मैंने विमल राय को सन् 1946 में पहली बार देखा, जब मैं 'इप्टा' (इंडियन पीपल्स थिएटर) की बंबई शाखा का जनरल सेक्रेटरी था। उन दिनों कुल-हिंद इप्टा, बंगाल द्वारा निर्मित फ़िल्म 'धरती के लाल' बन रही थी। इस फ़िल्म के निर्देशक ख़्वाजा अहमद अब्बास थे। शंभू मित्र, तृप्ति मित्र, रवि शंकर, स्व. शांतिवर्द्धन, दमयन्ती साहनी एवं अनेक दूसरे कलाकार उसमें भाग ले रहे थे।
उस समय 'इप्टा' की बहुत इज़्ज़त थी। उस समय पूरे भारत में शायद ही कोई उच्चकोटि का कलाकार होगा, जिसका संबंध उससे न हो। यह आज़ादी के पहले का समय था। देशभक्ति के वलवले अभी तक ठंडे नहीं हुए थे। उन दिनों उच्च आदर्शों की जगह अभी पार्टीबाज़ी और स्वार्थ ने नहीं ली थी।
मेरा जहाँ तक अनुमान है, विमल राय उस ज़माने में 'इप्टा' के बहुत ज़ियादा हमदर्द थे। इसलिए 'इप्टा' की विचारधारा (सामाजिक सच्चाइयों का यथार्थ चित्रण निर्भय होकर करना) उन्होंने अपनी तत्कालीन सुविख्यात फ़िल्म 'हमराही' में पेश की। यह फ़िल्म 'न्यू थियेटर्स' में उनकी अंतिम फ़िल्म थी। जब यह फ़िल्म बंबई में प्रदर्शित हुई तो वह स्वयं बंबई पधारे थे। उस समय 'धरती के लाल' के शूटिंग 'श्री साउंड स्टूडियो’ में चल रही थी। वहाँ आकर उन्होंने उसे प्रोत्साहन दिया था। हम सब पर उनकी सुंदरता, नम्र स्वभाव, लंबा क़द, मीठी वाणी और विवेकशीलता बड़ा प्रभाव डाल गई। वह उस समय पैंतीस-छत्तीस साल के व्यक्ति थे। उन्होंने फ़ाख़्ताई रंग का सूट पहन रखा था और उसी रंग का हैट लगा रखा था। वे बड़े ही 'स्मार्ट' नज़र आ रहे थे।
दूसरी बार उनके दर्शन मुझे सन् 1656 में रणजीत स्टुडियो में 'हम लोग' के सेट पर हुए। श्यामा के साथ उस समय एक प्रेम-दृश्य चल रहा था। दो-तीन रिहर्सल में उन्हें शायद यह अनुमान हो गया कि उनकी मौजूदगी में मैं नर्वस हो रहा हूँ। इसलिए वह निर्देशक जिया सरहदी से बातें करने चले गए। बाद में किसी ने मुझे बतलाया कि वह मुझे ही देखने आए थे और अपनी किसी फ़िल्म में मुझे लेना चाहते थे। यह सुनकर मुझे यक़ीन नहीं आया कि मैं इतने महान निर्देशक के साथ काम करूँगा। पी.सी. बरूआ के बाद दूसरे नंबर पर मैं इन्हीं को मानता था। कई रातें तो मैंने सोच-सोचकर ही बिता दीं। फिर, कुछ समय बाद उन्होंने मुझे अपनी फ़िल्म 'दो बीघा जमीन' के लिए बुलाया तो मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा। मेरे पैर ज़मीन पर नहीं टिक रहे थे।
विमल राय का बंबई आना ही हिंदी फ़िल्मों पर उपकार था। यह बात तो 'दो बीघा ज़मीन', 'परिणीता,' 'देवदास', 'काबुलीवाला', 'सुजाता', 'बन्दिनी' आदि से ही स्पष्ट हो जाती है। इन फ़िल्मों ने हमारे देश के फ़िल्मी संसार पर बड़ा गहरा असर डाला है।
आज तक मैं लगभग साठ फ़िल्मों में काम कर चुका हूँ, पर अभी भी जनता 'दो बीघा ज़मीन' के साथ मेरा नाम जोड़ती है। 'सबको इक दिन है जाना'—विमल राय जैसे महान व्यक्ति भी इस दुनिया से जा सकते हैं। किसी न किसी दिन मेरी भी बारी आ सकती है। किंतु मुझे विश्वास है कि मरते हुए मुझे इस बात का संतोष होगा कि मैंने 'दो बीघा ज़मीन' में अपना काम सफलतापूर्वक निभाया था।
