महात्मा सूरदास

mahatma surdas

श्याम बिहारी मिश्र

श्याम बिहारी मिश्र

महात्मा सूरदास

श्याम बिहारी मिश्र

और अधिकश्याम बिहारी मिश्र

     

    सूरदास की गणना अष्टछाप अर्थात् ब्रज के आठ कवीश्वरों में है। उन आठों कवियों के नाम ये हैं—सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीत स्वामी, गोविंद स्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास। इनमें प्रथम चार महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के और अंतिम चार श्री स्वामी विट्ठलनाथ के सेवक थे। ब्रजभाषा के अरुणोदय-काल में, ब्रज में ये आठों कवि हो गए हैं और सभी ने पदों द्वारा श्रीकृष्णचंद्र आनदकंद के यश का कीर्तन किया है।

    ‘चौरासी वार्ता’ तथा ‘भक्तमाल’ के अनुसार सूरदास सारस्वत-ब्राह्माण थे और इनके पिता का नाम रामदास था। इनका जन्म ब्राह्मण दिल्ली के समीप सीही ग्राम निवासी निर्धन माता-पिता के घर हुआ था। अब यह प्रश्न उठता है कि सूरदास जन्मांध थे या नहीं? इसके विषय में सिवा ‘भक्तमाल’ के कोई प्राचीन प्रमाण तो नहीं मिला, परंतु रीवाँ-नरेश महाराज रघुराजसिंह-कृत ‘रामरसिकावली’ में ‘भक्तमाल’ के आधार पर लिखा हुआ है। “जनमहि ते हैं नैन-बिहीना। हमें तो इस लेख पर विश्वास नहीं होता। सूरदास ने अपनी कविता में ज्योति के, रंगों के और अनेकानेक हाव-भावों के ऐसे-ऐसे मनोरम वर्णन किए हैं, उपमाएँ ऐसी चुभती हुई दी हैं, जिनसे यह किसी प्रकार निश्चय नहीं होता कि कोई व्यक्ति बिना आँखों-देखे, केवल श्रवण द्वारा प्राप्त ज्ञान से, ऐसा वर्णन कर सकता है। ‘चौरासी-वार्ता’ में इनका जन्मांध होना नहीं लिखा है। एक किंवदंती है कि सूरदास जब अंधे न थे, तब एक युवती को देखकर उस पर आसक्त हो गए थे; मगर पीछे प्रकृतिस्थ होकर यह दोष नेत्रों का समझ तुरंत दो सुइयों से अपने दोनों नेत्र फोड़ डाले। यह बात सत्य जँचती है। संभव है, स्त्री का विषय होने के कारण ही ‘चौरासी-वार्ता’ में यह हाल न लिखा गया हो।

    ‘भक्तमाल’ में लिखा है कि इनके पिता ने आठ वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत कर दिया था। कुछ काल में इनके माता-पिता मथुरा-दर्शन को गए। उस समय सूरदास भी उनके साथ थे। जब वे घर लौटने लगे, तब सूरदास ने उनसे विनती की कि “अब मुझे यहीं रहने दो। इस पर उनके माता-पिता रोने लगे। बोले—तुम्हें अकेले किसके सहारे छोड़ जाएँ?'' तब सूरदास ने कहा—कृष्णचंद्र का सहारा क्या थोड़ा है? इस पर एक साधु ने कहाँ—“मैं इस बालक को अपने साथ रखूँगा। तब सूर के माता-पिता रोते कलपते घर चले गए और यह महाराज ब्रज में ही रह गए। एक बार अंधे होने के कारण सूरदास एक कुएँ में जा पड़े और छः दिन तक उसी में पड़े रहे। सातवें दिन इन्हें किसी ने निकाला। सूर ने समझा, स्वयं कृष्ण भगवान ने उन्हें निकाला है। बस, इन्होंने निकालने वाले की बाँह पकड़ ली; पर वह बाँह छुड़ाकर भाग गया। इस पर इन्होंने यह दोहा पढ़ा—

    बाँह छोड़ाए जात हो, निबल जानि कै मोहि।
    हिरदै सों जब जाइहौं, मरद बदौंगो तोहि।

    इसके उपरांत, ‘चौरासी-वार्ता’ के अनुसार, यह महाराज गऊ-घाट नामक एक स्थान पर, जो आगरा और मथुरा के बीच में है, रहने लगे। वहीं यह महाराज वल्लभाचार्य महाप्रभु के शिष्य हुए, उन्हीं के साथ गोकुल में श्रीनाथ जी के मंदिर को गए और बहुत काल तक वहीं रहे। इसी स्थान पर इनसे गोस्वामी विठ्ठल नाथ से बहुधा भेंट हुआ करती थी और गोस्वामीजी इनके पद सुना करते थे। सूरदास सदैव कृष्णानंद में मग्न एवं उन्मत्त रहा करते थे और अपनी अखंड भक्ति से संसार को शुद्ध करते थे।

    यहीं रहते-रहते यह महाराज वृद्धावस्था को प्राप्त हुए। जब इन्हें विदित हुआ कि इनका अंत-समय निकट है, तब यह पारासोली को चले गए। जब गोस्वामीजी को यह संवाद मिला, तव वह भी पारासोली पहुँचे और सूरदास से अंत-पर्यंत उनसे बातचीत होती रही। उसी समय किसी ने सूरदास से पूछा—आपने अपने गुरु का कोई पद क्यों नहीं बनाया? इस पर उन्होंने उत्तर दिया—मैंने सब पद गुरुजी ही के बनाए हैं। क्योंकि मेरे गुरु और श्रीकृष्णचंद्र में कोई भी भेद नहीं है। तथापि उन्होंने एक पद भी रचा। वह यों है—

    भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो।
    श्रीबल्लभ-नख-चंद छटा बिनु सब जग माँझ अँधेरो।
    साधन और नहीं या कलि में, जासों होत निवेरो।
    'सूर' कहा कहि दुबिधि आँधरो, बिना मोल को चेरो।

    अंत-समय सूरदास ने कृष्ण-राधिका का एक भजन कहा और ऐसे प्रेम-गद्गद् हुए कि उनके नेत्रों में अश्रु-जल छा गया। इस पर गोस्वामी जी ने पूछा—सूरदास जी, नेत्र की वृत्ति कहाँ है? तब सूरदास ने निम्नलिखित भजन पढ़ कर शरीर त्याग दिया—

    खंजन-नैन रूप-रस-माते।
    अतिसै चारु, चपल, अनियारे पल-पिंज़रा न समाते।
    चलि-चलि जात निकट स्रवनन के उलटि-उलटि ताटंक फँदाते।
    'सूरदास' अंजन गुन अटके, नातरु अब उड़ि जाते।

    इन महाशय के विषय में कई ग्रंथकारों का मत है कि यह उद्धव के अवतार थे।

    कविता—सूरदास ने पाँच ग्रंथ बनाए हैं—सूरसागर, सूर-सारावली, साहित्यलहरी (दृष्ट कूट), नल-दमयंती और ब्याहलो। खोज में ‘ब्याहलो’ और ‘नल-दमयंती’, ये दो ग्रंथ लिखे हैं; पर हमारे देखने में नहीं पाए। 
    ‘साहित्यलहरी’ को सूरदास ने सं. 1607 वि. में सकलित किया था। इसमें कुछ पद ‘सूरसागर’ से और कुछ कूट रखे गए हैं। इसकी एक छंदोबद्ध टीका भी है; जो सूरदास के नाम से बनी है। परंतु यह निश्चय नहीं होता कि यह टीका सचमुच सूर-कृत है या नहीं। टीका में प्रत्येक पद के अलंकार, नायिका आदि का वर्णन है। परंतु सूरदास ने रीतिबद्ध कविता नहीं की है। स्वाभाविक रीति से वर्णन जहाँ उचित था लिखा। इस कारण शंका होती है कि यह टीका सूर-कृत नहीं है। सरदार कवि ने अपनी टीका में पहले 117 पद दिए हैं, फिर 63 और लिखे हैं। इस प्रकार उनकी प्रति में कुल 180 पद हैं। इन कूटों में नायिका और अलंकार अवश्य निकलते हैं, श्रुति-कटु दूषण भी नहीं है। परंतु यह दोष है कि बिना टीका की सहायता के इनका अर्थ लगाना कठिन है। इनमें यमक और अनुप्रास ख़ूब आए हैं। यदि कोई धैर्यवान व्यक्ति इस पुस्तक के अर्थ लगा कर देखे, तो विदित हो कि इसमें सूरदास ने कितना परिश्रम किया है।

    ‘सूरसारावली’ में सूरदास ने ‘सूरसागर’ की सूची-सी दी है। इसमें 1107 पद हैं। परंतु कुल ग्रंथ में एक ही छंद होने के कारण इसे पढ़ना उतना रुचिकर नहीं है, जितना इन महाकवि के अन्य ग्रंथों को। यदि एक ही छंद वाले भूषण को छोड़ दीजिए, तो इस ग्रंथ में भी सूरदास की वही छटा विद्यमान है, जिसने उनको कवियों में सूर्य की पदवी से विभूषित कराया है।
    ‘सूरसागर’ बारह स्कंधों में समाप्त हुआ है। परंतु दशम स्कंध के पूर्वार्द्ध को छोड़ कर शेष स्कंध बहुत छोटे हैं और उनमें साहित्यिक छटा में प्रायः वैसी रोचकता नहीं है, जैसी कि दशम के पूर्वार्द्ध में। जिस प्रकार तुलसीदास के बाल तथा अयोध्याकांड निकाल डालने से उनके कवित्व-गौरव का एक बृहदंश खंडित हो सकता है, उसी प्रकार यदि ‘सूरसागर’ के दशम स्कंध का पूर्वार्द्ध निकाल डाला जाए, तो सूर को सूर्यवत् कोई भी न माने। तथापि, जैसे रामायण के अन्य काण्डों में गोस्वामी जी की कवित्व शक्ति की पूर्ण झलक मिलती है और पूर्वोक्त दोनों कांड पढ़कर पाठक अवाक् रह जाते हैं, उसी प्रकार वही सूर-कृत दशम के पूर्वार्द्ध एवं अन्य स्कंधों का हाल है। ‘सूरसागर’ में श्री मद्भागवत के आशय पर कथा कही गई है। परंतु कथाएँ बहुत न्यूनाधिक हैं।

    सूरदास ने प्रत्येक वर्णन सूक्ष्म रूप से किया है; केवल श्री कृष्ण ने नंदगृह में बस कर जो लीला की है, और उद्धव-संवाद का वर्णन विस्तारपूर्वक है। परंतु इन्हीं दोनों वर्णनों में सूरदास ने दिखा दिया है कि विस्तार किसे कहते हैं। सूर ब्रजवासी कृष्ण के, विशेष कर राधा-कृष्ण के, भक्त थे। अत: ज्योंही कृष्ण मथुरा को चले गए, त्योंही उनका भी वर्णन संक्षेप से होने लगा। कहीं-कहीं आपने कार्यों के वर्णन में भी द्रुत गति ही का आश्रय लिया है। आप ब्रज में मथुरा को नहीं जोड़ते। (पृष्ठ 563)

