Font by Mehr Nastaliq Web

जीवन के मायाजाल में फँसी मछली

पेंगुइन

बर्फ़ की कोख में नवजात पेंगुइन पैदा हुआ। पेंगुइन नहीं जानता था, वह क्यों और किस तरह पैदा हुआ। कौन-से उद्देश्य की ज़र खाई पाज़ेब पहन अपने पाँव ‌ज़मीन पर रखे। यह रूप, यह संज्ञा, यह संसार, यह भाषा जिससे वह संसार को‌ तुतलाते हुए पढ़ता था, वह सब उसके समक्ष कब और कैसे प्रकट हुए, वह नहीं जानता था। 

इस नहीं जानने के हेर-फेर में उसके हाथों में रखा गया रस्ता, भूले बागड़ी लौहारों द्वारा बनाया गया तसला जिसमें अनुकरण की पस भरी हुई थी। पेंगुइन ने पस का सेवन किया, पेंगुइन समय के पैरों के निशान के पीछे दौड़ते हुए बड़ा हुआ। दौड़ते हुए पेंगुइन की आँखों से टपकते थे—उन दुर्बल बच्चों के‌ रूदन-स्वर जिनके व्यंजन ‌यौन‌-शोषण के समय हथेली से दबा दिए गए। पेंगुइन की पीठ पर बैठा रहता था भय का बेताल, जो कमज़ोर चिलगोजों की माँ के‌ द्वारा उन्हें घोंसलों से गिराए जाने पर पैदा हुआ था।

पेंगुइन नित अनुकरण करता ‌रहा। दिन‌-रात पत्थर चुगता रहा। लेकिन पेशी के दिन पत्थर गायब थे। लोगों का कहना था, किसी बलशाली पेंगुइन ने पत्थर उठा लिए। पेंगुइन क्या करता? पेंगुइन लड़ा! अंतिम साँसों को सर‌ में भर टक्कर मारता गया। नतीजा क्या निकला? नतीजा वही जो असल दुनिया में होता है। भूख के पीछे दौड़ते हुए अस्तित्व की धोती को बचाने के संघर्ष में पेंगुइन मारा गया। ऐसे ही अनेक पेंगुइन महानगरों में पंखों पर झूलते हुए, नदियों में गोता मारकर मौत का मोती ‌ढूँढ़ते हुए, बिल्डिंग से छलांग ‌लगा, यम को पकड़ने के चक्कर में धड़ाम से अख़बार ‌पर गिरते हैं और ख़बर बन सो जाते हैं।

इनकी इस गहरी नींद के ज़िम्मेदार अकसर दीवारों में चलते हुए मिल‌ जाते हैं। जो थूक-मंथन से पैदा हुई दो टके की इज़्ज़त के बदले, सौ मन का धौलाकपाड़िया छाती पर बैठा जाते हैं। धौलेकपाड़िया—अकेलेपन के‌ द्योतक हैं, सब के सर पर घूमते हैं, असमानता नहीं दिखाते सबको खाते हैं। इनके बोझ में हम धीरे-धीरे दबते हैं, धीरे-धीरे मरते हैं और लोग कहते हैं—यह तो अचानक मर गया।

इंसान इससे बचने की तमाम कोशिशें करता है। भावों की राख से अकेलापन भरने बैठ जाता है, लेकिन पाप और पेट के घड़े की तरह यह भी नहीं भरता। अंत में अकेलापन‌ इतना बढ़ जाता है कि सर पर कफ़न बाँध इंसान अनंत की ओर भागता है।

अनुकरण के‌ ज़ीने से उतरते हुए मारा जाता है। इस जीवन‌ का उद्देश्य केवल‌ मरना है? या प्रदत्त अस्मिता के लिए लड़ना? या तीन भूखों के आगे पीछे ‌डौलते रहना?‌ वो भी विस्थापन शून्य होते हुए? अंत में अगर विस्थापन शून्य ही है तो क्यों अनुकरण करना है?

