प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
अपने सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’ छठी कक्षा में पढ़ी होगी। इस कविता में ठाकुर कुँवर सिंह का नाम भी आया है। आपको कविता की पंक्तियाँ याद आ रही होंगी। एक बार फिर से इन पंक्तियों को पढ़िए—
इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम।
अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुँवर सिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम॥
यहाँ स्वतंत्रता संग्राम के उसी वीर कुँवर सिंह के बारे में जानकारी दी जा रही है। सन् 1857 के व्यापक सशस्त्र-विद्रोह ने भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ों को हिला दिया। भारत में ब्रिटिश शासन ने जिस दमन नीति को आरंभ किया उसके विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गया था। मार्च 1857 में बैरकपुर में अँग्रेज़ों के विरुद्ध बग़ावत करने पर मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई। 10 मई 1857 को मेरठ में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश अधिकारियों के विरुद्ध आंदोलन किया और सीधे दिल्ली की ओर कूच कर गए। दिल्ली में तैनात सैनिकों के साथ मिलकर 11 मई को उन्होंने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया और अंतिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फ़र को भारत का शासक घोषित कर दिया। यह विद्रोह जंगल की आग की भाँति दूर-दूर तक फैल गया। कई महीनों तक उत्तरी और मध्य भारत के विस्तृत भूभाग पर विद्रोहियों का क़ब्ज़ा रहा।
दिल्ली के अतिरिक्त जहाँ अत्यधिक भीषण युद्ध हुआ, वे केंद्र थे—कानपुर, लखनऊ, बरेली, बुंदेलखंड और आरा। इसके साथ ही देश के अन्य कई भागों में भी स्थानीय विद्रोह हुए। विद्रोह के मुख्य नेताओं में नाना साहेब, ताँत्या टोपे, बख़्त खान, अज़ीमुल्ला खान, रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हज़रत महल, कुँवर सिंह, मौलवी अहमदुल्लाह, बहादुर ख़ान और राव तुलाराम थे। 1857 का आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में एक दृढ़ क़दम था। आगे चलकर जिस राष्ट्रीय एकता और आंदोलन की नींव पड़ी, उसकी आधारभूमि को निर्मित करने का काम 1857 के आंदोलन ने किया। भारत में सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने की दिशा में भी इस आंदोलन का विशेष महत्त्व है।
1857 के आंदोलन में वीर कुँवर सिंह का नाम कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। कुँवर सिंह जैसे वयोवृद्ध व्यक्ति ने ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ बहादुरी के साथ युद्ध किया।
वीर कुँवर सिंह के बचपन के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। कहा जाता है कि कुँवर सिंह का जन्म बिहार में शाहाबाद ज़िले के जगदीशपुर में सन् 1782 ई० में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबज़ादा सिंह और माता का नाम पंचरतन कुँवर था। उनके पिता साहबज़ादा सिंह जगदीशपुर रियासत के ज़मींदार थे, परंतु उनको अपनी ज़मींदारी हासिल करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा। पारिवारिक उलझनों के कारण कुँवर सिंह के पिता बचपन में उनकी ठीक से देखभाल नहीं कर सके। जगदीशपुर लौटने के बाद ही वे कुँवर सिंह की पढ़ाई-लिखाई की ठीक से व्यवस्था कर पाए।
कुँवर सिंह के पिता वीर होने के साथ-साथ स्वाभिमानी एवं उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव कुँवर सिंह पर भी पड़ा। कुँवर सिंह की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था उनके पिता ने घर पर ही की, वहीं उन्होंने हिंदी, संस्कृत और फ़ारसी सीखी। परंतु पढ़ने-लिखने से अधिक उनका मन घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और कुश्ती लड़ने में लगता था।
बाबू कुँवर सिंह ने अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1827 में अपनी रियासत की ज़िम्मेदारी सँभाली। उन दिनों ब्रिटिश हुक़ूमत का अत्याचार चरम सीमा पर था। इससे लोगों में ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ भयंकर असंतोष उत्पन्न हो रहा था। कृषि, उद्योग और व्यापार का तो बहुत ही बुरा हाल था। रजवाड़ों के राजदरबार भी समाप्त हो गए थे। भारतीयों को अपने ही देश में महत्त्वपूर्ण और ऊँची नौकरियों से वंचित कर दिया गया था। इससे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध देशव्यापी संघर्ष की स्थिति बन गई थी। ऐसी स्थिति में कुँवर सिंह ने ब्रिटिश हुक़ूमत से लोहा लेने का संकल्प लिया।
