उपन्यास-रहस्य
upanyas rahasy
आजकल हिंदी साहित्य में उपन्यास-नामधारिणी पुस्तकों की भरमार हो रही है। इन पुस्तकों में से प्रायः पचानवे फीसदी पुस्तकें उपन्यास कदापि नहीं और चाहे जो कुछ हों। उपन्यासों और क़िस्से कहानी की पुस्तकों की चाह होने के कारण अधिकारी और अनधिकारी सभी लेखक 'अव्यापारेषु व्यापारः' करने में व्यस्त हैं। जो यह भी नहीं जानता कि मानस-शास्त्र भी कोई शास्त्र है, जो यह भी नहीं जानता कि चरित्र-चित्रण किस चिड़िया का नाम है, जिसे इस बात की रत्तीभर भी परवा नहीं उसकी पुस्तक के पाठ से पाठक का चरित्र बिगड़ेगा या बनेगा। वह भी उपन्यास लिख लिखकर नाम नहीं तो दाम उपार्जन करने की फ़िक्र में है। इस तरह की चेष्टाएँ कभी-कभी अत्यंत उपहास्य मार्गों का अनुसरण करती हैं। उदाहरण के लिए दवाओं, पुस्तकों तथा अन्य चीज़ों के दुकानदार कोई अंडबंड कहानी गढ़ लेते हैं, फिर बीच-बीच में अपनी चीज़ों का विज्ञापन देकर उस पुस्तक का कोई भड़कीला औपन्यासिक नाम रखते हैं तब उसे प्रकाशित करते और बेचते हैं। अभी एक ही हफ्ता हुआ होगा, हमने एक ऐसा उपन्यास देखा जो किसी स्कूल या कॉलेज के किसी छात्र की रचना है। रचयिता ने भूमिका में यह बात गर्व से लिखी है कि मैंने दो-ढाई सौ सफ़े का यह उपन्यास दस ही पंद्रह रोज में लिख डाला है। पुस्तकें लिखने का उत्साह बुरी बात नहीं पर अनधिकार चेष्टा की कुछ सीमा भी तो होनी चाहिए। यह न होना चाहिए कि बिच्छू का तो मंत्र न जाने और साँप के बिल में हाथ डाले। कुरुचिपूर्ण पुस्तकें लिखने से लेखक को अर्थ-लाभ हो सकता है पर उससे समाज को हानि पहुँचती है। अतएव इस तरह के लेखक समाज की दृष्टि में दंडनीय हैं।
साहित्य का एक अंग उपन्यास भी है। यह अंग बड़े महत्त्व का है। यह संस्कृत भाषा के प्राचीन ग्रंथ साहित्य में भी पाया जाता है, पर अंकुर रूप ही में इसके दर्शन होते हैं। हाँ, जैन लेखकों ने इस तरह के कुछ अच्छे-अच्छे ग्रंथ ज़रूर लिखे हैं परंतु उनकी संख्या बहुत थोड़ी हैं। संभव है, ऐसी पुस्तकें बहुत रही हों पर वे सब अब उपलब्ध नहीं। इन पुस्तकों में कथा-कहानियों के बहाने धर्मतत्त्व और सदाचार की शिक्षा दी गई है। इनको छोड़कर संस्कृत भाषा में लिखी गई ‘कथा सरित्सागर', कादंबरी, 'वासवदत्ता' और 'दशकुमार-चरित' आदि कई पुस्तकों से कोई विशेष शिक्षा नहीं मिल सकती। मानसशास्त्र के आधार पर किए गए चरित्र-चित्रण की स्वाभाविकता भी सर्वत्र देखने को नहीं मिलती। हाँ, किसी हद तक इनसे मनोरंजन ज़रूर होता है, बस। प्रकृत उपन्यास-साहित्य के जनन, उन्नयन और प्रचलन का श्रेय पश्चिमी देशों ही के लेखकों को है। उन्हीं ने साहित्य के इस अंग को कला की सीमा तक पहुँचा दिया है। उन्होंने इस अंग के कला निरूपण संबंध में भी बहुत कुछ लिखा है। उनके इस निरूपण का अनुशीलन करके हम जान सकते हैं कि उपन्यास किसे कहते हैं, आख्यायिका किसे कहते हैं, उनमें क्या गुण होने चाहिए? उनकी रचना में किन बातों की गणना दोष में है; इत्यादि।
