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मेरी डायरी

meri Diary

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

     

    12 फरवरी, 1965
    शुक्रवार

    नई कविता और नई कहानी के संबंध में कितने ही लोग मुझसे प्रश्न करते रहते हैं। कॉलेज में भी छात्र इसी के संबंध में पूछा करते हैं। आज कल मेरे छात्रों में 'मूंदड़ा' सबसे अधिक साहित्य प्रेमी है। उसने यथेष्ट कविताएँ लिखी हैं। निबंधों की भी उसने रचना की है। उसने फ्रायडवाद के संबंध में एक लेख लिखकर मुझे दिखलाया और बतलाया कि वह उसे ‘धर्मयुग’ में भेजना चाहता है। अध्यापक होने के कारण मुझे तो सभी तरह की चीज़ें पढ़नी पड़ती हैं। भिन्न-भिन्न लेखकों की रचनाओं से उद्धरण लेकर उन्हें छात्रों को लिखाते-लिखाते मैं स्वयं उन्हीं में खो जाता हूँ। आधुनिक समीक्षकों में वाजपेयी जी की समीक्षाओं से मुझे विशेष संतोष है। पर कितने ही ऐसे समीक्षक हैं जिनकी समीक्षाओं को मैं नहीं समझ पाता। नई कविताओं और नई कहानियों में तो मैं कोई रस ही नहीं पाता। नई समीक्षाएँ भी मेरे लिए दुर्बोध हो जाती हैं। मुक्तिबोध जी की डायरी को मैं दो बार पढ़ चुका पर मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र से अलग हो जाना तो संभव है नहीं। इसीलिए चाहे जैसी भी स्थिति हो मैं कुछ न कुछ काम करता ही रहूँगा। प्रतिष्ठा कहीं न खो दूँ यही डर है।

    21 फरवरी, 1965
    रविवार

    रविवार डॉ. गुलाबदास जी कोई विशेष साहित्यिक काम करना चाहते हैं। वे लेख भी लिखना चाहते हैं। उन्होंने एक कहानी लिख कर मुझे दिखलाई और पूछा कि उसका अंत किस प्रकार किया जाए। कहानी एक सच्ची घटना के आधार पर लिखी गई थी। पर कहानी को रोचक बनाने के लिए कल्पना का भी आश्रय लेना पड़ता है। तभी तो यह कहा जाता है कि कहानी कुछ सच रहती है और कुछ झूठ। उन दोनों को मिलाकर हम लोग अपना मन बहलाते हैं और दूसरों का भी मन बहलाने की चेष्टा करते हैं। मैंने उनको निबंध संग्रह के लिए कहा, परीक्षा में जैसे निबंध दिए जाते हैं वैसे ही निबंधों की रचना की जाए। उन्हीं के साथ श्रेष्ठ लेखकों के भी कुछ आदर्श निबंध दिए जाएँ। निबंधों की एक सूची तैयार कर ली गई। उन्होंने कहा कि वे अवश्य इस बात के लिए प्रयत्न करेंगे। ऐसी पुस्तक छात्रों के लिए सचमुच उपयोगी होगी। मैं छात्रों को ऐसे विषयों पर निबंध लिखाता रहता हूँ। पर परीक्षा के बाद वे निबंध मुझे छात्रों से नहीं मिलते। यदि वे निबंध मिल जाएँ तो प्रकाशन के लिए प्रकाशक भी मिल जाएँगे। दिल्ली के एक प्रकाशक ने इच्छा भी प्रकट की है।

