संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी आदत हर किसी से उसके विषय में कुरेद-कुरेदकर सब तरह की बातें पूछने की होती है। ऐसे अवसरों पर कभी-कभी मैं ऐसे लोगों को निर्लिप्त भाव से उसी ढंग के उत्तर बिना सोचे-समझे देने लगता हूँ, जिस ढंग के उत्तरों से मैं समझता हूँ कि उनकी मनस्तुष्टि हो जाएगी। ऐसा करने से मेरी कुछ हानि नहीं होती है और उनका समय—यदि रेल आदि में यात्रा कर रहे हों तो—कट जाता है। अपने आदर्शों अथवा विचारों को पात्र-कुपात्र सबके सामने अवसर-कुअवसर का ध्यान न रखकर—प्रकट करके बहस छेड़ बैठना मुझे अच्छा नहीं लगता, इसीलिए जब तक हृदय को चोट पहुँचाने वाली कोई बात न हो, तब तक—अपरिचित जनों के प्रति, अपने संबंध में, टाल-बताऊ नीति को ही मैं प्रायः बरतता हूँ। कुछ आदत ही ऐसी पड़ गई है।
एक बार मैं प्रयाग से माघ मेला देखकर आगरे जा रहा था। गणेशशंकरजी को पहले से एक पत्र डाल दिया था कि अमुक ट्रेन से जा रहा हूँ, स्टेशन पर मिलना। फ़तेहपुर पर दो सज्जन उसी डब्बे में आ बैठे, जिसमें मैं अकेला बैठा हुआ था। उनमें से एक लाला मालूम होते थे, दूसरे मुंशी। 'लाला' से मेरा मतलब दूकानदार या महाजन से है और 'मुंशी' से किसी ज़मीदार के कारिंदे, वकील के मोहर्रिर या कचहरीबाज़ से; अर्थात्—जो दूसरों के मुक़दमों की पैरवी करते हैं। मुंशी कचहरीबाज़ दरवाज़े में घुसते-घुसते लाला से कुछ बातें करते जाते थे। बैठ जाने पर तो उन्होंने वह ताँता बाँधा, कि जिसका नाम! अथ से लेकर इति तक लाला की सभी बातें पूछ डालीं। दो-तीन स्टेशन आगे लाला उतर गए। मुंशीजी ने उन्हें रेल के दरवाज़े तक पहुँचा दिया और दुआ-सलाम की झड़ी लगाकर अपनी जगह पर आ बैठे। ड्योढ़े दरजे के कारण हमारे डिब्बे में कोई नहीं आता था; इसलिए अब हम दो ही प्राणी रह गए। मुंशीजी अब मेरी ओर झुके। उनका 'बीड़ी पीजिएगा?' ही
'श्री गणेशाय नमः' हुआ। मुझे अपने सामने एक दुर्गम पहाड़ दीख पड़ा, जिसकी कुछ चट्टानें ये थीं—
'कहाँ के रहने वाले हैं? जाति? कितने भाई-बहिन? छोटे? बड़े? बहनें कहाँ ब्याहीं? बहनोई क्या करते हैं? बीवी-बच्चे? शादी क्यों नहीं की? अब क्यों नहीं करते? नौकरी क्यों छोड़ी? अब क्या कीजिएगा?' आदि।
मैंने सोचा कि मुंशीजी मुझे धकेल-धकेलकर एक-एक चट्टान पर चढ़ावेंगे और पहाड़ की सुर्री तक ले पहुँचेंगे। मैं किसी और धुन में था। कौन मग़ज़पच्ची करे, यह सोचकर मैंने निर्लिप्त भाव धारण कर लिया और उनके प्रश्नों के उत्तर देता चला गया; जिससे उन्हें भी पूरा संतोष होता चला गया। यह उत्तर कांड धुँधला-सा अब भी मेरे हृदय-पटल पर लिखा है। इसका कुछ अंश जो कहीं-कहीं पढ़ लिया जाता है, यह है—