यह बात नहीं है कि जिन लोगों ने पश्चिमी पंडितों के इस प्रकार के निरूपणात्मक लेख या ग्रंथ नहीं पढ़े वे कदापि कोई अच्छा उपन्यास लिख ही नहीं सकते। जिनको मनुष्य-स्वभाव का ज्ञान है, जो अपने विचार मनमोहक भाषा द्वारा प्रकट कर सकते हैं, जो यह जानते हैं कि समाज का रुख किस तरफ़ है और किस प्रकार की रचना से उन्हें लाभ और किस प्रकार की रचना से हानि पहुँच सकती है, वे पश्चिमी पंडितों के तत्त्व-निरूपण का ज्ञान प्राप्त किए बिना भी अच्छे उपन्यास लिख सकते हैं।
साहित्य के इस अंग में बंग भाषा के कई सुलेखक कृतकार्य हुए हैं। विद्यमान लेखकों में कविवर रविंद्रनाथ ठाकुर, इस समय सबसे आगे हैं। उनके 'गोरा' नामक उपन्यास में सुनते हैं अच्छे उपन्यास के अनेक गुण पाए जाते हैं। तथापि बंगला भाषा में उपन्यास लेखकों में भी अच्छे लेखक बहुत थोड़े हैं, अधिकता बुरे उपन्यास लिखने वालों की है। इन पिछले लेखकों की विषाक्त रचना से सामाजिक बंधनों की ग्रंथि शिथिल हो जाने का डर है। खेद है, हिंदी में इस तरह के चरित्र-नाशक उपन्यासों ही के अनुवाद अधिकता से हो रहे हैं। बंगला के अच्छे उपन्यासों के अनुवादों के दर्शन बहुत ही कम होते हैं। इस दृश्य में संतोष की बात इतनी ही है कि समझदार लेखक और प्रकाशक अच्छे और बुरे उपन्यासों का अंतर अब कुछ-कुछ समझने लगे हैं।
उस दिन इलाहाबाद के 'लीडर' नाम अँग्रेज़ी भाषा के दैनिक पत्र का एक अंक हमने खोला तो उसके एक सफ़े का सफ़ा एक समालोचना से भरा दिखाई दिया। उस पर नज़र डाली तो प्राचीन समय के कुछ नाम दिख पड़े। आरंभ का कुछ अंश पढ़ने पर मालूम हुआ कि यह तो हिंदी के दो उपन्यासों की आलोचना है। तब हमने उसे सद्यांत पढ़ा। समालोचना थी 'करुणा' और 'शशांक' नामक दोनों उपन्यासों की। जिन मौर्य नरेशों को हुए हज़ारों वर्ष हो चुके, उनके समय के सामाजिक और राजनैतिक दृश्य इन उपन्यासों में दिखाए गए हैं। यह बात हमने इस समालोचना से ही जानी क्योंकि इन पुस्तकों को हमने स्वयं नहीं देखा। मूल रचना एक बंगाली पुरातत्त्वज्ञ की है। अतएव उपन्यासों के गुण-दोषों के उत्तरदाता वही हैं। समालोचना में पुस्तकों की खूब स्तुति प्रशंसा थी। यदि उन पुस्तकों में उस जमाने की रहन-सहन, आचार-विचार, वस्त्राच्छादन, रीति-रिवाज, राजनैतिक-चालों आदि ही के दृश्य हों, तो भी पुस्तकें अच्छी ही कही जाएँगी। और यदि समाज कल्याण की दृष्टि से उनसे कुछ शिक्षा भी मिलती तो फिर कहना ही क्या है। हाँ, यदि उनमें उस जमाने के सामाजिक दोषों के भी उल्लेख हों और वे दोष समाज के लिए हानिकारी हों तो बात जरा विचारणीय हो जाएगी क्योंकि कुछ पंडितों की सम्मति में ऐसे दृश्य दिखाना वांछनीय नहीं। हाँ, जो लोग समाज का सच्चा ही चित्र, चाहे वह भला हो चाहे बुरा, दिखाना उपन्यासकार का कर्तव्य समझते हैं, वे अब इस संबंध में मीनमेख न करेंगे। अस्तु, यह तो अवांतर बात हुई। 'लीडर' में प्रकाशित समालोचना का उल्लेख हमने और ही मतलब से किया है। वह यह कि अब अँग्रेज़ी भाषा के सैंकड़ों उपन्यास चाट जाने वाले लोग भी हिंदी में लिखे गए उपन्यास पढ़ने लगे हैं। अच्छे समझकर ही अँग्रेज़ीदाँ समालोचक ने पूर्वोक्त पुस्तकों की समालोचना लिखने और छपाने का श्रम उठाया है। फिर चाहे उसने स्वतः प्रवृत्त होकर यह काम किया हो, चाहे किसी के इशारे या प्रेरणा से किया हो।
