...एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, “क्या नाम है बे तेरा?”
“ओमप्रकाश”, मैंने डरते-डरते धीमे स्वर में अपना नाम बताया। हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे। पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी।
“चूहड़े का है?” हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला।
“जी।”
“ठीक है... वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियाँ तोड़ के झाड़ बणा ले, पत्तोंवाली झाड़ बणाना। और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यो ख़ानदानी काम है। जा फटाफट लग जा काम पे।
हेडमास्टर के आदेश पर मैंने कमरे, बरामदे साफ़ कर दिए, तभी वे ख़ुद चलकर आए और बोले, इसके बाद मैदान भी साफ़ कर दे।”
लंबा-चौड़ा मैदान मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था। जिसे साफ़ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी। धूल से चेहरा, सिर अट गया था। मुँह के भीतर धूल घुस गई थी। मेरी कक्षा में बाक़ी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ लगा रहा था। हेडमास्टर अपने कमरे में बैठे थे लेकिन निगाह मुझ पर टिकी हुई थी। पानी पीने तक की इजाज़त नहीं थी। पूरा दिन मैं झाड़ लगाता रहा। तमाम अनुभवों के बीच कभी इतना काम नहीं किया था। वैसे भी घर में भाइयों का मैं लाड़ला था।
दूसरे दिन स्कूल पहुँचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर झाड़ के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाड़ ही देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊँगा।
तीसरे दिन मैं कक्षा में चुपचाप जाकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई दी। उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, “मास्साब वो बैठा है कोणे में।“
हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोच कर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींच कर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीख़ कर बोले, “जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...”
भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ उठा ली। मेरी तरह ही उसके पत्ते सूख कर झड़ने लगे थे। सिर्फ़ बची थी पतली-पतली टहनियाँ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ लगाने लगा। स्कूल के कमरे की खिड़की दरवाज़ों से मास्टरों और लड़कों की आँखें छिप-छिप कर तमाशा देख रही थी। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई में लगातार गिर रहा था।
मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुज़रे। मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ लगाता देख कर ठिठक गए। बाहर से ही आवाज़ देकर बोले, “मुंशीजी, यो क्या कर रहा है? वे प्यार से मुझे मुंशीजी कहा करते थे। उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा। वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए। मुझे रोता देखकर बोले, मुंशीजी रोते क्यों हो? ठीक से बोल क्या हुआ है?
मेरी हिचकियाँ बँध गई थीं। हिचक-हिचक कर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज़ झाड़ लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते।
पिताजी ने मेरे हाथ से झाड़ू छीन कर दूर फेंक दी। उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आई थी। हमेशा दूसरों के सामने कमान बने रहने वाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूँछें ग़ुस्से से फड़फड़ाने लगी थीं। चीख़ने लगे, “कौन सा मास्टर है वो, जो मेरे लड़के से झाड़ू लगवावे है...?”
पिताजी की आवाज़ पूरे स्कूल में गूँज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर सहित सभी मास्टर बाहर आ गए थे। कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया। लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ। उस रोज़ जिस साहस और हौसले से पिताजी ने हेडमास्टर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया।
...मेरी माँ मेहनत मज़दूरी के साथ-साथ आठ दस तगाओं (हिंदू-मुसलमान) के घर तथा घेर (मर्दों का बैठक खाना तथा मवेशियों को बाँधने की जगह) में साफ़-सफ़ाई का काम करती थी। इस काम में मेरी बहन, बड़ी भाभी तथा जसवीर और जनेसर (दो भाई) माँ का हाथ बटाते थे। बड़ा भाई सुखवीर तगाओं के यहाँ वार्षिक नौकर की तरह काम करता था। प्रत्येक तगा के घर में दस से पंद्रह मवेशी (गाय, भैंस और बैल) सामान्य बात थी। उनका गोबर उठाकर गाँव से बाहर कुरड़ियों पर या उपले बनाने की जगह पर डालना पड़ता था। प्रत्येक घेर से हर रोज़ पाँच-छह टोकरे गोबर निकलता था। सर्दी के महीनों में यह काम बहुत ही कष्टदायक होता था। गाय, बैल और भैंस को सर्दी से बचाने के लिए बड़े-बड़े दालानों में बाँधा जाता था जिनमें गन्ने की सूखी पाती या फूस बिछा होता था। रातभर जानवरों का गोबर और मूत्र उसी दालान में फैलता रहता था। दस-पंद्रह दिनों बाद एक बार पाती बदली जाती थी या उसके ऊपर सूखी पाती बिछा दी जाती थी। इतने दिनों में दालानों में भरी दुर्गंध से गोबर ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकालना बहुत तकलीफ़देह होता था। दुर्गंध से सिर भिन्ना जाता था।
इन सब कामों के बदले में मिलता था दो जानवर पीछे फ़सल के समय पाँच सेर अनाज। यानी लगभग ढाई किलो अनाज। दस मवेशी वाले घर से साल भर में 25 सेर (12-13 किलो) अनाज दुपहर के समय हर घर से बची खुची रोटी जो ख़ासतौर पर चूहड़ों को देने के लिए आटे में भूसी मिलाकर बनाई जाती थी। कभी-कभी जूठन भी भंगन की टोकरी में डाल दी जाती थी।
शादी-ब्याह के मौक़ों पर जब मेहमान या बाराती खाना खा रहे होते थे तो चूहड़े दरवाज़े के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठे रहते थे। बारात के खाना खा चुकने पर जूठी पत्तलें उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर ले जा कर वे जूठन इकट्ठा कर लेते थे। पूरी के बचे खुचे टुकड़े, एक-आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बाँछें खिल जाती थीं। जिस बारात की पत्तलों से जूठन कम-उतरती थी, कहा जाता था कि भुक्खड़ लोग आ गए हैं सारा चट कर गए हैं। अक्सर ऐसे मौक़ों पर बड़े-बूढ़े ऐसी बारातों का ज़िक्र बहुत रोमांचक लहज़े में सुनाया करते थे कि उस बारात से इतनी जूठन आई कि महीनों खाते रहे थे।
पत्तलों से जो पूरियों के टुकड़े एकत्र होते थे उन्हें धूप में सुखा लिया जाता था। चारपाई पर कोई कपड़ा डालकर उन्हें फैला दिया जाता था। अक्सर मुझे पहरे पर बैठाया जाता था क्योंकि सूखने वाली पूरियों पर कौए, मुर्ग़ियाँ, कुत्ते अक्सर टूट पड़ते थे। ज़रा सी आँख बची कि पूरियाँ साफ़, इसलिए डंडा लेकर चारपाई के पास बैठना पड़ता था। ये सूखी पूरियाँ बरसात के कठिन दिनों में बहुत काम आती थीं। उन्हें पानी में भिगोकर उबाल लिया जाता था। उबली हुई पूरियों पर बारीक़ मिर्च और नमक डालकर खाने में मज़ा आता था। कभी-कभी गुड़ डालकर लुगदी जैसा बनाया जाता था, जिसे सभी बड़े चाव से खाते थे। आज जब मैं इन सब बातों के बारे में सोचता हूँ तो मन के भीतर काँटे जैसे उगने लगते हैं। कैसा जीवन था!
