इस बात में तो अब कोई संदेह नहीं हो सकता कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों की भाँति रंगमंच में भी हमारे देश में नव-जागरण का एक युग वर्तमान है। आजकल प्रत्येक नगर में, यहाँ तक कि देहातों में भी, आए दिनों खेले जाने वाले नाटकों की संख्या पर यदि ध्यान दें तो पिछले प्रत्येक युग की तुलना में आज के युग की यह विशिष्टता स्पष्ट हो जाएगी। इस समय शायद ही कोई ऐसा स्कूल अथवा अन्य शिक्षालय होगा जिसमें वर्ष भर में एक-दो नाटक न खेले जाते हों। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लगभग सभी छात्रावास, बहुत से विभाग आदि अपने-अपने अलग-अलग नाटक प्रस्तुत करते हैं, विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी विभागों के क्लब, मज़दूर संगठन, बहुन-पी सैनिक टुकड़ियाँ तथा अन्य सांस्कृतिक संगठन वर्ष भर में एक-दो बार नाटक का आयोजन अवश्य करते हैं, चाहे फिर उन नाटकों को प्रस्तुत करने की प्रेरणा इन संगठनों के वार्षिक अधिवेशनों से मिलती हो अथवा अपने सदस्यों तथा सहायकों का मनोरंजन करने की भावना से और अंत में अनगिनती छोटे-बड़े ऐसे संगठन और दल तो हैं ही जो नाटक करने, रंगमंच के विकास में सहायता देने और अपने पारिपार्श्विक जीवन की मौलिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से हर प्रदेश में, हर नगर में वर्तमान हैं और नित नए बनते जाते हैं।
इस कोटि में किसी शहर के साधारण साधन तथा प्रतिभा वाले उत्साही विद्यार्थियों के नाटक-क्लब से लेकर कलकत्ते के बहुरूपी जैसे असाधारण क्षमता-संपन्न और नाटक को अपनी आत्माभिव्यक्ति का सर्वप्रमुख साधन मानने वाले कलाकारों के दल तक सभी आ जाते हैं। इनमें से पहली श्रेणी के संगठन किसी विशेष आयोजन के अवसर पर नाटक तैयार करते और खेलते हैं तथा रंगमंच के प्रति उनका उत्साह अपेक्षाकृत क्षणिक और प्राय आत्म-प्रदर्शन की भावना से प्रेरित होता है जो उस आयोजन के साथ ही समाप्त हो जाता। इनमें भाग लेने वाले बहुत से अभिनेता तो शायद दूसरी बार फ़िर कभी किसी नाटक में भाग ही नहीं लेते और प्राय ऐसे नाटक एक से अधिक बार प्रस्तुत नहीं किए जाते। दूसरी श्रेणी के संगठन ऐसे हैं जिनके सदस्यों को एक प्रकार से नाटक का खब्त होता है और वे अपने अधिकांश खाली समय में केवल नाटक की ही बात सोचते हैं और नाटक के द्वारा ही अपने भीतर की कलात्मक सृजन-प्रेरणा को प्रकट करना चाहते हैं। ऐसे संगठन प्रत्येक नाटक की तैयारी पर पर्याप्त समय, शक्ति और धन भी व्यय करते हैं और उस नाटक को अधिक से अधिक रसज्ञ प्रेक्षकों तक पहुँचाने के लिए उत्सुक होते हैं तथा उसका प्रयत्न भी करते हैं। यह सही है कि नाटक की इस प्रकार सृजनात्मक अभिव्यक्ति का साधन मानने वाले संगठन बहुत नहीं हैं, न साधारणतः हो ही सकते हैं किंतु हमारे आज के सांस्कृतिक उन्मेष में उनका अस्तित्व है और वह हमारे विकास के एक महत्वपूर्ण स्तर को प्रकट करता है।
साथ ही यह बात भी ध्यान देने की है कि पिछले दिनों में न केवल इन नाटक खेलने वाले संगठनों की संख्या में वृद्धि हुई है, बल्कि उतनी ही, शायद उससे भी कहीं अधिक मात्रा में, उनके कृतित्व को देखने, सराहने और उससे आंनंद प्राप्त करने वाले दर्शकों की संख्या भी बढ़ी है। ये छोटे-बड़े नाटक चाहे किसी राजमार्ग के चौराहे पर रास्ता रोककर बनाए हुए चौकियों के मंच पर खेले जाएँ, चाहे कॉलेजों और स्कूलों के सभा-भवनों में और चाहे न्यू एंपायर' जैसे आधुनिक साधनों से युक्त मंच और प्रेक्षागृह में, उनको देखने के इच्छुक रमज्ञों की अब कमी नहीं होती। बल्कि दुर्गापूजा के समय बंगाल और गणेशोत्सव के समय महाराष्ट्र के नगर और देहात के हर मुहल्ले में, लगभग हर बड़ी सड़क पर नाटक किए जाते हैं और उनमें तिल धरने को जगह नहीं मिलती। इस भाँति यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि आज हमारे देश के लगभग सभी भागों में जहाँ एक ओर शौकिया अभिनेता और निर्देशकों के नए-नए दल तैयार हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके कार्य को समझने और सराहने वाले दर्शक—रंगमंच के प्रेक्षक—भी अधिकाधिक संख्या में प्रकट हो रहे है।
रंगमंच के क्षेत्र में जहाँ यह नवोन्मेष एक असंदिग्ध सत्य है, वहीं दूसरी ओर यह बात भी उतनी ही निविर्वाद है कि कुछेक बड़े-बड़े नगरों को छोड़कर नियमित रंगमंच हमारे देश में नहीं के बराबर है और नियमित रूप से चलने वाले नाटकघर हमारे देश में लगभग हैं ही नहीं। जहाँ ये नाटकघर हैं भी, वहीं वे बड़ी मुगमता से चलते हैं यह भी नहीं कहा जा सकता। सिनेमा के प्रचार और लोकप्रिय होने बाद से व्यवसाय के रूप में नाटक-कंपनी चलाना अब किसी भी प्रकार से आकर्षक कारोबार नहीं रहा है। व्यवसायी रंगमंचों के संचालक अभिनेता तथा अन्य आश्रित सहायक शिल्पी कलाकार न तो फ़िल्म-जगत जैसा सम्मान, प्रतिष्ठा अथवा महत्व ही समाज में पाते हैं कि अपने कार्य को गौरव और आकर्षण का विषय मान सकें, और न आर्थिक दृष्टि में ही इस कार्य में उन्हें इतनी सफलता तथा संपन्नता प्राप्त होती है कि उसे आजीविका का निश्चित साधन बना सकें। परिणामस्वरूप जिनमें तनिक सी भी अभिनय अथवा निर्देशन संबंधी प्रतिभा है, वे सभी फ़िल्म की ओर दौड़ते हैं। जो उत्साही प्रतिभावान कलाकार इन परिस्थितियों के होते हुए भी रंगमंच में अपनी रुचि और उसके प्रति अपना उत्साह बनाए हुए हैं, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जाने लायक है और वे भी अपनी आजीविका के लिए नाटक के अतिरिक्त फ़िल्म का सहारा किसी न किसी रूप में लेने के लिए बाध्य हैं। प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज इसके सबसे सुपरिचित उदाहरण हैं। पृथ्वी थिएटर को जीवित रखने के लिए उन्हें निरंतर फ़िल्म में काम करना पड़ता है और फ़िल्म द्वारा प्राप्त धन से ही वह नाटक के प्रति अपनी इस अद्भुत लगन और उत्साह को पूरा कर पाते हैं। व्यवसायी रंगमंच की यह स्थिति उसके प्रभाव और उसकी अपेक्षाकृत हीन अवस्था का परिणाम हो अथवा कारण, किंतु इतना अवश्य सही है कि हमारा व्यवसायी रंगमंच हमारे वर्तमान सांस्कृतिक नवोन्मेष को ठीक-ठीक प्रगट नहीं करता। किंतु साथ ही जबतक एक नियमित रूप से चलने वाला रंगमंच हमारे देश के प्रत्येक भाग में नहीं बन जाता जबतक नाटक खेलना और देखना हमारे सांस्कृतिक जीवन का, बल्कि हमारे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग नहीं बन जाता, जबतक कम से कम समाज का प्रबुद्ध शिक्षित वर्ग अपने अवकाश को और अपने मनोरंजन की आवश्यकता को नियमित रूप से नाटक द्वारा पूरा नहीं करता, तबतक यह कहना कठिन है कि हमारे देश में कोई रंगमंच वर्तमान है और न तबतक किसी प्रकार की विकसित रंगमंचीय परंपराओं का निर्माण ही संभव है।
इस भाँति हम देखते हैं कि आज नियमित रंगमंच के अभाव में और साथ ही देश के वर्तमान सांस्कृतिक नवोन्मेष के फलस्वरूप हमारे अव्यवसायी रंगमंच ने एक ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली है जो एक प्रकार से अस्वाभाविक ही है। किंतु सा ही हमारे इस व्यवसायी, शौकिया रंगमंच में ही हमारे भावी नियमित-विकसित रंगमंच के बीज हैं, यह बात भी निर्विवाद लगती है। और यदि आज हम अपने इस अव्यवसायी रंगमंच की स्थिति को भली-भाँति समझ सकें, उसकी समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकें और सीमित रूप में ही सही, उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें, तो हम अपने देश में एक संपन्न रंगमंच के निर्माण, स्थापना और विकास में बढ़ा भारी योग दे सकेंगे। यह तो अनिवार्य ही है कि अपनी ही आंतरिक प्रेरणा तथा सामान्य सांस्कृतिक उन्मेष के फलस्वरूप होने वाली इस क्रिया में एक ओर तो अपने भीतर ही बड़ी भारी असमानता है तथा प्रतिभा, सामर्थ्य और लगन के विभिन्न स्तर हैं। दूसरी ओर देश का वर्तमान सामाजिक-आर्थिक ढाँचा इस समुचित उन्मेष को संभालने में अभी समर्थ नहीं हो पाया है। इसीलिए इस देशव्यापी सांस्कृतिक हलचल को न तो प्रशस्त अभिव्यक्ति ही मिलने पाती है और न उचित सहयोग। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि कुल मिलाकर हमारा शौकिया रंगमंच अभी केवल किसी-न-किसी प्रकार अभिव्यक्ति का साधन खोजने की अवस्था में है, आत्मविश्वास के साथ एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ चलने की अवस्था में नहीं।
उसी स्थिति के तीव्रतम रूप को नाटकीय ढंग से कहें तो यह कहा जा सकता है कि इस अव्यवसायी रंगमंच की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके लिए न तो नाटकघर हैं और न नाटक। हमारे देश के आधुनिक रंगमच की अवस्था का यह बड़ा विचित्र-सा विरोधाभाम है कि नाटक खेले जाने की इतनी माँग और नाटक दिखाने तथा खेलने की इतनी प्रेरणा होने के बावजूद साधारणत रंगमंच के उपयुक्त पर्याप्त नाटक किसी भाषा में नहीं मिलते। और नाटकघरों का तो लगभग सभी जगह अभाव ही है।
इन दोनों समस्याओं पर अलग-ग्लग विचार करें। पहले नाटकघरों के अभाव को ले लीजिए। समूचे भारतवर्ष के दो-तीन नगरों को छोड़कर नियमित नाटकघर कहीं भी नहीं हैं। जो हैं, वे या तो कुछेक व्यवसायी मंडलियों के पास हैं या फिर उनमें सिनेमाघर बन गए हैं अथवा वे एकदम टूटी-फूटी जीर्ण अवस्था में पड़े हुए हैं। जो भी हो अव्यवसायी मंडलियों को नाटकघर प्राप्त नहीं होते। साधारणतः जितने भी नाटक खेले जाते हैं, उनमें से अधिकांश स्कूलों, कॉलेजों के हॉल में अथवा अन्य ऐसे सभा-भवनों में प्रस्तुत किए जाते हैं जहाँ प्रायः तख्त तथा चौकियाँ कम कर स्टेज तैयार करना पड़ता है, जिसके ऊपर पर्दा लगाने और आलोक का उचित प्रबंध करने ही में बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है। फिर उस परिश्रम के बाद भी ऐसी स्थितियाँ दुर्लभ नहीं हैं कि किसी एक दृश्य के अत्यंत ही मार्मिक स्थल पर पर्दा गिराना आवश्यक तो होना है किंतु अचानक ही डोरी टूट जाती है, पर्दा नहीं गिर पाता और असमंजस में पड़े बेचारे अभिनेता यह स्थिर नहीं कर पाते कि रंगमंच पर रहें अथवा चले जाएँ। स्पष्ट हो ऐसी परिस्थितियों में भावोद्रेक का वह स्तर प्राप्त नहीं होता जब प्रेक्षक का रंगमंच पर प्रस्तुत दृश्य के साथ रसात्मक तादात्म्य हो सके। हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा नगर है जहाँ नगरपालिका की ओर से बना हुआ नाटकघर हो जिसे छोटी-बड़ी अव्यवसायी नाटक-मंडलियाँ साधारण किराए पर ले सकें और सुविधा से नाटक प्रस्तुत कर सकें। विभिन्न नगरों में जो भी सभा-भवन आजकल बन रहे हैं उनमें किसी न किसी प्रकार का मंच अवश्य होना है। पर दर्शकों के बैठने के स्थान से थोड़े ऊपर बने हुए किसी चबूतरे को रंगमंच नहीं बनाया या समझा जा सकता। इस परिस्थिति का बड़ा तीखा अनुभव तब हुआ जब 1954 में दिल्ली में राष्ट्रीय नाटक महोत्सव के लिए एक स्थानीय सभा-भवन के उपयोग की बात उठी। बड़े ही केंद्रीय स्थान में होने पर भी उस भवन के आयोजकों ने उसके इस उपयोग की संभावना पर ध्यान ही नहीं दिया था। परिणामत राष्ट्रीय महोत्सव के लिए उसमें बहुत से परिवर्तन करने पड़े और उसके बाद भी वह रंगमंच ऐसा न बन सका जिसमें हर तरह के नाटक खेले जा सकें। दिल्ली में हाल ही में एक अन्य कला-संस्था ने एक नाटकघर बनाया है किंतु उसमें भी पूर्व-योजना के अभाव और अव्यवसायी नाटक-मंडलियों की समस्याओं के प्रति उदासीनता ने उस नाटकघर की उपयोगिता को बहुत-कुछ सीमित कर दिया है।
