प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा नौवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नई जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है; आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। 'सुख' की व्याख्या बदल गई है। उपभोग-भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजानें आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
विलासिता की सामग्रियों से बाज़ार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। टूथ-पेस्ट चाहिए? यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है, यह मुँह की दुर्गंध हटाता है। यह मसूड़ों को मज़बूत करता है और यह 'पूर्ण सुरक्षा' देता है। वह सब करके जो तीन-चार पेस्ट अलग-अलग करते हैं, किसी पेस्ट का 'मैजिक' फ़ार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से बना है। जो चाहे चुन लीजिए। यदि पेस्ट अच्छा है तो ब्रुश भी अच्छा होना चाहिए। आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफ़ाई की क्षमता में अलग-अलग, एक से बढ़कर एक। मुँह की दुर्गंध से बचने के लिए माउथ वाश भी चाहिए। सूची और भी लंबी हो सकती है पर इतनी चीज़ों का ही बिल काफ़ी बड़ा हो जाएगा, क्योंकि आप शायद बहुविज्ञापित और क़ीमती ब्रांड ख़रीदना ही पसंद करें। सौंदर्य प्रसाधनों की भीड़ तो चमत्कृत कर देने वाली है—हर माह उसमें नए-नए उत्पाद जुड़ते जाते हैं। साबुन ही देखिए। एक में हलकी ख़ुशबू है, दूसरे में तेज़। एक दिनभर आपके शरीर को तरोताज़ा रखता है, दूसरा पसीना रोकता है, तीसरा जर्म्स से आपकी रक्षा करता है। यह लीजिए सिने स्टार्स के सौंदर्य का रहस्य, उनका मनपसंद साबुन। सच्चाई का अर्थ समझना चाहते हैं, यह लीजिए। शरीर को पवित्र रखना चाहते हैं। यह लीजिए शुद्ध गंगाजल में बनी साबुन। चमड़ी को नर्म रखने के लिए यह लीजिए—महँगी है, पर आपके सौंदर्य में निखार ला देगी। संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य सामग्री होना तो मामूली बात है। पेरिस से परफ्यूम मँगाइए, इतना ही और ख़र्च हो जाएगा। ये प्रतिष्ठा-चिह्न हैं, समाज में आपकी हैसियत जताते हैं। पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। पहले उनका काम साबुन और तेल से चल जाता था। आफ़्टर शेव और कोलोन बाद में आए। अब तो इस सूची में दर्जन-दो दर्जन चीज़ें और जुड़ गई हैं।
छोड़िए इस सामग्री को। वस्तु और परिधान की दुनिया में आइए। जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं, नए-नए डिज़ाइन है परिधान बाज़ार में आ गए हैं। ये ट्रेंडी है और महँगे भी। पिछले वर्ष के फ़ैशन इस वर्ष? शर्म की बात है। घड़ी पहले समय दिखाती थी। उससे यदि यही काम लेना हो तो चार-पाँच सौ में मिल जाएगी। हैसियत जताने के लिए आप पचास-साठ हज़ार से लाख डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं। संगीत की समझ हो या नहीं, क़ीमती म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है। कोई बात नहीं यदि आप उसे ठीक तरह चला भी न सकें। कंप्यूटर काम के लिए तो ख़रीदे ही जाते हैं, महज़ दिखावे के लिए उन्हें ख़रीदने वालों की संख्या भी कम नहीं है। खाने के लिए पाँच सितारा होटल हैं। वहाँ तो अब विवाह भी होने लगे हैं। बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में आइए। सुख-सुविधाओं और अच्छे इलाज के अतिरिक्त यह अनुभव काफ़ी समय तक चर्चा का विषय भी रहेगा, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल हैं, शीघ्र ही शायद कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाए। भारत में तो यह स्थिति अभी नहीं आई पर अमरीका और यूरोप के कुछ देशों में आप मरने के पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते है—एक क़ीमत पर। आपकी क़ब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे। चाहे तो वहाँ फ़व्वारे होंगे और मंद ध्वनि में निरंतर संगीत भी। कल भारत में भी यह संभव हो सकता है। अमरीका में आज जो हो रहा है, कल वह भारत में भी आ सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं। चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों। यह है एक छोटी-सी झलक उपभोक्तावादी समाज की। यह विशिष्टजन का समाज है पर सामान्यजन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं। उनकी दृष्टि में, एक विज्ञापन की भाषा में, यही है राइट च्वाइस बेबी।
अब विषय के गंभीर पक्ष की ओर आएँ। इस उपभोक्ता संस्कृति का विकास भारत में क्यों हो रहा है?
