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रामचंद्रिका के संबंध में कुछ ज्ञातव्य बातें

ramchandrika ke sambandh mein kuch gyatavya baten

कन्हैयालाल सहल

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रामचंद्रिका के संबंध में कुछ ज्ञातव्य बातें

कन्हैयालाल सहल

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    ‘रामचंद्रिका’ की भाषा यद्यपि ब्रजभाषा है किंतु उसमे बुंदेलखंडी का पुट स्थान-स्थान पर मिलता है। जैसे—

    (1) राम देखि रघुनाथ, रथ ते उत्तरे वेगि दै।

    ‘शीघ्रता से’ के अर्थ में ‘वेगि दै’ बुंदेलखंडी प्रयोग है। ज़ोर के लिए ‘दे’ का प्रयोग राजस्थानी में भी देखा जाता है। जैसे ‘धम्मदे पड़यो’ अर्थात् धम से गिर पड़ा। ‘धम्म’ अनुकरण-शब्द है।

    (2) आनंद प्रकाशी सब पुरवासी करत ते दौरा दौरी।

    अर्थात् आनंद प्रकाशित करने वाले समस्त पुरवासी जन दौड़-धूप कर रहे थे। ‘करते थे’ के अर्थ में ‘करत ते’ बुंदेलखंडी प्रयोग है।

    (3) रामचंद्र कटि सों पटु बांध्यो। लीलयेव हर को धनु सांध्यो॥

    ‘कटि सों पटु बाँध्यो’ यह बुंदेलखंडी मुहावरा है।

    केशव का शब्द चयन सर्वत्र उपयुक्त नहीं हुआ है। कुछ उदाहरण लीजिए—

    “(राजा जनक भोजन के लिए निमंत्रण देते हैं) यदि आप हृदय से मुझे अपना दास समझते हो तो मैं निवेदन करता हूँ कि जिस प्रकार आपने कल कष्ट उठाया है (कृपा करके मेरे महल तक गए हैं) उसी प्रकार आज भी कष्ट उठाइए। आप अवश्य कृपा करेंगे ऐसा समझकर ही मैंने यह ढिठाई की है, हम लोग (परिवार समेत) आपका चरणोदक लेना चाहते हैं।” इसके बाद कवि की उक्ति है—

    (क) जब ऋषिराज विनय कर लीनों। 
    सुनि सबके करुणा रस भीनो॥

    यहाँ शोक का कोई प्रसंग न होने के कारण करुण रस का प्रयोग ठीक नहीं है। पूर्ववर्ती प्रसंग का हमें ज्ञान न हो और इन दो पंक्तियों का ही स्वतंत्र रूप से हम अर्थ करने लगें तो हम अवश्य ही यह सोचेंगे कि ‘ऋषिराज’ की विनय किसी करुण प्रसंग को लेकर ही हुई होगी।

    (ख)प्रचंड हैहयाधिराज दंडमान जानिये।
    अखंड कीर्त्ति लेय भूमि देयमान मानिए॥
    अदेव देव जेय भीत रक्षमान लेखिए।
    अमेय तेज भर्ग भक्त भार्गवेश देखिए॥

    उक्त पंक्तियों में दंडमान, देयमान, जेय और रक्षमान क्रमश: दंड देने बाले, दाता, जीतने वाले और रक्षा करने वाले—इन अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं किंतु विज्ञ पाठक समझ सकते हैं कि इस प्रकार के प्रयोग अजीब-से ही हैं। दंडमान (सं. शानच्) का अर्थ होता है ‘दंड देता हुआ।’ किंतु यहाँ ‘दंडमान’ दंड देने वाले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ‘दंडमान’ के सादृश्य पर ‘देयमान’ शब्द गढ़ लिया गया है, व्याकरण के नियमानुसार तो ‘ददत्’ अथवा ‘ददान’ शब्द निष्पन्न होता है। ‘जेय’ शब्द का अर्थ है ‘जो जीतने योग्य हो, जीता जा सके’ किंतु स्व. लाला भगवान दीनजी के मतानुसार ‘जेय’ शब्द का यहाँ अर्थ है (जेयमान) अर्थात् जीतने वाले। हम यह भी कह सकते हैं कि “परशुराम के लिए अदेव और देव दोनों जेय हैं।”

