जिन दिनों छायावाद का आंदोलन चला था उन दिनों इस काव्यधारा की रेखाएँ वट-वृक्ष की जड़ों की तरह उलझी हुई थीं, तर्कनाल की तरह बिखरी हुई थीं। दूसरी बात यह है कि छायावाद को संपूर्ण रूप में देखना उस समय संभव भी न था। उस समय छायावादी काव्य अपने निर्माण की प्रक्रिया में गतिशील था। यही कारण है कि उस युग में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी और पंडित पद्मसिंह शर्मा जैसे दिग्गज विद्वानों ने भी छायावाद के संबंध से जो विचार प्रकट किए थे, वे भी आज मान्य नहीं हैं। किंतु आज छायावाद के संपूर्ण काव्य-ग्रंथ हमारे सामने हैं जिनके आधार पर सम्यक रूप से छायावाद संबंधी सैद्धान्तिक विवेचन किया जा सकता है।
छायावाद की चाल-ढाल का पता लगाने के लिए छायावाद की एक काव्य-पुरुष के रूप में कल्पना कीजिए। जिस प्रकार कोई पुरुष अपनी चाल-ढाल से पहचान लिया जाता है, उसी प्रकार क्या कोई ऐसे व्यावर्तक संकेत हैं जिनसे इस काव्य-पुरुष की चाल-ढाल का पता चल सकता है? उदाहरणार्थ नीचे लिखी कुछ पंक्तियों पर विचार कीजिए—
(1) जनपद की वधुएँ मेघ को नेत्रों से पी रहीं हैं। (जनपदवधूलौचनै: पीयमान:)।
(2) ‘दुखी दीनता दुखियन के दुख’ [विनय पत्रिका]।
अर्थात् दीनता और दुखियों के दु:ख आज दु:खी हो रहे हैं।
(3) मेरा रोदन मचल रहा है, कहता है—कुछ गाऊँ।
उधर गान कहता है रोना आवे तो मैं आऊँ। (साकेत)
अर्थात् जहाँ सच्चा विषाद है, वहीं प्रकृत संगीत फूटता है। वेदना का राग बड़ा सुरीला होता है।
(4) उच्छ्वास और आँसू में विश्राम थका सोता है। (प्रसाद)
अर्थात् उच्छ्वास और आसुओं से मनुष्य के दिल को राहत मिलती है।
जानबूझ कर ही अधिक उदाहरण नहीं दिए जा रहे हैं। उक्त चारों उदाहरणों में अभिव्यक्ति का वैचित्र्य देखने को मिलता है और इस वैचित्र्य का आधार है लाक्षणिक वक्रता। प्रसाद ने अपने ‘यथार्थवाद और छायावाद,’ शीर्षक लेख में बतलाया है कि छायावाद आधुनिक कवियों का ही एकाधिकार नहीं है, संस्कृत के प्राचीन कवियों की रचनाओं में भी स्थान-स्थान पर छायावादी अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं। ऊपर जो पहला उदाहरण कालिदास के 'मेघदूत' से लिया गया है, वह प्रसाद जी के उक्त लेख से ही अवतरित है। तुलसीदास की 'विनय-पत्रिका' से जो पंक्ति मैंने उद्धृत की है, वह भी निश्चय ही छायावादी शैली का स्मरण दिलाती है। गुप्त जी तो हिंदी के प्रतिनिधि कवि रहे हैं, इसलिए यत्र-तत्र उनकी कृतियों में यदि छायावादियों की सी अभिव्यक्ति हो गई है तो इसमे आश्चर्य ही क्या है? चौथा उदाहरण प्रसाद जी के ‘आँसू’ से दिया गया है जिसके संबंध मे विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। पन्त और महादेवी की रचनाओं से भी अनायास राशि-राशि उदाहरण एकत्रित किए जा सकते हैं।
किंतु यहाँ पर यह समझ लेना आवश्यक है कि किसी कवि की कविताओं में यदि छायावादी शैली के इक्के-दुक्के उदाहरण मिल जाते हैं तो उन कतिपय उदाहरणों के बल पर ही हम उस कवि को छायावादी कवि नहीं कह सकते। कालिदास, तुलसीदास तथा मैथिलीशरण अपने संपूर्ण रूप में छायावादी नहीं; पंत और प्रसाद के काव्य-पुरुष की जो चाल-ढाल है, वह इनकी नहीं। बोधपूर्वक अथवा अबोधपूर्वक हम जैसे कभी-कभी किसी दूसरे पुरुप की चाल-ढाल का अनुसरण करने लगते हैं, वैसे ही कभी-कभी शिष्टवादी कवि भी स्वच्छंदतावादी कवि के पद-चिह्नों पर चलता हुआ जान पड़ता है। 'बिहारी-सतसई' में एक स्थान पर कहा गया है ‘छाहों चाहति छांह’ अर्थात् ग्रीष्म की प्रखरता को देखकर स्वयं छाया भी छाया चाहने लगती है। इस पंक्ति में ग्रीष्म-ताप की दाहकता व्यंजित है। आधुनिक छायावादी कवि भी इसी प्रकार ग्रीष्म का वर्णन कर सकता था। तो क्या छायावादी काव्य-पुरुष की चाल-ढाल लाक्षणिक वक्रता और ध्वन्यात्मकता है? किंतु संस्कृत के प्राचीन काव्यों में भी तो लाक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता की कमी न थी। फिर संस्कृत के पुराने काव्यों को हम छायावादी काव्य क्यों नहीं कह सकते?
ऐसा लगता है, जैसे छायावादी युग नव्य लक्षणाओं का युग था। संस्कृत के शायद ही किसी कवि ने इस प्रकार की पंक्ति लिखी होगी—
‘अभिलाषाओं की करवट, फिर सुप्त व्यथा का जगना।’ संस्कृत में श्रीहर्ष आदि कवियों ने जहाँ अलंकार के क्षेत्र में विविध भगिमाएँ दिखलाई हैं, वैसे ही छायावादी युग के कवियों ने नव्य लक्षणाओं और व्यंजनाओं के प्रयोग के द्वारा उस जमाने के पाठकों को विस्मय-विमुग्ध कर दिया था।
स्वर्गीय प्रसाद जी ने यद्यपि अपने लेख में यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि छायावाद नितान्त भारतीय वस्तु थी किंतु हमें यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि हिंदी के अधिकांश छायावादी कवि पाश्चात्य रोमांटिक कवियों के काव्यों से अवश्य प्रभावित हुए थे, प्रसाद पर चाहे प्रत्यक्ष रूप से उनका प्रभाव न पड़ा हो। आज तो विश्वविद्यालयों में छायावादी काव्य का बडा सहानुभूतिपूर्ण अध्ययन होने लगा है लेकिन द्विवेदी-युग में छायावादी कविताओं के लिए तत्कालीन साहित्यिक महारथियों के मन में कोई आदर की भावना नहीं थी, न उन कविताओं को समझने के लिए ही कोई विशेष प्रयत्न किया जाता था। कुत्ते को मार देने के लिए जैसे उसको पागल कह देना काफ़ी है, उसी प्रकार किसी काव्य को असाधु ठहराने के लिए उसको छायावादी कह देना पर्याप्त समझा जाता था। उस ज़माने की पत्रिकाओं में कटाक्ष-काव्य अथवा व्यंग्योक्तियों के रूप में इस प्रकार की पंक्तियाँ छपा करती थीं—
किसने छायावाद चलाया,
किसकी है यह माया?
हिंदी भाषा में यह न्यारा,
वाद कहाँ से आया?
‘न्यारावाद’ से कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि उस ज़माने के पाठकों को छायावाद एक अजीब सी वस्तु जान पड़ी थी, जिसके स्वरूप को देखकर अनेक प्रश्नवाचक चिह्न एक साथ पाठकों के सामने आ उपस्थित होते थे। मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय, प्रतीक पद्धति, मूर्त उपमेयों के लिए अमूर्त उपमानों का प्रयोग और अप्रस्तुत-विधान आदि छायावाद की चाल-ढाल के ही रूप हैं। यहाँ यह कह देना भी आवश्यक है कि इस चाल-ढाल में एक प्रकार की मार्दवता, माधुर्य और सुंदरता भी है जो चित्त को उल्लसित करती है। सौंदर्य का स्वर मुखरित करता हुआ यह छायावादी काव्य-पुरुष अपनी चाल-ढाल में अनुपम था, निराला था, रमणीय और भव्य था। इसमें यदि अपनी गहरी त्रुटियाँ न होतीं, लोक जीवन का साहचर्य लेकर यदि यह चला होता तो आज भी यह अपनी चाल-ढाल न खो बैठता। आज तो कुछ बाल की खाल निकालने वाले छायावादी काव्य-पुरुष की शव परीक्षा कर रहे हैं किंतु एक युग था जब इसने अपनी विलक्षण भंगिमाओं से पाठकों को चमत्कृत कर दिया था।
jin dinon chhayavad ka andolan chala tha un dinon is kavydhara ki rekhayen vat vriksh ki jaDon ki tarah uljhi hui theen, tarknal ki tarah bikhri hui theen. dusri baat ye hai ki chhayavad ko sampurn roop mein dekhana us samay sambhav bhi na tha. us samay chhayavadi kavya apne nirman ki prakriya mae gatishil tha. yahi karan hai ki us yug mae panDit mahaviraprsad dvivedi aur panDit padmsinh sharma jaise diggaj vidvanon ne bhi chhayavad ke sambandh se jo vichar prakat kiye the, ve bhi aaj manya nahin hain. kintu aaj chhayavad ke sampurn kavya granth hamare samne hain jinke adhar par samyakru roop se chhayavad sambandhi saiddhantik vivechan kiya ja sakta hai.