जगदीशपुर के जंगलों में ‘बसुरिया बाबा’ नाम के एक सिद्ध संत रहते थे। उन्होंने ही कुँवर सिंह में देशभक्ति एवं स्वाधीनता की भावना उत्पन्न की थी। उन्होंने बनारस, मथुरा, कानपुर, लखनऊ आदि स्थानों पर जाकर विद्रोह की सक्रिय योजनाएँ बनाईं। वे 1845 से 1846 तक काफ़ी सक्रिय रहे और गुप्त ढंग से ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह की योजना बनाते रहे। उन्होंने बिहार के प्रसिद्ध सोनपुर मेले को अपनी गुप्त बैठकों की योजना के लिए चुना। सोनपुर के मेले को एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला माना जाता है। यह मेला कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगता है। यह हाथियों के क्रय-विक्रय के लिए भी विख्यात है। इसी ऐतिहासिक मेले में उन दिनों स्वाधीनता के लिए लोग एकत्र होकर क्रांति के बारे में योजना बनाते थे।
25 जुलाई 1857 को दानापुर की सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया और सैनिक सोन नदी पार कर आरा की ओर चल पड़े। कुँवर सिंह से उनका संपर्क पहले से ही था। इस मुक्तिवाहिनी के सभी बाग़ी सैनिकों ने कुँवर सिंह का जयघोष करते हुए आरा पहुँचकर जेल की सलाखें तोड़ दीं और क़ैदियों को आज़ाद कर दिया। 27 जुलाई 1857 को कुँवर सिंह ने आरा पर विजय प्राप्त की। सिपाहियों ने उन्हें फ़ौजी सलामी दी। यद्यपि कुँवर सिंह बूढ़े हो चले थे परंतु वह बूढ़ा शूरवीर इस अवस्था में भी युद्ध के लिए तत्पर हो गया और आरा क्रांति का महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया।
दानापुर और आरा की इस लड़ाई की ज्वाला बिहार में सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। लेकिन देशी सैनिकों में अनुशासन की कमी, स्थानीय ज़मींदारों का अँग्रेज़ों के साथ सहयोग करना एवं आधुनिकतम शस्त्रों की कमी के कारण जगदीशपुर का पतन रोका न जा सका। 13 अगस्त को जगदीशपुर में कुँवर सिंह की सेना अँग्रेज़ों से परास्त हो गई। किंतु इससे मंगल पांडे वीरवर कुँवर सिंह का आत्मबल टूटा नहीं और वे भावी संग्राम की योजना बनाने में तत्पर हो गए। वे क्रांति के अन्य संचालक नेताओं से मिलकर इस आज़ादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते थे। कुँवर सिंह सासाराम से मिर्ज़ापुर होते हुए रीवा, कालपी, कानपुर एवं लखनऊ तक गए। लखनऊ में शांति नहीं थी इसलिए बाबू कुँवर सिंह ने आज़मगढ़ की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने आज़ादी की इस आग को बराबर जलाए रखा। उनकी वीरता की कीर्ति पूरे उत्तर भारत में फैल गई। कुँवर सिंह की इस विजय यात्रा से अँग्रेज़ों के होश उड़ गए। कई स्थानों के सैनिक एवं राजा कुँवर सिंह की अधीनता में लड़े। उनकी यह आज़ादी की यात्रा आगे बढ़ती रही, लोग शामिल होते गए और उनकी अगुवाई में लड़ते रहे। इस प्रकार ग्वालियर, जबलपुर के सैनिकों के सहयोग से सफल सैन्य रणनीति का प्रदर्शन करते हुए वे लखनऊ पहुँचे।
आज़मगढ़ की ओर जाने का उनका उद्देश्य था—इलाहाबाद एवं बनारस पर आक्रमण कर शत्रुओं को पराजित करना और अंतत: जगदीशपुर पर अधिकार करना। अँग्रेज़ों और कुँवर सिंह की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ। उन्होंने 22 मार्च 1858 को आजमगढ़ पर क़ब्ज़ा कर लिया। अँग्रेज़ों ने दुबारा आज़मगढ़ पर आक्रमण किया। कुँवर सिंह ने एक बार फिर आज़मगढ़ में अँग्रेज़ों को हराया। इस प्रकार अँग्रेज़ी सेना को परास्त कर वीर कुँवर सिंह 23 अप्रैल 1858 को स्वाधीनता की विजय पताका फहराते हुए जगदीशपुर पहुँच गए। किंतु इस बूढ़े शेर को बहुत अधिक दिनों तक इस विजय का आनंद लेने का सौभाग्य न मिला। इसी दिन विजय उत्सव मनाते हुए लोगों ने यूनियन जैक (अँग्रेज़ों का झंडा) उतारकर अपना झंडा फहराया। इसके तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल 1858 को यह वीर इस संसार से विदा होकर अपनी अमर कहानी छोड़ गया।
स्वाधीनता सेनानी वीर कुँवर सिंह युद्ध कला में पूरी तरह कुशल थे। छापामार युद्ध करने में उन्हें महारत हासिल थी। कुँवर सिंह के रणकौशल को अँग्रेज़ी सेनानायक समझने में पूर्णत: असमर्थ थे। दुश्मन को उनके सामने से या तो भागना पड़ता था या कट मरना पड़ता था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने तलवार की जिस धार से अँग्रेज़ी सेना को मौत के घाट उतारा उसकी चमक आज भी भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। उनकी बहादुरी के बारे में अनेक क़िस्से प्रचलित हैं।
