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हिंदी लोक-नाटक : परंपरा और नाट्य-रुढ़ियाँ

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सुरेश अवस्थी

सुरेश अवस्थी

हिंदी लोक-नाटक : परंपरा और नाट्य-रुढ़ियाँ

सुरेश अवस्थी

और अधिकसुरेश अवस्थी

    लोक-नाटक प्रत्येक देश की परंपरागत संस्कृति का अत्यंत समृद्ध एवं गहराई तक पहुँचा हुआ अंग होता है। नृत्य और संगीत की ही भाँति लोक-साहित्य की इस शाखा में भी राष्ट्रीय प्रतिभा की वास्तविक झाँकी मिलती है। विभिन्न सांस्कृतिक रूपों वाले भारतवर्ष में, लोक की कलात्मक अभिव्यक्ति के इस स्वरूप को भी विस्तृत क्षेत्र मिला है। हमारे देश में अनंत नाटक-साहित्य है, जो एक ओर तो विविध जाति एवं चरित्रगत विशेषताओं की दृष्टि से और दूसरी और सौंदर्यगत आकर्षण तथा कलात्मक उपलब्धि की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। चाहे कोई उत्सव अथवा त्यौहार हो या जनजीवन की अन्य सामान्य घटनाएँ, कोई कोई नाट्य-प्रदर्शन हो ही जाता है जिसमें कि गीत, नृत्य, पुराण-प्रसंग और कथा सभी परस्पर संबद्ध हो। जनता के जीवन तथा उसकी चेतना का अभिन्न अंग यह नाटक प्रकृति की 'प्रतिच्छवि’ के समान है।

    पृष्ठभूमि मध्ययुगीन ‘बहुरंगी नाट्य’

    भारतीय नाट्य के इतिहास में, मध्ययुगीन 'बहुरंगी नाट्य' के विविधता-परक स्वरूप से अधिक आकर्षक कोई भी अन्य वस्तु रही है। शास्त्रीय परंपरा के विच्छिन्न होने के पश्चात्, 'भाषा-साहित्य' तथा 'जनपद-संस्कृति' के प्रसार और समृद्धि के साथ ही साथ नाट्य का भी उदय और विकास हुआ। हमारा लोक-नाट्य इसी 'बहुरंग नाट्य' की परंपरा में है, अतः इसका संक्षिप्त परिचय देना उपयोगी होगा। ऐसा करने के दो विशेष कारण भी हैं। एक तो यह कि इसके द्वारा लोक-नाट्य के प्राथमिक स्रोतों और कला-उपकरणों के संबंध में हमें ऐतिहासिक दृष्टि प्राप्त हो सकेगी और दूसरे, लोक-नाट्य की नाटकीय-प्रणालियों और प्रदर्शन-नियमों को हम अधिक वैज्ञानिक ढंग से समझने में समर्थ हो सकेंगे। यह सर्वविदित है कि मध्ययुगीन नाट्य अकस्मात् एवं पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुआ था—वस्तुतः आज भी वह हमारे लोक-नाट्य में प्रतिलक्षित होता है और जीवित है।

    अपने प्रसिद्ध काव्य 'पद्मावत' में जायसी ने कथा-वर्णन, नृत्य, जादू के खेल, कठपुतली के नाच, स्वर-संगीत, नाटक-तमाशा, नटों के खेल आदि जनसाधारण के नाट्यात्मक मनोविनोदो का वर्णन करके इस ‘बहुरंगी नाट्य’ का स्वरूप दिखवाया है। ‘मिलनद्वीप वर्णन खंड’ में उन्होंने लिखा है :

    कतहुँ कथा कहै कहु कोई। कतहें नाघ कोउ भल होई।।

    कतहुँ छरहटा लेखन लावा। कतहुँ पाखंड काठ नचावा।।

    कतहुँ नाव सबब होई भला। कतहुँ नाटक चेटक कला।।

    सूर, तुलसी तथा अन्य मध्यकालीन कवि जब राजकीय आमोद-प्रमोदों का वर्णन करते हैं तो सूत, मागध, भाट, चारण और बंदीजन आदि यहाँ-वहाँ बिखरते हुए गायकों का उल्लेख करना कभी भी नहीं भूलते। वही गायक समय्त मध्यकालीन साहित्य को सवर्त्र फैलाने का कार्य करते थे। नागरिक और सैनिक घटनाओं तथा युद्धों के विवरण उन्होंने लिखे हैं। वे यशगान करने थे और घूम-घूमकर गाथाएँ सुनाते थे। उनके काव्य-पाठ में अभिनय के तत्व रहते थे; वे प्रायः भेष बनाते, मुद्राएँ दरसाने और कभी-कभी दृश्य-विधान भी प्रस्तुत करते थे। लोक-नाटक का जो भी अंग मौखिक प्रदर्शन के लिए होता है, सबमें इन नाटकीय पाठों की कुछ विशेष बजाएँ और कुछ खास ढंग प्रचलित हैं।

    अनेक मध्यकालीन रचनाओं में—चाहे वे कथात्मक हो अथवा गीतात्मक—समर्थ नाटकीय तत्त्व विद्यमान हैं; यद्यपि उनकी रचना इस उद्देश्य से नहीं हुई थी कि वे रंगमंच पर अभिनीत की जाए। इनमें से अधिकांश साहित्यिक रचनाओं का कदाचित् प्रदर्शन के लिए पाठ किया जा सकना संभव था। इन रचनाओं में ऐसे संघर्षों की बहुलता है, जिनमें श्रेष्ठ नाटकीय तत्त्व हैं, अत्यधिक नाटकीय एकालाप भी है और सारे के सारे कथानक को एक ऐसी कार्य-श्रृंखला में बाँधा गया है जिसमें नाटकीय अंशों और अ-नाटकीय अंशो में एक आनिषानिक एवं सर्वसम्मत संबंध स्थापित हो गया है। कथा-वस्तु में निरंतरता बनाए रखने के लिए एक प्रकार की सिंहावलोकन-पद्धति का उपयोग किया गया है। एक स्थान पर कथा की प्रगति को आवश्य लेखक, कवि किसी पहले की घटना का वर्णन करने लगता है। ऐसा भी प्रयत्न किया गया है कि स्थानीय का आभास कराने के लिए आवश्यक वर्णनों को कथा के विभिन्न चरित्रों द्वारा कहना दिया जाए और ये चरित्र अपना परिचय ही सही, अधिक अपने नाटकीय प्रयोजक की बात भी स्वयं ही बलना है।