इन इक्के-दुक्के नाटकघरों अथवा विभिन्न सभा-भवनों के साथ एक कठिनाई और भी है। उनका दैनिक किराया इतना अधिक होता है कि छोटी-छोटी नाटक-मंडलियाँ तो उसे बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। उनमें नियमित सज्जा-शालाएँ नहीं होती, स्थायी रूप से लगे हुए पर्दे नहीं होते, आलोक संबंधी स्थायी व्यवस्था नहीं होती। अधिकांश अव्यवसायी नाटक-मंडलियों के लिए इनसब आवश्यकताओं की अपनी-अपनी अलग व्यवस्था करना कष्ट-साध्य होता है और अर्थ, समय तथा शक्ति का व्यय तो उसमें होता ही है। इन सबसे भी बड़ी समस्या है विज्ञापन संबंधी ख़र्च की। साधारण मनोरंजन-प्रेमी जनता अभी नाटक देखने जाने की अभ्यस्त नहीं है, केवल यही बात नहीं है। वास्तव में नाटकघर एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ मनोरंजन के इच्छुक अथवा कला-प्रेमी दर्शक अनायास ही इकट्ठे हो सकें—ठीक उसी प्रकार जैसे किसी सिनेमाघर की ओर लोग जाते हैं। ऐसी ही नियमितता के बिना रंगमंच की वास्तविक परंपरा नहीं बनती, वहाँ जाने का लोगों का अभ्यास नहीं बनता। फलस्वरूप प्रत्येक नाटक-मंडली को पहली बार दर्शकों को आकर्षित करने के लिए बहुत अधिक प्रयत्न करना पड़ता है और इस भाँति न केवल विज्ञापन संबंधी ख़र्च बहुत बढ़ जाता है, बल्कि सिनेमा की तुलना में नाटक की ओर सहज ही दर्शक उन्मुख नहीं हो पाता। बहुत बार तो कुछेक अच्छे प्रदर्शनों के हो चुकने के बाद समाचार-पत्र में सूचना पढ़कर उनका पता चलता है। इसलिए नाटक को यदि हमारे सांस्कृतिक जीवन का अविच्छिन्न अंग बनना है तो यह सर्वथा आवश्यक है कि वह कभी-कभी होने वाली हलचल के रूप में नहीं, बल्कि हमारे दैनिक जीवन की एक अनिवार्य परिस्थिति के रूप में वर्तमान रहे। यह कार्य स्पष्ट ही तबतक संभव नहीं है जबतक प्रत्येक नगर में कम-से-कम ऐसा नाटकघर न हो जहाँ हर शाम को नाटक खेले जाते हों, जहाँ अनायास ही दर्शक पहुँचते हों और साथ ही जहाँ स्थानीय तथा बाहर की छोटी-बड़ी नाटक-मंडलियाँ न्यूनतम साधारण सुविधाओं के साथ नाटक खेल सकती हों।
ऊपर इस बात का उल्लेख किया गया है कि जो नाटकघर प्राप्त भी हैं, उनका दैनिक किराया इतना अधिक है कि साधारणत: नाटक-मंडलियाँ उसे बर्दाश्त नहीं कर पातीं। इस प्रश्न पर और भी विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि प्रचार के अभाव में साधारणत अच्छे से अच्छा नाटक अथवा अच्छी से अच्छी नाटक-मंडली इतने अधिक दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पाती कि पहले एक-दो दिनों में नाटक का पूरा ख़र्च टिकटों की बिक्री से इकट्ठा हो सके। दूमरी ओर अधिकतर यह संभव नहीं होता कि एक या दो दिन से अधिक किसी नाटकघर को किराए पर लेने का साहस कोई अव्यवसायी नाटक-मंडली साधारणतः करे। इस प्रकार की नाटका-मंडलियों को प्रायः यह आशंका बनी ही रहती है कि उनका प्रयास सफल होगा अथवा नहीं, दर्शकों को यह अच्छा लगेगा अथवा नहीं। पर्याप्त विज्ञापन के साधनों का अभाव होने के कारण भी इन मंडलियों के लिए अधिक दिन तक नाटकघर किराए पर लेना कठिन होता है।
बहुत बार ऐसा भी होता है कि किसी नाटक के पहले एक-दो प्रदर्शन इतने सफल नहीं होते और पहले एक-दो अभिनय के बाद ही अभिनेताओं और प्रस्तुतकर्ताओं को नाटकों की दुर्बलताओं का पूरा बोध होता है और वे उन्हें दूर करके उसे कहीं अधिक प्रभावोत्पादक बनाने की स्थिति में होते हैं। क्योंकि यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि इन अधिकांश नाटक-मंडलियों के पास रिहर्सल के लिए प्राय कोई स्थान नहीं होता। अधिकतर मंडलियों को रिहर्सल किसी-न-किसी सदस्य के घर पर करनी पड़ती है जहाँ बहुत बार सबके लिए पहुँचना आसान नहीं होता। किसी छोटे कमरे में रिहर्सल करते रहने के कारण मंच पर ठीक किस प्रकार प्रवेश करना होगा, प्रस्थान करना होगा, व्यवहार करना होगा आदि बातें रिहर्सल में स्पष्ट नहीं हो पाती। बहुत-सी मंडलियाँ तो अंत तक कोई पक्की रिहर्सल रंगमंच पर कर ही नहीं पातीं और उनके पहले प्रदर्शन में इस भाँति स्टेज रिहर्सल की-सी अचकचाहट और कमजोरियाँ रहती हैं। इसलिए जबतक यह संभव न हो कि ये नाटक एक से अधिक बार प्रस्तुत किए जा सकें, तबतक उसकी पूरी संभावनाएँ प्रकट होना बहुत कठिन है। इसके लिए विशेष रूप से यह आवश्यक है कि इन नाटकघरों का दैनिक किराया बहुत ही कम हो ताकि उसे कई दिन के लिए किराए पर लेना इन मंडलियों के लिए असंभव न रहे। इस प्रकार जबतक राज्य की ओर से अथवा नगरपालिकाओं की ओर से नाटकघर नहीं बनते अथवा जबतक हमारे देश में नाटक के प्रचार में रुचि रखने वाली अथवा उसको अपना कर्तव्य मानने वाली संस्थाएँ सस्ते किराए पर मिलने वाले नाटकघर बनाने का प्रयत्न नहीं करती, तबतक अव्यवसायी मंडलियों की यह समस्या हल नहीं हो सकती। इन नाटकघरों के साथ अनिवार्य रूप से ऐसा स्थान भी यदि प्राप्त हो जहाँ नाटक-मंडलियाँ रिहर्सल कर सकें तो बहुत उत्तम होगा, एक प्रकार से अव्यवसायी रंगमंच के विकास की यह बड़ी अनिवार्य आवश्यकता है। अव्यवसायी नाटक-मंडलियों के कार्यकर्ता प्राय आजीविका के लिए कोई-न-कोई दूसरा कार्य करते हैं और वे केवल शाम को ही एकत्र होकर नाटक की रिहर्सल कर सकते हैं। इसलिए यह संभव नहीं कि किसी भी नाटकघर का नियमित भवन उन्हें रिहर्सल के लिए खाली मिल सके। इन परिस्थितियों में रिहर्सल के स्थान की अलग से व्यवस्था होना बहुत ही आवश्यक बात है। पर ऐसे स्थान हर एक नगर में निश्चय ही एक से अधिक होने चाहिए जो अलग-अलग दिनों में बहुत ही साधारण-से किराए पर नाटक-मंडलियों को प्राप्त हो सकें।
जैसा ऊपर कहा गया है, नाटकघर तथा रिहर्सल के स्थान के अभाव के अतिरिक्त जो दूसरी बड़ी भारी समस्या आज व्यवसायी और अव्यवसायी सभी प्रकार की नाटक-मंडलियों के सामने है—और यह बात प्रत्येक भाषा के लिए लगभग समान रूप से सही है—वह है अभिनयोपयोगी नाटकों के अभाव की। वास्तव में नाटक एक ऐसा साहित्य-रूप है जो मूलत रंगमंच पर आधारित है। विकसित रंगमंच के अभाव में श्रेष्ठ नाटक होना प्राय असंभव है। किंतु साथ ही श्रेष्ठ नाटकों के अभाव में रंगमंच का विकास कैसे हो सकता है? नाटक और रंगमंच का यह अन्योन्याश्रित संबंध बड़ा मौलिक है। किंतु हमारे देश के अधिकाश भागों में जहाँ नियमित रंगमंच की परंपरा हमारे दैनिक जीवन में से मिट गई थी, अथवा जहाँ केवल पिछले कुछ समय से ही प्रारंभ हो पायी है, वहाँ यह बहुत ही आवश्यक है कि नाटककार और नाटक-मंडलियों में अनिवार्य और अविच्छिन्न संबंध स्थापित हों। हमारे देश में इस समय साहित्यिक प्रतिभा के उन्मेष का दौर है। उसमें से कुछेक तरुण और उत्साही लेखक रंगमंच की ओर ही क्यों नहीं उन्मुख हो सकते? साथ ही जिस प्रकार किसी भी नाटक-मंडली को अपने विशेष कुशल अभिनेताओं की, दिग्दर्शक की, रूप-सज्जाकार की, पर्दा रंगने वाले चित्रकार की, आलोक-विशेषज्ञ की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उसी प्रकार अपने विशेष नाटककार की भी। प्रत्येक व्यवसायी नाटक-मंडली का भी अपना विशेष नाटककार सर्वदा ही होता है और न केवल रंगमंच के व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अपने नाटकों को अभिनय के उपयुक्त बनाता है, बल्कि जो उस विशेष नाटक-मंडली की विशेष क्षमताओं और अक्षमतामओं को ध्यान में रखकर ऐसे नाटक लिख पाता है जिनको प्रस्तुत करने में मंडली के सभी साधनों का पूरा-पूरा उपयोग हो सके और ऐसी अनावश्यक कठिनाइयाँ उत्पन्न न हों जिन्हें दूर करना मंडली की सामर्थ्य के बाहर हो। अव्यवसायी नाटक-मंडलियों को भी इसी भाँति अपने विशेष नाटककार तैयार करने होंगे। जबतक उनकी विशेष आवश्यकताओं और क्षमताओं को ध्यान में रखकर नाटक लिखने वाली प्रतिभा का सहयोग उन्हें नहीं मिलता, तबतक नाटकों के अभाव की समस्या किसी न किसी रूप में उनके सामने बनी ही रहेगी।
इस कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि जो नाटक इस समय लिखे हुए मौजूद हैं अथवा लिखे जा रहे हैं, वे नाटक-मंडलियों के किसी काम के ही कही। उनमें भी निस्संदेह कुछ तो ऐसे हैं ही जिनको ज्यो का त्यो अथवा किसी-न-किमी रूप में रंगमंचच के उपयुक्त बनाकर प्रस्तुत किया जा सकता है। एक प्रकार से वर्तमान नाटकों का इस प्रकार का रूपांतर नाटककारों और नाटक-मंडलियों दोनों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। नाटक-मंडलियों के लिए इस कारण कि उन्हें कम से फम एक सामान्य ढाँचा तो इन नाटकों में प्राप्त होता ही है जिसको अपनी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित करके अभिनयोपयोगी बनाने में उन्हें अपेक्षाकृत कम कठिनाई होगी और मंडली के किसी एक विशेष सदस्य को नाटक लिखना सीखने के लिए अवसर मिलेगा। दूगरी ओर नाटककारों को भी यह समझने का अवसर मिलेगा कि उनके लिखे हुए नाटक साहित्यिक दृष्टि से सफल अथवा सर्वथा पठनीय होने पर भी उन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत करने में कैसी कठिनाइयाँ नाटक-मंडलियों के सामने आती हैं और उन्हें किन उपायों से वे दूर करती हैं। इस प्रकार अपने अगले नाटकों में ये नाटका-मंडलियों की कठिनाई का अधिक ध्यान रख सकेंगे।