ऊपर जिन दो उपन्यासों का उल्लेख हुआ वे अनुवाद मात्र हैं। हिंदी के सौभाग्य से इन प्रांतों में एक ऐसे भी उपन्यास-लेखक प्रकाश में आ रहे हैं जिनके उपन्यास, सुनते हैं, उन्हीं की उपज हैं। 'सुनते हैं' इसलिए क्योंकि हमको उनकी उपज का स्वतः कुछ भी ज्ञान नहीं। उनके जिन दो उपन्यासों की आलोचनाओं और विज्ञापनों में धूम कुछ समय से है, वे हमारे देखने में नहीं आए। उसका नाम 'सेवाश्रम' या कुछ इसी तरह का है। इन उपन्यासों की जहाँ और अनेक लेखकों ने स्तुति और प्रशंसा की है वहाँ एक-आध ने पिछले उपन्यास में बहुत से दोष भी ढूँढ निकाले हैं और व्याख्या सहित उन्हें दिखाया भी है। दोषोद्भावना करने में दोषदर्शक ने उपन्यास लेखक के कानूनी अज्ञान, मनःशास्त्रविषयक अज्ञान, सामाजिक नियम-संबंधी अज्ञान आदि दिखाने का प्रयत्न किया है। यह अज्ञान-परंपरा उपन्यास लेखक के किसी पक्षपाती को मान्य नहीं हुई और संभव है, ख़ुद लेखक को भी मान्य न हो। इसी से कृपाक्षेपों का खंडनात्मक उत्तर भी कहीं हमने पढ़ा है। स्मरण तो यही कहता है।
अच्छा तो उपन्यासों के गुण-दोषों की परख क्या है? इसके उत्तर में हम अपनी तरफ़ से अधिक नहीं लिख सकते और लिखना भी नहीं चाहते क्योंकि हम इस विषय के ज्ञाता नहीं। अतएव हम उपन्यास-रहस्य के कुछ ज्ञाताओं के कथन के आधार पर ही कुछ निवेदन करना चाहते हैं।
मनुष्य जो काम करता है, मन की प्रेरणा से करता है। और मन से संबंध रखनेवाला एक शास्त्र ही जुदा है, वह मानस-शास्त्र या मनोविज्ञान कहलाता है। उपन्यासों में मनुष्यों ही के चरित्रों और मनुष्यों ही के कार्यों तथा उनसे संबंध रखने वाली घटनाओं का वर्णन रहता है। उनमें स्वाभाविकता लाने के लिए मनोविज्ञान का जानना जरूरी है। बिना इस शास्त्र के ज्ञान के मन की गति और मन की वास्तविक स्थिति नहीं जानी जा सकती। किस प्रकार की मानसिक प्रेरणा से कैसा काम होता है अथवा कैसे कारण से कैसे कार्य की उत्पत्ति होती है, इसका यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है जब मन के विविध भावों और उनके कार्यकारण-संबंध का ज्ञान हो। अतएव उपन्यास-लेखक के लिए मनोविज्ञान के कम-से-कम स्थूल नियमों का जानना अनिवार्य होना चाहिए। उपन्यास लिखने वाला कल्पना से भी काम ले सकता है और बिना ऐसा किए उसका काम चल ही नहीं सकता। पर उसकी भित्ति सत्य के आधार पर होनी चाहिए। उसके घटना-निवेश और चरित्र-चित्रण में अतिमानुषता और अतिरंजन न होना चाहिए। इस दोष से तभी बचाव हो सकता है जब लेखकों को मनःशास्त्र के नियमों से अभिज्ञता हो। अन्यथा भाव-विश्लेषण ठीक-ठीक नहीं हो सकता।