सदियों से हम पेंगुइन इस मायाजाल में मछली की भाँति फँसे हुए हैं। मैं तारों को देखकर अपने बचपन में देखे हुए जुगनुओं को याद करता हूँ, जो हमारे गाँव से फिलहाल विलुप्त हो गए या फिर बंधन से मुक्त हुए। भरे पेट यह बात कहना, उतना ही आसान है जितना नाख़ून चबाना होता है। नाख़ून चबाते हुए नंगे पाँव एक और ठंडा विचार दरवाज़े पर दस्तक देते हुए कहता है कि हे मूर्ख अगर पेंगुइन अनुकरण नहीं करेगा तो फिर करेगा क्या? मैं उसे सीने मैं भर कर कहता हूँ, वही जो सिद्ध और नाथों ने करने की कोशिश करी। पर संसार की यह संरचना तोड़कर संसार को चलाया जा सकता है? यह सोचकर डर लगता है, यही डर हर पेंगुइन की छाती में बसा हुआ है।
पेंगुइन को पस का सेवन नहीं करना होगा। पेंगुइन को बचना होगा अनुकरण करने से, पेंगुइन को बचना होगा अपना विस्थापन शून्य करने से। मैं नहीं जानता, यह सही है या ग़लत पर मेरी एक आँख के सफ़ेद ने दूसरी आँख के श्वेत से ऐसा लिखने को ही कहा था।

चुनाव-चुनाव-चुनाव

मेरे प्रदेश में चुनाव होने वाला है और जब भी मैं आँखें बंद कर चुनाव शब्द सोचता हूँ तो  कूदते हुए कई चित्रकार मेरे मन में आते हैं। जो मन के कैनवास पर अलग-अलग चित्र बनाना चाहते हैं। उन चित्रों को देखकर जीभ पर एक अजीब-सा स्वाद आता है। उसको मैं लिखकर तो नहीं बता सकता पर जीवन का स्वाद कुछ ऐसा ही होता होगा। 

पहला चित्रकार आता है, बर्बरता से चित्र मेरे मन पर उकेरने लगता है। याद आया गाँव में सरपंची के चुनाव के नतीजों के बाद का दृश्य, ऐरावत हाथी के समान ट्रेक्टर पर बैठे पाँच-छह लोग जिसमें एक जोड़े को मालाएँ पहनाई जा रही हैं। मैं पंजों पर खड़ा होकर अपनी सरपंच साहिबा का चेहरा देखना चाह रहा था। मेरी आँखों में यह खोज दौड़ रही थी कि मेरे गाँव का प्रतिनिधित्व अब कौन करेगा। लेकिन यह खोज जिस चेहरे पर समाप्त होना चाह रही थी, वह चेहरा ढका हुआ था। डरा-सहमा शरीर हाथ जोड़े टेक्टर पर खड़ा था। उस शरीर मैं कौंध रहा उसके पास खड़ी आकृतियों का भय जो थूक के साथ-साथ उनके गले में उतर रहा था। 

एक विचार मेरे कंधे पर आ बैठा और मेरे कान में पूछा। चेहरे तो अपराधियों के ढके जाते हैं, क्या वह अपराधी है? चुनाव जीतना अपराध है? सरपंच होना अपराध है? या फिर महिला होना अपराध है? उसके द्वारा पूछे गए सवालों से मेरा वजन कुछ क्षण के लिए बढ़ गया और मुझे अपने पाँव तले कुलमुलाता हुआ पोस्टर महसूस हुआ। मेरा पाँव हमारी सरपंच साहिबा के पोस्टर पर बने चेहरे पर था। शायद मेरे अंदर का कमज़ोर पुरुष एक स्त्री के हाथ में शक्ति आने की संभावना से डर गया था।

मन में एक दूसरा चित्रकार दाख़िल होता है। कैनवास से इस चित्र को हटाकर एक दूसरा चित्र बनाने लगता है, उससे मुझे याद आया फिर एक चुनाव और चुनाव के दिन बिजली ना जाने की ख़ुशी जो आँखों में बैठकर एकटक टीवी देख रही थी। ख़ुशी को आँखों में लेकर अपनी माँ की अंगुली पकड़कर सरकारी स्कूल की तरफ़ जाते हुए, एक बच्चा माँ से सवाल-जवाब कर रहा होता है। मुझे वह सवाल-जवाब याद नहीं, लेकिन माँ का मौन अवश्य याद है। 

