लीं शौह पाइए। आप गँवाइए ताँ शौह पाइए और कैसी चतुराई”—अर्थात् यदि किसी सौभाग्यवती से पूछोगे कि किन तरीक़ों से अपना स्वतंत्रता-रूपी पति प्राप्त होता है। तो उससे पता लगेगा कि अपने आपको प्रेमाग्नि में स्वाहा करने से मिलता है और कोई चतुराई नहीं चलती।

    True freedom is the highest summit of altruism and altruism is the total extinction of self in the self of all.7

    ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त करना हर एक आर्य्यकन्या का आदर्श है। सच्चे आर्य-पिता की पुत्री ग़ुलामी, कमज़ोरी और कमीनेपन के लालचों से सदा मुक्त है। वह देवी तो यहाँ संसार-रूपी सिंह पर सवारी करती है। वह अपने प्रेम-सागर की लहरों में सदा लहराती है। कभी सूर्य की तरह तेजस्विनी और कभी चंद्रमा की तरह शांतिप्रदायिनी होकर वह अपने पति की प्यारी है। वह उसके दिल की महारानी है। पति के तन, मन, धन और प्राण की मालिक है। आर्य-गृहों में कन्या का राज है। हे राम! यह राज सदा अटल रहे! 

    इसमें कुछ संदेह नहीं कि कन्या-दान आत्मिक भाव तो वही अर्थ रखता है जिस अर्थ में सावित्री, सीता, दमयंती और शकुंतला ने अपने आपको दान किया था; और इन नमूनों में कन्यादान का आदर्श पूर्ण रीति से प्रत्यक्ष है। प्रश्न यह है कि यह आदर्श सब लोगों के लिए किस तरह कल्याणकारी हो?

    लेखक का ख़्याल है कि आर्य-ऋषियों की बनाई हुई विवाह-पद्धति इस प्रश्न का एक सुंदर उत्तर है। एक तरीक़ा तो आंतरिक अनुभव से इस आदर्श को प्राप्त करना है वह तो, जैसा ऊपर लिख आए है, किसी-किसी के भाग्य में होता है। परंतु पवित्रात्माओं के आदेश से हर एक मनुष्य के हृदय पर आध्यात्मिक असर होता है। यह असर हमारे ऋषियों ने बड़े ही उत्तम प्रकार से हर एक नर-नारी के हृदय पर उत्पन्न किया है। प्रेमभाव उत्पन्न करने ही के लिए उन्होने यह विवाह पद्धति निकाली है। इससे प्रिया और प्रियतम का चित स्वतः ही परस्पर के प्रेम में स्वाहा हो जाता है। विवाह काल में यथोचित रीतियों से न सिर्फ़ हवन की अग्नि ही जलाई जाती है किंतु प्रेम की अग्नि की ज्वाला भी प्रज्वलित की जाती है जिसमें पहली आहुति हृदय कमल के अर्पण के रूप में दी जाती है। सच्चा कुलपुरोहित तो वह है जो कन्या-दान के मंत्र पढ़ने से पहले ही यह अनुभव कर लेता है कि आध्यात्मिक तौर से पति और पत्नी ने अपने आपको परस्पर दान कर दिया।

    आर्य-आदर्श के भग्नावशिष्ट अंश

    भारतवर्ष में वैवाहिक आदर्श को इन जाति-पाँति के बखेड़ों ने अब तब कुछ टूटी-फूटी दशा में बचा रखा है। कभी-कभी इन बूढ़े, हठी और छू-छू करने वाले लोगों को लेखक दिल से आशीर्वाद दिया करता है कि इतने कष्ट झेलकर भी इन लोगों ने कुछ न कुछ तो पुराने आदर्शों के नमूने बचा रखे हैं। पत्थरों की तरह ही सही, खंडहरों के टुकड़ों की तरह ही सही, पर ये मूल्य चिह्न इन लोगों ने रुई में बाँध-बाँधकर अपनी कुबड़ी कमर पर उठा, कुलियों की तरह इतना फ़ासला तय करके यहाँ तक पहुँचा तो दिया। जहाँ इनके काम मूढ़ता से भरे हुए ज्ञात होते हैं, वहाँ इनकी मूर्खता की अमोलता भी साथ ही साथ भासित हो जाती है। जहाँ ये कुछ कुटिलतापूर्ण दिखाई देते हैं वहाँ इनकी कुटिलता का प्राकृतिक गुण भी नज़र आ जाता है। कई एक चीज़ें, जो भारतवर्ष के रस्मोरिवाज के खंडहरों में पड़ी हुई हैं, अत्यंत गंभीर विचार के साथ देखने योग्य हैं। इस अजायबघर में से नए-नए जीते जागते आदर्श सही सलामत निकल सकते हैं। मुझे ये खँडरात ख़ूब भाते हैं। जब कभी अवकाश मिलता है मैं वहीं जाकर सोता हूँ। इन पत्थरों पर खुदी हुई मूर्तियों के दर्शन की अभिलाषा मुझे वहाँ ले जाती है। मुझे उन परम पराक्रमी प्राचीन ऋषियों को आवाज़ें इन खंडरात में से सुनाई देती है। ये संदेशा पहुँचाने वाले दूर से आए हैं। प्रमुदित होकर कभी मैं इन पत्थरों को इधर टटोलता हूँ, कभी उधर रोलता हूँ। कभी हनुमान् की तरह इनको फोड़-फोड़ कर इनमें अपने राम ही को देखता हूँ। मुझे उन आवाज़ों के कारण सब कोई मीठे लगते है। मेरे तो यही शालग्राम हैं। मैं इनको स्नान कराता हूँ, इन पर फूल चढ़ाता हूँ और घंटी बजाकर भोग लगाता हूँ इनसे आशीर्वाद लेकर अपना हल चलाने जाता हूँ। इन पत्थरों में कई एक गुप्त भेद भी हैं। कभी-कभी इनके प्राण हिलते प्रतीत होते हैं धौर कभी सुनसान समय में अपनी भाषा में ये बोल भी उठते हैं।


    भारत में कन्या-दान की रीति

    भाई की प्यारी, माता की राजदुलारी, पिता की गुणवती पुत्री, सखियों को अलबेली सखी के विवाह का समय समीप आया। विवाह के सुहाग के लिए बाजे बज रहे हैं। सगुन मनाए जा रहे हैं। शहर और पास-पड़ोस की कन्याएँ मिलकर सुरीले और मीठे सुरों में रात के शब्दहीन समय को रमणीय रीति बना रही हैं। सबके चेहरे फूल की तरह खिल रहे हैं। परंतु ज्यों-ज्यों विवाह के दिन नज़दीक आते जाते हैं। त्यों-त्यों विवाह होने वाली कन्या अपनी जान को हार रही है, स्वप्नों में डूब रही है। उसके मन की अवस्था अद्भुत है। न तो वह दुखी ही है और न रजोगुणी ख़ुशी से ही भरी है। इस कन्या की अजीब अवस्था इस समय उसे अपने शरीर से उठाकर ले गई है और मालूम नहीं कहाँ छोड़ आई है। इतना ज़रूर निश्चित है कि उसके जीवन का केंद्र बदल गया है। मन और बुद्धि से परे वह किसी देव-लोक में रहती है। विवाह- लग्न आ गई। स्त्रियाँ पास खड़ी गा रही हैं। अजीब सुहाना समय है। यथासमय पुरोहित कन्या के हाथ में कंकणा बाँध देता है। इस वक़्त कन्या का दर्शन करके दिल ऐसो चुटकियाँ भरता है कि हर मनुष्य प्रेम के अश्रुओं से अपनी आँखें भर लेता है जान पड़ता है कि यह कन्या उस समय निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त होकर अपने शरीर को अपने पिता और भाइयों के हाथ में आध्यात्मिक तौर से सौंप देती है। उसकी पवित्रता और उसके शरीर की वेदनावर्द्धक अनाथावस्था माता-पिता और भाई-बहन को चुपके-चुपके प्रेमाश्रुओं से स्नान कराती है। कन्या न तो रोती है और न हँसती है, और न उसे अपने शरीर की सुध ही है। इस कन्या की यह अनाथावस्था उस श्रेणी की है जिस श्रेणी को प्राप्त हुए छोटे-छोटे बालक नेपोलियन जैसे दिग्विजयी नरनाथों के कंधों पर सवार होते हैं या ब्रह्म-लीन महात्मा बालकरूप होकर दिल की बस्ती में राज करते हैं। धन्य है, ऐ तू आर्य-कन्ये! जिसने अपने क्षुद्र-जीवन को बिल्कुल ही कुछ न समझा। शरीर को तूने ब्रह्मार्पण अथवा अपने पिता या भाई के अर्पण कर दिया। इसका शरीर-त्याग लेखक को ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई महात्मा वेदांत को सप्तमी भूमिका में जाकर अपना देहाध्यास त्याग देता है। मैं सच कहता हूँ कि इस कन्या की अवस्था संकल्प हीन होती है। चलती-फिरती भी वह कम है। उसके शरीर की गति ऐसी मालूम होती है कि वह अब गिरी, अब गिरी। हाँ, इसे सँभालने वाले कोई और होते हैं। दो एक चंद्रमुखी सहेलियाँ इसके शरीर की रखवाली करती हैं। सारे संबंधी इसकी रक्षा में तत्पर रहते है। पतिंवरा आर्य-कन्या और पतिंवरा यूरोप की कन्या में आजकल भी बहुत बड़ा फ़र्क़ है। विचारशील पुरुष कह सकते हैं कि आर्यकन्या के दिल में विवाह के शारीरिक सुखों का उन दिनों लेशमात्र भी ध्यान नहीं आता है। सुशीला आर्यकन्या दिव्य नभो-मंडल में घूमती है। विवाह से एक दो दिन पहले हाथों और पाँवों में मेहँदी लगाने का समय आता है। (पंजाब में मेहँदी लगाते हैं; कहीं-कहीं महावर लगाने का रिवाज है।) कन्या के कमरे में दो एक छोटे-छोटे बिनौले के दीपक जल रहे हैं। एक जल का घड़ा रखा है। कुशासन पर अपनी सहेलियों सहित कन्या बैठी है। संबंधी जन चमचमाते हुए थालों में मेहँदी लिए आ रहे हैं। कुछ देर में प्यारे भाई को बारी आई कि वह अपनी भगिनी के हाथों में मेहँदी लगाए। जिस तरह समाधिस्थ योगी के हाथों पर कोई चाहे जो कुछ करे उसे ख़बर नहीं होती, उसी तरह इस भोली-भाली कन्या के दो छोटे-छोटे हाथ इसके भाई के हाथ पर हैं; पर उसे कुछ ख़बर नहीं। वह नीर भरा वीर अपनी बहन के हाथों में मेहँदी लगा रहा है। उसे इस तरह मेहँदी लगाते समय कन्या के उस अलौकिक त्याग को देख कर मेरी आँखों में जल भर आया और मैंने रो दिया। ऐ मेरी बहन! जिस त्याग को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सैकड़ों पुरुषों ने जाने हार दी और त्याग न कर सके;  जिसकी तलाश में बड़े बड़े बलवान निकले और हार कर बैठ गए;  क्या आज तूने उस अद्भुत त्यागादर्श रूपी वस्तु को सचमुच ही पा लिया; शरीर को छोड़ बैठी; और हमसे जुदा होकर देवलोक में रहने लग गई। आ, मैं तेरे हाथों पर मेहँदी का रंग देता हूँ। तूने अपने प्राणों की आहुति दे दी है; मैं उस आहुति से प्रज्वलित हवन की अग्नि के रंग का चिह्न-मात्र तेरे हाथों और पाँवों पर प्रकाशित करता हूँ। तेरे वैराग्य और त्याग के यज्ञ को इस मेहँदी के रंग में आज मैं संसार के सामने लाता हूँ। मैं देखूँगा कि इस तेरे मेहँदी के रंग के सामने कितना भी गहरा गेरू का रंग मात होता है या नहीं। तू तो अपने आपको छोड़ बैठी। यह मेहँदी का रंग अब हम लगाकर तेरे त्याग को प्रकट करते हैं। तेरे प्राण-हीन हाथ मेरे हाथों पर पड़े क्या कह रहे हैं। तू तो चली गई, पर तेरे हाथ कह रहे हैं कि मेरी बहन ने अपने आपको अपने प्यारे और लाड़ले वीर के हाथ में दे दिया। वीर रोता है। तेरे त्याग के माहात्य ने सबको रुला-रुलाकर घरवालों को एक नया जीवन दिया है। सारे घर में पवित्रता छा गई है। शांति, आनंद और मंगल हो रहा है। एक कंगाल गृहस्थ का घर इस समय भरा पूरा मालूम होता है। भूखों को अन्न मिलता है। संबंधी मेहमानों को भोजन देने का सामर्थ्य इस घर में भी तेरे त्याग के बल से हो गया है। सचमुच कामधेनु आकाश से उतरकर ऐसे घर में निवास करती है। पिता अपनी पुत्री को देख कर चुपके-चुपके रोता है। पुत्री के महात्याग का असर हर एक के दिल पर ऐसा छा जाता है कि आजकल भी हमारे टूटे-फूटे गृहस्थाश्रम के खंडरात में कन्या के विवाह के दिन दर्दनाक होते हैं। नयनों की गंगा घर में बहती है। माता-पिता और भाई को दैवी आदेश होता है। अब कन्यादान का दिन समीप है। अपने दिल को इस गंगाजल से शुद्ध कर लो। यश होने वाला है। ऐसा न हो कि तुम्हारे मन के संकल्प साधारण क्षुद्र जीवन के संकल्पों से मिलकर मलिन हो जाएँ। ऐसा ही होता है। पुत्री-वियोग का दुःख, विवाह का मंगलाचार और नयनों की गंगा का स्नान इनके मन को एकाग्र कर देता है। माता, पिता, भाई, बहन और सखियाँ भी पतिवरा कन्या के पीछे आत्मिक और ईश्वरी नभ में बिना डोर पतंगों की तरह उड़ने लगते हैं। आर्य-कन्या का विवाह हिंदू-जीवन में एक अद्भुत आध्यात्मिक प्रभाव पैदा करने वाला समय होता है, जिसे गहरी आँख से देखकर हमें सिर झुकाना चाहिए।