कहा जाता है एक बार वीर कुँवर सिंह को अपनी सेना के साथ गंगा पार करनी थी। अँग्रेज़ी सेना निरंतर उनका पीछा कर रही थी, पर कुँवर सिंह भी कम चतुर नहीं थे। उन्होंने अफ़वाह फैला दी कि वे अपनी सेना को बलिया के पास हाथियों पर चढ़ाकर पार कराएँगे। फिर क्या था, अँग्रेज़ सेनापति डगलस बहुत बड़ी सेना लेकर बलिया के निकट गंगा तट पर पहुँचा और कुँवर सिंह की प्रतीक्षा करने लगा। कुँवर सिंह ने बलिया से सात मील दूर शिवराजपुर नामक स्थान पर अपनी सेना को नावों से गंगा पार करा दिया। जब डगलस को इस घटना की सूचना मिली तो वह भागते हुए शिवराजपुर पहुँचा, पर कुँवर सिंह की तो पूरी सेना गंगा पार कर चुकी थी। एक अंतिम नाव रह गई थी और कुँवर सिंह उसी पर सवार थे। अँग्रेज़ सेनापति डगलस को अच्छा मौक़ा मिल गया। उसने गोलियाँ बरसानी आरंभ कर दीं, तब कुँवर सिंह के बाएँ हाथ की कलाई को भेदती हुई एक गोली निकल गई। कुँवर सिंह को लगा कि अब हाथ तो बेकार हो ही गया और गोली का ज़हर भी फैलेगा, उसी क्षण उन्होंने गंगा मैया की ओर भावपूर्ण नेत्रों से देखा और अपने बाएँ हाथ को काटकर गंगा मैया को अर्पित कर दिया। कुँवर सिंह ने अपने ओजस्वी स्वर में कहा, “हे गंगा मैया! अपने प्यारे की यह अकिंचन भेंट स्वीकार करो।”
वीर कुँवर सिंह ने ब्रिटिश हुक़ूमत के साथ लोहा तो लिया ही उन्होंने अनेक सामाजिक कार्य भी किए। आरा ज़िला स्कूल के लिए ज़मीन दान में दी जिस पर स्कूल के भवन का निर्माण किया गया। कहा जाता है कि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, फिर भी वे निर्धन व्यक्तियों की सहायता करते थे। उन्होंने अपने इलाक़े में अनेक सुविधाएँ प्रदान की थीं। उनमें से एक है—आरा-जगदीशपुर सड़क और आरा-बलिया सड़क का निर्माण। उस समय जल की पूर्ति के लिए लोग कुएँ खुदवाते थे और तालाब बनवाते थे। वीर कुँवर सिंह ने अनेक कुएँ खुदवाए और जलाशय भी बनवाए।
कुँवर सिंह उदार एवं अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे। इब्राहीम ख़ाँ और किफ़ायत हुसैन उनकी सेना में उच्च पदों पर आसीन थे। उनके यहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के सभी त्योहार एक साथ मिलकर मनाए जाते थे। उन्होंने पाठशालाएँ और मकतब भी बनवाए। बाबू कुँवर सिंह की लोकप्रियता इतनी थी कि बिहार की कई लोकभाषाओं में उनकी प्रशस्ति लोकगीतों के रूप में आज भी गाई जाती है। बिहार के प्रसिद्ध कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह ने उनकी वीरता और शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है—
चला गया यों कुँअर अमरपुर, साहस से सब अरिदल जीत,
उसका चित्र देखकर अब भी दुश्मन होते हैं भयभीत।
वीर-प्रसविनी-भूमि धन्य वह, धन्य वीर वह धन्य अतीत,
गाते थे और गावेंगे हम हरदम उसकी जय का गीत।
स्वतंत्रता का सैनिक था, आज़ादी का दीवाना था,
सब कहते हैं कुँअर सिंह भी बड़ा वीर मरदाना था॥
apne subhadra kumari chauhan ki kavita ‘jhansi ki rani’ chhathi kaksha mein paDhi hogi. is kavita mein thakur kunvar sinh ka naam bhi aaya hai. aapko kavita ki panktiyan yaad aa rahi hongi. ek baar phir se in panktiyon ko paDhiye—
ahmad shaah maulavi, thakur kunvar sinh sainik abhiram,
bharat ke itihas gagan mein amar rahenge jinke naam॥
yahan svtantrta sangram ke usi veer kunvar sinh ke bare mein jankari di ja rahi hai. san 1857 ke vyapak sashastr vidroh ne bharat mein british shasan ki jaDon ko hila diya. bharat mein british shasan ne jis daman niti ko arambh kiya uske viruddh vidroh shuru ho gaya tha. march 1857 mein bairakpur mein angrezon ke viruddh baghavat karne par mangal panDe ko 8 april 1857 ko phansi de di gai. 10 mai 1857 ko merath mein bharatiy sainikon ne british adhikariyon ke viruddh andolan kiya aur sidhe dilli ki or kooch kar ge. dilli mein tainat sainikon ke saath milkar 11 mai ko unhonne dilli par kabza kar liya aur antim mughal shasak bahadurshah zafar ko bharat ka shasak ghoshit kar diya. ye vidroh jangal ki aag ki bhanti door door tak phail gaya. kai mahinon tak uttari aur madhya bharat ke vistrit bhubhag par vidrohiyon ka kabza raha.