    कविता की समालोचना—(1) सूरदास की कविता में सर्वप्रधान गुण यह है कि उसके पद-पद से कवि की अटल भक्ति झलकती है। प्रत्येक मनुष्य का काव्य उत्कृष्ट तभी होता है, जब वह सच्चा होता है। सच्ची कविता तभी बनती है, जब कवि, जो उस पर बीते अथवा जो उमंगें उसके चित्त में उठे या जो भाव उसके चित्त में भरे हों, उन्हीं का वर्णन करे। यदि कोई लंपट मनुष्य वैराग्य-कथन करने बैठेगा, तो वह सिवा चोरी के और क्या करेगा? उसके चित्त में वैराग्य का अभाव है। उसके चित्त-सागर को चैराग्य की तरंगों ने कभी चंचल नहीं किया तब वह बेचारा अनुभव न होने पर भी वैराग्य के सच्चे भाव कहाँ से लाकर वर्णन करे? यदि वह हठात् लिखने बैठ ही जाएगा, तो वैराग्य के विषय में उसने इधर-उधर से जो कुछ सुन लिया होगा, वही कह चलेगा। ऐसी दशा में उसकी कविता में सिवा नक़ल के कोई असली भाव न अवेगा। ऐसे ही काव्य को निर्जीव कहना पड़ता है।

    इसके विपरीत जो मनुष्य सचमुच विरक्त है, उसके चित्त में वैराग्य-संबंधी असली भाव उठेंगे और जब उनका वर्णन होगा, तभी कविता असली और सजीव होगी। इसी कारण उर्दू के कवियों में यह कहावत प्रचलित है कि जब कोई शिष्य किसी ख़ास उस्ताद से शायरी सिखलाने को कहता था, तो उस्ताद पहले यही कहता था कि जाओ, आशिक़ हो आओ। असली भावों की ही कविता ऐसी बनती है कि श्रोता को बरबस कहना पड़ता है—थारी कविता में सुल्यो लग्यो।

    सूरदास की कविता प्रधानतः ऐसी है कि उसमें भक्ति का चित्र प्रत्येक स्थान पर देख पड़ता है। यह महाराज जाति-भेद कर्म-भेद आदि को तुच्छ मान कर केवल भक्ति को प्रधान और एक-मात्र मानव-हृदय का शृंगार समझते थे। इनके मत में यदि कोई नर भक्त है, तो वह बड़ा है, चाहे जिस जाति अथवा पाँति का क्यों न हो (पृष्ठ 4, संख्या 18)। कोई मनुष्य चाहे जितना चंदन आदि क्यों न लगाता हो, परंतु यदि शुद्ध भक्त नहीं है, तो वह अपना समय वृथा नष्ट करता है (पृष्ठ 5, संख्या 28)। यह महाराज यह नहीं समझ सकते थे कि कोई मनुष्य भक्त क्योंकर न हो? जो भक्ति नहीं करता था, उस पर यह अचंभा करते थे (पृष्ठ 35, संख्या 13)। यह कहते थे—'भगति बिनु बैल बिराने ह्वैहौ (पृष्ठ 31, संख्या 203)। भक्ति के विषय में, संक्षेप में, इनका मत यह था—

    तजौ मन, हरि-विमुखन को संग।
    जाके संग कुबुधि उपजति है, परत भजन में भंग।
    कहा होत पय-पान कराए विष नहिं तजत भुजंग।
    कागहि कहा कपूर चुगाए, स्वान न्हवाए-गंग।
    खर को कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूषन-अंग।
    गज को कहा न्हवाए सरिता, बहुरि धरै खहि छंग।
    पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतो करत निषंग।
    'सूरदास' खल कारी कामरि, चढ़त न दुजो रंग। (पृष्ठ 31, संख्या 204)

    भजन बिनु कूकर-सूकर-जैसो।
    जैसे घर बिलाव के मूसा रहत विषय बस वैसो।
    उनहू के गृह, सुत, दारा हैं, उन्हें भेद कहु कैसो?

    यह महाराज जगदीश्वर, राम एवं कृष्ण को एक ही समझते थे—

    सोई बड़ो जु रामहि गावै। 
    श्वपच प्रसंन होय बड़ सेवक, बिनु गोपाल द्विज-जनम न भावै।
    होय अटल जगदीस भजन में, सेवा तासु चारि फल पावै। (पृष्ठ 18, सं. 118)

    और, शेष देवतों में यह देव-भाव नहीं रखते थे। यथा—और देव सब रंक भिखारी त्यागे बहुत अनेरे। (पृष्ठ 16, संख्या 113) परंतु, तो भी यह महाराज गोस्वामी तुलसीदास की भाँति और देवतों को गालियाँ नहीं देते थे। सूरदास को एक ईश्वर का उपासक कहना चाहिए। सगुणोपासना करने का कारण सूर ने इस प्रकार लिखा है—

    अबिगति गति कछु कहत न आवै।
    ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।
    मन-बानी को अगम अगोचर सो जान जो पावै।
    रूप, रेख, गुन, जाति, जुगुति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
    सब विधि अगम विचारहि ताते, सूर सगुन लीला पद गावै। (पृष्ठ 1, संख्या 2)

