अपने फ़िल्मी-जीवन की पचीसवीं वर्षगाँठ पर
apne filmi-jeevan ki pachisveen varshagaanth par
बलराज साहनी
Balraj Sahani
अपने फ़िल्मी-जीवन की पचीसवीं वर्षगाँठ पर
apne filmi-jeevan ki pachisveen varshagaanth par
Balraj Sahani
बलराज साहनी
और अधिकबलराज साहनी
फ़िल्मों में काम करते हुए मुझे पच्चीस वर्ष हो गए हैं। अब तक मैं सवा सौ से ऊपर फ़िल्मों में काम कर चुका हूँ। ऐसे मौक़े पर जशन मनाना बहुत उपयुक्त और सौभाग्यशाली समझा जाता है। लेकिन पता नहीं क्यों, मेरे दिल में जश्न मनाने का उत्साह नहीं है। कॉलेज के दिनों में मेरे अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर और ड्रामा सोसाइटी के डायरेक्टर श्री अहमद शाह बुख़ारी ने मुझे एक बार कहा था, तुम्हारे अंदर एक्टर बनने के सभी गुण हैं, लेकिन साथ ही एक बड़ी ख़ामी भी है कि तुम बहुत सुस्त हो। आज भी यही सुस्ती, जो मेरे स्वभाव का अमिट अंग बनी हुई है, मुझे जश्न मनाने के लिए हतोत्साह कर रही प्रतीत होती है।
जशन मनाने के बजाए यह बात मुझे ज़ियादा ख़ुशी दे सकती है कि मैं इन पिछले पच्चीस वर्षों की अपनी कमाई का लेखा-जोखा लूँ, और उसके नफ़े-नुक़सान पर ग़ौर करूँ। इसमें कोई तकलीफ़ नहीं उठानी पड़ती है न। और घर के बजाय स्टुडियो में बैठकर सोच-विचार करना और भी अच्छा है। यहाँ मैं एकांत में बड़े आराम से बैठा हूँ, और आप लोग भी अपने-अपने घर में बैठे हुए बड़े आराम से मेरी बातें पढ़-सुन सकते हैं। अपने फ़िल्मी जीवन की पचीसवीं वर्षगांठ मनाने का यह ढंग मुझे ज़ियादा पसंद है।
मेरे प्रोफ़ेसर साहब ने मेरे सुस्त होने के बारे में ठीक ही कहा था। मुझे याद है कि मेरे स्वभाव में बचपन से ही एक तरह की सुस्ती चली आई है। इसका कारण भी मैं जानता हूँ। मैंने अपने माता-पिता के यहाँ उन दिनों जन्म लिया था, जब वे पुत्र का मुँह देखने की आशा लगभग छोड़ चुके थे। इसलिए मुझे ज़रूरत से ज़ियादा लाड़-प्यार मिला, और वह लाड़-प्यार मेरे लिए एक तरह की क़ैद बन गया। ‘पेड़ पर न चढ़ो, क्योंकि गिरकर टाँग-बाँह टूटने का ख़तरा है। पतंग न उड़ाओ, क्योंकि बेध्यानी में ताँगे के नीचे आ जाने का ख़तरा है। गली-मोहल्ले से निकलकर ज़ियादा दूर न जाओ, योंकि चोर-ठग बच्चों को उठा ले जाते हैं!' ...इन बंदिशों के कारण मेरा अधिकांश समय घर की चारदीवारी में ही गुज़रता था। शायद इसीलिए मैं संकोचशील और झेंपू क़िस्म का बन गया और शायद इसीलिए मेरी रुचि कहानियों, कविताओं, उपन्यासों में इस हद तक बढ़ गई थी। मेरे चरित्र का वह बाह्यमुखी विकास न हो पाया, जो एक अभिनेता के लिए बहुत सहायक सिद्ध होता है।