dilli ke atirikt jahan atyadhik bhishan yuddh hua, ve kendr the—kanpur, lakhanuu, bareli, bundelkhanD aur aara. iske saath hi desh ke anya kai bhagon mein bhi sthaniy vidroh hue. vidroh ke mukhya netaon mein nana saheb, tantya tope, bakht khaan, azimulla khaan, rani lakshmibai, begam hazrat mahl, kunvar sinh, maulavi ahamdullah, bahadur khaan aur raav tularam the. 1857 ka andolan svtantrta prapti ki disha mein ek driDh qadam tha. aage chalkar jis rashtriy ekta aur andolan ki neenv paDi, uski adharbhumi ko nirmit karne ka kaam 1857 ke andolan ne kiya. bharat mein samprdayik sadbhav ko baDhane ki disha mein bhi is andolan ka vishesh mahattv hai.
1857 ke andolan mein veer kunvar sinh ka naam kai drishtiyon se ullekhaniy hai. kunvar sinh jaise vayovriddh vyakti ne british shasan ke khilaf bahaduri ke saath yuddh kiya.
veer kunvar sinh ke bachpan ke bare mein bahut adhik jankari nahin milti. kaha jata hai ki kunvar sinh ka janm bihar mein shahabad zile ke jagdishpur mein san 1782 ii० mein hua tha. unke pita ka naam sahabzada sinh aur mata ka naam panchartan kunvar tha. unke pita sahabzada sinh jagdishpur riyasat ke zamindar the, parantu unko apni zamindari hasil karne mein bahut sangharsh karna paDa. parivarik ulajhnon ke karan kunvar sinh ke pita bachpan mein unki theek se dekhbhal nahin kar sake. jagdishpur lautne ke baad hi ve kunvar sinh ki paDhai likhai ki theek se vyavastha kar pae.
kunvar sinh ke pita veer hone ke saath saath svabhimani evan udaar svbhaav ke vyakti the. unke vyaktitv ka prabhav kunvar sinh par bhi paDa. kunvar sinh ki shiksha diksha ki vyavastha unke pita ne ghar par hi ki, vahin unhonne hindi, sanskrit aur farsi sikhi. parantu paDhne likhne se adhik unka man ghuDasvari, talvarbazi aur kushti laDne mein lagta tha.
babu kunvar sinh ne apne pita ki mrityu ke baad san 1827 mein apni riyasat ki zimmedari sanbhali. un dinon british huqumat ka atyachar charam sima par tha. isse logon mein british huqumat ke khilaf bhayankar asantosh utpann ho raha tha. krishi, udyog aur vyapar ka to bahut hi bura haal tha. rajvaDon ke rajadarbar bhi samapt ho ge the. bhartiyon ko apne hi desh mein mahattvpurn aur uunchi naukariyon se vanchit kar diya gaya tha. isse british satta ke viruddh deshavyapi sangharsh ki sthiti ban gai thi. aisi sthiti mein kunvar sinh ne british huqumat se loha lene ka sankalp liya.
jagdishpur ke janglon mein ‘basuriya baba’ naam ke ek siddh sant rahte the. unhonne hi kunvar sinh mein deshabhakti evan svadhinata ki bhavna utpann ki thi. unhonne banaras, mathura, kanpur, lakhanuu aadi sthanon par jakar vidroh ki sakriy yojnayen banain. ve 1845 se 1846 tak kafi sakriy rahe aur gupt Dhang se british huqumat ke khilaf vidroh ki yojna banate rahe. unhonne bihar ke prasiddh sonpur mele ko apni gupt baithkon ki yojna ke liye chuna. sonpur ke mele ko eshiya ka sabse baDa pashu mela mana jata hai. ye mela kartik purnima ke avsar par lagta hai. ye hathiyon ke kray vikray ke liye bhi vikhyat hai. isi aitihasik mele mein un dinon svadhinata ke liye log ekatr hokar kranti ke bare mein yojna banate the.