     

    साहित्यदर्पणकार ने ‘अवाचकत्व’ दोष का वर्णन करते हुए इस प्रकार के प्रयोगों को काव्य दोष में शामिल किया है। एक उदाहरण लीजिए—

    वर्ण्यतं किं महासेनो विजेयो यस्य तारक।”

    “अर्थात् उस कार्तिकेय का क्या वर्णन किया जाए जिसके लिए तारकासुर विजेय है। ‘विजेय’ का अर्थ ‘विजित’ नहीं होता किंतु उक्त पंक्ति में ‘विजित’ के अर्थ में ही ‘विजेय’ का प्रयोग हुआ है। इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने कहा है—

    “अत्र विजेय इति कृत्य प्रत्यय क्तप्रत्यार्थेऽवाचक।”

    अर्थात् यहाँ ‘विजेय’ पद में ‘क्त’ प्रत्यय के अर्थ में यत् (अचो यत्) प्रत्यय का प्रयोग किया गया है, अत: पदांशगत ‘अवाचकत्व’ है। ऊपर दिए हुए उदाहरण में केशव ने ‘दंडमान’ का प्रयोग दंड देने वाले के अर्थ में किया है, नीचे दिए हुए पद्य में ‘दंडनीय अथवा दंड्य’ के अर्थ में ‘दंडमान’ शब्द का प्रयोग हुआ है—

    विचारमान ब्रह्म, देव अर्चमान मानिए।
    अदीयमान दु:ख, सुक्ख दीयमान जानिए॥
    अदण्डमान दीन, गर्व दंडमान भेद वै।
    अपट्ठमान पापग्रंथ, पटडमान वेद वै॥

    छंद की पूर्ति के लिए ‘निश्चय ही’ के अर्थ में विशुद्ध संस्कृत अव्यय ‘वै’ का प्रयोग भी द्रष्टव्य है।

     

    कहीं-कहीं केशव ने मनमाने अर्थ में शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे,

    “ईश-ईश जगदीश बखान्यो। वेदवाक्य बल ते पहिचान्यो।”

    अर्थात् भरत जी कहते हैं कि जो नीति मैंने ऊपर कही है, वह मेरी गढ़ी नीति नहीं है, वह ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के वचन हैं। वेद में ऐसा ही लिखा है और मैंने पढ़ा है। टीकाकार के मतानुसार जान पड़ता है कि ‘ईश-ईश जगदीश’ ये तीनों शब्द ब्रह्मा, विष्णु, महेश के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं किंतु नहीं कहा जा सकता इन प्रयोगों के लिए कोई शास्त्रीय अथवा अन्य आधार है अथवा नहीं।

    “भरत जाय भागीरथी तीर कर्यो संकल्प।”

    जब हम पढ़ते हैं—“चले दशग्रीवहि मारिबे को। तपी व्रती केवल पारिबे को।” तो कथा प्रसंग से ‘पारिबे को’ का अर्थ हम ‘पालन करने के लिए’ ही करते हैं किंतु ‘पारिबे को’ में उखाड़ डालने की भी ध्वनि है जिससे इस शब्द का प्रयोग यहाँ उतना समीचीन नहीं जान पड़ता—

    “रुरे बगरूरे” में केवल यमक के लिए ‘रूरे’ का प्रयोग हुआ जान पड़ता है। निम्नलिखित पंक्ति में ‘पतिदेवन’ का यह बहुब्रीहि-प्रयोग भी देखते ही बनता है जहाँ ‘पतिदेवन’ का अर्थ हो गया है ‘पतिव्रता स्त्रियाँ’ (अर्थात् पति ही हैं देवता जिनके लिए)—

    “माना पतिदेवन की रति सी। सनमारग की समझौ गति सी॥”

    अर्थात् इस शरद ऋतु को पतिव्रता स्त्रियों के सच्चे प्रेम के समान मानो, क्योंकि जैसे उनके प्रेम से स्वस्वामि-भक्ति रूपी सन्मार्ग की चाल से औरों को सन्मार्ग पर चलने की चाल सूझ पड़ती है, वैसे ही इस शरद के आने से सब रास्ते सूझ पड़ने लगे।

