भारतेंदु- अँधेर नगरी, भारत दुर्दशा
जयशंकर प्रसाद- चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी
धर्मवीर भारती- अंधायुग
लक्ष्मीनारायण लाल- सिंदूर की होली
मोहन राकेश- आधे-अधूरे, आषाढ़ का एक दिन
हबीब तनवीर- आगरा बाज़ार
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना- बकरी
शंकरशेष– एक और द्रोणाचार्य
उपेन्द्रनाथ अश्क- अंजो दीदी
मन्नू भंडारी- महाभोज
भारतेंदु : अँधेर नगरी, भारत दुर्दशा
भारतेंदु
मौलिक नाटक :-
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873) ज़हरीला ज़हर (1875), प्रेम जोगिनी (1875), सत्य हरिचंद्र (1875), चंद्रावलि (1876), भारत दुर्दशा (1876), भारत जननी (1877), नीलदेवी (1880), अँधेर नगरी (1881), और सती प्रताप (1884)।
छायानुवाद :-
विद्यासुंदर (1868 बंगला से)
अनूदित :-
रत्नावली (1868), पाखंड विडंबन (1872), धनंजय विजय (1876) और दुर्लभबंधु (1880)।
अँधेर नगरी :
इसका प्रकाशन वर्ष 1881 ई. है।
जन प्रचलित एक छोटी सी लोकोक्ति के आधार पर रचित यह छोटा नाटक अपने भीतर समग्र वर्तमान संदर्भ छिपाए हुए है। एक लोककथा में नए प्राण फूँकना और लोकजीवन और राजनीतिक चेतना को एक-दूसरे के क़रीब लाते हुए उनमें निहित यथार्थ को व्यंग्य के द्वारा व्यक्त करना भारतेंदु की मौलिकता है।
अँधेर नगरी भारतेंदु के समय का ही नहीं आज के समय का भी यथार्थ है।
अँधेर नगरी की संपूर्ण कथा को हम तीन भागों में बॉंट सकते हैं। पहले भाग में अँधेर नगरी का चित्रण दूसरे भाग में मुक़दमे की कार्रवाई और तीसरे भाग में गोवर्धन को फाँसी चढ़ाए जाने का दृश्य।
यह नाटक 6 अंकों में विभक्त है। ये सभी अंक अलग-अलग स्थानों पर घटित होते हैं। छोटा नाटक होते हुए भी इसमें पात्रों की संख्या बहुत ज़्यादा है। गद्य में संवादों के साथ-साथ पद्य के अंश भी काफ़ी ज़्यादा हैं। पहले अंक की शुरूआत ही गीत से होती है। पूरे प्रहसन को रंगमंच पर भी खेला जा सकता है, खुले मंच पर भी और नुक्कड़ नाटक शैली में भी।
प्रहसन शैली में लिखे गए इस नाटक में तत्कालीन समय परिस्थितियों का व्यंग्यात्मक चित्रण किया गया है।
नाटक नामक पुस्तक में भारतेंदु ने प्रहसन की परिभाषा करते हुए लिखा था कि ‘हास्य रस का मुख्य खेल नायक राजा वा धनी वा ब्राह्मण वा धूर्त कोई हो। इसमें अनेक पात्रों का समावेश होता है। यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक ही अंक होना चाहिए किंतु अब अनेक दृश्य दिए बिना नहीं लिखे जाते।’
पात्र :
महंत- एक साधु
गोवरधनदास- महंत का लोभी शिष्य
नारायण दास– महंत का दूसरा शिष्य
कबाबवाला- कबाब विक्रेता
घासीराम- चना बेचने वाला
नारंगीवाला- नारंगी बेचने वाली
हलवाई- मिठाई बेचने वाला
कुंजड़िन- सब्ज़ी बेचने वाली
मुग़ल– मेवे और फल बेचने वाला
पाचकवाला– चूरन विक्रेता
मछलीवाली- मछली बेचने वाली
जातवाला- जाति बेचने वाला
राजा– चौपट राजा
मंत्री- चौपट राजा का मंत्री
कल्लू– बनिया जिसके दीवार से फ़रियादी की बकरी मरी
कारीगर- कल्लू बनिया की दीवार बनाने वाला
भारत दुर्दशा :
इसका प्रकाशन वर्ष 1880 ई. है। भारत की तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक दुर्दशा का प्रतीकात्मक चित्रण।
भारत दुर्दशा अँग्रेज़ी राज्य की अप्रत्यक्ष आलोचना है और भारतेंदु की देश भक्ति और निर्भीकता का, सहृदयता और वीरता का प्रमाण है।
