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उपन्यास के उपकरण

upanyas ke upkarn

रामअवध द्विवेदी

रामअवध द्विवेदी

उपन्यास के उपकरण

रामअवध द्विवेदी

और अधिकरामअवध द्विवेदी

    उपन्यास की समीक्षा तथा उसके स्वरूप-निर्धारण के प्रयत्न अधिक नवीन हैं। काव्य के संबंध में देश और विदेश में दो हज़ार वर्ष से भी अधिक हुए जब चिंतन तथा विवेचन प्रारंभ हो गया था, किंतु उपन्यास की कला तथा उसके मूलगत सिद्धांतों पर सम्यक विचार पिछले सौ वर्षों में ही हुआ है। अब तक विचारकों ने एकमत होकर ऐसे नियम प्रस्तुत नहीं किए हैं जो सर्वमान्य हों। सच तो यह है कि उपन्यास एक ऐसा साहित्य-रूप है जो बंधनों की उपेक्षा करने में ही अपनी सार्थकता मानता है क्योंकि वह एक निर्बंध जीवन के आधार पर ही निर्मित हुआ है। अतएव उपन्यास के मूल तत्त्वों का विवेचन सरल नहीं है और उनकी सर्वमान्यता के संबंध में अधिक आग्रह ही किया जाना चाहिए। उनका मूल्य केवल इस बात में है कि हम इनके सहारे उपन्यास के स्वभाव, स्वरूप तथा निर्माण पद्धति तो किसी अंश में समझ सकते हैं।

    उपन्यास और यथार्थ जीवन का घनिष्ठ संबंध है। गतिमान प्रवाह युक्त यथार्थ मानव-जीवन ही उपन्यास-लेखक को सामग्री प्रदान करता है और उपन्यास बहुत अंशों में इसी जीवन की अनुकृति है। जिस प्रकार कोई यात्री मार्ग पर किनारों के दृश्यों को देखता हुआ अग्रसर होता है उसी भाँति काल के अविरल प्रवाह में जीवन क्षण-क्षण आगे बढ़ता जाता है। जीवन में प्रगति है और साथ-ही-साथ विस्तार भी, किंतु प्रगति ही उसका विशिष्ट धर्म है। उपन्यास भी इसी प्रकार एक चित्र उपस्थित करता है जो पल-पल बदलता रहता है और नए रंग, नए रूप, नवीन दृश्य सामने प्रस्तुत करता है। जब हम उपन्यास और नाटक की तुलना करते हैं तब यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। नाटक भी जीवन का अनुकरण करता है, किंतु उसका अनुकरण अधिक कृत्रिम तथा सीमित है। जीवन के अंश तथा परिस्थितियों को लेकर वह उन्हें साँचे में ढालकर सदा के लिए बाँध देता है। उसमें प्रगति केवल इस बात में सीमित है कि कथावस्तु एक अवस्था से विकसित होकर दूसरी अवस्था तक पहुँच जाती है। नियमों के बंधन भी अधिक जटिल तथा कठोर हैं जो नाटक की स्वतंत्रता का अपहरण करते हैं। स्टेंडल ने उपन्यास की तुलना किसी राजमार्ग पर स्वतः अग्रसर होते हुए विशाल दर्पण से की है जिसमें प्रतिक्षण यथार्थ जीवन की छाया पड़ती रहती है। यह तुलना अत्यंत समीचीन है, यह बात अनेक उपन्यासों में यथातथ्य निरूपण की प्रवृत्ति से भी सिद्ध होती है। जोला ने प्रयोगशील उपन्यासों के वास्तविक जीवन से अधिक-से-अधिक तथ्यों को एकत्रित करने तथा उनके उपयोग की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। यद्यपि परवर्ती काल में थोड़े ही लोगों ने जोला के मार्ग का अनुसरण किया तथापि आज उपन्यास के लिए जीवन के वास्तविक तथ्यों का महत्त्व सभी मानते हैं। ऐसी कथाएँ जिनका ढाँचा यथार्थ जीवन की नींव पर खड़ा नहीं किया गया है और जिनमें केवल कल्पना और भावना का बाहूल्य है, रोमांस अथवा किसी अन्य नाम से अभिहित होती हैं, उपन्यास की संज्ञा उन्हें नहीं मिलती।