'जाति का बामन हूँ। जी हाँ, कनौजिया। रहने वाला भरतपुर का। नौकरी करता हूँ, स्कूल में। जी हाँ, लड़के पढ़ाता हूँ, प्रयाग में। मिडिल तक स्कूल है। 30 रुपये पाता हूँ। स्त्री है। बच्चे भी हैं। एक लड़का, एक लड़की। एक तीन और एक, एक वर्ष का। जी हाँ, लड़का बड़ा है। एक लड़की और हुई थी, वह मर गई। महीने डेढ़ महीने की होकर। निमोनिया हुआ था। इसलिए जा रहा हूँ कि घर से बीमारी की चिट्ठी आई है। ससुराल मथुरा में है।'—इसी तरह रेल के साथ ही बातचीत का सिलसिला चलता रहा। बीच-बीच में मुंशीजी ने प्रसंगानुसार कहीं हर्ष, कहीं शोक प्रकट किया। कभी-कभी मैं भी घबराया कि कहीं कोई ऐसी बात तो नहीं कह रहा हूँ, जो होती न हो। मुंशीजी ने कितने ही विषयों पर बातचीत की। इतने में एक बड़े-से स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हो गई। देखा तो कानपुर है और विद्यार्थीजी सामने ही खड़े हैं। इतनी जल्दी स्टेशन आ गया, इसका आश्चर्य मुझे भी था और मुंशीजी को भी। पर यह हुआ मुंशीजी की ही बदौलत। उन्होंने झटपट अपना बिस्तरा बगल में दबाया और विद्यार्थीजी की ओर संकेत करते हुए बोले—ये आपके दोस्त हैं? मैंने 'जी हाँ' कहते हुए मन-ही-मन भगवान को धन्यवाद दिया कि मुंशीजी को विद्यार्थीजी का सब हाल लगे हाथों मुझसे पूछ लेने का अवसर नहीं मिल रहा है। गाड़ी से बाहर निकल कर बोले—'अच्छा पंडितजी, अब चलते हैं; हमारी वजह से आपको तकलीफ़ हुई। भगवान आपके बच्चों को ख़ुश रक्खे। आपके घर में भी, भगवान ने चाहा, तो तबीयत ठीक ही हो गई होगी। मेरी तरफ़ से बच्चों को प्यार कीजिएगा।' गणेशजी अब आगे चुप न रह सके। मुंशीजी से बोले--'अजी जनाब, किसके बच्चों और बीवी की बातें आप कर रहे हैं?' मुंशी जी ने कहा—'पंडितजी की।' गणेशजी ने बड़े ज़ोर से हँसकर कहा—'अजी आप इन्हें जानते भी हैं। इनके न बीवी है, न बच्चे। आपसे किसने कहा?' जब मैंने देखा कि सब खेल बिगड़ा जाता है तो मैंने विद्यार्थीजी को नोचा, जिसमें वे चुप रहें; पर वह हँसकर बोले—'नोचते क्यों हो? बेचारे सीधे-सादे आदमी को न-जाने कितनी देर से उल्लू बनाकर अपना मनोरंजन कर रहे हो? मुझे नोचते हो! मुंशीजी, आप इनकी कही हुई सब बातें यहीं छोड़ते जाइए।' गणेशजी की बात सुनकर मुंशीजी ने जिस दृष्टि से मेरी ओर देखा उसे वर्णनातीत और अनुभवगम्य ही समझिए। उसमें अविश्वास, अश्रद्धा, भर्त्सना आदि का अजीब मेल था। उनके चले जाने के बाद मैंने विद्यार्थीजी से कहा--'तुमने यह क्या किया?' वे बोले--'चलो रहने भी दो, बेचारे ग़रीब को अपनी बीवी और बच्चों की कथा सुनाते चले आ रहे हो। तुम्हें ऐसे लोग मिल कहाँ से जाते हैं?' मेरे लिए विद्यार्थीजी को यह समझाना कठिन होता कि मुंशीजी न हिंदी-प्रेमी थे, न देशभक्त, न स्वार्थ-त्यागी; बल्कि पुरानी चाल के गृहस्थी-परवर थे, जिनसे यदि मैंने ऐसी बातें न की होतीं तो उनको अपनी यात्रा बिल्कुल नीरस लगी होती।
- पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 32)
- संपादक : प्रेमचंद
- रचनाकार : बदरीनाथ भट्ट
- प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
- संस्करण : 1932
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