उनकी राजनीतिक सूझबूझ, प्रहसन कला, करुणा, व्यंग्य और यथार्थ का सजीव चित्रण इसमें मिलता है। प्रतीकात्मक पात्रों के द्वारा उन्होंने अपनी बात कहने की सफल कोशिश की है।
लोकधर्मी चेतना और प्रयोगशीलता के कारण भारत दुर्दशा आज भी प्रासंगिक है।
यह लचीले शिल्प का नाटक है। उसमें पारसी रंगमंच और नौटंकी लोक नाट्य रूप का अद्भुत मिश्रण है।
पात्र :
भारत दुर्दैव, भारत भाग्य, सत्यानाश, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, निर्लज्जता, डिसलॉयल्टी
जयशंकर प्रसाद : चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी
जयशंकर प्रसाद
प्रसाद की पुस्तक ‘काव्य और कला तथा अन्य निबंध’ में तीन ऐसे निबंध है जिनमें नाट्य विषय पर चर्चा की गई है। इनमें दो निबंधों नाटकों में ‘रस का प्रयोग’ और ‘नाटकों का आरंभ’ में तो प्राचीन भारतीय नाट्यकला और परंपरा का संक्षिप्त परिचय दिया गया है, तथा तीसरे निबंध ‘रंगमंच’ में संस्कृत की नाट्यशाला और उसके विविध तत्वों का विवेचन है।
जयशंकर प्रसाद के अनुसार रंगमंच को नाटक की ज़रूरतों के अनुसार निर्मित किया जाना चाहिए।
मनोरंजन और व्यावसायिकता से भिन्न सोद्देश्यता और रचनात्मकता से अनुप्रेरित होकर उन्होंने नाटकों की रचना की। उनके सभी नाटक राष्ट्रीय मुक्ति और नवजागरण की भावना से प्रेरित होकर लिखे गए हैं। राष्ट्रीय मुक्ति के विराट संघर्ष के सामने जो चुनौतियाँ मौजूद थीं, उन्हीं से उन्होंने नाटकों की कथावस्तु का ताना-बाना बुना है।
जयशंकर प्रसाद नाटक को 'कला का विकसित रूप मानते हैं।' उनके विचार में, नाटक में ‘सब ललित सुकुमार कलाओं का समन्वय है।‘
चंद्रगुप्त :
इसका प्रकाशन वर्ष 1931 ई. है।
यह नाटक कुल चार अंकों में विभाजित है। चारों अंक में मुल 44 दृश्य हैं।
पूरे नाटक में मुख्य तीन घटनाएँ हैं। उसके साथ-साथ कई उपकथाएँ हैं, जिनकी संख्या आठ है।
तीन मुख्य कथा इस प्रकार से हैं :-
1. सिकंदर का आक्रमण
2. नंदवंश का नाश
3. सिल्यूकस की हार
इस नाटक में जो अन्य आठ प्रासंगिक या उपकथाएँ हैं वे इस प्रकार से हैं :-
1. चंद्रगुप्त और कल्याणी की प्रेम कथा
2. चंद्रगुप्त एवं कार्नेलिया की प्रेम कथा
3. चंद्रगुप्त तथा मालविका का प्रणय
4. सिंहरण तथा अलका की प्रेम कथा
5. राक्षस और सुवासिनी की प्रेम कथा
6. पर्वतेश्वर की कथा
7. शकटार की कथा
8. राक्षस और चाणक्य में संघर्ष की कथा।
पुरुष पात्र :
चाणक्य (विष्णुगुप्त)- मौर्य साम्राज्य का निर्माता
चंद्रगुप्त- मौर्य सम्राट
नंद- मगध सम्राट
राक्षस- मगध का अमात्य
वररुचि (कात्यायन)- मगध का अमात्य
शकटार- मगध का मंत्री
आम्भीक- तक्षशिला का राजकुमार
सिंहरण- मालव गणमुख्य का कुमार
पर्वतेश्वर- पंजाब का राजा (पोरस)
सिकंदर- ग्रीक विजेता
फिलिप्स- सिकंदर का क्षत्रप
मौर्य सेनापति- चंद्रगुप्त का पिता
एनीसाक्रीटीज- सिकंदर का सहचर
देवबल, नागदत्त, गणमुख्य- मालव गणतंत्र के पदाधिकारी
साइबर्टियस, मेगास्थनीज- यवन दूत
गांधार नरेश- आम्भीक का पिता
सेल्यूकस- सिकंदर का सेनापति
दांडयायन- एक तपस्वी
स्त्री पात्र :
अलका- तक्षशिला की राजकुमारी
सुवासिनी- शकटार की कन्या
कल्याणी- मगध राजकुमारी
नीला, लीला- कल्याणी की सहेलियाँ
मालविका- सिंदु देश की राजकुमारी
कार्नेलिया- सेल्युकस की कन्या