    उपन्यास कला है, अतएव जीवन की अनुकृति होने के अतिरिक्त उसमें किसी-न-किसी अंश में निर्माण-सौष्ठव का रहना आवश्यक है। उपन्यासकार एक खाका खींचकर जीवन को रेखाओं के भीतर बाँधना चाहता है। यदि वह ऐसा करे तो एक विशिष्ट चित्र तैयार हो। यथार्थ को सीमाओं के भीतर बाँधने पर ही उसका स्वरूप निखरकर और सार्थक होकर सामने आता है। यह सच है कि उपन्यास में जीवन इतनी शक्ति और तीव्रता के साथ प्रवाहित होता है कि उसके लिए कलाकार द्वारा निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन करना स्वाभाविक है। सीमा रेखाएँ जीवन के प्रवाह के कारण नित्य धूमिल होती तथा मिटती रहती हैं, किंतु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि उनका प्रयोजन नहीं है। सिद्ध केवल यह होता है कि उपन्यास से संबंधित निर्माण के नियम उतनी ही कड़ाई से लागू नहीं किए जा सकते जितने अन्य साहित्य रूपों के। आकृति अथवा रूप-वैशिष्ट्य का होना केवल वांछनीय ही नहीं वरन् अनिवार्य है। उसके अभाव में जीवन के कोरे वर्णन-मात्र को हम उपन्यास नहीं कह सकते; उसमें सौंदर्य होगा और रोचकता होगी। जीवन और रूप वैशिष्टय के मिश्रण से ही उपन्यास का रूप खड़ा होता है। यह कहना कठिन है कि इनमें किसका महत्त्व अधिक है, किंतु यह तो स्पष्ट ही है कि दोनों के पारस्परिक संबंध में पर्याप्त स्वतंत्रता तथा रूढ़ियों के बंधन से मुक्त रहने की क्षमता निहित है। साधारणतया जीवन और कला के अविच्छिन्न संबंध को हम उपन्यासों में सरलतापूर्वक देख सकते हैं। स्वरूप के आधार पर इनका विभाजन भी हुआ है और निर्माण-पद्धति के आधार पर किसी को नाटकों के निकट और किसी को महाकाव्यों के निकट बताया गया है, किंतु विश्व-साहित्य में कुछ ऐसे उपन्यास भी मिलते हैं जिनमें वैयक्तिक और सामाजिक-जीवन का इतना विशाल भाग समाविष्ट किया गया है कि साधारण पाठकों के लिए सीमा-रेखाओं का ग्रहण करना कठिन हो जाता है। उदाहरणार्थ हम बालजाक-लिखित 'कॉमेडी घुमाइन' अथवा टॉलस्टाय रचित ‘वॉर एंड पीस' को ले सकते हैं। प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास 'रंगभूमि' भी इस श्रेणी का उपन्यास है। तब भी जानकार पाठक निरीक्षण द्वारा इन वृहद् उपन्यासों के बाहरी खाके को समझ सकते हैं। इन कृतियों की महानता इसमें है कि उनकी ससीम परिधि में असीम जीवन को भर दिया गया है।

