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समय में गढ़ते हुए

samay mein gaDhte hue

आन्द्रेई तारकोवस्की

आन्द्रेई तारकोवस्की

समय में गढ़ते हुए

आन्द्रेई तारकोवस्की

और अधिकआन्द्रेई तारकोवस्की

     

    फ़िल्मीय बिंब
    बात को कुछ इस तरह कहें कि कोई आत्मिक यानी महत्वपूर्ण फेनोमना महत्वपूर्ण है तो विशेषकर इसीलिए क्योंकि वह अपनी स्वयं ही की सीमा लाँघता है, वह किसी विशाल आध्यात्मिक और ज़ियादा ही बड़ी सार्वभौमिक बात की अभिव्यक्ति और प्रतीक की तरह, बल्कि भावनाओं और विचारों का एक समूचा संसार अपने ही भीतर मूर्त कर प्रस्तुत होता है—यही उसके महत्व का पैमाना है।
    (टॉमस मान, दि मैजिक माउंटेन)

    यह कल्पना करना ही मुश्किल है कि कलात्मक बिंब जैसी कोई अवधारणा किसी ऐसे सुनिश्चित सिद्धांत के रूप में व्यक्त की जा सकती है जो आसानी से सूत्रबद्ध और बोधगम्य हो सके। यह संभव नहीं है, और कोई भी नहीं चाहेगा ऐसा हो। मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगा कि बिंब अनंत में फैलते हुए चरम की ओर बढ़ते हैं, और फिर, जिसे हम बिंब का विचार कहें—कि वह बहुआयामी और बहुअर्थी है—वह, ठीक अपने स्वभाव ही के तईं, शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकता। लेकिन कला में वह अपनी अभिव्यक्ति खोज लेता है। विचार के किसी कलात्मक बिंब में अभिव्यक्त होने का अर्थ यही होगा कि उसके लिए कोई बिल्कुल उपयुक्त रूप—रचनाकार के संसार को बहुत सूक्ष्मता के साथ संप्रेषित करने वाला रूप—मिल गया है। यहाँ मैं यह कोशिश करूँगा कि आम तौर से जिन्हें बिंब कहा जाता है उसकी किसी संभाव्य व्यवस्था—कि जिसके भीतर मैं सहज और मुक्त महसूस कर सकूँ, ऐसी व्यवस्था के पैरामीटर्स को परिभाषित करूँ।

    यदि तुम अतीत को, यानी अपने पीछे बिखरे पड़े जीवन को, यानी उसके अत्यंत जीवंत क्षणों को याद करने के लिए दिमाग़ पर ज़ोर डाले बिना ही, उस पर बिल्कुल सहज नज़र डालो, तब, जिनमें तुम हिस्सेदार रहे उन घटनाओं की एक-एक विशिष्टताओं को, और जिन पात्रों से मिले उनकी विलक्षण वैयक्तिक विशिष्टताओं को याद कर चकित होते हो। यह अकेली-अकेली निजी विशिष्टता अस्तित्व के हर क्षण के प्रबल लक्षण की तरह है; जीवन के हर क्षण में, स्वयं जीवन-सिद्धांत ही अपने आप में विलक्षण है। इसीलिए, कलाकार उस सिद्धांत को ग्रहण करने की कोशिश करते हुए उसे देह प्रदान करता है, हर बार नई देह और हर बार आशा करता है—हालाँकि व्यर्थ में—कि वह मानवीय अस्तित्व के सत्य की संपूर्ण छवि हासिल कर लेगा। सौंदर्य की गुणवत्ता जीवन के उस सत्य में है जो कलाकार के द्वारा नई तरह से, उसके व्यक्तिगत स्वप्न के अनुरूप, आत्मसात् किया जाए और प्रकट हो। कोई भी, ज़रा-सी सूक्ष्मता से देखे तो लोगों के व्यवहार में चालबाज़ी और असलियत, छलकपट और ईमानदारी, पाखण्ड और सत्यनिष्ठा के बीच भेद को हमेशा चीन्ह लेगा। जीवन के अनुभव द्वारा हमारे बोध में एक तरह की छन्नी जन्म लेती है जो हमें उस चमत्कार पर यक़ीन करने से रोकती है जिसमें संरचनात्मक विन्यास—अप्रासंगिक बन, जाने या अनजाने टूटता है।