सामंती संस्कृति के तत्व भारत में पहले भी रहे हैं। उपभोक्तावाद इस संस्कृति से जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गए हैं, सामंती संस्कृति का मुहावरा बदल गया है।
हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ़्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही अन्य-निर्देशित होता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी।
अंततः इस संस्कृति के फैलाव को परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हो। पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हो, हैं वे कूड़ा खाद्य। समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का हास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केंद्रकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस बिंदु पर रुकेगी यह दौड़?
गांधी जी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखे पर अपनी बुनियाद पर क़ायम रहें। उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिला रही है। यह एक बड़ा ख़तरा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।
dhire dhire sab kuch badal raha hai. ek nai jivan shaili apna varchasv sthapit kar rahi hai. uske saath aa raha hai ek naya jivan darshan upbhoktavad ka darshan. utpadan baDhane par zor hai charon or. ye utpadan aapke liye hai; aapke bhog ke liye hai, aapke sukh ke liye hai. sukh ki vyakhya badal gai hai. upbhog bhog hi sukh hai. ek sookshm badlav aaya hai nai sthiti mein. utpaad to aapke liye hain, par aap ye bhool jate hain ki jane anjanen aaj ke mahaul mein aapka charitr bhi badal raha hai aur aap utpaad ko samarpit hote ja rahe hain.
vilasita ki samagriyon se bazar bhara paDa hai, jo aapko lubhane ki ji toD koshish mein nirantar lagi rahti hain. dainik jivan mein kaam aane vali vastuon ko hi lijiye. tooth pest chahiye? ye danton ko moti jaisa chamkila banata hai, ye munh ki durgandh hatata hai. ye masuDon ko mazbut karta hai aur ye poorn suraksha deta hai. wo sab karke jo teen chaar pest alag alag karte hain, kisi pest ka maijik farmula hai. koi babul ya neem ke gunon se bharpur hai, koi rishi muniyon dvara svikrit tatha manya vanaspati aur khanij tatvon ke mishran se bana hai. jo chahe chun lijiye. yadi pest achchha hai to brush bhi achchha hona chahiye. akar, rang, banavat, pahunch aur safai ki kshamata mein alag alag, ek se baDhkar ek. munh ki durgandh se bachne ke liye mauth vaash bhi chahiye. suchi aur bhi lambi ho sakti hai par itni chizon ka hi bil kafi baDa ho jayega, kyonki aap shayad bahuvigyapit aur qimti braanD kharidna hi pasand karen. saundarya prsadhnon ki bheeD to chamatkrit kar dene vali hai—har maah usmen ne ne utpaad juDte jate hain. sabun hi dekhiye. ek mein halki khushbu hai, dusre mein tez. ek dinbhar aapke sharir ko tarotaza rakhta hai, dusra pasina rokta hai, tisra jarms se apaki raksha karta hai. ye lijiye sine staars ke saundarya ka rahasya, unka manapsand sabun. sachchai ka arth samajhna chahte hain, ye lijiye. sharir ko pavitra rakhna chahte hain. ye lijiye shuddh gangajal mein bani sabun. chamDi ko narm rakhne ke liye ye lijiye—mahngi hai, par aapke saundarya mein nikhar la degi. sambhrant mahilaon ki Dresing tebal par tees tees hazar ki saundarya samagri hona to mamuli baat hai. peris se paraphyum mangaiye, itna hi aur kharch ho jayega. ye pratishtha chihn hain, samaj mein apaki haisiyat jatate hain. purush bhi is dauD mein pichhe nahin hai. pahle unka kaam sabun aur tel se chal jata tha. aftar shev aur kolon baad mein aaye. ab to is suchi mein darjan do darjan chizen aur juD gai hain.