पुस्तकों और भाषाओं से मुझे हमेशा ख़ास प्यार रहा है। वाल्मीकि रामायण मैंने बारह साल की उम्र में संस्कृत में पढ़ी थी; मुझे संस्कृत के श्लोक बहुत अच्छे लगते थे। पंचतंत्र की कहानियों ने मेरे अंदर कहानियाँ सुनने और लिखने का शौक़ पैदा किया था। बंगाली लिपि मैंने अपने घर में ठहरे हुए एक साधु से सीखी थी, जो मुझे बहुत ही सुंदर लगी थी। मेरे पिताजी की उर्दू की लिखावट ऐसी थी, जैसे मोती पिरोये हुए हों। अंग्रेज़ी लिखते समय भी उनका हाथ बहुत साफ़ होता था। इसका भी मुझ पर प्रभाव पड़ा। अब भी मेरी बहुत बड़ी लालसा है कि मैं हिंदुस्तान की सारी भाषाएँ लिख और बोल सकूँ। बंगाली, मराठी, तमिल आदि सीखने के लिए मैंने कुछ मेहनत की भी है, लेकिन अपने संकोचशील स्वभाव के कारण बोलते समय बड़ी कठिनाई पेश आती है। मेरे कई अभिनेता दोस्त बड़ी आसानी से ये भाषाएँ बोल लेते हैं, हालाँकि उन्हें सीखने के लिए उन्होंने मुझसे आधी मेहनत भी नहीं की है।
स्कूल और कॉलेज की शिक्षा ने भी मेरी साहित्यिक रुचियों को ही ज़ियादा बढ़ाया। था। कॉलेज की ड्रामा सोसाइटी में मैं इसलिए चला जाता था कि मुझे क़ुदरती तौर पर अच्छे नाक-नक़्शों वाला चेहरा और ऊँचा लंबा, सेहतमंद शरीर मिला हुआ था। मैं जब भी कोई अंग्रेज़ी फ़िल्म देखने जाता तो लौटने पर आइने में देखकर मुझे ऐसा लगता था, जैसे मेरी शक्ल फ़िल्म के हीरो से बहुत हद तक मिलती-जुलती है। यह एहसास मुझे ही नहीं, मेरे दोस्तों साथियों को भी था। अब भी कभी-कभी मुझे यह एहसास होता है। मेरे उत्साह बढ़ाने वाले लोग कई बार यहाँ तक कह जाते थे, आप इंडियन आर्टिस्ट तो लगते ही नहीं, एकदम फ़ॉरेन आर्टिस्ट लगते हैं!
मुझे अपने सुंदर होने का एहसास ही कॉलेज की ड्रामा सोसाइटी में खींचकर ले जाता था। मेरा शौक़ सच्चा और दिल से निकला हुआ नहीं था। इसीलिए प्रोफ़ेसर बुख़ारी मुझे सुस्त कहते थे।
मेरे पिताजी धनवान व्यक्ति थे। इसलिए एम.ए. पास करने के बाद नौकरी ढूँढने और उसे अपने बाक़ी जीवन का सहारा बनाने की मुझे कोई मजबूरी नहीं थी। इसलिए मैं एक जगह टिककर नहीं रह सकता था। मैंने एक-दो साल तक पिताजी के साथ व्यापार किया। फिर एक-दो साल तक मैं शांति-निकेतन में शिक्षक बनकर रहा। फिर सेवाग्राम गया। फिर लंदन गया। फिर बंबई लौटकर फ़िल्मों में काम करने लगा। मुझे रोज़गार की इतनी ज़ियादा चिंता नहीं थी, सो रोज़ी कमाने के लिए मुझे अच्छे मौक़े मिल जाते थे। पूँजीवादी व्यवस्था में धन कमाने और उन्नति करने के मौक़े उस व्यक्ति को ज़ियादा मिलते हैं, जिसे पैसे की ज़ियादा परवाह न हो। जो पैसे की मजबूरी में बंधा हुआ हो, उसकी सारी उमंगें बस हसरतें बनकर रह जाती हैं। यही कारण है कि जब लोग मेरे सामने कला को ईश्वर का वरदान मानते हैं, तो मैं उनकी बात पर हँस देता हूँ, क्योंकि मैं अपने तजुर्बे से जानता हूँ कि पूँजीवादी व्यवस्था में कला मौक़े और क़िस्मत की देन है, ईश्वर की नहीं। ईश्वर ने तो सभी मनुष्यों को समान बनाया है, उन्हें समान रूप से हाथ-पाँव दिए है, शरीर और दिमाग़ दिए हैं। लेकिन मज़दूर या किसान के घर में पैदा होने वाले बच्चे को ऐसे मौक़े कहाँ नसीब होते हैं कि उसकी शक्तियाँ विकसित हो सकें!