मुझे याद आ रहा है पहले दिन की शूटिंग का पहला शॉट—कितना अनोखा अनुभव था वह! ज़मींदार की बैठक का दृश्य लगा हुआ था। ज़मींदार (मुराद) को मुझे अपनी ज़मीन बेचने को कहना था। मैं सेट पर आने के पहले बहुत ही डर रहा था। मुझे शक था कि विमल राय को मेरी विषम और कठिन किसान की भूमिका करने में विश्वास नहीं था, क्योंकि मैं विलायत से लौटकर आया था, सुशिक्षित परिवार का लड़का था और मुझे ग्राम्य जीवन का अनुभव नहीं था, ग्राम्य जीवन निकट से देखने का कभी संयोग नहीं मिला था। मेरा अनुमान था कि वह भूमिका मुझे 'इप्टा' का सदस्य होने के कारण दी गई थी। और अगर कोई एक हौसला था तो यह कि अभिनय के प्रति उनके और मेरे विचारों में मेल होगा।
मैं सेट पर कोरा ही नहीं आया था। मैंने पूरी कहानी के उतार-चढ़ाव रट रखे थे। अपनी वेश-भूषा और अपना मेकअप भी पूरी तरह से संतुलित कर लिया था। फिर भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि कैमरे के सामने अभिनय करने की विशेष आवश्यकता की मुझ में कमी थी। मुझे रंगमंच का ही थोड़ा-बहुत अनुभव था, इसलिए थोड़े ही समय में जान गया कि स्टेज और सेट की तकनीक में ज़मीन-आसमान का अंतर है। अतः उस समय मेरी डूबती नैया को बचाने वाली एक ही वस्तु थी—विमल राय का प्रेरणात्मक एवं उत्साहवर्द्धक व्यवहार। शूटिंग के पहले दो दिन मैंने विमल राय का चेहरा एक पहेली के रूप में देखा था और आज भी वह चेहरा पहेली ही बना हुआ है। रिहर्सल का समय आया। बैठक के बाहर बने हुए बरामदे में भीड़ थी। उसी समय विमल दा ने मुझे देखा और उन्होंने केवल इतना ही कहा, बैठक वाले दरवाज़े में पैर साफ़ करके जाना। यह छोटी-सी बात थी, किंतु कितनी मार्गदर्शक थी! पहली ही रिहर्सल में मुझे पता लग गया कि मैं ज़मीदार के सामने तुच्छ जीव हूँ। विमल दा के उस सेट पर कितना शांत वातावरण था। फ़िल्म स्टूडियो में मैंने इतना शांत वातावरण पहले कभी नहीं देखा था। हमेशा बिना मतलब की उच्छृंखलता और शोर देखा था। किंतु यहाँ हर आदमी अपनी-अपनी जगह काम में इस तरह लीन था, मानो सिपाही अपनी ड्यूटी पर हो। अतः जब शॉट लेने का समय आया था मुझे ऐसा लगा कि पूरी की पूरी सेना लड़ाई के मैदान में अपने जनरल के इशारे की राह देख रही हो। पूरा दृश्य एक ही शॉट में लेना था, जिसके अंतिम भाग में ज़मींदार को अपना पाँव छुड़ाकर बैठक के बाहर निकल जाना था। कैमरा ट्रॉली के ऊपर था और उसकी हलचल भी काफ़ी पेचीदा थी, जो बड़ी मेहनत के बाद तैयार हुई थी। अतः मुझे भी ऐसा लग रहा था कि मैं भी फ़ौज का एक अंग हूँ, जिसे इशारा मिलते ही सिर-पैर की बाज़ी लगानी थी। इस अनुभव ने मेरे शरीर के ख़ून को गर्म कर दिया। फिर उन्होंने अपनी साधारण आवाज़ में कहा, स्टार्ट साउंड! और शॉट चालू हो गया। मुझे कुछ याद नहीं कि क्या हुआ; इतना याद है कि जब ज़मींदार उठा तो मैंने उसके पाँव पकड़कर गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया था। उसने उसी क्षण मुझे झटका देकर पैर छुड़ा लिए; मुझे इतना अपमान महसूस हुआ कि मैं दहाड़ मार-मार कर रोने लगा। शॉट ख़त्म होने के बाद भी मैं फ़र्श पर पड़ा रोता रहा।
