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शब्दचित्र : रेखा चाची और मेरी माँ

आरुष मिश्र, सरदार पटेल विद्यालय, नई दिल्ली में कक्षा दसवीं में पढ़ने वाले किशोर हैं। पिछले वर्ष जब वह कक्षा नवीं में थे तो गर्मी की छुट्टियों में उनकी कक्षा को हिंदी विषय में एक कार्य मिला था। उसमें ‘कृतिका’ के पाठ ‘मेरे संग की औरतें’ पढ़ने से प्राप्त अनुभवों के आधार पर अपने पारिवारिक परिवेश की ऐसी चार-पाँच स्त्रियों का रेखाचित्र (शब्दचित्र) लिखना था, जिनका जीवन लीक से हटकर और प्रेरक रहा हो। आरुष ने यहाँ प्रस्तुत दोनों शब्दचित्र उसी कार्य के लिए लिखे। इस अभिव्यक्ति को पढ़कर एक तेरह-चौदह वर्षीय किशोर की स्त्री-दृष्टि से जो परिचय हुआ, उसने मुझे प्रसन्न और विस्मित किया। आरुष की भाषा की स्तरीयता और भाव-बोध का संस्कार भविष्य की उम्मीद बँधाने वाला लगा। सिग्मा और अल्फ़ा मेल बनने की होड़ में जुटे किशोरों के बीच यह एक अलग रोशनी नज़र आई और लगा कि इसे अधिक से अधिक लोगों को पढ़ना चाहिए। मुझे ख़ुशी है कि यह किशोर मेरा विद्यार्थी है। कभी-कभी अध्यापक विद्यार्थी तक नहीं पहुँचता, विद्यार्थी भी उसे मिल जाता है—प्रकृति के न्याय से। भाषा के स्तर पर बहुत मामूली सुधार-परिष्कार के साथ यह रचना शत-प्रतिशत इस किशोर की है। काश! ऐसी दृष्टि रखने वाले और किशोर हमारे समाज में बनें-बढ़ें।

सुदीप्ति

शब्दचित्र : एक 
रेखा चाची : जैसा मैंने उनको देखा 

चाची की ज़िंदगी कुछ ज़्यादा ख़ुशनुमा नहीं, मगर प्रेरक अवश्य है। जिन चाची की बात मैं कर रहा हूँ, वे भले ही मेरी सगी चाची नहीं हों, मगर उनके साथ वक़्त बिताकर, उनके जीवन को क़रीब से देखकर जो कुछ लगा वही लिखना चाहता था। ये बातें बस एक किशोर भतीजे के परिप्रेक्ष्य से लिखी जा रही हैं। 

रेखा चाची—जैसा कि मैं उन्हें बुलाता रहा हूँ—मुझे सदा ही एक सामाजिक स्त्री प्रतीत हुईं, समाज में सबसे  घुल-मिलकर रहने वाली। उनकी उम्र मुझसे कोई पंद्रह-सोलह वर्ष ही ज़्यादा है, इसलिए उनके और मेरे बीच पीढ़ी का अंतर भले ही हो, मगर मानसिक अंतर काफ़ी कम था। सामाजिक संरचना में वह बड़ी, पर पारिवारिक स्तर से बहुत नज़दीक की रहीं। मैं बचपन से ही उनसे मिलता रहा हूँ और अक्सर उनसे बातें होती थीं, थोड़ी ही सही। क़रीब सात वर्ष पहले उनके एक बेटे का भी जन्म हुआ, उससे मिलना होता रहा है। 

विवाह के बाद के शुरुआती वर्षों में ही मैं उनके भीतर के सहिष्णुता जैसे गुणों से परिचित हुआ। उनकी शादी के समय मैं मात्र पाँच वर्ष का ही था। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ और दुनियादारी की थोड़ी-बहुत समझ आई, मैंने उनके अंदर बदलाव और विद्रोह की एक किरण-सी देखी। वे ख़ानदान की चौथी बहू थीं और घर की सबसे बड़ी बहू, यानी मेरी माँ से क़रीब सत्रह वर्ष छोटी थीं। शायद यही कारण था कि उनके विचारों का घर के अधिकतर बड़ों के विचारों से ताल-मेल न बैठता था। उस समय और आज भी, हमारे घर में औरतों द्वारा रिश्तेदारों, ख़ासकर बड़ों के समक्ष साड़ी ही पहनी जाती थी। यह प्रथा पारिवारिक मिलन के बड़े अवसरों जैसे : शादी-ब्याह पर और भी प्रचंड होती थी। मगर चाची ने विवाह के कुछ वर्ष बाद ही किसी भी मौक़े पर सूट-सलवार पहनना शुरू कर दिया, चाहे वे कहीं भी हों, यहाँ तक कि किसी के भी सामने। यह बात उत्तर प्रदेश के एक गाँव-देहात के ख़ानदानी घर में, जो कि पारंपरिक विचारों से निर्मित है, एक बहुत बड़ी बात थी। यह किसी परतंत्र देश में संप्रभुता के लिए बग़ावत करने से कम न था। 