    नाटक अथवा सट्टर, रासो अथवा रासक, चर्चरी तथा अय कई प्रकार की साहित्यिक रचनाएँ, संभवतः मनोविनोद की किसी किसी प्रकार की रूपी-प्रहसन नाटकीय लोकप्रिय रूप थी। हमारे आधुनिक संगीत अथवा नौटंकी गायनों का संबंध इन मध्ययुगीन रचनाओं से जोड़ा जा सकता है। हमारे साहित्यिक नाटक के इतिहास में भले लंबे-लंबे व्यवधान रहे हों, पर निरक्षरों के नाट्य की परंपरा कभी भी विश्रृंखलित नहीं हुई। वह निरंतर चली रही है। यह तो सच है कि इन मध्य-युगीन रचनाओं का कोई नाटकीय उद्देश्य नहीं है, पर उनसे पता चलता है कि मध्य-युग में कथात्मक साहित्य और नाटकीय साहित्य में बड़ी ही सूक्ष्म तथा हलकी-सी विभाजन-रेखा थी और वास्तव में कथात्मक काव्य को बड़ी ही सरलता के साथ नाटक में परिणत किया जा सकता था—विशेष रूप से ऐसे समय में, जबकि 15वीं 16वीं शताब्दियों के सांस्कृतिक पुनर्जागरण ने कला के प्रत्येक क्षेत्र को नवोन्मेष से भर दिया था और जब नाटक को एक प्रकार का औपचारिक स्वरूप देने का प्रयास मंदिरों के माध्यम से होने लगा था।

    जलूस और शोभा-यात्रा-नाटक : लीलाएँ

    कई शताब्दियों तक नाटक मंदिरो में आबद्ध ही रहा और मंदिरों ने उसमें ऐसे नाटकीय गुण भर दिए जो कालांतर में दुबारा लाए जा सकें। अभिभूत कर देने वाला भक्ति-संगीत, शिल्प की भव्य पृष्ठ-भूमि, गायक के मन में दृढ़ विश्वास, आस्था और प्रेरणा के भाव, दर्शकों की आवेगात्मक अनुभूत्तियों को जागृत करने में समर्थ श्रद्धा-भावना आदि कुछ असाधारण गुण इस नाटक में थे, जोकि मंदिरों के वातावरण में उत्पन्न तथा विकसित हुआ। और जब यह धार्मिक नाटक मंदिर के क्षेत्र को छोड़कर भव्य शोभा यात्रा नाटकों के रूप में बाहर आया तो उसमें जनता के समस्त कलात्मक एवं सांस्कृतिक जीवन की झाँकी दिखाई दी। जनता को मूर्त और जीवंत फलाएँ, नृत्य तथा गीत, विश्वास और आचार-व्यवहार, परिधान तथा वाणी सभी कुछ इनमें प्रकट हुआ। जनता के समग्र सामाजिक एवं सहज जीवन का समावेश करने के लिए सभी प्रकार के विष्कमकों तथा क्षेपकों का उपयोग किया गया।

    हिंदी-क्षेत्र के जलूस-नाटकों में राम तथा कृष्ण का जीवन अंकित है। इनमें 'लोक-नाट्य' का सर्वाधिक समृद्ध एवं प्रतिनिधि रूप मिलता है। इन्हीं लीलाओं में लोक-नाटक की विधियों और रीतियों को उनकी समग्रता में और उनके सही रूप में हम समझ सकते हैं और निरक्षर लोगों के 'रंगमंच-व्यवहार' के ढंगों के विषय में कुछ नियम बना सकते हैं। इन लीलाओं के संबंध में सामान्य बातें इतनी सर्वविदित हैं कि उनके बारे में यहाँ कुछ कहना अनावश्यक है। अस्तु, हम यहाँ केवल उनके प्रस्तुत करने की नाट्यगत विधियों पर ही विचार करेंगे।

    यह लीला-नाटक मुख्यतः प्रथाओं से संबद्ध हैं। उत्सव तथा रीतियों और इनके अभिनय तथा अनुकरण को ऐसा एकाकार बना दिया गया है कि उनमें नाटकीय सर्वा गता प्रकट हो। नाटकीय व्यापार को निरूपित करनेवालों वे रीतियाँ तथा उन्मय एक प्रकार की ऐसी व्यापक साहित्यिक परिधि में जाने थे, जिसका निर्माण प्रचीन और अर्वाचीन, लिखित और कथित आदि अनेक श्रोता से हुआ है। इन उत्सवों के अनुकरणात्मक अभिनय और इन लीलाओं के संबंध में क्रमबद्ध मौलिक रचनाओं का पाठ दोनों का ही एक परंपरागत और विशेष प्रकार का ढंग था जिससे जनता उतनी ही सुपरिचित है जितनी महाकाव्यों तथा उनके चरित्रों से।

    भली प्रकार सजाए गए ‘सिंहासन’ ‘रामडोल’ और ‘कृष्ण-झाँकी’ कहलाने वाली चौकियाँ, कथा के प्रमुख स्थलों का चित्रों में अंकन या कोई उत्सव संबंधी प्रदर्शन—आदि बातें लीलाओं की विशद शोभा-यात्राओं का अंग होती हैं। ये चौकियाँ उत्सव मार्ग में एक स्थान से होती हुई दूसरे की ओर एक अभिनय-स्थल से दूसरे को जाती हैं। उन्हें यथावसर विभाजित कर दिया जाता है क्योंकि सारे लीला-नाटक को कई नाटक-दिवसों में बाँट दिया जाता है। रामलीला चौदह दिन और कृष्ण-लीलाएँ तो महीने भर अथवा उससे भी अधिक समय तक चलती रहती है। चौकियों और रंगमंचों पर होने वाली लीलाओं में किसी प्रकार की देशगत अभिव्यक्ति नहीं होती है। इस प्रकार के नाटक की दृश्य-व्यवस्था में आधुनिक धर्मपेषिटक मंच की भी समग्रता और सामंजस्य की आशा करना व्यर्थ होगा।

    इन लीलाओं के नाटकीय कथानक के महाकाव्योचित आयाम उभर सकें, इसके लिए एक साथ कई दृश्यों वाली मंच-व्यवस्था की विधि अत्यंत उपयोगी है और स्पष्ट हो उसके अनेक लाभ है। उसके द्वारा बड़ा ही शानदार और विविध प्रकार का दृश्यांकन संभव हो सकता है। उसके द्वारा नाटक व्यापार एक स्थान से दूसरे स्थान में—अयोध्या से विश्वामित्र के आश्रम में, वहाँ से जनकपुरी और तत्पश्चात् अन्यत्र—बिना दृश्य परिवर्तन किए ही ले जाया जा सकता है। इसका परिणाम यह होगा कि व्यापार चाहे किसी भी स्थान पर होता हो, घटना-क्रम प्रभाव को विच्छिन्न किए बिना, सहज रूप में आगे बढ़ता रह जाता है। आवश्यकता पहले पर, घटना-व्यापार एक साथ ही कई स्थानों पर चल सकता है। जनकपुरी में फुलवारी का दृश्य जहाँ राम-सीता को देखते हैं और स्वयंवर का दृश्य—दोनों एक साथ लिखित किए जाते हैं। या इसी प्रकार राम-रावण-युद्ध के दृश्यों के बीच एक किसी दूसरे दृष्टि-स्वर पर अशोक-वाटिका में बेटी सीता को भी दिखाया जाता है। एक ही समय कई दृश्यों वाली यह व्यवस्था दृष्टि-स्वरों को बदल देने के बड़े ही आसान तरीके से की जाती है और यह लीला-नाटकों की एक अन्य प्राविधिक विशेषता है। कृष्ण-लीलाओं में, प्रत्येक दृश्य ठीक उसी स्थान पर अभिनीत होता है, जिससे कि मूल घटना का परंपरागत संबंध रहा है। समस्त पवित्र स्थान, बन, कुंज, तडाग, कूप, पर्वत-श्रेणियों और मंदिर—सबके दर्शन, एक निश्चत क्रम में, किए जाते हैं। ऐसी अनेक रीतियों तथा औपचारिकताओं के पालन द्वारा इन लीलाओं को इक प्रकार का धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया है।

