हिंदी-साहित्य में उपन्यास
hindi sahity mein upanyas
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
Surykant Tripathi Nirala
हिंदी-साहित्य में उपन्यास
hindi sahity mein upanyas
Surykant Tripathi Nirala
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी निराला
हिंदी में भाषा और भावों के बाग में, अभी पतझड़ का ही समय है। जिन डालियों में नए पल्लव, नवीन बसंत की सूचना के रूप में निकले भी हैं, उन्हें सत्समालोचन के अभाव में कुहरे ने अंधकार में डाल रक्खा है और यह भी निस्संदेह है कि अभी साहित्य की पृथ्वी पर उषा की अस्पष्ट छाया ही पड़ी है, प्रभात का स्नेहप्रकाश नहीं फैला अर्थात् यह अभी हिंदी के उपन्यास साहित्य का बाल्यकाल है, जहाँ असंयत प्रलाप ही शृंखलित परिचय तथा अलाप की जगह सुन पड़ता है। बाल-हाथों की अधूरी रचनाएँ ही हैं जो रचयिता की मानसिक स्थिति का बयान करती हैं। अभी प्रकृति के विशाल बाग के खुले हुए विविध रंगों के पुष्पों की तरह समाज तथा परिस्थिति के अम्लान, कला-कांति की परकाष्ठा तक पहुँचे हुए, अपने समय तथा ऋतु के गौरव के रूप से दिगंत को सुरभित करने वाले प्रसून नहीं खिले, उन चित्रों में बाल्य की अस्पष्टता ही अधिक है, सफलता का प्रकाश कम।
सृष्टि का सबसे बड़ा कारण परिस्थितियों का रूपांतरण है अथवा युग का प्रवर्तन। हिंदी के युग में प्रवर्तन को अपनी तमाम शक्तियों से इष्टमंत्र की तरह जपकर बुलानेवाले, उसकी प्रतिष्ठा करने वाले उपन्यासकार हैं ही नहीं। उपन्यास की पृथ्वी पर पतझड़ के पश्चात् जो बसंत की हवा बहती है, उसका स्पर्श ही अभी नहीं मिल रहा है, फिर नए रंग, नए चित्र, नई भरी-पूरी पुष्प पल्लवमयी शोभा तो बड़ी दूर की बात है। समाज जिस धारा में पहले से बहता हुआ आ रहा था, उपन्यासकार उसी धारा में बहते हुए समाज की अवस्था का अपने अधूरे प्रयत्नों से, अधूरी भाषा से चित्रण करते आए। फल यह हुआ कि हर जगह चित्रकारों से उनके चित्रों की ही शक्ति महान रही है, अतः डरे हुए दुर्बल चित्रकारों के प्रयत्न प्रायः असफल ही रहे हैं; कारण, पूर्व आदर्श की महत्ता तक न वर्तमान समाज ही पहुँचा हुआ है और न ही उसके चित्रित करने वाले चित्रकार। स्वप्न की अस्पष्ट रेखा की तरह उसके खींचे हुए प्राचीन बड़े आदर्श के चित्र वर्तमान जागृति के प्रकाश में छाया-मूर्तियों में ही रह गए हैं, जिनके साहित्यिक अस्तित्व से अस्तित्व ही प्रबल है। जब तक किसी बहते प्रवाह के प्रतिकूल किसी सत्य की बुनियाद पर ठहरकर कोई उपन्यास नई-नई रचनाओं के चित्र नहीं दिखलाता, तब तक न तो उसे साहित्यिक-शक्ति ही प्राप्त होती है और न समाज को नवीन प्रवहमान जीवन; तभी रचना विशेष शक्ति तथा सौंदर्य से पुष्ट होकर नवीनता का आवाहन करती है, कला भी साहित्य को नवीन ऐश्वर्य से अलंकृत करती है, कलाकार कला से अधिक महत्त्व प्राप्त करता है, अथवा वह कला का अधिकार समझा जाता है न कि किसी प्रवाह के साथ बहने वाला, केवल एक अनुसरणकारी। हिंदी में एक तो नवीन परिवर्तन कोई ऐसा हुआ ही नहीं, दूसरे शिक्षा के अभाव के कारण खेत भी ऊसर ही पड़ा रहा, यद्यपि प्रकृति उस पर नियमानुसार ही वर्षा करती रही। वहाँ अधिकांश जंगली वृक्षों तक बबूलों की ही उपज हुई, कुछ प्रसून भी खिले, जिन्हें जंगली काँटो ने ही रूंध रक्खा।