    उपन्यास का स्वरूप जिस प्रकार निर्धारित होता है, इसके संबंध में नवीन युग के विचारकों ने कई प्रकार के मत प्रकट किए हैं। कतिपय साहित्य मर्मज्ञों का विचार है कि किसी उपन्यास का स्वरूप उसकी आंतरिक प्रक्रिया अर्थात् परिस्थिति, घटना, चरित्र के पारस्परिक संबंध तथा इस संबंध के विकास के आधार पर बनता है। कुछ अन्य विचारक इससे भिन्न मत रखते हैं। उनकी धारणा है कि किसी उपन्यास का आकार अथवा पैटर्न बाह्य प्रभावों के आघात-प्रत्याघात के निरूपित होता है। अमेरिका में नवीन विचारकों का एक संप्रदाय है जिसने अपने मत को व्यक्त करने के लिए विज्ञान का सहारा लिया है। प्राकृतिक प्रभावों से जिस भाँति समुद्र के रेत अथवा पहाड़ की शिलाओं पर चित्र बन जाते हैं उसी तरह सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों तथा प्रभावों के फलस्वरूप किसी काव्य-रूप का वास्तविक स्वरूप भी निर्धारित होता है। मध्य-युग में जब सामंतशाही सामाजिक विधान का ढाँचा, सुदृढ़ बंधनों से विविध अवयवों को बाँधकर एक पिरामिड की तरह खड़ा था, उस समय महाकाव्यों का प्रचलन तथा विकास स्वाभाविक था; क्योंकि विशालता, दृढ़ता तथा निर्माण-कौशल की दृष्टि से सामंतशाही सामाजिक व्यवस्था तथा महाकाव्य के आकार-प्रकार में पर्याप्त साम्य सामंतशाही के अंत होने पर समाज का ढाँचा ढीला हो गया तथा उसके विविध अवयव बिखर उठे। अतएव उपन्यासों का आविर्भाव हुआ, जिसके स्वरूप तथा आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में पर्याप्त साम्य है। दोनों में ही नियमों के बंधन होते हुए भी पर्याप्त स्वतंत्रता अवशिष्ट रह जाती है। इसी बात को ध्यान में रखकर कुछ लोग उपन्यास को वर्तमान-युग का महाकाव्य कहते हैं। सूक्ष्म अध्ययन यह भी सिद्ध होता है कि पूँजीवाद का विकास, उसका पतन अथवा विघटन सभी अवस्थाओं पर उपन्यास प्रतिरूप रहा है और उसके स्वरूप में निरंतर परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन होता आया है।