    कुछ लोग झूठ बोलने में अयोग्य हैं। कुछ ऐसे हैं जो पूरे भरोसे और अंतस्फूर्ति के साथ झूठ बोलते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं जानते कैसे झूठ बोलें, लेकिन झूठ नहीं बोलने में अयोग्य हैं, और बड़ी फूहड़ता और निकम्मेपन के साथ वैसा करते हैं। हमारे इस विचारणीय विषय, यानी जीवन की तार्किक संगति के सूक्ष्म अवलोकन के अंतर्गत दूसरी तरह के लोग ही सत्य की धड़कन को पहचान पाते हैं और प्रायः ज्यामितीय महीनता के साथ जीवन की चंचल प्रवृत्तियों को भली-भाँति समझ सकते हैं।

    बिंब अभेद्य और मायावी होता है, हमारी चेतना पर और जिसे रूपाकृत करना चाहता है उस यथार्थ-संसार पर निर्भर रहता है। अगर संसार अभेद्य है, तब बिंब भी वैसा ही होगा। किसी-न-किसी तरह का यह समीकरण सत्य और मानवीय चेतना के (कि जो यूक्लिडियन द्वारा बँधी हुई है) दरमियाँ किसी परस्पर सह-संबंध का सूचक है। हम ब्रह्मांड की सम्रगता को ग्राह्य नहीं कर सकते, लेकिन काव्यात्मक बिंब उस समग्रता को अभिव्यक्त कर सकता है।

    बिंब सत्य की एक धारणा है, यानी हमारे आगे छाए हुए अंधकार की दरार में से प्रदान की गई एक झलक। जब विभिन्न जोड़ सत्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति बन ऐसा विलक्षण और बेजोड़ देहधारी बिंब बनाएँ कि अपनी सरलतम अभिव्यक्तियों में स्वयं जीवन ही जैसा है, तभी वह देहधारी बिंब विश्वसनीय होगा।

    जीवन के सूक्ष्मतम अवलोकन के रूप में बिंब हमें एकदम जापानी कविता की ओर ले जाता है।

    मेरे लिए सर्वाधिक आकर्षक बात यह है कि यहाँ—पहेली को शनैः शनैः बुझाने जैसा—किसी अंतिम बिंब की ओर इशारा करता कोई संकेत नहीं है। हाइकू कविता इस तरह अपना बिंब सहेजती हैं कि वे अपने स्वयं के सिवा और कोई अर्थ नहीं रखतीं, और उसी क्षण इतना कुछ अभिव्यक्त करती हैं कि उनके अंतिम अर्थ को पकड़ना ना-मुम्किन है। बिंब जैसे-जैसे अपनी क्रियाशीलता (फ़ंक्शन) के संगत होता जाता है, वैसे-वैसे यह असंभव हो जाता है कि उसे किसी स्पष्ट बौद्धिक सूत्र में संकुचित करें। हाइकू के पाठक को उसी तरह उसमें रमना चाहिए जैसे वह प्रकृति में रमा हो; डूब कर, गहराई में जा स्वयं को बहने देते हुए, ब्रह्माण्ड में तैरता-सा कि जहाँ आकाश है न पाताल।
    एक पल बाशो की इन हाइकू पंक्तियों पर ग़ौर करें :
    ‘‘तालाब पुराना निश्चल
    एक मेंढ़क कूदा जल में 
    छप से आवाज़ उठी।’’

    या :

    ‘‘छप्पर के लिए कटे सरकंडे
    ठूँठ खड़े उपेक्षित मुलायम बर्फ़ की बौछार तले।’’

    या फिर : 

    ‘‘कैसा आलस?
    कोई मुझे उठान पाया। 
    बसंती बारिश बुदबुदाती।’’

    ज़िंदगी को कितनी सरलता और बारीकी के साथ देखा गया है! सोच का कितना अनुशासन और कल्पना की कैसी शालीनता। पंक्तियाँ अत्यंत सुंदर क्योंकि क्षण उखड़ा और जमा है, अभिन्न और अनंत भी है।

    जापानी कवि 'अवलोकन की तीन पंक्तियों' में यथार्थ के अपने स्वप्नों को अभिव्यक्त करना जानते हैं। उन्होंने उसे महज़ देखा नहीं, बल्कि दिव्य शांति के साथ उसके कालातीत अर्थ को खोजा। और फिर अवलोकन जितना सूक्ष्म होगा वह उतना ही विलक्षण होगा और किसी बिंब का रूप लेने में उतना ही सक्षम होगा। जैसा दोस्तोयेव्स्की ने गहरी अंतर्दृष्टि के साथ कहा, ज़िंदगी किसी भी गल्प से बढ़-चढ़ कर होती है।