दिन-रात मर खप कर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।
जब मैं छोटा था, माँ के साथ जाता था। माँ-पिताजी का हाथ बँटाने। तगाओं (त्यागियों) के खाने को देखकर अक्सर सोचा करता था कि हमें ऐसा खाना क्यों नहीं मिलता है? आज जब सोचता हूँ तो जी मितलाने लगता है।
अभी पिछले वर्ष मेरे निवास पर सुखदेव सिंह त्यागी का पोता सुरेंद्र सिंह आया था, किसी इंटरव्यू के सिलसिले में। गाँव से मेरा पता लेकर आया था। रात में रुका। मेरी पत्नी ने उसे यथासंभव अच्छा खाना खिलाया। खाना खाते-खाते वह बोला, “भाभी जी, आपके हाथ का खाना तो बहुत ज़ायक़ेदार है। हमारे घर में तो कोई भी ऐसा खाना नहीं बना सकता है।”
उसकी बात सुनकर मेरी पत्नी तो ख़ुश हुई लेकिन मैं काफ़ी देर तक विचलित रहा। बचपन की घटनाएँ स्मृति का दरवाज़ा खटखटाने लगीं।
सुरेंद्र तब पैदा भी नहीं हुआ था। उसकी बड़ी बुआ यानी सुखदेव सिंह त्यागी की लड़की की शादी थी। उनके यहाँ मेरी माँ सफ़ाई करती थी। शादी से दस-बारह दिन पहले से माँ-पिताजी ने सुखदेव सिंह त्यागी के घर-आँगन से लेकर बाहर तक के अनेक काम किए थे। बेटी की शादी का मतलब गाँवभर की इज़्ज़त का सवाल था। कहीं कोई कमी नहीं रह जाए। गाँवभर की चारपाइयों को ढो-ढोकर इकट्ठा किया था पिताजी ने।
बारात खाना खा रही थी। माँ टोकरा लिए दरवाज़े से बाहर बैठी थी। मैं और मेरी छोटी बहन माया माँ से सिमटे बैठे थे, इस उम्मीद में कि भीतर से जो मिठाई और पकवानों की महक़ आ रही है वह हमें भी खाने को मिलेंगे।
जब सब लोग खा-खाकर चले गए तो मेरी माँ ने सुखदेव सिंह त्यागी को दालान से बाहर आते देखकर कहा, “चौधरी जी, ईब तो सब खाणा खा के चले गए म्हारे जाकतों कू भी एक पत्तल पर धर कू कुछ दे दो! वो बी तो इस दिन का इंतज़ार कर रे ते।” सुखदेव सिंह ने जूठी पत्तलों से भरे टोकरे की तरफ़ इशारा करके कहा, “टोकरा भरके जो जूठन ले जा रही है... ऊपर से जाकतों के लिए खाणा माँग री है। अपणी औक़ात में रह चूहड़ी। उठा टोकरा दरवाज़े से और चलती बन।”...
...उन दिनों मैं नौवीं कक्षा में था। घर की आर्थिक हालत कमज़ोर थी। एक-एक पैसे के लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को खटना पड़ता था। मेरे पास पाठ्य पुस्तकें हमेशा कम रहती थीं। दोस्तों से माँग कर काम चलाना पड़ता था। कपड़ों की भी वही स्थिति थी। जो मिल गया वही पहन लिया। जो वक़्त पर मिला खा लिया, उन दिनों गाँव में मरने वाले पशुओं को उठाने का काम भी चूहड़ों के ज़िम्मे था। जिसके घर में जो काम करता था, उसके मरे हुए पशु भी उसी को उठाने पड़ते थे। इसके बदले कोई मेहनताना या मज़दूरी नहीं मिलती थी। एक गाय, बैल या भैंस को उठाने के लिए चार से छह लोगों की ज़रूरत होती थी। जिसका मवेशी मर जाता था उसे जल्दी लगी रहती थी। इसीलिए वह बार-बार बस्ती में आकर चिल्लाता था। देर होने पर गालियाँ बकता था। उठाने वालों को इकट्ठा करने में अक्सर देर हो ही जाती थी।
मरे हुए पशुओं को उठाना बड़ा कठिन काम होता है। उसके अगले-पिछले पैरों को रस्सी से बाँध कर बाँस की मोटी-मोटी बाहियों से उठाना पड़ता था। इतने श्रमसाध्य काम के बदले में मात्र गालियाँ...।
कितने क्रूर समाज में रहे हैं हम, जहाँ श्रम का कोई मोल ही नहीं बल्कि निर्धनता को बरक़रार रखने का एक षड्यंत्र ही था यह सब।
मरे हुए पशु की खाल मुज़फ़्फ़रनगर के चमड़ा बाज़ार में बिक जाती थी। उन दिनों एक पशु की खाल बीस से पच्चीस रुपए में बिकती थी। आने-जाने और मरे हुए पशु को उठाने की मज़दूरी देकर मुश्किल से एक खाल के बदले दस-पंद्रह रुपए हाथ में आते थे। तंगी के दिनों में दस-पंद्रह रुपए भी बहुत बड़ी रक़म दिखाई पड़ते थे। चमड़ा ख़रीदने वाला दुकानदार खाल में बहुत मीन-मेख निकालता था। कट-फट जाने पर खाल बेकार हो जाती थी। खाल को निकालते ही उस पर नमक लगाना पड़ता था, वरना दूसरे दिन ही खाल ख़राब हो जाती थी, जिसे दुकानदार ख़रीदने से मना कर देता था।