    26 फरवरी, 1965 
    शुक्रवार

    नलिनी को अपने गृहशास्त्र के अध्ययन में पारिवारिक बजट बनाने का भी प्रश्न करना पड़ता है। उसने कहा—हम लोगों को भी वैसा ही बजट बना लेना चाहिए। वह अपनी दादी से झगड़ती रहती है। उसका कहना ठीक है। सचमुच बजट बनाना आवश्यक है, परंतु मेरे घर में कुछ ऐसी अव्यवस्था आ गई है कि प्रयत्न करने पर भी किसी तरह अच्छा प्रबंध किया नहीं जा सकता। मुझे यहाँ आए 6 साल हो गए, परंतु ऐसा एक भी महीना नहीं गया, जिसमें महीने के अंत में मुझे कष्ट नहीं हुआ हो। वेतन के अतिरिक्त भी कहीं न कहीं पाने के लिए मैं प्रयत्न करता रहता हूँ। कुछ पाने के लोभ से ही ‘मध्यप्रदेश संदेश’ में लेख भेजता रहता हूँ। छोटा-मोटा काम कर प्रकाशकों से भी कुछ न कुछ पा ही जाता हूँ फिर भी घर का ख़र्च पूरा नहीं होता। बजट बनाया भी जाए तो किस तरह बनाया जाए। मैं तो स्वयं घर का प्रबंध कर नहीं सकता। सबसे बड़ा दोष तो यही है। जब तक घर का कोई अच्छा प्रबंधक नहीं है तब तक घर का काम चल नहीं सकता है। महेंद्र का काम सब व्यवस्थित हो गया है। पर देवेंद्र का जीवन अभी तक अव्यवस्थित है। जब उसका जीवन व्यवस्थित हो जाए तब मैं भी आराम से रह सकता हूँ।

    22 मार्च, 1965
    सोमवार

    रामानुजलाल जी शोक गीतों का संग्रह कर रहे हैं। उन्होंने एक कार्ड लिखा है। वे स्नेहलता के संबंध में शोक गीत चाहते हैं। उन्होंने हिंदी में स्नेहलता पर ऐसी कविता पढ़ी थी। पर वह कविता अब मिलती नहीं है। कालिका प्रसाद वर्मा जी ने इस संबंध में उन्हें लिखा है कि उन्होंने वह कविता अवश्य पढ़ी थी। उन्हें वह कविता पसंद थी। उस पर से अपनी पत्नी का प्यार का नाम उन्होंने स्नेहलता रखा था और बाद में अपने घर का ‘स्नेहलता कुंज’। पर अब न कविता याद है, न कविता का नाम, न यह कि किस पत्र में छपी थी। मैं भी नहीं जानता कि स्नेहलता संबंधी कविता कब और कहाँ छपी थी। शोक गीतों का संग्रह अच्छा काम है पर मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि हिंदी में पलग्रेव के ‘गोल्डन ट्रेज़री’ के समान एक कविता संग्रह किया जाए। उसके लिए दो तीन व्यक्ति भी मिलकर काम करें तो अच्छा है। हिंदी में अभी तक पाठ्य पुस्तक के रूप में तो कितने ही संग्रह निकल चुके हैं। कविताओं के संग्रह निकले हैं, कहानियों के संग्रह निकले हैं और निबंधों के भी, परंतु अभी तक ऐसा एक भी संग्रह नहीं निकला है जो साधारण पाठकों के लिए संतोषप्रद हो। मैंने इस संबंध में रामानुज जी को भी लिखा और खरे जी को भी। यदि ऐसा संग्रह निकाला जाए तो व्यवसाय की दृष्टि से भी लाभप्रद होगा।

    15 मई, 1965
    शनिवार

    घर में लड़के ख़ूब उपद्रव किया करते हैं। मुझसे तो कोई डरता नहीं। भोला को डाँटो तो वह हँस देता है। बब्बन तो मेरे डाँटने का उपहास उड़ाया करता है। सब बच्चे सिर्फ़ महेंद्र से डरते हैं। जब तक महेंद्र रहता है तभी तक उन पर नियंत्रण रखा जा सकता है। महेंद्र के जाते ही उनके उत्पात फिर शुरू हो जाते हैं। मार-पीट के साथ वे इतना हल्ला करते हैं कि लिखना पढ़ना भी मुश्किल है। दुपहर में भी मैं सो नहीं पाता। यहाँ यह बात प्रसिद्ध है कि क़िले में भूत है। एक बार संध्या के समय में ही मैं जब अकेला लेटा हुआ था तब अचानक आवाज़ आई—‘राम-राम कहो बच्चा राम-राम कहो’। मैंने चारों ओर देखा पर मैंने किसी आदमी को नहीं देखा। आवाज़ से मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि कोई आदमी नज़दीक से ही यह कह रहा है।