    नीचे की पंक्ति में ‘चंद्रानन’ को मिला कर रख देने से देखिए, किस प्रकार समास-दोष उत्पन्न हो गया है—

    “दंतावली कुंद समान गनो। चंद्रानन कुंतल भौर घनो॥”

    अर्थात् गर्वीले कुंद पुष्प ही शरद सुंदरी के दाँत समझो, चंद्रमा को ही मुख और भ्रमर समूह को केश मानो। ‘चंद्र’ और ‘आनन’ अलग-अलग रहने चाहिए थे। प्रथम बार पढ़ने पर तो ‘समान’ शब्द ‘सदृश’ के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ हो, ऐसा लगता है किंतु मान सहित अर्थात् ‘गर्वीला’ अर्थ करने पर उपमा’ रूपक में परिणत हो जाती है।

     

    व्याकरण विरुद्ध प्रयोगों की भी ‘रामचन्द्रिका’ में कमी नहीं है। जैसे,

    “आनि भरत पुरी अवलोकी। थावर जंगम जीव ससोकी।”

    ‘निर्दयी’ जैसे शब्दों का प्रयोग व्याकरण-विरुद्ध भले ही हो किंतु फिर भी ये शब्द चल पड़े हैं किंतु ‘सदयी’ और ‘ससोकी’ जैसे शब्द व्याकरण-विरुद्ध तो हैं ही, अप्रचलित भी हैं।

     

    संस्कृत और फ़ारसी के शब्दों को मिलाकर भी कहीं-कहीं केशव ने समासांत शब्द बनाए हैं जैसे,

    “लंक लगाइ दई हनुमंत विमान बचे अति उच्चरुखी है।”

     

    ‘उच्चरुखी’ में ‘उच्च’ संस्कृत तथा ‘रुख’ फ़ारसी शब्द है। भाषा में इस हिंदू-मुसलिम ऐक्य की ओर हमारा ध्यान गए बिना नहीं रहता। गोस्वामी जी ने भी ‘शरीकता और मिस्कीनता’ का प्रयोग किया है।

     

    ब्रज-भाषा में सप्तमी विभक्ति के ‘मे’ ‘पै’ का लोप बहुत अधिक होता है, तृतीया की विभक्ति भी अनेक बार लुप्त रहती है। नीचे की पंक्ति में ‘रन’ के साथ ‘में’ का लोप द्रष्टव्य है—
    “रन मारि अक्ष कुमार यहु विधि इंद्रजित सौं युद्ध कै।”

    ‘रामचंद्रिका’ में अनेक स्थानों पर शब्दों के प्राचीन रूप भी व्यवहृत हुए हैं। जैसे,

    (क) विनती करिये जन ज्यों जिय लेखो।

    इस पंक्ति में प्रयुक्त ‘विनती करिए’ का का अर्थ यह नहीं है कि आप विनय कीजिए, अर्थ है, विनती की जाती है, अर्थात् मैं विनय करता हूँ। ‘करिए’ का इस अर्थ में यह बहुत प्राचीन प्रयोग है। अब यह ‘विधि’ में आता है।

    (ख) कछु मैं न जानी बात। कब तोरियो धनु तात। में ‘तोरियो’ भूतकाल का प्राचीन रूप है। अब ‘तोर्यो’ ‘तोरो’—ये रूप प्रयुक्त होते हैं।

    (ग) कर्मकारक में प्रयुक्त इस ‘हम’ को भी देखिए—

    “सुनि राजपुत्रिके एक बात। हम वन पठये हैं नृपति तात।”

    परवर्ती वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि हमने तात को वन में भेजा है, अर्थ यह है कि ‘हमको पिता ने वन में भेजा है।’ ‘हम्म’ प्राचीन रूप है। पहले सब कारकों में ‘हि’ का प्रयोग होता था। ‘फल भोजन को तेहि घरे आानि।’ अर्थात् उसने भोजनार्थ फल लाकर रख दिए। यहाँ ‘तेहि’ कर्त्ताकारक है। सब कारकों के साथ ‘हि’ प्रयोग के उदाहरण भी ढूँढ़ने पर मिल सकते हैं किंतु विस्तार भय से उदाहरण नहीं दिए जा रहे हैं।