एक रोज़ ब्रह्मदेव तगा का बैल खेत से लौटते समय रास्ते में गिर पड़ा। उठ नहीं पाया, मर गया। कुछ ही देर बाद ब्रह्मदेव ने हमारे घर ख़बर कर दी थी। पिताजी और मुझसे बड़े भाई जनेसर उस रोज़ किसी रिश्तेदारी में गए थे। घर पर माँ, मेरी बहन माया, और सब से बड़ी भाभी देवी ही रहती थी। जसवीर उन दिनों देहरादून में था मामा के पास।
माँ परेशान हो गई थी। बैल की खाल उतारने किसे भेजे बस्ती में एक-दो लोग थे लेकिन कोई भी उस समय जाने को तैयार नहीं था। माँ ने चाचा से बात की। वे तैयार हो गए थे। लेकिन उनके साथ किसी को जाना चाहिए। अकेले वे खाल नहीं उतार पाएँगे।
मैं उस समय स्कूल में था। माँ ने थक-हार कर मुझे ही बुला लिया। माँ नहीं चाहती थी कि वह काम मुझे करना पड़े लेकिन खाल बेचकर जो दस-पंद्रह रुपए मिलने वाले थे, उन्हें छोड़ पाने की स्थिति में माँ नहीं थी। हार कर माँ ने मुझे चाचा के साथ भेज दिया। मेरे चाचा, सोल्हड़ महाकामचोर थे बस, सारा दिन ढोल ताशों में लगे रहते थे, मेहनत के काम से कतराते थे। माँ को फ़िक्र लगी थी कि कहीं हमारे पहुँचने से पहले ही बैल पर गिद्ध या जंगली जानवर न टूट पड़ें।
चाचा ने खाल उतारनी शुरू की। मैं उनकी मदद कर रहा था। चाचा का हाथ धीरे-धीरे चल रहा था। पिताजी जैसी कुशलता उनमें नहीं थी। थोड़ी देर बाद वे थक कर बीड़ी पीने बैठ गए। चाचा ने एक छुरी मेरे हाथ में पकड़ा दी। बोले, धीरे-धीरे खाल उतारो। अकेले से तो शाम तक नहीं उतरेगी।
छुरी पकड़ते ही मेरे हाथ काँप रहे थे। अजीब से संकट में फँस गया था। चाचा ने छुरी चलाने का ढंग सिखाया। उस रोज़ मेरे भीतर बहुत कुछ था जो टूट रहा था। चाचा की हिदायत पर मैंने बैल की खाल उतारी थी। मैं जैसे स्वयं ही गहरे दलदल में फँस रहा था। जहाँ से मैं उबरना चाहता था। हालात मुझे उसी दलदल में घसीट रहे थे। चाचा के साथ तपती दुपहरी में जिस यातना को मैंने भोगा था आज भी उसके ज़ख़्म मेरे तन पर ताज़ा हैं।
जैसे-जैसे खाल उतर रही थी मेरे भीतर का रक्त जम रहा था। खाल उतारने में हमें कई घंटे लग गए थे चाचा ने खाल को ज़मीन पर फैला दिया। उस पर लगे ख़ून को सूखी ज़मीन ने सोख लिया था।
चाचा ने खाल को चादर में बाँध दिया था। गठरी उठाकर सर पर रख ली थी। लगभग दो मील की दूरी पर हमारा घर था। बोझ के कारण चाचा को तेज़ चलना पड़ रहा था। मैं हाथ में छुरी पकड़ उनके पीछे-पीछे लगभग दौड़ता जाता था। बसेड़ा जाने वाली पक्की सड़क से हम लोग बस अड्डे के पास पहुँच गए थे। गठरी सिर से उतार कर चाचा ने ज़मीन पर रख दी थी। “यहाँ से आगे तुम ले जाओ, मैं थक गया हूँ।”
उस रोज़ मैंने चाचा से बहुत कहा लेकिन वे नहीं माने। “चाचा बस अड्डे की भीड़ पार करा दो, मेरे स्कूल की छुट्टी का समय है। मेरे स्कूल के सभी साथी यह ले जाते हुए देखेंगे तो वे स्कूल में मुझे तंग करेंगे। मैंने गिड़गिड़ा कर रुआँसी आवाज़ में चाचा से कहा था। किंतु वे नहीं पसीजे। गठरी उठाकर मेरे सिर पर रख दी। गठरी का वज़न मेरे वज़न से ज़्यादा था। मज़बूरन उठाकर चलना पड़ा। बस अड्डे की परिचित भीड़ से मैं उस रोज़ जिस तरह से निकला, मेरा ही मन जानता है। एक भय लगातार मेरा पीछा कर रहा था कोई देख न ले। कोई सहपाठी न मिल जाए। अगर कोई पूछ बैठेगा तो क्या बताऊँगा?
घर तक पहुँचते-पहुँचते मेरी टाँगें जवाब दे गई थीं। लग रहा था कि अब गिरा। गाँव के किनारे-किनारे चलकर, लंबा चक्कर काटा था, बस्ती तक पहुँचने के लिए।
मुझे उस हालत में देखकर माँ रो पड़ी थी। मैं सिर से लेकर पाँव तक गंदगी से भरा हुआ था। कपड़ों पर ख़ून के धब्बे साफ़ दिखाई दे रहे थे। बड़ी भाभी ने उस रोज़ माँ से कहा था, “इनसे ये न कराओ...भूखे रह लेंगे... इन्हें इस गंदगी में ना घसीटो!” भाभी के ये शब्द आज भी मेरे लिए अँधेरे में रोशनी बन कर चमकते हैं। मैं उस गंदगी से बाहर निकल आया हूँ लेकिन लाखों लोग आज भी उस घिनौनी ज़िंदगी को जी रहे हैं।
. . . ek roj heDmastar kaliram ne apne kamre mein bulakar puchha,“kya naam hai be tera?”
“omaprkash”, mainne Darte Darte dhime svar mein apna naam bataya. heDmastar ko dekhte hi bachche saham jate the. pure skool mein unki dahshat thi.
“chuhDe ka hai?” heDmastar ka dusra saval uchhla.