मौर्य–पत्नी- चंद्रगुप्त की माता
एलिस- कार्नेलिया की सहेली
नाटक के पहले अंक में प्रतिभासंपन्न युवक चंद्रगुप्त को भारत का भावी सम्राट होने की घोषणा की जाती है। इस अंक में कई जगह संघर्ष दिखाया गया है। एक तरफ़ नंद तथा चाणक्य में संघर्ष तो दूसरी तरफ़ सिंधु प्रदेश में संघर्ष की स्थिति। तीसरा संघर्ष बौद्ध तथा हिंदू धर्म का है। राक्षस बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व करता है तो चाणक्य वैदिक धर्म का।
दूसरे अंक में पंचनद के शासक पर्वतेश्वर तथा अलक्षेन्द्र के बीच युद्ध को दिखाया गया है। इस युद्ध में चंद्रगुप्त, चाणक्य, अलका और सिंहरण पर्वतेश्वर का साथ देते हैं। इस युद्ध में यद्यपि पर्वतेश्वर की हार होती है लेकिन फिर अलक्षेन्द्र के साथ असकी संधि हो जाती है। फिर अलक्षेन्द्र तथा चंद्रगुप्त का युद्ध होता है जिसमें अलक्षेन्द्र की हार होती है।
चंद्रगुप्त अलक्षेन्द्र को माफ़ कर देता है और उसे यवन सेनापति को सौंप देता है इस अंक में नाटक के एक महत्त्वपूर्ण पात्र तथा सिल्यूकस की पुत्री कार्नोलिया से हमारा परिचय होता है।
तीसरे अंक में नाटक की कथा मगध को केंद्र मे लेकर लिखी गई है। अलक्षेन्द्र के वापस जाने पर चाणक्य का पूरा ध्यान नंद वंश को उखाड़ फेंकने की ओर लग जाता है। चंद्रगुप्त तथा चाण्क्य के प्रयास से पूरी प्रजा प्रजा नंद के ख़िलाफ़ हो जाती है। नंद भक्तों तथा चंद्रगुप्त की सेना के बीच युद्ध होता है। अंत में नंद की हार होती है।
नंद का अंत हो जाने पर जनता ख़ुशी मनाती है। वह सर्वसम्मति से चंद्रगुप्त को मगध का सम्राट चुनती है।
चौथा अंक विदेशी आक्रमण से संबंधित है। मगध का सम्राट बनाने पर चंद्रगुप्त अपने सम्राज्य का विस्तार करता है। वह अपने राज्य को शक्तिशाली बनाने का सब उपाय करता है। इस बीच उसे विदेश आक्रमण का सामना करना पड़ता है। अलेक्षेन्द्र का सेनापति तथा सीरिया का राजा सिल्यूकस भारत पर विजय की आशा से अक्रमण करते हैं, किंतु शक्तिशाली एवं योग्य शासक चंद्रगुप्त द्वारा वो पराजित होते हैं। फिर सिल्यूकस तथा चंद्रगुप्त तथा चाणक्य में मतभेद भी उत्पन्न हो जाता है। किंतु अंत में पुनः मित्रता हो जाती है।
चाणक्य का उद्देश्य पूरा हो जाता है। चंद्रगुप्त को मगध का सम्राट बना कर राजनीति से संन्यास ले लेता है।
चंद्रगुप्त नाटक का प्रसिद्ध गीत—
‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।...’ अलका गाती है और जन साधारण को देश की रक्षा के लिए आह्वान करती है।
कार्नेलिया भारत की महिमा का गान इन शब्दों में करती है—
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।‘
स्कंदगुप्त :
इसका प्रकाशन वर्ष 1928 ई. है। यह नाटक 5 अंकों में विभक्त है। प्रसाद ने अपने नाटक स्कंदगुप्त में भारत तथा यूरोप दोनों की नाट्य कलाओं का समावेश किया है।
इसकी कथावस्तु गुप्त वंश के प्रसिद्ध सम्राट स्कंदगुप्त के जीवन पर आधारित है। स्कंदगुप्त का समय 5वीं सदी ई. माना जाता है। यह वह समय है जब देश शकों और हूणों के हमलों से आक्रांत था। स्कंदगुप्त ने हूणों के हमलों से अपने राज्य की रक्षा की और आक्रमणकारियों का जबर्दस्त प्रतिरोध किया।
पात्र :
पुरुष पात्र- स्कंदगुप्त, कुमारगुप्त, गोविंदगुप्त, पर्णदत्त, चक्रपालित, बंधु वर्मा, भीम वर्मा, मातृगुप्त, प्रपंच बुद्धि, शर्वनाग, कुमार दास, पुरगुप्त, भटार्क, पृथ्वीसेन, खिंगिल, प्रख्यात कीर्ति।