स्पष्ट ही इसमें नाटककारों का सहयोग आवश्यक है। उनकी अनुमति के बिना उनके लिखे नाटकों में इस प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं होगा और इसमें यह आशंका तो है ही कि कई बार इस प्रकार किया गया परिवर्तन सर्वथा उपयुक्त भी न सिद्ध हो और नाटक असफर ही रहे। किंतु दूसरी ओर इस प्रकार की अनुमति दिए बिना यह संभावना सदा बनी रहेगी कि ये नाटक-मंडलियाँ कभी भी मौजूदा लिखे हुए नाटकों को नहीं छुएँगी। यह बात ध्यान देने की है कि बहुत बार नाटककार में ऐसी अनुमति प्राप्त न हो सकने के कारण बहुत सी नाटक-मंडलियाँ मौजूदा नाटकों को हाथ में नहीं लेती, प्राय: नाटककार नाटक-मंडलियों के सुझावों अथवा समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक सुनने और उनपर विचार करके उनके अनुकूल आवश्यक परिवर्तन करने के लिए प्रस्तुत नहीं होते। क्योंकि साधारणतः नाटक, हिंदी में ही नहीं लगभग सभी भाषाओं में जहाँ रंगमंच की परंपरा बहुत विकसित नहीं है, केवल प्रकाशित करने के लिए लिखे जाते हैं, और पिछले दिनों तो केवल रेडियो पर प्रसारित किए जाने के लिए ही लिखे जाने लगे हैं, जिनके फलस्वरूप उसकी रंगमंचीय उपयोगिता और भी कम हो गई है। बहुधा हमारे साहित्यिक नाटकों में लंबे-लंबे संवाद होते हैं जिनमें न केवल नाटकीय गति और घटना का अभाव होता है, बल्कि उनकी भाषा इतनी अस्वाभाविक होती है कि उसे अभिनेता सहज ही बोल नहीं पाते। ऐसे अधिकांश नाटक एक प्रकार से संवाद-रूप में लिखे हुए उपन्यास मात्र ही होते हैं। अभिनय के उपयुक्त नाटक में भाषा के स्वाभाविक और सरल तथा संवादों के संक्षिप्त तथा नाटकीय होने के साथ-साथ घटना और चरित्रों के विकास में एक निश्चित गति होनी बहुत आवश्यक है जिससे रंगमंच के ऊपर अभिनेता एक ही मुद्रा को, एक ही भाव-दशा को और एक ही शारीरिक क्रिया को दुहराते हुए न जान पड़ें। रंगमंच के ऊपर विभिन्न पात्रों की स्थिति को मूर्त रूप में अपने सामने रखे बिना और उनके क्रमशः विकास पर समुचित ध्यान दिए बिना रंगमंच के उपयुक्त नाटक लिखना बड़ा कठिन है। इसमें कोई भी संदेह नहीं कि बड़े से बड़ा प्रतिभावान साहित्यकार भी नाटक की इस विशेषता को रंगमंच के साथ सक्रिय रूप से संबद्ध हुए बिना नहीं समझ सकता और यशस्वी नाटककारों को इसमें अपना असम्मान नहीं समझना चाहिए कि अपेक्षाकृत तरुण और अन्य कई दृष्टियों से क्षमतावान कलाकारों से उनको इस दिशा में सीखना है।
नाटककार और नाटक-मंडलियों में संपर्क के अभाव का एक पक्ष निस्संदेह यह भी है कि अधिकांश नाटक-मंडलियाँ अपनी ओर से भी किसी नाटककार को अपने साथ संबद्ध करने का, उसकी बात सुनने और उसकी समस्याओं को समझने का और अपने ठोस व्यावहारिक सुझावों द्वारा उसको समझाने का प्रयत्न नहीं करती। ऐसा प्रयत्न निश्चय ही इन मंडलियों के हित में ही है क्योंकि नाटककार ही वह मूल साधन प्रस्तुत करता है जिसके बिना कोई नाटक-मंडली जीवित नहीं रह सकती। नाटककार और नाटक-मंडलियों के बीच, विशेषकर प्रत्येक नगर में बिखरी हुई अनगिनती अव्यवसायी नाटक-मंडलियों के बीच, यह संपर्क हमारे आज के नव-नाट्य आंदोलन की सर्वप्रमुख आवश्यकता है जिसके बिना नाटकों के अभाव की समस्या मौलिक रूप में कभी नहीं हल हो सकेगी।
या इस समस्या के और भी कई समाधान है जो तात्कालिक हैं और जिनसे उसके मौलिक समाधान में भी बहुत कुछ सहायता मिलेगी। देश की विभिन्न भाषामो से तथा विदेशी भाषामो से ऐसे नाटकों के अनुवाद तथा भारतीय रूपांतर किए जाने चाहिए जो रंगमंच पर सफल हो चुके हैं। यह भी संभव है कि अलग-अलग स्थानो पर देश-विदेश की प्रसिद्ध व्यवसायी-मंडलियों ने उन्हें जिस प्रकार से रंगमंच पर प्रस्तुत किया है, उसकी जानकारी भी प्राप्त हो सके। कम से कम अनुवाद और रूपांतर का यह कार्य ऐसा है जिसे बहुत-सी नाटक-मंडलियाँ स्वय कर सकती हैं। साथ ही विभिन्न भाषाओं में प्रयवा एक ही भाषा-भाषी क्षेत्र की विभिन्न मंडलियों के पास ऐसे नाटक वर्ष में एक-दो अवश्य तैयार होते रहते हैं जो श्रेष्ठ साहित्य न होते हुए भी अभिनय को उपयुक्त हो। ननके परस्पर प्रादान-प्रदान होने का कोई माध्यम तुरंत निकाला जाना चाहिए। ऐसे नाटकों के प्रकापान को भी कोई विशेष यवस्था निगी योन्द्रीय नाटक सस्था को करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक भाषा का नाटक-साहित्य न केवल बहुत समृद्ध होगा, बल्कि इस प्रकार रूपांतर और अनुवाद में नए मोलिया नाटकों की रचना के लिए भी प्रेरणा मिलेगी और धीरे-धीरे यह संभव हो सगेगा कि हमारे नाटकों के प्रभाव को यह समस्या दूर हो सके।
अव्यवसायी नाटक-मंडलियों की एक-दो समस्याएँ और भी हैं जिनके कारण उन्हें बहुत बार बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है! उनमें सब से प्रमुख है मनोरंजन-कर। देश के बहुत-से राज्यो में इस विषय के कानून बहुत ही कडे हैं और नाटक-मंडलियों को प्राय किसी मस्या के लिए दान का सहारा लेकर अपना प्रदर्शन करना पड़ता है अन्यथा उनकी प्राय का बड़ा भारी भाग मनोरंजन-कर के रूप में पला जाता है। इन मंडलियों का प्रदर्शन संबंधी साधारण व्यय अपेक्षाकृत इतना अधिक होता है कि मनोरंजन-बार दे चुकाने के वाद प्रदर्शन का पूरा व्यय जुटा मकना उनके लिए संभव नहीं हो पाता। हमारे देश में रंगमंच के विकास की एक बड़ी भारी आवश्यकता है कि विशेष रूप में अव्यवसायी रंगमंच को मनोरंजन कर से छुट्टी मिले। यह सुविधा इमलिए भी आवश्यक है कि छोटी नाटक मंडलियों को अन्य अनगिनती कठिनाइयों को मानकर नाटक प्रस्तुत करने पड़ते हैं और उनमें यह क्षमता नहीं होती कि इस आर्थिक सकट को भी सहन कर सकें।
माथ ही यह बात भी ध्यान देने की है कि इस प्रकार मनोरंजन कर से प्राप्त धन को हमारे राज्यो की सरकारे नाटक विकास के लिए ही नहीं लगाती। अव्यव-सायी नाटन मण्डलियाँ एक नाटक की तैयारी में साधारणत: नाटकघर के किराये पर, विज्ञापन पर, पालोक-मम्बन्धी व्यवस्या पर, संगीत पर, वरतो तथा उप-सज्जा पर पोर 'सेट्स' पर धन व्यय करती है। बहुत-सी व्यवस्थित नाटक मंडलियाँ नाटक स्तर को भी योग-बहुत धन रायल्टी के रूप में भेद करती हैं और ये मालियों इम प्र में ही प्रव्यवसायों है कि एक नाटक के टिकट बेचकर प्राप्त होने वाले धन में ने प्राय अभिनेताओं को कोई हिस्सा नहीं मिलता अथवा वह इतना नगण्य होता है कि उसे उनकी प्राजीविका का साधन किसी भी प्रकार से नहीं माना जा सकता। जो हो, ये मण्डनियां जिन विविध व्यक्तियों को धन देती है, ननसे किसी न किनी म्प में बदले में उन्हें सहयोग प्राप्त होता है जिसके द्वारा नाटक प्रस्तुत करने में उन्हें मायका मिलती है। एक प्रकार से उस सहयोग के बिना नाटक प्रस्तुत करना उनके लिए नमन ही नहीं होगा किंतु मनोरंजन कर के रूप में जो धन सरकार के पान जाना है उसके बदाने में इन नाटक-मंडलियों को कोई भी सुविधा सरकार में प्राप्त नहीं होती और मनोरंजन कर के रूप में जाने वाला यह धन पूरी आय का लगभग एक-तिहाई से भी अधिक हो जाता है। यह बात युक्तिसंगत जान पड़ती है कि सरकार इन नाटक-मंडलियों से, जिनके सदस्य मूलतः कला के प्रेम से आकर्षित होकर अपनी सुविधा और समय को अर्पित करके हमारे देश की नष्टप्राय नाट्य-परंपरा को बनाये रखने और उसको अधिकाधिक विकसित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, कोई मनोरंजन-कर नहीं ले और यदि ले भी तो अनिवार्य रूप से उसको राज्य में नाटक के विकास में सहायता पहुँचाने के कार्य में फिर से अवश्य लगाए। यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर बहुत ही गंभीरता पूर्वक विचार होना आवश्यक है।
इस विवेचन में मूलत अव्यावसायिक नाटक-मंडलियों की बाह्य समस्याओं पर ही अभी तक विचार किया गया है। किंतु इन मंडलियों की ऐसी आंतरिक समस्याएँ भी हैं जो उनके कार्य को समुचित रूप से विकसित नहीं होने देती अथवा उसे पर्याप्त रूप में उपयोगी नहीं बनने देती। जैसा पहले कहा भी गया है कि पव्यवसायी नाटक-मंडलियों की इस सज्ञा में वे प्राय सभी सगठन शामिल हैं, जो किसी न किसी उद्देश्य से नाटक खेलते हैं और टिकट लगाकर अथवा आमंत्रित करके लोगों को दिखाते हैं। मूलत जिस मापदंड से हम इन मंडलियों का अव्यवसायी मंडलियों के रूप में उल्लेख करते हैं वह यही कि इन मंडलियों के सदस्य अपनी जीविका के लिए नाटक प्रस्तुत नहीं करते, साधारणतः अपने अवकाश के समय के उपयोग द्वारा ही ऐसे नाटक प्रस्तुत किए जाते हैं। यह विशेषता सामान्य रूप से इस कोटि की सभी मंडलियों में पाई जाती है। किंतु जब हम अव्यवसायी रंगमंच को समस्याओं पर विचार करते हैं तो मूलत हम उन नाटक-मंडलियों की बात ही सोवते हैं जो नाटक को अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का एक साधन मानती है, जो उसके द्वारा कलात्मक मूल्यों की सृष्टि करना और हमारे सास्कृतिक जीवन को समुन्द्र करने का उद्देश्य अपने सामने रखती हैं। उनमें से कई-एक तो अपने इस उद्देश्य के प्रति इतनी सजग और इतनी निष्ठावान होती हैं कि अनगिनत असुविधाओं और कठिनाइयों का सामना होने पर भी अपने इस कार्य को छोडती नहीं, उनके सदस्य आजीविका के लिए चाहे और कुछ कर सकें मथवा न कर सकें, नाटक के लिए अपनी समस्त सुविधाएँ त्यागने को प्रस्तुत रहते हैं। वे अपनी अन्य आवश्यकताओं को भूलकर एक प्रकार से ऐसे पागलपन के साथ नाटक के काम में जुटे रहते है जो केवल सच्चे कलाकार के लिए ही सुलम है। इनमें ऐसी भी कई एक मंडलियाँ हैं जो, यदि संभव हो सके तो, रंगमंच को अपना व्यवसाय भी-अर्थात् आजीविका का साधन भी बनाने को तैयार है किंतु सुविधाओं के ममाव में जिनके लिए ऐसा करना संभव नहीं हो पाता।
नाटक एक सामूहिक कला है। उसमें बहुत से व्यक्तियों के परस्पर नयोग की अनिवार्य आवश्यकता होती है साथ ही अन्य सभी कला-रूपो की अपेक्षा नाटक में व्यक्तिगत प्रतिभा के विस्फोट की आवश्यकता उतनी अधिक नहीं है जितनी अनुभव जय स्थिरता की। अभिनेता, निर्देशक तथा अन्य सहायक गिल्पी सभी पिछले अनुभव में सीख कर उन्नति करते हैं। एक ही नाटक का दूसरा प्रदर्शन पहले से अधिक व्यवस्थित और प्रभावपूर्ण होता है। नाटक में अभिनेता को एक ही कार्य चार-बार करना पड़ता है. इसलिए एक ही नाटक के कई प्रदर्शनी में बार-बार यह