    कस्बों के बाहर लंबे-चौड़े लीला स्थलों में या अभिनय के लिए बने चौकोर दायरों में प्रदर्शन शुरू होने के काफी पहले से बड़े भारी-भारी और अद्भुत पुतले खड़े कर दिए जाते हैं और साधारण शिल्पसंबंधी सामग्री की सहायता से और दृश्यों की सजावट द्वारा कई-कई नाट्य-स्थान बना दिए जाते हैं। इन पुतलों के सम्मुख अभिनय करते हुए अभिनेतागण, कथासूत्रों की आवश्यकता के अनुरूप, एक 'स्थान' से दूसरे स्थान पर पहुँच जाते हैं। कई दिनों तक होते रहने वाले प्रदर्शन, जिनमें विविध प्रदर्शनगत विधियों और सामग्रियों का प्रयोग होता है, अनेक स्तरों पर दर्शकों को प्रभावित करने में समर्थ होते हैं और अभिनेताओं तथा दर्शकों के बीच संपर्क के नए-नए स्वरूप अन्वेषित करते हैं। लीला के सारे काल में लीला-स्थल में खड़े किए गए पुतले अशुभ शक्तियों के प्रतीक माने जाते हैं और लीला के अंतिम दिन में, जब उन्हें वही बड़ी धूमधाम के साथ भस्म किया जाता है तो नाटकीय प्रभाव में अत्यंत वृद्धि हो जाती है। नाटक के उद्देश्य की सार्थकता सिद्ध है और ऐसा प्रतीत होता है, मानो प्रदर्शन के नाट्यगत आयाम विस्तृत हो गए हैं।

    राम और कृष्ण संबंधी नाटकों के विषय में सबसे प्रमुख बात यह है कि अनेक दृश्य-व्यवस्थाओं, कथा-सूत्रों के चुनाव, घटनाक्रमों, अभिनेताओं की बहुलता और उनके श्रेणी-विभाजनों आदि उक्त नाटकों के सभी पक्षों की दृष्टि से ये लीला-नाटक अत्यंत चित्ताकर्षक होते हैं। और सामग्री में निहित इसी गुण के फलस्वरूप लीलाओं को अंकित करने वाले मध्यकालीन चित्र भारतीय कला के श्रेष्ठतम उदाहरण हैं। नाट्य एवं कला के बीच यह घनिष्ठ संपर्क इस शोभा-यात्रा नाटक की अपूर्व विशेषता है।

    लोक-जीवन के परिवर्तनशील सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों के प्रभाव में पड़कर इस जलूस-नाटक ने, नाट्य एवं अभिनय की परिस्थितियों के अनुसार विविध प्रकार के अनेक रूपों को विकसित किया है। उदाहरण के लिए, रंगमंचीय रामलीलाएँ, जो ऐसे नृत्य एवं अभिनयों से संयुक्त होती है, जिनकी पृष्ठभूमि में रामायण तथा अन्य राम-काव्यों के अंश पढ़े जाते हैं। कोई सेटिंग बनाई जाए या बड़े पैमाने पर कुछ किया जाए—इसके प्रयत्न नहीं होते वरन् समूचे व्यापार को कुशल चेष्टाओं तथा दृश्य-भाव द्वारा व्यक्त किया जाता है। जो पाठ होते हैं, उनका कुशल प्रभाव पड़ता है—एक तो वे अनुकरण में सहायक सिद्ध होते हैं और दूसरे, विकसित होते हुए कथानक के विषय में महत्वपूर्ण बातें बताते हैं। राम-लीलाएँ आधुनिक नाट्य-गृहों द्वारा भी अपनाई गई हैं और परदों तथा संपूर्ण अत्र-उपकरणों के साथ प्रस्तुत की गई है। छाया-नाटक में रामलीला को प्रस्तुत करने का उदयशंकर का प्रयोग अत्यंत सफल रहा और एक निश्चित नाट्य-रूप की भाँति प्रतिष्ठित हो गया। मंच-निर्णाण के क्षेत्र में जो प्रगति इस बीच हुई है, उसके कारण अन्य रूपांतर भी संभव हुए हैं और महान नृत्य-लिपिकार स्वर्गीय श्री शांतिवर्णन द्वारा निरूपित कठपुतली-रामलीला तो एक अद्भुत सूझ है। राम-लीलाओं में भी ऐसे ही रूपगत परिवर्तन रहे हैं। दूसरी ओर, मंदिरों में अब भी वही परंपरागत रूप, बिना किसी प्राविधिक परिवर्तन के चला रहा हैं। बड़े पैमाने पर की गई सचल कृष्ण-लीलाओं का धीरे-धीरे स्रोत होता जा रहा है। सांगीत ढंग के, धर्म-से क्रमबद्ध नाटक के साथ उपर्युक्त नाटकों का जब मिश्रण जैसा हुआ, तो एक तीसरा ‘प्रकार’ उदित हुआ। इस संबंध में रोचक बात यह है कि कहा तो इन्हें ‘लीला’ जाता है पर इनमें मध्ययुगीन वीरों का जीवन अधिक किया जाता है और ‘रामलीला’ तो मात्र पूरव-कथन अथवा ‘पूर्वरंग’ के रूप में होती है।

    सुगम नाट्य-प्रकार :