    सिनेमा में यह बात कुछ ज़ियादा ही अहमियत रखती है कि अवलोकन ही बिंब का महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो फोटोग्राफ़िक रिकॉर्ड से प्रायः अविभाज्य है। फ़िल्मी-बिंब अवतार-स्वरूप, दृष्टव्य और चार-आयामी है। लेकिन, किसी भी हालत में, हर फ़िल्मी-दृश्य संसार का बिंब नहीं हो सकता; जैसा कि अक्सर ही वह किसी विशिष्ट पहलू ही को नहीं बखानता। तथ्यों का जस-का-तस (नेचुरलिस्टिक) निरूपण सिनेमाई बिंब के सृजन के लिए अपने आप में क़तई पर्याप्त नहीं है। सिनेमा में उभरा बिंब सिनेकार के स्वयं ही के भीतर उपजे किसी पदार्थ के बोध को अवलोकन के रूप में प्रस्तुत करने की योग्यता पर निर्भर है।

    गद्य से एक दृष्टांत उठाएँ—ताल्स्तॉय की कहानी ‘इवान इलीच की मृत्यु’ के अंत ने हमें बताया कि किस तरह कैंसर की मृत्युशैय्या पर ओछे-स्वभाव की पत्नी और छिछली पुत्री से घिरा एक रूखा और घुन्ना आदमी मृत्यु के पूर्व उनके लिए क्षमा की याचना करता है! उस क्षण, बिल्कुल अप्रत्याशित रूप से, वह भलमनसाहत के इतने गहरे भाव से भर जाता है कि सुंदर वस्त्र पहनने में मगन, नृत्य पार्टियों में ग़ाफ़िल, संवेदनहीन और विचारशून्य उसका परिवार उसे एकाएक गहरे दुख भरा मालूम देने लगता है जो सारी दया और करुणा का हक़दार है। और फिर, मृत्यु की नोक पर उसने महसूस किया जैसे कि वह अंतड़ी-समान किसी लंबी, कोमल काली नली में रेंगता जा रहा है... दूर कहीं रौशनी की कोई झलक दिखाई देती है, और वह रेंगता ही जाता है लेकिन किनारे नहीं पहुँचता, जीवन को मृत्यु से अलग करती अंतिम प्राचीर को लाँघ नहीं पाता। उसकी पत्नी और पुत्री पास खड़ी हैं। वह कहना चाहता है, मुझे क्षमा करना। लेकिन इसके बनिस्बत अंतिम क्षण में कहता है, मुझे जाने दो। (यहाँ अँग्रेज़ी में है फ़ॉरगिव मी और लेट मी थ्रू; लेकिन मूल रूसी शब्दों से बात ज़ियादा स्पष्ट होती है।... वह कहना चाहता है प्रोस्तीते लेकिन बोल निकलते हैं प्रोपोस्तीते) स्पष्टतः वह बिंब, जो हमें हमारे अस्तित्व ही की गहराइयों तक हिला देता हो, उसकी केवल एक ही व्याख्या नहीं हो सकती। उसके कई अर्थ हमारी अपनी ही धुँधली स्मृतियों और अनुभूतियों को याद करते हुए, हमें अचंभित करते हुए, किसी रहस्योद्घाटन की तरह हमारी आत्माओं को झंझोड़ते हुए हमारी अंतरतम भावनाओं तक पहुँचते हैं। तुच्छ कहलाने का जोखिम उठाते हुए कहूँ कि वह जीवन के, और हमने जिस सत्य का अनुमान किया उसके इतने समान है कि वह उन स्थितियों का मुक़ाबला कर सकती है जिन्हें हम पहले ही से जानते या कल्पना में बसाते आए हैं। अरस्तूई-सिद्धांत के अनुसार किसी प्रतिभावान व्यक्ति द्वारा अभिव्यक्त वचन सामान्य सा ही मालूम देता है। लेकिन, वह कितना गहरा और बहुआयामी बन जाता है, यह पाठक के चित्त पर निर्भर करेगा। हमने लिओनार्दो के पोर्टेट जूनियर के साथ एक युवती को फ़िल्म ‘मिरर’ में उस दृश्य के लिए उपयोग में लिया जिसमें छुट्टी ले घर आया पिता बच्चों संग कुछ वक़्त बिताता है—ज़रा हम उस पर ग़ौर करें।
    लिओनार्दो के बिंबों की दो चीज़ें आकर्षक हैं। पहली है, पदार्थ को बाहर से परखने की, यानी संसार को 'पीछे खड़े होकर' या 'ऊपर से' देखकर परखने की कलाकार की क्षमता—जो बाख़ या ताल्स्तॉय जैसे कलाकारों की विशिष्टता है। और दूसरी है ऐसी शिल्पकारी कि चित्र हमें एक ही पल में दो विपरीत तरीक़ों से प्रभावित करे। यह बताना संभव नहीं कि पोर्ट्रेट हमारे ऊपर अंततः क्या प्रभाव डालता है। यह भी निश्चित रूप से कहना संभव नहीं कि हम स्त्री को चाहते हैं या नहीं, या कि वह मनोहर है अथवा अप्रिय। उसी क्षण वह आकर्षक है, अनाकर्षक भी। उसमें, अनिर्वचयनीय रूप से, कुछ-न-कुछ सुंदर है और उसी पल कुछ-न-कुछ अरुचिकर, या शैतान-सा भी कुछ है। यहाँ शैतान-सा कहने का अर्थ शब्द के रूहानी या सम्मोहनी भाव में नहीं, बल्कि अच्छा और बुरा के परे है। वह नकारात्मक लक्षणयुक्त सौंदर्य है। उसमें विकृति का कोई तत्व है—और सुंदरता का भी। ‘मिरर’ में हमारी आँखों के समक्ष एक-दूसरे का पीछा करते क्षणों के दरमियाँ कालातीत तत्व के समावेश के लिए हमें उस पोर्ट्रेट की ज़रूरत थी, और उसी पल हम नायिका के साथ पोर्ट्रेट को जक्स्टापोज़ करते हुए उसके और अभिनेत्री मार्गरिता तेरेखोवा के भीतर एक ही पल में लुभाने और जुगुप्सा उपजाने की वही क्षमता भरना चाहते थे।