chhayavad ki chaal Dhaal ka pata lagane ke liye chhayavad ki ek kavya purush ke roop mein kalpana kijiye. jis prakar koi purush apni chaal Dhaal se pahchan liya jata hai, usi prakar kya koi aise vyavartak sanket hain jinse is kavya purush ki chaal Dhaal ka pata chal sakta hai? udaharnarth niche likhi kuch panktiyon par vichar kijiye—
(1) janpad ki vadhuen meghko netron se pi rahin hain. (janapadavdhulauchnaih piymanah).
arthat dinta aur dukhiyon ke duhakh aaj duhkhi ho rahe hain.
(3) mera rodan machal raha hai, kahta hai—kuchh gaun.
udhar gaan kahta hai rona aave to main aauu. (saket)
arthat jaha sachcha vishad hai, vahin prkrit sangit phutta hai. veDhna ka raag baDa surila hota hai.
(4) uchchhvaas aur ansu mae vishram thaka sota hai. (parsad)
arthat uchchhvaas aur asuon se manushya ke dilko rahat milti hai.
janbujh kar hi adhik udahran nahin diye ja rahe hain. ukt chaas udaharnon mein abhivyakti ka vaichitrya dekhne ko milta hai aur is vaichitrya ka adhar hai lakshnik vakrata. parsad ne apne ‘yatharthavad aur chhayavad,’ shirshak lekh mae batlaya hai ki chhayavad’ adhunik kaviyon ka hi ekadhikar nahin hai, sanskrit ke prachin kaviyon ki rachnaon mein bhi sthaan sthaan par chhaya vadi abhivyakti ke darshan hote hain. uupar jo pahla udahran kalidas ke meghdut se liya gaya hai, wo parsad ji ke ukt lekh se hi avatrit hai. tulsidas ki vinay patrika se jo pankti mainne uddhrit ki hai, wo bhi nishchay hi chhayavadi shaili ka smran dilati hai. gupt ji to hindi ke pratinidhi kavi rahe hain, isliye yantr tantr unki kritiyon mein yadi chhayavadiyon ki si abhivyakti ho gai hai to isme ashcharya hi kya hai? chautha udahran parsad ji ke ‘ansu’ se diya gaya hai jiske sambandh mae vishesh kuch kahne ki avashyakta nahin. pant aur mahadevi ki rachnaon se bhi anayas rashi rashi udahran ekatrit kiye ja sakte hain.
kintu yahan par ye samajh lena avashyak hai ki kisi kavi ki kavitaon mein yadi chhayavadi shaili ke ikke dukke udahran mil jate hain to un katipay udaharnon ke chal par hi hum us kavi ko chhayavadi kavi nahin kah sakte. kalidas, tulsidas tatha maithilishran apne sampurn roop mein chhayavadi nahin; pant aur parsad ke kavya purush ki jo chaal Dhaal hai, wo inki nahin. bodhpurvak athva abodhpurvak hum jaise kabhi kabhi kisi dusre purup ki chaal Dhaal ka anusran karne lagte hain, vaise hi kabhi kabhi shishtrvadi kavi bhi svachchhandtavadi kavi ke pad chihno par chalta hua jaan paDta hai. bihari satasii mein ek sthaan par kaha gaya hai ‘chhahon chahati chhaanh’ arthat greeshm ki prakharta ko dekhkar svayan chhaya bhi chhaya chahne lagti hai. is pankti mae greeshm taap ki dahakta vyanjit hai. adhunik chhayavadi kavi bhi isi prakar greeshm ka varnan kar sakta tha. to kya chhayavadi kavya purup ki chaal Dhaal lakshnik vakrata aur dhvanyatmakta hai? kintu sanskrit ke prachin kavyo mae bhi to lakshanikta aur dhvanyatmakta ki kami na thi. phir sanskrit ke purane kavyo ko hum chhayavadi kavya kyon nahin kah sakte?