विमल दा ने तारीफ़ का एक भी शब्द अपने मुँह से नहीं निकाला। उन्होंने अपनी हमेशा सी शांत मुद्रा से पीछे जाकर कैमरामैन कमल बसु से 'क्लोज़-अप' लेने को कहा। मैं फ़र्श पर पड़ा-पड़ा उनके चेहरे को ग़ौर से देखने लगा। उनकी गंभीरता में कोई अंतर नहीं पड़ा। चेहरे पर प्रसन्नता की आभा अवश्य दिखाई दी। वह बतला रही थी कि उन्हें मनपसंद कलाकार मिल गया है।
'दो बीघा ज़मीन' की कहानी वास्तव में कवीन्द्र रवीन्द्र की एक उत्तम कविता पर आधारित थी।
विमल दा की जिस दूसरी फ़िल्म में मैंने काम किया था, वह भी रवीन्द्र बाबू की 'काबुलीवाला' पर आधारित थी। पाठक जानते ही होंगे कि गुरुदेव और शांति-निकेतन से मेरा कितना प्रेम है। गुरुदेव की रचना पर फ़िल्म बने और तिस पर विमल दा का निर्देशन हो। उस समय मेरी आत्मा कितनी प्रसन्न थी, उसका अनुमान आप नहीं लगा सकते। इसका वर्णन शब्दों में करना असंभव है।
जिस प्रकार कवीन्द्र रवीन्द्र को उनकी रचनाओं से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार विमल दा को उनकी फ़िल्मों से अलग नहीं किया जा सकता। मुझे याद है, एक बार कलकत्ता में पत्रकारों की सभा में विमल दा और मैं शामिल हुए थे। विमल दा को कुछ बोलने के लिए कहा गया था। तब वह केवल इतना ही कहकर बैठ गए थे—जो भी मुझे कहना होता है, वह मैं फ़िल्मों के माध्यम से कह देता हूँ।
अपने कार्यों से उन्हें कितना प्रेम था, यह उनकी एक-एक फ़िल्म के एक-एक दृश्य से प्रकट हो जाता है। 'दो बीघा ज़मीन' के बाह्य चित्रांकन के समय वह सारा दिन काम करने के बाद रात-भर हृषिकेश मुखर्जी एवं अपने साथियों के साथ गलियों-बाज़ारों में घूमा करते थे। इस प्रकार वे अपने अगले दिन की शूटिंग के लिए स्थल चुनते थे। कामचलाऊ शॉट लेना विमल दा के नियमों के विरुद्ध था। वह कभी भी कोई काम जल्दी में नहीं करते थे। सुबह सबसे पहले स्टूडियो पहुँच जाना, रात को सबके बाद लौटना उनका प्रतिदिन का नियम था और इस नियम को निभाने के लिए उनके साथी थे चाय और सिगरेट। इतनी छोटी उम्र में कैंसर से मृत्यु का शिकार बनाने में चाय और सिगरेट का बहुत हाथ रहा है।
विमल-दा के दूसरे नंबर के साथी थे स्टूडियो के कर्मचारी, टेकनीशियन आदि।