    यदि लिओनार्दो के पोर्ट्रेट को उसके अवयवों में विभक्त कर विश्लेषण करने की कोशिश करें तो वह फ़िज़ूल बात होगी। उससे किसी स्तर की कोई व्याख्या नहीं होगी। चित्र की स्त्री द्वारा हम पर डाला गया भावनात्मक प्रभाव ख़ासकर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें अपनी पसंदीदा किसी भी चीज़ को ढूँढना या समग्र में से किसी एक विवरण को छाँट लेना, या किसी एक क्षणिक प्रभाव को दूसरे से ज़ियादा तरजीह देकर अपने स्वयं का बना लेना, या प्रस्तुत बिंब की ओर देखने के तरीक़े में कोई संतुलन प्राप्त करना संभव नहीं। अतः यहीं पर हमारे लिए अनंत के साथ 'खेल' करने की संभावना बन जाती है, क्योंकि कलात्मक बिंब की महान क्रियाशीलता (फ़ंक्शन) किसी-न-किसी तरह से अनंत का खोजी बनने ही में है जिसकी तरफ़ हर्ष और रोमांच से भरी जल्दबाज़ी में हमारी भावनाएँ उमड़ती रहती हैं। बिंब की समग्रता के द्वारा इसी तरह की भावना उभरती हैं। यानी वह हमें ख़ास इसी तथ्य से प्रभावित करती है कि उसे विच्छिन्न करना संभव नहीं। अलग-अलग पड़कर प्रत्येक घटक मृत ही होगा या शायद, इसके विपरीत यह भी हो सकता है कि अपने लघुत्तम तत्वों में वह समग्र ही की, यानी पूर्ण कृति की चारित्रिक विशेषताओं को अभिव्यक्त करे और ये विशिष्टताएँ एक-दूसरे के विपरीत सिद्धांतों की पारस्परिक क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होती हैं, जिनका अर्थ, संचार-नलिकाओं में जारी कार्यप्रणाली की तरह एक से दूसरे में फैलता जाता है (लिओनार्दो द्वारा चित्रित स्त्री का चेहरा किसी उदात्त विचार से सजीव हो उठता है और उसी क्षण धोखे से भरा भी दिखाई दे सकता है और निम्नस्तरीय आवेग भी उत्पन्न कर सकता है)। पोर्ट्रेट में कितनी ही चीज़ों को देखना संभव है, लेकिन उसके सार को ढूँढने के प्रयास में हम अनंत भूलभुलैयों में भटक जाएँगे और कभी भी रास्ता पकड़ नहीं पाएँगे। हमें इस अनुभूति से गहरा आनंद मिलेगा कि हम उसे सोख नहीं सकते, या कि उसके कण-कण को सारा देख पूरा नहीं कर सकते। खरा कलात्मक बिंब प्रेक्षक को अत्यंत जटिल, अंतर्विरोधी और यदा-कदा परस्पर वर्जित भावनाओं की समक्षणिक अनुभूति देता है।