स्त्री पात्र- देवकी, अनंत देवी, जयमाला, देवसेना, विजया, रामा, मालिनी।
ध्रुवस्वामिनी :
इसका प्रकाशन वर्ष 1933 ई. है।
यह नाटक 3 अंकों में विभक्त है।
इसमें स्त्री पुनर्विवाह का चित्रण किया गया है। साथ ही स्त्री-पात्रों की सशक्तिकरण का चित्रण मिलता है।
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का घटना व्यापार विजय-यात्रा शिविर तथा शक दुर्ग में घटित होता है। इस नाटक की कथावस्तु तीन अंकों में विभाजित है। प्रत्येक अंक में एक ही दृश्य है। दृश्य की समस्त घटनाएँ एक ही स्थान पर घटित होती है।
सम्राट समुद्रगुप्त ने अपना उत्तराधिकारी अपने बड़े पुत्र रामगुप्त को न चुनकर छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को चुना था, किंतु सम्राट की मृत्यु के पश्चात् चंद्रगुप्त ने अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया और रामगुप्त सम्राट बना।
समुद्रगुप्त की साम्राज्य नीति के अनुसार विजित राजा लोग विजयी राजा को उपहार के रूप में कन्यादान करते थे। इसी तरह ध्रुवस्वामिनी गुप्तकुल में आई उसका विवाह चंद्रगुप्त से होना था किंतु रामगुप्त के सम्राट बन जाने पर उसका विवाह रामगुप्त से हुआ।
पौरुष विहीन और विलासी होने के कारण रामगुप्त शासन का दायित्व वहन करने में तो असमर्थ सिद्ध होता ही है अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार नहीं करता। उसे शंका है कि कही ध्रुवस्वामिनी के मन में अब भी चंद्रगुप्त के प्रति प्रेम तो नहीं है।
तभी सूचना मिलती है कि शकों ने शिविर को दोनों ओर से घेर लिया है। शक दूत संधि प्रस्ताव लाता है जिसमें शकराज ने अपने लिए ध्रुवस्वामिनी की माँग की है। यदि वे दे दी जाएँ तो संधि हो सकती है। रामगुप्त उसे शकराज को भेंट करने के लिए तैयार हो जाता है रामगुप्त और शिखरस्वामी के कायरतापूर्ण प्रस्ताव को जानकर चंद्रगुप्त क्रोधित होता है। गुप्त कुल की मर्यादा और ध्रुवस्वामिनी के सम्मान की रक्षा को अपना दायित्व मानता हुआ वह प्रस्ताव करता है कि वह स्वयं ध्रुवस्वामिनी के वेश में सामंत कुमारों के साथ शकराज के पास जाएगा।
रामगुप्त और शिखरस्वामी को चंद्रगुप्त का यह प्रस्ताव उचित लगता है। वीरतापूर्वक चंद्रगुप्त शकराज को समाप्त कर देता है और शक दुर्ग उसके आधिपत्य में आ जाता है।
विजय की सूचना पाकर रामगुप्त, शिखरस्वामी, मंदाकिनी आदि भी वहाँ आते हैं।
रामगुप्त सैनिकों को आज्ञा देकर चंद्रगुप्त सहित सामंत कुमारों को बंदी बनवा लेता है। चंद्रगुप्त आवेश में आकर लोह-श्रृंखला तोड़ डालता है। सैनिकों को आदेश देकर सामंत कुमारों को मुक्त कराता है। शिखरस्वामी तथा रामगुप्त को दुर्ग छोड़कर जाने का आदेश देता है और दुर्ग पर अपना आधिपत्य घोषित करता है। अंततः परिषद् चंद्रगुप्त को राजाधिराज और ध्रुवस्वामिनी को महादेवी घोषित करती है।
पात्र :
पुरुष पात्र- चंद्रगुप्त, रामगुप्त, शिखरस्वामी, पुरोहित, शकराज, खिंगिल, मिहिरदेव।
स्त्री पात्र- ध्रुवस्वामिनी, मन्दाकिनी, कोमा।
अन्य पात्र- सामंत कुमार, शक सामंत, प्रतिहारी प्रहरी, दासी, कुबड़ा, बौना, हिजड़ा, नर्तकियाँ खड्गधारिणी।
धर्मवीर भारती : अंधा युग
धर्मवीर भारती
अंधा युग :