    ऐसे भक्त होने पर भी सूरदास अपने को इतना बड़ा पतित समझते थे कि चित्त को आश्चर्य होता है (पृष्ठ 11, संख्या 33, पृष्ठ 12, संख्या 73)। इनकी इतनी प्रबल और प्रगाढ़ भक्ति के होने पर भी कहना पड़ता है कि इनकी और तुलसीदास की भक्ति में भेद था। गोस्वामीजी की भक्ति दास-भाव की थी; परंतु इनकी सखा और सखी-भाव की। यह महाशय श्रीकृष्णचंद्र को अपना मित्र समझते थे और इसी कारण इन्होंने राधा को भी भला-बुरा कहा है और जब श्रीकृष्ण भी कोई बेजा बात करते थे, तब उन्हें भी सूरदास डाँट देते थे। इसके अतिरिक्त सखी भाव भी आपकी रचना में आता है। तुलसीदास जब कभी राम की नरलीला का वर्णन करते हैं, तब पाठक को यह अवश्य याद दिला देते हैं कि राम परमेश्वर हैं; वह केवल नर-लीला करते हैं। यह बात ऐसे भोंडे प्रकार से भी वह सैकड़ों बार स्मरण कराते हैं कि जी उकता उठता है और यह जान पड़ता है कि गोस्वामीजी पाठक को इतना बडा मूर्ख समझते थे कि कितनी ही बार याद दिलाने पर भी वह राम का ईश्वरत्व भुला देगा, अतः उसको पुनः-पुनः स्मरण कराने की आवश्यकता है। यह बात सूरदास में नहीं है। यह एक-दो बार स्मरण कराने को ही यथेष्ट समझते हैं। इन्होंने, जहाँ तक हमें स्मरण है, केवल दो-चार स्थानों पर सिफ़ारिशी छंद दिए हैं (पृष्ठ 116, संख्या 16, पृष्ठ 126, संख्या 62)। परंतु श्रीकृष्णचंद्र को स्वयं अपना ईश्वरत्व दिखाने का शौक था। उन स्थानों को छोड़कर सूरदास ने उनका ईश्वरत्व मौके बे-मौके नहीं दिखाया है। पृष्ठ 472 पर आपने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद भी दिया है। इन्होने दो-चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निंदा भी की है। यथा—पृष्ठ 6 संख्या 31; पृष्ठ 7 संख्या 36 और—

    हम बिगरी, तुम सबै सुधारी।
    द्विज कानीन हमारे बाबा, सुंडज पिता, जगत् में गारी।
    हम सब जग-ज़ाहिर जारज हैं, ताहू पर यक बात बिगारी।
    बड़े कष्ट सों ब्याहु भयो है पतिनी है गइ पंच-भतारी।

    तुम जानत राधा है छोटी।
    हमसों सदा दुरावति है यह, बात कहै मुख चोटी-पोटी।
    कबहुँ स्याम सों नेकु न बिछुरत, किये रहति हमसों हठ-जोटी।
    नँदनंदन याही के बस हैं, बिबस देखि बेदी छबि चोटी।
    'सूरदास' प्रभु वै अति खोटे, यह उनहूँ ते अति ही खोटी। (पृष्ठ 116, संख्या 75)

    सखी री श्याम कहा हितु जानै?
    'सूरदास' सरबसु जो दीजै, कारो कृतहि न मानै। (पृष्ठ 476 संख्या 84)

    इसी प्रकार सैकड़ों पद सूरदास की कविता में मिलते हैं।

    (2) सूरदास की भाषा शुद्ध ब्रज-भाषा है। चंद आदि के होने पर भी यह कहना अयथार्थ न होगा कि हिंदी के वास्तविक उत्कृष्ट प्रथम कवि सूरदास ही थे। परंतु इनकी भाषा ऐसी ललित और श्रुत-मधुर है कि जैसी इनके पीछे वाले कवियों तक में बहुत कम पाई जाती है। पृष्ठ 583 में आपने 'महलात' शब्द का भी प्रयोग किया है। इनकी कविता में मिलित-वर्ण बहुत कम आते हैं। उसके माधुर्य और प्रसाद-प्रधान गुण हैं। ओज की मात्रा इनकी कविता में बहुत कम है। इनको यमक और अनुप्रास का इष्ट नहीं था, परंतु उचित रीति पर इन दोनों गुणों को यह महाराज अपनी कविता में रखते थे। कहीं यमक आदि के लिए इन्होंने अपना भाव नहीं बिगाड़ा। इनके पद ललित और अर्थगम्भीरता से भरे हुए हैं। सिवा ‘सूरसारावली’ के, समस्त कविता में इन्होंने छंद इतना शीघ्र और इस रीति पर परिवर्तित किये हैं कि कहीं इनके छंद अरुचिकर नहीं होते। इन महाराज ने अपनी कविता में संस्कृत के पद बहुतायत से नहीं रखे; परंतु जहाँ कहीं वे आए हैं, वहाँ स्तुत्य रीति से आए हैं। इनके कुछ घनाक्षरी-छंद भी मिले हैं (पृष्ठ 404, संख्या 36 और 37)। कुछ घनाक्षरी-छंद आपने छः पदों के भी लिखे हैं। सूर-कृत दो पद, जो उपमा और रूपक के वर्णन में दिए जाएँगे, इनकी भाषा के भी अच्छे उदाहरण हैं।