स्वय ही एक नवीन भावावेग की अभिव्यक्ति का रस न प्राप्त कर सके, तो दर्शको को भी वह उसका भास्वादन नहीं करा सकेगा। शौकिया अथवा अन्यवसायी नाटक को एक या दो बार से अधिक नहीं खेलते, मुछ साधनों के प्रभाववा और कुछ इस कारण कि एक ही नाटक बार-बार दोहराने की अपेक्षा नया खेलने की प्रवृत्ति पार्षक लगती है। उनकी कला का स्तर ऊँचा न उठ मकाने का यह बड़ा भारी कारण है। व्यवमायी मंडलियों, अथवा ऐमी अव्यवसायी नाटक मण्डलियां जो अपनी कार्य-पद्धति में व्यवसायी नाटक-मंडलियों के समान ही है, इसीलिए अपने कार्य को अधिक ऊँने स्तर का बना सकती है। किंतु इसके विपरीत बहुत-मी शौकिया नाटस-मंडलियों में अपने कार्य के प्रति बहुत बार ऐमा गहरा अनुराग होता है कि उनके प्रदर्शन में व्यवमापी बुद्धि को यांत्रिकता नहीं होती, उममें मदा सच्ची आत्मा-भिव्यक्ति की संभावना रहती है। इसी से अव्यवमायो रंमंच की निष्ठा, उत्साह धौर सच्चाई का व्यवसायी रंगमंच को निपुणता के साथ योग होना बहुन ही आवश्यक है। क्योंकि हमारे देश में नाटक और रगमत्र का वास्तविक भविष्य इन प्रयवगायो माडलियो की उन्नति से जुड़ा हुआ है, चाहे वे मंडलियाँ वर्ष में एक-दो नाटया प्रस्तुत करने वाली हो अथवा ऐनी जो वर्ष भर में एक ही श्रेष्ठ नाटक के बोम, पनीम, पचाम प्रदर्शन करनी हो। सिनेमा की प्रतियोगिता में जहाँ पश्चिमी देगो तक में, रगमत्र को सुदीर्घ परंपरा के बाद भी व्यवसायी नाटक-कंपनी टिक नहीं पाती, वहाँ हमारे देश में उमका गीघ्र ही पैर जमा लेना बहुत ही कठिन काम जान पटना है। और जैसा कि पहले कहा गया, परमाय की दृष्टि में नाटक कंपनी चलाना माज के युग में कोई बहुन आकर्षक कारोवार नहीं है। इसलिए जिम हद सध्यावयायिक नाटक मंडली नमाग प्रतिमा को इकट्ठा करके उनकी नृजन-शक्ति का अधिकाधिक उायोग कर सकेगी, उसी हद तक हमारे देश में रंगमंच की परंपरा का फिर में निर्माण हो सरेगा और धीरे-धीरे वह परंपरा दृढ़ हो सकेगी। तभी जन साधारण में नाटक के प्रति इतना अनुराग भी बढ सकेगा और नाटक हमारे नासति जीवन का इतना प्रविच्छिन्न अंग बन सकेगा कि उसको कोई स्थायी और नियमित रूप प्राप्त हो सके। प्राज तो अव्यवसायी नाटक-मण्डलियां न केवल हमारी कला के श्रेष्ठतम रंग-शिल्पियों को गढ रही हैं, बल्कि वे साथ ही उस ध्यापक प्रेक्षक-वर्ग का भी निर्माण कर रही है जिसके बिना कोई रंगमंच न तो टिक ही सकता है, न महत्वपूर्ण सास्कृतिक मूल्यों का निर्माण ही कर सकता है।
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is kathan ka ye abhipray nahin hai ki jo natk is samay likhe hue maujud hain athwa likhe ja rahe hain, we natk manDaliyon ke kisi kaam ke hi kahi unmen bhi nissandeh kuch to aise hain hi jinko jyo ka tyo athwa kisi na kimi roop mein rangmanchach ke upyukt banakar prastut kiya ja sakta hai ek prakar se wartaman natkon ka is prakar ka rupantar natakkaron aur natk manDaliyon donon ke liye bahut upyogi siddh ho sakta hai natk manDaliyon ke liye is karan ki unhen kam se pham ek samany Dhancha to in natkon mein prapt hota hi hai jisko apni awashyakta ke anusar pariwartit karke abhinyopyogi banane mein unhen apekshakrit kam kathinai hogi aur manDali ke kisi ek wishesh sadasy ko natk likhna sikhne ke liye awsar milega dugri or natakkaron ko bhi ye samajhne ka awsar milega ki unke likhe hue natk sahityik drishti se saphal athwa sarwatha pathniy hone par bhi unhen rangmanch par prastut karne mein kaisi kathinaiyan natk manDaliyon ke samne aati hain aur unhen kin upayon se we door karti hain is prakar apne agle natkon mein ye nataka manDaliyon ki kathinai ka adhik dhyan rakh sakenge
aspasht hi ismen natakkaron ka sahyog awashyak hai unki anumti ke bina unke likhe natkon mein is prakar ka pariwartan sambhaw nahin hoga aur ismen ye ashanka to hai hi ki kai bar is prakar kiya gaya pariwartan sarwatha upyukt bhi na siddh ho aur natk asphar hi rahe kintu dusri or is prakar ki anumti diye bina ye sambhawana sada bani rahegi ki ye natk manDaliyan kabhi bhi maujuda likhe hue natkon ko nahin chhuengi ye baat dhyan dene ki hai ki bahut bar natakkar mein aisi anumti prapt na ho sakne ke karan bahut si natk manDaliyan maujuda natkon ko hath mein nahin leti, prayah natakkar natk manDaliyon ke sujhawon athwa samasyaon ko sahanubhutipurwak sunne aur unpar wichar karke unke anukul awashyak pariwartan karne ke liye prastut nahin hote kyonki sadharanata natk, hindi mein hi nahin lagbhag sabhi bhashaon mein jahan rangmanch ki paranpra bahut wiksit nahin hai, kewal prakashit karne ke liye likhe jate hain, aur pichhle dinon to kewal radio par prasarit kiye jane ke liye hi likhe jane lage hain, jinke phalaswarup uski rangmanchiy upyogita aur bhi kam ho gai hai bahudha hamare sahityik natkon mein lambe lambe sanwad hote hain jinmen na kewal natkiya gati aur ghatna ka abhaw hota hai, balki unki bhasha itni aswabhawik hoti hai ki use abhineta sahj hi bol nahin pate aise adhikansh natk ek prakar se sanwad roop mein likhe hue upanyas matr hi hote hain abhinay ke upyukt natk mein bhasha ke swabhawik aur saral tatha sanwadon ke sankshaipt tatha natkiya hone ke sath sath ghatna aur charitron ke wikas mein ek nishchit gati honi bahut awashyak hai jisse rangmanch ke upar abhineta ek hi mudra ko, ek hi bhaw dasha ko aur ek hi sharirik kriya ko duhrate hue na jaan paDen rangmanch ke upar wibhinn patron ki sthiti ko moort roop mein apne samne rakhe bina aur unke kramash wikas par samuchit dhyan diye bina rangmanch ke upyukt natk likhna baDa kathin hai ismen koi bhi sandeh nahin ki baDe se baDa pratibhawan sahityakar bhi natk ki is wisheshata ko rangmanch ke sath sakriy roop se sambaddh hue bina nahin samajh sakta aur yashaswi natakkaron ko ismen apna asamman nahin samajhna chahiye ki apekshakrit tarun aur any kai drishtiyon se kshamatawan kalakaron se unko is disha mein sikhna hai
natakkar aur natk manDaliyon mein sanpark ke abhaw ka ek paksh nissandeh ye bhi hai ki adhikansh natk manDaliyan apni or se bhi kisi natakkar ko apne sath sambaddh karne ka, uski baat sunne aur uski samasyaon ko samajhne ka aur apne thos wyawaharik sujhawon dwara usko samjhane ka prayatn nahin karti aisa prayatn nishchay hi in manDaliyon ke hit mein hi hai kyonki natakkar hi wo mool sadhan prastut karta hai jiske bina koi natk manDli jiwit nahin rah sakti natakkar aur natk manDaliyon ke beech, wisheshkar pratyek nagar mein bikhri hui anaginti awyawsayi natk manDaliyon ke beech, ye sanpark hamare aaj ke naw naty andolan ki sarwapramukh awashyakta hai jiske bina natkon ke abhaw ki samasya maulik roop mein kabhi nahin hal ho sakegi
ya is samasya ke aur bhi kai samadhan hai jo tatkalik hain aur jinse uske maulik samadhan mein bhi bahut kuch sahayata milegi desh ki wibhinn bhashamo se tatha wideshi bhashamo se aise natkon ke anuwad tatha bharatiy rupantar kiye jane chahiye jo rangmanch par saphal ho chuke hain ye bhi sambhaw hai ki alag alag sthano par desh widesh ki prasiddh wyawsayi manDaliyon ne unhen jis prakar se rangmanch par prastut kiya hai, uski jankari bhi prapt ho sake kam se kam anuwad aur rupantar ka ye kary aisa hai jise bahut si natk manDaliyan sway kar sakti hain sath hi wibhinn bhashaon mein praywa ek hi bhasha bhashai kshaetr ki wibhinn manDaliyon ke pas aise natk warsh mein ek do awashy taiyar hote rahte hain jo shreshth sahity na hote hue bhi abhinay ko upyukt ho nanke paraspar pradan pradan hone ka koi madhyam turant nikala jana chahiye aise natkon ke prkapan ko bhi koi wishesh yawastha nigi yondriy natk sastha ko karni chahiye is prakar pratyek bhasha ka natk sahity na kewal bahut samrddh hoga, balki is prakar rupantar aur anuwad mein nae moliya natkon ki rachna ke liye bhi prerna milegi aur dhire dhire ye sambhaw ho sagega ki hamare natkon ke prabhaw ko ye samasya door ho sake
awyawsayi natk manDaliyon ki ek do samasyayen aur bhi hain jinke karan unhen bahut bar baDi kathinaiyon ka samna karna paDta hai! unmen sab se pramukh hai manoranjan kar desh ke bahut se rajyo mein is wishay ke kanun bahut hi kaDe hain aur natk manDaliyon ko pray kisi masya ke liye dan ka sahara lekar apna pradarshan karna paDta hai anyatha unki pray ka baDa bhari bhag manoranjan kar ke roop mein pala jata hai in manDaliyon ka pradarshan sambandhi sadharan wyay apekshakrit itna adhik hota hai ki manoranjan bar de chukane ke wad pradarshan ka pura wyay juta makna unke liye sambhaw nahin ho pata hamare desh mein rangmanch ke wikas ki ek baDi bhari awashyakta hai ki wishesh roop mein awyawsayi rangmanch ko manoranjan kar se chhutti mile ye suwidha imaliye bhi awashyak hai ki chhoti natk manDaliyon ko any anaginti kathinaiyon ko mankar natk prastut karne paDte hain aur unmen ye kshamata nahin hoti ki is arthik sakat ko bhi sahn kar saken
math hi ye baat bhi dhyan dene ki hai ki is prakar manoranjan kar se prapt dhan ko hamare rajyo ki sarkare natk wikas ke liye hi nahin lagati awyaw sayi natan manDaliyan ek natk ki taiyari mein sadharantah natakghar ke kiraye par, wij~napan par, palok mambandhi wywasya par, sangit par, warto tatha up sajja par por sets par dhan wyay karti hai bahut si wyawasthit natk manDaliyan natk star ko bhi yog bahut dhan rayalti ke roop mein bhed karti hain aur ye maliyon im pr mein hi prawyawsayon hai ki ek natk ke ticket bechkar prapt hone wale dhan mein ne pray abhinetaon ko koi hissa nahin milta athwa wo itna nagny hota hai ki use unki prajiwika ka sadhan kisi bhi prakar se nahin mana ja sakta jo ho, ye manDaniyan jin wiwidh wyaktiyon ko dhan deti hai, nanse kisi na kini mp mein badle mein unhen sahyog prapt hota hai jiske dwara natk prastut karne mein unhen mayaka milti hai ek prakar se us sahyog ke bina natk prastut karna unke liye naman hi nahin hoga kintu manoranjan kar ke roop mein jo dhan sarkar ke pan jana hai uske badane mein in natk manDaliyon ko koi bhi suwidha sarkar mein prapt nahin hoti aur manoranjan kar ke roop mein jane wala ye dhan puri aay ka lagbhag ek tihai se bhi adhik ho jata hai ye baat yuktisangat jaan paDti hai ki sarkar in natk manDaliyon se, jinke sadasy mulat kala ke prem se akarshait hokar apni suwidha aur samay ko arpit karke hamare desh ki nashtapray naty parampara ko banaye rakhne aur usko adhikadhik wiksit karne ka prayatn kar rahe hain, koi manoranjan kar nahin le aur yadi le bhi to aniwary roop se usko rajy mein natk ke wikas mein sahayata pahunchane ke kary mein phir se awashy lagaye ye ek aisa parashn hai jis par bahut hi gambhirta purwak wichar hona awashyak hai
