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संतुलन का प्रश्न

santulan ka parashn

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

संतुलन का प्रश्न

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    विचारकों की दृष्टि में हमारा युग एक महान् परिवर्तन तथा संक्रमण का युग है, जिसमें, न्यूनाधिक मात्रा में, संघर्षों तथा संकटों का आना अनिवार्य है। ऐसे संधिकाल में यदि हमारे चिंतकों का ध्यान मौलिक मानव-मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है तो यह स्वाभाविक ही है। प्रस्तुत प्रश्न के अंतर्गत, पिछले अनेक वर्षों के साहित्य के संबंध में, इस समस्या का दिग्दर्शन पूर्ववर्ती विद्वान् लेखक विस्तारपूर्वक करा चुके हैं, मुझे संक्षेप में, केवल उपसंहार-भर लिख देना है।

    मानव-मूल्यों की दृष्टि से जिन दो प्रमुख विचार धाराओं ने इस युग के साहित्य को आनंदोलित किया है, वे है मार्क्सवाद तथा फ़्रायडवाद। व्यापक दृष्टि से विचार करने पर ये दोनों विचारधाराएँ मानव अस्तित्व के केवल निम्नतम अथवा बाह्यतम स्तरों का अध्ययन करती है और इनके परिणामों को उन्हीं के क्षेत्रों तक सीमित रखना श्रेयस्कर होगा। मार्क्सवाद मानव जीवन की वर्तमान आर्थिक राजनीतिक स्थितियों का सांगोपांग विश्लेषण कर उसकी सामाजिक समस्याओं के लिए समाधान बतलाता है, जिसका परोक्षत एक वैयक्तिक पक्ष भी है। फ़्रायडवाद मानव-अंतर की रागात्मिका वृत्ति के उपचेतन अचेतन मूलों का गहन अध्ययन कर मुख्यतः उसकी वैयक्तिक उलझनों का निदान खोजता है, जिसका एक सामाजिक पक्ष भी है। जहाँ पर ये दोनों सिद्धांत अपने क्षेत्रों को अतिक्रम कर मानव जीवन एवं चेतना के ऊर्ध्वस्तरों के विषय में अपना यांत्रिक अथवा नियतिवादी निर्णय देने लगते हैं, अथवा उन शक्तियों के स्तरों का अस्तित्व अस्वीकार करते हैं, वहाँ पर ये दृष्टि दोष से पीड़ित होकर, मानव-मूल्य संबंधी गंभीर समस्याएँ उपस्थित करते हैं। किंतु, मानव-अस्तित्व एवं चेतना के सभी स्तरों के परस्पर अन्योन्याश्रित होने के कारण, सर्वांगीण सामाजिक विकास की दृष्टि से, मानव-व्यक्तित्व के पूर्ण उन्नयन के हेतु उसके निम्न भौतिक प्राणिक स्तरों का विकास होना भी समान रूप से आवश्यक है। इस दृष्टि से, मार्क्सवाद तथा फ़्रायड के मनोविज्ञान की सीमाओं को मानते हुए भी लोकजीवन हिताय उनकी एकांत उपयोगिता एवं महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में, नवीन विश्व-जीवन-वृत्त के निर्माण में उनका वर्तमान जीवन के गर्दग़ुबार से भरा हाथ उतना ही उपादेय प्रमाणित होगा जितना मानव अस्तित्व के उच्चतम शिखरों से अवतरित भावी सौंदर्य तथा आशा के सम्मोहन से दीप्त अभिनव चैतन्य की किरणों का।

