इन दो अक्षरों में भी न जाने कितनी शक्ति है कि इनकी लपेट से बचना यदि निरा असंभव न हो तो भी महाकठिन तो अवश्य है। जब कि भगवान रामचंद्र ने मारीच राक्षस को सुवर्णमृग समझ लिया था तो हमारी आपकी क्या सामर्थ्य है जो धोखा न खाएँ। वरंच ऐसी-ऐसी कथाओं से विदित होता है कि स्वयं ईश्वर भी केवल निराकार निर्विकार ही रहने की दशा में इससे पृथक रहता है, सो भी एक रीति से नहीं हो रहता, क्योंकि उसके मुख्य कामों में से एक काम सृष्टि का उत्पादन करना है, उसके लिए उसे अपनी माया का आश्रय लेना पड़ता है, और माया, भ्रम, छल इत्यादि धोखे ही के पर्याय नहीं। इस रीति से यदि हम कहें कि ईश्वर भी धोखे से अलग नहीं है तो अयुक्त न होगा, क्योंकि ऐसी दशा में यदि वह धोखा खाना नहीं तो धोखे से काम अवश्य लेता है, जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि माया का प्रपंच फैलाता है व धोखे की टट्टी खड़ी करता है।
अतः सबसे पृथक रहनेवाला ईश्वर भी ऐसा नहीं है, जिसके विषय में यह कहने का स्थान हो कि वह धोखे से अलग है, वरंच धोखे से पूर्ण उसे कह सकते हैं, क्योंकि वेदों में उसे आश्चर्योस्य वक्ता, चित्रं देवानासुदगादनीक इत्यादि कहा है, और आश्चर्य तथा चित्रत्व को मोटी भाषा में धोखा ही कहते हैं, अथवा अवतारधारा की दशा में उसका नाम मायावपुधारी होता है, जिसका अर्थ है धोखे का पुतला। और सच भी यही है; जो सर्वथा निराकार होने पर भी मत्स्य, कच्छपादि रूपों में प्रकट होता है, और शुद्ध निर्विकार
कहलाने पर भी नाना प्रकार की लीला किया करता है वह धोखे का पुतला नहीं है तो क्या है! हम आदर के मारे उसे भ्रम से रहित कहते हैं, पर जिसके विषय में कोई निश्चय-पूर्वक 'इदंमित्थ' कह नहीं सकता, जिसका सारा भेद स्पष्ट रूप से कोई जान ही नहीं सकता वह निभ्रम या भ्रमरहित क्योंकर कहा जा सकता है! शुद्ध निभ्रम वह कहलाता है, जिसके विषय में भ्रम का आरोप भी न हो सके; पर उसके तो अस्तित्व तक में नास्तिकों को संदेह और आस्तिकों को निश्चित ज्ञान का अभाव रहता है, फिर वह निभ्रम कैसा?
और जब वही भ्रम से पूर्ण है तब उसके बनाए संसार में भ्रम अर्थात धोखे का अभाव कहाँ? वेदांती लोग जगत को मिथ्या, भ्रम समझते हैं, यहाँ तक कि एक महात्मा ने किसी जिज्ञासु को भली-भाँति समझा दिया था कि विश्व में जो कुछ है, और जो कुछ होता है, सब भ्रम है। किंतु यह समझाने के कुछ ही दिन उपरांत उनके किसी प्रिय व्यक्ति का प्राणांत हो गया, जिसके शोक में वे फूट-फूटकर रोने लगे। इस पर शिष्य ने आश्चर्य में आकर पूछा कि आप तो सब बातों को भ्रमात्मक मानते हैं, फिर जान बूझकर, रोते क्यों हैं? इसके उत्तर, में उन्होंने कहा कि रोना भी भ्रम ही है। सच है! भ्रमोत्पादक भ्रमस्वरूप भगवान के बनाए हुए भव (संसार) में जो कुछ है, भ्रम ही है। जब तक भ्रम है तभी तक संसार है, वरंच संसार का स्वामी भी तभी तक है, फिर कुछ भी नहीं! और कौन जाने, हो तो हमें उससे कोई काम नहीं! परमेश्वर सबका भ्रम बनाए रखे इसी में सब कुछ है,। जहाँ भ्रम खुल गया वहीं लाख की भलमनसी ख़ाक में मिल जाती है। जो लोग पूरे ब्रह्मजानी बनकर संसार को सचमुच माया की कल्पना मान बैठते हैं, वे अपनी भ्रमात्मक बुद्धि से चाहे अपने तुच्छ जीवन को साक्षात सर्वश्वर मान के सर्वथा सुखी हो जाने का धोखा खाया करें, पर संसार के किसी काम के नहीं रह जाते हैं, वरंच निरे अकर्ता, अभोक्ता बनने की उमंग में अकर्मण्य और नारि नारि सब एक हैं जस मेंहरि तस माय इत्यादि सिद्धांतों के मारे अपना तथा दूसरों का जो अनिष्ट न कर बैठे वही थोड़ा है, क्योंकि लोक और परलोक का मजा भी धोखे ही में पड़े रहने से प्राप्त होता है। बहुत जान छाँटना सत्यानाशी की जड़ है! ज्ञान की दृष्टि से देखें तो आपका शरीर मल-मूत्र-मास-मज्जादि घृणास्पद पदार्थों का विकार मात्र है, पर हम उसे प्रीति का पात्र समझते हैं, और दर्शन-स्पर्श-नादि से आनंदलाभ करते हैं।