    यह भली-भाँति जान लेना चाहिए कि उस वक़्त जब गुणवाचक अपने ही विरूद्ध हो जाए, या गुणहीन सगुण का रूप लेने लगे तब क्षण को पकड़ना संभव नहीं। 'बहुलता' बिंब की संरचना ही के भीतर अंतर्निष्ठ है, अत्यंत निकट से संलग्न है। बहरहाल, व्यवहार में, कोई व्यक्ति, सदैव ही, किसी एक चीज़ को दूसरी से ज़ियादा तरजीह देता है, चुनाव करता है, अपने स्वयं की पसंद के अनुसार खोजता है, या अपने स्वयं के व्यक्तिगत अनुभव के बर-अक्स किसी कलाकृति को निर्धारित करता है। चूँकि अपने-अपने काम में हरेक की कुछ-न-कुछ विशिष्ट प्रवृत्तियाँ होती हैं, और वह बड़ी-बड़ी या छोटी-छोटी चीज़ों में अपने स्वयं ही के सत्य का आग्रह करता है, तब जब भी वह कला को अपनी दैनंदिन आवश्यकताओं के अनुकूल बनाएगा तो किसी कलात्मक बिंब की व्याख्या अपने स्वयं ही के 'लाभ' की दृष्टि से करेगा। वह किसी कृति को अपने ही जीवन के संदर्भ में निर्धारित करते हुए अपने सूत्रों दायरों में घेरता है; क्योंकि श्रेष्ठ कृतियाँ परस्पर विरोधी गुणों वाली होती हैं और अनेकानेक विभिन्न व्याख्याओं की गुंजाइश रखती हैं।

    किसी कलाकार को बिंबों की उसकी अपनी ही व्यवस्था के नीचे, जानबूझकर, किसी-न-किसी प्रकार के उद्देश्य या विचारधारा का टेक लगाते देख मैं अक्सर उदास हो जाता हूँ। अपनी विधियों को समझाने की ज़रा भी गुंजाइश रखने के उसके सारे प्रयासों का मैं सख़्त विरोध करता हूँ। अपनी ही फ़िल्मों में कुछेक दृश्यों को बने रहने देने का मुझे हमेशा अफ़सोस होता है; अब वे मुझे भेद खोलने के साक्ष्य मालूम देते हैं जिन्हें मेरी फ़िल्मों में इसीलिए गुंजाइश मिली क्योंकि मैं पूरी तरह धुन का पक्का नहीं था। यदि अब भी संभव हो तो मैं ‘मिरर’ में से मुर्ग़े के दृश्य को काटना चाहूँगा, चाहे उसने अनेक दर्शकों पर गहरा असर डाला हो। दरअस्ल वह इसलिए फ़िल्म में आया क्योंकि मैं दर्शकों के आगे 'झुकने' का खेल खेलने लगा था।

    जब लगभग बेहोश-सी और ख़ूब थकी नायिका इरादा बना रही होती है कि मुर्ग़े की गर्दन काटे या नहीं, तब हमने 'क्लोज़ अप' दृश्य रचते हुए अंतिम नब्बे फ़्रेम के लिए तेज़ गति से प्रत्यक्षतः कृत्रिम प्रकाश में उसका फ़िल्मांकन किया। चूँकि पर्दे पर वह दृश्य धीमी गति में उभरता है, अतः वह समय की रूपरेखा को फैला देने का प्रभाव डालता है—यानी हम उस क्षण पर रोक लगाकर, उसे विशिष्ट बनाते हुए, दर्शकों को नायिका की दशा जानने-समझने की ओर घुमा देते हैं। यह अनुचित है क्योंकि दृश्य शुद्ध रूप से साहित्यिक अर्थग्रहण करने के लिए आरंभ होता है। हम नायिका के चेहरे को उससे स्वतंत्र करते हुए (जैसे वह उसके लिए कोई भूमिका खेल रहा हो) विरूप कर देते हैं। हम भावावेग को अपने स्वयं ही के, यानी निर्देशक के तरीक़ों से निचोड़कर, हमारी ही इच्छानुसार दर्शकों को परोसते हैं। उसकी दशा बिल्कुल साफ़ हो जाती है, और सरलीकृत ढंग से पढ़ी जा सकती है। जबकि, किसी पात्र की मनोदशा की व्याख्या करने में भेद भरा कुछ बना रहना चाहिए। इसी तरीक़े के एक ज़ियादा सफल उदाहरण को ‘मिरर’ ही में से लेकर उद्धरित करता हूँ : प्रिंटिंग प्रेस वाले दृश्य के कुछ फ़्रेम भी धीमी गति (स्लो मोशन) में फ़िल्मांकित हैं, लेकिन इस प्रकरण में वह दृश्य ज़रा भी बोधगम्य नहीं है। हमने उसे पूरी नज़ाकत और सावधानी के साथ रचने का ध्यान रखा ताकि दर्शक उसे आसानी से समझ न सकें, बल्कि किसी अद्भुत बात के धुँधले भाव को महसूस करें। यहाँ धीमी गति की विधि का उपयोग कर हम किसी विचार को रेखांकित नहीं कर रहे थे, बल्कि अभिनय के अतिरिक्त किन्हीं उपायों से मनोदशा को दर्शा रहे थे।