chhoDiye is samagri ko. vastu aur paridhan ki duniya mein aaie. jagah jagah butik khul ge hain, ne ne Dizain hai paridhan bazar mein aa ge hain. ye trenDi hai aur mahnge bhi. pichhle varsh ke faishan is varsh? sharm ki baat hai. ghaDi pahle samay dikhati thi. usse yadi yahi kaam lena ho to chaar paanch sau mein mil jayegi. haisiyat jatane ke liye aap pachas saath hazar se laakh DeDh laakh ki ghaDi bhi le sakte hain. sangit ki samajh ho ya nahin, qimti myuzik sistam zaruri hai. koi baat nahin yadi aap use theek tarah chala bhi na saken. kampyutar kaam ke liye to kharide hi jate hain, mahz dikhave ke liye unhen kharidne valon ki sankhya bhi kam nahin hai. khane ke liye paanch sitara hotal hain. vahan to ab vivah bhi hone lage hain. bimar paDne par paanch sitara asptalon mein aaie. sukh suvidhaon aur achchhe ilaaj ke atirikt ye anubhav kafi samay tak charcha ka vishay bhi rahega, paDhai ke liye paanch sitara pablik skool hain, sheeghr hi shayad kaulej aur yunivarsiti bhi ban jaye. bharat mein to ye sthiti abhi nahin aai par amrika aur yurop ke kuch deshon mein aap marne ke pahle hi apne antim sanskar aur anant vishram ka prbandh bhi kar sakte hai—ek qimat par. apaki qabr ke asapas sada hari ghaas hogi, manchahe phool honge. chahe to vahan favvare honge aur mand dhvani mein nirantar sangit bhi. kal bharat mein bhi ye sambhav ho sakta hai. amrika mein aaj jo ho raha hai, kal wo bharat mein bhi aa sakta hai. pratishtha ke anek roop hote hain. chahe ve hasyaspad hi kyon na hon. ye hai ek chhoti si jhalak upbhoktavadi samaj ki. ye vishishtjan ka samaj hai par samanyjan bhi ise lalchai nigahon se dekhte hain. unki drishti mein, ek vigyapan ki bhasha mein, yahi hai rait chvais bebi.
ab vishay ke gambhir paksh ki or ayen. is upbhokta sanskriti ka vikas bharat mein kyon ho raha hai?
samanti sanskriti ke tatv bharat mein pahle bhi rahe hain. upbhoktavad is sanskriti se juDa raha hai. aaj samant badal ge hain, samanti sanskriti ka muhavara badal gaya hai.
hum sanskritik asmita ki baat kitni hi karen; parampraon ka avmulyan hua hai, asthaon ka kshran hua hai. kaDva sach to ye hai ki hum bauddhik dasta svikar kar rahe hain, pashchim ke sanskritik upnivesh ban rahe hain. hamari nai sanskriti anukran ki sanskriti hai. hum adhunikta ke jhuthe pratiman apnate ja rahe hain. pratishtha ki andhi pratispardha mein jo apna hai use khokar chhadm adhunikta ki giraft mein aate ja rahe hain. sanskriti ki niyantrak shaktiyon ke ksheen ho jane ke karan hum digbhramit ho rahe hain. hamara samaj hi anya nirdeshit hota ja raha hai. vigyapan aur prasar ke sookshm tantr hamari manasikta badal rahe hain. unmen sammohan ki shakti hai, vashikran ki bhi.
antatः is sanskriti ke phailav ko parinam kya hoga? ye gambhir chinta ka vishay hai. hamare simit sansadhnon ka ghor apavyay ho raha hai. jivan ki gunvatta aalu ke chips se nahin sudharti. na bahuvigyapit shital peyon se. bhale hi ve antarrashtriy ho. piza aur bargar kitne hi adhunik ho, hain ve kuDa khadya. samaj mein vargon ki duri baDh rahi hai, samajik sarokaron mein kami aa rahi hai. jivan star ka ye baDhta antar akrosh aur ashanti ko janm de raha hai. jaise jaise dikhave ki ye sanskriti phailegi, samajik ashanti bhi baDhegi. hamari sanskritik asmita ka haas to ho hi raha hai, hum lakshya bhram se bhi piDit hain. vikas ke virat uddeshya pichhe hat rahe hain, hum jhuthi tushti ke tatkalik lakshyon ka pichha kar rahe hain. maryadayen toot rahi hain, naitik mandanD Dhile paD rahe hain. vyakti kendrakta baDh rahi hai, svaarth paramarth par havi ho raha hai. bhog ki akankshayen asman ko chhu rahi hain. kis bindu par rukegi ye dauD?
gandhi ji ne kaha tha ki hum svasth sanskritik prbhavon ke liye apne darvaze khiDki khule rakhe par apni buniyad par qayam rahen. upbhokta sanskriti hamari samajik neenv ko hi hila rahi hai. ye ek baDa khatra hai. bhavishya ke liye ye ek baDi chunauti hai.