हमको वास्तव में इतनी जानकारी भी नहीं है कि हमारे सिर में कितने बाल हैं वा एक मिट्टी के गोले का सिरा कहाँ पर है, किंतु आप हमें बड़ा भारी विज्ञ और सुलेखक समझते हैं, तथा हमारी लेखनी या जिह्वा की कारीगरी देख-देखकर सुख प्राप्त करते हैं। विचार कर देखिए तो धनजन इत्यादि पर किसी का कोई स्वत्व नहीं है, इस क्षण वे हमारे काम आ रहे हैं, क्षण ही भर के उपरांत न जाने किसके हाथ में वा किस दशा में पड़के हमारे पक्ष में कैसे हो जाएँ, और मान भी लें कि इनका वियोंग कभी न होगा तो भी हमें क्या? आख़िर एक दिन मरना है, और 'मूँदि गई आँखें तब लाखें केहि काम की'। पर यदि हम ऐसा समझकर सबसे संबंध तोड़ दें तो सारी पूँजी गँवाकर निरे मूर्ख कहलावें। स्त्री पुत्रादि का प्रबंध न करके उनका जीवन नष्ट करने का पाप मुड़ियावें! 'ना हम काहू के कोऊ ना हमारा' का उदाहरण बनके सब प्रकार सुख, सुविधा, सुयश से वंचित रह जाएँ। इतना ही नहीं, वरंच और भी सोचकर देखिए तो किसी को कुछ भी ख़बर नहीं है कि मरने के पीछे जीव की क्या दशा होगी।
बहुतेरों का सिद्धांत यह भी है कि दशा किसकी होगी, जीव तो कोई पदार्थ ही नहीं है। घड़ी के जब तक सब पुर्ज़े दुरुस्त हैं, और ठीक-ठीक लगे हुए हैं तभी तक उसमें खट-खट, टन-टन आवाज़ आ रही है, जहाँ उसके पुर्ज़ों का लगाव बिगड़ा, वहीं न उसकी गति है, न शब्द है। ऐसे ही शरीर का क्रम जब तक ठीक-ठीक बना हुआ है, मुख से शब्द और मन से भाव तथा इंद्रियों से कर्म का प्राकट्य होता रहता है, जहाँ इसके क्रम में व्यतिक्रम हुआ, वहीं सब खेल बिगड़ गया, बस फिर कुछ नहीं, कैसा जीव! कैसी आत्मा! एक रीति से यह कहना झूठ भी नहीं जान पड़ता, क्योंकि जिसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है उसके विषय में अंततोगत्वा यों ही कहा जा सकता है! इसी प्रकार स्वर्ग-नरकादि के सुख-दुःखादि का होना भी नास्तिकों ही के मत से नहीं, किंतु बड़े-बड़े आस्तिकों के सिद्धांत से भी 'अविदित सुख दुःख निर्विशेष स्वरूप' के अतिरिक्त कुछ समझ में नहीं आता।
स्कूल में हमने भी सारा भूगोल और खगोल पढ़ डाला है, पर नरक और बैकुंठ का पता कहीं नहीं पाया। किंतु भय और लालच को छोड़ दें तो बुरे कामों से घृणा और सत्कमों में रूचि न रखकर भी तो अपना अथच पराया अनिष्ट ही करेंगे। ऐसी-ऐसी बातें सोचने से गोस्वामी तुलसीदास जी का 'गोचर जहँ लगि मन जाई, सो सब माया जानेहु माई' और श्री सूरदास जी का 'माया मोहनी मनहरन' कहना प्रत्यक्षतया सच्चा जान पड़ता है। फिर हम नहीं जानते कि धोखे को लोग क्यों बुरा समझते हैं। धोखा खानेवाला मूर्ख और धोखा देने वाला ठग क्यों कहलाता है? जब सब कुछ धोखा ही धोखा है, और धोखे से अलग रहना ईश्वर की भी सामर्थ्य से दूर है, तथा धोखे ही के कारण संसार का चर्खा पिन्न-पिन्न चला जाता है, नहीं तो ढिच्चर-ढिच्चर होने लगे, वरंच रही, न जाए तो फिर इस शब्द का स्मरण का श्रवण करते ही आपकी नाक-भौंह क्यों सिकुड़ जाती है? इसके उत्तर में हम तो यही कहेंगे कि साधारणत: जो धोखा खाता है वह अपना कुछ न कुछ गँवा बैठता है, और जो धोखा देता है उसकी एक न एक दिन कलई खुले बिना नहीं रहती है, और हानि सहना वा प्रतिष्ठा खोना दोनों बातें बुरी हैं, जो बहुधा इसके संबंध में हो ही जाया करती हैं।