प्रेमचंद हिंदी के सबसे बड़े औपन्यासिक हैं; पर पूर्वकथन के अनुसार, युग को नए साँचे में ढाल देनेवाली रचनाएँ उन्होंने नहीं दीं, युग के अनुकूल रचनाएँ की हैं। प्रायः आदर्श को नहीं छोड़ा। यद्यपि उनके पात्र कभी-कभी प्राकृतिक सत्य की पुष्टि अपने उल्लंघनों तथा उच्छृखलताओं के भीतर से कर जाते हैं, तथापि रचना में उनके आदर्शवाद की ही विजय रहती है, उनके सितार में वही बोल विशेष रूप से स्पष्ट सुन पड़ता है। हिंदी के और-और उपन्यासकारों की मैं कोई चर्चा नहीं करूँगा; कारण उनमें ख़ूबियों की जगह कमज़ोरियों के ही बीमार चित्र अधिक मिलते हैं। कहीं भाषा रो रही है तो कहीं अंधे भाव को रास्ता नहीं सूझता; कहीं अकारण ही सफ़े-के-सफ़े रंग डाले गए हैं तो कहीं कर्कशता की छुरी से चित्रों की नाक ही काट ली है। किसी-किसी महालेखक की भाषा तो ऐसी स्थूलांगी है कि जगह से हिलना भी नहीं चाहती “चलना हराम इसे उठना कसम है' और वहीं से दूसरों को रिझाने के लिए अपने उपले-से मुँह की मक्खियों-सी आँखों के इशारे करती है। तारीफ़ यह है कि उसपर मर-मिटनेवालों की भी हिंदी में कमी नहीं। इस रुचि से हिंदी के अधिकांश मनुष्यों की रुचि भी मालूम पड़ जाती है। सफल उपन्यासकार यदि कोई निकल जाए तो प्रेमचंद जी ही देख पड़ते हैं, बहुत अंशों में कहा जाए या कुछ अंशों में, समाज की पूर्वोक्ति रुचि के भीतर पलने के कारण प्रेमचंद जी को एक ही जगह सफलता मिली है; ग्राम्य चित्रों को खींचने में, ग्रामीणों के साधारण चित्रों को असाधारण स्वाभाविकता के साथ खोलने में और मनुष्य-मन की छानबीन में भी। समाज की अनुकूल धारा में रहकर जो कुछ रत्न उन्होंने हिंदी के उपन्यास-साहित्य को दिए, वे यही हैं। इनमें उनकी लेखनी से, हिंदी-संसार की स्थिति और भारतीय मनों के विभिन्न परिचय साहित्य के पृष्ठों में सफलता के साथ अंकित हुए हैं।
पर यह समाज के ऊँचे अंग का चित्रण नहीं। जब तक चित्रकार स्वयं उसकी उच्चता के शिखर पर पहुँचकर उसकी श्री तथा शोभा में स्वयं आत्म-विस्मृत नहीं हो जाता, अपने वायुमंडल को तदनुकूल ही नहीं बना लेता, उसकी आत्मा में अपने को डुबा नहीं देता, केवल दर्शक की तरह दूर रहकर एक-दूसरे वायुमंडल में साँस लेकर, तटस्थ रहकर उसके चित्रों को सफलता से खींचना चाहता है, तब तक प्रायः वह असफल ही होता है। भीतर एक दूसरी ही सभ्यता रहेगी, तो साहित्य में एक दूसरी सभ्यता की पराकाष्ठा पर पहुँचकर, प्राणों तक पहुँचकर उत्कर्ष प्राप्त करना आकाश पर दीवार उठाना है। इसीलिए, हिंदी के उपन्यासों में और प्रायः सब जगह, नवीन सभ्यता और नवीन प्रकाश के प्रदर्शन में अधिकांश चित्र 'प्रांशुलभ्येफले, मोहादुदबाहुरिव वामनः', रह गए हैं। अँग्रेज़ी में अनेक भारतीय लेखक, जिन्हें विलायत में ही शिक्षा मिली है, अँग्रेज़ी में कविता तथा उपन्यासों के लिखने के प्रयत्न में प्रायः असफल ही रहे। इसका कारण यही है, उनके हृदय के स्वर में अँग्रेज़ी सभ्यता का स्वर नहीं मिला। कृत्रिमता जाति के प्राणों को नहीं हिला सकी।