    (3) उपमा-रूपक। यह महाराज अपनी कविता में रूपक लाना पसंद करते थे, और इन्होंने उपमाएँ भी बहुत ही अच्छी खोज-खोजकर रखी हैं। इनके अर्थ-गांभीर्य, उपमा और पद-लालित्य ऐसे उत्कृष्ट हैं कि किसी कवि को कहना ही पड़ा—

    उत्तम पद कवि गंग के, उपमा को बलवीर।
    केसव अर्थ-गंभीरता, सूर तीनि गुन धीर। (बीरबल)

    उदाहरणार्थ इनके दो पद आगे लिखे जाते हैं, जिनसे इन महाराज के रूपक, उपमा, अनुप्रास और भाषा का अच्छा ज्ञान होगा। आपने प्रायः रूपकों में पूरे वर्णन किए हैं। संयोग-शृंगार में उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षा की बहुतायत रक्खी है, और वियोग-वर्णन में स्वभावोक्ति की। यथा—

    अद्भुत एक अनूपम बाग।
    जुगुल कमल पर गजबर क्रीड़त, तापर सिंह करत अनुराग।
    हरि पर सरवर, सर पर गिरिवर, गिरि पर फूले कंज पराग।
    रुचिर कपोत बसत ता ऊपर, ताहू पर अमिरित-फल लाग।
    फल पर पुहुप, पुहुप पर पालव, तापर सुक, पिक, मृगमद, काग।
    खंजन धनुष चंद्रमा ऊपर ता ऊपर एक मनिधर-नाग।
    अंग-अंग प्रति और-और छबि, उपमा ताको करत न त्याग।
    'सूरदास' प्रभु पियहु सुधा-रस, मानहु अधरन को बड़ भाग।

    (4) नख-शिख। पूर्वोक्त दोनों पदों में कवि की नख-शिख वर्णन करने की योग्यता भी प्रकट होती है। नख-शिख के श्रेष्ठ वर्णन पृष्ठ 28, संख्या 182, पृष्ठ 186 और 187, पृष्ठ 278, संख्या 10 के छंदों में भी हैं और वे बहुत ही श्लाघ्य तथा सुहावने हैं।

    (5) प्रबंध-ध्वनि! इन महाराज ने अपनी कविता में पुराने आख्यानों और कथाओं का हवाला बहुत स्थानों पर दिया है। इस कथन के उदाहरणार्थ पृष्ठ 6 संख्या 48 देखिए।

    (6) सूरदास की कविता का प्रधान गुण एक यह भी है कि यह महाराज प्रत्येक वस्तु का बहुत सांगोपांग वर्णन करते हैं। यह जिस बात का वर्णन विस्तार-पूर्वक कर देते हैं, उसमें फिर औरों के लिए बहुत कम भाव रह जाते हैं। या तो यह बहुत सूक्ष्म वर्णन करते हैं, या पूर्ण विस्तार के साथ इनके सविस्तर वर्णन कर देने पर अन्य कवियों को उसी विषय पर कुछ लिखने में अवांछित भी इनके भाव लेने पड़ते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में यह महाकवि नए भावों के लिए जगह छोड़ ही नहीं रखते।

    (क) सबसे प्रथम जो बहुत उत्कृष्ट वर्णन सूरदास ने किया है, वह कृष्ण की बाललीला का है। जैसा उत्तम और सञ्चा बालचरित्र इन महाकवि ने लिखा है, वैसा संसार भर के किसी ग्रंथ में हम लोगों ने अद्यावधि नहीं देखा। माता से माखन माँगा जाना, माता द्वारा बालक का लालन-पालन होना, माता का खीझना, चोटी बढ़ने के बहाने दूध पिलाना, चंद्र के विषय में झगड़ा, राम की कथा माता द्वारा सुनाई जाना इत्यादि वर्णन ऐसे सच्चे ढंग से कहे गए हैं कि जान पड़ता है, सचमुच कोई बालक माता के पास खेल रहा है। इसके उदाहरण-स्वरूप किस छंद को हम लिखें। पूरा वर्णन पढ़ने से ही इसका स्वाद मिल सकता है। ज्योंही माता ने कहा—'कजरी को पय पियहु लाल, तब चोटी बाढ़ै, त्योंही बालक ने तुरंत दूध पीकर पूछा—मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी? किती बार मोहिं दूध पियत भइ यह अजहूँ है छोटी।

    (ख) बाल-लीला के पश्चात इन महाकवि ने माखन-चोरी का वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही किया है। माखन-चोरी भी ऐसी कही है, मानो काई सचमुच गोपिकाओं को खिझा रहा हो।

    (ग) ऊखल-बंधन के पश्चात् कालिय-दमन, दावानल-पान और चीर-हरण के बड़े ही विशद वर्णन हैं। उद्धृत करने से पुस्तक का कलेवर बहुत बढ़ जाएगा, अतः हम यहाँ कोई छंद नहीं लिखते। परंतु ये वर्णन देखने ही योग्य हैं। सूरदास ने भोजन के वर्णन अनेक बार किए हैं। भोज्य वस्तुओं में आप अपच करने वाली चीज़ों की बहुतायत रखते हैं। उनमें सघृत वस्तुओं का प्राधान्य रहता है।