इसके बाद भी आए दिन ऐसा कुछ न कुछ होता रहता था जो इस घर को याद दिलाता था कि इस बहू के अंदर आत्मा का वास होता है। कभी ससुर से मतभेद होना, कभी किसी बड़े से आँख मिलाकर चाय के लिए पूछ लेना, तो कभी जेठ से सीधे वार्तालाप करना। यह सब इस घर में निंदा-रस के सृजन के नायाब नमूने बन गए थे। ख़ैर! रेखा चाची की शादी के क़रीब नौ वर्ष बाद ज़िंदगी के द्वार पर मुश्किलों ने दस्तक दी। तीस साल की उम्र में चाची की माँग से सिंदूर धुल गया और जिसके साथ उन्होंने भविष्य के सपने सजाए थे, वह चिता में अपने कुकर्मों के कारण जल गया। इसका अंदेशा लगभग पूरे ख़ानदान को काफ़ी समय से था, तभी से जब से चाचा को बुरी आदतों ने घेर लिया था। मगर चाची की शादी ही इसीलिए हुई थी कि वह सुधार लेंगी, वह सुधर जाएँगे। मगर जो न होना था वह नहीं हुआ और जो हुआ उसका डर पुराना था, इसलिए चाची को कोई दोष न दे सका। लेकिन वह कहते हैं न चटकती दीवारें जब गिरती हैं, छत का अभाव तो तभी मालूम पड़ता है। इसके बाद चाची ने कई मुश्किल क़दम उठाए। उनकी अपने ससुर जी से बहस तो काफ़ी समय से होती थी, अब आए दिन होने लगी। कभी चाची के, तो कभी उनके मायकेवालों के चरित्र पर उँगली उठती थी, फिर चाहे वह अनैतिक संबंधों की हो या बेईमानी की। विधवा होने के बाद तो यह सब और भी बढ़ गया। उनको पूरे परिवार से आलोचनाएँ मिलती थीं। सामने से तो सबका सहारा था, मगर पीठ पीछे सब असली रंग दिखाते थे, ख़ासकर घर की स्त्रियाँ। 

चाची ने तीस साल की उम्र में पाँच वर्ष के अनाथ पुत्र की माता होते हुए ही यह वैधव्य हासिल कर लिया। इन तमाम बातों के बावजूद वह अपने बेटे साथ अपने मायके जाने की बजाय अपने ससुराल में ही रहीं। ससुराल में ससुर थे, सास दो साल पहले गुज़र गई थीं। ससुर जी के द्वारा दिया जाने वाले ताने जब असह्य हुए तो चाची ने उनका खाना बनाने से इनकार कर दिया। एक भूख हड़ताल शुरू हो गई, जिसमें ख़ुद भूखे न रहकर दूसरों को भूखा रखा जाता है। अपने आदरणीय ससुर जी को चाची ने मजबूर कर दिया कि अगर दिन में उनके चरित्र की बुराइयाँ ही ढूँढ़नी हैं, तो रात में दो रोटियाँ भी ढूँढ़ें। विधवा औरत को शृंगार करने की मनाही होती है। चाची की माँ ने अनुरोध किया, जो किसी माँग से काम न था कि उनकी बेटी शृंगार जारी रखेगी। चाची ने ऐसा किया भी। अपने जीवन की बागडोर अपने ही हाथ में रखी और उसे नियंत्रित किया। 

इसके बाद चाची की आलोचनाएँ जारी रहीं। अगर विधवा हँसे तो ग़लत। हँसे क्या मुस्करा भी दे तो ग़लत। अगर उसकी आँखें सूख जाएँ तो ग़लत। अगर एक विधवा को दुःख हो तो भी ग़लत, क्योंकि अब तो वह बस दिखावा कर रही होगी। विधवा का अपने दुःख को क़ाबू में करके सच स्वीकार करने का प्रयत्न हो या दुःख का घड़ा भर जाने पर छलकते आँसू हों, दोनों को नकारात्मक नज़रिए से देखा जाता है। इस सबके बावजूद चाची ने हिम्मत नहीं हारी। 