    लीलाओं के से शोभा-यात्रा नाटकों के साथ-साथ, ऐसे तरह-तरह के हलके-फुलके सामाजिक नाटक हैं, जो धर्म के किसी भी प्रकार संबंद्ध नहीं हैं। कथा के प्रति लोगों का अनुराग ही इस नाटक के मूल में हैं। इसकी नाटकीय योजना भारतीय कथा-वर्णन के ही ढाँचे के अनुसार है कि वक्ता और श्रोता और अभिनेता और दर्शक, इस कथा-खंड के या उस नाटकीय-प्रदर्शन के अविभाज्य अंग बन जाते हैं। इसे वैनन्दित जीवन की छोटी-मोटी झलकियों से प्रेरणा मिलती है और उन्हीं से इस नाटक का साहित्यिक रूप गठित होता है। ये झलकियाँ सामाजिक संबंधों और किन्हीं मज़ेदार-हास्यास्पद स्थितियों पर आधारित होती हैं। कभी-कभी स्थानीय घटनाओं और दुर्ध्यवस्थाओं की हँसी उड़ाकर या व्यंग्य करके इनमें गंभीरता का पुट लाया जाता है। इस वर्ग के सब लोकप्रिय प्रहसन में, प्रमुख अभिनेता करिया, बड़ी आसानी के साथ विषयांतर कर देता है और शोषकों तथा अन्यायियों का ज़ोरदार विशेष करता है। अबके बोले अभिनय के द्वारा, वह समूचे नाटकीय प्रभाव का निर्माण करता है। तब तो वह चरित्र और स्थितियों की नक्ल उतारना है और दूसरे समूह-माल के लेना के साथ प्रदर्शन के बीच ऐसे स्थलों पर बातें करता है, जहाँ कुछ डिसकवरी करने की आवश्यकता का अनुभव हो।

    लोक का यह हल्का-फुल्का, धर्म-निरपेक्ष नाटक बड़ा ही सीधा-सादा नाट्य है। स्वाँग, तमाशा, नकल और भडैती आदि इसके खास प्रहसनात्मक अंग हैं। उत्सवों और समारोहों से संबद्ध, अपेक्षाकृत अधिक स्थानीय महत्व वाले इसके अगणित छोटे तथा कम विकसित दूसरे रूप भी हैं। अपने दर्शकों से पूर्ण प्रशंसा पाकर यह हलका-फुलका लोक-नाटक, शताब्दियों तक जीवित रह सकने और अपनी सादगी बनाए रख सकने में समर्थ हुआ है। इस नाटक-रूप के प्रदर्शन के साथ, जिस प्रत्यक्ष रूप में और जितने सजीव अनुराग-सहित जनता का सवध रहा है, शायद वैसे नाटक के किसी भी अन्य रूप के साथ नहीं रहा। नाटक देखते समय दर्शकगण अकसर बीच-बीच में बोलकर, ताली बजाकर या प्रशंसासूचक संकेत करके नाटक के समग्र प्रदर्शन में भाग लेते हैं। इस नाट्य प्रणाली की भक्तिकालीन संत-कवियों ने कठोर शब्दों में बार-बार भर्त्सना की है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि उस समय में यह कितना लोकप्रिय था और जनता पर इसका कितना प्रभाव था।

    सभी समुदायों के धर्म-निरपेक्ष नाटकों की साज-सज्जा आमतौर पर सादी होती है और धार्मिक प्रदर्शनों की अपेक्षा उनमें तड़क-भड़क कम होती है। उनमें किसी शोभावली की व्यवस्था नहीं होती है जिसके कारण प्रदर्शन के नाट्यगत आयाम विस्तृत होते हैं, किसी केंद्रीय स्थान पर पात्रों को रखकर उनका विशेष प्रदर्शन किया जाता है और नाटक की भव्यता तथा प्रभाव में वृद्धि होती है। यह बहुत सीधे-सादे ढंग से होता है और सामूहिक मनोविनोद का साधारण-सा अवसर प्रदान करना है। परंतु इसमें नाटक के सभी आवश्यक तत्व होते हैं। कहानी से कथानक मिल जाता है, तीखी और चोटोली नकलें होती हैं जो अनुकरण-कला का श्रेष्ठ दृश्य प्रस्तुत करती हैं, मानव-व्यवहार को विकृत और अतिरंजित रूपों में प्रस्तुत किया जाता है, झलकियों और पहेलियों के अत्यंत रोचक प्रसंग आते हैं, हँसी के ठहाके, हाज़िर जवाबियाँ, फबतियाँ कसना, मज़ाक करना, घौल-धप्पा और कलाबाजियाँ—ये सारी चीज़ें मिलकर एक शानदार नाट्य-प्रदर्शन बना देती हैं। ऐसे रोमांचक और उत्तेजक प्रदर्शन को देखकर दर्शक इस प्रकार अभिभूत हो जाता है कि अकसर तो वह उस काल्पनिक सीमा-रेखा को मन ही मन लाँघ जाता है, जो उसे और अभिनेताओं को अलग किए हुई रहती है; और इस प्रकार वह अभिभूत दर्शक अपने आपको प्रदर्शन के मध्य पाता है क्योंकि अब उसके लिए यह नाटक (चेतना के) एक अन्य स्तर पर, मात्र नाटक रहकर नितांत सजीव और यथार्थ हो जाता है।

    इस नाटक में तो अभिनेता ही अधिक होते हैं और प्रदर्शन में सहायता के लिए अन्य नाट्य सामग्री ही। थोड़े से 'नाटक के पात्र'—कभी-कभी तो केवल दो—नाटक-व्यापार को बढ़ाते है। एक प्रमुख अभिनेता होता, जो कथा-वाचक का कार्य करता है या समूह-गान के नायक का। एक-दो अन्य पात्र भी होने हैं, जो समूह-गान के साथ रहते हैं, नृत्य करते हैं, प्रमुख अभिनेता के संवादों के बीच बोलते-बातों है और स्गत-भाषण करते हैं। यही अन्य पात्र, विकासमान कथानक के नाटकीय प्रसंगों का अभिनय करते हैं। इसमें सारे नाटक में बड़ी ही सरलता के साथ एक भावपूर्ण सामूहिकता जाती है। कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मौके आते हैं जब वे विशेष-विशेष नाटकीय मुद्राएँ घनाकर एक-दूसरे के सामने खड़े हो जाते हैं और इस-तरह के संवाद-बोलते हैं, जो प्रत्येक प्रदर्शन में बदलते रहते हैं और जिनमें कई स्थानीय और सामाजिक विषयों से संबंधित टिप्पणियाँ भी जोड़ दी जाती है। कथावस्तु के बड़े ढाँचे में, इस प्रकार के नाटकीय प्रसंगों को निर्मित करने वाली शैली—लोक-नाटक के अनेक रूपों में मिलती है।

    इनमें तो कोई सेटिंग होती है और नाटकीय व्यापार के योग्य नाट्यगत-स्थान निर्मित करने का ही कोई प्रयत्न किया जाता है। पात्रों का रूप-परिवर्तन भी ऐसा शिथिल रहता है कि नाटकीय प्रभाव अदिक देर तक नहीं बना रहा पाता। अक्सर तो अभिनय करने के लिए किसी ऊँचे मंच पर भी पात्र नहीं आते कि दर्शकगण ठीक से देख ही सके या नाटकीय-प्रभाव डाल सकने में कुछ सरलता हो जाए। जहाँ दर्शक अंक तक एक ही दृष्टि-स्तर पर बने रहते हैं। तो अंग-संचालन में ही अधिक विधिवत होती है और पात्र-योजना में ही जिससे कि ‘मंच-चित्र’ बन सकें या कथा के आरोह-अवरोह वाले स्थल उभरकर सामने जाएँ। जिन थोड़ी-सी मंच-सामग्रियों का उपयोगी ये अभिनेतागण करते हैं, उन्हें अपने साथ ही अभिनय-स्तर पर खेले जाते हैं, यथा प्रतिष्ठित तालुकेदार की नकल करने के लिए हुक्या या राजसिंहासन का काम देने के लिए एक स्टूल।