     

    कहीं-कहीं अप्रचलित अर्थ वाले शब्दों के प्रयोग के कारण भी केशव की भाषा में दुरुहता आ गई है। उदाहरणार्थ—

    “अति उच्च अगारनि बनी पगारनि जनु चिंतामणि-नारि।”

    अर्थात् ऊँचे मकानों पर चहारदीवारी बनी हैं मानो चिंतामणियों का समूह हो। ‘नारी’ शब्द समूह के अर्थ में यहाँ प्रयुक्त हुआ है।

     

    ध्वनि के अच्छे उदाहरण कहीं-कहीं ‘रामचंद्रिका’ में मिल जाते हैं। जैसे—

    “सीताजी के रूप पर देवता कुरूप को हैं?” अर्थात् सीताजी के रूप के सामने कुरूप देवता क्या चीज़ है? देवताओं को कुरूप कहने में ध्वनि शायद यह है कि देवताओं में किसी के चार मुख हैं, किसी के पाँच मुख हैं और किसी के हाथी जैसा ही मुख है। देवताओं जैसा रूप अद्भुत और डरावना तो हो सकता है, उसमें सीता के सौंदर्य जैसा मानवी सौंदर्य कहाँ?

    ध्वनि का एक उदाहरण और लीजिए—

    बर बाण शिखीन अशेष समुद्रहि सोखि सखा सुखही तरिहौं।
    अरु लंकहि औटि कलंकित के पुनि पंक कनंकहि की भरिहौं॥
    भलि भूंजिकै राखसुखै करिकै दुख दीरघ देवन के हरिहौं।
    सितकंठ के कंठहि को कठुला दसकंठ के कंठन को करिहौं॥

    अर्थात् हे सखा कुठार! मैं अग्नि बाणों से समस्त समुद्र को सुखा कर सहज ही में उस पार चला जाऊँगा और उस कलंकी (अपराधी) रावण की लंका को पिघला कर पुन: समुद्र को सोने की कीच से भर दूँगा, पुन: लंका अच्छी तरह जलाकर सहज ही में राख करके देवों के दीर्घ दु:ख दूर कर दूँगा और दशानन के दसों मस्तकों की माला बना कर महादेव के कंठ में पहनाऊँगा। दीनजी ने ‘राख सुखै करिकै’ का अर्थ किया है ‘सहज ही में राख करके’। ‘राखसु खै करिकै’ इस प्रकार पद-भंग करके यह भी अर्थ किया जा सकता है “राक्षसों का क्षय करके।” राख से देवताओं का दु:ख दूर कर दूँगा—ऐसा कहने से स्वर्ण भस्म का रूपक व्यंग्य है, स्पष्ट नहीं। स्वर्ण भस्म द्वारा रोग नष्ट किए ही जाते हैं। एक दोहा और लीजिये—

    ग्रीवा श्री रघुनाथ की, लसति कंबु बर वेष। 
    साधु मनो बच काय की, मानो लिखी त्रिरेख॥

    अर्थात् श्रीरघुनाथजी की ग्रीवा शंख की आकृति की तरह शोभा देती है। रामचंद्र मन, वचन, कर्म तीनों से साधु हैं—यही प्रकट करने के लिए मानो ब्रह्मा ने गले में तीन रेखाएँ खींच दी हैं। ध्वनि यह है कि लकीर खींची हुई बात बहुत पक्की होती है।

     

    एक अर्थान्तरसंक्रमित वाच्यध्वनि का उदाहरण लीजिए—

    ‘बालक विलोकियत पूरण पुरुष गुन, मेरो मन मोहियत ऐसो रूप धाम है।”

    यहाँ ‘मेरो’ शब्द में अर्थान्तरसंक्रमित वाच्य ध्वनि है। परशुराम कहते हैं कि जन साधारण मोहित हो जाए तो हो जाए, पर मेरा भी मन (जिसने संयम का इतना अभ्यास किया है) बालक के रूप को देखकर मोहित हो रहा है।