चाची का समाज को अपने जीवन से न खेलने देना मुझे सदा प्रेरित करता है। नि:संदेह उनमें भी कई कमियाँ हैं और रहेंगी, हर मनुष्य की तरह। शायद वह उतनी शांत और परिपक्व न थीं। उनके ऊपर लगते कुछ आरोप अवश्य सत्य भी होंगे, मगर उनके चरित्र का वह पक्ष जो उनके जीवन के ऊपर वर्णित क़िस्सों में प्रतिबिंबित होता है, अत्यंत प्रेरक है। उनकी निडरता और आत्मनिर्भर बनने की कोशिश प्रशंसनीय है। एक छोटी-सी जगह से निकलकर ऐसे कदम उठाना किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम न था। उन्होंने हर चुनौती का डटकर सामना किया है और आगे भी करती रहेंगी। मेरी स्मृति में वह सबसे आधुनिक स्त्रियों में से एक हैं। चाची के हर छोटे क़दम ने मुझे एक बड़े सफ़र की तैयारी करना सिखाया है। उन्होंने हर बुरे वक़्त में मुस्कराते रहने का संदेश दिया है। 

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शब्दचित्र : दो 
मेरी माँ : जिनके बारे में मैं ज़्यादा नहीं जानता 

अपनी माँ के जीवन के बारे में मैं बहुत ज़्यादा नहीं जानता, आख़िर उन्होंने ज़्यादा बताया ही नहीं है। यही बात सबसे बड़ा संकेत है कि उनकी ज़िंदगी न ख़ुशियों का अंबार है, न ही वह उससे संतुष्ट हैं। मेरे ननिहाल से उनका कुछ ख़ास संपर्क नहीं है और इसी वजह मेरा भी कोई जुड़ाव नहीं। कभी दो-तीन महीनों में एक बार बात हो गई तो बहुत है। माँ इस बारे में कुछ साझा भी नहीं करतीं; वैसे भी उनके अनुसार यह मेरी पढ़ने-लिखने की उम्र है, न कि इन बातों को जानने-समझने की। पर एक साथ रहने से मैं जो कुछ जानता हूँ, वही बता रहा हूँ। माँ के शुरुआती जीवन के बारे में मुझे कुछ ख़ास अंदाज़ नहीं है। ये कुछ टूटी-फूली बातें ही बस मुझे पता हैं।

माँ की दो बहनें और दो भाई हैं। दोनों बहनें माँ से बड़ी हैं, जबकि एक भाई बड़े हैं और एक भाई छोटा। एक बार माँ ने अपने जन्मदिन पर बताया था कि उनके जन्म पर घर में लोग रोए थे। इसकी वजह साफ़ है। आख़िर घर में तीसरी लड़की जो हुई थी। बचपन में उन्हें पिता यानी मेरे नाना जी का साथ अवश्य मिला। नाना जी स्वयं कॉलेज में लेक्चरर थे और पढ़ाई का महत्त्व जानते थे। उन्होंने अपनी बेटियों को उतना ही पढ़ाया जितना बेटों को। लेकिन फिर भी भारतीय समाज में यही मान्यता है कि पढ़-लिखकर लड़कियों की नौकरी लगी तो सही, वरना शादी तो हो ही जाएगी। पढ़ाई भी बेहतर शादी के लिए की जाती थी या है।

उस समय माँ को घर में ज़्यादा ख़ूबसूरत भी न समझा जाता था, जिसकी हमारे समाज में बहुत पूछ है। इसके विपरीत मेरी छोटी मौसी को बहुत सुंदर समझा जाता था। उस समय अक्सर घर पर आने वाले रिश्तेदार माँ को कूड़ा-कर्कट जैसे विशेषणों से अलंकृत करते थे। उस समय मेरी माँ ने बस यही सोचा कि ख़ुद को सिद्ध करने का एकमात्र तरीक़ा बस ज्ञान ही है। जीवन में ऐसी कई घटनाओं के बाद ही, उन्होंने जिंदगी में पढ़-लिख कर कुछ कर गुज़रने को ही अपना लक्ष्य बना लिया। 