इसका प्रकाशन वर्ष 1954 ई. है।
अंधा युग की कथा का घटना काल महाभारत के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु तक है। उद्द्घोषक समानांतर रूप से हिंदी और संस्कृत में उद्घोषणा करता है कि यह कथा कलयुग की है जहाँ सब कुछ लोलुपता से संचालित होगा।
इस युग में आसुरी शक्तियों का राज होगा और विध्वंस ही इस युग की अंतिम नियति होगी। इस युग की कथा ज्योति की होगी पर लिखी जाएगी अंधों के माध्यम से।
प्रसिद्ध रंग-समीक्षक जयदेव तनेजा लिखते हैं—“अंधायुग किसी विशिष्ट स्थिति अथवा युग विशेष का द्योतक न होकर अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ अपने में समाए हुए हैं। अतः कुंठा, हताशा, रक्तपात, घृणा, प्रतिशोध, विकृति, संत्रास, भय, मूल्यहीनता, कुरूपता और विध्वंस के सर्वग्रासी सूचीबद्ध अंधकार का संगत और सार्थक बिंब एवं प्रतीक है—अंधायुग” (अंधायुग, पाठ और प्रदर्शन)
कुछ आलोचक अंधायुग की संवेदना पर अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव स्वीकारते हैं।
अंधा युग का नाट्य रूप :
अंधा युग के संरचनात्मक स्वरूप को लेकर विद्वानों के बीच मतभेद रहा है। इसके रूप विधान के संबंध में एक सामान्य निष्कर्ष प्रायः सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है कि इसमें काव्य और नाटक की सम्मिलित स्थितियाँ उपलब्ध होती है। स्वयं धर्मवीर भारती ने रचना के निर्देश में इसके लिए 'काव्य नाटक’, ‘दृश्य काव्य’, ‘गीति नाट्य' नामों का उल्लेख किया है।
महाभारतकालीन युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखा यह 5 अंकों का नाटक आधुनिक समय में युद्ध की त्रासदी का चित्रण करता है। अपने आधुनिक संदर्भ में यह कर्म तथा भाग्य एवं आस्था तथा अनास्था के द्वंद्व का भी चित्रण करता है।
अनुक्रम—
पहला अंक (कौरव नगरी)
दूसरा अंक (पशु का उदय)
तीसरा अंक (अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य) अंतराल (पंख, पहिये और पट्टियाँ)
चौथा अंक (गांधारी का शाप)
पाँचवाँ अंक (विजयः एक क्रमिक आत्महत्या) समापन (प्रभु की मृत्यु)।
पात्र :
कृष्ण, अश्वत्थामा, गांधारी, विदुर, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, कृतवर्मा, कृपाचार्य, संजय, युयुत्सु, वृद्ध याचक, गूँगा भिखारी, व्यास, बलराम प्रहरी 1, प्रहरी 2।
लक्ष्मीनारायण लाल : सिंदूर की होली
लक्ष्मीनारायण मिश्र
जन्म 1903 ई. में हुआ।
समस्या नाटक :- संन्यासी, राक्षस का मंदिर, मुक्ति का रहस्य, सिंदूर की होली, राजयोग, आधी रात।
ऐतिहासिक नाटक :- अशोक, नारद की वीणा, गरुडध्वज, वत्सराज, दशाश्वमेघ, वितस्ता की लहरें, वैशाली में बसंत, धरती का हृदय, वीरशंख।
पौराणिक नाटक :- चक्रव्यूह, अपराजित, चित्रकूट।
जीवनी नाटक :- कवि भारतेन्दु, मृत्युंजय, जगद्गुरु।
इब्सन, बर्नाड शॉ इत्यादि पश्चिमी विचारकों से प्रभावित लक्ष्मीनारायण मिश्र हिंदी में ‘समस्या नाटक’ के महत्त्वपूर्ण लेखक हैं। प्रसाद के समकालीन लेखकों में नए गद्य प्रयोग करने वालों में लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम प्रमुख है। लक्ष्मीनारायण मिश्र ने यथार्थवादी बुद्धिवादी नाटकों पर जोर दिया और अँग्रेज़ी के ‘Problem play’ के अनुकरण पर उन्होंने हिंदी में समस्या नाटकों की रचना की।