25 julai 1857 ko danapur ki sainik tukDi ne vidroh kar diya aur sainik son nadi paar kar aara ki or chal paDe. kunvar sinh se unka sampark pahle se hi tha. is muktivahini ke sabhi bagi sainikon ne kunvar sinh ka jayghosh karte hue aara pahunchakar jel ki salakhen toD deen aur qaidiyon ko azad kar diya. 27 julai 1857 ko kunvar sinh ne aara par vijay praapt ki. sipahiyon ne unhen fauji salami di. yadyapi kunvar sinh buDhe ho chale the parantu wo buDha shurvir is avastha mein bhi yuddh ke liye tatpar ho gaya aur aara kranti ka mahattvpurn kendr ban gaya.
danapur aur aara ki is laDai ki jvala bihar mein sarvatr vyaapt ho gai thi. lekin deshi sainikon mein anushasan ki kami, sthaniy zamindaron ka angrejon ke saath sahyog karna evan adhuniktam shastron ki kami ke karan jagdishpur ka patan roka na ja saka. 13 agast ko jagdishpur mein kunvar sinh ki sena angrezon se parast ho gai. kintu isse mangal panDe virvar kunvar sinh ka atmabal tuta nahin aur ve bhavi sangram ki yojna banane mein tatpar ho ge. ve kranti ke anya sanchalak netaon se milkar is ajadi ki laDai ko aage baDhana chahte the. kunvar sinh sasaram se mirzapur hote hue riva, kalpi, kanpur evan lakhanuu tak ge. lakhanuu mein shanti nahin thi isliye babu kunvar sinh ne azamgaDh ki or prasthan kiya. unhonne azadi ki is aag ko barabar jalaye rakha. unki virata ki kirti pure uttar bharat mein phail gai. kunvar sinh ki is vijay yatra se angrezon ke hosh uD ge. kai sthanon ke sainik evan raja kunvar sinh ki adhinta mein laDe. unki ye azadi ki yatra aage baDhti rahi, log shamil hote ge aur unki aguvai mein laDte rahe. is prakar gvaliyar, jabalpur ke sainikon ke sahyog se saphal sainya ranniti ka pradarshan karte hue ve lakhanuu pahunche.
azamgaDh ki or jane ka unka uddeshya tha—ilahabad evan banaras par akrman kar shatruon ko parajit karna aur anttah jagdishpur par adhikar karna. angrezon aur kunvar sinh ki sena ke beech ghamasan yuddh hua. unhonne 22 march 1858 ko ajamgaDh par kabza kar liya. angrezon ne dobara azamgaDh par akrman kiya. kunvar sinh ne ek baar phir azamgaDh mein angrezon ko haraya. is prakar angreji sena ko parast kar veer kunvar sinh 23 april 1858 ko svadhinata ki vijay pataka phahrate hue jagdishpur pahunch ge. kintu is buDhe sher ko bahut adhik dinon tak is vijay ka anand lene ka saubhagya na mila. isi din vijay utsav manate hue logon ne yuniyan jaik (angrezon ka jhanDa) utarkar apna jhanDa phahraya. iske teen din baad hi 26 april 1858 ko ye veer is sansar se vida hokar apni amar kahani chhoD gaya.
svadhinata senani veer kunvar sinh yuddh kala mein puri tarah kushal the. chhapamar yuddh karne mein unhen maharat hasil thi. kunvar sinh ke rankaushal ko angrezi senanayak samajhne mein purntah asmarth the. dushman ko unke samne se ya to bhagna paDta tha ya kat marna paDta tha. 1857 ke svtantrta sangram mein inhonne talvar ki jis dhaar se angrezi sena ko maut ke ghaat utara uski chamak aaj bhi bharatiy itihas ke prishthon par ankit hai. unki bahaduri ke bare mein anek kisse prachalit hain.