aisa lagta hai, jaise chhayavadi yug navya lakshnaon ka yug tha. sanskrit ke shayad hi kisi kavi ne is prakar ki pankti likhi hogi—
‘abhilapaon ki karvat, phir supt vythaka jagna. ’ saskrit mein shriharsh aadi kaviyon ne jahan alankar ke kshetr mein vividh bhagimayen dikhlai hain, vaise hi chhayavadi yug ke kaviyon ne navya lakshnaon aur vyanjnaon ke prayog ke dvara us jamane ke pathkon ka vismay vimugdh kar diya tha.
svargiy parsad ji ne yadyapi apne lekh mae ye siddh karne ki koshish ki hai ki chhayavad nitant bharatiy vastu thi kintu hamein ye avashya svikar karna hoga ki hindi ke adhikansh chhayavadi kavi pashchatya romantik kaviyon ke kavyon se avashya prabhavit hue the, parsad par chahe pratyaksh roop se unka prabhav na paDa ho. aaj to vishvvidyalyon mein chhayavadi kavya ka baDa sahanu bhutipurn adhyayan hone laga hai lekin dvivedi yug mae chhayavadi kavitaon ke liye tatkalin sahityik maharathiyon ke man mae koi aadar ki bhavna nahin thi, na un kavitaon ko samajhne ke liye hi koi vishesh prayatn kiya jata tha. kutte ko maar dene ke liye jaise usko pagal kah dena kafi hai, usi prakar kisi kavya ko asadhu thahrane ke liye usko chhayavadi kah dena paryapt samjha jata tha. us zamane ki patrikaon mein kataksh kavya athva vyangyoktiyon ke roop mein is prakar ki panktiyan chhapa karti thee—
kisne chhayavad chalaya,
kiski hai ye maya?
hindi bhasha mein ye nyara,
baad kahan se aaya?
‘nyara vaad’ se kamse kam itna to aspasht hai ki us zamane ke pathkon ko chhayavad ek ajib si vastu jaan paDi thi, jiske svarup ko dekhkar anek prashnavachak chihn ek saath pathkon ke samne aa upasthit hote the. manvikran, visheshan viparyay, pratik paddhati, moort upmeyon ke liye amurt upmanon ka prayog aur aprastut vidhan aadi chhayavad ki chaal Dhaal ke hi roop hain. yahan ye kah dena bhi avashyak hai ki is chaal Dhaal mae ek prakar ki mardavta, madhurya aur sundarta bhi hai jo chitt ko ullasit karti hai. saundarya ka svar mukhrit karta hua ye chhayavadi kavya purush apni chaal Dhaal mein anupam tha, nirala tha, ramniy aur bhavya tha. isme yadi apni gahri trutiyan na hotin, lok jivan ka sahacharya lekar yadi ye chala hota to aaj bhi ye apni chaal Dhaal na kho baithna. aaj to kuch baal ki khaal nikalne vale chhayavadi kavya purush ki shav pariksha kar rahe hain kintu ek yug tha jab isne apni vilakshan bhangimaon se pathkon ko chamatkrit kar diya tha.
jin dinon chhayavad ka andolan chala tha un dinon is kavydhara ki rekhayen vat vriksh ki jaDon ki tarah uljhi hui theen, tarknal ki tarah bikhri hui theen. dusri baat ye hai ki chhayavad ko sampurn roop mein dekhana us samay sambhav bhi na tha. us samay chhayavadi kavya apne nirman ki prakriya mae gatishil tha. yahi karan hai ki us yug mae panDit mahaviraprsad dvivedi aur panDit padmsinh sharma jaise diggaj vidvanon ne bhi chhayavad ke sambandh se jo vichar prakat kiye the, ve bhi aaj manya nahin hain. kintu aaj chhayavad ke sampurn kavya granth hamare samne hain jinke adhar par samyakru roop se chhayavad sambandhi saiddhantik vivechan kiya ja sakta hai.
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स्रोत :
पुस्तक : दो शब्द (पृष्ठ 40)
रचनाकार : कन्हैयालाल सहल
प्रकाशन : आत्माराम एंड सन्स
संस्करण : 1950
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