    वैसे, मानव-प्रज्ञा के अविकसित होने के कारण उच्च-से-उच्च सिद्धांत या आदर्श भी चाहे वह आध्यात्मिक हो या भौतिक, धार्मिक हो या राजनीतिक-संकीर्णता के संप्रदाय या रूढ़िगत दल-दल में फँसकर नीचे गिर जाते हैं। किंतु यदि व्यापक विवेक तथा सहानुभूति के साथ, वर्तमान विश्व-मानव-संचय के साथ सामंजस्य बिठाते हुए, उपर्युक्त विचारधाराओं का समुचित अध्ययन एवं वर्तमान विश्व-परिस्थितियों में उनका सम्यक् प्रयोग किया जाए तो उनमें लोक-जीवन के लिए हितकर उपकरणों के अतिरिक्त मानवता के सर्वांगीण सांस्कृतिक अभ्युदय के लिए भी प्राणप्रद पोषक तत्व मिलेंगे। कम्युनिस्ट देशों की सामूहिक जीवन-रचना की वर्तमान स्थिति में, साहित्यिक मूल्यों की दृष्टि से, स्वतंत्र वैयक्तिक प्रेरणा के अवरुद्ध हो जाने के कारण पश्चिम के प्रबुद्ध लेखकों तथा चिंतकों के में जो प्रतिक्रियाएँ चल रही हैं उनको हमें अक्षरश स्वीकृत नहीं कर लेना चाहिए। कम्युनिस्ट देशों की उन असंगतियों को मार्क्सवाद के प्रारंभिक प्रयोगों की कूड़े की टोकरी में भी डाला जा सकता है। मार्क्सवाद का प्रयोग और भी अधिक व्यापक आधारों पर वर्तमान जीवन की आर्थिक राजनीतिक परिस्थितियों पर किया जा सकता है। उसे एक यांत्रिक सिद्धांत के रूप में ग्रहण कर, उसके अंधप्रवेग को संयमित कर सृजनात्मक संचरण के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है और संभवत: भारतवर्ष जैसा महान् देश, जिसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि इतनी प्रौढ़ है, अपने साध्य-साधन की एकता की कसौटी पर कसकर इस महत् प्रयोग को एक दिन सफल भी बना सके। जिन देशों में मार्क्सवाद के प्राथमिक प्रयोग हुए हैं उनमें भी 20-25 वर्षों के अंतर्गत, मानव-मूल्यों की दृष्टि से, व्यापक परिवर्तन नहीं उपस्थित हो सकेंगे, और उनकी जीवन-रचना की भूमि से भी उच्च-से-उच्चतर सांस्कृतिक शिखर नहीं निखर उठेंगे, यह अभी नहीं कहा जा सकता। सिद्धांत के जीवन और व्यक्ति के जीवन के लिए एक ही अवधि निर्धारित करना न्याय संगत नहीं है।

    हमें आवश्यकता है, बाह्यत परस्पर विरोधी लगने वाली...विभिन्न स्तरों तथा क्षेत्रों की विचारधाराओं का विराट् समन्वय तथा संश्लेषण कर उन्हें साहित्य में, सृजनात्मक स्तर पर उठाने की जिससे भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, संस्कारों तथा स्वार्थों से पीड़ित एवं कुंठित मानव चेतना को अपने सर्वांगीण वैयक्तिक तथा सामाजिक विकास के लिए एक व्यापक संतुलित धरातल मिल सके, उसके सम्मुख एक ऐसा उन्नत मानवीय क्षितिज खुल सके जो उसे समस्त अभावों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तत्पर कर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सके। व्यक्तिवाद, समाजवाद, भाववाद, वस्तुवाद, भूत अथवा अध्यात्मवाद एक-दूसरे के विरोधी नहीं, अंतत: एक-दूसरे के पूरक हैं। आज के साहित्य में यदि विराट् या अंतरात्मा के दर्शन नहीं मिलते—जो मूल्यों का धरातल है—तो इसका कारण इस संक्रमणशील युग के तथाकथित विरोधी सिद्धांत एवं विचार-सरणियाँ उतना नहीं हैं जितना इस युग के साहित्य-स्रष्टाओं अथवा द्रष्टाओं की सीमाएँ...और संभवतः उनकी ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, यशलिप्सा, दलबंदी आदि की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियाँ, जिनका क्रीड़ास्थल इस परिवर्तन युग का उनका समदिग्-दुख-कातर अंतस्तल बना हुआ है। साहित्य, संस्कृति के पुजारियों तथा मूल्यों के जिज्ञासुओं को बाहर के साथ ही अपने भीतर भी खोज करनी चाहिए, सामाजिक धरातल को सँवारने से पहले मानसिक धरातल का संस्कार कर लेना चाहिए है—विशेषकर ऐसे संक्रमण-काल में जब ह्रास और विकास, पतझर तथा वसंत की तरह, साथ ही साथ नवीन वृत्त संचरण के रथ-चक्रों में घूम रहे हैं। उन्हें मरणशील ह्रासोन्मुखी संकीर्ण प्रवृत्तियों के कूड़े-कचरे में से विकास को प्रसारकामी ऊर्ध्व प्रवृत्तियों को चुनकर अपनी चेतना में ढाल लेना चाहिए, क्योंकि उनके लिए मूल्य या मान्यताओं का प्रश्न केवल बौद्धिक संवेदन का ही प्रश्न नहीं है, वह उनके आत्मनिर्माण, मनोविन्यास तथा उनको सृजन-तंत्री की साधना का आधारभूत अंग भी है।