माँ के मौन में सावन की नमी थी, वह भी तीज के दिन की पींग पर झूलते हुए मौसम की पर महीना अभी जेठ का चल रहा था। हम भी छाँह के पीछे चलते-चलते स्कूल पहुँच गए। वोट कार्ड उठाए चेहरे सुंदर लग रहे थे। उनके मताधिकार की आज़ादी उनके माथे पर नन्ही बच्ची की भांति दौड़ रही थी। 

“ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां”

मानो तुलसीदास ने इन्हीं बच्चियों के लिए लिखा हो। अंदर से तभी अचानक अधिकार के हनन की आवाज़ सुनाई दी। भेड़ियों द्वारा इन बच्चियों को‌ खाया जा रहा था। मुझे उस दिन मालूम हुआ कि हर पार्टी के अपने आदमखोर भेड़ियों होते हैं, जो मतदान के दिन मतदान-केंद्र में खुले छोड़ दिए जाते हैं। मेरी माँ के माथे पर ठुमकती बच्ची भी मारी गई। लहू पसीना बन माँ के माथे से बह रहा था। माँ मौन थी, लेकिन इस मौन में नमी नहीं थी। तपता जेठ था, जो दाँतों के बीच पीसा जा रहा था। यह सब देखकर जेठ का महीना भी मुँह लुकोकर भाग गया। घर आते हुए, माँ ने राम की ओर देखता हुए कहा—आज आंधा मी होने वाला है।

मन में तीसरे चित्रकार का प्रवेश हुआ, कैनवास से चित्र हटाया। यह केवल लाल रंग लेकर आया है क्योंकि चुनाव को इसी रंग में रंगा जाता है। मुझे याद है विधानसभा चुनाव के समय अँधेरा था। वैसे हर चुनाव अँधेरे में ही लड़ा जाता है। दो रात पहले पड़ोस के गाँव में दो अलग-अलग जातियों के‌ लोगों की हत्या कर दी गई थी। हर चुनाव की तरह यह चुनाव भी जातियों का चुनाव हो गया था। हर आदमी की रगों में उनकी जातियाँ रोडवेज बस की भांति दौड़ रही थी। जिसे और‌ दौड़ाने के‌ लिए बाइक सवार घर-घर में एक शराब की बोतल, ‌पाँच सौ के नोट में लपेट कर‌ दे रहे थे। 

जो आदमियों की नशों में दौड़ती जाति के लिए फ़्यूल और टोल टैक्स का काम कर रही थी। पूरे गाँव से नाली में लोट मारे हुए कुत्ते की दुर्गंध आ रही थी। पर मैं इस दुर्गंध का अब आदी हो चुका था। 40-50 टैक्टर कतार में चले आ रहे थे। यह शक्ति प्रदर्शन था, मानों मुग़ल काल का कोई शासक दिल्ली की गली में से हाथी पर बैठ गुज़र रहा हो और सारा क़ाफ़िला उसके साथ-साथ चल रहा हो। 

किताबों में मैंने पढ़ा था, यह सब ख़त्म हो चुका है, लेकिन मेरी आँखों के सामने सातवीं कक्षा का हमारे अतीत भाग-२ का कोई चैप्टर तेज़-तेज़ चिल्ला रहा था। शासक ने जनता को संबोधित करना शुरू किया :
“गाम-राम न्ह खिलाड़ी बनाया है। अपणे आप वो खिलाड़ी ना बणा और उसन्ह गाम के खातिर करा के है? कोए गाम का बाळक सरकारी नौकरी लगवाया हो? कदे नी! तो इस्ह आदमी का के फायदा।”

ये बातें मेरे कानों से सीधा गले में आईं और वहाँ से छपाक पेट में, लेकिन इन बातों को मैं कभी पचा नहीं पाया और एक बात मेरे लीवर में अटक गई कि मेरा गाँव चाहता है—उनके गाँव का ओलंपिक पदक विजेता खिलाड़ी घोटाला करवाकर गाँव के लड़कों को नौकरी दिलवाए। चुनाव फिर से आ गया है और मेरा‌ लीवर ख़राब पड़ा है। गाँव के युवाओं का कहना है खिलाड़ी भ्रष्ट है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट