दास्तान-ए-गुरुज्जीस-4
ज्योति तिवारी
22 मई 2025

तीसरी कड़ी से आगे...
उन दिनों हॉस्टल के हर कमरे से ‘वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ की आवाज़ें आती थी। हर कमरे से कोई एक नाक सुड़कता, सुबकता मिल जाता था। उन दिनों जब भारत ने विश्व कप जीता तो उसमें हॉस्टल की लगभग पचास लड़कियों ने अपनी परीक्षाओं को तुच्छ समझते हुए, विश्व कप जीतने में भारत का सहयोग किया था। उन दिनों किसी पेपर में दस नंबर के प्रश्नों के छूटने की चिंता हमसे अधिक हमारे मित्र करते थे। एक बार तो गिरोह बनाकर दोस्तों ने एक दोस्त को बताया कि तुम्हारा दस नंबर का प्रश्न छूटा है, इस पर तुम्हें दुख होना चाहिए, अवसाद होना चाहिए। उन दिनों हम रोज़ दो कौड़ी की कविताएँ लिखा करते थे। उन्हीं दिनों सुबह-सुबह कक्षा में पाँच मिनट की देरी से पहुँचने पर, दो मिनट बाद जब मैम का ध्यान हम पर जाता तो आवाज़ आती—“बैक बेंचर्स! स्टैंड अप एंड गेट आउट।” हमें इस सम्मान की पूरी उम्मीद थी, पर यह सम्मान पराकाष्ठा को प्राप्त हो जाएगा इसकी भनक नहीं थी। हम कमरे के बाहर थे, हमारी लॉटरी निकली थी।
एक दिन मैम पढ़ाते-पढ़ाते रुक गईं। हमसे मुख़ातिब होते हुए बोलीं—कितनी कम उम्र है तुम्हारी! इसी उम्र में इतनी चिंता। ख़ुश रहा करो, हँसा करो। हर वक़्त मुँह लटका रहता है तुम्हारा। उस दिन हमें हमारे फ़ेशियल डिफ़ेक्ट के बारे में पता चला था कि ईश्वर रूपी कुम्हार ने हम जैसे कुंभ के निर्माण में गीली मृत्तिका का उपयोग किया था, परिणामस्वरूप हमारा थोबड़ा लटका रहता। इस आशय के दो-तीन और प्रमाण पत्र भी जारी हुए थे, दोस्तों द्वारा जिनका बुलंद वाचन लगभग एकाध हफ़्ते तक तो किया ही जाता था।
संघर्षों के बीच से हमने दो सालों पर विजय पाई थी। हम ऑनर्स में आ चुके थे। मैम ने एक दिन बताया कि हम लोग भी स्कर्ट और टॉप पहना करते थे, पर आप लोगों की तरह तथाकथित लाइब्रेरी के बहाने मंदिर जाकर मौज नहीं करते थे। ख़ैर, एकदिन हमें पढ़ाया जा रहा था—‘बादल को घिरते देखा’। हम कक्षा में बैठे कालजयी कविता लिख रहे थे, तब हमें नहीं पता था कि हम यह एम.ए. की फ़्रेशर पार्टी में आधा सुनाएँगे, आधा भूल जाएँगे, जिस पर हमारे परम मित्रों की प्रतिक्रियाएँ आएँगी, “कुछ भी ढंग से कब करेंगी आप? सबकुछ लीप देना ज़रूरी है?” जिन्हें मैंने मन में पालतू जानवरों को ध्यान में रखते कुछ सभ्य शब्द बुदबुदायें थे। कविता अपने पीक पर थी, बग़ल में वे दोस्त बैठे थे, जिनका उस दिन क्लास करने का मन नहीं था। तब तक मैम ने हमारी प्रतिभा सूँघ ली। हमसे ‘बादल को घिरते देखा’ की कुछ पंक्तियों की व्याख्या माँगी गई। हमने व्याख्या की और असुरों को कमल दलों में अमृतपान कराया। मुझे लगा—बाबा मेरी पीठ थपथपा रहे, कह रहे कि यह अप्रत्याशित पुनर्पाठ है! मैम मेरा स्तुति गान कर रही, पूरी कक्षा हौले-हौले मुस्कुरा रही थी, लेकिन मैम ने कहा—“थोड़ा चित्त स्थिर करें आप! आप ऑनर्स में हैं!”