उपन्यास-रहस्य के ज्ञाताओं के दो दल हैं। ऊपर जो कुछ लिखा गया वह पहले दल की सम्मति है। इस सम्मति का सारांश यह है कि मनोविज्ञान या मानस-शास्त्र के नियम जहाँ-जहाँ ले जाएँ उपन्यासकार को वहीं-वहीं जाना चाहिए और तद्नुसार ही घटनावलियों और चरित्रों की सृष्टि करनी चाहिए। अनिष्ट-प्राप्ति से मनुष्य का मन विचलित हो उठता है और वह विलाप करने लगता है। यह मानसिक नियम है। पहले दल के कायल लेखक इसी का अनुगमन करके घटना-निर्माण करेंगे। यदि किसी पक्के वेदांती या विरागी को अनिष्ट-लाभ से कुछ भी दुःख न हो तो उसे अपवाद नियम विरुद्ध बात समझेंगे।
दूसरे दल के अनुयायियों का कहना है, कि मनोविज्ञान के नियमों को आधारभूत तो जरूर मानना चाहिए, पर सदा ही उनसे विचार-परंपरा को जकड़ लेना ठीक नहीं। सभी घटनाओं और सभी भावों के संबंध में मनःशास्त्र से संश्रय रखने की चेष्टा से कहानी रोचक और स्वाभाविक नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य के मन पर मनोविज्ञान के नियमों की अखंड सत्ता नहीं देखी जाती। मनःशास्त्र में जिस कारण से जैसे कार्य की उत्पत्ति होना वर्णित है उस कारण से कभी--कभी वैसा कार्य नहीं उत्पन्न होता। अतएव जैसी घटनाएँ लोक में हुआ करती हैं और मनुष्य-समाज में जैसे कार्य-कारण-भाव देखने में प्रायः आया करते हैं तदनुकूल ही उपन्यास-रचना होनी चाहिए। मनुष्य का मानसिक भाव उसे जिस अवस्था में ले जाए उसी का वर्णन करना चाहिए। इस बात की परवाह न करनी चाहिए कि मनोविज्ञान के अनुसार तो ऐसी अवस्था प्राप्त ही नहीं हो सकती; अतएव इसका वर्णन त्याज्य है। घटनावली के निदर्शन और भावों के चित्रण की जड़ में मनोविज्ञान रहे ज़रूर, पर वह छिपा हुआ रहे। शरीर के भीतर जैसे अस्थि-पंजर छिपा रहकर शरीर संगठन में सहायता देता है। वैसे ही मनोविज्ञान के नियमों को भी कथा-भाग के भीतर अलक्षित रखना चाहिए। जो इस खूबी को जानते हैं और जो अपनी रचना में नियमों के पचड़े को गुप्त रखकर चरित्र-चित्रण करते हैं। उन्हीं के उपन्यासों का अधिक आदर होता है।
मानसिक नियमों का पालन दृढ़तापूर्वक करके कोई किसी अन्य पुरुष या स्त्री के भावों का ठीक-ठीक विश्लेषण कर भी नहीं सकता। बात यह है कि सबके मन एक से नहीं होते। सबकी ज्ञानेंद्रियों की ग्राहिका शक्ति भी एक सी नहीं होती। किसी अवस्था-विशेष में पड़ने पर राम जिस प्रकार का व्यवहार करता है श्याम उस प्रकार का नहीं करता, यह बात हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं। इस दशा में पद-पद पर मनोविज्ञान की दुहाई देना और राम और श्याम के कार्यों का वैज्ञानिक कारण ढूँढना, भ्रम के गर्त में गिरने और घटनावैचित्र्य में नीरसता लाने का द्वार खोल देना है। हर मनुष्य के संस्कार जुदा-जुदा होते हैं। उनके अनुसार ही उनके कार्य-कारण हुआ करते हैं। वे किसी नियमावली के पाबंद नहीं। आपके पास यदि कोई धूर्त आवे तथा चेष्टा तथा वाणी से अपनी निर्धनता का झूठा भाव प्रकट करके आपसे पाँच रुपये ले जाए तो बताइए, आप धोखा खा जाएँगे या नहीं। सो, संसार में मनोभाव के यथार्थ ज्ञापक कार्य सदा होते भी तो नहीं।