“ji. ”
“theek hai. . . wo jo samne shisham ka peD khaDa hai, us par chaDh ja aur tahniyan toD ke jhaaD bana le, patton vali jhaaD banana. aur pure skool ku aisa chamka de jaisa sisa. tera to yo khandani kaam hai. ja phataphat lag ja kaam pe.
heDmastar ke adesh par mainne kamre, baramde saaf kar diye, tabhi ve khud chalkar aaye aur bole, iske baad maidan bhi saaf kar de. ”
lamba chauDa maidan mere vajud se kai guna baDa tha. jise saaf karne se meri kamar dard karne lagi thi. dhool se chehra, sir at gaya tha. munh ke bhitar dhool ghus gai thi. meri kaksha mein baqi bachche paDh rahe the aur main jhaaD laga raha tha. heDmastar apne kamre mein baithe the lekin nigah mujh par tiki hui thi. pani pine tak ki ijazat nahin thi. pura din main jhaaD lagata raha. tamam anubhvon ke beech kabhi itna kaam nahin kiya tha. vaise bhi ghar mein bhaiyon ka main laDla tha.
dusre din skool pahuncha. jate hi heDmastar ne phir jhaaD ke kaam par laga diya. pure din jhaaD hi deta raha. man mein ek tasalli thi ki kal se kaksha mein baith jaunga.
tisre din main kaksha mein chupchap jakar baith gaya. thoDi der baad unki dahaD sunai di. unki dahaD sunkar main thar thar kanpne laga tha. ek tyagi laDke ne chillakar kaha, massab wo baitha hai kone mein.
heDmastar ne lapakkar meri gardan daboch li. unki ungliyon ka dabav meri gardan par baDh raha tha. jaise koi bheDiya bakri ke bachche ko daboch kar utha leta hai. kaksha se bahar kheench kar usne mujhe baramde mein la patka. cheekh kar bole, “ja laga pure maidan mein jhaDu. . . ”
bhaybhit hokar mainne teen din purani vahi shisham ki jhaaD utha li. meri tarah hi uske patte sookh kar jhaDne lage the. sirf bachi thi patli patli tahniyan. meri ankhon se ansu bahne lage the. rote rote maidan mein jhaaD lagane laga. skool ke kamre ki khiDki darvazon se mastron aur laDkon ki ankhen chhip chhip kar tamasha dekh rahi thi. mera rom rom yatana ki gahri khai mein lagatar gir raha tha.
mere pitaji achanak skool ke paas se guzre. mujhe skool ke maidan mein jhaaD lagata dekh kar thithak ge. bahar se hi avaz dekar bole, “munshiji, yo kya kar raha hai? ve pyaar se mujhe munshiji kaha karte the. unhen dekhkar main phaphak paDa. ve skool ke maidan mein mere paas aa ge. mujhe rota dekhkar bole, munshiji rote kyon ho? theek se bol kya hua hai?
meri hichkiyan bandh gai theen. hichak hichak kar puri baat pitaji ko bata di ki teen din se roz jhaaD lagva rahe hain. kaksha mein paDhne bhi nahin dete.
pitaji ne mere haath se jhaDu chheen kar door phenk di. unki ankhon mein aag ki garmi utar aai thi. hamesha dusron ke samne kaman bane rahne vale pitaji ki lambi lambi ghani munchhen ghusse se phaDphaDane lagi theen. chikhne lage, “kaun sa mastar hai wo,jo mere laDke se jhaDu lagvave hai. . . ?”
pitaji ki avaz pure skool mein goonj gai thi, jise sunkar heDmastar sahit sabhi mastar bahar aa ge the. kaliram heDmastar ne gali dekar mere pitaji ko dhamkaya. lekin pitaji par dhamki ka koi asar nahin hua. us roz jis sahas aur hausale se pitaji ne heDmastar ka samna kiya, main use kabhi bhool nahin paya.
. . . meri maan mehnat mazduri ke saath saath aath das tagaon (hindu musalman) ke ghar tatha gher (mardon ka baithak khana tatha maveshiyon ko bandhne ki jagah) mein saaf safai ka kaam karti thi. is kaam mein meri bahan, baDi bhabhi tatha jasvir aur janesar (do bhai) maan ka haath batate the. baDa bhai sukhvir tagaon ke yahan varshik naukar ki tarah kaam karta tha.
pratyek taga ke ghar mein das se pandrah maveshi (gaay, bhains aur bail) samanya baat thi. unka gobar uthakar gaanv se bahar kuraDiyon par ya uple banane ki jagah par Dalna paDta tha. pratyek gher se har roz paanch chhah tokre gobar nikalta tha. sardi ke mahinon mein ye kaam bahut hi kashtdayak hota tha. gaay, bail aur bhains ko sardi se bachane ke liye baDe baDe dalanon mein bandha jata tha jinmen ganne ki sukhi pati ya phoos bichha hota tha. ratbhar janavron ka gobar aur mootr usi dalan mein phailta rahta tha. das pandrah dinon baad ek baar pati badli jati thi ya uske uupar sukhi pati bichha di jati thi. itne dinon mein dalanon mein bhari durgandh se gobar DhoonDh DhoonDh kar nikalna bahut taklifdeh hota tha. durgandh se sir bhinna jata tha.
in sab kamon ke badle mein milta tha do janvar pichhe fasal ke samay paanch ser anaj. yani lagbhag Dhai kilo anaj. das maveshi vale ghar se saal bhar mein 25 ser (12 13 kilo) anaj duphar ke samay har ghar se bachi khuchi roti jo khastaur par chuhDon ko dene ke liye aate mein bhusi milakar banai jati thi. kabhi kabhi juthan bhi bhangan ki tokari mein Daal di jati thi.
shadi byaah ke maukon par jab mehman ya barati khana kha rahe hote the to chuhDe darvaze ke bahar baDe baDe tokre lekar baithe rahte the. barat ke khana kha chukne par juthi pattlen un tokron mein Daal di jati theen, jinhen ghar le ja kar ve juthan ikattha kar lete the. puri ke bache khuche tukDe, ek aadh mithai ka tukDa ya thoDi bahut sabji pattal par pakar banchhen khil jati theen. jis barat ki pattlon se juthan kam utarti thi, kaha jata tha ki bhukkhaD log aa ge hain sara chat kar ge hain. aksar aise mauqon par baDe buDhe aisi baraton ka zikr bahut romanchak lahze mein sunaya karte the ki us barat se itni juthan aai ki mahinon khate rahe the.