    कुरोसोवा द्वारा रचित मैकबेथ का रूपांतरण एक उत्कृष्ट दृष्टांत है। दूसरा कोई औसत निर्देशक मैकबेथ के जंगल में भटक जाने वाले दृश्य में धुंध के भीतर रास्ता खोजने की कोशिश करते अभिनेताओं को झाड़ों से टकरा देता। लेकिन अत्यंत प्रतिभावान कुरोसोवा बड़ा ही सुंदर खेल करते हैं। वह ऐसी जगह चुनते हैं जहाँ एक विलक्षण, स्मरणीय पेड़ है। घुड़सवार तीन बार उसका चक्कर लगाते हैं ताकि साफ़ पता चल जाए कि वे उसी जगह भटक रहे हैं। घुड़सवार स्वयं महसूस नहीं करते कि वे उसी जगह भटक रहे हैं। घुड़सवार स्वयं महसूस नहीं करते कि वे पहले ही से रास्ता भूल गए हैं। स्पेस की अवधारणा को अपने ही तरीक़े से निरूपित करने के लिए यहाँ कुरोसोवा का पहलू अत्यंत सूक्ष्म रूप से काव्यात्मक हो जाता है, जहाँ वे किसी विरूपण (मैनरिज़्म) या आडम्बर का ज़रा-सा भी संकेत न देकर स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। क्योंकि तीन बार चक्कर लगाते पात्रों का पीछा करने के लिए कैमरे को घुमाने से अधिक सरलतम बात और क्या हो सकती है? यूँ कहें कि बिंब, निर्देशक द्वारा अभिव्यक्त कोई विशेष 'अर्थ' नहीं, बल्कि पानी की बूँद समान एक समूची प्रतिबिंबित सृष्टि है।

    एक बार ठीक पता चल जाए कहना क्या है, अगर अपने चित्र की हरेक कोशिका को भीतर से देखकर उसे ठीक से महसूस कर लो, तो फिर सिनेमा में अभिव्यक्ति की कोई तकनीकी समस्या नहीं है। उदाहरण के बतौर नायिका की एक अजनबी (जिसकी भूमिका अनातोलिय ने अदा की है) के साथ आकस्मिक भेंट वाले दृश्य में यह बहुत ज़रूरी था कि उसके जाते ही अचानक आ मिले इन दो व्यक्तियों के बीच कड़ी बिठाने के लिए कोई धागा पिरोया जाए। जाते-जाते अगर वह किसी भावपूर्ण दृष्टि से पलट कर नायिका की ओर देखता तो दृश्य अनुक्रमिक बनता हुआ व्यर्थ हो जाता। तब हमें मैदान में हवा के झोंके को दिखाने का ख़याल आया। अजनबी ध्यान को आकर्षित करता है, क्योंकि वह इतना अप्रत्याशित है कि अंततः इस स्थिति में, यूँ कह सकते हैं कि 'रचनाकार को उसी के  खेल में पकड़ने’ और उसी के अभिप्रायों को उसे ही दर्शा देने का कोई सवाल नहीं है।

    जब दर्शक निर्देशक द्वारा उपयोग में ली गई विधि से बेख़बर हो, तभी वह पर्दे पर चल रही घटना के यथार्थ में, यानी कलाकार द्वारा ध्यान से देखे गए जीवन में यक़ीन करने को बाध्य होगा। लेकिन अगर दर्शक, निर्देशक को समझ लें, और ठीक-ठीक जान जाएँ कि उसने क्यों उस विशिष्ट 'भावपूर्ण' करिश्मे को प्रयुक्त किया, तब वे पर्दे पर घटती घटना को सहानुभूतिपूर्वक समझना या उसमें बहना बंद कर देंगे, और उसके प्रयोजन और निष्पादन को जाँचना शुरू कर देंगे। दूसरे शब्दों में यूँ कहें कि मार्क्स ने जिस 'कमानी' के बाबत चेतावनी दी, वह सीट के बाहर उभर आएगी। 
    गोगोल के अनुसार, बिंब की क्रियाशीलता (फ़ंक्शन) यही है कि वह जीवन ही को अभिव्यक्त करे, जीवन के बाबत विचारों या तर्क को नहीं। वह जीवन का अर्थ या प्रतीकात्मक प्रदर्शन नहीं बल्कि उसकी विलक्षणता को व्यक्त करती अभिव्यक्ति है। तब प्रतिरूप में खरा क्या और कला में जो कुछ मौलिक और अद्वितीय है, उसके साथ उसका क्या संबंध? अगर बिंब विलक्षण चीज़-सा उभरे तब 'प्रतिरूप में खरा क्या' इस सोच की क्या गुंजाइश?

    विरोधाभास यूँ कि किसी कलात्मक बिंब में विलक्षण तत्व रहस्यात्मक ढंग से प्रतिरूपक होता है; क्योंकि अद्भुत-भाव से यह प्रतिरूपक तत्व उस चीज़ के साथ प्रत्यक्षतः अन्योन्याश्रित हो जाता है जो वैयक्तिक है, स्वभावतः विशिष्ट है, किसी अन्य से भिन्न है। ऐसा नहीं कि फेनोमना को प्रकृत और वैसे-का-वैसा निरूपित करने पर ही 'प्रतिरूप में खरा क्या' का हमें पता चलेगा (हालाँकि अमूमन माना यही जाता है कि तभी वैसा होगा), बल्कि दरअस्ल उसका हमें तब पता चलेगा जब फेनोमना विशिष्ट हो। कह सकते हैं कि कोई व्यापक चीज़ या बात किसी विशिष्ट चीज़ या बात को आगे ठेलती है, जो पुनः लौट कर पुनर्प्रस्तुति के दिखावटी (यानी सच को छिपा आगे आए हुए) ढाँचे के बाहर बनी रहती है। इसे किसी विलक्षण फेनोमना की उपसंरचना की तरह मान लिया गया है।

    अगर यह बात सामने आते ही विचित्र लगे तब तो यह ध्यान में रखना होगा कि कलात्मक बिंब को सत्य बताने वाले संयोजनों के अतिरिक्त किन्हीं दूसरे संयोजनों को नहीं उभारना चाहिए। (यहाँ हम बिंब का सृजन करने वाले कलाकार की चर्चा कर रहे हैं न कि उसे देखने वाले दर्शकों की।) काम शुरू करते ही कलाकार को मान लेना होगा कि किसी विशिष्ट फेनोमना को रूप देने वाला सर्वप्रथम व्यक्ति वो ही है; जो काम वह कर रहा है वह बिल्कुल पहली बार किया जा रहा है, और ठीक उसी रूप में किया जा रहा है कि जैसा केवल वो ही उसे महसूस करता या समझता है। कलात्मक बिंब विलक्षण और अद्वितीय हैं, जबकि जीवन के फेनोमना पूरी तरह तुच्छ और नगण्य हो सकते हैं। यहाँ मैं दोबारा हाइकू का उदाहरण प्रस्तुत करूँगाः
    ‘‘नहीं मेरे घर नहीं। 
    वह, वह टपटपाता छाता
    पड़ोसी के यहाँ चला गया।’’


    हाथ में छाता लिया कोई राहगीर, जिसे हमने अनेक बार जीवन में देखा होगा, उसे देखना अपने आप में कोई नई बात नहीं; वह आम लोगों ही में से एक आदमी है जो बारिश से बचता हुआ सपाटे में चला जा रहा है। लेकिन, कलात्मक बिंब के भीतर, हम कवि के द्वारा रचे जीवन के किसी बिल्कुल अद्वितीय क्षण पर ध्यान जमाते हैं जो किसी उपयुक्त और सरल रूप में निरूपित है। उसकी मनःस्थिति को महसूस करने के लिए तीन पंक्तियाँ पर्याप्त हैं : उसका एकांत, खिड़की से झाँकता धूसर बरसाती मौसम, और एक ऐसी निरर्थक उम्मीद कि चमत्कारवश कोई उसके एकांतिक, अभागे घर में आएगा। अत्यंत सतर्कता के साथ निरूपित की गई दशा और मनःस्थिति बिल्कुल अनोखी और व्यापक अभिव्यक्ति अर्जित करती है।