'विमल राय प्रोडक्शन' का ऑफ़िस मोहन स्टूडियो, अँधेरी में था। कलकत्ता से बंबई आकर अपने काम के लिए जब विमल दा ने यह स्टूडियो लिया, तो उस समय यह बहुत बुरी दशा में था। इसके मालिक इसे बंद करने की सोच रहे थे। वहाँ के कर्मचारियों ने अपनी रोज़ी-रोटी चालू रखने के लिए एक सहकारी संस्था बनाकर संचालन अपने हाथ में ले लिया था, जो बहुत ही असाध्य सिद्ध हो रहा था। किंतु विमल दा के चरण पड़ते ही 'दो बीघा ज़मीन', 'बिराज बहू' जैसी फ़िल्में बनीं और इस तरह मोहन स्टूडियो का नाम शीघ्र ही जगमगाने लगा और आज वह बंबई के प्रतिष्ठित एवं मुख्य स्टूडियो में से एक है। चाहे उसका लाभ मालिक ने अधिक उठाया हो, किंतु विमल दा के प्रेम ने सब कार्यकर्ताओं पर इतना अच्छा प्रभाव डाला कि वर्णन नहीं किया जा सकता।
विमल दा को फ़िल्मों से कितना लगाव था, यह उनकी मृत्यु के बाद की उनकी अंतिम यात्रा से ही ज्ञात हो जाता है। उस समय सब कलाकार, दिग्दर्शक, निर्माता, कर्मचारी आदि यात्रा में सम्मिलित थे। सब एक ही बात कह रहे थे, विमल दा एक असाधारण और अद्वितीय व्यक्ति थे।
ही वाज़ ए वंडरफुल कॉमरेड, श्री बी.आर. चोपड़ा बार-बार कह रहे थे। मैं स्वयं उस दिन काफ़ी लंबी बीमारी के बाद ठीक हुआ था। मुझे फ़्लू के दो-तीन हमलों ने बिल्कुल बेकार-सा कर दिया था। श्मशान भूमि तीन-चार मील दूर थी। कुछ दूर तक तो मैं पैदल चला, किंतु दूसरे कर्मचारी साथियों ने मुझे मोटर में बैठा लिया। मोटर में बैठना मुझे अपराधजनक लग रहा था। क्या मैं अपने सदा के लिए बिछुड़े हुए साथी को आदर और सम्मान के साथ विदा नहीं कर सकता? मैं उसी समय फिर उतर गया और पैदल ही चलने लगा, चाहे घर पर लौटने पर मेरी हालत फिर ख़राब हो गई थी।
मैं अपने आपको फ़िल्मों में उतना समर्पित न कर पाया जितना कि विमल दा समर्पित थे। इसके अनेक कारणों में से एक कारण ही बतलाना चाहता हूँ। कलाकार का आनंद अपने काम से सबको संतुष्ट करने में है। इसके उलटे, बहुत से निर्माता-निर्देशक दूसरों पर निर्भर रहते हैं। प्रायः या वे बहुतों को अपने ऊपर निर्भर करने वाले जीव हैं। उन्हें कलाकार की भाँति रहना नसीब नहीं है। अतः कला का सुख भी उन्हें अपने इस परिवार से ही प्राप्त होता है।
विमल दा अपने फ़िल्मी परिवार को घर जैसा ही प्रेम देते थे, यह भी विमल दा के चरित्र की एक बड़ी विशेषता है। इस परिवार के कुछ प्रसिद्ध व्यक्ति हैं- हृषिकेश मुखर्जी, कमल बसु, सुधेन्दु राय, सलिल चौधरी, मणि भट्टाचार्य, असित सेन आदि। विमल राय ने कितने ही प्रतिभाशाली कलाकार दिए हैं। चाहे दूर से, चाहे पास से, सबके साथ विमल दा का प्रेम सदा क़ायम रहा।
'दो बीघा ज़मीन' की सफलता के बाद मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं केवल यथार्थवादी और आदर्शवादी फ़िल्मों में ही काम करूँगा। लेकिन फिर मैंने एक बहुत ही घटिया क़िस्म की फ़िल्म में काम करना स्वीकार किया। संयोग से उस दिन विमल दा भी सेट पर उपस्थित थे। उन्होंने बहुत ही आश्चर्य प्रकट किया। उस दिन मुझे बड़ा ही दुःख हुआ। मुझे विमल दा की प्रसिद्धि से बहुत ईर्ष्या हुई। वह अपनी मर्ज़ी से कहानी चुन सकते थे, अपने ढंग की पटकथा लिखवा सकते थे। क्या मेरी इतनी परवशता को व्यंग्य-भरी दृष्टि से देखना उन्हें शोभा देता था?