kaha jata hai ek baar veer kunvar sinh ko apni sena ke saath ganga paar karni thi. angreji sena nirantar unka pichha kar rahi thi, par kunvar sinh bhi kam chatur nahin the. unhonne afvah phaila di ki ve apni sena ko baliya ke paas hathiyon par chaDhakar paar karayenge. phir kya tha, angrez senapati Daglas bahut baDi sena lekar baliya ke nikat ganga tat par pahuncha aur kunvar sinh ki prtiksha karne laga. kunvar sinh ne baliya se saat meel door shivrajpur namak sthaan par apni sena ko navon se ganga paar kara diya. jab Daglas ko is ghatna ki suchana mili to wo bhagte hue shivrajpur pahuncha, par kunvar sinh ki to puri sena ganga paar kar chuki thi. ek antim naav rah gai thi aur kunvar sinh usi par savar the. angrez senapati Daglas ko achchha mauka mil gaya. usne goliyan barsani arambh kar deen, tab kunvar sinh ke bayen haath ki kalai ko bhedti hui ek goli nikal gai. kunvar sinh ko laga ki ab haath to bekar ho hi gaya aur goli ka zahr bhi phailega, usi kshan unhonne ganga maiya ki or bhavpurn netron se dekha aur apne bayen haath ko katkar ganga maiya ko arpit kar diya. kunvar sinh ne apne ojasvi svar mein kaha, “he ganga maiya! apne pyare ki ye akinchan bhent svikar karo. ”
veer kunvar sinh ne british huqumat ke saath loha to liya hi unhonne anek samajik karya bhi kiye. aara zila skool ke liye zamin daan mein di jis par skool ke bhavan ka nirman kiya gaya. kaha jata hai ki unki arthik sthiti bahut achchhi nahin thi, phir bhi ve nirdhan vyaktiyon ki sahayata karte the. unhonne apne ilaqe mein anek suvidhayen pradan ki theen. unmen se ek hai—ara jagdishpur saDak aur aara baliya saDak ka nirman. us samay jal ki purti ke liye log kuen khudvate the aur talab banvate the. veer kunvar sinh ne anek kuen khudvaye aur jalashay bhi banvaye.
kunvar sinh udaar evan atyant sanvedanshil vyakti the. ibrahim khaan aur kifayat husain unki sena mein uchch padon par asin the. unke yahan hinduon aur musalmanon ke sabhi tyohar ek saath milkar manaye jate the. unhonne pathshalayen aur maktab bhi banvaye. babu kunvar sinh ki lokapriyta itni thi ki bihar ki kai lokbhashaon mein unki prashasti lokgiton ke roop mein aaj bhi gai jati hai. bihar ke prasiddh kavi manoranjan parsad sinh ne unki virata aur shaurya ka varnan karte hue likha hai—
chala gaya yon kunar amarpur, sahas se sab aridal jeet,
uska chitr dekhkar ab bhi dushman hote hain bhaybhit.
veer prasvini bhumi dhanya wo, dhanya veer wo dhanya atit,
gate the aur gavenge hum hardam uski jay ka geet.
svtantrta ka sainik tha, azadi ka divana tha,
sab kahte hain kunar sinh bhi baDa veer mardana tha॥
apne subhadra kumari chauhan ki kavita ‘jhansi ki rani’ chhathi kaksha mein paDhi hogi. is kavita mein thakur kunvar sinh ka naam bhi aaya hai. aapko kavita ki panktiyan yaad aa rahi hongi. ek baar phir se in panktiyon ko paDhiye—
ahmad shaah maulavi, thakur kunvar sinh sainik abhiram,
bharat ke itihas gagan mein amar rahenge jinke naam॥
yahan svtantrta sangram ke usi veer kunvar sinh ke bare mein jankari di ja rahi hai. san 1857 ke vyapak sashastr vidroh ne bharat mein british shasan ki jaDon ko hila diya. bharat mein british shasan ne jis daman niti ko arambh kiya uske viruddh vidroh shuru ho gaya tha. march 1857 mein bairakpur mein angrezon ke viruddh baghavat karne par mangal panDe ko 8 april 1857 ko phansi de di gai. 10 mai 1857 ko merath mein bharatiy sainikon ne british adhikariyon ke viruddh andolan kiya aur sidhe dilli ki or kooch kar ge. dilli mein tainat sainikon ke saath milkar 11 mai ko unhonne dilli par kabza kar liya aur antim mughal shasak bahadurshah zafar ko bharat ka shasak ghoshit kar diya. ye vidroh jangal ki aag ki bhanti door door tak phail gaya. kai mahinon tak uttari aur madhya bharat ke vistrit bhubhag par vidrohiyon ka kabza raha.
