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साहित्यकार की आस्था

sahityakar ki astha

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

साहित्यकार की आस्था

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    आध्यात्मिक दृष्टि से आस्था अपने में एक निरपेक्ष मूल्य है। वही गति और वही गंतव्य है। अर्थात् वह ऐसी शुद्ध आंतरिक गति है जो स्वतः गंतव्य तक ले जाती है या गंतव्य बन जाती है। इसी अर्थ में कहा गया है “भवानी शकरी वन्दे श्रद्धाविश्वास-रूपिणौ, याभ्या विना पश्यन्ति सिद्धा स्वान्त स्थमीश्वरम्।”

    पर साहित्यकार की आस्था साधारणतया अपने ही में मूल्य नहीं कही जा सकती। बौद्धिक चेतना से उसका संबंध होने के कारण उसमें बाह्य जीवन के भी अनेक मानसिक, भौतिक स्तर जुड़े होते हैं। इस दृष्टि से वह निरपेक्ष मूल्य होकर हृदय की गहराई या भावना की तीव्रता भर होती है, और यदि वह सन्मूल्ययुक्त होती है तो सदास्था अन्यथा असदास्था होती है। इस प्रकार साहित्यकार की आस्था एक सापेक्ष धारणा या प्रत्यय भर होती है। वह सौंदर्य-प्रधान, आनंद या रस-प्रधान, आत्मकल्याण या लोककल्याण-प्रधान आदि अनेक प्रकार की हो सकती है और अपनी व्यापकता तथा सत्यानुभूति के अनुरूप ही उसका मूल्य आँका जा सकता है। उदाहरणतः साहित्यकार की आस्था लोककल्याण-प्रधान होने पर भी उसका मूल्य कलाकार के समाज-ज्ञान, लोक-हितानुभूति आदि संबंधी उसके गहन-व्यापक एवं उपयोगी दृष्टिकोण पर ही निर्भर करेगा। सौंदर्य बोध, रस बोध, आत्मज्ञान, समाजज्ञान, देशकाल युग का ज्ञान आदि साहित्यकार की आस्था के तत्व कहलाएँगे जिन्हें वह अपनी गहरी उथली रसानुभूति, छोटी-बड़ी सृजन प्रतिभा, उच्च-मध्य स्तर की प्रेरणा के अनुरूप साहित्य सृष्टि में ढालेगा, जिसमें उसकी सूक्ष्म-स्थूल शिल्प दृष्टि का भी अवश्य प्रभाव रहेगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि आस्था अंत प्रेरणा तक ही सीमित नहीं है; वह अपने सृजन व्यापार में अनेक जटिल प्रणालियों से होकर मूर्त होती है। अपने आदर्श रूप में आस्था को अत्यंत सशक्त अंत प्रेरणा होना चाहिए जो साहित्यिक सृष्टि के बाह्य उपादानों को कलाकार के आंतरिक सत्य के अनुरूप संयोजित करने में सफल हो सके।

    वर्तमान युग में, साहित्य में आस्था मुख्यतः दो अर्थों में प्रयुक्त हो रही है, जिसके विवेचन में संभवतः आप अधिक दिलचस्पी रखते हैं। एक अर्थ में वह अंततः वैयक्तिक आस्था के रूप में व्यवहृत हो रही है और दूसरे अर्थ में सामाजिक आस्था रूप में। इस दृष्टि से विचार करने पर “ज्योत्स्ना” के बाद का मेरा समस्त साहित्य ही आस्था के रूपों पर प्रकाश डालता रहा है। और मैंने वैयक्तिक तथा सामाजिक आस्थाओं को मानवीय आस्था से समन्वित एवं संयोजित करना साहित्यकार की दृष्टि से अपना कर्तव्य समझा है, क्योंकि व्यक्ति और समाज में वह निरंतर प्रवाहित एवं विकसित होता है। यह आज के युग की परिस्थितियों की विवशता है कि विचारक वर्ग अपनी-अपनी स्थिति एव सुविधा के अनुसार आज मानव सत्य के वैयक्तिक अथवा सामाजिक स्वरूप को अधिक महत्त्व दे रहे हैं।

    एक ओर आज समाजवादी आस्था से अनुप्राणित साहित्य है जिसने अपने मूल्यों को मार्क्सवाद से ग्रहण किया है, जिस पर साम्यवादी देशों में केवल मन के ही नहीं, जीवन के स्तर पर भी प्रयोग हो रहे है और जो धीरे-धीरे अपनी कट्टरपंथी सीमा से बाहर छटपटाकर अब अधिक व्यापक तथा उदार रूप धारण कर रहा है। भविष्य में उसे और भी अधिक मानवीय तथा मंगलमय बनना है। समाजवादी प्रवृत्ति अभी भी अध प्रवृत्ति है, उसे अपना पथ प्रकाशित करना है,—उसके साथ लोक भावना तथा मानव भविष्य की आशा है।

    दूसरी ओर आज वैयक्तिक आस्था का साहित्य मिलता है। यह वैयक्तिक आस्था प्राचीन आदर्श व्यक्तिवादी आस्था नहीं, जिसे विकसित व्यक्तिवाद की आस्था कहते हैं। यह वैयक्तिक आस्था आज हमारे साहित्य में जनतांत्रिक (साम्यवादी) देशों से विभीत यूरोप के उन परंपरावादी तथाकथित बुद्धिजीवियों से ज्यों की त्यों उधार ली हुई आस्था है जो आज अपनी नाक के सिवा और कुछ नहीं देख पाते और अनास्थारूपी आस्था का ये मानवतावाद के नए अधिनायक आज अस्तित्ववाद से लेकर सांप्रदायिक धार्मिक पुनर्जागरण संबंधी अनेकानेक, भीतर से खोखले पर बाहर से आकर्षक, सिद्धांतों, दर्शनों एवं साहित्यिक मान्यताओं के रूप में प्रचार कर रहे हैं,—वह सत्यतः प्रतिगामी प्रयोग हैं।

    सत्य की ऐसी बहुमुखी और बहिर्मुखी मान्यताओं एवं आस्थाओं के युग में, मुझे, मानवता के निर्माण एवं कल्याण के लिए, मानव जीवन के भीतरी-बाहरी (अंतर्व्यक्ति और बर्हिसमाजरूपी) दोनों संचरणों की प्रेरणा शक्तियों तथा मान्यताओं में सामंजस्य स्थापित कर आगे बढ़ना ही विवेकसम्मत प्रतीत होता है। सामंजस्य का सत्य अपने में प्रेरणाप्रद तथा सक्रिय होते हुए भी मानव विकास की एक अनिवार्य स्थिति है जिसे संक्रांति काल में आगे बढ़ने के लिए सेतु या सोपान बनाना आवश्यक हो जाता है।

    साहित्यकार की आस्था, निस्संदेह, मनुष्यत्व के वैयक्तिक और सामाजिक आयामों से कहीं महत् एवं अमेय है, जो अपनी अंतर्दृष्टि से मानव-व्यक्तित्व, मानव समाज तथा मानव-जगत् को अतिक्रम कर उन्हें सुंदर से सुंदरतर, मंगल से मंगलतर तथा पूर्ण से पूर्णतर की ओर ले जाकर उनका पुनर्मूल्यांकन एवं पुननिर्माण कर सकती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 293)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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