समसामयिक समाज की ज्वलंत समस्याओं को प्रस्तुत करने वाले इन नाटकों में भावुकतापरक रोमानी दृष्टि से बचने का भरपूर प्रयास का दावा है।
समस्या नाटकों का दृष्टिकोण जीवन की यथार्थवादी चेतना के प्रति भावुक न होकर बुद्धिवादी हो गया।
सबसे पहले लक्ष्मीनारायण मिश्र ने ही बुद्धिवाद के द्वारा आज की नई वैयक्तिक समस्याओं का विश्लेषण करना आरंभ किया।
सिंदूर की होली (1933), आधी रात (1936), राजयोग (1933), संन्यासी (1930), राक्षस का मंदिर (1931), मुक्ति का रहस्य (1932) आदि समस्या नाटकों की उन्होंने रचना की।
लक्ष्मीनारायण मिश्र जी ने प्रेम विवाह और काम की समस्याओं का प्रतिपादन भी किया है।
अपने लेखनकाल के अंतिम दौर में उन्होंने पौराणिक ऐतिहासिक नाटक भी लिखे। ऐसे कुछ नाटक हैं 'नारद की वीणा’ (1946), ‘चक्रव्यूह’ (1953), दशाश्वमेध।
सिंदूर की होली :
इसका प्रकाशन वर्ष 1934 ई. में हुआ। यह नाटक 2 अंकों में विभक्त है।
इस नाटक की अधिकारिक कथा मुरारीलाल के घूस लेने, रजनीकांत के मारे जाने तथा उसकी लाश के हाथों चंद्रकला के द्वारा अपने माँग में सिंदूर भरना, इन प्रासंगिक कथाओं के संदर्भ में मनोजशंकर और चंद्रकला, मुरारीलाल और मनोजशंकर के पिता भगवन्तसिंह और रजनीकांत, हरनंदन सिंह आदि की कथाएँ देखी जाती हैं।
पात्र :
रजनीकांत, मनोजशंकर, मुरारीलाल, माहिरअली, भगवन्त सिंह, हरनंदन, चंद्रकला, मनोरमा, डॉक्टर व कुछ और जन।
मोहन राकेश : आधे-अधूरे
मोहन राकेश
जन्म 8 जनवरी 1925 ई. है।
नाटक :- आषाढ़ का एक दिन (1958), लहरों के राजहंस (1963), आधे-अधूरे (1969), पैर तले की ज़मीन (अधुरा कमलेश्वर ने पूरा किया)।
प्रख्यात नाट्य आलोचक नेमिचंद्र जैन ने कहा है, “हिंदी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय उस समय हुआ जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में जीवन के हर क्षेत्र को स्पंदित कर रहा था। उनके नाटकों ने न सिर्फ़ हिंदी नाटक का आस्वाद तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिंदी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया।
इसका प्रकाशन वर्ष 1969 ई. है। यह नाटक स्त्री-पुरुष संबंध और दांपत्य संबंध के खोखलेपन तथा पारिवारिक विघटन की जीवन स्थितियों को दर्शाने वाला नाटक है।
इसका कथानक मध्य वर्ग के जीवन से संबंधित है। एक शहरी मध्यवर्गीय परिवार की कहानी इसमें कही गई है जो धीरे-धीरे टूट रहा है।
पुरुष महेंद्रनाथ एक असफल व्यक्ति है और पत्नी सावित्री की नौकरी से ही घर का ख़र्च चलता है।
पति की असफलता और दब्बूपन ने पत्नी के जीवन को रिक्तता से भर दिया है और इससे मुक्ति पाने के लिए वह ऐसे पुरुष की तलाश में है जो उसे इस ख़ालीपन से आज़ाद कराए।
लेकिन इस नाटक के सभी पात्र आधे-अधूरे हैं और मुक्ति की तलाश के बावजूद वे उसी नियति से बंधे चक्कर लगाते रहते हैं। मध्यवर्ग की इस विडंबना को ही मोहन राकेश ने प्रभावशाली रूप में नाटक में प्रस्तुत किया है।
पात्र :
का.सू.वा. (काले सूट वाला आदमी) जो कि पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन तथा पुरुष चार की भूमिकाओं में भी है।
पुरुष एक के रूप में वेशांतर- पतलून-क़मीज़। (महेंद्रनाथ)
पुरुष दो के रूप में- पतलून और बंद गले का कोट। (सावित्री का बाँस)
पुरुष तीन के रूप में- पतलून-टीशर्ट। (जगमोहन)