जिस वृहत्तर भारत की आवाज उठाई जा रही है, खासकर बंगाल के ब्रह्म समाज में, उसका नक्शा वहाँ के लोगों के दिलों में इसी आधार पर खिंचा हुआ है। जो लोग कुछ तह तक पहुँचकर चरित्रों को तौल सकते हैं, वे जानते हैं कि इस आवाज़ के अनुकूल चलना अभी भारत के अधिकांश जनों के लिए असंभव है; पर है यह एक बड़ी बात, जिसमें भारत के उठने की ओर ही इशारा किया गया है और सत्य के आश्रय पर प्रतिष्ठित है। अवश्य भारत के लिए यह नई बात नहीं, कारण यहाँ समाज के वृहत्तम चित्र मिलते हैं, साथ ही भाषा की शक्ति ललित मधुरता। शकुंतला जंगल में रहती पर कालिदास की लेखनी से उससे जिस स्वरूप की छटा निकलती है, वह सभ्य-से-सभ्य मनुष्य के हृदय को अधिकृत कर लेती है। कारण यह कि कालिदास भारत के स्वतंत्र काल के कवि थे और भारतीय आदर्श के अनुकूल ही उनकी भाषा मंझी हुई थी और वृहत् चित्र के ध्यान में वे अपने को मिला सकते थे। आज हिंदुस्तान के गौरव के दिन नहीं रहे, इसलिए सिर उठाते वक्त लेखकों को सदियों की दासता का भार दबा लेता है और ये शक्ति के अभाव के कारण शक्तिवालों से मुकाबला नहीं कर सकते, शक्ति संयुक्त भाषा नहीं लिख सकते, पुष्ट चित्र नहीं खोल सकते। उनकी रचना उन्हीं की तरह सिर के दुर्व्यवहार की सूचना देती है। हमारे उपन्यास-साहित्य का यही हाल है। समाज की तरह रचनाओं की निगाह भी अधोमुख हो रही है। आँख उठाकर देखने के असामर्थ्य के कारण उनके चित्र भी नेत्रहीन, लक्ष्यभ्रष्ट और पतित हो रहे हैं। राजनीतिक मैदान में जिस तरह बड़ी-बड़ी लड़ाइयों के लिए सिर उठाना आवश्यक है, उसी तरह साहित्य के मैदान में भी है, और चूँकि अभी इस लड़ाई के, हमारे साहित्य की यह दुर्दशा है। नई सृष्टि कोई मामूली बात नहीं। राजनीति के महात्याग से वह कम महत्त्व नहीं रखती। कारण, इस सृष्टि में भी बाहर की तमाम ज़िंदगी से संग्राम कर हृदय के एक प्रस्फुट चित्र निकालने में वैसी ही अड़चनें आती हैं और सफलता से वैसा ही सुख भी प्राप्त होता है जैसा कि बाह्य स्वतंत्रता द्वारा। “वह रोटी पकाती थी, इधर उसका बच्चा रोने लगा”, यह सब समाज के ऊँचे अंग के चित्रण नहीं। चित्रों तथा मनोभावों को तमाम अंगों से लाकर एक मनोहर समाप्ति में विराम देना ऊँचे अंग की सृष्टि है। देवियों के वर्तमान चित्रण में अपार भारतीयता का प्रदर्शन कर, आदर्श की पराकाष्ठा पर काष्ठ की तरह बैठे हुए हिंदू-समाज को हिला देना मेरा उद्देश्य नहीं; कारण, मैं किसी का घोंसला नहीं छीनता, इतना ही कहूँगा, घोंसलेवाले ही हैं और उनके चित्र, चित्रण, चरित्र वर्तमान उन्नत समाजों के मुकाबले में वैसे ही अधम।
- पुस्तक : प्रबंध प्रतिमा (पृष्ठ 56)
- रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
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