    मानव-मूल्यों का अन्वेषक—चाहे वह स्रष्टा हो या द्रष्टा—उसे महत्तर आनंद, प्रेम, सौंदर्य तथा श्रेय के सूक्ष्म संवेदनों की जाह्नवी के अवतरण के लिए भगीरथ प्रयत्न करना है। उसे वैभिन्न्य की बहिर्गत विषमता तथा कटुता को अंतरतम ऐक्य की एकनिष्ठ साधना के बल पर जीवन—वैचित्र्य की समता तथा संगति में परिणत करना है, जिसके लिए आत्म-संस्कार सर्वोपरि आवश्यक है। साहित्यकार, साधक, दार्शनिक इन सबको अंतत: विश्व नियता की महत् इच्छा का यंत्र बनना पड़ता है।

    मूल्य-मर्यादा की प्रगति के स्रोत को केवल सामाजिक परिस्थितियों के अधीन मानना उतना ही एकांगी दृष्टिकोण है जितना उसे केवल मनुष्य के आंतरिक संस्कारों में मानना है। ‘मानव-मूल्य के मूल बाहर भीतर दोनों ओर फैले हुए हैं, “तदंतरस्य सर्वस्य तत्सर्व-स्यास्यबाह्यत।’ व्यक्ति और समाज उसके दो पक्ष हैं जिनमें सामंजस्य स्थापित करके ही स्थिति और प्रगति संभव हो सकती है। हम बाहर के संबंध में ही भीतर को और भीतर के संबंध में ही बाहर को समझ सकते। मानवता के सर्वांगीण विकास एवं निर्माण के लिए हमें भीतर और बाहर दोनों का रूपांतर करना पड़ेगा। तत्त्वत: मानव-जीवन के सत्य के मूल बाहर भीतर दोनों से ऊपर या परे हैं, जैसा कि हम आगे चलकर विष्णु के रूपक में देखेंगे, किंतु अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसे बहिरंतर के दोनों सापेक्ष पक्षों का ध्यान रखकर उनमें संतुलन भरना होता है।