    विविध स्तरों के ऐसे अभिनेताओं की बहुतायत है जिन्होंने इस नाट्य को जीवित रखा है : नट, कौतुकी, बहरूपिया, नाटकी, स्वाँगधारी, भाँड और मक्लवी आदि। वक्ले उतारने वालों, कूद-फाँद मचाने वालों और हँमोरा का एक विशाल वर्ग है, जिसने समूचे मध्य-युग में नाट्य-संबंधी क्रियाशीलता बनाए रखी और वे अब से लेकर वर्तमान शताब्दी के प्रारंभिक दशकों तक पहले जैसा ही सक्रिय रहा। ऐसे-ऐसे बहुधंधी लोग हैं, जो स्वयं वाटक लिखते हैं और उसके प्रदर्शन की उपेक्षाएँ भी स्वयं ही बताते हैं। उनके दिमाग में कहावतों, बुभ्बीवों, काव्य-पाठों, हर तरह के रूपकों-कथाओं, उदाहरणों तथा प्रसंगों का बड़ा भंडार रहता है और ये उन्हें अपने नाटक में बड़ी ही कुशलता और बुद्धिमानी के साथ जड़ देते हैं। परिणामस्वरूप सारे प्रदर्शन में आमोद-प्रमोद का खासा पुट जाता है।

    रंगमंच-नाटक-नौटंकी :

    नाटक के अध्येता के लिए यह रंगमंची लोक-नाटक अत्यंत रोचक विषय है। नाट्य-प्रणाली की दृष्टि से इसे मध्ययुगीनता और आधुनिकता के बीच रखा जा सकता है, अनेक दृश्य-बधो में प्रदर्शन करने के मध्ययुगीन तरीके को इसने छोड़ दिया है और समग्र तथा अविच्छिन्न ‘मंच-चित्र' के लिए उद्योग किया है। इससे जान पड़ता है कि प्रदर्शन की आधुनिक विधियों की और उसने क़दम उठाए हैं। इस नाटक के तत्वों का अध्ययन करना रोचक होगा क्योंकि इसने लोक-साहित्य तथा अन्य प्रकार के मौलिक साहित्य के अनंत भंडार का उपयोग किया है, उसे एक नए आकार में प्रस्तुत किया है और उसे एक भिन्न माध्यम में ढाला है।

    सभी देशों के नाटक के इतिहास में, ऐसे नाटकीय रूप और ऐसी विधियाँ मिलती हैं, जो शुद्ध परंपरागत नाटक के तत्वों और विधियों के ही रूपांतर-प्रकारांतर हैं। नाटकीय और अनाटकीय साहित्यों में और नगर तथा लोक की नाटकीय परंपराओं में 'नाट्यगृह का प्रभाव' फैल गया है—ये रूप उसी का परिणाम है। नाटक का यह रूप हिंदी-प्रदेश में नाट्य के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसमें मध्य-कालीन संस्कृति की चिताकर्षकता, वाक्पटुता और शूरवीरता का समस्त वातावरण विद्यमान है। साथ ही इस नाटक से यह भी प्रकट होता है कि हमारे नाट्य पर औद्योगिक सभ्यता के प्रारंभिक प्रभाव पड़े हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से, इसकी स्थिति बहुत अच्छी है क्योंकि यह नाटक जब गत शताब्दी के अंत में विकसित हुआ जब ग्रामीय और नागरिक संस्कृतियाँ अधिक निकट संपर्क में रही थीं। लोक-कवियों, नर्तकों और विदूषकों ने यह अच्छा अवसर पाया। उन्होंने परंपरागत कहानियों, स्थानीय नायकों की कीर्तियों, सभी देशों की छल-कपट अथवा प्रेम-संबंधी कथाओं आदि बहुत-सी चीज़ों को नाटक का रूप दे दिया, उनमें नाच-गाने और नाट्य-कला की अन्य सामान्य विशेषताएँ जोड़ दीं।

    ये नाटक कई नामों से प्रसिद्ध हैं, जैसे नौटंकी, सागीत, भगत, निहलदे, नवलदे और स्वाँग। ये सभी नाम लगभग समानार्थी हैं—एक ही नाट्यगत-रूप का परिचय देते हैं, लेकिन इसके साथ ही, मिलती-जुलती नाटकीय पद्धतियों और सिद्धांतों की रूपरेखा के अंतर्गत ये नाटक प्रादेशिक विभिन्नता को भी प्रकट करते हैं। स्वाँग कदाचित् सर्वाधिक प्राचीन नाम है, यहाँ तक कि नवीं शताब्दी में मिलता है। प्रसिद्ध प्राकृत नाटक कर्पूरमजसे भट्टक है जो कि नाटक का कदाचित् लोकप्रिय रूप था। उसका स्वरूप और नाटकीय प्रदर्शन आजकल की नौटंकी से मिलता-जुलता है।

    लोकप्रिय लोक छंदों में कथाओं की रचना और पाठ समूचे मध्य-युग में अत्यधिक प्रचलित था। मध्युगीन कवियों ने इन पाठ संबंधी प्रतियोगिताओं के अखाड़ों का उल्लेख किया है। ये प्रतियोगिताएँ आज भी होती हैं और उनको वही पुराना नाम 'अखाड़ा' दिया गया है। लावनी, लहवारी, खयाल और रसिया के इन अखाड़ों ने हिंदी के रंगमंच नाटक के उदय में प्रत्यक्ष रूप से योग दिया है।

    उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में नए साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रभावों से पाठ करने की यह परंपरा और भी विकसित एवं समृद्ध हुई। छंदों और धुनों में बड़ी-बड़ी नवीनताएँ लाई गईं और एक प्रकार का मिश्रित, लोकप्रिय संगीत निर्मित किया गया। इस सामग्री को नाट्य के ढाँचे में सजाने के लिए थोड़ी-सी नाटकीय कुशलता की अपेक्षा थी। घटनाओं को जोड़ने के लिए एक वाचक की योजना की गई, उपर्युक्त स्थानों पर नाच-गाने रखे गए और इस तरह एक नया नाटक-रूप खड़ा कर दिया गया।