पुरुष चार के रूप में- पतलून के साथ पुरानी काट का लंबा कोट। (जुनेजा)
स्त्री- उम्र चालीस को छूती। (सावित्री)
बड़ी लड़की- उम्र बीस से ऊपर नहीं। (बिन्नी)
छोटी लड़की- उम्र बारह और तेरह के बीच। (किन्नी)
लड़का- उम्र इक्कीस के आस-पास। (अशोक)
आषाढ़ का एक दिन :
इसका प्रकाशन वर्ष 1958 ई. है।
यह नाटक 3 अंकों में विभक्त है। यह नाटक कवि कालिदास के सत्ता एवं सर्जनात्मकता के मध्य अंतः संघर्ष का चित्रण करता है।
इस नाटक की कथावस्तु में लेखक और राज्य के बीच संबंधों से उत्पन्न रचनाकार के द्वंद्व को गहरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया गया है।
यह केवल कालिदास का द्वंद्व नहीं बल्कि आधुनिक मानव का भी अंतर्द्वद्व है।
पात्र :
अंबिका- ग्राम की एक वृद्ध स्त्री
मल्लिका- उसकी पुत्री
कालिदास– कवि
दंतुल- राजपुरुष
मातुल- कवि मातुल
निक्षेप- ग्राम-पुरुष
विलोम- ग्राम-पुरुष
रंगिणी- नागरी
संगिनी- नागरी
अनुस्वार- अधिकारी
अनुनासिक- अधिकारी
प्रियंगुमंजरी- राजकन्या, कवि पत्नी
हबीब तनवीर : आगरा बाज़ार
हबीब तनवीर
जन्म: 1 सितंबर 1923, रायपुर (छत्तीसगढ़)
नाटक :- शतरंज के मोहरे, मिट्टी की गाड़ी, मिर्जा शोहरत बेग, लाला शोहरत राय, हिरमा की अमर कहानी, चरनदास चोर, आगरा बाज़ार, बहादुर कलारिन, शाजापुर की शांतिबाई, देख रहे हैं नैन, मुद्राराक्षस, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना, सड़क।
आगरा बाज़ार :
इसका प्रकाशन वर्ष 1954 ई. है।
शायर नज़ीर अकबराबादी की ज़िंदगी के इर्द-गिर्द बुना गया नाटक है।
यह नाटक अपने व्यंग शैली तथा संगीत-बद्धता के लिए हिंदी नाटक व रंगमंच के क्षेत्र में अत्यंत लोकप्रिय है।
नाटक में स्थानीय संस्कृति, लोकजीवन और लोक परंपराओं का चित्रण है।
पात्र :
ककड़ीवाला, फ़क़ीर, हमजोली, किताबवाला, शोहदा, तजकिरानवीस, शायर, पतंगवाला, गंगाप्रसाद इत्यादि।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना : बकरी
जन्म- 15 सितंबर 1927
नाटक :- बकरी (1974), लड़ाई (1979), अब ग़रीबी हटाओ (1981), कल फिर भात आएगा, राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती, हवालात, होरी धूम मच्यो री, पीली पत्तियाँ।
बकरी :
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के अनुसार “यह नाटक हमारी स्वाधीनता की तलछट का चित्र है व तलछट जो समय बीतने के साथ गहरी होती गई है।”
बकरी नाटक गांधी जी के नाम पर देश की ग़रीब जनता के शोषण का दस्तावेज़ है।
इसका प्रकाशन वर्ष 1974 ई. है।
बकरी नाटक में दो अंक है, और प्रत्येक अंक में तीन-तीन दृश्य है।
इस नाटक की रचना उत्तर प्रदेश की नौटंकी शैली में हुई है। इसमें दोहा, चौबोला, बहरेतबील, कहरवा आदि छंदों का प्रयोग किया गया है।
इसमें आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन तथा गांधीवादी मूल्यों के ह्रास का व्यंग्यात्मक चित्रण मिलता है।
पात्र :
नट, नटी, भिश्ती, दुर्जनसिंह, कर्मवीर, सत्यवीर, सिपाही, विपती, युवक, काका, काकी, चाचा, राम, एक ग्रामीण, दूसरा ग्रामीण।
शंकर शेष : एक और द्रोणाचार्य
शंकर शेष
जन्म- 2 अक्टूबर, 1933
एक और द्रोणाचार्य :
इसका प्रकाशन वर्ष 1976 ई. है।
दो भागों में बटा यह नाटक पौराणिक कथा महाभारत के माध्यम से आज की शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को रेखांकित करता हुआ इसे प्राचीन परंपरा से जोड़ता है।।