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1857 ke andolan mein veer kunvar sinh ka naam kai drishtiyon se ullekhaniy hai. kunvar sinh jaise vayovriddh vyakti ne british shasan ke khilaf bahaduri ke saath yuddh kiya.
veer kunvar sinh ke bachpan ke bare mein bahut adhik jankari nahin milti. kaha jata hai ki kunvar sinh ka janm bihar mein shahabad zile ke jagdishpur mein san 1782 ii० mein hua tha. unke pita ka naam sahabzada sinh aur mata ka naam panchartan kunvar tha. unke pita sahabzada sinh jagdishpur riyasat ke zamindar the, parantu unko apni zamindari hasil karne mein bahut sangharsh karna paDa. parivarik ulajhnon ke karan kunvar sinh ke pita bachpan mein unki theek se dekhbhal nahin kar sake. jagdishpur lautne ke baad hi ve kunvar sinh ki paDhai likhai ki theek se vyavastha kar pae.
kunvar sinh ke pita veer hone ke saath saath svabhimani evan udaar svbhaav ke vyakti the. unke vyaktitv ka prabhav kunvar sinh par bhi paDa. kunvar sinh ki shiksha diksha ki vyavastha unke pita ne ghar par hi ki, vahin unhonne hindi, sanskrit aur farsi sikhi. parantu paDhne likhne se adhik unka man ghuDasvari, talvarbazi aur kushti laDne mein lagta tha.
babu kunvar sinh ne apne pita ki mrityu ke baad san 1827 mein apni riyasat ki zimmedari sanbhali. un dinon british huqumat ka atyachar charam sima par tha. isse logon mein british huqumat ke khilaf bhayankar asantosh utpann ho raha tha. krishi, udyog aur vyapar ka to bahut hi bura haal tha. rajvaDon ke rajadarbar bhi samapt ho ge the. bhartiyon ko apne hi desh mein mahattvpurn aur uunchi naukariyon se vanchit kar diya gaya tha. isse british satta ke viruddh deshavyapi sangharsh ki sthiti ban gai thi. aisi sthiti mein kunvar sinh ne british huqumat se loha lene ka sankalp liya.
jagdishpur ke janglon mein ‘basuriya baba’ naam ke ek siddh sant rahte the. unhonne hi kunvar sinh mein deshabhakti evan svadhinata ki bhavna utpann ki thi. unhonne banaras, mathura, kanpur, lakhanuu aadi sthanon par jakar vidroh ki sakriy yojnayen banain. ve 1845 se 1846 tak kafi sakriy rahe aur gupt Dhang se british huqumat ke khilaf vidroh ki yojna banate rahe. unhonne bihar ke prasiddh sonpur mele ko apni gupt baithkon ki yojna ke liye chuna. sonpur ke mele ko eshiya ka sabse baDa pashu mela mana jata hai. ye mela kartik purnima ke avsar par lagta hai. ye hathiyon ke kray vikray ke liye bhi vikhyat hai. isi aitihasik mele mein un dinon svadhinata ke liye log ekatr hokar kranti ke bare mein yojna banate the.
25 julai 1857 ko danapur ki sainik tukDi ne vidroh kar diya aur sainik son nadi paar kar aara ki or chal paDe. kunvar sinh se unka sampark pahle se hi tha. is muktivahini ke sabhi bagi sainikon ne kunvar sinh ka jayghosh karte hue aara pahunchakar jel ki salakhen toD deen aur qaidiyon ko azad kar diya. 27 julai 1857 ko kunvar sinh ne aara par vijay praapt ki. sipahiyon ne unhen fauji salami di. yadyapi kunvar sinh buDhe ho chale the parantu wo buDha shurvir is avastha mein bhi yuddh ke liye tatpar ho gaya aur aara kranti ka mahattvpurn kendr ban gaya.
danapur aur aara ki is laDai ki jvala bihar mein sarvatr vyaapt ho gai thi. lekin deshi sainikon mein anushasan ki kami, sthaniy zamindaron ka angrejon ke saath sahyog karna evan adhuniktam shastron ki kami ke karan jagdishpur ka patan roka na ja saka. 13 agast ko jagdishpur mein kunvar sinh ki sena angrezon se parast ho gai. kintu isse mangal panDe virvar kunvar sinh ka atmabal tuta nahin aur ve bhavi sangram ki yojna banane mein tatpar ho ge. ve kranti ke anya sanchalak netaon se milkar is ajadi ki laDai ko aage baDhana chahte the. kunvar sinh sasaram se mirzapur hote hue riva, kalpi, kanpur evan lakhanuu tak ge. lakhanuu mein shanti nahin thi isliye babu kunvar sinh ne azamgaDh ki or prasthan kiya. unhonne azadi ki is aag ko barabar jalaye rakha. unki virata ki kirti pure uttar bharat mein phail gai. kunvar sinh ki is vijay yatra se angrezon ke hosh uD ge. kai sthanon ke sainik evan raja kunvar sinh ki adhinta mein laDe. unki ye azadi ki yatra aage baDhti rahi, log shamil hote ge aur unki aguvai mein laDte rahe. is prakar gvaliyar, jabalpur ke sainikon ke sahyog se saphal sainya ranniti ka pradarshan karte hue ve lakhanuu pahunche.