    इस संगीतात्मक सुखांतकी की प्रदर्शन-विधियों को देखने पर मालूम होगा कि मंच के लिए उपर्युक्त होने के लिए इसके कुछ (खंड) नियम बनाए हैं, निम्न देह वर्ग के नाटक को रंगमंच प्राप्त है, पर घटनाओं की व्यवस्था और नाट्य-व्यवहारों की दृष्टि से इसने लोक-नाटक के नाट्य-हीन स्वस्थ को अपनाया है। चूँकि परदे नहीं होते, इसलिए नाटकीय कथानक को दश्यों और अंकों में विभाजित नहीं किया जा सकता। अतः, ‘रमा’ नामक एक वाचक रखा जाता है। ऐसा : अर्थात् रस अथवा नाट्य से संबंद्ध शक्ति। यह व्यक्ति कहानी के छूटे हुए अंशों के विषय में आवश्यक घोषणाएँ करता है और नाटक-व्यापार के स्थलों के बारे में कुछ विवरण देता है। पद्यबद्ध संवादों में लिखी गई अभिनय-कहानी के रूप में इन नाटकों की कल्पना की जाती है। जहाँ तक मंच का प्रश्न है, वह एक प्रकार का निरपेक्ष स्थान मात्र होता है और किसी विशेष व्यापार-स्थल का आभास नहीं देता। मन का खाली रहना उसके लिए बहुत लाभप्रद रहता है। दृश्यों के होने से स्थान और समय की प्रवृति के नियमों से मुक्ति मिल जाती है और ऐसे शैपले कथानकों का उपयोग किया जाना संभव हो जाता है जो, अन्यथा, नाटकीय नियमों की परिधि में सकने के कारण अभिनीत नहीं हो सकते। इसी प्रकार संप्नप स्कत्कको सादा रखने का भी परिणाम का होना है कि कार्य-व्यापार लिख और साहित्यिक हो सकता है और उनके नाटक प्रकार के विशिष्टता का समावेश हो जाता है। कहलिवा के अभाव में, अभिनेताओं द्वारा रंगमंच को छोड़ देने की सीधी-सादी लोक-विधि द्वारा प्रत्येक दृश्य की समाप्ति की सूचना दी जाती है। इसका अवश्य भावी परिणाम 'नौटंकी' होता है— जिनमें अनेक चरम स्थितियाँ होती हैं।

    स्टेज को बिना किसी भी सेटिंग के खाली छोड़ दिया जाता है। बहुत थोड़ी-सी वस्तुओं का उपयोग किया जाता है और इन्हें अभिनेता अपने साथ मंच पर ले जाते हैं। अधिकांश पात्र दृश्य की सारी अवधि भर मंच पर खड़े या घूमते रहते हैं। वे खड़े होकर अपने संवादों को अर्ध-संगीतात्मक और अर्ध-पाठात्मक ढंग से बोलते हैं, प्राय: प्रत्येक संवाद के साथ 'बाह्य संगीत' चलता रहता है। पात्रों का मुख-विन्यास तो कोई ख़ास नहीं होता, पर वस्त्र बड़े कीमती होते हैं और वे बहुमूल्य आभूषण भी धारण करते हैं। प्रदर्शन का आरंभ 'सुमिरिनी' अथवा 'मंगलाचरण' से होता है। यह पूर्व-रंग का एक अंग है। वाद्यवृंद में से प्रमुख नगाड़े की ऊँची आवाज़ से आस-पास के गाँवो के लोगों को प्रदर्शन के आरंभ होने की सूचना दी जाती है। इस नाट्य के प्रेमी तुरंत ही उस जगह की ओर चल पड़ते हैं, जहाँ नाटक होने वाला है कि आज रात भर भारी अभिनय और रोमांचकारी नृत्य-संगीत वाला नाटक देखेंगे।

    नाटकीय नृत्य

    लोक-नाटक का एक और भी अमान्य प्रकार है जिसे उसके अपने विकास-क्रम में नृत्य और नाटक के बीच की वस्तु कहा जा सकता। नाट्य की दृष्टि से वे छोटे-छोटे कथात्मक नृत्य बहुत अधिक प्रभावशाली होते हैं, जिनमें प्रदर्शनकर्ता किन्हीं छोटे पौराणिक प्रसंगों पर भाव प्रदर्शित करते हुए नृत्य करता है और वाद्यवृंद की पृष्ठ-भूमि में भावपूर्ण धुनो में, कार्य-व्यापार की व्याख्या करने वाला मूल पाठ सामूहिक रूप से गाया जाता है। किरात' और 'अर्जुन' के युद्ध को दिखलाने वाला बिहारी लोक-नृत्य, अथवा राजस्थान का 'घूमर' नृत्य जिसकी चित्रात्मक रूप-सज्जाएँ और मंथर अंग-गतियों चरम-सीमा का धीरे-धीरे निर्माण करती रहती है और ऐसा प्रभाव डालती है, मानो कथावस्तु के अभिनय में प्राचीन नाटक की आत्मा उतर आई हो। कभी-कभी तो सिर्फ़ एक अभिनेता, कोई चेहरा लगाकर या विशद और जटिल रूप-सज्जा करके, कथा के अपने अनुकरणात्मक प्रदर्शन आश्चर्यजनक नाट्यात्मक गहराई भर देता है। जब महान कत्यक-नर्तक श्री शंभु महाराज 'ठुमरी' अथवा 'रसिया' प्रस्तुत करते हैं तो अपने नृत्य-प्रसंगों में वे नाटकीय ढंग ले आते हैं और अनेक पात्रों के रूप धारण करके वे उस सशक्त मुद्रा-अभिनय की सृष्टि करते हैं, जो समस्त नाटक का स्रोत है।

    यह कोई संयोग की बात नहीं है कि पश्चिमी अफ्रीका में वहाँ के अंग्रेज़ी-भाषी देशी लोग ‘प्ले’ शब्द का प्रयोग अपने नृत्यों के लिए करते हैं। हरिवंश पुराण के एक कथन से नृत्य-नाटक के अस्तित्व का परिचय मिलता है—'नाटक आस्तु’ अर्थात ‘उन्होंने एक नाटक बाँचा।’ यह उपर्युक्त नाटक-प्रकार के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण है। आगे चलकर, दसवीं शताबदी में, प्राकृत नाटक कर्पूरमंजरी में नाटक को ‘नचिद्वाम्’ कहकर परिभाषित किया गया है, अर्थात् ऐसा नाटक जो नृत्य के लिए हो।

    विविध प्रदेशों के अनेकानेक लोक-नृत्यों में से किसी को भी इस विमान वाले नाटक के उदाहरण-स्वरूप लिया जा सकता है। उनके कथा-निर्माण में एक निश्चित योजना होती है और वे रूपाभिनय को प्रभावशाली तथा वास्तविक बनाने के लिए भली प्रकार से रूप-सज्जा भी करते हैं। कभी-कभी मामूली मंच-उपकरणों का भी उपयोग किया जाता है, जिससे स्थान-बोध हो सके और नाटकीय कार्य-व्यापार का प्रदर्शन अदिक वास्तविक जान पड़े। काश्कवृंद अभिनय के प्रभाव में वृद्धि करते हैं और नृत्य तथा अभिनय दोनों करने वालों और साथ नृत्य करने वालों के बीच नाटकीय ढंग से, उपयोगी सामंजस्य स्थापित रखते हैं।

