भारतीय उपन्यास : असफलता के कुछ बिंदु
bharatiy upanyas ha asphalta ke kuch bindu
राजेंद्र यादव
Rajendra Yadav
भारतीय उपन्यास : असफलता के कुछ बिंदु
bharatiy upanyas ha asphalta ke kuch bindu
Rajendra Yadav
राजेंद्र यादव
और अधिकराजेंद्र यादव
एक तीसरी श्रेणी का अमरीकन उपन्यास है 'द मैन' लेखक इरविंग वैलेस। (हालाँकि यह तीसरी श्रेणी का उपन्यास भगवतीचरण वर्मा या शंकर, विमल मित्र जैसे किसी भी ‘श्रेष्ठ भारतीय उपन्यासकारों' की प्रथम श्रेणी की रचना से अधिक सशक्त, कथ्य में नया, सुगठित और रोचक है) इसमें कल्पना की गई है कि अमरीका का राष्ट्रपति एक नीग्रो हो गया है। कहानी की अपनी सनसनी, उत्सुकता, बुनावट और परिणतियाँ हैं। लेकिन भारत का तीसरी श्रेणी का कथाकार भी इस बात से कहीं कोई प्रेरणा नहीं ले पाता है कि देश की प्रधानमंत्री एक 'विधवा' नारी है, राष्ट्रपति ‘विधर्मी’ है, काँग्रेस जैसी विशाल संस्था का अध्यक्ष एक हरिजन रहा है और पहली बार नए व्यक्तिगत या सामाजिक कानून बनाकर अंबेडकर ने मनु-याज्ञवल्क्य को एक तरफ़ फेंक दिया है। हजारों सालों देश से जकड़े रहने वाली वर्ण-व्यवस्था अब केवल नौकरियाँ पाने या वोट वसूलने का हथियार है। (यहूदी होने की यातना को सॉलबैलो ने 'हरजोग' में कितने गहरे स्तरों पर पकड़ा है) बड़े-बड़े राजा और जमींदार जनता का निर्णय सुनने के लिए चुनावों के कठघरों में खड़े मुँह ताक रहे हैं, लाल-तिकोन की बाढ़ में एबॉर्शन को कानूनी रूप देने पर बहसें हो रही हैं, छोटे-छोटे उद्योग घर-घर की शक्लें बदले दे रहे हैं और जिन्होंने साइकिलें नहीं देखी थीं उनकी एयरकंडीशंड गाड़ियाँ, नगर के सबसे ख़ूबसूरत मुहल्ले की आलीशान कोठियों में खड़ी थानेदार-कलेक्टर से काँपते हुए हाथ मिलाकर कृतार्थ होने वाले आज तय कर रहे हैं कि अब अमुक मिनिस्टर को रखना है या हटा देना है।
ये सामाजिक परिवर्तन के डिटेल्स हैं। सूची बहुत लंबी हो सकती है और पता नहीं, प्रेमचंद्र इनमें से किसी स्थिति पर लिखते या नहीं लेकिन आज का हिंदी कथाकार नहीं लिखता, न ही लिखने की बात सोचता है। कम से कम इन्हें लक्ष्य बनाकर लिखने की बात उसके मन में नहीं आती। हाँ, पुरानी व्यवस्था के टूटने से जो बिखराव आया है, उसपर ज़रूर कुछ सशक्त रचनाएँ आई हैं। कथा-साहित्य का संबंध सामाजिक परिवर्तन की घटनाओं से उतना नहीं होता जितना उनमें उलझे नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक संकट से होता है, यही हमारे आपसी संबंधों और व्यवहार को निर्धारित करते हैं। इसलिए चीज़ों और संबंधों के प्रति हमारा रवैया ही कहानी में आ सकता है, आना चाहिए। मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या सचमुच हमारी ऐसी कोई कटा-छँटी स्पष्ट सुनिर्णीत संस्कृति है, जो नई परिस्थितियों की टक्कर में हमारे भीतर दयनीयता और भ्रांति नहीं, संकट और तनाव पैदा करती है? राष्ट्रीय और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर क्या हम हर सुविधा और सुयोग को स्वीकार ही नहीं करते रहे हैं? 'भारतीयता' और 'अभारतीयता' क्या केवल अवसर के अनुरूप पक्ष-विपक्ष में दिया जाने वाला तर्क ही तो नहीं है? जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, क्या दो हज़ार सालों से उसके विकास को स्थगित नहीं मानते? संस्कृति की जीवंत तात्कालिकता से जब हमारा कोई रिश्ता ही नहीं है तो ‘सांस्कृतिक संकट' की बात हवाई और झूठी नहीं हो जाती? और जिसे हम सांस्कृतिक या मूल्यों का संकट कहते हैं, वह कहीं मानसिक अभ्यासों, नया सोचने की अक्षमता और सुरक्षा न छोड़ सकने की साहसहीनता ही तो नहीं है?