    इन विचारों के आरंभ में हमने जानबूझकर उसे टाला जिसे गल्प के पात्र का बिंब (कैरेक्टर इमेज) कहते हैं। उसे इस बिंदु पर चर्चा में शामिल कर लेना उपयुक्त होगा। उदाहरणस्वरूप, बाशमाचकिन (गोगोल की कहानी 'द ओवरकोट' का अद्भुत दुखी पात्र) और ओनेगिन पर विचार करें। साहित्यिक प्रतिरूपों की शक्ल में वे किन्हीं सामाजिक नियमों का आदर्श प्रस्तुत करने लगेंगे, जो उनके अस्तित्व की पूर्वमान्य शर्ते हैं—यह तो हुई एक बात। दूसरी ओर, उनमें कुछेक सार्वभौम मानवीय विशेषताएँ है। सब कुछ को यूँ कहें : साहित्य में कोई पात्र तब प्रतिरूपक बनेगा जब वह विकास के सामान्य सिद्धांतों के परिणामस्वरूप प्रचलित प्रतिमानों को प्रतिबिंबित करेगा। प्रतिरूपों की शक्ल में, इसीलिए, यथार्थ जीवन में बाशमाचकिन और ओनेगिन के अनेक तुल्य-रूप मिल जाएँगे। बेशक! लेकिन कलात्मक बिंब की शक्ल में वे निःसंदेह नितांत अकेले और अनुपम हैं। वे अत्यंत ठोस हैं, अपने रचेता द्वारा विशाल स्तर पर देखे गए रूप हैं, सर्जक के दृष्टिकोण को भरपूर वहन किए हुए हैं, ताकि हम कह सकें : हाँ, हाँ, ओनेगिन; वह बिल्कुल मेरे पड़ोसी समान ही है। रास्कोलनिकोव का शून्यवाद (नाइअलिज़म) ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय शर्तों पर निःसंदेह प्रतिरूपक है, लेकिन उसके बिंब की निजी और वैयक्तिक शर्तों पर वह बिल्कुल अकेला है। बेशक, हैमलेट भी एक प्रतिरूप है; लेकिन आसान संदर्भों के भीतर हैमलेट कहाँ देखा जा सकता है?

    हम किसी विरोधाभास के सामने खड़े हैं; यानी जो प्रतिरूपक है, उसकी समूची संभाव्य अभिव्यक्त को बिंब ही व्यक्त करता है, और जितनी अधिक पूर्णता के साथ वह उसे अभिव्यक्त करता है उतना ही ज़ियादा वैयक्तिक, उतना ही ज़ियादा मौलिक वह बनता जाता है। वह, हाँ वह, यानी बिंब वह असाधारण चीज़ है! एक माने में, वह जीवन ही से ज़ियादा संपन्न है; ख़ासकर शायद इसलिए क्योंकि वह चरम सत्य के विचार को अभिव्यक्त करता है।

    निःसंदेह लिओनार्दो और बाख़ का व्यावहारिक रूप में कोई अर्थ नहीं है। बिल्कुल ही नहीं—उनके स्वयं का जो अर्थ है, उसके अतिरिक्त उनका कोई मतलब नहीं; यही उनकी स्वायत्तता का पैमाना है। वे संसार को ऐसे देखते हैं जैसे पहली बार देखा हो, लेकिन स्वयं को ज़रा भी नीचे झुका महसूस करते हुए क़तई नहीं। वे उसकी ओर उन लोगों की स्वतंत्रता के ज़रिये देखते हैं जो बिल्कुल अभी-अभी पहुँचे हैं!

    सारे सृजनात्मक कर्म सादगी के लिए, यानी परिपूर्ण सरलतम अभिव्यक्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, और इसका यही अर्थ हुआ कि जीवन के पुनर्सृजन की अथाह गहराइयों तक पहुँचना। लेकिन यह ही—यानी जो आप कहना या अभिव्यक्त करना चाहें, उसके और तैयार किए गए बिंब में उपजे अंतिम पुनरुत्पादन के दरमियाँ कोई सुगम उपाय खोजना—यह सृजनात्मक कर्म का सर्वाधिक कष्टसाध्य अंग है। सरलता के लिए संघर्ष ही आपके द्वारा पूर्णरूपेण समझे गए सत्य के उपयुक्त रूप को साधने की कष्टप्रद खोज है। आप उपायों की मितव्ययिता का ध्यान रखते हुए महान चीज़ों को उपलब्ध बनाने की कुशलता हासिल करने के लिए तरसते हैं।

    परिपूर्णता के लिए प्रयत्नशील रहना ही किसी कलाकार को आध्यात्मिक अन्वेषणों की दिशा में, यानी यथासाध्य नैतिक उद्यम का प्रयास करने की दिशा में ले जाता है। चरम की आकांक्षा मानवता के विकास के लिए गतिमान आवेग है। मेरे लिए कला में यथार्थवाद का विचार उसी आवेग के साथ संबद्ध है। कला तभी यथार्थवादी है जब वह किसी नैतिक आदर्श को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयत्नशील हो। सत्य के लिए उद्यमशील होना ही यथार्थवाद है, और सत्यं सदैव सुंदर है। यहाँ पर ही सौंदर्यात्मक के साथ नैतिक का मेल होता है। 

     

    अनुवाद: इंदुप्रकाश कानूनगो (लेखक और अनुवादक। लैटिन अमेरिकी और यूरोपीय साहित्य के अनुवाद में योगदान।)  

    स्रोत :
    • पुस्तक : पटकथा
    • रचनाकार : आन्द्रेई तारकोवस्की
    • संस्करण : जून 1991
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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