इसके सिवा एक बात और भी है। ये जितने अच्छे-अच्छे उपन्यास आजकल विद्यमान हैं उनके कुंद, इंदु और मल्लिका, मदयंतिका आदि पात्रों के हृदयों में उपन्यास-लेखकों को ही आप बैठा समझिए। इन पात्रों के भाव-विश्लेषण के जो चित्र आप देखते हैं, वे उनके निज के मन के प्रतिबिंब कदापि नहीं। वे तो उपन्यास लेखकों ही के मन के प्रतिबिंब हैं। मनोभावों और संस्कारों के अनेकत्व में लेखक उनका यथार्थ और संपूर्ण ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। वह करता क्या है कि अपने मन की माप से और के मन की माप-तौल करता है। वह देखता है कि अमुक अवस्था या अमुक अवसर यदि आ जाए तो मैं इस प्रकार का व्यवहार करूँगा। बस, वह समझता है कि सारी दुनिया उसी में अंर्तभुक्त है, अवस्था-विशेष में जो वह करेगा या कहेगा वही सब लोग करेंगे या कहेंगे। पर इस प्रकार की धारणा कोरी भ्रांति है।
अच्छा तो मनोविज्ञान के शुष्क नियमों ही के आधार पर किसी का चरित्र-चित्रण करने जैसे निर्धांत नहीं हो सकता, वैसे ही अपने मन को मापदंड समझकर उसी से औरों के मन की माप करना भी भ्रांति-रहित नहीं हो सकता। इस ‘उभयतो पाशारज्जुः' की दशा में क्या करना चाहिए। क्या उपन्यास लिखना बंद ही कर देना चाहिए? नहीं, बंद कदापि नहीं कर देना चाहिए। उपन्यास तो साहित्य की एक बड़ी महत्त्वपूर्ण शाखा है।
घटना-विस्तार और चरित्र-चित्रण करने में मानस-शास्त्र का आधार जरूर लेना चाहिए। पर उतना ही जितने से मानवी मन की स्वाभाविक गतियों को गर्त में गिराने से बचाव हो सके। मनोभावों के कुछ स्थूल नियम हैं भय उपस्थित देख भीत होना, इष्ट-नाश से दुःखित होना आदि। इन नियमों का अतिक्रमण न करना चाहिए। जिससे मनुष्य मनुष्य ही न रहे वह पशु, देव या दानव आदि हो जाए। बस, फिर दूसरे के मनोगत भावों की विवृत्ति करते समय अपने ही मन को उसके स्थान पर न बिठा देना चाहिए। अमुक अवसर आने पर मैं यह कहता, मैं यह करता, मैं मार बैठता, मैं उत्तेजित हो जाता इस प्रकार की भावनाओं की प्रेरणा से बहुत करके सत्य का अपलाप हो जाता है। अतएव जिसके मन के मानसिक भावों का विकास करना है उसके संस्कारों की, उसकी तत्कालीन अवस्था की, उसके आसपास की व्यवस्था की सारांश यह है कि उसकी संपूर्ण परिस्थितियों की आलोचना करनी चाहिए। देखना यह चाहिए कि ऐसे समय और ऐसी परिस्थिति में ऐसे मनुष्य के मनोगत भाव किस प्रकार होंगे। तदनुकूल ही उनका विकास करना चाहिए। बात यह है कि दुनिया में दूसरे के मन के भाव जानने का और कोई उपाय ही नहीं। परिस्थिति और बहिर्दर्शन ही के द्वारा अनुमान की सहायता से, दूसरे के मन का भाव जाना जा सकता है। मन का भाव-भाव प्रवाह बाहरी लक्षणों या चिह्नों से जाना जा सकता है। यह मानसशास्त्री भी स्वीकार करते हैं। हर्ष, शोक, विराग, अनुराग, क्रोध, भय आदि भावों या