मुझे अफ़सोस है कि भारतीय कथा-साहित्य ने मूल्यों और संबंधों के आधारभूत संकट को वास्तविक निगाहों से बिल्कुल नहीं देखा है; नई स्थितियों के सामने हारते हुए, पुराने को ही कथा-साहित्य ने अपना केंद्र बनाया है। दुःखद यह है कि पुरातनता को ही वह 'मानवता' के रूप में कंफ़्यूज़ करता है। नयों की आकांक्षाओं और कुंठाओं, आशाओं और पराजयों की कहानियाँ मुझे हिंदी के अलावा किसी और भाषा में उतनी नहीं दिखाई देतीं।
कथा-साहित्य में स्थिति का साक्षात्कार न कर पाना उतना ट्रैजिक या दयनीय नहीं होता जितना उस चुनौती से कतराकर निकल जाना। देश के पूरे परिप्रेक्ष्य में सबसे अधिक निराशाजनक स्थिति इंडो-एग्लियन और बंगला कथा-साहित्य की है। एक एयरपोर्ट के आसपास की बस्तियों की कॉकटेल पार्टियों और पूर्व-पश्चिम के सांस्कृतिक संघर्ष को जितने भौंडे, सपाट और बेहूदे ढंग से रख रहा है उतने ही फ़ॉर्मूलाबद्ध, बाज़ारू और पलायनवादी ढंग से, और दो सौ सालों के इतिहास की काल्पनिक, झूठी और भावुकता भरी मनोरंजक फ़िल्मी कहानियाँ दे रहा है बंगाल। भारत के अँग्रेज़ी कथाकार की जीवनभर की उपलब्धि या नियति किसी अँग्रेज़ी आलोचक या कथाकार से ‘अच्छी भाषा' लिख लेने का सर्टिफ़िकेट ले लेना है, तो बंगाल के कथाकार की सफलता क़िस्सागोई के कमाल के साथ एक शरच्चन्द्रीय नायिका की सृष्टि कर देना... समरेश बसु या अन्य कथाकार इस व्यावसायिकता से निकलने की सफल-असफल कोशिश ज़रूर कर रहे हैं।
ड्राइंगरूम की बहसों और लंबे-लंबे एकालापों के रूप में पुरानी मूर्तियों और भारतीय दर्शन या योग को विदेशी बाजारों में बेचने वाले, मूलतः केवल सभ्यताओं की टक्कर दिखाते रहे हैं, जन-जन के मन मे चल रहे ‘सांस्कृतिक संकट' की शायद उन्हें खबर भी नहीं है। वस्तुतः जन्मांतर और कर्म का सिद्धांत भारतीय मानस में 'पाप' और 'द्वंद्व' की वह वेधक, तीव्र और यंत्रणामय अन्वेषी दृष्टि ही नहीं देता जो दोस्तोवस्की या ग्राहम ग्रीन की रचनाओं को एक ख़ास तरह की गहराई देती है। अहं को मारने के नाम पर 'आत्म' को मारकर वह अपने-आपको चुनाव करने या 'चुनाव न कर सकने' की अस्तित्ववादी ज़िम्मेदारी से भी बचा लेता है और अस्तित्व को भीतर तक परखने की उसे आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। सारी मध्यकालीन संस्कृति ‘जाने हुए को जान लेने’ वाले को ही विद्वान् और मनीषी के रूप में स्वीकृति देती है इसलिए, 'अनजान को जानने की तड़प' या प्रश्नाकुलता हमारे चिंतन को शक्ति या निरंतरता नहीं दे पाती। अधिक से अधिक दे पाती है तो बस, एक उच्छ्वास 'क्षितिज के पार क्या है'? हर भारतीय के पास प्रत्येक द्वंद्व के ऐसे जादुई समाधान