is wiwechan mein mulat awyawsayik natk manDaliyon ki bahy samasyaon par hi abhi tak wichar kiya gaya hai kintu in manDaliyon ki aisi antrik samasyayen bhi hain jo unke kary ko samuchit roop se wiksit nahin hone deti athwa use paryapt roop mein upyogi nahin banne deti jaisa pahle kaha bhi gaya hai ki pawyawsayi natk manDaliyon ki is sagya mein we pray sabhi sagthan shamil hain, jo kisi na kisi uddeshy se natk khelte hain aur ticket lagakar athwa amantrit karke logon ko dikhate hain mulat jis mapadanD se hum in manDaliyon ka awyawsayi manDaliyon ke roop mein ullekh karte hain wo yahi ki in manDaliyon ke sadasy apni jiwika ke liye natk prastut nahin karte, sadharanata apne awkash ke samay ke upyog dwara hi aise natk prastut kiye jate hain ye wisheshata samany roop se is koti ki sabhi manDaliyon mein pai jati hai kintu jab hum awyawsayi rangmanch ko samasyaon par wichar karte hain to mulat hum un natk manDaliyon ki baat hi sowte hain jo natk ko apni kalatmak abhiwyakti ka ek sadhan manti hai, jo uske dwara kalatmak mulyon ki sirishti karna aur hamare saskritik jiwan ko samundr karne ka uddeshy apne samne rakhti hain unmen se kai ek to apne is uddeshy ke prati itni sajag aur itni nishthawan hoti hain ki anaginat asuwidhaon aur kathinaiyon ka samna hone par bhi apne is kary ko chhoDti nahin, unke sadasy ajiwika ke liye chahe aur kuch kar saken mathwa na kar saken, natk ke liye apni samast suwidhayen tyagne ko prastut rahte hain we apni any awashyaktaon ko bhulkar ek prakar se aise pagalpan ke sath natk ke kaam mein jute rahte hai jo kewal sachche kalakar ke liye hi sulam hai inmen aisi bhi kai ek manDaliyan hain jo, yadi sambhaw ho sake to, rangmanch ko apna wyawsay bhi arthat ajiwika ka sadhan bhi banane ko taiyar hai kintu suwidhaon ke mamaw mein jinke liye aisa karna sambhaw nahin ho pata
natk ek samuhik kala hai usmen bahut se wyaktiyon ke paraspar nayog ki aniwary awashyakta hoti hai sath hi any sabhi kala rupo ki apeksha natk mein wyaktigat pratibha ke wisphot ki awashyakta utni adhik nahin hai jitni anubhaw jay sthirta ki abhineta, nirdeshak tatha any sahayak gilpi sabhi pichhle anubhaw mein seekh kar unnati karte hain ek hi natk ka dusra pradarshan pahle se adhik wyawasthit aur prabhawapurn hota hai natk mein abhineta ko ek hi kary chaar bar karna paDta hai isliye ek hi natk ke kai pradarshani mein bar bar ye
sway hi ek nawin bhawaweg ki abhiwyakti ka ras na prapt kar sake, to darshko ko bhi wo uska bhaswadan nahin kara sakega shaukiya athwa anyawsayi natk ko ek ya do bar se adhik nahin khelte, muchh sadhnon ke prbhawwa aur kuch is karan ki ek hi natk bar bar dohrane ki apeksha naya khelne ki prawrtti parshak lagti hai unki kala ka star uncha na uth makane ka ye baDa bhari karan hai wyawmayi manDaliyon, athwa aimi awyawsayi natk manDaliyan jo apni kary paddhati mein wyawsayi natk manDaliyon ke saman hi hai, isiliye apne kary ko adhik unne star ka bana sakti hai kintu iske wiprit bahut mi shaukiya natas manDaliyon mein apne kary ke prati bahut bar aima gahra anurag hota hai ki unke pradarshan mein wyawmapi buddhi ko yantrikta nahin hoti, ummen mada sachchi aatma bhiwyakti ki sambhawana rahti hai isi se awyawmayo ranmanch ki nishtha, utsah dhaur sachchai ka wyawsayi rangmanch ko nipunata ke sath yog hona bahun hi awashyak hai kyonki hamare desh mein natk aur ragmatr ka wastawik bhawishya in prayawgayo maDaliyo ki unnati se juDa hua hai, chahe we manDaliyan warsh mein ek do natya prastut karne wali ho athwa aini jo warsh bhar mein ek hi shreshth natk ke bom, panim, pacham pradarshan karni ho cinema ki pratiyogita mein jahan pashchimi dego tak mein, ragmatr ko sudirgh paranpra ke baad bhi wyawsayi natk kampni tik nahin pati, wahan hamare desh mein umka geeghr hi pair jama lena bahut hi kathin kaam jaan patna hai aur jaisa ki pahle kaha gaya, parmay ki drishti mein natk company chalana maj ke yug mein koi bahun akarshak karowar nahin hai isliye jym had sadhyawyayik natk manDali namag pratima ko ikattha karke unki nrijan shakti ka adhikadhik uayog kar sakegi, usi had tak hamare desh mein rangmanch ki paranpra ka phir mein nirman ho sarega aur dhire dhire wo paranpra driDh ho sakegi tabhi jan sadharan mein natk ke prati itna anurag bhi baDh sakega aur natk hamare nasati jiwan ka itna prwichchhinn ang ban sakega ki usko koi sthayi aur niymit roop prapt ho sake praj to awyawsayi natk manDaliyan na kewal hamari kala ke shreshthatam rang shilpiyon ko gaDh rahi hain, balki we sath hi us dhyapak prekshak warg ka bhi nirman kar rahi hai jiske bina koi rangmanch na to tik hi sakta hai, na mahatwapurn saskritik mulyon ka nirman hi kar sakta hai
is baat mein to ab koi sandeh nahin ho sakta ki sanskriti ke any kshetron ki bhanti rangmanch mein bhi hamare desh mein naw jagaran ka ek yug wartaman hai ajkal pratyek nagar mein, yahan tak ki dehaton mein bhi, aaye dinon khele jane wale natkon ki sankhya par yadi dhyan den to pichhle pratyek yug ki tulna mein aaj ke yug ki ye wishishtata aspasht ho jayegi is samay shayad hi koi aisa school athwa any shikshalay hoga jismen warsh bhar mein ek do natk na khele jate hon kaulejon aur wishwwidyalyon ke lagbhag sabhi chhatrawas, bahut se wibhag aadi apne apne alag alag natk prastut karte hain, wibhinn sarkari, gair sarkari wibhagon ke club, mazdur sangathan, bahun pi sainik tukDiyan tatha any sanskritik sangathan warsh bhar mein ek do bar natk ka ayojan awashy karte hain, chahe phir un natkon ko prastut karne ki prerna in sangathnon ke warshaik adhiweshnon se milti ho athwa apne sadasyon tatha sahaykon ka manoranjan karne ki bhawna se aur ant mein anaginti chhote baDe aise sangathan aur dal to hain hi jo natk karne, rangmanch ke wikas mein sahayata dene aur apne pariparshwik jiwan ki maulik sanskritik awashyaktaon ko pura karne ke uddeshy se har pardesh mein, har nagar mein wartaman hain aur nit nae bante jate hain
is koti mein kisi shahr ke sadharan sadhan tatha pratibha wale utsahi widyarthiyon ke natk club se lekar kalkatte ke bahurupi jaise asadharan kshamata sampann aur natk ko apni atmabhiwyakti ka sarwapramukh sadhan manne wale kalakaron ke dal tak sabhi aa jate hain inmen se pahli shrenai ke sangathan kisi wishesh ayojan ke awsar par natk taiyar karte aur khelte hain tatha rangmanch ke prati unka utsah apekshakrit kshanaik aur pray aatm pradarshan ki bhawna se prerit hota hai jo us ayojan ke sath hi samapt ho jata inmen bhag lene wale bahut se abhineta to shayad dusri bar fir kabhi kisi natk mein bhag hi nahin lete aur pray aise natk ek se adhik bar prastut nahin kiye jate dusri shrenai ke sangathan aise hain jinke sadasyon ko ek prakar se natk ka khabt hota hai aur we apne adhikansh khali samay mein kewal natk ki hi baat sochte hain aur natk ke dwara hi apne bhitar ki kalatmak srijan prerna ko prakat karna chahte hain aise sangathan pratyek natk ki taiyari par paryapt samay, shakti aur dhan bhi wyay karte hain aur us natk ko adhik se adhik rasaj~n prekshkon tak pahunchane ke liye utsuk hote hain tatha uska prayatn bhi karte hain ye sahi hai ki natk ki is prakar srijanatmak abhiwyakti ka sadhan manne wale sangathan bahut nahin hain, na sadharanata ho hi sakte hain kintu hamare aaj ke sanskritik unmesh mein unka astitw hai aur wo hamare wikas ke ek mahatwapurn star ko prakat karta hai
sath hi ye baat bhi dhyan dene ki hai ki pichhle dinon mein na kewal in natk khelne wale sangathnon ki sankhya mein wriddhi hui hai, balki utni hi, shayad usse bhi kahin adhik matra mein, unke krititw ko dekhne, sarahne aur usse annand prapt karne wale darshkon ki sankhya bhi baDhi hai ye chhote baDe natk chahe kisi rajamarg ke chaurahe par rasta rokkar banaye hue chaukiyon ke manch par khele jayen, chahe kaulejon aur schoolon ke sabha bhawnon mein aur chahe new empire jaise adhunik sadhnon se yukt manch aur prekshagrih mein, unko dekhne ke ichchhuk ramagyon ki ab kami nahin hoti balki durgapuja ke samay bangal aur ganeshotsaw ke samay maharashtr ke nagar aur dehat ke har muhalle mein, lagbhag har baDi saDak par natk kiye jate hain aur unmen til dharne ko jagah nahin milti is bhanti ye nissandeh kaha ja sakta hai ki aaj hamare desh ke lagbhag sabhi bhagon mein jahan ek or shaukiya abhineta aur nirdeshkon ke nae nae dal taiyar ho rahe hain, wahin dusri or unke kary ko samajhne aur sarahne wale darshak—rangmanch ke prekshak—bhi adhikadhik sankhya mein prakat ho rahe hai