    यह काफ़ी दिन पहले की बात बतलाई। सुखरानी ने बतलाया कि रात में वह कभी-कभी पायजेब की आवाज़ सुनती है मानो कोई स्त्री जा रही हो। पर कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ता। नलिनी दास की चाची ने बतलाया कि उनके घर में कोई स्त्री धम-धम करती आती है और बिस्तर में बैठ जाती है पर दिखाई कुछ नहीं देता। इन बच्चों के आ जाने से शायद अब भूत  भी भाग गए।

    27 मई, 1965
    गुरुवार

    आज नेहरू का वार्षिक श्राद्ध दिवस है। गतवर्ष इसी दिन जब लोगों ने नेहरू के देहावसान का समाचार सुना, तब सभी लोग स्तब्ध रह गए। सभी के मन में एक संशय का भाव आ गया। सभी एक अज्ञात आशंका से त्रस्त हो गए। सभी सोचने लगे कि अब देश के कर्णधार के चले जाने पर राष्ट्रीय जीवन नौका को कौन ठीक दिशा में ले जा सकेगा। एक वर्ष व्यतीत हो गया परंतु लोगों की वही संशयावस्था। नेहरू के स्थान पर लाल बहादुर शास्त्री आ गए हैं पर सभी क्षेत्रों में एक असंतोष का भाव देखा जा रहा है। राष्ट्रभाषा के विवाद ने जो उग्र रूप धारण कर लिया उसके कारण लोगों के हृदय में यह आशंका होने लगी कि कहीं राष्ट्र की एकता भी छिन्न-भिन्न न हो जाए। चीन की समस्या तो अभी ज्यों की त्यों है, पाकिस्तान ने एक और समस्या उत्पन्न कर दी है। उसने कच्छ पर आक्रमण कर युद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी है। शेख अब्दुल्ला के कारण कश्मीर समस्या भी जटिल हो गई है। देश के भीतर राजनीति के क्षेत्र में कांग्रेस के भीतर फूट हो जाने के कारण एक असंतोष का भाव सर्वत्र फैल रहा है। छोटे-छोटे स्थानों में भी उसका प्रभाव अस्पष्ट रूप से लक्षित होता है। आजकल राजनाँद गाँव में नगरपालिका के अध्यक्ष के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव लाने के लिए जो आंदोलन हो रहा है, उसके मूल में भी फूट का वही भाव विद्यमान है।

    3 जून, 1965
    गुरुवार

    यह मेरी अंतिम दौड़ है। मैं अब बिलकुल थक गया हूँ। झंझटों से त्रस्त हो गया हूँ। अपनी ओर से तो यही प्रयत्न करता हूँ कि घर में सुख और संतोष का वातावरण रहे। अपनी ओर से अधिक से अधिक रुपए उपार्जित करने का प्रयत्न करता हूँ। रुपए मिलते अवश्य हैं पर ठीक समय में रुपए न पाने के कारण मैं विशेष कष्ट में पड़ जाता हूँ। उसी से घर में भी असंतोष का भाव उग्र हो जाता है। पर किया क्या जाए? मैं तो अपनी ओर से सभी को प्रसन्न रखना चाहता हूँ। सभी को संतुष्ट रखना चाहता हूँ। वृद्धावस्था में पारिवारिक मोह बढ़ जाता है, कम नहीं होता है। कम से कम परिवार के प्रति तो मेरा मोह बढ़ गया है, मेरा अपना कुछ स्वार्थ नहीं है। मेरा स्वार्थ परिवार का स्वार्थ है। साहित्यिक काम कर रहा हूँ। यही कोशिश करता हूँ कि कहीं से कुछ मिल तो जाए। 
    आज छिंदवाड़ा से एक प्रोफ़ेसर आए थे। उन्होंने बतलाया कि एक मासिक पत्र निकालने की योजना है। एक धनिक व्यक्ति उसे निकालना चाहते हैं। उस पर संपादक के रूप में मेरा नाम देना चाहते हैं। मैंने उनसे कहा कि यदि वे लोग मुझसे ऐसा काम लें जिससे मुझे आर्थिक लाभ हो तो मैं करूँगा। उनको मैंने अपनी योजना भी बतला दी है। वे छिंदवाड़ा पत्र भेज रहे हैं।

