दूसरी गोलमेज़-परिषद् में गांधी जी के साथ : छह
dusri golmez parishad mein gandhi ji ke saath ha chhah
घनश्यामदास बिड़ला
Ghanshyamdas Birla

दूसरी गोलमेज़-परिषद् में गांधी जी के साथ : छह
dusri golmez parishad mein gandhi ji ke saath ha chhah
Ghanshyamdas Birla
घनश्यामदास बिड़ला
और अधिकघनश्यामदास बिड़ला
4 सितंबर , ’31
‘राजपूताना’ जहाज़’
कल गांधी जी ने फिर आर. टी. सी. के काम के संबंध में चर्चा छेड़ी मैंने आश्चर्य प्रकट किया कि ‘सरकार आपको क्या समझ कर बुला रही है? आप क्या मांगने वाले हैं, यह तो सरकार जानती है। करांची का प्रस्ताव भी सामने है। फिर भी आपको बुलाती है, इसके यह माने है कि आपकी मांग पूरी होने वाली है।” गांधी जी ने कहा, “मैंने तो कोई बात छिपाकर नहीं रखी है।” इर्विन से समझौता हो चुका, उसके बाद रात 8 बजे इर्विन से मैंनें कहा—“देखो, मुझसे समझौता करते ही मुझे लंदन क्यों भेजते हो? मेरी मांग तो जानते हो। यह तुमसे पूरी होने वाले नहीं है, इसलिए मुझे भेजने से फ़ायद?” इर्विन ने कहा कि तुम्हारी मांग कुछ भी हो तुम न्याय-मार्ग पर ही चलोगे, फिर मैनें चर्चा कि हाँ, मांग किस तरह रखी जाए। गांधी जी ने कहा, “ग्रामीण कि तरह सीधी-सादी भाषा में। यदि वहाँ कोई लंबी चौड़ी बातें करेगा, राजबंधारण की बारीकियों की बहस करेगा, तो मैं कह दूंगा कि मैं तो मूर्ख हूँ और मुझे ये दे दो। यदि मेरी बात कोई सुनना नहीं चाहेगा तो मै कह दूँगा, मुझको क्यों बैठा के रखते हो, वापिस हिंदुस्तान भेज दो।” मैंनें पूछा— वापिस आने के पहले आप वहाँ सार्वजनिक व्याख्यान तो देंगे ही? महात्मा जी ने कहा—“वह भी मैकडानल्ड या वाल्डविन चाहेगा तो ही, नहीं तो बंद मुँह वापिस चला जाऊँगा। मेरा स्वभाव यही है कि जिसके यहाँ रहना, उसका ग़ुलाम बनकर रहना। आख़िर उनका मेहमान बनके जाता हूँ और जबतक वहाँ रहूँगा, उनको क्षोभ हो ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता।” फ़ौज और अंग्रेज़ व्यापारियों के स्वत्वों के बारे में काफ़ी बहस हुई। हर बात इनकी निराली है। हम लोग हर बात को सांसारिक दृष्टि से देखते है। यह तात्विक और धार्मिक दृष्टी से देखते है। 100-200 साल भी लग जाए तो चिंता नहीं, किंतु स्वराज्य नहीं, रामराज्य ही चाहिए। बारीक़ी के साथ अध्ययन करता हूँ, तो ऐसा पता चलता है कि इनकी मांग जितनी ही बड़ी हो, उतनी ही उसमे कमी करने के लिए गुंजाइश है। समझने के लिए यों कहना चाहिए कि एक मन मक्खन निकाले हुए दूध की अपेक्षा यह एक सेर मक्खन वाला दूध लेना पसंद करेगे। तादाद शायद घटा देंगे। किंतु क़िस्म नहीं घटाएंगे। मैनें कहा कि अध्ययन कर लीजिए, नहीं तो कही बात बिगड़ जाएगी। किंतु गांधी जी कहते है कि आर. टी. सी. में अब तक क्या हुआ, यह मैंनें आज तक नहीं पढ़ा है, अब पढ़ लूँगा। विद्या मेरा बल नहीं है। न मुझे बहस करनी है। मुझे तो अपना दुःख रोना है। इसमें विद्वत्ता की कौन सी बात है। यह है भी सच, क्योंकि रोना और हँसना स्वाभाविक होता है। रोने में विद्वत्ता नाटकवाले ही दिखाते है। गांधी जी तो स्वाभाविक रुदन करना चाहते है।
इधर पंडितजी मुझसे कहते है कि अमुक विषय का अध्ययन करो, अमुक इतिहास को देख लो, अंगरेज़ों की करेंसी-नीति का इतिहास तैयार कर लो। मालवीय जी अनेक अस्त्र-शस्त्रों से लड़ेंगे, गांधी जी केवल एक ही बाण से। मालवीय जी कहते है, वहाँ प्रचार-कार्य करेगे। गांधी जी कहते है, प्रचार भी हमारे दुश्मनों की आज्ञा होगी, तभी करेगे। बिल्कुल नया ढंग, नया विचार, नया तरीक़ा है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि लंदनवाले भी अचरज करेंगे कि कैसे आदमी से पाला पड़ा है!
कल लिखते-लिखते गांधी जी का दाहिना हाथ बिल्कुल बेकार हो गया। अब बाए से लिखते है। रोज छ मील घूम लेते है। दूध एक सेर लेने लग गए हैं। गांधी जी कहते थे, चर्चिल से लंदन में अवश्य मिलना है, क्योंकि वह दुश्मनी रखता है, गालियाँ देता है। ‘बर्नार्ड शॉ से मिलेंगे क्या?’ यह पूछने पर कहा कि उससे क्या मिलेंगे!