    (घ) इसके पीछे रासलीला, मान एवं मान-मोचन के भी वर्णन बड़े ही अच्छे हैं। विशेषकर 366 से 411 पृष्ठ-पर्यन्त जो मान और मान-मोचन वर्णित है, उससे प्रकट होता है कि यह महाकवि एक ही विषय को कितनी दूर तक और कितनी उत्तमता से कह सकता है, अथच महाभक्त होने पर भी शृंगार-रस के गूढ़ विषयों का इनको कितना सच्चा ज्ञान है। यह कहना पड़ेगा कि माखन-चोरी और रास-विलास के वर्णन इतने विस्तृत हो गए हैं कि यह नहीं कहा जा सकता कि यह केवल शृंगार-रस का वर्णन करने वालों की रचना की भाँति कोरा काव्य-मात्र है, या किसी कथा का अंग भी। यदि कोई केवल कथा-प्रसंग जानने के विचार से इसे पढ़ने बैठे, तो उसका जी अवश्य उकता जाए। परंतु वास्तव में ये वर्णन बड़े ही विशद और सचे हैं। केशवदास, दास इत्यादि की भाँति इन्होंने अपनी कविता में अन्य कवियों की कविताओं से उठा-उठाकर उल्था नहीं रखा है; न किसी ऐसे विषय को विस्तार से कहा ही है, जिसमें इन्हें पूर्ण योग्यता और सहृदयता न होती। अतः इस कविता में जहाँ कहीं विस्तृत वर्णन हैं, वहीं वे सच्चे, असली, ख़ास सूरदास के भावों से भरे हैं, और इसी कारण इन कविवर ने सच्चे पाठकों से ऐसे ऐसे वचन कहला ही लिए कि—

    (1) सूर सूर, तुलसी ससी, उडुगन केसवदास।
    अब के कवि खद्योत-सम, जहँ-तहँ करत प्रकास।
    (2) कविता करता तीनि है, तुलसी, केसव सूर।
    कविता खेती इन लुनी, सीला बिनत मॅँजूर।
    (3) तत्त्व-तत्त्व सूरा कही, तुलसी कही अनूठी।
    बची-खुची कबिरा कही, और कही सब भूठी।
    (4) किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर की पीर।
    किधौ 'सूर को पद लग्यो, तन-मन धुनत सरीर।

    अंतिम दोहा तानसेन ने बना कर सूरदास को सुनाया था। इसके उत्तर में सूरदास ने निम्नलिखित दोहा पढ़ा—

    विधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिए न कान।
    धरा, मेरु सब डोलतो, तानसेन की तान।

    सूरदास इतने सच्चे और यथार्थ-भाषी कवि थे कि इनकी कविता में असंभव पदार्थों का कथन बहुत कम पाया जाता है; अर्थात् किसी असंभव घटना का होना इन्होंने नहीं कहा। “विंध्य लगि बाढ़िबो उरोज़न को पेखो है की भाँति के कथन इन सच्चे कवि को नहीं भाते थे। इस यथार्थ-भाषण के प्रतिकूल हम श्रीकृष्णचंद्र के संबंध में ऐसी कथाओं का वर्णन, जो अब असंभव ज्ञात होती हैं, प्रमाण-स्वरूप नहीं मानते; क्योंकि वे उस कथा के अंग हैं, जिसे यह कवि कहने बैठे हैं। इसी यथार्थ-भाषण की आदत के कारण इन्होंने कई स्थानों पर विस्तार से सुरति का वर्णन किया है, और कहीं-कहीं ऐसी-ऐसी गालियाँ दिलाई है, जिनको कविता में रखना सभ्यता के प्रतिकूल है। कहना न होगा कि ये वर्णन भी सराहनीय अवश्य हैं।

    (ङ) सूरदास ने स्थान-स्थान पर नायिका भेद भी लिखा है; परंतु कविता-रीति के नियमानुसार उसे न लिख कर जिस दशा के पीछे स्वाभाविक रीति पर जो दशा होती है, उसी का वर्णन, कथा-प्रसंग की भाँति, इन्होंने किया है। और जिस नायिका का प्रसंग चलाया, उसका, अपनी विस्तारकारिणी प्रकृति के अनुसार, कुछ देर तक वर्णन किया। इन्होंने सब नायिकाओं का वर्णन न करके बहुत कम का किया है; परंतु जो कुछ कहा है, वह परम मनोहर है। हम अधिक उदाहरण न देकर केवल धीरादि-भेद का एक पद नीचे लिखते हैं। यथा—

    अतिहि अरुन हरि, नैन तिहारे।
    मानहुँ रति-रस भए रँगमगे, करत-केलि पिय पलक न पारे।
    मंद-मंद डोलत संकित-से, राजत मध्य मनोहर तारे।
    मनहुँ कमल-संपुट महँ बींधे, उड़ि न सकत चंचल अलि-बारे।
    झलमलात, रति-रैनि जनावत, अति रस-मत्त भ्रमत अनियारे।
    मानहुँ सकल जगत् जीतन को, काम-बान खरसान संवारे।
    अटपटात, अलसात, पलक-पुट, मूँदत, कबहूँ करत उघारे।
    मनहुँ मुदित मरकत-मनि-अंगन, खेलत खंजरीट-चटकारे।
    बार-बार अबलोकि कनखियन, कपट-नेह मन हरत हमारे।
    'सूर' स्याम सुखदायक रोचन, दुःख-मोचन लोचन रतनारे।

    कथाओं के वर्णन में कहीं-कहीं इनकी रचना में काल-विरुद्ध दूषण आ जाता है। जैसे दावानल में गोवर्द्धन-धारण का, और गोवर्द्धन-धारण में दावानल-पान का।