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din raat mar khap kar bhi hamare pasine ki kimat maatr juthan, phir bhi kisi ko koi shikayat nahin. koi sharmindgi nahin, koi pashchatap nahin.
jab main chhota tha, maan ke saath jata tha. maan pitaji ka haath bantane. tagao (tyagiyon) ke khane ko dekhkar aksar socha karta tha ki hamein aisa khana kyon nahin milta hai? aaj jab sochta hoon to ji mitlane lagta hai.
abhi pichhle varsh mere nivas par sukhdev sinh tyagi ka pota surendr sinh aaya tha, kisi intravyu ke silsile mein. gaanv se mera pata lekar aaya tha. raat mein ruka.
meri patni ne use yathasambhav achchha khana khilaya. khana khate khate wo bola, “bhabhi ji, aapke haath ka khana to bahut zayakedar hai. hamare ghar mein to koi bhi aisa khana nahin bana sakta hai. ”
uski baat sunkar meri patni to khush hui lekin main kafi der tak vichlit raha. bachpan ki ghatnayen smriti ka darvaza khatkhatane lagin.
surendr tab paida bhi nahin hua tha. uski baDi bua yani sukhdev sinh tyagi ki laDki ki shadi thi. unke yahan meri maan safai karti thi. shadi se das barah din pahle se maan pitaji ne sukhdev sinh tyagi ke ghar angan se lekar bahar tak ke anek kaam kiye the. beti ki shadi ka matlab ganvabhar ki izzat ka saval tha. kahin koi kami nahin rah jaye. ganvabhar ki charpaiyon ko Dho Dhokar ikattha kiya tha pitaji ne.
barat khana kha rahi thi. maan tokra liye darvaze se bahar baithi thi. main aur meri chhoti bahan maya maan se simte baithe the, is ummid mein ki bhitar se jo mithai aur pakvanon ki mahq aa rahi hai wo hamein bhi khane ko milenge.
jab sab log kha khakar chale ge to meri maan ne sukhdev sinh tyagi ko dalan se bahar aate dekhkar kaha, “chaudhari ji, iib to sab khana kha ke chale ge mhare jakton ku bhi ek pattal par dhar ku kuch de do! wo bi to is din ka intzaar kar re te. ” sukhdev sinh ne juthi pattlon se bhare tokre ki taraf ishara karke kaha, “tokra bharke jo juthan le ja rahi hai. . . uupar se jakton ke liye khana maang ri hai. apni auqat mein rah chuhDi. utha tokra darvaze se aur chalti ban. ”. . .
. . . un dinon main nauvin kaksha mein tha. ghar ki arthik haalat kamzor thi. ek ek paise ke liye parivar ke pratyek sadasya ko khatna paDta tha. mere paas pathya pustken hamesha kam rahti theen. doston se maang kar kaam chalana paDta tha. kapDon ki bhi vahi sthiti thi. jo mil gaya vahi pahan liya. jo vakt par mila kha liya, un dinon gaanv mein marne vale pashuon ko uthane ka kaam bhi chuhDon ke zimme tha. jiske ghar mein jo kaam karta tha, uske mare hue pashu bhi usi ko uthane paDte the. iske badle koi mehnatana ya mazduri nahin milti thi. ek gaay, bail ya bhains ko uthane ke liye chaar se chhah logon ki zarurat hoti thi. jiska maveshi mar jata tha use jaldi lagi rahti thi. isiliye wo baar baar basti mein aakar chillata tha. der hone par galiyan bakta tha. uthane valon ko ikattha karne mein aksar der ho hi jati thi.
mare hue pashuon ko uthana baDa kathin kaam hota hai. uske agle pichhle pairon ko rassi se baandh kar baans ki moti moti bahiyon se uthana paDta tha. itne shramsadhya kaam ke badle mein maatr galiyan. . . .
kitne kroor samaj mein rahe hain hum, jahan shram ka koi mol hi nahin balki nirdhanta ko barakrar rakhne ka ek shaDyantr hi tha ye sab.
mare hue pashu ki khaal muzaffarangar ke chamDa bazar mein bik jati thi. un dinon ek pashu ki khaal bees se pachchis rupe mein bikti thi. aane jane aur mare hue pashu ko uthane ki mazduri dekar mushkil se ek khaal ke badle das pandrah rupe haath mein aate the. tangi ke dinon mein das pandrah rupe bhi bahut baDi raqam dikhai paDte the.
chamDa kharidne vala dukandar khaal mein bahut meen mekh nikalta tha. kat phat jane par khaal bekar ho jati thi. khaal ko nikalte hi us par namak lagana paDta tha, varna dusre din hi khaal kharab ho jati thi, jise dukandar kharidne se mana kar deta tha.
ek roj brahmdev taga ka bail khet se lautte samay raste mein gir paDa. uth nahin paya, mar gaya. kuch hi der baad brahmdev ne hamare ghar khabar kar di thi. pitaji aur mujhse baDe bhai janesar us roj kisi rishtedari mein ge the. ghar par maan, meri bahan maya, aur sab se baDi bhabhi devi hi rahti thi. jasvir un dinon dehradun mein tha mama ke paas.
maan pareshan ho gai thi. bail ki khaal utarne kise bheje basti mein ek do log the lekin koi bhi us samay jane ko taiyar nahin tha. maan ne chacha se baat ki. ve taiyar ho ge the. lekin unke saath kisi ko jana chahiye. akele ve khaal nahin utaar payenge.
main us samay skool mein tha. maan ne thak haar kar mujhe hi bula liya. maan nahin chahti thi ki wo kaam mujhe karna paDe lekin khaal bechkar jo das pandrah rupe milne vale the, unhen chhoD pane ki sthiti mein maan nahin thi. haar kar maan ne mujhe chacha ke saath bhej diya. mere chacha, solhaD mahakamchor the bas, sara din Dhol tashon mein lage rahte the, mehnat ke kaam se katrate the,
maan ko fikr lagi thi ki kahin hamare pahunchne se pahle hi bail par giddh ya jangli janvar na toot paDen.
chacha ne khaal utarni shuru ki. main unki madad kar raha tha. chacha ka haath dhire dhire chal raha tha. pitaji jaisi kushalta unmen nahin thi. thoDi der baad ve thak kar biDi pine baith ge.
chacha ne ek chhuri mere haath mein pakDa di. bole, dhire dhire khaal utaro. akele se to shaam tak nahin utregi.
chhuri pakaDte hi mere haath kaanp rahe the. ajib se sankat mein phans gaya tha. chacha ne chhuri chalane ka Dhang sikhaya. us roz mere bhitar bahut kuch tha jo toot raha tha. chacha ki hidayat par mainne bail ki khaal utari thi. main jaise svayan hi gahre daldal mein phans raha tha. jahan se main ubarna chahta tha. halat mujhe usi daldal mein ghasit rahe the. chacha ke saath tapti dupahri mein jis yatana ko mainne bhoga tha aaj bhi uske zakhm mere tan par taja hain.