हैं कि प्रायः आत्मा की ऊँचाइयों और योग की सिद्धावस्था में विहार करने वाला व्यक्ति, बिना किसी द्विधा या आत्म-दंश के रिश्वत, सिफ़ारिश, चमचागिरी कर सकता है। माया के हर पक्ष को आत्मसात कर लेनेवाला पैसे-पैसे को दाँत से पकड़ता है और भूत-भविष्य-वर्तमान सभी को आर-पार देख लेनेवाला हर क्षण को वसूल कर लेना चाहता है; अपरिग्रह, योग और तुरीयावस्था के हरकारे हवाई जहाज़ों से कम यात्रा नहीं करते वे 'भारतीय दर्शन' को आधुनिकता दे रहे हैं। विदेश में बेचने के लिए 'नया लुक' ला रहे हैं।
इसलिए आज के भारतीय मानस, विशेष रूप से हिंदी-मराठी-गुजराती कथाकार के लिए ये सब निहायत अप्रासंगिक, फ़ालतू और फ़िजूल है, उसकी रचनात्मक चिंता और चेतना को छू नहीं पाती। उसकी चिंता का विषय तो उसका अपना जीवन, परिवेश, संबंध, मूल्य और इन सबके प्रति अपना बनता हुआ रवैया है। इतिहास और दर्शन आज शायद ही किसी जीवंत, युवा कथा-लेखक के विषय में रहे हों। तेज़ी से बढ़ते हुए औद्योगीकरण, सिमटते हुए भूगोल और प्रचार-भ्रष्ट भाषा के बीच अपनी नियति, इयत्ता और अभिव्यक्ति खोजनेवाले लेखक को इतनी फ़ुरसत कहाँ है कि वह बैठकर तीन-तीन पीढ़ियों के झूठे-सच्चे इतिहास की खुदाई करे या भारतीयता-अभारतीयता, आत्मा-परमात्मा की साँप-रस्सीवाली पहेलियाँ बुझाए। दर्शन, उपदेश, आदर्श, स्वप्न, शब्द जो कुछ भी उसे ऊपर से दिया जाता है उन सब पर उसकी आस्था नहीं है। उसके लिए वास्तविकता उसका अपना होना, उस होने को निर्धारित करनेवाला आस-पास, अपनी नियति और अपनी पहचान है। समय और दिशा में उसका दायरा सीमित ही सही, लेकिन प्रामाणिकता और संवेदनशीलता की दृष्टि से वही उसका यथार्थ है। आज उसकी अपनी विधा कहानियाँ और लघु-उपन्यास हो गए हैं; उसका अपना इतिहास सन् 47 के पहले से शुरू नहीं होता। पुराने समाज को समानांतर भोगते हुए भी उससे उसका कोई परिचय और वार्तालाप नहीं है और पीढ़ियों की यह दूरी निरंतर बढ़ती चली जा रही है। जिस नई परिस्थितियों में वह अपने को पाता है, वहाँ न उसका अभी कोई व्यक्तित्व बना है और न संदर्भ। वह अपनी आइडेंटिटी और संबंधों को समझने के दौर से गुज़र रहा है। हाँ, पल-पल पर उसकी टक्कर या सामना यथास्थिति से है जो उसे ख़रीदती, बेचती और तोड़ती है, शायद इसीलिए उसमें सबसे पहले सम्मानजनक दूरी और यथास्थिति को आशा और सम्मान से देखने का भाव था, फिर भ्रम-भंग का दौर आया और वह अपने को अजनबियत, आत्मदया या निर्वासित होने की भावना से घिरा पाने लगा, फिर क्रमशः उसका रवैया एक कैजुअलनैस या उदासीनता में बदलता गया और आज वह एक हिंस्र प्रतिशोध का रूप लेने लगा है। प्रतिशोध अपने-आपसे और यथास्थिति से...
हो सकता है आज के बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने-आपको समझने की जल्दबाज़ी में कभी अस्तित्ववादियों, कभी हिप्पियों और कभी माओ-गुवेआरा की शब्दावली का प्रयोग किया हो, लेकिन दूसरी ओर से इन्हीं नामों को लांछन की तरह उछालकर स्थिति से आँख मूँदने की शुतुरमुर्गी कोशिशें भी कम नहीं रही हैं।
स्वतंत्रता के बाद, पहली बार सच्चे अर्थों में हमारे समाज में एक विशाल मध्यवर्ग ने अपना वास्तविक आकार ग्रहण किया है। बड़े-बड़े राष्ट्रीय या वैयक्तिक उद्योगों की छाया में करोड़ों लोगों का ऐसा वर्ग है जो कहीं भी अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाता। कोई शहर उनका अपना नहीं है, कोई संबंध उनका अपना नहीं है, उनकी जड़ें न कहीं पीछे खेत-खलिहानों में हैं, न किसी संयुक्त परिवार में उनका एकमात्र साधन नौकरी है और एकमात्र भय बेकारी। धर्म, संस्कार, नैतिकता उनके आपसी संबंधों को सुरक्षा नहीं देते। उन्हें अपने लिए अपना एडजस्टमेंट तलाश करना है, अपनी स्थिति को अपने मुहावरे में समझना, भोगना या छोड़ना होता है। अकेले, असहाय और व्यर्थ होने की नियति उनकी अपनी है और उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती, या तुलना है सरकारी योजनाओं को लूटकर रातोंरात रईस हुए सहोदर-वर्ग से। न उत्पादन के स्रोत इस मध्यवर्ग के हाथ हैं, न उत्पादन के साधन; शिक्षा, बेकारी, आश्वासन और व्यापक असुरक्षा के जंजाल में वह बहुत अकेला, अजनबी, अनसमझा, निर्वासित, क्रांतिकारी शहीद सब कुछ है या फिर है टुच्चा, ढोंगी, लालची, कुटिल और तिकड़मी। ढाल के रूप में लादे यह वर्ग चाहे जो कुछ रहे, लेकिन असलियत यह है कि न उसके कोई मूल्य हैं, न संस्कृति वह सब भी उसकी अपनी नहीं है जिसका वीभत्सतम प्रदर्शन नवधनिक वर्ग कर रहा है।
और यह मध्यवर्ग हर कुछ को भोगने, बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त है। उसकी क़िस्मत को ढालने, गढ़ने, दिशा देनेवाली शक्तियों या तो ऊपर हैं या नीचे... नीचे वालों से उसका संपर्क केवल ब्यूरोक्रेटिक धरातल या पिकनिक के अवकाश पर ...ऊपर से उसका संबंध फाइलों, प्रमोशन और लाइसेंसों या फिर कृपापूर्वक फेंके गए निमंत्रणों पर। इन्हीं संपर्कों की होड़ पर उसकी हैसियत और सुरक्षा क़ायम है, इसी ख़ाली और खोखलेपन को वह कभी ‘सांस्कृतिक कार्यक्रमों' से भरने की कोशिश करता है, कभी आत्म-साधना के नुस्सों से। उसके लिए साधु और कलाकार दोनों अपनी-अपनी जगह ज़रूरी हैं, लेकिन उपयोगी है डेल-कोनेगी और पार्किन्सन...।
यहीं से हमारा कथा-नायक आता है और यहीं से कथा-लेखक। और शायद यही कारण है कि हमारी कला और संस्कृति, अपनी सारी बारीकियों और परफ़ैक्शन के बावजूद संवेदनशीलता और सच्चे विक्षोभ के रहते हुए भी राजनीति की छाया होकर रह गई है। 'बुर्जुआ समाज में राजनीति पहली और प्रमुख शक्ति होती है, कला और साहित्य नहीं', यह थॉमस मान ने कहा था जिसे आज अज्ञेय महसूस करते हैं कि, “बीसवीं शताब्दी में कलाकार मात्र की स्थिति गिरी है।'’ दोनों ही लेखकों को वस्तुतः कहना यह चाहिए कि कला ही नहीं, कलाकार और बुद्धिजीवी आज जिस समाज की उपज है, जिसे बिलौंग करने की बात वह करता है स्थिति वास्तव में उसकी गिरी है, उसे अपनी नहीं, कहीं और से ली या दी हुई शक्ति या उपाधि से अपनी प्रतिष्ठा का भ्रम बनाए रखना पड़ता है... प्रतिष्ठित होने के लिए उसे राजनीतिज्ञों के आस-पास चक्कर लगाने पड़ते हैं, उनके साथ अपने प्रभाव या संबंधों की घोषणा करनी पड़ती है।
मैं समझता हूँ कि भारतीय कथाकार को बदलते हुए समाज में सबसे पहले अपनी स्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए। यह भी हो सकता है कि स्थिति-स्वीकार का ही यह धक्का है जिसने हम सबको थोड़े समय के लिए चुप या स्तब्ध कर दिया है और अपने समय को स्वर देने वाली कोई भी रचना किसी भी साहित्य में नहीं आ रही।
(‘उपन्यास- स्वरूप और संवेदना' नामक पुस्तक से)
- रचनाकार : राजेंद्र यादव
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