माँ ने कई वर्षों तक बहुत लगन से पढ़ाई की। दसवीं में उनके कैसे नंबर आए; यह तो पता नहीं, लेकिन वह फ़र्स्ट डिवीजन में पास हुईं। ग्यारहवीं में ‘साइंस’ पढ़ीं; फिर गणित, रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान से बीएससी करके गणित विषय से एमएससी किया। इसी बीच मेरी बड़ी मौसी ने अध्यापकी की परीक्षा पास कर ली और उनकी शादी हुई। छोटी मौसी की भी शादी हुई और वह एक गृहिणी के रूप में रहीं। यही वह समय था जब मेरे दोनों मामाओं की संगति बिगड़ गई। काफ़ी समय तक मेरे दोनों मामा ख़ासकर बड़े मामा ने ख़ूब लगन से पढ़ाई की और उसी क्षेत्र में सरकारी नौकरी पाई, जिसमें आगे चल चलकर माँ पाने वाली थीं। मगर छोटे मामा की ज़िंदगी को कुसंगति ने तबाह कर दिया। बुरी आदतों ने उन्हें घेर लिया। इसी समय मेरी माँ ने सरकारी नौकरी की परीक्षा पास करके नौकरी पाई। उसके कुछ वर्षों बाद उनका विवाह हुआ। 

जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, मेरे ननिहाल की स्थिति दयनीय हो गई। मेर मामा लोग रोज़ आपस में और नाना-नानी से लड़ा करते थे; पैसे, जायदाद, वसीयत, शेयर—इन्हीं सबके पीछे। नशे की आदत ने उनका जीवन नष्ट कर दिया था। इस समय नाना-नानी की तीन बेटियों ने, ख़ासकर उस बेटी ने जिसके जन्म पर उनके आँसू बहे थे, हाथ थामा। उन्होंने मामाओं का निरंतर विरोध किया। नाना-नानी को समझाना और सँभालना भी उन्हीं का कार्य बन गया। समय के साथ नाना-नानी और माँ इन सब मतभेदों से तंग आ गए। मामा लोगों से तो संपर्क तोड़ा ही, माँ-बाप और बेटियों का संपर्क भी बहुत कम हो गए। फिर भी, हर कठिन समय में नाना-नानी ने माँ को ही याद किया और माँ ने भी उनका साथ दिया। वह उनकी सबसे भरोसेमंद संतान बनीं। यह सफ़र एक बोझ होने से बोझ सँभालने वाली तक—किसी भी बेटी के लिए एक असंभव सपने से कम नहीं है। 

यह तो हुई एक बेटी होने की बात; एक माँ के रूप में उनके बारे मैं क्या कहूँ, मैं नहीं जानता। यह बात सच है कि हर माता के लिए उसकी संतान ज़िंदगी से भी प्यारी होती है, लेकिन मम्मी का क़ायदा ही कुछ और है। उनके लिए उनके दोनों बेटे ही उनकी ज़िंदगी हैं। हर समय हमारे बारे में सोचना, हमारी ख़ुशी के लिए हर संभव प्रयास करना, हमें ज़रा-सा भी कष्ट न होने देना... यही उनके जीवन का सार है। ज़ाहिर है कि यह कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है कि बच्चों को हद से ज़्यादा लाड़-प्यार किया जाए, वरना बच्चे बिगड़ जाते जाते हैं। बच्चे माता-पिता और उनके स्नेह को अपने सौभाग्य की जगह, उनका कर्त्तव्य समझने लगते हैं। इसी कारण मेरे पिता भी इस व्यवहार को नियंत्रित करने की बात करते रहते हैं। मगर मातृ-प्रेम—कारण और यथार्थ के परे—भावनाओं के उस सागर का हिस्सा है, जो बस बहता ही रहता है। सच तो यह भी है कि मैं बिगड़ा नहीं, वरना आज ये बातें यहाँ न लिख रहा होता। हाँ! अपने भाई के बारे में ऐसा कुछ लिख सकूँ, मैं इसमें सक्षम नहीं।

माँ के इस पूरे जीवन ने मुझे सदा प्रेरित किया है। उनकी ग़लतियों, प्रयत्नों एवं सफलताओं ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। क़रीब चालीस साल की उम्र में भी पी-एच.डी. करने का निर्णय प्रेरणात्मक है। वह मेरे लिए दृढ आत्मविश्वास एवं सच्ची लगन की प्रतिमूर्ति हैं। उन्होंने मुझे समाज के कई बंधनों को तोड़ना और अवसर पाते ही ख़ुद को साबित करना सिखाया है। उनकी कुछ कमियाँ भी हैं, जिन पर लिखना मेरे लिए ख़तरे से ख़ाली नहीं; लेकिन सच पूछिए तो मनुष्य जीवन का लक्ष्य सतत  सकारात्मक परिवर्तन है, जो उनके अंदर भी हुआ और उन्होंने अपने आस-पास भी किया।

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