jaise jaise khaal utar rahi thi mere bhitar ka rakt jam raha tha. khaal utarne mein hamein kai ghante lag ge the chacha ne khaal ko zamin par phaila diya. us par lage khoon ko sukhi zamin ne sokh liya tha.
chacha ne khaal ko chadar mein baandh diya tha. gathri uthakar sar par rakh li thi. lagbhag do meel ki duri par hamara ghar tha. bojh ke karan chacha ko tej chalna paD raha tha. main haath mein chhuri pakaD unke pichhe pichhe lagbhag dauDta jata tha. baseDa jane vali pakki saDak se hum log bas aDDe ke paas pahunch ge the. gathri sir se utaar kar chacha ne zamin par rakh di thi. “yahan se aage tum le jao, main thak gaya hoon. ”
us roj mainne chacha se bahut kaha lekin ve nahin mane. “chacha bas aDDe ki bheeD paar kara do, mere skool ki chhutti ka samay hai. mere skool ke sabhi sathi ye le jate hue dekhenge to ve skool mein mujhe tang karenge. mainne giDgiDa kar ruansi avaz mein chacha se kaha tha. kintu ve nahin pasije. gathri uthakar mere sir par rakh di. gathri ka vazan mere vazan se zyada tha. mazburan uthakar chalna paDa. bas aDDe ki parichit bheeD se main us roj jis tarah se nikla, mera hi man janta hai. ek bhay lagatar mera pichha kar raha tha koi dekh ne le. koi sahpathi na mil jaye. agar koi poochh baithega to kya bataunga?
ghar tak pahunchte pahunchte meri tangen javab de gai theen. lag raha tha ki ab gira. gaanv ke kinare kinare chalkar, lamba chakkar kata tha, basti tak pahunchne ke liye.
mujhe us haalat mein dekhkar maan ro paDi thi. main sir se lekar paanv tak gandgi se bhara hua tha. kapDon par khoon ke dhabbe saaph dikhai de rahe the. baDi bhabhi ne us roj maan se kaha tha, “inse ye na karao. . . bhukhe rah lenge. . . inhen is gandgi mein na ghasito!” bhabhi ke ye shabd aaj bhi mere liye andhere mein roshni ban kar chamakte hain. main us gandgi se bahar nikal aaya hoon lekin lakhon log aaj bhi us ghinauni zindagi ko ji rahe hain.
. . . ek roj heDmastar kaliram ne apne kamre mein bulakar puchha,“kya naam hai be tera?”
“omaprkash”, mainne Darte Darte dhime svar mein apna naam bataya. heDmastar ko dekhte hi bachche saham jate the. pure skool mein unki dahshat thi.
“chuhDe ka hai?” heDmastar ka dusra saval uchhla.
“ji. ”
“theek hai. . . wo jo samne shisham ka peD khaDa hai, us par chaDh ja aur tahniyan toD ke jhaaD bana le, patton vali jhaaD banana. aur pure skool ku aisa chamka de jaisa sisa. tera to yo khandani kaam hai. ja phataphat lag ja kaam pe.
heDmastar ke adesh par mainne kamre, baramde saaf kar diye, tabhi ve khud chalkar aaye aur bole, iske baad maidan bhi saaf kar de. ”
lamba chauDa maidan mere vajud se kai guna baDa tha. jise saaf karne se meri kamar dard karne lagi thi. dhool se chehra, sir at gaya tha. munh ke bhitar dhool ghus gai thi. meri kaksha mein baqi bachche paDh rahe the aur main jhaaD laga raha tha. heDmastar apne kamre mein baithe the lekin nigah mujh par tiki hui thi. pani pine tak ki ijazat nahin thi. pura din main jhaaD lagata raha. tamam anubhvon ke beech kabhi itna kaam nahin kiya tha. vaise bhi ghar mein bhaiyon ka main laDla tha.
dusre din skool pahuncha. jate hi heDmastar ne phir jhaaD ke kaam par laga diya. pure din jhaaD hi deta raha. man mein ek tasalli thi ki kal se kaksha mein baith jaunga.
tisre din main kaksha mein chupchap jakar baith gaya. thoDi der baad unki dahaD sunai di. unki dahaD sunkar main thar thar kanpne laga tha. ek tyagi laDke ne chillakar kaha, massab wo baitha hai kone mein.
heDmastar ne lapakkar meri gardan daboch li. unki ungliyon ka dabav meri gardan par baDh raha tha. jaise koi bheDiya bakri ke bachche ko daboch kar utha leta hai. kaksha se bahar kheench kar usne mujhe baramde mein la patka. cheekh kar bole, “ja laga pure maidan mein jhaDu. . . ”
bhaybhit hokar mainne teen din purani vahi shisham ki jhaaD utha li. meri tarah hi uske patte sookh kar jhaDne lage the. sirf bachi thi patli patli tahniyan. meri ankhon se ansu bahne lage the. rote rote maidan mein jhaaD lagane laga. skool ke kamre ki khiDki darvazon se mastron aur laDkon ki ankhen chhip chhip kar tamasha dekh rahi thi. mera rom rom yatana ki gahri khai mein lagatar gir raha tha.
mere pitaji achanak skool ke paas se guzre. mujhe skool ke maidan mein jhaaD lagata dekh kar thithak ge. bahar se hi avaz dekar bole, “munshiji, yo kya kar raha hai? ve pyaar se mujhe munshiji kaha karte the. unhen dekhkar main phaphak paDa. ve skool ke maidan mein mere paas aa ge. mujhe rota dekhkar bole, munshiji rote kyon ho? theek se bol kya hua hai?
meri hichkiyan bandh gai theen. hichak hichak kar puri baat pitaji ko bata di ki teen din se roz jhaaD lagva rahe hain. kaksha mein paDhne bhi nahin dete.
pitaji ne mere haath se jhaDu chheen kar door phenk di. unki ankhon mein aag ki garmi utar aai thi. hamesha dusron ke samne kaman bane rahne vale pitaji ki lambi lambi ghani munchhen ghusse se phaDphaDane lagi theen. chikhne lage, “kaun sa mastar hai wo,jo mere laDke se jhaDu lagvave hai. . . ?”
pitaji ki avaz pure skool mein goonj gai thi, jise sunkar heDmastar sahit sabhi mastar bahar aa ge the. kaliram heDmastar ne gali dekar mere pitaji ko dhamkaya. lekin pitaji par dhamki ka koi asar nahin hua. us roz jis sahas aur hausale se pitaji ne heDmastar ka samna kiya, main use kabhi bhool nahin paya.