rangmanch ke kshaetr mein jahan ye nawonmesh ek asandigdh saty hai, wahin dusri or ye baat bhi utni hi niwirwad hai ki kuchhek baDe baDe nagron ko chhoDkar niymit rangmanch hamare desh mein nahin ke barabar hai aur niymit roop se chalne wale natakghar hamare desh mein lagbhag hain hi nahin jahan ye natakghar hain bhi, wahin we baDi mugamta se chalte hain ye bhi nahin kaha ja sakta cinema ke parchar aur lokapriy hone baad se wyawsay ke roop mein natk kampni chalana ab kisi bhi prakar se akarshak karobar nahin raha hai wyawsayi rangmanchon ke sanchalak abhineta tatha any ashrit sahayak shilpi kalakar na to film jagat jaisa samman, pratishtha athwa mahatw hi samaj mein pate hain ki apne kary ko gauraw aur akarshan ka wishay man saken, aur na arthik drishti mein hi is kary mein unhen itni saphalta tatha sanpannata prapt hoti hai ki use ajiwika ka nishchit sadhan bana saken parinamaswarup jinmen tanik si bhi abhinay athwa nirdeshan sambandhi pratibha hai, we sabhi film ki or dauDte hain jo utsahi pratibhawan kalakar in paristhitiyon ke hote hue bhi rangmanch mein apni ruchi aur uske prati apna utsah banaye hue hain, unki sankhya ungliyon par gini jane layak hai aur we bhi apni ajiwika ke liye natk ke atirikt film ka sahara kisi na kisi roop mein lene ke liye baadhy hain prasiddh abhineta prithwiraj iske sabse suprichit udaharn hain prithwi theater ko jiwit rakhne ke liye unhen nirantar film mein kaam karna paDta hai aur film dwara prapt dhan se hi wo natk ke prati apni is adbhut lagan aur utsah ko pura kar pate hain wyawsayi rangmanch ki ye sthiti uske prabhaw aur uski apekshakrit heen awastha ka parinam ho athwa karan, kintu itna awashy sahi hai ki hamara wyawsayi rangmanch hamare wartaman sanskritik nawonmesh ko theek theek pragat nahin karta kintu sath hi jabtak ek niymit roop se chalne wala rangmanch hamare desh ke pratyek bhag mein nahin ban jata jabtak natk khelna aur dekhana hamare sanskritik jiwan ka, balki hamare dainik jiwan ka aniwary ang nahin ban jata, jabtak kam se kam samaj ka prabuddh shikshait warg apne awkash ko aur apne manoranjan ki awashyakta ko niymit roop se natk dwara pura nahin karta, tabtak ye kahna kathin hai ki hamare desh mein koi rangmanch wartaman hai aur na tabtak kisi prakar ki wiksit rangmanchiy parampraon ka nirman hi sambhaw hai
is bhanti hum dekhte hain ki aaj niymit rangmanch ke abhaw mein aur sath hi desh ke wartaman sanskritik nawonmesh ke phalaswarup hamare awyawsayi rangmanch ne ek aisi sthiti prapt kar li hai jo ek prakar se aswabhawik hi hai kintu sa hi hamare is wyawsayi, shaukiya rangmanch mein hi hamare bhawi niymit wiksit rangmanch ke beej hain, ye baat bhi nirwiwad lagti hai aur yadi aaj hum apne is awyawsayi rangmanch ki sthiti ko bhali bhanti samajh saken, uski samasyaon par gambhiratapurwak wichar kar saken aur simit roop mein hi sahi, uski tatkalik awashyaktaon ko pura kar saken, to hum apne desh mein ek sanpann rangmanch ke nirman, sthapana aur wikas mein baDha bhari yog de sakenge ye to aniwary hi hai ki apni hi antrik prerna tatha samany sanskritik unmesh ke phalaswarup hone wali is kriya mein ek or to apne bhitar hi baDi bhari asmanata hai tatha pratibha, samarthy aur lagan ke wibhinn star hain dusri or desh ka wartaman samajik arthik Dhancha is samuchit unmesh ko sambhalne mein abhi samarth nahin ho paya hai isiliye is deshawyapi sanskritik halchal ko na to prashast abhiwyakti hi milne pati hai aur na uchit sahyog ye kahne mein koi sankoch nahin hona chahiye ki kul milakar hamara shaukiya rangmanch abhi kewal kisi na kisi prakar abhiwyakti ka sadhan khojne ki awastha mein hai, atmawishwas ke sath ek nishchit disha ki or baDh chalne ki awastha mein nahin
usi sthiti ke tiwrtam roop ko natkiya Dhang se kahen to ye kaha ja sakta hai ki is awyawsayi rangmanch ki sabse baDi samasya ye hai ki uske liye na to natakghar hain aur na natk hamare desh ke adhunik rangmach ki awastha ka ye baDa wichitr sa wirodhabham hai ki natk khele jane ki itni mang aur natk dikhane tatha khelne ki itni prerna hone ke bawjud sadharnat rangmanch ke upyukt paryapt natk kisi bhasha mein nahin milte aur natakaghron ka to lagbhag sabhi jagah abhaw hi hai
in donon samasyaon par alag glag wichar karen pahle natakaghron ke abhaw ko le lijiye samuche bharatwarsh ke do teen nagron ko chhoDkar niymit natakghar kahin bhi nahin hain jo hain, we ya to kuchhek wyawsayi manDaliyon ke pas hain ya phir unmen sinemaghar ban gaye hain athwa we ekdam tuti phuti jeern awastha mein paDe hue hain jo bhi ho awyawsayi manDaliyon ko natakghar prapt nahin hote sadharanata jitne bhi natk khele jate hain, unmen se adhikansh schoolon, kaulejon ke hall mein athwa any aise sabha bhawnon mein prastut kiye jate hain jahan praya takht tatha chaukiyan kam kar stage taiyar karna paDta hai, jiske upar parda lagane aur aalok ka uchit parbandh karne hi mein bahut adhik parishram ki awashyakta hoti hai phir us parishram ke baad bhi aisi sthitiyan durlabh nahin hain ki kisi ek drishya ke atyant hi marmik sthal par parda girana awashyak to hona hai kintu achanak hi Dori toot jati hai, parda nahin gir pata aur asmanjas mein paDe bechare abhineta ye sthir nahin kar pate ki rangmanch par rahen athwa chale jayen aspasht ho aisi paristhitiyon mein bhawodrek ka wo star prapt nahin hota jab prekshak ka rangmanch par prastut drishya ke sath rasatmak tadatmy ho sake hamare desh mein shayad hi koi aisa nagar hai jahan nagarpalika ki or se bana hua natakghar ho jise chhoti baDi awyawsayi natk manDaliyan sadharan kiraye par le saken aur suwidha se natk prastut kar saken wibhinn nagron mein jo bhi sabha bhawan ajkal ban rahe hain unmen kisi na kisi prakar ka manch awashy hona hai par darshkon ke baithne ke sthan se thoDe upar bane hue kisi chabutre ko rangmanch nahin banaya ya samjha ja sakta is paristhiti ka baDa tikha anubhaw tab hua jab 1954 mein dilli mein rashtriya natk mahotsaw ke liye ek asthaniya sabha bhawan ke upyog ki baat uthi baDe hi kendriy sthan mein hone par bhi us bhawan ke ayojkon ne uske is upyog ki sambhawana par dhyan hi nahin diya tha parinamat rashtriya mahotsaw ke liye usmen bahut se pariwartan karne paDe aur uske baad bhi wo rangmanch aisa na ban saka jismen har tarah ke natk khele ja saken dilli mein haal hi mein ek any kala sanstha ne ek natakghar banaya hai kintu usmen bhi poorw yojna ke abhaw aur awyawsayi natk manDaliyon ki samasyaon ke prati udasinata ne us natakghar ki upyogita ko bahut kuch simit kar diya hai
in ikke dukke natakaghron athwa wibhinn sabha bhawnon ke sath ek kathinai aur bhi hai unka dainik kiraya itna adhik hota hai ki chhoti chhoti natk manDaliyan to use bardasht hi nahin kar sakti unmen niymit sajja shalayen nahin hoti, sthayi roop se lage hue parde nahin hote, aalok sambandhi sthayi wyawastha nahin hoti adhikansh awyawsayi natk manDaliyon ke liye insab awashyaktaon ki apni apni alag wyawastha karna kasht sadhy hota hai aur arth, samay tatha shakti ka wyay to usmen hota hi hai in sabse bhi baDi samasya hai wij~napan sambandhi kharch ki sadharan manoranjan premi janta abhi natk dekhne jane ki abhyast nahin hai, kewal yahi baat nahin hai wastaw mein natakghar ek aisa sthan hona chahiye jahan manoranjan ke ichchhuk athwa kala premi darshak anayas hi ikatthe ho saken—thik usi prakar jaise kisi sinemaghar ki or log jate hain aisi hi niyamitta ke bina rangmanch ki wastawik paranpra nahin banti, wahan jane ka logon ka abhyas nahin banta phalaswarup pratyek natk manDli ko pahli bar darshkon ko akarshait karne ke liye bahut adhik prayatn karna paDta hai aur is bhanti na kewal wij~napan sambandhi kharch bahut baDh jata hai, balki cinema ki tulna mein natk ki or sahj hi darshak unmukh nahin ho pata bahut bar to kuchhek achchhe prdarshnon ke ho chukne ke baad samachar patr mein suchana paDhkar unka pata chalta hai isliye natk ko yadi hamare sanskritik jiwan ka awichchhinn ang banna hai to ye sarwatha awashyak hai ki wo kabhi kabhi hone wali halchal ke roop mein nahin, balki hamare dainik jiwan ki ek aniwary paristhiti ke roop mein wartaman rahe ye kary aspasht hi tabtak sambhaw nahin hai jabtak pratyek nagar mein kam se kam aisa natakghar na ho jahan har sham ko natk khele jate hon, jahan anayas hi darshak pahunchte hon aur sath hi jahan asthaniya tatha bahar ki chhoti baDi natk manDaliyan nyunatam sadharan suwidhaon ke sath natk khel sakti hon
