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कल कुछ कल से अलग होगा

कल कुछ कल से अलग होगा

अविनाश मिश्र 02 जुलाई 2023

…क्या ज़रूरी है कि आलोकधन्वा की कविताओं पर बात करते हुए यह बताया जाए कि वह एक आंदोलन से निकले हुए कवि हैं? क्या ज़रूरी है कि यह बताया जाए कि उनकी कविताएँ एक विशेष वैचारिक समझ की कविताएँ हैं? क्या ज़रूरी है कि उन्हें क्रांतिकारी रुमानियत का कवि कहा जाए? क्या ज़रूरी है कि उन घटनाओं का ज़िक्र किया जाए जिनकी बुनियाद पर आलोकधन्वा ने अपनी मशहूर कविताएँ खड़ी कीं? क्या ज़रूरी है कि उनके अब तक के अकेले कविता-संग्रह ‘दुनिया रोज़ बनती है’ के बाद प्रकाशित हुईं उनकी कविताओं की व्याख्या उनके व्यक्तिगत जीवन-प्रसंगों से जोड़कर की जाए? …प्रश्नपरक इस प्रथम अनुच्छेद का अंत इस वाक्य से होना चाहिए—‘हाँ, ज़रूरी है।’

लेकिन ख़ुद आलोकधन्वा ने ऐसे सूत्र अपनी कविताओं में लगभग नहीं छोड़े हैं। दूरगामिता उनकी आसन्न-दृष्टि में आरंभ से ही रही है और वह तत्काल के अनुभवों को भविष्य में निवेश करते रहे हैं। वह इनकी समग्र संभावनाओं से वाक़िफ़ हैं और इनसे पूरा काम लेना जानते हैं। इस बात को थोड़ा-सा और सामान्य ढब से कहें तो कह सकते हैं कि वह अपनी प्रत्येक कविता की पूरी क़ीमत वसूलना जानते हैं।

‘आलोकधन्वा एक बड़े कवि हैं’—यह मानने वालों की एक बड़ी जमात है, लेकिन जिन्हें इस सचाई से एतराज़ है, वे उन्हीं औज़ारों से उन्हें एक कमतर कवि मनवाने की कोशिश करते हैं जिनकी मदद से यह जमात उन्हें बड़ा कवि बताती है और जिनका ज़िक्र इस कथ्य के प्रथम अनुच्छेद में आया। आलोकधन्वा के काव्य-वैभव से ईर्ष्यादग्ध, कुंठित, ग्रुपग्रस्त, पूर्वाग्रहग्रसित, व्यक्तिगत रूप से छिछले, स्वभाव के महीन या ढुलमुलपन से पीड़ित कुछ हिंदीजीवी आलोकधन्वा को उनकी सारी कमज़ोरियों, कमियों और सीमाओं के बावजूद कमतर कवि न कह पाएँ इसके लिए ज़रूरी है कि आलोकधन्वा की कविता से प्यार करने वाले, उस पर गर्व करने वाले, उसके लिए लड़ने-झगड़ने वाले यह कहें कि आलोकधन्वा उन विशेषणों और उद्यम के—जो उन पर बार-बार आयद किए जाते हैं, ताकि पीढ़ियाँ उन्हें भूलकर निष्क्रिय न हो जाएँ—न रहते भी एक बड़े कवि हैं। एक ऐसे बड़े कवि जो एक कविता तो छोड़िए, एक कविता-पंक्ति तक ख़राब नहीं लिखते।

आलोकधन्वा के कविता-संसार से क्या-क्या चीज़ें सीखी जा सकती हैं, इसकी एक फ़ेहरिस्त बनाई जा सकती है। इस फ़ेहरिस्त में प्रतीक्षा होगी और आत्ममुग्धता भी। संयम भी इसमें होगा और अहंकार भी। इसमें विश्वास के प्रति दृढ़ता भी होगी और भाषा को बरतने का शऊर भी। साधारण वस्तुओं को एक व्यापक सामाजिकता में विन्यस्त कर देने का वैभव भी इसमें होगा। इस फेहरिस्त में प्रतीक्षा विचार के विस्तार के लिए होगी। आत्ममुग्धता सुंदरता की चाह के लिए होगी। अहंकार इसमें इसलिए होगा कि अपने कवि-व्यक्तित्व के अस्तित्व पर गर्व किया जा सके। विश्वास के प्रति दृढ़ता परिवर्तनकामिता के लिए होगी। भाषा को बरतने का शऊर कविता की अग्रगामिता के लिए होगा और साधारण वस्तुओं को एक व्यापकता में विन्यस्त कर देने की सूझ दृष्टिसंपन्नता अर्जित करने के लिए होगी।

आलोकधन्वा के कविता-संसार की कल्पना स्त्रियों के बग़ैर नहीं की जा सकती। वह हिंदी में स्त्री-विमर्श के एक प्रतिनिधि और सशक्त कवि हैं। माँ पर कविता लिखते हुए आलोकधन्वा को एक पूरा ज़माना याद आता है। उनके यहाँ माँ पर कुछ अनूठी पंक्तियाँ हैं :

माँ कभी एकांत नहीं हुई
जब से वह माँ हुई मेरी।

‘दुनिया रोज़ बनती है’ में बहुत सारी स्त्रियाँ हैं—बहुत सारे शेड्स के साथ, लेकिन प्रिया कहीं नहीं है :

उनसे उतनी ही मुलाक़ात होती है
जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं

प्रिया को संबोधित कविताएँ आलोकधन्वा ने बहुत बाद में लिखीं :

अचानक तुम आ जाओ

इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी भी
कहीं से भी आ सकती हो मेरे पास