विकारों का मानसिक उदय होने पर शरीर और मुख पर कुछ ऐसे चिह्न प्रकट हो जाते हैं, जिनसे उन-उन विकारों का पता लग जाता है। अतएव दूसरे के मनोगत भावों का चित्रण करने में परिस्थिति के साथ-साथ इन चिह्नों के उदयास्त का भी खूब विचार करके लेखनी-संचालन करना चाहिए। शरीर, भाषा, चित्र, कला, कारीगरी आदि पर भावों की अभिव्यक्ति हुए बिना नहीं रहती। इन भावों का विकास कल्पना द्वारा करना चाहिए। परंतु कल्पना को असंयत न होने देना चाहिए। उसकी गति अबाध हो जाने से वह कुपथ में चली जा सकती है। कभी-कभी शरीर पर आंतरिक भावों के कृत्रिम चिह्न भी उदित हो जाते हैं। उस समय देखने वाले की इंद्रियों को धोखा होता है। अतएव कृत्रिम लक्षणों और इंद्रिय-प्रवंचनों से भी बचना चाहिए। सामाजिक नियमों का, कानून का, धर्म का, देश-काल और पात्र का भी ख्याल रखना चाहिए। उनके प्रतिकूल लिख मारना उपन्यास-लेखक की अज्ञता या अल्पज्ञता का बोधक होता है। ऊपर एक लेखक के दो उपन्यासों का उल्लेख हुआ है। उनमें से एक की आलोचना में किसी समालोचक ने कोई कानूनी भूल बताई। लेखक ने या उनके किसी पक्ष समर्थक ने युक्ति-प्रपंच द्वारा उसके खंडन की चेष्टा कर डाली। पर इस तरह की चेष्टाओं से उपन्यास-लेखक की भूल पर धूल नहीं डाली जा सकती। जब तक पुस्तक विद्यमान है तब तक वह भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहेगी। जिस जुर्म के लिए आजकल के कानून जो सजा निर्दिष्ट है, उसके सिवा और कोई सजा चाहे वह उससे थोड़ी हो या बहुत दिलाने वाला उपन्यासकार स्वयं ही प्रतिकूल आलोचनारूप सजा का पात्र समझा जाएगा।
सो इतनी विघ्न-बाधाओं ओर कठिनाइयों के होते हुए, अच्छा उपन्यास लिख डालना सबका काम नहीं। उपन्यासकार को कल्पना के बल पर नई, पर सर्वदा स्वाभाविक सृष्टि की रचना करनी पड़ती है। बड़े परिताप की बात है कि इस इतने कठिन काम को आजकल कोड़ियों जैद और कोड़ियों बक धड़ाके के साथ कर रहे हैं। उनकी सृष्टि में कहीं तो मनुष्य देव या दानव बना दिया जाता है और कहीं कीट-पतंग से भी तुच्छ कर दिया जाता है। न उनकी भाषा का कुछ ठौर-ठिकाना, न उनके पात्रों की भाव-विवृति में संयमशीलता और स्वाभाविकता का कहीं पता, और न उनकी कहानी में चावल भर भी सदुपदेश देने का सामर्थ्य। अनेक उपन्यासों का उद्देश्य अच्छा होने पर भी, बीच-बीच, घटना-विस्तार और चरित्र-चित्रण से संबंध रखने वाली ऐसी-ऐसी भूलें हो जाती हैं, जिनके कारण विवेकशील पाठक के हृदय में विरक्ति हुए बिना नहीं रहती।
उपन्यास-रचना के संबंध में, हिंदी में तो, अभी कूड़े-कचरे ही का जमाना है। और आरंभ में प्रायः सभी भाषाओं के साहित्य में यह बात होती है। अँग्रेज़ी भाषा में तो अब तक चरित्र-नाशक उपन्यासों की रचना होती जाती है, पर उपन्यास कोई ऐसी-वैसी चीज़ नहीं। वह समय गया, जब उपन्यास दो घंटे दिल-बहलाव मात्र का साधन समझा जाता था। निकम्मे हुए बैठे हैं, लाओ कुछ पढ़ें। वक्त नहीं कटता, लाओ 'चपला' या 'चंचला' को ही