छह
4 सितंबर , ’31
‘राजपूताना’ जहाज़’
कल गांधी जी ने फिर आर. टी. सी. के काम के संबंध में चर्चा छेड़ी मैंने आश्चर्य प्रकट किया कि ‘सरकार आपको क्या समझ कर बुला रही है? आप क्या मांगने वाले हैं, यह तो सरकार जानती है। करांची का प्रस्ताव भी सामने है। फिर भी आपको बुलाती है, इसके यह माने है कि आपकी मांग पूरी होने वाली है।” गांधी जी ने कहा, “मैंने तो कोई बात छिपाकर नहीं रखी है।” इर्विन से समझौता हो चुका, उसके बाद रात 8 बजे इर्विन से मैंनें कहा—“देखो, मुझसे समझौता करते ही मुझे लंदन क्यों भेजते हो? मेरी मांग तो जानते हो। यह तुमसे पूरी होने वाले नहीं है, इसलिए मुझे भेजने से फ़ायद?” इर्विन ने कहा कि तुम्हारी मांग कुछ भी हो तुम न्याय-मार्ग पर ही चलोगे, फिर मैनें चर्चा कि हाँ, मांग किस तरह रखी जाए। गांधी जी ने कहा, “ग्रामीण कि तरह सीधी-सादी भाषा में। यदि वहाँ कोई लंबी चौड़ी बातें करेगा, राजबंधारण की बारीकियों की बहस करेगा, तो मैं कह दूंगा कि मैं तो मूर्ख हूँ और मुझे ये दे दो। यदि मेरी बात कोई सुनना नहीं चाहेगा तो मै कह दूँगा, मुझको क्यों बैठा के रखते हो, वापिस हिंदुस्तान भेज दो।” मैंनें पूछा— वापिस आने के पहले आप वहाँ सार्वजनिक व्याख्यान तो देंगे ही? महात्मा जी ने कहा—“वह भी मैकडानल्ड या वाल्डविन चाहेगा तो ही, नहीं तो बंद मुँह वापिस चला जाऊँगा। मेरा स्वभाव यही है कि जिसके यहाँ रहना, उसका ग़ुलाम बनकर रहना। आख़िर उनका मेहमान बनके जाता हूँ और जबतक वहाँ रहूँगा, उनको क्षोभ हो ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता।” फ़ौज और अंग्रेज़ व्यापारियों के स्वत्वों के बारे में काफ़ी बहस हुई। हर बात इनकी निराली है। हम लोग हर बात को सांसारिक दृष्टि से देखते है। यह तात्विक और धार्मिक दृष्टी से देखते है। 100-200 साल भी लग जाए तो चिंता नहीं, किंतु स्वराज्य नहीं, रामराज्य ही चाहिए। बारीक़ी के साथ अध्ययन करता हूँ, तो ऐसा पता चलता है कि इनकी मांग जितनी ही बड़ी हो, उतनी ही उसमे कमी करने के लिए गुंजाइश है। समझने के लिए यों कहना चाहिए कि एक मन मक्खन निकाले हुए दूध की अपेक्षा यह एक सेर मक्खन वाला दूध लेना पसंद करेगे। तादाद शायद घटा देंगे। किंतु क़िस्म नहीं घटाएंगे। मैनें कहा कि अध्ययन कर लीजिए, नहीं तो कही बात बिगड़ जाएगी। किंतु गांधी जी कहते है कि आर. टी. सी. में अब तक क्या हुआ, यह मैंनें आज तक नहीं पढ़ा है, अब पढ़ लूँगा। विद्या मेरा बल नहीं है। न मुझे बहस करनी है। मुझे तो अपना दुःख रोना है। इसमें विद्वत्ता की कौन सी बात है। यह है भी सच, क्योंकि रोना और हँसना स्वाभाविक होता है। रोने में विद्वत्ता नाटकवाले ही दिखाते है। गांधी जी तो स्वाभाविक रुदन करना चाहते है।
इधर पंडितजी मुझसे कहते है कि अमुक विषय का अध्ययन करो, अमुक इतिहास को देख लो, अंगरेज़ों की करेंसी-नीति का इतिहास तैयार कर लो। मालवीय जी अनेक अस्त्र-शस्त्रों से लड़ेंगे, गांधी जी केवल एक ही बाण से। मालवीय जी कहते है, वहाँ प्रचार-कार्य करेगे। गांधी जी कहते है, प्रचार भी हमारे दुश्मनों की आज्ञा होगी, तभी करेगे। बिल्कुल नया ढंग, नया विचार, नया तरीक़ा है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि लंदनवाले भी अचरज करेंगे कि कैसे आदमी से पाला पड़ा है!
कल लिखते-लिखते गांधी जी का दाहिना हाथ बिल्कुल बेकार हो गया। अब बाए से लिखते है। रोज छ मील घूम लेते है। दूध एक सेर लेने लग गए हैं। गांधी जी कहते थे, चर्चिल से लंदन में अवश्य मिलना है, क्योंकि वह दुश्मनी रखता है, गालियाँ देता है। ‘बर्नार्ड शॉ से मिलेंगे क्या?’ यह पूछने पर कहा कि उससे क्या मिलेंगे!
- पुस्तक : डायरी के कुछ पन्ने (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : घनश्यामदास बिड़ला
- प्रकाशन : सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली
- संस्करण : 1958
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