    उपन्यास के प्रमुख उपकरण हैं कथावस्तु, चरित्र, कथोपकथन तथा वर्णन। कथा का सूत्र प्रारंभ से अंत तक धारावाहिक रूप से बढ़ता चलता है। घटना-क्रम के अतिरिक्त परिस्थितियों तथा दृश्यों का भी दिग्दर्शन होता रहता है। कथा सरिता की धारा के समान है और उन परिस्थितियों की, जिनके बीच से होकर यह धारा अग्रसर होती है, हम सरिता के दोनों किनारों से तुलना कर सकते हैं। उपन्यास में वैयक्तिक जीवन का निरूपण सामाजिक अथवा जातीय जीवन को पृष्ठभूमि बनाकर होता है। अतएव उसमें कल्पना के यथार्थ का मेल अनिवार्य है। इस प्रकार के उपन्यास हमें प्राचीन महाकाव्यों का स्मरण दिलाते हैं, जिनमें जातीय जीवन की पीठिका सदैव विद्यमान रहती थी। कुछ ऐसे उपन्यास हैं जिनको चरित्र-प्रधान कहा जाता है। उनका यह नाम अधिक सार्थक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि ऐसे उपन्यासों में चरित्र का विकास नहीं होता, केवल क्षेत्र अथवा वातावरण का निरंतर विस्तार होता है। सतत परिवर्तनशील तथा वर्धनशील वातावरण में स्थित अपरिवर्तनशील पात्र निर्जीव मालूम पड़ते हैं। अथवा परिस्थितियों में निहित द्वंद्व के कारण उनमें कभी-कभी जीवन का आभास-मात्र मिलता है। अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध उपन्यासकार ‘सर वाल्टर स्कॉट' के कतिपय उपन्यासों में महाकाव्य-शैली तथा चरित्र-प्रधान शैली का सुदंर समन्वय मिलता है। सबसे सफल निर्माण-पद्धति नाटकीय उपन्यासों की है, जिनमें क्रिया-क्षेत्र सीमित तथा स्थिर रहता है; किंतु परिधि के भीतर परिस्थिति और चरित्र के घात-प्रतिघात से कथा का सतत विकास होता रहता है। चरित्र भी नाटक के पात्रों के समान सजीव एवं क्रियाशील होते हैं और परिस्थितियों के अनुकूल ही उनके स्वभाव में परिवर्तन होता रहता है। 'जेन ऑस्टेन' और 'मेरेडिथ' के उपन्यासों में नाटकीय शैली का अच्छा उपयोग हुआ है। कुछ विचारकों ने उपन्यास के पात्रों का, चरित्र-चित्रण की पद्धति के अनुसार दो श्रेणियों में विभाजन किया है। पहली कोटि के वे पात्र हैं जिनमें सजीवता के सभी चिह्न मिलते हैं। इस प्रकार के जीवित पात्रों को 'राउंड' अथवा 'गोल' तथा इसके विपरीत दूसरी श्रेणी के अपूर्ण रूप वो जीवन के स्पंदन से रहित पात्रों को ‘फ्लैट' अथवा 'चपटा' कहा गया है। कथोपकथन का उपयोग सभी उपन्यासों में होता है, किंतु नाटकीय शैली के उपन्यासों में उनका विशेष महत्त्व है। कला की दृष्टि से यह आवश्यक है कि कथोपकथन पात्रों के चरित्र-वैशिष्ट्य के अनुकूल हो और उसमें गति हो। चरित्र का स्पष्टीकरण पात्र जो कुछ कहते अथवा करते हैं उसी से होता है। इस दृष्टि से चरित्र-चित्रण और कथोपकथन का घनिष्ठ संबंध है। वार्तालाप में चुस्ती रहने से केवल कथा के प्रवाह को सहायता मिलती वरन् उपन्यास की रोचकता में भी अभिवृद्धि होती है। उपन्यासों में वर्णनों की उपादेयता विवादग्रस्त है। पाश्चात्य उपन्यासों की प्राचीन परिपाटी के अनुसार विस्तृत वर्णनों द्वारा उपन्यासों को सजाया जाता था। हिंदी के उपन्यासों में यह प्रवृत्ति कुछ दिन पहले अत्यंत बलवती थी, किंतु अब भी कुछ उपन्यासकार अपनी कृतियों में लंबे वर्णनों का समावेश करते हैं। वातावरण के निर्माण में उनसे सहायता अवश्य मिलती है, किंतु सफल लेखकों द्वारा इस उद्देश्यों की सिद्धि छोटे किंतु उपयुक्त वर्णनों द्वारा सरलतापूर्वक हो जाती है। प्रसिद्ध विचारक लेसिंग ने इस बात का संकेत किया है कि काव्य के गतिशील स्वभाव तथा वर्णनों के स्थिर स्वरूप में तात्त्विक विरोध है। इन उपकरणों के अतिरिक्त उपन्यास में कभी-कभी विशिष्ट वातारण के निर्माण के लिए स्थानीय तथ्यों, पात्रों तथा घटनाओं आदि का अंकन किया जाता है, जिससे स्थान-विशेष तथा उसके जीवन का रूप खड़ा हो जाता है।