. . . meri maan mehnat mazduri ke saath saath aath das tagaon (hindu musalman) ke ghar tatha gher (mardon ka baithak khana tatha maveshiyon ko bandhne ki jagah) mein saaf safai ka kaam karti thi. is kaam mein meri bahan, baDi bhabhi tatha jasvir aur janesar (do bhai) maan ka haath batate the. baDa bhai sukhvir tagaon ke yahan varshik naukar ki tarah kaam karta tha.
pratyek taga ke ghar mein das se pandrah maveshi (gaay, bhains aur bail) samanya baat thi. unka gobar uthakar gaanv se bahar kuraDiyon par ya uple banane ki jagah par Dalna paDta tha. pratyek gher se har roz paanch chhah tokre gobar nikalta tha. sardi ke mahinon mein ye kaam bahut hi kashtdayak hota tha. gaay, bail aur bhains ko sardi se bachane ke liye baDe baDe dalanon mein bandha jata tha jinmen ganne ki sukhi pati ya phoos bichha hota tha. ratbhar janavron ka gobar aur mootr usi dalan mein phailta rahta tha. das pandrah dinon baad ek baar pati badli jati thi ya uske uupar sukhi pati bichha di jati thi. itne dinon mein dalanon mein bhari durgandh se gobar DhoonDh DhoonDh kar nikalna bahut taklifdeh hota tha. durgandh se sir bhinna jata tha.
in sab kamon ke badle mein milta tha do janvar pichhe fasal ke samay paanch ser anaj. yani lagbhag Dhai kilo anaj. das maveshi vale ghar se saal bhar mein 25 ser (12 13 kilo) anaj duphar ke samay har ghar se bachi khuchi roti jo khastaur par chuhDon ko dene ke liye aate mein bhusi milakar banai jati thi. kabhi kabhi juthan bhi bhangan ki tokari mein Daal di jati thi.
shadi byaah ke maukon par jab mehman ya barati khana kha rahe hote the to chuhDe darvaze ke bahar baDe baDe tokre lekar baithe rahte the. barat ke khana kha chukne par juthi pattlen un tokron mein Daal di jati theen, jinhen ghar le ja kar ve juthan ikattha kar lete the. puri ke bache khuche tukDe, ek aadh mithai ka tukDa ya thoDi bahut sabji pattal par pakar banchhen khil jati theen. jis barat ki pattlon se juthan kam utarti thi, kaha jata tha ki bhukkhaD log aa ge hain sara chat kar ge hain. aksar aise mauqon par baDe buDhe aisi baraton ka zikr bahut romanchak lahze mein sunaya karte the ki us barat se itni juthan aai ki mahinon khate rahe the.
pattlon se jo puriyon ke tukDe ekatr hote the unhen dhoop mein sukha liya jata tha. charpai par koi kapDa Dalkar unhen phaila diya jata tha. aksar mujhe pahre par baithaya jata tha kyonki sukhne vali puriyon par kaue,murghiyan, kutte aksar toot paDte the. jara si ankh bachi ki puriyan saaf, isliye DanDa lekar charpai ke paas baithna paDta tha.
ye sukhi puriyan barsat ke kathin dinon mein bahut kaam aati theen. unhen pani mein bhigokar ubaal liya jata tha. ubli hui puriyon par bariq mirch aur namak Dalkar khane mein maza aata tha. kabhi kabhi guD Dalkar lugdi jaisa banaya jata tha, jise sabhi baDe chaav se khate the. aaj jab main in sab baton ke bare mein sochta hoon to man ke bhitar kante jaise ugne lagte hain. kaisa jivan tha.
din raat mar khap kar bhi hamare pasine ki kimat maatr juthan, phir bhi kisi ko koi shikayat nahin. koi sharmindgi nahin, koi pashchatap nahin.
jab main chhota tha, maan ke saath jata tha. maan pitaji ka haath bantane. tagao (tyagiyon) ke khane ko dekhkar aksar socha karta tha ki hamein aisa khana kyon nahin milta hai? aaj jab sochta hoon to ji mitlane lagta hai.
abhi pichhle varsh mere nivas par sukhdev sinh tyagi ka pota surendr sinh aaya tha, kisi intravyu ke silsile mein. gaanv se mera pata lekar aaya tha. raat mein ruka.
meri patni ne use yathasambhav achchha khana khilaya. khana khate khate wo bola, “bhabhi ji, aapke haath ka khana to bahut zayakedar hai. hamare ghar mein to koi bhi aisa khana nahin bana sakta hai. ”
uski baat sunkar meri patni to khush hui lekin main kafi der tak vichlit raha. bachpan ki ghatnayen smriti ka darvaza khatkhatane lagin.
surendr tab paida bhi nahin hua tha. uski baDi bua yani sukhdev sinh tyagi ki laDki ki shadi thi. unke yahan meri maan safai karti thi. shadi se das barah din pahle se maan pitaji ne sukhdev sinh tyagi ke ghar angan se lekar bahar tak ke anek kaam kiye the. beti ki shadi ka matlab ganvabhar ki izzat ka saval tha. kahin koi kami nahin rah jaye. ganvabhar ki charpaiyon ko Dho Dhokar ikattha kiya tha pitaji ne.
barat khana kha rahi thi. maan tokra liye darvaze se bahar baithi thi. main aur meri chhoti bahan maya maan se simte baithe the, is ummid mein ki bhitar se jo mithai aur pakvanon ki mahq aa rahi hai wo hamein bhi khane ko milenge.
jab sab log kha khakar chale ge to meri maan ne sukhdev sinh tyagi ko dalan se bahar aate dekhkar kaha, “chaudhari ji, iib to sab khana kha ke chale ge mhare jakton ku bhi ek pattal par dhar ku kuch de do! wo bi to is din ka intzaar kar re te. ” sukhdev sinh ne juthi pattlon se bhare tokre ki taraf ishara karke kaha, “tokra bharke jo juthan le ja rahi hai. . . uupar se jakton ke liye khana maang ri hai. apni auqat mein rah chuhDi. utha tokra darvaze se aur chalti ban. ”. . .