    आज सुबह मैंने दवा खा ली। आज उतनी तकलीफ़ नहीं हुई जितनी कल हुई। बब्बन ने चाय भी बना दी थी। दोनों गोलियाँ खा लेने के बाद मुझे आराम मालूम हुआ। शिवपुरी से पुरुषोत्तम सिंह जी का एक पत्र आया है। उन्होंने अपने पत्र में 'सुरसतिया' की चर्चा की है। वे बड़े क्षुब्ध हैं। उन्होंने मुझसे उस कहानी के संबंध में लिखने को कहा है, पर मुझे वह कहानी अभी तक मिली नहीं है। कहानी पढ़ने के बाद अवश्य लिखूँगा। ‘नई दुनिया’ में ‘सुरसतिया’ के पक्ष में एक लेख प्रकाशित हुआ है। ‘युगधर्म’ में मैंने ‘छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक परिषद्’ का प्रस्ताव पढ़ा। उसमें यह कहा गया है कि लेखक ने अपने इस उपन्यास में छत्तीसगढ़ी औरत को दुश्चरित्र चित्रित करते हुए छत्तीसगढ़ के गौरव को लांछित करने का घृणित प्रयास किया है। मेरी समझ में उपन्यासों में सभी तरह का चरित्र अंकित किया जाता है, इसलिए यदि किसी एक उपन्यास में किसी प्रांत की दुश्चरित्र नारी की कथा लिखी गई है तो उससे यह नहीं कहा जा सकता कि देश का गौरव नष्ट हुआ है। सभी प्रांतों में अच्छी स्त्रियाँ होती हैं, बुरी भी। छत्तीसगढ़ में भी अच्छी स्त्रियाँ हैं और बुरी भी। निम्न वर्ग की स्त्रियों में भी कितनी ही अच्छी स्त्रियाँ होती हैं। चूँकि प्रथा का मतलब है विधवा विवाह या तलाक़। ऐसी स्थिति में प्रथा के कारण किसी पर चरित्र लाँछन नहीं लगाया जा सकता। देखना यह चाहिए कि जिस व्यक्ति का चरित्र अंकित हुआ है उसमें स्वाभाविक रूप से भिन्न-भिन्न भावों का जो उत्थान-पतन हुआ है वह स्पष्ट रूप से बतलाया जाए। 'कंकाल' की कथा में भी दुश्चरित्र स्त्रियों का वर्णन किया गया है। शरत् बाबू ने तो ‘चरित्रहीन’ नामक उपन्यास ही लिखा है। मुझे तो यह देखना है कि विमल मित्र जी ने किस प्रकार सुरसतिया का चरित्र अंकित किया है। श्रेष्ठ उपन्यासकार तो अवश्य हैं, उन्होंने व्यर्थ ही किसी दुश्चरित्र स्त्री का वर्णन कर छत्तीसगढ़ के नारी समाज को अपमानित करने का प्रयत्न न किया होगा। छत्तीसगढ़ की ऐसी कितनी ही घटनाओं को मैं जानता हूँ जिसमें छत्तीसगढ़ी स्त्री का असाधारण मनोभाव प्रकट हुआ है। दुश्चरित्र होने पर भी उनमें एक विशुद्ध प्रेम का गौरव भी मैंने देखा है।