    अमरीकन उपन्यासकार हेनरी जेम्स ने एक स्थल पर लिखा है कि उपन्यास के केवल दो ही प्रकार हो सकते हैं, जीवंत उपन्यास तथा जीवन-रहित उपन्यास। जीवन-रहित उपन्यास से उन असफल उपन्यासों की ओर संकेत है जो अगणित संख्या में नित्य-प्रति प्रकाशित होते रहते हैं, किंतु जिनमें कला का चमत्कार नहीं मिलता। जीवंत उपन्यासों की समानता जीवित प्राणियों से है, जिनको हम विविध अंगों का संकलन-मात्र नहीं मान सकते। यह मानना कि उपन्यास के विभिन्न अंग जैसे कथावस्तु, चरित्र, कथोपकथन इत्यादि एक-दूसरे से पृथक अथवा विरोधी तत्त्वों की भाँति उपन्यास के भीतर रहते हैं, केवल भ्रम-मात्र है। वास्तव में विश्लेषण द्वारा उनको एक-दूसरे से अलग कर देना असंभव है। एक साथ रहकर और एक-दूसरे के सहयोग से वे उपन्यास के जीवंत रूप को प्रस्तुत करते हैं। ऐसी कथावस्तु की कल्पना, जिसमें चरित्र का अंश हो, हम नहीं कर सकते। घटनाक्रम में पात्रों के संकलन-विकल्प प्रच्छन्न रूप से निहित रहते हैं। कथोपकथन में वर्णन का अंश रहता है और उससे चरित्र-चित्रण और वस्तु-विन्यास दोनों को सहारा मिलता है। अभिप्राय यह है कि उपन्यास के जिन विविध उपकरणों का हमने ऊपर उल्लेख किया है वे सभी एक-दूसरे से अभिन्न रूप से संबद्ध हैं और सभी मिलाकर उपन्यास के प्रभाव-एक्य के अभीष्ट की सिद्धि के लिए संलग्न रहते हैं। उपन्यासकार के लिए उपलब्ध साधनों की सहायता से उपन्यास का सजीव रूप प्रस्तुत कर देना ही सबसे प्रमुख ध्येय है। इस कार्य में उसको अपने निजी अनुभव से बहुत बड़ी सहायता मिलती है। अनुभव क्या है यह कहना अत्यंत कठिन है; किंतु यह निर्विवाद ही है कि केवल ज्ञानेंद्रियों द्वारा बाह्य तथ्यों के ग्रहण करने को ही अनुभव नहीं कहते; विचार और कल्पना द्वारा पदार्थों तथा घटनाओं के आंतरिक संबंध का ज्ञान भी अनुभव का अनिवार्य अंग है। इसी भाँति बीती बातों का स्मरण अथवा भावी संभावनाओं की कल्पना यह सब भी अनुभव से अलग नहीं किए जा सकते। अनुभव के सहारे ही उपन्यास-लेखक यथार्थ जीवन से अपना तादात्म्य स्थापित करता है और पुनः अपने ज्ञान को अपनी कृतियों में समाविष्ट करता है। उपन्यास की यह एक विशेषता है कि उसमें उपन्यासकार के तीव्र व्यक्तिगत अनुभव का समावेश मिलता है। अन्य साहित्य-रूपों में नियमों के बंधन के कारण इस व्यक्तिगत अनुभव की तीव्रता कम हो जाती है और उसका क्षेत्र सीमित हो जाता है, किंतु जैसा ऊपर लिख आए हैं उपन्यास अपेक्षाकृत उन्मुक्त वातावरण में विकसित होता है, अतएव कलाकार की भावनाओं और अनुभवों का वास्तविक रूप सामने आता है।