हमने कक्षा समाप्ति के बाद चित्त की स्थिरता के लिए कैंटीन का रुख़ किया, जहाँ समोसे के साथ मिलती चटनी का स्वाद बेजोड़ था। उस दिन हमने समोसा के सम की व्याख्या करते हुए, उसे उदरस्थ कर उचित सम्मान दिया। समोसे को सम्मानित करते हुए, हमें हॉस्टल वाली एम.ए. पास मौसी जी की बड़ी याद आ रही थी, जिनकी मुहब्बत की लाइव क्लासेज़ को अनुशासनहीनता माना गया था।
उन दिनों जब हम समोसे के सम पर विचार किया करते थे, तब हम दक्षिणपंथ-वामपंथ जैसे उच्च विचारधाराओं से अनभिज्ञ थे। तब हम मनुष्य थे, लेकिन जातियाँ जानते थे। हम बाभन थे, ठाकुर थे, भूमिहार थे, यादव थे, बनिया थे; पर एकदम ज़रूरी बात कि हम दोस्त थे। हमारा दोस्त होना समोसे की ऊपरी सुनहरी कुरकुरी परत होना था, जिसके भीतर झाँकते ही भाप के छल्ले एकाध इंच ऊपर हवा में ख़ुशबू बिखेर देते थे। कई बार जब हम समोसे की महत्ता पर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि अहा! क्या प्रजाति है समोसा! हम इसमें कुचल के आलू डालें या बड़े टुकड़ों में काटकर आलू डालें, छिलके वाला आलू डालें या बिना छिलके वाला आलू डालें, मटर डालें या मूँगफली डालें या कि चना डालें या मूँग के कुछ दाने डाल दें। सब्ज़ी मसाला डाल दें या गरम मसाला डाल दें या आलू दम मसाला डाल दें या खड़ा मसाला यूँ ही झोंक दें। इसे आटे में गूँथ लें या मैदे में गूँथ लें। चाहे तो हम इसकी विकसित वंशावली पर नज़र डाल लें—मावा समोसा, शाही समोसा, पनीर समोसा, पित्ज़ा समोसा, प्याज समोसा, नूडल्स समोसा, कीमा समोसा। चाहे तो बड्डे पार्टी में शामिल करें या कि मेहमानों के आने पर शामिल करें। ट्रीट के नाम पर दोस्तों को खिलाकर कम पैसे में बजट संतुलित कर लें या फिर विकल्पहीनता के दौर में अपनी क्षुधाग्नि शांत कर लें। हम इसे चटनी के साथ खाएँ—मसलन धनिया की चटनी, टमाटर की चटनी, इमली की चटनी या कि पनछोछर मिर्च की चटनी या फिर कभी-कभी सॉस और मिठाई के सिर्रे के साथ भी, यह सभी परिस्थितियों में अपने लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य करता है। अख़बार पर खाएँ, पत्ते के दोनें में खाएँ या काग़ज़ के प्लेट पर खाएँ। छोले के साथ खाएँ या भात के साथ खाएँ, यह सुख और संतुष्टि हमेशा उपलब्ध कराता है। हाँ इसका स्वाद कभी नरम-गरम हो सकता है, बिल्कुल हमारे संबंधों के जैसे; पर आकार, आकर्षण और उपयोगिता अपनी यह कभी नहीं खो सकता।
हमने चंदौली के तमाम क्षेत्रों, दुर्गावती (कैमूर) के तमाम क्षेत्रों, ग़ाज़ीपुर के तमाम क्षेत्रों, काशी, प्रयाग, जयपुर और अब बिहार की राजधानी जैसी जगहों पर समोसे खाते हुए—यह मंथन करते रहे कि हमारा आधा जीवन समोसे को समर्पित रहा है, बाक़ी का आधा जीवन भी समोसे के समर्पण में रीत-बीत जाएगा। समोसा हमारे अंतस में इस क़दर रचा-बसा है कि नाम सुनते ही उसकी सुवास नथुनों में भरने लगती है, मुख में लार का तालाब हिलोरें लेने लगता है, आँखों में एक मदहोश लालच तारी हो जाती है और स्मृतियाँ उस बड़े लोहे के कड़ाहे तक जा पहुँचती है, जहाँ झक्क सफ़ेद समोसे छनन-मनन, छनन-मनन करते हुए, तेल में अठखेलियाँ कर रहे हैं। हम ने दो घंटे, चार घंटे और चौबीस घंटे के सफ़र में भी समोसे खाए। हमने अपनी निम्न आय में दो रुपये से पचास रुपये तक के भी समोसे खाए। हम नदियों के आस-पास के रहवासी रहे, हम जल से बर्फ़ और वाष्प बनने की प्रक्रिया से बख़ूबी अवगत रहे।
ख़ैर! इस तरह समोसे पर चर्चा करते हुए—हम ‘थ्री इडियट्स’ से ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’, ‘हैरी पॉटर’ से ‘लॉर्ड ऑफ़ द रिंग’ के साथ ही ‘डॉर्लिंग’ और ‘भागों भूत आया’ जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में घोंट चुके थे। सिनेमा का धुआँ उड़ाते हुए, ऑनर्स करते हुए, मेस की मैदे वाली कचौड़ी के लिए पगलाते हुए, रविवार के रात को खाने में मिला रसगुल्ला दोस्तों से वसूलते हुए—हमने प्रयागराज का रुख़ कर लिया था। जहाँ हमने ख़ूब पसीना बहाया। ख़ूब सीखा। कुछ संघर्ष किए-जिए। कुछ संघर्ष देखे-सुने। हिंदी-अँग्रेज़ी के वर्चस्व की लड़ाई वहाँ भी थी। गुरुजी लोगों से संपर्क वहाँ भी कम रहा। दोस्त बेहद कम पर टिकाऊ बने। डाँट-डपट वहाँ भी मिली। साड़ी-जूता और जूड़े को एकसाथ साधने की कला हम सीख चुके थे।
बाद में निर्भया की झकझोर देने वाली घटना से हमारी निर्भयता मृतप्राय हुई। ऑटो में डर लगा, बस में डर लगा, दुपहर की सुनसान ख़ाली सड़कों पर डर लगा, अकेले आते-जाते डर लगा, राह भूले-भटके लोगों को रास्ता बताते डर लगा, मनुष्यों से डर लगा, टूटते भरोसे से डर लगा। उस बार के महाकुंभ में हमने अपने पाप नहीं धोये। हम पापों के बही-खाते की मरम्मत और रखरखाव करते रहे।
ऊकताये-ऊबे! ख़ूब कविताएँ लिखीं। ख़ूब नीलेश मिसरा को सुना और फिर थके हुए से लौट आए। यहाँ वह समय ही गुरुजी बना रहा। एकदम से मन-मस्तिष्क पर हावी। सबकुछ धुआँ-धुआँ रहा। शहर को हमसे और हमें शहर से कम ही मुहब्बत रही। हम इसी में मुदित रहे कि चलो कम ही सही पर मुहब्बत रही!
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अगली बेला में जारी...
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