    विवाह के बाहरी शोरोगुल में शामिल होना हमारा काम नहीं। इन पवित्रात्माओं की उच्च अवस्था का अनुभव करके उनको अपने आदर्श-पालन में सहायता देना है! धन्य हैं वे संबंधी जो उन दिनों अपने शरीरों को ब्रह्मार्पण कर देते हैं। धन्य है वे मित्र जो रजोगुणी हँसी को त्यागकर उस काल की महत्ता का अनुभव करके, अपने दिल को नहला धुलाकर, उस एक आर्यपुत्री की पवित्रता के चिंतन में खो देते हैं। सब मिल-जुलकर आओ, कन्या-दान का समय अब समीप है। केवल वही संबंधी और वही सखियाँ जो इस आर्य-पुत्री में तन्मय हो रही हैं उस वेदी के अंदर आ सकती है जिन्होने कन्यादान के आदर्श के माहात्म्य को जाना है वही यहाँ उपस्थित हो सकते हैं। ऐसे ही पवित्र भावों से भरे हुए महात्मा विवाहमंडप में जमा है। अग्नि प्रज्वलित है। हवन की सामग्री से सत्त्वगुणी सुगंध निकल-निकल कर सबको शांत और एकाग्र कर रही है। ताराराण चमक रहे हैं। ध्रुव और सप्तर्षि पास ही आ खड़े हुए हैं। चंद्रमा उपस्थित हुआ है। देवी और देवता इस देवलोक में विहार करने वाली आर्य-पुत्री का विवाह देखने और उसे सौभाग्यशीला होने का आशीर्वाद देने आए हैं। समय पवित्र है। हृदय पवित्र है। वायु पवित्र है और देवी देवताओं की उपस्थिति ने सबको एकाग्र कर दिया है। अब कन्यादान का वक़्त है। स्त्रियों ने कन्यादान के माहात्म्य के गीत अलापने शुरू किए हैं। सबके रोम खड़े हो रहे हैं। गले रुक रहे हैं। आँसू चल रहे हैं— 

    “बिछुड़ती दुलहन वतन से है जब खड़े हैं रोम और गला रुके हैं;  कि फिर न आने की है कोई ढब खड़े हैं रोम और गला रुके हैं;  यह दीनो-दुनिया तुम्हें मुबारक़ हमारा दूल्हा हमें सलामत;  पै याद रखना यह आख़िरी छवि खड़े हैं रोम और गला रुके हैं।” (स्वामी राम)