देख जाएँ। उपन्यास जातीय जीवन का मुकुर होना चाहिए। उसकी सहायता से सामान्य नीति, राजनीति, सामाजिक समस्याएँ, शिक्षा, कृषि, वाणिज्य, धर्म, कर्म, विज्ञान आदि सभी विषयों के दृश्य दिखाए जा सकते हैं। उपन्यासों के द्वारा जितनी सरलता से शिक्षा दी जा सकती है, उतनी सरलता से और किसी तरह नहीं दी जा सकती। काव्यों और नाटकों की भी पहुँच जहाँ नहीं, वहाँ भी उपन्यास बेधड़क पहुँच सकते हैं। स्त्रियों और बच्चों के भी वे शिक्षक बन सकते हैं। मेहनत-मजदूरी करने वालों को भी वे घंटे भर सदुपदेश दे सकते हैं। लोगों को कहानी पढ़ने का जितना चाव होता है उतना और किसी विषय की पुस्तकें पढ़ने का नहीं होता। अतएव अच्छे उपन्यासों का लिखा जाना समाज के लिए विशेष कल्याणकारक है।
कुछ लोगों का ख़याल है कि सच्चा सामाजिक चित्र दिखाने में उपन्यासकार को संकोच न करना चाहिए। इस पर प्रार्थना है कि उपन्यास कोई इतिहास तो है नहीं और न वह कोई वैज्ञानिक रचना ही है, कि जो उसके सभी अंशों या अंगों पर विचार करने की ज़रुरत हो। फिर उसमें चोरों, डाकुओं, व्याभिचारियों, दुराचारियों आदि के चित्र दिखाने की क्या ज़रुरत? प्रसंग आ ही जाए तो इस तरह के चित्रों की विवृति ऐसे शब्दों से करनी चाहिए जिससे उनका असर पढ़ने वालों पर बुरा न पड़े। दोष समझकर उसकी विवृति करनी चाहिए। जो उपन्यास लेखक अश्लील दृश्य दिखाकर पाठकों के पाशविक विकारों की उत्तेजना करता है अथवा ऐसे चरित्रों के चित्र खींचता है जिनसे दुराचार की वृद्धि हो सकती है। वह समाज का शत्रु है, यदि वह इस तरह के उपन्यास केवल इस इरादे से लिखता और प्रकाशित करता है कि उनकी अधिक बिक्री से वह मालदार हो जाए तो वह गवर्नमेंट के न सही, समाज के द्वारा तो अवश्य ही बहुत बड़े दंड का पात्र है।
उपन्यास-रचना अब तो पश्चिमी देशों की कला की सीमा को पहुँच गई है। जो उपन्यासकार ऐसे उपन्यास की सृष्टि करता है जिसके पात्रों के चरित्र चिरकाल तक सदुपदेशक और समुदार शिक्षा देने की योग्यता रखते हैं, वही श्रेष्ठ उपन्यास-लेखक है। वह चाहे तो राजा से लेकर रंक तक को और मज़दूर से लेकर करोड़पति तक को कुछ का कुछ बना दे। वह चाहे तो बड़े-बड़े दुराचारों और कुसंस्कारों की जड़ें हिला दे। वह चाहे तो देश में अद्भुत जाग्रति उत्पन्न करके दुःशासन की भुजाओं को बेकार कर दे। जिस उपन्यासकार की रचना से समाज के किसी अल्प ही समुदाय को कुछ लाभ पहुँच सकता है, सो भी कुछ ही समय तक, वह मध्यम श्रेणी का लेखक है। निकृष्ट वह है जो अपनी कुरुचिवर्द्धक कृतियों से सामाजिक बंधनों को शिथिल और दुर्वासनाओं को और भी उच्छृंखल कर देता है। दुकानदारी ही की कुत्सित कामना से जो लोग पाठकों को पशुवत् समझकर, घास-पात सदृश अपनी बेसिर-पैर की कहानियाँ उनके सामने फेंकते हैं, ते के न जानीमहे।
- पुस्तक : साहित्य संदर्भ (पृष्ठ 18)
- रचनाकार : महावीर प्रसाद द्विवेदी
- संस्करण : 1922
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