     

    केशव में कवि-परंपरा के विरुद्ध वर्णन भी मिल जाते हैं। उदाहरण के लिए—

    “शुभ राजहंस कुल नाचत मत्त मयूरगन।”

    यहाँ राजहंस और मयूरों का एक साथ ही वर्णन कर दिया गया किंतु वर्षा से हंस मानसरोवर को चले जाते हैं और वर्षा के आगमन पर ही मोर नाचते हैं। दोनों एक साथ वर्षा में नहीं होते।

     

    कहीं-कहीं बड़े साभिप्राय शब्दों का प्रयोग केशव की रामचंद्रिका में हुआ है—

    “शोक की आग लगी परिपूरण आई गए घनश्याम बिहाने।
    जानकि के जनकादिक के सब फूलि उड़े तरु पुण्य पुराने॥”

    अर्थात् जनक का हृदय जब पूर्ण रूप से शोक की ज्वाला से दग्ध हो रहा था, अचानक प्रात: काल के समय बादल की तरह श्याम रंगवाले रामचंद्र जनकपुर से आ गए जिससे जानकी और जनकादि के पुराने पुण्य के वृक्ष पुन: प्रफुल्लित हो उठे। ‘घनश्याम’ शब्द यहाँ साभिप्राय है इसलिए प्रथम पंक्ति के ‘घनश्याम’ शब्द में परिकरांकुर है। केशव के टीकाकार दीनजी ने यहाँ परिकरांकुर के अतिरिक्त ‘समाधि’ अलंकार भी माना है किंतु यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो ‘समाधि’ अलंकार यहाँ है ही नहीं। ‘समाधि’ की परिभाषा देते हुए काव्यप्रकाशकार कहते हैं—

    “समाधि सुकरं कार्य कारणान्तरयोगत:।”

    “अर्थात् जहाँ कारणांतर के योग से कार्य सुगम हो जाए, वहाँ ‘समाधि’ अलंकार होता है। उदाहरण के लिए—

    मानमस्या, निराक्र्तु पादयोर्मे पतिष्यत:
    उपकाराय दिष्टयेदमुदीर्ण घनगर्जितम्॥

    अर्थात् इस नायिका के मान को दूर करने के लिए मैं इसके पैरों पर गिरने ही वाला था कि मेरे सौभाग्य से बादल गरजने लगा। कार्य-सिद्धि के लिए पाद-पतन रूप कारण का आश्रय लिया जाने वाला था कि गर्जन रूप दूसरे कारण द्वारा कार्य सरल हो गया। ‘समाधि’ अलंकार में कारणांतर आवश्यक है। ‘रामचंद्रिका’ से उद्धृत ऊपर की पंक्तियों में कारणांतर नहीं है, इसलिए समाधि’ अलंकार यहाँ नहीं हो सकता।

     

    ‘रामचंद्रिका’ में कहीं-कहीं रस के सब अवयवों का प्रयोग हुआ है—

    आँसु बरषि हियरे हरषि, सीता सुखद सुभाइ।
    निरखि-निरखि पिय मुद्रिकहि, बरनति है बहु भाइ॥

    इस दोहे में श्रृंगार रस के सब अवयव हैं जो नीचे दिखाए जाते हैं—

    आलंबन-राम
    उद्दीपन-मुद्रिका
    संचारी-हर्ष
    अनुभाव-आँसू बरसाना, मुद्रिका को एकटक देखना आदि।

     

    ‘रामचंद्रिका’ को लेकर जैसी आलोचना ऊपर की गई है, वह यद्यपि आधुनिक युग के उतनी अनुकूल नहीं है तथापि केशव जैसे पंडित कवि की समीक्षा करते समय आलोचना की इस शास्त्रीय पद्धति के बिना सहज ही काम नहीं चल सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दो शब्द (पृष्ठ 58)
    • रचनाकार : कन्हैयालाल सहल
    • प्रकाशन : आत्माराम एंड सन्स
    • संस्करण : 1950

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