क्या है यह ‘बंद गली का आख़िरी मकान’?
रहमान
30 अगस्त 2024
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग–अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 28 अगस्त को धर्मवीर भारती की कहानी पर आधारित नाटक ‘बंद गली का आख़िरी मकान’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :
क्या है यह ‘बंद गली का आख़िरी मकान’?
वर्षों तक साहित्य में कहानी, नई कहानी, साठोत्तरी कहानी, अकहानी आदि को लेकर बहसें चलती रहीं। लिखने वाला चुप रहा। फिर चुपके से एक लेखक, एक कहानी लिखकर प्रकाशित करवा देता है और वही उसका घोषणा-पत्र हो जाता है; गोया उसने सारे वाद-विवाद के बीच एक रचनात्मक कीर्तिमान स्थापित कर दिया हो, कि देखो यह है कहानी।
कहानी! हाँ, कहानी ही... यह कहानी धर्मवीर भारती की सभी कहानियों में सबसे अधिक लंबी है। कहानी की इकाई की अपेक्षा वस्तुतः यह एक उपन्यासिका है, जिसका कथानक बीस कथाखंड़ों में विभाजित है।
प्रारंभ प्रमुख पात्र मुंशी जी की लंबी बीमारी के एक दिन से होता है और धीरे-धीरे मुंशी जी के माध्यम से ही विविध पारिवारिक और सामाजिक संबंधों का नए-नए अर्थों में रहस्योद्घाटन होता है। एक तरफ़ मुंशी जी हैं, दूसरी तरफ़ पंद्रह वर्ष पहले पति का घर छोड़कर अविवाहित मुंशी जी के आसरे में आई बिरजा है।
मुंशी जी कायस्थ हैं, तो बिरजा ब्राह्मण। बिरजा की माँ हरदेई है, जो मुंशी जी में भगवान के दर्शन करती है। बिरजा का बड़ा बेटा राघोराम साक्षात् गऊ है, उसके व्यक्तित्व में पितृभक्ति भरी है। वहीं दूसरा बेटा हरिराम जन्म का चोर है, जो अपने आचार-व्यवहार से सभी के लिए परेशानी खड़ी करता रहता है।
इनके अलावा मुंशी जी से संबंधित और भी कई पात्र हैं—उनके जीवन से जुड़े हुए, उनके दुःख-सुख-संवेदनाओं के भागीदार, जो अतीत संबंधी स्मृति प्रसंगों में बार-बार आते रहते हैं। परिस्थितियाँ बनती बिगड़ती रहती हैं, फिर स्वयं ही अपने लिए एक निश्चित नियामक का निर्धारण कर लेती हैं। जीवन चक्र जहाँ से आरंभ होता है, वही उसका अंत हो जाता है।
कहानी का घटनास्थल वह कच्चा मकान है जो गली के अंत में हैं। जहाँ आकर गली बंद हो जाती है। इस मकान के समान ही मुंशी जी की स्थिति है। कथा का अंत आते-आते मुंशी जी की नियति भी बंद गली के आख़िरी मकान की तरह हो जाती है। बंद और सीमित!
इस एक कहानी की दो भिन्न प्रस्तुतियाँ हुईं। जोकि एक अनूठा नाट्य-प्रयोग है। दोनों प्रस्तुतियों का लेखन एक होने के उपरांत भी प्रस्तुति और कहन में कोई समानता नहीं है। पहली प्रस्तुति आपको गरम भाप वाली भात पर घी जैसी लगती है। जब गरम-गरम भात पर घी डाला जाता है, तो घी बहुत धीमे मंद गति से रिसते हुए भात के कोने-कोने तक पहुँच जाता है, जायके के लिए अत्यधिक चीज़ों की माँग ना करते हुए। केवल नमक मात्र से आप मन को तृप्त करने वाला स्वाद पा लेते हैं।
पहली प्रस्तुति कुछ कुछ ऐसी ही लगती है, जिसके मध्य में सेट के नाम पर कुछ क्यूब और अभिनेता हैं। लेकिन अभिनेता अपने अभिनय कौशल से सीमित संसाधनों में भी कहानी का मर्म दर्शकों तक बड़ी ही सहजता से पहुँचा देते हैं। मुंशी जी का किरदार निभा रहे अभिनेता अखिल प्रताप और मुजीबुर रहमान कहानी की दशा और दिशा दोनों माक़ूल तरीक़े से भूना रहे थे। बिरजा की भूमिका में अभिनेत्री पोतशंगबम रीता देवी और पूनम दहिया बारी-बारी से कहानी को आगे बढ़ा रही थी। हरदेई बनी शाजिया बतूल प्रभावित करती हैं। इसके अतिरिक्त सभी अभिनेताओं के परस्पर सामंजस्य से मुंशी जी की व्यथा दर्शकों तक पहुँचती है।
दूसरी प्रस्तुति पर बात करने से पूर्व यह कहना मुनासिब होगा कि एक ही कहानी से दो सुंदर संसार रचना, उसे मंच पर उतारना और दर्शकों के भीतर सफलतापूर्वक प्रवेश कराना, यह केवल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अभिनेता ही कर सकते हैं।
मानव सभ्यता का विकास इस हद तक हो गया है कि हम खिलते हुए फूलों को तोड़ते हुए असहज नहीं होते हैं।
‘बंद गली का आख़िरी मकान’ भी वीरान जंगल में एक खिलता हुआ सरई का फूल है, जिसे अपने और पराए सभी तोड़ने पर तुले हुए हैं, फिर भी उनकी आत्मसंतुष्टि यहीं समाप्त नहीं होती। उनके भीतर का दंभ उस पुष्पगुच्छ के साथ पौधे को भी उखाड़ कर ही शांत होता है।