    पश्चिम के कुछ चिंतक बाह्य परिस्थितियों के संगठन के बोझ से आक्रांत होकर मानव-मूल्यों का स्रोत यदि व्यक्ति या मनुष्य के भीतर मानने लगे हैं तो यह केवल पश्चिम के वर्तमान बहिर्भूत यांत्रिक जीवन के प्रति उनके मन की प्रतिक्रिया मात्र है। पश्चिम में अंतर्जीवन का एकांत अभाव होने के कारण वहाँ के प्रबुद्ध विचारकों का मनुष्य के भीतर की ओर झुकना स्वाभाविक है। वास्तव में व्यक्ति और समाज जीवन-मान्यताओं की दृष्टि से, एक-दूसरे के संबंध में ही सार्थक हैं और उसी रूप में समझे भी जा सकते हैं। निरपेक्ष व्यक्ति को अज्ञेय या अनिर्वचनीय कहा जा सकता है। इसलिए यदि मार्क्सवाद सामाजिकता को अधिक महत्त्व देता है या उसके प्रारंभिक प्रयोगों में सामूहिक संचरण अधिक प्रबल हो उठा है तो उसका उपचार व्यक्ति को अधिक महत्त्व देने से नहीं होगा, प्रत्युत, बहिरंतर की मान्यताओं को स्वीकार करते हुए व्यक्ति और समाज के बीच संतुलित संबंध स्थापित करने से होगा। इस युग में, इसीलिए, राजनीतिक संचरण की पूर्ति के लिए एक व्यापक सांस्कृतिक संचरण की भी आवश्यकता है।

    मानव-मूल्यों के स्रोत को मनुष्य के भीतर ही मान लेना इसलिए भी हानिकर सिद्ध होगा कि वर्तमान युग-संक्रमण की स्थिति में मनुष्य का मनुष्य बन सकना सरल या संभव नहीं। उसके व्यक्तित्व में अभी उस उदात्त संतुलन की कमी है जो उसे युगीन प्रवृत्तियों की बाहरी अराजकता तथा अंत:संस्कारों को सीमाओं से ऊपर उठाकर प्रतिनिधि मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। उसका ऐसा विवेकशील व्यक्तित्व होना, जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म मूल्यों-संबंधी दुरूह सामाजिक दायित्व को समझकर, उसे स्वतः ग्रहण करने योग्य आत्म-त्याग एकत्रित कर सके, यह भी अपवाद ही सिद्ध हो सकता है और अल्पसंख्यक सृजनशील व्यक्ति इतने स्थितप्रज्ञ, तटस्थ, निष्पक्ष हो सकेंगे, इस पर भी सहज विश्वास नहीं होता।

    इस संक्रमण-काल ने मनुष्य की अहमिका प्रवृत्ति तथा उसकी कामवृत्ति को बुरी तरह झकझोरा है। ये एक प्रकार से सभी संक्रमण युगों के लिए सत्य तथा सार्थक है, क्योंकि उच्चतर विकास के ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण केंद्र है। मानव अहंता को व्यापक बनकर, मानव-आत्मा के गुणों को पहचानकर उनसे संपन्न बनना होता है। निम्न प्राण-चेतना (काम) को ऊर्ध्वमुखी होकर व्यापक प्रेम, सौंदर्य तथा आनंद की अनुभूति प्राप्त कर नवीन नैतिक-सामाजिक संतुलन ग्रहण करना होता है, इसीलिए विश्व-प्रकृति संक्रमण-काल में उन्हें प्रारंभ में ही सशक्त बना देती है। फ़्रायड ने स्त्री-पुरुष-संबंधी वर्तमान रागात्मक स्तर की क्षुद्रता तथा संकीर्णता की पोल खोलकर आज के प्रबुद्ध चिंतक को मोहमुक्त कर दिया है। वास्तव में प्राण चेतना के विकास के लिए उपयुक्त मानवीय परिस्थितियों के अभाव के कारण, मानव की रागात्मिका वृत्ति, पशु-स्तर पर उतरकर, अभी अचेतन के अन्य आवेगों से परिचालित हो रही है। उसके मनुजोचित ऊर्ध्व विकास के लिए हमें स्त्री-पुरुषों के सामाजिक संबंध को एक व्यापक सांस्कृतिक धरातल पर उठाना होगा।