upar is baat ka ullekh kiya gaya hai ki jo natakghar prapt bhi hain, unka dainik kiraya itna adhik hai ki sadharantah natk manDaliyan use bardasht nahin kar patin is parashn par aur bhi wichar karne ki awashyakta hai kyonki parchar ke abhaw mein sadharnat achchhe se achchha natk athwa achchhi se achchhi natk manDli itne adhik darshkon ko akarshait nahin kar pati ki pahle ek do dinon mein natk ka pura kharch tikton ki bikri se ikattha ho sake dumri or adhiktar ye sambhaw nahin hota ki ek ya do din se adhik kisi natakghar ko kiraye par lene ka sahas koi awyawsayi natk manDli sadharanata kare is prakar ki nataka manDaliyon ko praya ye ashanka bani hi rahti hai ki unka prayas saphal hoga athwa nahin, darshkon ko ye achchha lagega athwa nahin paryapt wij~napan ke sadhnon ka abhaw hone ke karan bhi in manDaliyon ke liye adhik din tak natakghar kiraye par lena kathin hota hai
bahut bar aisa bhi hota hai ki kisi natk ke pahle ek do pradarshan itne saphal nahin hote aur pahle ek do abhinay ke baad hi abhinetaon aur prastutkartaon ko natkon ki durbaltaon ka pura bodh hota hai aur we unhen door karke use kahin adhik prabhawotpadak banane ki sthiti mein hote hain kyonki ye baat hamein nahin bhulni chahiye ki in adhikansh natk manDaliyon ke pas riharsal ke liye pray koi sthan nahin hota adhiktar manDaliyon ko riharsal kisi na kisi sadasy ke ghar par karni paDti hai jahan bahut bar sabke liye pahunchna asan nahin hota kisi chhote kamre mein riharsal karte rahne ke karan manch par theek kis prakar prawesh karna hoga, prasthan karna hoga, wywahar karna hoga aadi baten riharsal mein aspasht nahin ho pati bahut si manDaliyan to ant tak koi pakki riharsal rangmanch par kar hi nahin patin aur unke pahle pradarshan mein is bhanti stage riharsal ki si achakchahat aur kamjoriyan rahti hain isliye jabtak ye sambhaw na ho ki ye natk ek se adhik bar prastut kiye ja saken, tabtak uski puri sambhawnayen prakat hona bahut kathin hai iske liye wishesh roop se ye awashyak hai ki in natakaghron ka dainik kiraya bahut hi kam ho taki use kai din ke liye kiraye par lena in manDaliyon ke liye asambhau na rahe is prakar jabtak rajy ki or se athwa nagarpalikaon ki or se natakghar nahin bante athwa jabtak hamare desh mein natk ke parchar mein ruchi rakhne wali athwa usko apna kartawya manne wali sansthayen saste kiraye par milne wale natakghar banane ka prayatn nahin karti, tabtak awyawsayi manDaliyon ki ye samasya hal nahin ho sakti in natakaghron ke sath aniwary roop se aisa sthan bhi yadi prapt ho jahan natk manDaliyan riharsal kar saken to bahut uttam hoga, ek prakar se awyawsayi rangmanch ke wikas ki ye baDi aniwary awashyakta hai awyawsayi natk manDaliyon ke karyakarta pray ajiwika ke liye koi na koi dusra kary karte hain aur we kewal sham ko hi ekatr hokar natk ki riharsal kar sakte hain isliye ye sambhaw nahin ki kisi bhi natakghar ka niymit bhawan unhen riharsal ke liye khali mil sake in paristhitiyon mein riharsal ke sthan ki alag se wyawastha hona bahut hi awashyak baat hai par aise sthan har ek nagar mein nishchay hi ek se adhik hone chahiye jo alag alag dinon mein bahut hi sadharan se kiraye par natk manDaliyon ko prapt ho saken
jaisa upar kaha gaya hai, natakghar tatha riharsal ke sthan ke abhaw ke atirikt jo dusri baDi bhari samasya aaj wyawsayi aur awyawsayi sabhi prakar ki natk manDaliyon ke samne hai—aur ye baat pratyek bhasha ke liye lagbhag saman roop se sahi hai—wah hai abhinyopyogi natkon ke abhaw ki wastaw mein natk ek aisa sahity roop hai jo mulat rangmanch par adharit hai wiksit rangmanch ke abhaw mein shreshth natk hona pray asambhau hai kintu sath hi shreshth natkon ke abhaw mein rangmanch ka wikas kaise ho sakta hai? natk aur rangmanch ka ye anyonyashrit sambandh baDa maulik hai kintu hamare desh ke adhikash bhagon mein jahan niymit rangmanch ki paranpra hamare dainik jiwan mein se mit gai thi, athwa jahan kewal pichhle kuch samay se hi prarambh ho payi hai, wahan ye bahut hi awashyak hai ki natakkar aur natk manDaliyon mein aniwary aur awichchhinn sambandh sthapit hon hamare desh mein is samay sahityik pratibha ke unmesh ka daur hai usmen se kuchhek tarun aur utsahi lekhak rangmanch ki or hi kyon nahin unmukh ho sakte? sath hi jis prakar kisi bhi natk manDli ko apne wishesh kushal abhinetaon ki, digdarshak ki, roop sajjakar ki, parda rangne wale chitrkar ki, aalok wisheshagya ki aniwary awashyakta hoti hai, usi prakar apne wishesh natakkar ki bhi pratyek wyawsayi natk manDli ka bhi apna wishesh natakkar sarwada hi hota hai aur na kewal rangmanch ke wyawaharik gyan dwara apne natkon ko abhinay ke upyukt banata hai, balki jo us wishesh natk manDli ki wishesh kshamtaon aur akshamtamaon ko dhyan mein rakhkar aise natk likh pata hai jinko prastut karne mein manDali ke sabhi sadhnon ka pura pura upyog ho sake aur aisi anawashyak kathinaiyan utpann na hon jinhen door karna manDali ki samarthy ke bahar ho awyawsayi natk manDaliyon ko bhi isi bhanti apne wishesh natakkar taiyar karne honge jabtak unki wishesh awashyaktaon aur kshamtaon ko dhyan mein rakhkar natk likhne wali pratibha ka sahyog unhen nahin milta, tabtak natkon ke abhaw ki samasya kisi na kisi roop mein unke samne bani hi rahegi
is kathan ka ye abhipray nahin hai ki jo natk is samay likhe hue maujud hain athwa likhe ja rahe hain, we natk manDaliyon ke kisi kaam ke hi kahi unmen bhi nissandeh kuch to aise hain hi jinko jyo ka tyo athwa kisi na kimi roop mein rangmanchach ke upyukt banakar prastut kiya ja sakta hai ek prakar se wartaman natkon ka is prakar ka rupantar natakkaron aur natk manDaliyon donon ke liye bahut upyogi siddh ho sakta hai natk manDaliyon ke liye is karan ki unhen kam se pham ek samany Dhancha to in natkon mein prapt hota hi hai jisko apni awashyakta ke anusar pariwartit karke abhinyopyogi banane mein unhen apekshakrit kam kathinai hogi aur manDali ke kisi ek wishesh sadasy ko natk likhna sikhne ke liye awsar milega dugri or natakkaron ko bhi ye samajhne ka awsar milega ki unke likhe hue natk sahityik drishti se saphal athwa sarwatha pathniy hone par bhi unhen rangmanch par prastut karne mein kaisi kathinaiyan natk manDaliyon ke samne aati hain aur unhen kin upayon se we door karti hain is prakar apne agle natkon mein ye nataka manDaliyon ki kathinai ka adhik dhyan rakh sakenge
aspasht hi ismen natakkaron ka sahyog awashyak hai unki anumti ke bina unke likhe natkon mein is prakar ka pariwartan sambhaw nahin hoga aur ismen ye ashanka to hai hi ki kai bar is prakar kiya gaya pariwartan sarwatha upyukt bhi na siddh ho aur natk asphar hi rahe kintu dusri or is prakar ki anumti diye bina ye sambhawana sada bani rahegi ki ye natk manDaliyan kabhi bhi maujuda likhe hue natkon ko nahin chhuengi ye baat dhyan dene ki hai ki bahut bar natakkar mein aisi anumti prapt na ho sakne ke karan bahut si natk manDaliyan maujuda natkon ko hath mein nahin leti, prayah natakkar natk manDaliyon ke sujhawon athwa samasyaon ko sahanubhutipurwak sunne aur unpar wichar karke unke anukul awashyak pariwartan karne ke liye prastut nahin hote kyonki sadharanata natk, hindi mein hi nahin lagbhag sabhi bhashaon mein jahan rangmanch ki paranpra bahut wiksit nahin hai, kewal prakashit karne ke liye likhe jate hain, aur pichhle dinon to kewal radio par prasarit kiye jane ke liye hi likhe jane lage hain, jinke phalaswarup uski rangmanchiy upyogita aur bhi kam ho gai hai bahudha hamare sahityik natkon mein lambe lambe sanwad hote hain jinmen na kewal natkiya gati aur ghatna ka abhaw hota hai, balki unki bhasha itni aswabhawik hoti hai ki use abhineta sahj hi bol nahin pate aise adhikansh natk ek prakar se sanwad roop mein likhe hue upanyas matr hi hote hain abhinay ke upyukt natk mein bhasha ke swabhawik aur saral tatha sanwadon ke sankshaipt tatha natkiya hone ke sath sath ghatna aur charitron ke wikas mein ek nishchit gati honi bahut awashyak hai jisse rangmanch ke upar abhineta ek hi mudra ko, ek hi bhaw dasha ko aur ek hi sharirik kriya ko duhrate hue na jaan paDen rangmanch ke upar wibhinn patron ki sthiti ko moort roop mein apne samne rakhe bina aur unke kramash wikas par samuchit dhyan diye bina rangmanch ke upyukt natk likhna baDa kathin hai ismen koi bhi sandeh nahin ki baDe se baDa pratibhawan sahityakar bhi natk ki is wisheshata ko rangmanch ke sath sakriy roop se sambaddh hue bina nahin samajh sakta aur yashaswi natakkaron ko ismen apna asamman nahin samajhna chahiye ki apekshakrit tarun aur any kai drishtiyon se kshamatawan kalakaron se unko is disha mein sikhna hai
natakkar aur natk manDaliyon mein sanpark ke abhaw ka ek paksh nissandeh ye bhi hai ki adhikansh natk manDaliyan apni or se bhi kisi natakkar ko apne sath sambaddh karne ka, uski baat sunne aur uski samasyaon ko samajhne ka aur apne thos wyawaharik sujhawon dwara usko samjhane ka prayatn nahin karti aisa prayatn nishchay hi in manDaliyon ke hit mein hi hai kyonki natakkar hi wo mool sadhan prastut karta hai jiske bina koi natk manDli jiwit nahin rah sakti natakkar aur natk manDaliyon ke beech, wisheshkar pratyek nagar mein bikhri hui anaginti awyawsayi natk manDaliyon ke beech, ye sanpark hamare aaj ke naw naty andolan ki sarwapramukh awashyakta hai jiske bina natkon ke abhaw ki samasya maulik roop mein kabhi nahin hal ho sakegi