पुरुष पात्र :
यदू, अरविंद, प्रिंसिपल, चंदू, विमलेंदु, द्रोर्णाचार्य, अर्जुन, प्रेसिडेंट, अश्वत्थामा।
स्त्री पात्र :
लीला, कृपी, अनुराधा।
उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ : अंजो दीदी
जन्म- पंजाब के जालंधर नगर में 14 जनवरी 1910 को।
नाटक :- जय-पराजय (1930), स्वर्ग की झलक (1938) छठा बेटा (1940), अलग-अलग रस्ते (1943), क़ैद (1945), उड़ान (1946), तकल्लुफ़ (1948), पैंतरे (1952), अंजो दीदी (1955), अंधी गली (1955), बड़े खिलाड़ी (1967), भँवर आदि।
अंजो दीदी :
इसका प्रकाशन वर्ष 1955 ई. है।
यह दो (2) अंकों का नाटक है। दोनों अंको में तीन-तीन दृश्य हैं।
पहला अंक का स्थान- दिल्ली में अंजली दीदी के बंगले की बैठक व खाने का कमरा समय 1933, गर्मियों का एक दिन है।
दूसरे अंक का स्थान- दिल्ली में अंजली दीदी का वही बैठक का स्थान व खाने का कमरा 20 वर्ष बाद 1953 सर्दियों का एक दिन है।
उच्च मध्यवर्ग के खोखले संस्कारों का प्रतिनिधित्व करती इस नाटक की प्रमुख पात्र ‘अंजो दीदी’ एक बेहद यांत्रिक महिला है। जो कि अनुशासित जीवन जीने के लिए एकदम कटिबद्ध है और घर के सभी लोगों को भी ऐसा करने को बाध्य करती है।
यह यांत्रिकता उसके जीवन को ख़त्म कर देती हैं। इस नाटक में जीवन के एकाकीपन तथा उससे उपजी विसंगतियों का चित्रण किया गया है।
नारी की कठोर पारिवारिक नियंत्रण से परिवार विघटन की समस्या।
लेखक के अनुसार अहं की भावना परंपरागत प्रवृति है, जो अपनी मनोवृत्तियों को दूसरे पर ज़बरदस्ती थोपती है। जो कि न ही ख़ुद उन्नति करती है और दूसरे के मार्ग में पत्थर का रूप लेती है।
मन्नू भंडारी : महाभोज
मन्नू भंडारी
जन्म- सन् 1931 ई.
नाटक :- बिना दीवारों के घर, महाभोज
महाभोज :
महाभोज सबसे पहले उपन्यास के रूप में 1979 में प्रकाशित हुआ था।
इसी उपन्यास को नाटक के रूप में 1983 में प्रकाशित किया गया।
इसका पहला मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली के रंग-मंडल द्वारा मार्च 1982 में हुआ था।
यह राजनीति पर आधारित यथार्थपरक नाटक है।
यह नाटक 10 दृश्यों में विभक्त है।
आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति तथा अपराध के गठजोड़ का जो चेहरा आम जन के सामने आया उसका स्पष्ट व यथार्थवादी चित्रण
इस नाटक में किया गया है।
महाभोज नाटक का कथानक 1977 ई. में घटित बिहार के पटना ज़िले का बेलछी नरसंहार है।
पात्र :
दो साहब- मुख्यमंत्री
सुकुल बाबू- भूतपूर्व मुख्यमंत्री, विरोधी पार्टी के नेता।
अप्पा साहब- सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष।
लखन पांडेजी- दा साहब के निजी सचिव।
जमना बहन- दा साहब की पत्नी
सिन्हा- डी.आई.जी.
दत्ता बाबू- ‘मशाल’ साप्ताहिक के संपादक।
भवानी- ‘मशाल’ का सहायक संपादक।
नरोत्तम- प्रेस रिपोर्टर।
महेश- रिसर्च स्कॉलर एवं सूत्रधार।
रती- दा साहब का पी.ए.
मोहनसिंह- पुलिस कॉन्स्टेबल।
बिसू- हरिजनों का हमदर्द, जो मार दिया गया है।
हीरा- बिसू का बाप
बिंदा- बीसू का अभिन्न मित्र
रुक्मा- बिंदा की पत्नी
जोरावर- सरोहा का दबंग नवधनाढ्य किसान
काशी- सुकुल बाबू का विश्वसनीय कार्यकर्ता
थानेदार- सरोहा का थानेदार, ज़ोरादर का चमचा
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