मुझे पल भर के लिए आसमान को मिलना था
पर घबराई हुई खड़ी थी...
कि बादलों की भीड़ में से कैसे गुज़रूँगी...
कई बादल स्याह काले थे
ख़ुदा जाने—कब के और किन संस्कारों के
कई बादल गरजते दिखते
जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के...
कई बादल घूमते, चक्कर खाते
खँडहरों के खोल से उठते खतरों जैसे...
कई बादल उठते और गिरते थे
कुछ पूर्वजों की फटी पत्रियों जैसे...
कई बादल घिरते और घूरते दिखते
कि सारा आसमान उनकी मुट्ठी में हो
और जो कोई भी इस राह पर आए
वह ज़र ख़रीद ग़ुलाम की तरह आए...
मैं नहीं जानती थी कि क्या और किसे कहूँ
कि काया के अंदर एक आसमान होता है
और उसकी मोहब्बत का तकाज़ा...
वह कायनाती आसमान का दीदार माँगता है...
पर बादलों की भीड़ की यह जो भी फ़िक्र थी
यह फ़िक्र उसका नहीं, मेरा थी
उसने तो इश्क़ की एक कनी खा ली थी
और एक दरवेश की मानिंद उसने
मेरे श्वासों की धूनी रमा ली थी...
मैंने उसके पास बैठ कर धूनी की आग छेड़ी
कहा—ये तेरी और मेरी बातें...
पर ये बातें—बादलों का हुजूम सुनेगा
तब बता योगी! मेरा क्या बनेगा?
वह हँसा—
एक नीली और आसमानी हँसी
कहने लगा—
ये धुएँ के अंबार होते हैं—
घिरना जानते
गरजना भी जानते
निगाहों को बरजना भी जानते
पर इनके तेवर
तारों में नहीं उगते
और नीले आसमान की देह पर
इल्ज़ाम नहीं लगते...
मैंने फिर कहा—
कि तुम्हें सीने में लपेट कर
मैं बादलों की भीड़ में से
कैसे गुजरूँगी?
और चक्कर खाते बादलों से
मैं कैसे रास्ता माँगूँगी?
ख़ुदा जाने—
उसने कैसी तलब पी थी
बिजली की लकीर की तरह
उसने मुझे देखा,
कहा—
तुम किसी से रास्ता न माँगना
और किसी भी दीवार को
हाथ न लगाना
न घबराना
न किसी के बहलावे में आना
और बादलों की भीड़ में से—
तुम पवन की तरह गुज़र जाना।
- पुस्तक : मैं तुम्हें फिर मिलूँगी (पृष्ठ 33)
- रचनाकार : अमृता प्रीतम
- प्रकाशन : कृति प्रकाशन
- संस्करण : 2014
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