उस दिन से मेरा फ़िल्मों का रहा-सहा आदर्शवाद भी समाप्त हो गया। मैं उसे केवल रोटी-पानी के दृष्टिकोण से देखने लगा। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि कभी-कभार मुझे अपनी मनचाही फ़िल्में मिल ही जाती थीं। भला और कौन मेरा समकालीन है जिसे 'सीमा', 'गरम कोट', 'हीरा-मोती', 'टकसाल', 'भाभी', 'हक़ीकत', 'वक़्त' जैसी विभिन्न भूमिकाओं वाली फ़िल्में मिली हों? मैंने अपनी मनपसंद फ़िल्मों की न तो राह देखी और न उस पर निर्भर ही रहा। मैं बस घटिया फ़िल्मों में काम करना इसलिए स्वीकार कर लेता हूँ कि अच्छी फ़िल्म नसीब होने के दिन का निश्चिंतता से इंतिज़ार कर सकूँ। विमल दा काफ़ी समय तक मेरे इस व्यावहारिक दृष्टिकोण को न समझ पाए, क्योंकि उनके अनुसार मेरे प्रगतिवादी आदर्श का इससे कोई मेल नहीं था। पर दुःख है कि निष्ठुर सत्य ने समय पाकर विमल दा को अपने आदर्शों से समझौता करने के लिए विवश कर दिया। वह यथार्थवादी से अधिक आध्यात्मिकतावादी थे। इस कारण वह कभी भी ठीक-ठीक समझ न सके कि फ़िल्म-व्यवसाय में कला को सच्ची स्वतंत्रता मिलना और सत्यं शिवं सुंदरं की कल्पना करना असंभव है। वहाँ तो केवल असत्यं, असुंदरम, अशिवं ही चलता है।
इसलिए वह पिछले कई वर्षों की सीढ़ियों पर पैर रखकर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहे। अतः धीरे-धीरे वह अपना स्वास्थ्य, सुख, चैन सब कुछ खो बैठे। वह सदा इसी चिंता में पड़े रहते थे। किसी भी दो-टूक फ़ैसले पर अड़ना उनके लिए दिनों-दिन कठिन होता जा रहा था। इस कारण उनके कई साथी उन्हें छोड़कर चले गए। विमल दा की परेशानियों का बोझ दिनों-दिन बढ़ता गया और अंततः उसे संभालना कठिन हो गया।
किंतु विमल दा की महानता इसमें है कि अंतिम घड़ी तक उन्होंने अपने इष्टदेव की आराधना नहीं छोड़ी। सारी विवशताओं के बावजूद वह अपनी कला को सदा सच्ची, सुंदर एवं कल्याणमयी बनाने में लगे रहे। अपने अल्प-जीवन की अंतिम रात भी, जबकि उन्हें भली-भाँति मालूम हो चुका था कि उनके बचने की सारी आशाएँ छोड़ी जा चुकी हैं, वह सुबह तक अपनी अगली फ़िल्म के कथानक पर लेखकों से विचार-विमर्श करते रहे। और जब मृत्यु का पंजा सिर पर आता हुआ दिखाई दिया, तो हँसकर उन्होंने अपनी पत्नी से अंतिम बार सिगरेट पीने की अनुमति माँगी थी।
- पुस्तक : बलराज साहनी- संतोष साहनी समग्र
- संपादक : बलदेवराज गुप्त
- रचनाकार : बलराज साहनी
- प्रकाशन : हिंदी प्रचारक संस्थान
- संस्करण : 1994
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