    (च) इन सब कथाओं के पीछे इन महाकवि ने श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन का वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही किया है। यदि कहा जा सकता हो कि अमुक कवि ने क़लम तोड दी, तो हम अवश्य कहेंगे कि ब्रज-विरह वर्णन में इन महाकवि ने सचमुच क़लम तोड़ दी है। उद्धव-संवाद और कृष्ण-मथुरा-गमन को पढ़कर जान पड़ता है कि सूरदास वियोग-शृंगार के कथन में बड़े ही पटु थे। वियोग का वर्णन किसी दूसरे कवि ने ऐसा बढ़िया और स्वाभाविक नहीं किया। इस विषय में भी कोई छंद उदाहरणार्थ लिखना हम उचित नहीं समझते, क्योंकि एक रोएँ से सिंह का अनुभव नहीं कराया जा सकता। वियोग वर्णन में आपने राधा का नाम बहुत नहीं लिया।

    (छ) उद्धव-संवाद भी बहुत ही विस्तृत-रूप से कहा गया है। यह पृष्ट 502 से प्रारंभ होकर पृष्ठ 562 पर समाप्त होता है, और ये पृष्ट रॉयल अठ-पेजी के ढाई गुने होंगे! यह भी आद्योपांत प्रेमालाप से भरा हुआ है, और ऐसा कोई भाव न बचा होगा, जो इसमें न आ गया हो। इनमें बड़े ही प्रशंसनीय पद मिलते हैं। उदाहरणार्थ एक पद नीचे लिखा जाता है—

    ऊधो, मन न भए दस-बीस।
    एक हुतो, सो गयो स्याम-संग, को अवराधै ईस?
    इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस।
    आसा लगी रहति तनु-स्वासा, जीजै कोटि बरीस।
    तुम तौ सखा स्याम-सुंदर के, सकल जोग-के-ईस।
    'सूरदास' वा रस की महिमा, जो पूछे जगदीस।”

    उद्धव-संवाद में गोपियों ने कहीं-कहीं ज्ञान को व्यर्थ माना है, और कहीं-कहीं अपनी योग्यता के लिए बहुत ऊँचा। निर्गुणोपासना का खंडन अवतार के सिद्धांत को ठीक मान कर किया गया है, जो तार्किक सिद्धांतों के प्रतिकूल है। अंत में उद्धव जी भी ज्ञान भूल कर प्रेममग्न हो गए, और प्रेमियों की भाँति कृष्ण के विहार-स्थल देखते फिरे। उसके बाद उन्होंने यदुपति के पास जाकर गोपियों की बड़ी सिफ़ारिश की।

    (ज) अन्य राजाओं की कथा एवं युद्ध इत्यादि वर्णन करने का प्रयत्न इन सच्चे कवि ने, इन विषयों से सहृदयता न होने के कारण, नहीं किया; और जहाँ किया भी, वहाँ वह अच्छा नहीं बना।

    (झ) इन्होंने स्फुट विषयों का वर्णन भी कहीं-कहीं अच्छा किया है। प्रीति के विषय में इनका मत है—

    “प्रीति करि काहू सुख न लह्यो।
    प्रीति पतंग करी दीपक सों अपनो देह दह्यो।
    अलि-सुत प्रीति करी जलसुत सों संपुट हाथ गह्यो।
    सारँग प्रीति जु करी नाद सों, सनमुख बान सह्यो।
    हम जो प्रीति करी माधव सों, चलत न कछू कह्यो।
    ‘सूरदास’ प्रभु-बिनु दुख दूनो, नैननि नीर बह्यो।”

    सत्संग पर सूरदास को बड़ी श्रद्धा थी। इस बात में भी तुलसीदास से इनका मत मिलता है। यथा—

    “जा दिन संत पाहुने आवत।
    तीरथ-कोटि अन्हान करै फल, जैसो दरसन पावत।
    नेह नयो दिन-दिन प्रति उनको, चरन-कमल चित लावत।
    मन-बच क्रम औरन नहिं जानत, सुमिरत औ सुमिरावत।
    मिथ्या-बाद-उपाधि-रहित बिमल-बिमल जस-गावत।
    बंधन करम कठिन जो पहिले, सोऊ काटि बहावत।”

    इस छंद से सूरदास के रहन-सहन का भी पता लगता है। इन महाशय ने पाँच पृष्ठ तक केवल मुरली का वर्णन किया है। उसमें बड़े ही बढ़िया पद लिखे हैं। जब श्याम का इतना वर्णन है, तब फिर मुरली ही क्यों रह जाए? यह इन्हीं का काम था कि मुरली-जैसे विषय पर करीब चालीस पद लिख गए।

    इन महाकवि ने पृष्ठ 316 से करीब 18 पृष्ठों में केवल नेत्रों का वर्णन किया है। ऐसे-ऐसे छोटे विषयों पर इतनी बड़ी कविता रच डालना साधारण कवि का काम नहीं है। इस वर्णन में भी अच्छे पद बहुत हैं। उदाहरण लीजिए—

    “नैना नाहीं कछू बिचारत।
    सनमुख समर करत मोहन सों, यद्यपि हैं हठि हारत।
    अबलोकत अलसात नवल छवि, अमित तोष अति आरत।
    तमकि-तमकि तरकत मृगपति ज्यों, घूँघट पटहि बिदारत।

    (ञ) सूरदास ने कई जगह पर पदों में कथाएँ कहकर फिर उनको साधारण छंदों में सूक्ष्म-रूप से दुहराया है। इन सब में कालिय-दमन की दुबारा कथा श्लाघ्य है।