    11 मार्च, 1970
    बुधवार

    आज ‘युगधर्म’ में पढ़ा कि मुख्यमंत्री पं. श्यामाचरण शुक्ल ने विधानसभा में यह जानकारी दी कि विमल मित्र के बँगाली उपन्यास ‘सुरसतिया’ के हिंदी संस्करण पर प्रदेश में प्रतिबंध लगा दिया गया है, क्योंकि उसमें छत्तीसगढ़ के जीवन को विकृत ढंग से प्रकाशित किया गया है। मैं नलिनी के घर गया। रास्ते में मुझे श्री अनंत लाल चौबे जी मिले। वे भी मेरे साथ नलिनी के घर गए। नलिनी दो कप कॉफ़ी लाई और उनके लिए पान भी। अनंत लाल चौबे को मैंने अपनी लिखी दो किताबें नलिनी से माँग कर दीं। एक ‘हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक समीक्षा’ और दूसरी ‘जिन्हें नहीं भूलूँगा’। किशोर की चर्चा करने पर उन्होंने कहा कि भिलाई में उनके एक अच्छे परिचित व्यक्ति अच्छे पद में काम कर रहे हैं। उन्होंने उनके नाम से एक पत्र भी लिख दिया और यह भी कहा कि कांकेर जाने के बाद वे उन्हें पूरा ख़त भी लिख देंगे और उनके घर का पता भी पंद्रह तक यहाँ अवश्य भेज दूँगा, जिससे किशोर को उनसे मिलने में कोई कठिनाई न हो। शाम को नलिनी आई, उसने बताया कि अब वह दो-चार दिन रहेगी। उसके लेख को टाइप कराकर कुमार ले आया।


    4 जुलाई, 1970, 
    शनिवार

    मैं सुबह कॉलेज गया। दोपहर को डॉ. खरे आए। उन्होंने साप्ताहिक हिंदुस्तान में शांति जोशी द्वारा लिखित पंत जी के जीवन परिचय का कुछ अंश सुनाया जिसका संबंध मेरे जीवन से है। इसमें संदेह नहीं कि पंत जी की प्रारंभिक रचना में मैंने केवल सौंदर्य देखा, उसमें मैंने भाव नहीं पाया इसलिए मैंने उनकी 'आँसू' शीर्षक रचना को ‘प्रेट्टी नानसेंस’ कहा। उसी अंक में पंडित शिवाधर पांडेय जी का वह लेख छापा जिसमें 'आँसू' की बड़ी अच्छी आलोचना की गई थी। पंत जी से बराबर भेंट होती गई, पर मैंने उनकी किसी भी कविता को छापने की व्यग्रता नहीं प्रगट की। एक बार उन्होंने ‘कलख’ शीर्षक अपनी तीन कविताएँ सुनाईं । उनको मैंने ‘सरस्वती’ में प्रकाशित किया क्योंकि उन कविताओं में कोई भी जटिलता नहीं थी। एक बार उन्होंने बतलाया कि वे पीतांबर दत्त जी के बंगले में रहते हैं और उन्होंने मेरे संबंध में चर्चा की है। पीतांबर जी को मैं अच्छी तरह जानता था। वे सेंट्रल हिंदू कॉलेज के मेधावी छात्र थे। वे भी उसी बोर्डिंग हाउस में रहते थे जिसमें मैं रहता था। उनसे मैं ख़ूब परिचित था। मैं पंत जी के साथ उनके बंगले में गया। उनसे बातें हुई, फिर पंत जी ने मुझको ‘मौन निमंत्रण’ शीर्षक कविता सुनाई। उसे सुनकर मैं मुग्ध हो गया, फिर उन्होंने ‘शिशु’ नामक कविता सुनाई। मैंने पंतजी से कहा आपके संबंध में मेरी धारणा ग़लत थी। उसी के  बाद मैंने ‘सरस्वती’ के प्रथम पृष्ठ में ‘मौन निमंत्रण’ को छापा, फिर दूसरे अंक में ‘शिशु’ को, फिर लगातार ‘सरस्वती’ में उनकी कविताएँ छपती रहीं। ये सब बातें मैंने मेरी अपनी कथा में लिख दीं। डॉ. खरे ने उन सब बातों को नोट कर लिया है। शायद वे इस संबंध में कुछ लिखेंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली-8 (पृष्ठ 1-7)
    • रचनाकार : पदुमलाल पन्नालाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
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