    जैसा मैं पहले कह चुका हूँ इस युग के बहुमुखी विचार-वैभव को साहित्य तथा संस्कृति की प्रेरणाभूमि पर उठाने के लिए तथा अपने को मानव-मूल्यों का ज्योतिवाहक बनाने के लिए आज के साहित्य स्रष्टा तथा सांस्कृतिक द्रष्टा को सर्वप्रथम एवं सर्वोपरि अपना यथेष्ट आत्म-संस्कार करना होगा। यही उसके ऊपर स्वस्वीकृत सबसे महान् दायित्व है। मानव-मूल्यों की चेतना से अपनी चेतना का तादात्म्य करके उसे अपने मन तथा प्राणों के जीवन में मूर्तिमान करना—यही उसका सर्वप्रथम कर्तव्य है। इस दायित्व के गुरुत्व को उसका साधक ही अनुभव कर सकता है। यही वह तप, त्याग या लोककर्म है जिसे उसे तत्काल ग्रहण करके, धीरे-धीरे उसे अपने को पूर्णरूपेण अर्पित करके अपने जीवन में चरितार्थ करना है।

    मानव-मूल्यों के सर्वव्यापक सत्य के रूप को हमारे यहाँ महाविष्णु के रूप में अंकित किया है, जो प्रभुविष्णु भी है। वह शेष शय्या पर (अनंत काल के ऊपर) स्थित है। प्रत्येक युग में उनके गुणों के अंश विश्वचेतना में अवतरित होकर देश-काल में अभिव्यक्ति पाते हैं। वह जलशायी—देश से भी ऊपर–स्थित है। वह योग-निद्रा में (विश्व-विरोधों में सम), शांत आनंद की स्थिति में है, जिस स्थिति में एक सहज स्फुरण (संकल्प) उनको नाभि (रजोगुण) से ब्रह्मा अथवा सृजन संचरण के रूप में सृष्टि करता है। उनके हाथ में चक्रवत् विश्वमन घूमता रहता है इत्यादि। यह मानव मूल्यों के सत्य के संबंध में एक पूर्ण दृष्टिकोण है। मानवमूल्यों का स्रोत देश-काल से ऊपर है। भूत, भविष्य, वर्तमान में अभिव्यक्ति पाने वाले मूल्य सब उसी सत्य के विकासशील अंश है। तीनों काल एक-दूसरे पर अवलंबित होने के साथ ही मुख्यतः उस सत्य पर अवलंबित है। उसी के गुण एवं शक्ति संचय करके भूत वर्तमान में और वर्तमान भविष्य में विकसित होता है। उस सत्य को आप चाहे दिव्य कहें या मानवोपरि, वह मानव से पृथक् नहीं है। उसे दिव्य कहकर मानवीय ही कहें तो वह वर्तमान मानव विकास की स्थिति से कहीं महत् है जिसमें अनेक भविष्यों का मानव अंतर्हित है। यदि हम इस दृष्टिकोण से उस सत्य पर विचार करें तो हमें वर्तमान पाश्चात्य विचारकों की “जो समस्त अतीत है वही यह क्षण है और जो यह क्षण है वह समस्त भविष्य बन जाएगा—इसी क्षण में हमें शाश्वत को बाँधना है” आदि जैसी तर्क-प्रणाली की यांत्रिकता स्पष्ट हो जाएगी।

    हमने अपने साहित्य में पश्चिम के जिस विकासवाद के सिद्धांत को अपनाया है वह अधूरा है। उसमे नीचे से ऊपर की ओर आरोहण तो है पर ऊपर से नीचे की ओर अवतरण तथा अंत-संयोजन (री-इटीग्रेशन) के पक्षों का अभाव है। इस पूर्ण सिद्धांत को स्वीकार कर लेने के कारण ही हम केवल भूत और वर्तमान के संचय के पर अग्रसर होने की असफल चेष्टा कर नित्य नवीन विरोधी मतों को जन्म देते जा रहे हैं। विकास में सातत्य या अविच्छिन्नता खोजना भ्रम है। विकास के प्रत्येक युग में विश्वचेतना में महत् से नवीन गुणों का भी आविर्भाव होता रहता है। इस महत् में बीज रूप में समस्त सृष्टि के उपादान अंतर्हित है।