    अब प्यारा वीर देव-लोक में रमती देवी के समान अपनी समाधिस्थ बहन के शरीर को अपने हाथों में उठाए इस देवी के भाग्यवान पति के साथ प्रज्वलित अग्नि के इर्द-गिर्द फेरे देता है। इस सोहने नौजवान का दिल भी अजीब भावों से भर गया है। शरीर उसका भी उसके मन से गिर रहा है। उसे एक पवित्रात्मा कन्या का दिल, जान, प्राण सबका सब अभी दान मिलता है। समय की अजीब पवित्रता, माता, पिता, भाई, बहन और सखियों के दिलों की आशाएँ, सत्वगुणी संकल्पों का समूह, आए हुए देवी-देवताओं के आशीर्वाद, अग्नि और मेहँदी के रंग की लाली, कन्या की निर्बलता, अनाथता, त्याग, वैराग्य और दिव्य अवस्था आदि ये सबके सब इस नौजवान के दिल पर ऐसा आध्यात्मिक असर करते हैं कि सदा के लिए अपने आपको वह इस देवी के चरणों में अर्पण कर देता है। हमारे देश के इस पारस्परिक अर्पण का दिव्य समय (Divine time of mutual self-surrender = परस्पर आत्म समर्पण का दैवी काल) कुल दुनिया के ऐसे समय से अधिक हृदयंगम होता है। कन्या की समाधि अभी नहीं खुली। परंतु ऐसी योग-निद्रा में सोई हुई पत्नी के ऊपर यह आर्य नौजवान न्यौछावर हो चुका। इसके लिए तो पहली बार ही प्रेम की बिजली इस तरह गिरी कि उसको ख़बर तक भी न हुई कि उसका दिल उसके पहलू में प्रेमाग्नि से कब तड़पा, कब उछला, कब कूदा और कब हवन हो गया। अब भाई अपनी बहन को अपने दिल से उसके पति के हवाले कर चुका। पिता और माता ने अपने नयनों से गंगा-जल लेकर अपने अंगों को धोया और अपनी मेहँदी रंगी पुत्री को उसके पति के हवाले कर दिया। ज्योंही उस कन्या का हाथ अपने पति के हाथ पर पड़ा त्योंही उस देवी की समाधि खुली। देवी और देवताओं ने भी पति और पत्नी के सिर पर हाथ रखकर अटल सुहाग का आशीर्वाद दिया। देवलोक में ख़ुशी हुई। मातृलोक का यज्ञ पूरा हुआ। चंद्रमा और तारागण, ध्रुव और सप्तर्षि इसके गवाह हुए। मानो ब्रह्मा ने स्वयं आकर इस संयोग को जोड़ा। फिर क्यों न पति और पत्नी परस्पर प्रेम में लीन हो? कुल जगत टूट फूटकर प्रलयलीन सा हो गया; इस पत्नी के लिए केवल पति ही रह गया और  इसी तरह  कुल जगत टूट-फूट प्रलय-लीन हो गया; इस पति के लिए केवल पत्नी ही रह गई। क्या रंगीला जोड़ा है। कुल जगत् को प्रलय-गर्भ में लीन कर अनंताकाश में प्रेम की बाँसुरी बजाते हुए बिचर रहा है। प्यारे! हमारे यहाँ तो यही राधा-कृष्ण घर-घर बिचरते है :—

    “The reduction of the whole universe to a single being and the expansion of that single being even to God is love.” —Victor Hugo8  


    सीता ने बारह वर्ष का वनवास क़बूल किया; महलों में रहना न क़बूल किया। दमयंती जंगल-जंगल नल के लिए रोती फिरी। सावित्री ने प्रेम के बल से यम को जीतकर अपने पति को वापस लिया। गांधारी ने सारी उम्र अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर बिता दी।

    ब्राह्म-समाज के महात्मा भाई प्रतापचंद्र मजूमदार अपने अमरीका के “लौवल लेकचर” में कन्यादान के असर को, जो उनके दिल पर हुआ था, अमरीका निवासियों के सम्मुख इस तरह प्रकट करते हैं:—“यदि कुल संसार की स्त्रियाँ एक तरफ़ खड़ी हों और मेरी अपढ़ प्रियतमा पत्नी दूसरी तरफ़ खड़ी हो तो मैं अपनी पत्नी ही की तरफ़ दौड़ जाऊँगा।”

    ऋषि लोग संदेशा भेजते हैं कि इस आदर्श का पूर्ण अनुभव से पालन करने में कुल जगत का कल्याण होगा। हे भारतवासियो! इस यज्ञ के माहात्म्य का आध्यात्मिक पवित्रता से अनुभव करो। इस यज्ञ में देवी और देवताओं को निमंत्रित करने की शक्ति प्राप्त करो। विवाह को मखौल न जानो। यज्ञ का खेल न करो। झूठी ख़ुदग़र्ज़ी की ख़ातिर इस आदर्श को मटियामेट न करो। कुल जगत के कल्याण को सोचो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबंध (पृष्ठ 68-89)
    • संपादक : प्रभात शास्त्री
    • रचनाकार : सरदार पूर्णसिंह
    • प्रकाशन : कौशांबी प्रकाशन, दारागंज इलाहाबाद

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