लगभग बारह वर्षों के बाद जब जून-2011 में आलोकधन्वा की नई कविताएँ ‘वागर्थ’ में दृश्य हुईं तो इस पत्रिका के संपादक-कवि एकांत श्रीवास्तव ने इस प्रसंग में केरल में स्थित एक ऐसे पहाड़ का उदाहरण दिया जो बारह वर्षों के बाद नीले फूलों से भर जाता है—जैसे ‘पुष्प कुंभ’ हो। हिंदी में लगभग मिथ बन चुके आलोकधन्वा की संख्या में दस और कलेवर में छोटी इन बहुप्रतीक्षित कविताओं को एकांत ने ‘कविता कुंभ’ कहा। इन कविताओं में भूल पाने की लड़ाई है, रेशमा की आवाज़ है, शृंगार है, प्रिया है, प्रेम है, भाषा है, उड़ानें हैं, रातें हैं, बारिशें हैं, सवाल हैं, फूलों से भरी डाल है, ओस है और कोयल भी। कलुषपूर्ण काव्येतर चर्चाओं के कुछ अर्से बाद सामने आईं आलोकधन्वा की इन कविताओं में उनका क्रांतिधर्मी और उग्र काव्य-व्यवहार लगभग चुक गया :

मैं अभी भी
उनके चौराहों पर कभी-कभी
भाषण देता हूँ
जैसा कि मेरा काम रहा वर्षों से
लेकिन मेरी अपनी ही आवाज़
अब
अजनबी लगती है

इस सृष्टि में अगर मनुष्य बग़ैर विद्रोह के जी पाता, तब संभवत: यह प्रकट यथार्थ ज़्यादा सार्थक और सुंदर होता। विद्रोह की संकल्पना का जन्म प्रथमत: दमन से हुआ होगा। इस सृष्टि में हुए अब तक समस्त विप्लवों और आंदोलन की जड़ दमन है। विद्रोह की शुरुआत व्यक्तियों से हुई जो समूहाकार होकर दमन के ख़िलाफ़ खड़े हुए। एक मानवीय परिवेश में एक व्यक्ति पहले आया होगा, फिर दमन, फिर दमन की समझ, फिर विद्रोह…। मनुष्यता के व्यापक इतिहास में संख्यातीत विप्लवी संस्कृतियाँ रही हैं—दर्ज और बेदर्ज जनांदोलनों का एक विराट व्यतीत—बहुधा रक्तरंजित। अहिंसा आंदोलनों में बहुत बाद में प्रतिष्ठित हुई। लेकिन दमन के समानांतर ही उत्पन्न हुए विद्रोह के अब तक के ज्ञात इतिहास में अब तक कहीं भी ऐसा समाज नहीं बन पाया है जो एक क्षण के लिए भी हिंसा से मुक्त रहा हो। आलोकधन्वा ने 1997 में लिखी अपनी कविता ‘सफ़ेद रात’ में हिंसा को यों पहचाना :

हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताक़त

बहस चल नहीं पाती
हत्याएँ होती हैं
फिर जो बहस चलती है
उसका भी अंत हत्याओं से होता है

इसके लगभग चौदह वर्ष बाद आलोकधन्वा ने कहा :

क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएँगे ही नहीं!

इस दृश्य में क्रांति अब नहीं है, लेकिन वह अब भी एक संभावना है। आंदोलन का आवेग बर्फ़ हो चुका है और महास्वप्न भंग। ये चीज़ें संभवत: मनुष्य की मूल ज़रूरतें नहीं हैं। अकेली रातों में जब नींद टूटती है, तब ये चीज़ें और भी बकवास लगती हैं। ख़ुद का खारा पानी बहुत नज़दीक लगता है और दूसरों के दु:खों का समुद्र बहुत दूर। ऐसे में अब तक का सारा किया अनकिया कर देने की आकांक्षा होती है।

सर्वप्रथम एक व्यक्ति की लड़ाई स्वयं से होती है। उसे स्वयं की दुर्बलताओं से लड़ना होता है। उसे बाहर के प्रति सहिष्णु होना पड़ता है। ये स्वयं से ज़्यादा इस सृष्टि को सुंदर बनाने की मूलभूत शर्तें हैं। लेकिन आलोकधन्वा कुछ वक़्त बाद फिर अपनी नई कविताओं के साथ नुमायाँ हुए। यहाँ कुछ दुहराव नज़र आया शायद खो चुके को खोजने की क़वायद। 1988 में यह कहने वाला कवि :

दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ़ आज की रात भी रहेगी

2012 में यह कहता है :

एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी।

1996 में ‘आम के पेड़’ का विस्तार यहाँ तक आते-आते ‘आम के बाग़’ तक हो गया। बलराज साहनी, नेल्सन मंडेला, गणेश शंकर विधार्थी, युवा भारत, पुराने क्रांतिकारी, शहीद, खो चुकी स्थानीयताएँ और विभाजन-विस्थापन… आलोकधन्वा जैसे खो चुके ख़ुद खोजते हैं—यह झलकता है कि ये उनके तईं गहरे आत्मान्वेषण के क्षण हैं।

अब संभवतः ये क्षण गुज़र चुके हैं। आलोकधन्वा के कवि-व्यक्तित्व का जादू फ़ेसबुक पर उनके आते ही टूट चुका है। दूसरा ‘कविता कुंभ’ अगर संभव और उपलब्ध हुआ, तब उन्हें देखना बहुत दिलचस्प नहीं होगा, क्योंकि अब वह इतने उपलब्ध हैं कि मैं उनके लिए कभी लिखी इस पंक्ति को आज उनके जन्मदिन पर इस कथ्य के अंत से अलग कर रहा हूँ :

कल कुछ कल से अलग होगा…।

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