    (7) सूर ने जगह-जगह पर कूट लिखे हैं। उनमें अलंकार तथा रसांग भी आए हैं। उदाहरण स्वरूप सरदार-कृत सूर-दृष्टकूट (मुंशी नवलकिशोर के यहाँ मुद्रित हुई प्रति) के पृष्ठ 64 पर लिखित एक कूट हम यहाँ लिखते हैं।*1

    2
    जनि हठ करहु सारँग-नैनी।
    सारँग ससि सारँग पर सारँग, ता सारँग पर सारँग-बैनी।
    सारँग रसन दसन गुनि सारँग, सारँग-सुत दृढ़ निरखनि पैनी।
    सारँग कहो सु कौन विचारो, सारँगपति सारँग रचि सैनी।
    सारँग सदनहि ले जु बहन गए, अजहुँ न मानत गत-भइ रैनी।
    सूरदास' प्रभु तव मग जोवै, अंधकरिपुता रिपु सुख-दैनी।”

    (8) इन्होंने लोगों का शील-गुण भी अच्छा दिखलाया है। यशोदा के यद्यपि एक ही पुत्र वृद्धावस्था में हुआ था, तथापि वह उसकी बेजा चाल-ढाल पर कड़ा दंड तक देती थीं, पर ऐसी उदार हृदया भी थीं कि रोहिणी-पुत्र बलदेव को अपने पुत्र से भी अधिक मानती थीं। यथा—

    हलधर कहत प्रीति जसुमति की।
    एक दिवस हरि खेलत मोसों, झगरो कीन्हों पेलि।
    मोको दौरि गोद करि लीन्हीं, उनहिं दियो कर ठेलि।

    इन्होंने कृष्ण के चले जाने पर देवकी से जो संदेश कहला भेजा है, वह विशेष रूप से देखने योग्य है—

    सँदेसो देवकी सों कहियो।
    हौं तो धाय तिहारे-सुत की, मया करत नित रहियो।
    जदपि टेंव तुम जानत उनकी, तऊ मोहि कहि आवै।
    प्रातहि उठत तुम्हारे कान्हहि, माखन रोटी भावै।
    तेल उबटनो अरु तातो जल, ताहि देखि भगि जाते।
    जोइ-जोइ माँगत, सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करि-करि न्हाते।
    'सूर' पथिक सुनि मोहिं रैनि-दिन, बढ़ो रहत उर सोच।
    मेरो अलख-लड़ैतो मोहन, ह्वै है करत सँकोच।

    यशोदा के शील गुण में केवल वह बात अनुचित जान पड़ती है कि उन्होंने नंद से बार-बार कहा—“दशरथ तुमसे अच्छे थे। क्यों तुम पुत्र को मथुरा में छोड़कर जीते-जागते घर चले आए?” इन्होंने शायद अपनी यथार्थ भाषण की टेंव से ऐसा कहला दिया हो।

    (9) यद्यपि सूरदास स्वयं श्याम के भक्त थे, तथापि उन्होंने गोपियों के मुख से काले रंग की ख़ूब निंदा कराई है, और अंतपर्यंत किसी स्थान पर भी तुलसीदास की भाँति कोई सिफ़ारिशी छंद नहीं लिखा। वे कहती थीं—

    सखी री, स्याम सबै इकसार।
    मीठे बचन सोहाए बोलत, अंतर-जारनहार।
    भँवर, कुरंग, काग अरु कोकिल, कपटिन की चटसार!

    सखी री, स्याम कहा हितु जानै?
    कोऊ प्रीति करी कैसे हू, वह अपने गुन ठाने।
    देखौ या जलधर की करनी बरषत पोषै आनै।
    'सूरदास' सरबसुजो दीजै, कारो कृतहि न माने।”

    तथा “ऊधो, कारे सबहिं बुरे।” इत्यादि।

    इससे ज्ञात होता है, सूरदास ऐसे संकीर्ण-हृदय न थे कि यदि उनका कोई नायक या उपनायक स्वयं उनकी राय के प्रतिकूल कुछ कहता, तो वे गोस्वामी तुलसीदास की भाँति, बिना अपनी सम्मति प्रकट किए रह जाते। अँग्रेज़ी में ऐसे कवियों को सर्व-व्यापक दृष्टि के कवि (Poet of general Vision) कहते हैं। सूरदास इसी प्रकार के कवि थे। भाषा-साहित्य में सूरदास, तुलसीदास और देव, ये सर्वोच्च तीन कवि हैं। इनमें न्यूनाधिक बतलाना मतभेद से खाली नहीं है। अतः सूरदास की गणना भाषा के तीन सर्वोच्च कवियों में है, और निश्चय-पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि इनसे कोई भी अच्छा है। अब हम लोगों का यह मत है कि हिंदी में तुलसीदास सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। उन्हीं के पीछे सूर का नंबर आता है, और तब देव का। महात्मा सूरदास हिंदी के वाल्मीकि हैं। वाल्मीकि ही के समान यह हिंदी के वास्तविक प्रथम सत्कवि हैं और उन्हीं के समान इनके भी वर्णन पूर्ण, बड़े और सर्वांग-सुंदर होते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कोविद गद्य (पृष्ठ 101)
    • संपादक : श्री नारायण चतुर्वेदी
    • रचनाकार : श्याम बिहारी मिश्र
    • प्रकाशन : रामनारायण लाल पब्लिशर और बुक
    • संस्करण : 1944

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