ya is samasya ke aur bhi kai samadhan hai jo tatkalik hain aur jinse uske maulik samadhan mein bhi bahut kuch sahayata milegi desh ki wibhinn bhashamo se tatha wideshi bhashamo se aise natkon ke anuwad tatha bharatiy rupantar kiye jane chahiye jo rangmanch par saphal ho chuke hain ye bhi sambhaw hai ki alag alag sthano par desh widesh ki prasiddh wyawsayi manDaliyon ne unhen jis prakar se rangmanch par prastut kiya hai, uski jankari bhi prapt ho sake kam se kam anuwad aur rupantar ka ye kary aisa hai jise bahut si natk manDaliyan sway kar sakti hain sath hi wibhinn bhashaon mein praywa ek hi bhasha bhashai kshaetr ki wibhinn manDaliyon ke pas aise natk warsh mein ek do awashy taiyar hote rahte hain jo shreshth sahity na hote hue bhi abhinay ko upyukt ho nanke paraspar pradan pradan hone ka koi madhyam turant nikala jana chahiye aise natkon ke prkapan ko bhi koi wishesh yawastha nigi yondriy natk sastha ko karni chahiye is prakar pratyek bhasha ka natk sahity na kewal bahut samrddh hoga, balki is prakar rupantar aur anuwad mein nae moliya natkon ki rachna ke liye bhi prerna milegi aur dhire dhire ye sambhaw ho sagega ki hamare natkon ke prabhaw ko ye samasya door ho sake
awyawsayi natk manDaliyon ki ek do samasyayen aur bhi hain jinke karan unhen bahut bar baDi kathinaiyon ka samna karna paDta hai! unmen sab se pramukh hai manoranjan kar desh ke bahut se rajyo mein is wishay ke kanun bahut hi kaDe hain aur natk manDaliyon ko pray kisi masya ke liye dan ka sahara lekar apna pradarshan karna paDta hai anyatha unki pray ka baDa bhari bhag manoranjan kar ke roop mein pala jata hai in manDaliyon ka pradarshan sambandhi sadharan wyay apekshakrit itna adhik hota hai ki manoranjan bar de chukane ke wad pradarshan ka pura wyay juta makna unke liye sambhaw nahin ho pata hamare desh mein rangmanch ke wikas ki ek baDi bhari awashyakta hai ki wishesh roop mein awyawsayi rangmanch ko manoranjan kar se chhutti mile ye suwidha imaliye bhi awashyak hai ki chhoti natk manDaliyon ko any anaginti kathinaiyon ko mankar natk prastut karne paDte hain aur unmen ye kshamata nahin hoti ki is arthik sakat ko bhi sahn kar saken
math hi ye baat bhi dhyan dene ki hai ki is prakar manoranjan kar se prapt dhan ko hamare rajyo ki sarkare natk wikas ke liye hi nahin lagati awyaw sayi natan manDaliyan ek natk ki taiyari mein sadharantah natakghar ke kiraye par, wij~napan par, palok mambandhi wywasya par, sangit par, warto tatha up sajja par por sets par dhan wyay karti hai bahut si wyawasthit natk manDaliyan natk star ko bhi yog bahut dhan rayalti ke roop mein bhed karti hain aur ye maliyon im pr mein hi prawyawsayon hai ki ek natk ke ticket bechkar prapt hone wale dhan mein ne pray abhinetaon ko koi hissa nahin milta athwa wo itna nagny hota hai ki use unki prajiwika ka sadhan kisi bhi prakar se nahin mana ja sakta jo ho, ye manDaniyan jin wiwidh wyaktiyon ko dhan deti hai, nanse kisi na kini mp mein badle mein unhen sahyog prapt hota hai jiske dwara natk prastut karne mein unhen mayaka milti hai ek prakar se us sahyog ke bina natk prastut karna unke liye naman hi nahin hoga kintu manoranjan kar ke roop mein jo dhan sarkar ke pan jana hai uske badane mein in natk manDaliyon ko koi bhi suwidha sarkar mein prapt nahin hoti aur manoranjan kar ke roop mein jane wala ye dhan puri aay ka lagbhag ek tihai se bhi adhik ho jata hai ye baat yuktisangat jaan paDti hai ki sarkar in natk manDaliyon se, jinke sadasy mulat kala ke prem se akarshait hokar apni suwidha aur samay ko arpit karke hamare desh ki nashtapray naty parampara ko banaye rakhne aur usko adhikadhik wiksit karne ka prayatn kar rahe hain, koi manoranjan kar nahin le aur yadi le bhi to aniwary roop se usko rajy mein natk ke wikas mein sahayata pahunchane ke kary mein phir se awashy lagaye ye ek aisa parashn hai jis par bahut hi gambhirta purwak wichar hona awashyak hai
is wiwechan mein mulat awyawsayik natk manDaliyon ki bahy samasyaon par hi abhi tak wichar kiya gaya hai kintu in manDaliyon ki aisi antrik samasyayen bhi hain jo unke kary ko samuchit roop se wiksit nahin hone deti athwa use paryapt roop mein upyogi nahin banne deti jaisa pahle kaha bhi gaya hai ki pawyawsayi natk manDaliyon ki is sagya mein we pray sabhi sagthan shamil hain, jo kisi na kisi uddeshy se natk khelte hain aur ticket lagakar athwa amantrit karke logon ko dikhate hain mulat jis mapadanD se hum in manDaliyon ka awyawsayi manDaliyon ke roop mein ullekh karte hain wo yahi ki in manDaliyon ke sadasy apni jiwika ke liye natk prastut nahin karte, sadharanata apne awkash ke samay ke upyog dwara hi aise natk prastut kiye jate hain ye wisheshata samany roop se is koti ki sabhi manDaliyon mein pai jati hai kintu jab hum awyawsayi rangmanch ko samasyaon par wichar karte hain to mulat hum un natk manDaliyon ki baat hi sowte hain jo natk ko apni kalatmak abhiwyakti ka ek sadhan manti hai, jo uske dwara kalatmak mulyon ki sirishti karna aur hamare saskritik jiwan ko samundr karne ka uddeshy apne samne rakhti hain unmen se kai ek to apne is uddeshy ke prati itni sajag aur itni nishthawan hoti hain ki anaginat asuwidhaon aur kathinaiyon ka samna hone par bhi apne is kary ko chhoDti nahin, unke sadasy ajiwika ke liye chahe aur kuch kar saken mathwa na kar saken, natk ke liye apni samast suwidhayen tyagne ko prastut rahte hain we apni any awashyaktaon ko bhulkar ek prakar se aise pagalpan ke sath natk ke kaam mein jute rahte hai jo kewal sachche kalakar ke liye hi sulam hai inmen aisi bhi kai ek manDaliyan hain jo, yadi sambhaw ho sake to, rangmanch ko apna wyawsay bhi arthat ajiwika ka sadhan bhi banane ko taiyar hai kintu suwidhaon ke mamaw mein jinke liye aisa karna sambhaw nahin ho pata
natk ek samuhik kala hai usmen bahut se wyaktiyon ke paraspar nayog ki aniwary awashyakta hoti hai sath hi any sabhi kala rupo ki apeksha natk mein wyaktigat pratibha ke wisphot ki awashyakta utni adhik nahin hai jitni anubhaw jay sthirta ki abhineta, nirdeshak tatha any sahayak gilpi sabhi pichhle anubhaw mein seekh kar unnati karte hain ek hi natk ka dusra pradarshan pahle se adhik wyawasthit aur prabhawapurn hota hai natk mein abhineta ko ek hi kary chaar bar karna paDta hai isliye ek hi natk ke kai pradarshani mein bar bar ye
sway hi ek nawin bhawaweg ki abhiwyakti ka ras na prapt kar sake, to darshko ko bhi wo uska bhaswadan nahin kara sakega shaukiya athwa anyawsayi natk ko ek ya do bar se adhik nahin khelte, muchh sadhnon ke prbhawwa aur kuch is karan ki ek hi natk bar bar dohrane ki apeksha naya khelne ki prawrtti parshak lagti hai unki kala ka star uncha na uth makane ka ye baDa bhari karan hai wyawmayi manDaliyon, athwa aimi awyawsayi natk manDaliyan jo apni kary paddhati mein wyawsayi natk manDaliyon ke saman hi hai, isiliye apne kary ko adhik unne star ka bana sakti hai kintu iske wiprit bahut mi shaukiya natas manDaliyon mein apne kary ke prati bahut bar aima gahra anurag hota hai ki unke pradarshan mein wyawmapi buddhi ko yantrikta nahin hoti, ummen mada sachchi aatma bhiwyakti ki sambhawana rahti hai isi se awyawmayo ranmanch ki nishtha, utsah dhaur sachchai ka wyawsayi rangmanch ko nipunata ke sath yog hona bahun hi awashyak hai kyonki hamare desh mein natk aur ragmatr ka wastawik bhawishya in prayawgayo maDaliyo ki unnati se juDa hua hai, chahe we manDaliyan warsh mein ek do natya prastut karne wali ho athwa aini jo warsh bhar mein ek hi shreshth natk ke bom, panim, pacham pradarshan karni ho cinema ki pratiyogita mein jahan pashchimi dego tak mein, ragmatr ko sudirgh paranpra ke baad bhi wyawsayi natk kampni tik nahin pati, wahan hamare desh mein umka geeghr hi pair jama lena bahut hi kathin kaam jaan patna hai aur jaisa ki pahle kaha gaya, parmay ki drishti mein natk company chalana maj ke yug mein koi bahun akarshak karowar nahin hai isliye jym had sadhyawyayik natk manDali namag pratima ko ikattha karke unki nrijan shakti ka adhikadhik uayog kar sakegi, usi had tak hamare desh mein rangmanch ki paranpra ka phir mein nirman ho sarega aur dhire dhire wo paranpra driDh ho sakegi tabhi jan sadharan mein natk ke prati itna anurag bhi baDh sakega aur natk hamare nasati jiwan ka itna prwichchhinn ang ban sakega ki usko koi sthayi aur niymit roop prapt ho sake praj to awyawsayi natk manDaliyan na kewal hamari kala ke shreshthatam rang shilpiyon ko gaDh rahi hain, balki we sath hi us dhyapak prekshak warg ka bhi nirman kar rahi hai jiske bina koi rangmanch na to tik hi sakta hai, na mahatwapurn saskritik mulyon ka nirman hi kar sakta hai
स्रोत :
रचनाकार : नेमिचंद्र जैन
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।