    रूढ़ि-शयलित नाटक

    प्रायः कहा जाता है कि लोक-नाटक नितांत रूपहीन हैं कि उसमें दृश्यांकन और रूपाकार की कोई भी योजना नहीं है और दिग्दर्शन की कोई कला-विधियाँ ही हैं। पर, इस नाटक-पकार का जो अध्ययन हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं उससे प्रकट होगा कि खुले स्थानों में किए जाने वाले इन प्रदर्शनों में भी एक रूपाकार होता है और वे सभी संकलन होते हैं, जो किसी कलात्मक प्रदर्शन में होने चाहिए। इनमें प्रारंभ होता है और परिणति भी। काल और घटना में क्रमबद्ध भी रहती है। विकास का भाव भी रहता है—चरम सीमा का और प्रभाव के उत्कर्ष-अपकर्ष का भी। उनकी नाट्य-हीनता अर्थात् रंगभूमि के अभाव और परदों अथवा चित्रात्मकता के अभाव का मंत्रबद्ध वह नहीं है कि इस नाटक में कोई रूढ़ियाँ हैं ही नहीं रूढ़ियाँ नाटक की कला के लिए अत्यंत आवश्यक और किसी भी अन्य साहित्यिक माध्यम की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। प्रदर्शन की वास्तविकता परिस्थितियों से उत्पन्न और स्वयं दर्शकों के सक्रिय सहयोग एवं अनुमोदन से विकसित एवं परंपरित बहुत-सी अलिखित रूढ़ियाँ इस नाटक में मिलती हैं।

    रंगभूमि के बहुत लंबे-चौड़े और खुले होने के उदाहरण यह आवश्यक है कि चेहरे लगाए जाएँ या अत्यधिक रूपसज्जा की जाए ताकि सुखाकृकियाँ स्पष्ट हो सकें और दूर तक बैठी हुई दर्शकों की भारी भीड़ उस विशेष पात्र को पहचान सके। जुलूसवाले संचल लीला-नाटक जब मंदिर से निकलकर बाहर जनता के बीच आए तो उनमें चौकियों और झाँकियों का उपयोग करना स्वीकार किया गया, महाकाव्यों की प्रमुख घटनाओं का चित्रों में अंकन किया गया और पात्र जितने स्वाभाविक रूप से नाटकीय संवाद बोलते थे, उतने ही सहज ढंग से 'स्वगत भाषण', 'जनांतिक', 'समाम्यान' 'उद्घोषण' करते थे, ऐसा करना 'वृत्त में बँधे हुए' पूर्वयोजित अभिनय से बहुत-कुछ भिन्न रहा। इन प्रदर्शनों के कथात्मक स्वरूप की दृष्टि से, लोक-नाट्यकला में एक के बाद दूसरी मंच सेटिंग की प्रणाली विकसित हुई है। प्रवेश और प्रस्थान, यहाँ तक कि दृश्य-परिवर्तन और रूपसज्जा आदि सबकुछ, दर्शकों के सामने ही होता है क्योंकि मंच चारों ओर से खुला रहता है। कभी-कभी दर्शकों के बीचो-बीच मंच बनाया जाता है और दर्शकगण कभी भी उसे किसी अन्य स्थान के रूप में नहीं देखते जैसा कि हम लोग जो रंगभूमि तथा दृश्यों आदि को समझते हैं। अंत में यह भी कहना होगा कि किसी भी दृश्य-समायोजन के अभाव में, लोक-नाटक का समग्र व्यक्तित्व ही बदला हुआ है, चाहे उसे अभिनेताओं की दृष्टि से देखें या दर्शकों की।

    लोक नाटकों में सुसंबद्ध दृश्य नहीं होते और उनका कथानक-निर्माण भी, जैसा आमतौर पर समझा जाता है, उससे भिन्न होता है। दृश्यों और अंको के स्थान पर, उसमें लीला-नाटकों की तरह, नाट्कीय व्यापार के अपने में पूर्ण अंश होते हैं। नाटकबद्धता की समूची योजना में एक प्रकार की शिथिलता रहती है। लोक-नाटक की इस शिथिल गठन के कारण आशुसंवादों के लिए, नकलों के लिए, हँसी-मज़ाक और तड़क-भड़क के लिए और कथा की मंथर गति और विस्तार के लिए काफ़ी छूट रहती है, इस कारण नाटकीय व्यापार में विशेष लय जाती है। इसी प्रकार, लोक-नाट्य मंच का खाली होना और खुला होना भी एक निश्चित गुण है क्योंकि तब हम 'मंच को केवल मंच के रूप में नहीं देखते। परिणामस्वरूप कार्य-व्यापार की अनुकृति में सीधापन आता है, सत्याभास सरलता से कराया जा सकता है और आवेगों के संपर्क तथा प्रतिभावन में एक तरह की निकटता रहती है।

    इस वर्ग के नाटक में इन सामान्य विधियों और रूढ़ियों के कारण एक निश्चित नाट्य-विचार विकसित हो गया है। लोक-नाटक का अध्ययन करें या उसपर विवाद करें—हमें सदा ही इस नाट्य-विचार के मूलभूत एवं महत्वपूर्ण विषय का ध्यान रखना होगा कि इसका स्वरूप जड़ नहीं है। परिवर्तित होते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य के साथ यह भी परिवर्तित और विकसित होता है। इस तरह, इसने नई विधियों और रूढियों को बनाया है तथा पुरानियों को पुनर्गठित और पुनियोजित किया है। इस नाटक ने एक ही वस्तु के विविध रूप और शैलियाँ प्रस्तुत की हैं। आज हम रामलीला के विविध रूप देखते हैं और रामलीला, स्वाँग अथवा संगीत जैसे धर्म-निरपेक्ष संगीत-नाटकों से मिल-जुल गई हैं। इन बातों से इस ‘नाट्य-विचार’ के गतिशील स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है और पता चलता है कि लोक-नाटक में निश्चय ही प्रगतिशील तत्व रहे हैं।

    कुछ निष्कर्ष

    लोक-नाटक के इस समृद्ध और बहुविध कोष ने साहित्यिक नाटक को, सभी कालों में और प्राविधिक विकास के सभी रूपों में अत्यंत मूल्यवान योग दिया है। मौखिक और लिखित परंपरा के बीच निरंतर संपर्क भारतीय साहित्य की एक विशेषता रही है। कभी-कभी तो साहित्यिक और मौखिक परंपराओं के बीच अंतर स्थापित करना कठिन हो जाता है। हिंदी लोक-नाटक, जो मौखिक परंपरा में है और संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है, निरंतर विकसित होता रहा और उसने साहित्यिक रूपों को महत्वपूर्ण कला-उपादान प्रदान किए हैं।