मैं शायद फ़िल्मों में भी ज़ियादा देर तक न रहता, अगर 1947 में देश के बँटवारे के कारण मुझे पिताजी के धन-दौलत के आश्रय से वंचित न होना पड़ता। उनकी सारी ज़मीन-जायदाद पाकिस्तान में रह गई थी। अब मेरे लिए अपने पाँवों पर खड़ा होना ज़रूरी हो गया था। अपने पाँवों पर खड़े होने के संघर्ष ने मुझसे कई और काम भी कराए। मैंने फ़िल्म-डिवीज़न की डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मों की कमेंटरी बोली, विदेशी फ़िल्मों की हिंदी 'डबिंग' में भाग लिया और स्वर्गवासी गुरुदत्त द्वारा निर्देशित की गई उनकी पहली फ़िल्म 'बाज़ी' की पटकथा और संवाद लिखे। यह फ़िल्म कामयाब हुई थी। तब उसके निर्माता चेतन आनंद ने मुझे एक फ़िल्म लिखने और उसका निर्देशन करने के लिए कहा था। मेरे लिए यह बहुत अच्छा मौक़ा था। अभिनेता बनने की बजाए लेखक और निर्देशक बनना मेरे जैसे आलसी स्वभाव के व्यक्ति को ज़ियादा रास आता। आज मुझे अफ़सोस होता है कि चेतन आनंद की इतनी अच्छी पेशकश मैंने क्यों न शुक्रगुज़ारी के साथ क़बूल की। उन्हीं दिनों जिया सरहदी की फ़िल्म 'हम लोग' भी बहुत कामयाब हुई थी, जिसमें मैंने मुख्य पात्र की भूमिका की थी। तब मुझे लगा था कि मैं निर्देशक के बजाय अभिनेता बनकर ज़ियादा पैसे कमा सकता हूँ, और ज़ियादा आसानी से भी।
मैं समझता हूँ कि मेरे अंदर एक अच्छा पटकथा लेखक और निर्देशक बनने की ख़ूबी थी। इसका सबूत इस बात से मिलता है कि मैंने आज तक जितने भी काम किए हैं, उनके साथ-साथ मेरा लिखने का शौक़ कभी भी नहीं छूटा है। मैं कॉलेज के ज़माने में भी लिखता था, और उन दिनों भी जब दुकान पर कपड़ा बेचा करता था। बाद में भी, शांति-निकेतन से लेकर अब तक मेरा लिखने का अभ्यास निरंतर जारी रहा है।
मैं मानता हूँ कि अच्छा निर्देशक बनने के लिए लेखक होना ज़रूरी नहीं है, लेकिन लेखक होना फ़ायदेमंद साबित ज़रूर हो सकता है। साहित्य के क्षेत्र में मैंने जो कलात्मक बातें सीखी हैं, उन्होंने मुझे अपने अभिनय को अच्छा बनाने में काफ़ी मदद की है। इसे देखते मैं कह सकता हूँ कि वे बातें अच्छा निर्देशक बनने के लिए और भी फ़ायदेमंद साबित हो सकती है। उन बातों का संबंध यथार्थवादी मूल्यों से है।
यथार्थवाद का अमृतपान मैंने अपने कॉलेज के दिनों में ही कर लिया था अंग्रेज़ी साहित्य के अध्ययन द्वारा। तब ऐसा लगा था, जैसे मुझे मुँह-माँगी मुराद मिल गई हो, जैसे मैंने अच्छा साहित्यकार और कलाकार बनने का रहस्य पा लिया हो। यथार्थवाद का मतलब है, कला में लंबाई, चौड़ाई और गहराई तीन आयामों का होना। लंबाई और चौड़ाई पेश करना आसान है, गहराई पैदा करना बहुत मुश्किल है। और कला में महानता इस तीसरे आयाम द्वारा ही आती है। इस तीसरे आयाम को हम गति भी कह सकते हैं।
गति जीवन का मूल गुण है। जैसे सूरज में प्रतिक्षण अणु-विस्फोट होता रहता है, वैसे ही हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में भी लगातार अणु-विस्फोट होता रहता है। प्रतिक्षण परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, और उनके अनुसार हम भी प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। यह गति जिस लेखक की कहानी में जीवन की हू-ब-हू पूरी तस्वीर बनकर सामने आएगी, वह कहानी सफल होगी। उसमें प्लॉट का होना ज़रूरी नहीं है। जीवन किस प्रकार एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक, एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक चलकर गया, यह बात पाठकों को ज़रूर रोचक लगेगी। लेखक जीवन के किसी छोटे टुकड़े का वर्णन करे या विशाल टुकड़े का, उसे इस गति को ध्यान में रखना होगा। चेख़व अपनी कहानियों में छोटे-छोटे टुकड़े लेता है, ताल्स्तॉय अपने उपन्यास 'युद्ध और शांति' में बहुत विशाल टुकड़ा लेता है, लेकिन दोनों की सफलता का रहस्य एक ही है। पाठक उस जीवन के बारे में सिर्फ़ पढ़ता ही नहीं, उसे जीता भी है।