जो चीज़ें हमें पसंद नहीं आती, जिनमें हमारी असहमति होती है, जो हमारे स्वाद का नहीं होता, हम उसे समस्त मानव सभ्यता के लिए ख़तरा करार कर देते हैं। फिर उनका अंत या तो नितांत अभाव और अकेलेपन में होता है, या फिर वह हमारी वजह से मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
अंतरजातीय विवाह, प्रेम संबंध, समलैंगिक संबंध, या फिर वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष का मित्रवत संबंध भी हमें असहज करता है। हम समाचार पत्रों में आए दिन ऐसी ख़बरों से रूबरू होते हैं, लेकिन चिंतन नहीं करते।
नाटक—‘बंद गली का आख़िरी मकान’ हमें यह चिंतन का अवसर प्रदान करता है ताकि हमारे भीतर नमी बनी रहे।
मुंशी जी एक बेसहारा औरत का हाथ थामते हैं, यह हर किसी को असहज करता है। लेकिन उस औरत की परिस्थिति किसी को असहज नहीं करती। वो वर्षों की मेहनत से कई लोगों को एक साथ-एक जगह इकट्ठा रखकर मकान को घर में तब्दील करते हैं, लेकिन लोगों को खिलते हुए फूल कहाँ पसंद आते हैं। अपना सर्वस्व देकर भी मुंशी जी अपने अंत के दिनों को कष्ट और चिंता में बिताकर प्राण त्याग देते हैं।
हमें पुष्पगुच्छ के साथ पौधे को जड़ समेत उखाड़ने में ही तृप्ति मिलती है। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? बिटौनी? जो बहन होते हुए भी बहन ना हो सकी। हरिराम? जिसे अपने पुत्र होने का एहसास पिता के चले जाने के बाद हुआ। बिरजा? जो अपने मोहपाश में यह भूल गई कि मुंशी जी से उसे पुनः जीने की आश मिली। या फिर हमारा समाज? जिन्हें उम्र के दूसरे पड़ाव में पहुँच चुके, दो लोगों का सुखद प्रेमयुक्त जीवन जीने से कष्ट है। जिन्हें मानसिक प्रताड़ना सामाजिक बंधनों से परे किए गए काम का ईनाम-सा लगता है।
प्रश्न कई हैं और उत्तर हमें स्वयं के भीतर तलाश करना है। यह सारे प्रश्न इस कहानी को कहने वाले कलाकार बड़े ही चालाकी से हँसाते हुए, हमारे भीतर उतारते चले जाते हैं। मुंशी जी का किरदार स्वयं रंगमंडल प्रमुख राजेश सिंह निभा रहे थे, जिनमें उनके अभिनय की समझ और अनुभव का मिश्रण साफ़ झलक रहा था। राजेश सिंह ने मुंशी जी के चरित्र को जिस संवेदनशीलता के साथ चित्रण किया, वो सचमुच जीवंत था। उनकी पत्नी बिरजा बनी अभिनेत्री शिल्पा भारती ने किरदार के मर्म को सुंदर तरीके से भुनाया।
हरदेइ, हरिराम, राघो राम और भवनाथ का किरदार निभा रही, पूजा गुप्ता, सतेंद्र मलिक, अनंत शर्मा, शिव प्रसाद गोंड अपने अभिनय से कहानी को और जीवंत बना रहे थे। छोटे-से लेकिन इसाक मियाँ के किरदार में सुमन कुमार अपना प्रभाव छोड़कर जाते हैं।
सामान्य सेट की मदद से मुंशी जी के घर, रसोईघर और बाक़ी चीज़ों को सुंदर तरीक़े से दिखाया गया लेकिन इसे मौलिक दृश्य में समेटने का काम प्रकाश परिकल्पना का था। इस कहानी के प्रभावशाली मंचन के लिए प्रकाश परिकल्पक और अभिनेता बराबर बधाई के पात्र हैं।
देवेंद्र राज अंकुर को कहानियों के मंचन के लिए जाना जाता है, जिन्हें तकरीबन पचास वर्ष होने को है और आप जब ‘बंद गली का आख़िरी मकान’ की प्रस्तुति देखकर प्रेक्षागृह से निकलते हैं, तब आपको इस बात पर पुख्ता यकीन हो जाता है कि देवेंद्र राज अंकुर को कहानियों के मंचन के लिए क्यों हमेशा याद किया जाएगा।
आप यदि नाट्य प्रेमी हैं, या नहीं भी हैं और अभी तक आपने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर रुख नहीं किया है तो यकीन मानिए—आप अपने जीवन के सुंदर अनुभवों में इज़ाफ़ा करने से वंचित रह रहे हैं। यह नाट्य महोत्सव अगले 9 सितंबर तक निरंतर होने वाला है। आपको इसकी एक प्रस्तुति ज़रूर देखनी चाहिए।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
28 नवम्बर 2025
पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’
ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि
18 नवम्बर 2025
मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं
Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल
30 नवम्बर 2025
गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!
मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक
23 नवम्बर 2025
सदी की आख़िरी माँएँ
मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,
04 नवम्बर 2025
जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक
—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें