चिट्ठी का सफ़र
chitthi ka safar
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
अपनी दस-बारह साल की ज़िंदगी में तुमने कुछ पत्र तो लिखे ही होंगे। वे पत्र अपने सही पते और समय पर किस तरह पहुँचे होंगे—यह बहुत-सी बातों पर निर्भर करता है। जैसे कि, चिट्ठी किस स्थान से किस स्थान पर भेजी जा रही है, संदेश पहुँचाने की कितनी जल्दी है, तुमने पूरा और ठीक पता लिखा है कि नहीं, तुमने उस पर डाकटिकट लगाया है कि नहीं, आदि। अब प्रश्न यह उठते हैं कि—
• आख़िर चिट्ठी पर डाकटिकट लगाया ही क्यों जाए?
• पूरे और ठीक पते से क्या मतलब है?
• ज़रूरत पड़ने पर संदेश को जल्दी कैसे पहुँचाया जाए?
• स्थान बदलने से चिट्ठी के पहुँचने पर क्या असर पड़ता है?
इनमें से कुछ सवालों के जवाब शायद तुम्हारे पास हों—ख़ासकर तुममें से उनके जो डाकटिकटें इकट्ठा करने का शौक़ रखते हैं।
इन सवालों के जवाबों के लिए ज़रा निचे दिए गए लिफ़ाफ़ों को ग़ौर से देखो। दोनों पतों को दी गई जगह में लिखो।
ये दोनों पते किस तरह से भिन्न हैं? गाँधीजी को भेजे गए पत्र में पते की जगह पर लिखा है—“महात्मा गाँधी, जहाँ हो वहाँ वर्धा।” जबकि लिफ़ाफ़े पर इमारत या संस्थान से लेकर शहर तक का नाम लिखा हुआ है। पते में सबसे छोटी भौगोलिक इकाई से शुरू करके बड़ी की ओर बढ़े हैं। छोटी से बड़ी भौगोलिक इकाई का मतलब यह हुआ कि घर के नंबर के बाद गली-मोहल्ले का नाम, फिर गाँव, क़स्बे, शहर के जिस हिस्से में है उसका नाम, फिर गाँव या शहर का नाम। शहर के नाम के बाद लिखे अंक को पिनकोड कहते हैं। हर जगह को एक पिनकोड दिया गया है। यह सोचने लायक बात है कि आख़िर पिनकोड की ज़रूरत क्या है? हमारे देश में अनेक ऐसे क़स्बे/गाँव/शहर हैं जिनके नाम एक जैसे हैं। पते के बाद पिनकोड लिखने से गंतव्य स्थान का पता लगाने में डाक छाँटने वाले कर्मचारियों को मदद मिलती है और पत्र जल्दी बाँटे जा सकते हैं।
पिनकोड की शुरुआत 15 अगस्त 1972 को डाक तार विभाग ने पोस्टल नंबर योजना के नाम से की। ज़ाहिर है कि गाँधीजी को मिले इस पत्र पर और उन्हें मिले किसी भी पत्र पर पिनकोड का इस्तेमाल नहीं किया गया था। फ़र्क सिर्फ़ पिनकोड का ही नहीं है। समय के साथ डाक सेवाओं में निरंतर बदलाव और विकास होता रहा है।
बहुत पुराने समय में कबूतरों के द्वारा संदेश भेजे जाते थे। जब संदेशवाहक कबूतरों की बात हो रही है तो उन इंसानों की बात कैसे न हो जो ऐसे समय से डाक पहुँचाने का काम करते रहे, जब संचार और परिवहन के साधन बेहद सीमित थे! बात हो रही है उन हरकारों की जो पैदल ही आम आदमी तक चिट्ठी-पत्री पहुँचाने का काम करते रहे। राजा, महाराजाओं के पास घुड़सवार हरकारे हुआ करते थे। हरकारों को न सिर्फ़ हर तरह की जगहों पर पहुँचना होता था, बल्कि डाक की रक्षा भी करनी होती थी। डाकू, लुटेरों या जंगली जानवरों की चपेट में आने का डर हमेशा बना रहता था। आज भी भारतीय डाक सेवा दुर्गम व पहाड़ी इलाक़ों तक डाक पहुँचाने के लिए हरकारों पर निर्भर करती है। जम्मू-कश्मीर के लद्दाख खंड में पदम (ज़ंस्कार) जैसी कई जगह हैं जहाँ हरकारे डाक पहुँचाते हैं।
आजकल तो संदेश भेजने के नए-नए और तेज़ साधन आसानी से उपलब्ध हो गए हैं। डाक बाँटने में हवाई जहाज़, पानी के जहाज़ और जाने कौन-कौन से साधन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। डाक विभाग भी पत्र, मनीआर्डर के साथ-साथ ई-मेल, बधाई कार्ड आदि लोगों तक पहुँचा रहा है।
कबूतरों की उड़ान से लेकर हवाई डाक सेवाओं तक का सफ़र दिलचस्प करने वाला है। यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कबूतर जैसा पक्षी संदेशवाहक भी हो सकता है। कबूतर की कई प्रजातियाँ होती हैं और ये सभी संदेश लाने, ले जाने का काम नहीं कर सकतीं। गिरहबाज़ या हूमर वह प्रजाति है जिसे प्रशिक्षित करके डाक संदेश भेजने के काम में लाया जाता है। आख़िर कबूतर अपना रास्ता ढूँढ़ कैसे लेता है? उन प्रवासी पक्षियों के बारे में सोचो और पता करो कि वे कैसे सैकड़ों मील का रास्ता और सही जगह तय कर पाते हैं।
- पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 52)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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