    उपन्यास की धारणा में लेखक के अभिप्राय और प्रयोजन का भी हाथ रहता है। उपन्यास-लेखन का सर्वमान्य प्रयोजन तो पाठकों का मनोविनोद करना है। यदि उपन्यास रुचिकर नहीं है तो गूढ़ विचारों के रहते हुए भी वह लोकप्रिय एवं सफल बन सकेगा। साहित्य होने के कारण सुरुचि संपन्न पाठकों के मन पर उतना प्रभाव पड़ना आवश्यक है, अन्यथा वह अपने अपेक्षित धर्म से च्युत माना जाएगा। इसके अतिरिक्त लेखक का अन्य अभिप्राय भी होता है, जिसके अनुसार वह अपनी रचना का स्वरूप निर्मित करता है। इस प्रकार उद्देश्य तथा शैली एक-दूसरे से नितांत अभिन्न हैं। एक-दो उदाहरणों द्वारा हम अपनी बात को अधिक स्पष्ट करेंगे। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में जोला तथा उनके उपरांत मोपासाँ-प्रभृति उनके अनुयायियों ने यह घोषित किया कि उपन्यास का चरम उद्देश्य जीवन के एक खंड को बिना किसी परिवर्तन के जनता के सम्मुख प्रस्तुत करना है। इसी अभिप्राय से प्रेरित होकर इस समुदाय के लेखकों ने अनेक उपन्यास लिखे, जिनमें बहुसंख्यक छोटे-बड़े तथ्यों की सहायता से जीवन का यथातथ्य निरूपण हुआ। कुछ वर्षों के पश्चात कतिपय ऐसे लेखक फ्रांस तथा इंग्लैंड में हुए जिन्होंने भौतिक तत्त्वों को नगण्य तथा निष्प्रयोजन बतलाकर सतत प्रवाहित होने वाली चेतना की अविरल धारा को सबसे अधिक महत्त्व दिया। इस धारा में उठने वाली ऊर्मियों तथा बुदबुदों को उपन्यास में अंकित करना, उन्होंने उपन्यासकार का उच्चतम कर्तव्य माना। मानसिक क्रियाओं तथा आवेगों की अभिव्यक्ति पर इतना अधिक आग्रह हुआ कि स्थूल भौतिक जीवन तथा परंपरागत कला के नियमों की पूर्ण अवहेलना होने लगी। प्रूस्त तथा जेम्स ज्वायस आदि उपन्यास-लेखकों ने चेतन तथा अवचेतन मन की क्रियाओं पर आधारित अपनी नवीन तथा स्वतंत्र रचनाओं द्वारा उपन्यास-रचना के क्षेत्र में नया आदर्श उपस्थित कर दिया है। यह बात ध्यान देने की है कि प्रयोजन के साथ-ही-साथ निर्माण-पद्धति में भी परिवर्तन लक्षित हुआ। यही बात उन उपन्यासों से भी सिद्ध होती है जिनमें सामाजिक प्रभावों का निरूपण तथा सामाजिक विधान की आलोचना का उद्देश्य स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। वर्तमान युग के अनेक उपन्यासों में दलित तथा शोषित वर्ग की कल्पना धीरोदात्त नायक के रूप में हुई है तथा अभिजात वर्ग के शोषणकर्ता अत्यंत हेय तथा गर्हित रूप में चित्रित हुए हैं। कथावस्तु का विकास अधिकांश वर्ग-संघर्ष द्वारा होता है। इस बात के अन्य भी अधिक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं कि उपन्यास-लेखन की कला सोद्देश्य है और सदैव उद्देश्य तथा अभिप्राय से रचना को केवल एकरूपता मिलती है वरन् बहुत-कुछ उसका स्वरूप भी निर्धारित होता है।

    उपन्यास अनेक प्रकार के होते हैं और यह वैविध्य समृद्धि का सूचक है। उपन्यासों का विभाजन विषय, शैली तथा स्वरूप के आधार पर अनेक प्रकार से किया जा सकता है। ऐतिहासिक उपन्यास कल्पना और यथार्थ के मिश्रण द्वारा अतीत के चित्र उपस्थित करते हैं। उनसे केवल बीते दिनों की जानकारी ही नहीं बढ़ती अपितु समय के उस प्रवाह का पता भी चलता है जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य को एक सूत्र में बाँधता है। ऐतिहासिक उपन्यास वर्तमान से हटकर प्राचीन युगों में काल्पनिक पलायन के प्रयोजन से नहीं लिखे जाते। मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के संबंध में हम ऊपर कुछ लिख चुके हैं। बहुत दिनों तक उनका प्रचलन बहुत बढ़ा हुआ था, किंतु गत दस वर्षों में विभिन्न देशों के रुचि-परिवर्तन के कारण लोग पुनः ऐसे उपन्यासों की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं जिनमें साधारण ढंग से रोचक कथा कहीं जाती है। ऐसे उपन्यासों में जीवन की सहज अभिव्यक्ति होने के साथ-साथ जटिलता एवं दुरूहता का अभाव रहता है। बनावट एवं स्वरूप की दृष्टि से भेद करने पर कुछ ऐसे उपन्यास मिलते हैं जो अत्यंत सुगठित होते हैं, और कुछ अन्य ऐसे जिनके विभिन्न अवयव एक-दूसरे से केवल ढीली तरह जुड़े होते हैं। हम यहाँ उपन्यासों का विभाजन नहीं करना चाहते, केवल उनकी विविधता की ओर ध्यान आकृष्ट करना ही हमारा लक्ष्य है। वास्तविक जीवन के अत्यधिक निकट होने के कारण ही उपन्यास में इतनी विविधता का समावेश हो सकता है और इसी में उसकी विशेषता तथा गौरव है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आलोचना (पृष्ठ 100)
    • रचनाकार : रामअवध द्विवेदी
    • संस्करण : अक्टूबर 1954
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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