मुझे कॉलेज के ज़माने में ही अपने देश के साहित्य (जितना कि उस समय तक मैंने पढ़ा था), कला और फ़िल्मों में इस तीसरे आयाम का अभाव प्रतीत होता था। इन तीनों क्षेत्रों में मुझे हर चीज़ एक चौखटे में बंद नज़र आती थी। उस चौखटे में उसकी लंबाई और चौड़ाई तो थी, लेकिन गहराई नहीं थी। हिंदी फ़िल्में मुझे आज भी इस दृष्टिकोण से नक़ली और निर्जीव प्रतीत होती हैं। कई कहानियों के चौखटों में बाँध होती हैं। उनमें न स्वाभाविक गति होती है, न पात्रों का विकास होता है, और न ही ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें पात्रों का चरित्र-चित्रण हो सके।
मज़बूरी ने मुझे फ़िल्म अभिनेता बनाया, तो मेरे स्वभाव की सुस्ती और परस्पर विरोधी बातों ने मेरे रास्तों में कई बहुत बड़ी अड़चनें खड़ी कर दीं। लेकिन अंग्रेज़ी साहित्य से मैंने जो रौशनी हासिल की थी, वह मुझे लगातार रास्ता दिखाती रही। अगर मुझे क़ुदरती तौर पर अभिनेताओं वाली प्रतिभा मिली होती, तो मैंने जो कुछ दस सालों में सीखा, वह दस महीनों में सीख सकता था। मैं अपने इर्द-गिर्द कई ऐसे साथियों को देखता हूँ, जो अभिनेता बनते ही कुछ ही देर में मुझसे कहीं आगे निकल गए। अब उन तक पहुँचने के लिए मुझे कछुए की तरह धीरे-धीरे लगातार चलना पड़ रहा है। वैसे मैं उन का देनदार हूँ कि उन्होंने उदाहरण बनकर मुझे आगे बढ़ने और उन तक पहुँचने की प्रेरणा दी।
इन पच्चीस वर्षों में क्या मैं अपनी मंज़िल पर पहुँचा हूँ? मेरी सुस्ती आज भी उसी तरह क़ायम है। मैं आज भी उसी तरह अंतर्मुखी हूँ। इसीलिए फ़िल्मों में काम करने पर भी मैं फ़िल्मी दुनिया के वातावरण में अजनबी-सा महसूस करता हूँ। मैं जब भी अपनी कोई पुरानी फ़िल्म देखता हूँ तो दिल में टीस-सी उठती है: काश, कहीं यह रोल दोबारा करने का मौक़ा मिल सके। तब मेरे काम में कितनी ख़ामियाँ थीं!
लेकिन एक बात का संतोष मुझे ज़रूर है कि उन पच्चीस वर्षों में मैंने हर प्रकार की भूमिकाएँ की है। अस्वाभाविक कहानियाँ और अन्य कई प्रकार की बंदिशों के बावजूद मैंने उन भूमिकाओं में गति लाने की कोशिश की है, उन्हें जीने की कोशिश की है। मैं किसान भी बना हूँ, मज़दूर भी, पूँजीपति भी, सिपाही भी, फ़ौजी अफ़सर भी, पठान भी, क्लर्क भी, और पता नहीं क्या कुछ। अगर मैं अपनी हर भूमिका में पूरा यथार्थ पेश नहीं कर सका, तो उसे पेश करने की मैंने भरपूर कोशिश ज़रूर की है।
फिर भी, मैं सोचता हूँ कि अगर अपने इसी दृष्टिकोण के साथ चेतन आनंद के कहने पर लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में उतर पड़ता और उन मूल्यों के लिए संघर्ष करता, जो मेरी नज़र में महत्त्वपूर्ण हैं, तो इस समय शायद ज़ियादा संतुष्ट होता और ख़ुद को ज़ियादा भरा हुआ पाता। मैं जिस हद तक भी फ़िल्म को यथार्थ के निकट ला सकता, उस हद तक यह संतोष कर पाता कि मैंने अपने देश की सेवा की है। आज फ़िल्मों में वह मोड़ लाने का समय आ गया है, जो आज से बीस साल पहले लाना संभव नहीं था। अगर मैं निर्देशक बन गया होता, तो आज फ़िल्मों से रिटायर होकर कहीं एकांत में साहित्य-सेवा करने का सपना देखने की बजाए फ़िल्मों में और ज़ियादा काम करना चाहता और ऐसी फ़िल्में बनाता जिनमें प्रतिक्षण उसी प्रकार अणु-विस्फोट होता, जिस प्रकार कि सूरज में होता है।
लेकिन यह सब सोचने का क्या फ़ायदा? मैं और चाहे कुछ भी कर सकूँ, इन बीते हुए पचीस वर्षों को फिर से नहीं जी सकता। सो यही कहूँगा कि चलो, जितना नहाया, उतना ही पुण्य कमाया। और फिर—
‘‘ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं।
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ॥’’
- पुस्तक : बलराज साहनी- संतोष साहनी समग्र
- संपादक : बलदेवराज गुप्त
- रचनाकार : बलराज साहनी
- प्रकाशन : हिंदी प्रचारक संस्थान
- संस्करण : 1994
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