azamgaDh ki or jane ka unka uddeshya tha—ilahabad evan banaras par akrman kar shatruon ko parajit karna aur anttah jagdishpur par adhikar karna. angrezon aur kunvar sinh ki sena ke beech ghamasan yuddh hua. unhonne 22 march 1858 ko ajamgaDh par kabza kar liya. angrezon ne dobara azamgaDh par akrman kiya. kunvar sinh ne ek baar phir azamgaDh mein angrezon ko haraya. is prakar angreji sena ko parast kar veer kunvar sinh 23 april 1858 ko svadhinata ki vijay pataka phahrate hue jagdishpur pahunch ge. kintu is buDhe sher ko bahut adhik dinon tak is vijay ka anand lene ka saubhagya na mila. isi din vijay utsav manate hue logon ne yuniyan jaik (angrezon ka jhanDa) utarkar apna jhanDa phahraya. iske teen din baad hi 26 april 1858 ko ye veer is sansar se vida hokar apni amar kahani chhoD gaya.
svadhinata senani veer kunvar sinh yuddh kala mein puri tarah kushal the. chhapamar yuddh karne mein unhen maharat hasil thi. kunvar sinh ke rankaushal ko angrezi senanayak samajhne mein purntah asmarth the. dushman ko unke samne se ya to bhagna paDta tha ya kat marna paDta tha. 1857 ke svtantrta sangram mein inhonne talvar ki jis dhaar se angrezi sena ko maut ke ghaat utara uski chamak aaj bhi bharatiy itihas ke prishthon par ankit hai. unki bahaduri ke bare mein anek kisse prachalit hain.
kaha jata hai ek baar veer kunvar sinh ko apni sena ke saath ganga paar karni thi. angreji sena nirantar unka pichha kar rahi thi, par kunvar sinh bhi kam chatur nahin the. unhonne afvah phaila di ki ve apni sena ko baliya ke paas hathiyon par chaDhakar paar karayenge. phir kya tha, angrez senapati Daglas bahut baDi sena lekar baliya ke nikat ganga tat par pahuncha aur kunvar sinh ki prtiksha karne laga. kunvar sinh ne baliya se saat meel door shivrajpur namak sthaan par apni sena ko navon se ganga paar kara diya. jab Daglas ko is ghatna ki suchana mili to wo bhagte hue shivrajpur pahuncha, par kunvar sinh ki to puri sena ganga paar kar chuki thi. ek antim naav rah gai thi aur kunvar sinh usi par savar the. angrez senapati Daglas ko achchha mauka mil gaya. usne goliyan barsani arambh kar deen, tab kunvar sinh ke bayen haath ki kalai ko bhedti hui ek goli nikal gai. kunvar sinh ko laga ki ab haath to bekar ho hi gaya aur goli ka zahr bhi phailega, usi kshan unhonne ganga maiya ki or bhavpurn netron se dekha aur apne bayen haath ko katkar ganga maiya ko arpit kar diya. kunvar sinh ne apne ojasvi svar mein kaha, “he ganga maiya! apne pyare ki ye akinchan bhent svikar karo. ”
veer kunvar sinh ne british huqumat ke saath loha to liya hi unhonne anek samajik karya bhi kiye. aara zila skool ke liye zamin daan mein di jis par skool ke bhavan ka nirman kiya gaya. kaha jata hai ki unki arthik sthiti bahut achchhi nahin thi, phir bhi ve nirdhan vyaktiyon ki sahayata karte the. unhonne apne ilaqe mein anek suvidhayen pradan ki theen. unmen se ek hai—ara jagdishpur saDak aur aara baliya saDak ka nirman. us samay jal ki purti ke liye log kuen khudvate the aur talab banvate the. veer kunvar sinh ne anek kuen khudvaye aur jalashay bhi banvaye.
kunvar sinh udaar evan atyant sanvedanshil vyakti the. ibrahim khaan aur kifayat husain unki sena mein uchch padon par asin the. unke yahan hinduon aur musalmanon ke sabhi tyohar ek saath milkar manaye jate the. unhonne pathshalayen aur maktab bhi banvaye. babu kunvar sinh ki lokapriyta itni thi ki bihar ki kai lokbhashaon mein unki prashasti lokgiton ke roop mein aaj bhi gai jati hai. bihar ke prasiddh kavi manoranjan parsad sinh ne unki virata aur shaurya ka varnan karte hue likha hai—
chala gaya yon kunar amarpur, sahas se sab aridal jeet,
uska chitr dekhkar ab bhi dushman hote hain bhaybhit.
veer prasvini bhumi dhanya wo, dhanya veer wo dhanya atit,
gate the aur gavenge hum hardam uski jay ka geet.
svtantrta ka sainik tha, azadi ka divana tha,
sab kahte hain kunar sinh bhi baDa veer mardana tha॥
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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