    साहित्य-स्रष्टा के लिए विकास से अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत सृजन का है। वह मन के उच्चोच्चतर स्तरों से प्रेरणा ग्रहण करके अपनी सृजन-चेतना के वैभव से विकास को नित्य नवगुणसंपन्न कर उसे प्रगति दे सकता है। स्रष्टा के लिए विवेक के पथ से अधिक उपयोगी एवं पूर्ण श्रद्धा का पथ है। वह सहज तथा प्रशस्त होने के कारण लोक-सुलभ भी है। अल्पसंख्यक विवेकशील साहित्यिकों के कंधों पर जन-समाज के जीवन का दायित्व सौंप देने में यह भी भय है कि वर्तमान विषम सामाजिक परिस्थितियों में उन अल्पसंख्यकों की मानवता की धारणा स्वभावतः अपने ही वर्ग के मानव तक सीमित रह सकती है। जन मानवता का विराट् वैचित्र्य उनकी प्रबुद्ध सहानुभूति से कहीं व्यापक तथा अकल्पित हो सकता है। फिर स्रष्टा को हम केवल साहित्य स्रष्टा तक ही सीमित नहीं रख सकते हैं। सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र तथा स्तर पर—चाहे वह राजनीतिक भी क्यों हो—जीवन निर्माता जीवन स्रष्टा तथा द्रष्टा भी हो सकता है और सृजन में ही निर्माण की पूर्ण परिणति भी होती है।

    संक्षेप में मैं सांस्कृतिक मान्यताओं एवं मानव-मूल्यों का स्वस्वीकृत दायित्व अल्पसंख्यक, स्वतंत्र विवेकपूर्ण संकल्पयुक्त व्यक्तियों को सौंपने के बदले समस्त जन समाज को सौंपना अधिक श्रेयस्कर समझता हूँ जो श्रद्धा के पथ से मानव-मूल्यों के सत्य से संयुक्त होकर अपने-अपने क्षेत्र में मानवता के विशाल रथ को आगे बढ़ाने में अपना हाथ बँटा सकते हैं। उन्हें—जैसा कि आज के समस्त पश्चिम के विचारक सोचते हैं—किसी तर्क-बुद्धिसम्मत विवेक के जटिल सत्य के जटिलतर दायित्व की भूलभुलैयाँ में खोकर अपने चिंतन, अनुभूति, सौंदर्य-बोध की समस्त शक्ति से स्थाई मानव-मूल्य की इसी क्षण की विशेष मानवीय स्थिति की सही व्याख्या पहचानने जैसे और भी दुरूह बौद्धिक व्यायाम नहीं करने पड़ेंगे—जो शायद कुछ अति अल्पसंख्यक प्रतिभाशाली व्यक्तियों को ही सुलभ है; उन्हें विराट् विश्व-जीवन के अंतरतम केंद्रीय सत्य पर श्रद्धापूर्वक रखकर, अपनी बहिरतर की परिस्थितियों को अतिक्रम करते हुए, उनका युगजीवन की विभिन्न आवश्यकताओं के अनुरूप पुननिर्माण कर एवं उन्हें व्यापक मानव जीवन की एकता में बाँधते हुए अंततः संपूर्ण तथा बाह्यतः समस्त के साथ आगे बढ़ना होगा। इसी में वह अपनी-अपनी स्थिति से स्वधर्म का पालन कर सकते हैं। हमारे सर्वोदय के उन्नायकों ने भी श्रद्धा के पथ से उन्हीं सत्यों के सत्य से प्रेरणा ली है जिसके बिना उनका व्यक्तित्व शीर्षहीन हो जाता। आज के युग में जब कि भौतिक विज्ञान के विकास के कारण लोक-जीवन की परिस्थितियाँ जड़ रहकर अत्यधिक सक्रिय हो गई है जन-साधारण को सृजन-प्रेरणा से वंचित कर सकना संभव भी नहीं हैं—यही इस युग की सबसे बड़ी क्रांतिकारी देन है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 317)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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