    साहित्यिक इतिहास में यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है कि हिंदी के प्रथम लिखित नाटक ‘इंदर सभा’ ने लीला-प्रकार के लोक-नाट्य से बहुत अधिक ग्रहण किया है। पात्र मंच पर आकर अपना-अपना परिचय देते हैं और अपना उद्देश्य बतलाते हैं। नाटक का स्वरूप प्रायः संगीतात्मक है, गद्य-पद्य में लिखे हुए संवादों का पाठ किया जा सकता है। इसी प्रकार की कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं जिनका मूल परंपरागत लोक-नाटक में है। रोचक बात यह है कि राम-लीलाओं का ‘मनमुणा’ इस नाटक में राजा इंद्र और स्वर्ग की अप्सराओं के साथ आता है। इसी प्रकार भारतेंदु के नाटक ‘अंधेर नगरी’ में लोक-नाटक के ही पात्र, परिस्थितियों और समय का सारा नाट्य-वातावरण सजीव हो उठा है। भारतेंदु हिंदी के साहित्यिक नाटक के प्रवर्त्तक हैं। पारसी थियेट्रिकल कंपनियों ने विमानों और झाँकियों वाले शोभा-यात्रा नाटकों का एक तरह का रंगमंचीय-रूपांतर प्रस्तुत किया। ये शोभा-यात्रा नाटक बराबर नई शताब्दियों तक जनता द्वारा किए गए नाट्य का उद्योगों से निर्मित हुए थे। आधुनिक मंच-प्रयोगों ने लोक-नाटकों से कई रूढ़ियाँ अपनाई हैं, जैसे वाचक का समावेश और दर्शकों के सामने ही दृश्य-नियोजन तथा दृश्य-परिवर्तन करने के लिए मंच सहायक का प्रयोग। अन्य संभावनाएँ भी हैं, जिनका उद्यपादन होना चाहिए।

    हिंदी लोक-नाटक के अध्ययन की वर्तमान परिस्थिति अत्यंत समयोजक रूप है। साहित्य के इतिहासों और नाटक के शिक्षा-संबंधी अध्ययनों में उसे कोई भी स्थान नहीं मिलता। इन लोक-नाटकों के संबंध में कुछ सामान्य सूचनात्मक तथ्य तो अवश्य प्रकाशित लेखों और रेडियो-वार्ताओं में मिल जाएँगे पर अध्ययनों तथा शोधों के द्वारा इस सामग्री को विकसित एवं संशोधित करने के प्रयत्न नहीं हुए हैं। जो भी सामग्री उपलब्ध है, वह तो व्यवस्थित है, वर्गीकृत और प्राविधिक रूप में विश्लेषित ही। अतः सर्वप्रथम आवश्यकता इसकी है कि वैज्ञानिक उपकरणों और आधुनिक शोध-प्रणालियों के साथ हम गाँवो में जाएँ और प्रत्यक्ष स्रोतों से सामग्री एकत्र करें। इस सामग्री के मूल्यांकन और विश्लेषण के लिए हमको वही मार्ग और वही सिद्धांत मानने चाहिए जो हम साहित्यिक-नाटक के लिए अपनाते हैं। शैली, समस्याएँ, कथात्मक प्रसंग, कौतूहल जगाने अथवा चरम स्थिति लाने के लिए प्रयुक्त विधियाँ, मंचीय प्रदर्शन की दशाएँ और प्रणालियाँ, एक स्थान से दूसरे स्थान में या एक जनसमूह से दूसरे जनसमूह में जाने पर एक ही नाटक-रूप में जाने वाले परिवर्तनों की समस्या, साहित्यिक रूपों के प्रभाव, मूल उत्पत्ति और प्रसार से संबंधित समस्याएँ—ये सभी ऐसे प्रश्न हैं जिनकी ओर लोक-नाटक का अध्ययन करते समय संकेत करना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि निरक्षरों के नाटक को एक ऐसे निश्चित कला-रूप की भाँति मान्यता दी जाए, जिसके अपने नियम और अपनी रूढियाँ हैं। साथ ही, उसका अध्ययन अधिक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक परिपार्श्व में करना चाहिए।

    यह सर्वविदित है कि लोक-नाटक की अवनति हो रही है और उसकी वह शैलियाँ अब शुद्ध और प्रामाणिक नहीं हैं। हम उनके पुर्नस्थापन तथा पुनर्गठन के प्रयत्न कर सकते हैं, पर अतीत का नाट्य-वैभव लुप्त हो रहा है, इसलिए पछताने से कोई लाभ होगा। प्राविधिक ज्ञान के विकास के कारण उसपर प्रभाव तो पड़ेगा ही, हम प्राविधिक प्रगति के मार्ग में बाधा नहीं खड़ी कर सकते। कुछ वर्षों में बिजली गाँवो में जाएगी ही। हमारे नाट्य-प्रदर्शनों पर इसका भारी असर पड़ेगा। अपनी पुनर्गठन-योजनाओं में हमें बदलती हुई सामाजिक दशाओं और नाटक-प्रदर्शन की अधिकाधिक विकासमान परिस्थितियों के लिए, कुछ कुछ छूट देनी ही होगी और इन नाटकीय रूपों के सामान्य ढाँचे में जो परिवर्तन होगा, उसे स्वीकार करना पड़ेगा। लोक-नाटकों में जो लचीलापन है, उसके कारण उसमें नए विषयों का भी समावेश आसानी से किया जा सकेगा। इस नाटक को खेलने के लिए हम सादे आकार वाले नाट्य-गृह भी बना सकते हैं।

    आज, जब हम देश में नाट्य-आंदोलन के लिए योजनाएँ बना रहे हैं, तो लोक-नाटक-साहित्य और नाट्य-कलाओं तथा उनके पुनर्गठन से संबंधित समस्त विद्मान लेखा-जोखा इकट्ठा किया जाना परमावश्यक है। इसमें प्रयोगों से सरलता होगी और साहित्यक नाटक को अत्यंत महत्वपूर्ण लाभ मिलेगा। आर्थिक ढंग के कुछ ही समय पहले प्रस्तुत कुछ नाटकों ने लोक-नाटक से पूरी सहायता की और वे अतिशय सफल हुए। इस दिशा में अपार समस्याएँ हैं। लोक-नाटक का स्वभाव प्रभावहीन और पिछड़ा हुआ होता जा रहा है। किसी सुयोजित आंकलन द्वारा हम इन मृत प्राय नाटकीय तत्वों को सँवार-सुधारकर सप्राण कर सकते हैं। उसके स्वरूप के कुछ प्रामाषिक होने की बात लेकर हम अधिक चिंतित हों।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य, संपादक- नगेन्द्र (पृष्ठ 402)
    • संपादक : नगेन्द्र
    • रचनाकार : सुरेश अवस्थी
    • प्रकाशन : सेठ गोविंददास हीरक जयंती समारोह समिति नई दिल्ली
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