इसी से साधारण श्रेणी के लोग धोखे को अच्छा नहीं समझते; यद्यपि उससे बच नहीं सकते, क्योंकि जैसे काजल की कोठरी में रहनेवाला बेदाग नहीं रह सकता वैसे ही भ्रमात्मक भवसागर में रहनेवाले अल्पसामर्थी जीव का भ्रम से सर्वथा बचा रहना असंभव है, और जो जिससे बच नहीं सकता उसका उसकी निंदा करना नीतिविरुद्ध है। पर क्या कीजिए, कच्ची खोपड़ी के मनुष्य को प्राचीन प्राज्ञगण अल्पज्ञ कह गए हैं, जिसका लक्षण ही है कि आगा-पीछा सोचे बिना जो मुँह पर आवे कह डालना और जो जी में समावे कर उठना, नहीं तो कोई काम वा वस्तु वास्तव में भली अथवा बुरी नहीं होती, केवल उसके व्यवहार का नियम बनने बिगड़ने से बनाव-बिगाड़ हो जाया करता है।
परोपकार को कोई बुरा नहीं कह सकता, पर किसी को सब कुछ उठा दीजिए तो क्या भीख माँग के प्रतिष्ठा, अथवा चोरी करके धर्म खोइएगा, या भूखों मरके आत्महत्या के पापभागी होइएगा! यों ही किसी को सताना अच्छा नहीं कहा जाता है, पर यदि कोई संसार का अनिष्ट करता हो, उसे राजा से दंड दिलवाइए वा आप ही उसका दमन कर दीजिए तो अनेक लोगों के हित का पुण्य-लाभ होगा।
घी बड़ा पुष्टिकारक होता है, पर दो सेर पी लीजिए तो उठने-बैठने की शक्ति न रहेगी, और संखिया, सींगिया आदि प्रत्यक्ष विष हैं, किंतु उचित रीति से शोधकर सेवन कीजिए तो बहुत से रोग-दोख दूर हो जाएँगे। यही लेखा धोखे का भी है। दो एक बार धोखा खाके धोखेबाजों की हिकमतें सीख लो। और कुछ अपनी ओर से झपकी फुदनी जोड़कर उसी की जूती उसी का सिर कर दिखाओ तो बड़े भारी अनुभवशाली वरंच 'गुरु गुड़ ही रहा चेला शक्कर हो गया' का जीवित उदाहरण कहलाओगे। यदि इतना न हो सके तो उसे पास न फटकने दो तो भी भविष्य के लिए हानि और कष्ट से बच जाओगे।
यो ही किसी को धोखा देना हो तो इस रीति से दो कि तुम्हारी चालबाजी कोई भाँप न सके, और तुम्हारा बलिपशु यदि किसी कारण से तुम्हारे हथकंडे ताड़ भी जाए तो किसी से प्रकाशित करने के काम का न रहे। फिर बस, अपनी चतुरता के मधुर फल को मूर्खों के आँसू तथा गुरुघटालों के धन्यवाद की वर्षा के जल से धो और स्वादपूर्वक खा! इन दोनों रीतियों से धोखा बुरा नहीं है। अगले लोग कह गए हैं कि आदमी कुछ खोके सीखता है, अर्थात धोखा खाए बिना अक्किल नहीं आती, और बेईमानी तथा नीतिकुशलता में इतना ही भेद है कि ज़ाहिर हो जाए सो बेईमानी कहलाती है, और छिपी रहे सो बुद्धिमानी है।
हमें आशा है कि इतना लिखने से आप धोखे का तत्त्व यदि निरे खेत के घोखे न हों, मनुष्य हो तो समझ गए होंगे। पर अपनी ओर से इतना और समझा देना भी हम उचित समझते हैं कि धोखा खाके धोखेबाज को पहिचानना साधारण समझवालों का काम है। इससे जो लोग अपनी भाषा, भोजन, भेष, भाय और भ्रातृत्व को छोड़के आपसे भी छुड़वाया चाहते हों उनको समझे रहिए कि स्वयं धोखा खाए हुए हैं, और दूसरों को धोखा दिया चाहते हैं। इससे ऐसों से बचना परम कर्तव्य है, और जो पुरुष एवं पदार्थ अपने न हो के देखने में चाहे जैसे सुशील और सुंदर हो, पर विश्वास के पात्र नहीं हैं, उनसे धोखा हो जाना असंभव नहीं है। बस, इतना स्मरण रखिएगा तो धोखे से उत्पन्न होनेवाली विपत्तियों से बचे रहिएगा, नहीं तो हमें क्या, अपनी कुमति का फल अपने ही आँसुओं से धोओ और खाओगे, क्योंकि जो हिंदू होकर ब्रह्मवाक्य नहीं मानता वह धोखा खाता है।
- पुस्तक : हिंदी निबंधमाला (दूसरा भाग ) (पृष्ठ 1)
- संपादक : श्यामसुंदर दास
- रचनाकार : प्रताप नारायण मिश्र
- प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा
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