सुन बाह तथता पहारी
sun bah tathta pahari
सुन बाह तथता पहारी।
मोहभण्डार लइ सजला अहारी॥
घुमइ ण चेवइ सपरविभागा।
सहज निदालू काहिला लांगा॥ध्रुवपद॥
चेअन न वेअन भर निद गेला।
सअल मुकल करि सुहे सुतेला॥ध्रु॥
स्वपणे मइ देखिल तिहुवण सुण।
घोरिअ अवणागमण विहुण॥ध्रु॥
शाखि करिब जालंधरि पाए।
पाखि न चाहइ मोरि पांडिआचाए॥ध्रु॥
जो प्रवहमान है, उस तथता रूप ने (खड्ग) प्रहार कर, समस्त मोहजाल को आहार की तरह ग्रहण किया (अर्थात् मोह को ध्वंस किया) और चित्त को शून्य प्रभास्वर किया। कृष्णाचार्य इस रूप-विभाग (गोचर सृष्टि) में नहीं जागते हैं, इस प्रकार दोषविमुक्त कन्हपा सहज ही निद्रालु (अवश्य) हैं। चेतन और वेदन को बोधि की सहायता से पूरी तरह ध्वंस कर वे पूर्णभाव से निद्रारत हुए और उस ज्ञान के द्वारा समस्त सुफल कर सुखपूर्वक शयन किया। मैंने स्वप्न में देखा—त्रिभुवन शून्य हो गया है और अवधूतिका जन्म-मृत्यु के घोर आवागमन में विहन ही घूम रही है। मैं यहाँ जालंधरपा को साक्षी बनाऊँगा। क्योंकि (अनुभवहीन) किताबी पंडित इस विषय में मेरा पक्ष स्वीकार नहीं करेंगे।
- पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 164)
- संपादक : रणजीत साहा
- रचनाकार : कण्हपा
- प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
- संस्करण : 2010
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.