. . . un dinon main nauvin kaksha mein tha. ghar ki arthik haalat kamzor thi. ek ek paise ke liye parivar ke pratyek sadasya ko khatna paDta tha. mere paas pathya pustken hamesha kam rahti theen. doston se maang kar kaam chalana paDta tha. kapDon ki bhi vahi sthiti thi. jo mil gaya vahi pahan liya. jo vakt par mila kha liya, un dinon gaanv mein marne vale pashuon ko uthane ka kaam bhi chuhDon ke zimme tha. jiske ghar mein jo kaam karta tha, uske mare hue pashu bhi usi ko uthane paDte the. iske badle koi mehnatana ya mazduri nahin milti thi. ek gaay, bail ya bhains ko uthane ke liye chaar se chhah logon ki zarurat hoti thi. jiska maveshi mar jata tha use jaldi lagi rahti thi. isiliye wo baar baar basti mein aakar chillata tha. der hone par galiyan bakta tha. uthane valon ko ikattha karne mein aksar der ho hi jati thi.
mare hue pashuon ko uthana baDa kathin kaam hota hai. uske agle pichhle pairon ko rassi se baandh kar baans ki moti moti bahiyon se uthana paDta tha. itne shramsadhya kaam ke badle mein maatr galiyan. . . .
kitne kroor samaj mein rahe hain hum, jahan shram ka koi mol hi nahin balki nirdhanta ko barakrar rakhne ka ek shaDyantr hi tha ye sab.
mare hue pashu ki khaal muzaffarangar ke chamDa bazar mein bik jati thi. un dinon ek pashu ki khaal bees se pachchis rupe mein bikti thi. aane jane aur mare hue pashu ko uthane ki mazduri dekar mushkil se ek khaal ke badle das pandrah rupe haath mein aate the. tangi ke dinon mein das pandrah rupe bhi bahut baDi raqam dikhai paDte the.
chamDa kharidne vala dukandar khaal mein bahut meen mekh nikalta tha. kat phat jane par khaal bekar ho jati thi. khaal ko nikalte hi us par namak lagana paDta tha, varna dusre din hi khaal kharab ho jati thi, jise dukandar kharidne se mana kar deta tha.
ek roj brahmdev taga ka bail khet se lautte samay raste mein gir paDa. uth nahin paya, mar gaya. kuch hi der baad brahmdev ne hamare ghar khabar kar di thi. pitaji aur mujhse baDe bhai janesar us roj kisi rishtedari mein ge the. ghar par maan, meri bahan maya, aur sab se baDi bhabhi devi hi rahti thi. jasvir un dinon dehradun mein tha mama ke paas.
maan pareshan ho gai thi. bail ki khaal utarne kise bheje basti mein ek do log the lekin koi bhi us samay jane ko taiyar nahin tha. maan ne chacha se baat ki. ve taiyar ho ge the. lekin unke saath kisi ko jana chahiye. akele ve khaal nahin utaar payenge.
main us samay skool mein tha. maan ne thak haar kar mujhe hi bula liya. maan nahin chahti thi ki wo kaam mujhe karna paDe lekin khaal bechkar jo das pandrah rupe milne vale the, unhen chhoD pane ki sthiti mein maan nahin thi. haar kar maan ne mujhe chacha ke saath bhej diya. mere chacha, solhaD mahakamchor the bas, sara din Dhol tashon mein lage rahte the, mehnat ke kaam se katrate the,
maan ko fikr lagi thi ki kahin hamare pahunchne se pahle hi bail par giddh ya jangli janvar na toot paDen.
chacha ne khaal utarni shuru ki. main unki madad kar raha tha. chacha ka haath dhire dhire chal raha tha. pitaji jaisi kushalta unmen nahin thi. thoDi der baad ve thak kar biDi pine baith ge.
chacha ne ek chhuri mere haath mein pakDa di. bole, dhire dhire khaal utaro. akele se to shaam tak nahin utregi.
chhuri pakaDte hi mere haath kaanp rahe the. ajib se sankat mein phans gaya tha. chacha ne chhuri chalane ka Dhang sikhaya. us roz mere bhitar bahut kuch tha jo toot raha tha. chacha ki hidayat par mainne bail ki khaal utari thi. main jaise svayan hi gahre daldal mein phans raha tha. jahan se main ubarna chahta tha. halat mujhe usi daldal mein ghasit rahe the. chacha ke saath tapti dupahri mein jis yatana ko mainne bhoga tha aaj bhi uske zakhm mere tan par taja hain.
jaise jaise khaal utar rahi thi mere bhitar ka rakt jam raha tha. khaal utarne mein hamein kai ghante lag ge the chacha ne khaal ko zamin par phaila diya. us par lage khoon ko sukhi zamin ne sokh liya tha.
chacha ne khaal ko chadar mein baandh diya tha. gathri uthakar sar par rakh li thi. lagbhag do meel ki duri par hamara ghar tha. bojh ke karan chacha ko tej chalna paD raha tha. main haath mein chhuri pakaD unke pichhe pichhe lagbhag dauDta jata tha. baseDa jane vali pakki saDak se hum log bas aDDe ke paas pahunch ge the. gathri sir se utaar kar chacha ne zamin par rakh di thi. “yahan se aage tum le jao, main thak gaya hoon. ”
us roj mainne chacha se bahut kaha lekin ve nahin mane. “chacha bas aDDe ki bheeD paar kara do, mere skool ki chhutti ka samay hai. mere skool ke sabhi sathi ye le jate hue dekhenge to ve skool mein mujhe tang karenge. mainne giDgiDa kar ruansi avaz mein chacha se kaha tha. kintu ve nahin pasije. gathri uthakar mere sir par rakh di. gathri ka vazan mere vazan se zyada tha. mazburan uthakar chalna paDa. bas aDDe ki parichit bheeD se main us roj jis tarah se nikla, mera hi man janta hai. ek bhay lagatar mera pichha kar raha tha koi dekh ne le. koi sahpathi na mil jaye. agar koi poochh baithega to kya bataunga?
ghar tak pahunchte pahunchte meri tangen javab de gai theen. lag raha tha ki ab gira. gaanv ke kinare kinare chalkar, lamba chakkar kata tha, basti tak pahunchne ke liye.
mujhe us haalat mein dekhkar maan ro paDi thi. main sir se lekar paanv tak gandgi se bhara hua tha. kapDon par khoon ke dhabbe saaph dikhai de rahe the. baDi bhabhi ne us roj maan se kaha tha, “inse ye na karao. . . bhukhe rah lenge. . . inhen is gandgi mein na ghasito!” bhabhi ke ye shabd aaj bhi mere liye andhere mein roshni ban kar chamakte hain. main us gandgi se bahar nikal aaya hoon lekin lakhon log aaj bhi us ghinauni zindagi ko ji rahe hain.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।