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chhoDiye is samagri ko. vastu aur paridhan ki duniya mein aaie. jagah jagah butik khul ge hain, ne ne Dizain hai paridhan bazar mein aa ge hain. ye trenDi hai aur mahnge bhi. pichhle varsh ke faishan is varsh? sharm ki baat hai. ghaDi pahle samay dikhati thi. usse yadi yahi kaam lena ho to chaar paanch sau mein mil jayegi. haisiyat jatane ke liye aap pachas saath hazar se laakh DeDh laakh ki ghaDi bhi le sakte hain. sangit ki samajh ho ya nahin, qimti myuzik sistam zaruri hai. koi baat nahin yadi aap use theek tarah chala bhi na saken. kampyutar kaam ke liye to kharide hi jate hain, mahz dikhave ke liye unhen kharidne valon ki sankhya bhi kam nahin hai. khane ke liye paanch sitara hotal hain. vahan to ab vivah bhi hone lage hain. bimar paDne par paanch sitara asptalon mein aaie. sukh suvidhaon aur achchhe ilaaj ke atirikt ye anubhav kafi samay tak charcha ka vishay bhi rahega, paDhai ke liye paanch sitara pablik skool hain, sheeghr hi shayad kaulej aur yunivarsiti bhi ban jaye. bharat mein to ye sthiti abhi nahin aai par amrika aur yurop ke kuch deshon mein aap marne ke pahle hi apne antim sanskar aur anant vishram ka prbandh bhi kar sakte hai—ek qimat par. apaki qabr ke asapas sada hari ghaas hogi, manchahe phool honge. chahe to vahan favvare honge aur mand dhvani mein nirantar sangit bhi. kal bharat mein bhi ye sambhav ho sakta hai. amrika mein aaj jo ho raha hai, kal wo bharat mein bhi aa sakta hai. pratishtha ke anek roop hote hain. chahe ve hasyaspad hi kyon na hon. ye hai ek chhoti si jhalak upbhoktavadi samaj ki. ye vishishtjan ka samaj hai par samanyjan bhi ise lalchai nigahon se dekhte hain. unki drishti mein, ek vigyapan ki bhasha mein, yahi hai rait chvais bebi.
ab vishay ke gambhir paksh ki or ayen. is upbhokta sanskriti ka vikas bharat mein kyon ho raha hai?
samanti sanskriti ke tatv bharat mein pahle bhi rahe hain. upbhoktavad is sanskriti se juDa raha hai. aaj samant badal ge hain, samanti sanskriti ka muhavara badal gaya hai.
hum sanskritik asmita ki baat kitni hi karen; parampraon ka avmulyan hua hai, asthaon ka kshran hua hai. kaDva sach to ye hai ki hum bauddhik dasta svikar kar rahe hain, pashchim ke sanskritik upnivesh ban rahe hain. hamari nai sanskriti anukran ki sanskriti hai. hum adhunikta ke jhuthe pratiman apnate ja rahe hain. pratishtha ki andhi pratispardha mein jo apna hai use khokar chhadm adhunikta ki giraft mein aate ja rahe hain. sanskriti ki niyantrak shaktiyon ke ksheen ho jane ke karan hum digbhramit ho rahe hain. hamara samaj hi anya nirdeshit hota ja raha hai. vigyapan aur prasar ke sookshm tantr hamari manasikta badal rahe hain. unmen sammohan ki shakti hai, vashikran ki bhi.
antatः is sanskriti ke phailav ko parinam kya hoga? ye gambhir chinta ka vishay hai. hamare simit sansadhnon ka ghor apavyay ho raha hai. jivan ki gunvatta aalu ke chips se nahin sudharti. na bahuvigyapit shital peyon se. bhale hi ve antarrashtriy ho. piza aur bargar kitne hi adhunik ho, hain ve kuDa khadya. samaj mein vargon ki duri baDh rahi hai, samajik sarokaron mein kami aa rahi hai. jivan star ka ye baDhta antar akrosh aur ashanti ko janm de raha hai. jaise jaise dikhave ki ye sanskriti phailegi, samajik ashanti bhi baDhegi. hamari sanskritik asmita ka haas to ho hi raha hai, hum lakshya bhram se bhi piDit hain. vikas ke virat uddeshya pichhe hat rahe hain, hum jhuthi tushti ke tatkalik lakshyon ka pichha kar rahe hain. maryadayen toot rahi hain, naitik mandanD Dhile paD rahe hain. vyakti kendrakta baDh rahi hai, svaarth paramarth par havi ho raha hai. bhog ki akankshayen asman ko chhu rahi hain. kis bindu par rukegi ye dauD?
gandhi ji ne kaha tha ki hum svasth sanskritik prbhavon ke liye apne darvaze khiDki khule rakhe par apni buniyad par qayam rahen. upbhokta sanskriti hamari samajik neenv ko hi hila rahi hai. ye ek baDa khatra hai. bhavishya ke liye ye ek baDi chunauti hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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