'उपन्यास' शब्द कहने मात्र से हिंदी का सामान्य पाठक एक विशेष प्रकार के साहित्य रूप का बोध कर लेता है। वह उपन्यास पढ़ता है उसका विश्लेषण नहीं करता। परंतु प्रबुद्ध पाठक विवेचन-विश्लेषण करता हुआ उसमें विशेषण जोड़ता या संज्ञाएँ देता है। इसी क्रम में उपन्यास के जो अनेक रूप विश्लेषित हुए हैं, उनमें से एक ऐतिहासिक उपन्यास है यानी कि उपन्यास तो अवश्य पर ऐतिहासिक विशेषण के साथ। इसी स्थल पर प्रश्न उठते हैं कि दोनों शब्द, इतिहास और उपन्यास कहाँ तक संबंधित हैं, इनकी मर्यादाएँ क्या हैं तथा सीमा-रेखाएँ कहाँ मिटती हैं? कारण, यदि उपन्यास की एक सामान्य धारणा पाठक के मन में होती है तो इतिहास के स्वरूप का भी उसे पृथक रूप में आभास रहता है। इतिहास मानवीय गतिविधि (ह्युमन एक्टिविटीज़) का वैसा ही एक प्रकार है जैसा कि समाजशास्त्र अथवा गणित-विज्ञान। ऐसी स्थिति में एक प्रश्न और उठता है कि यदि मानवीय गतिविधि (ह्युमन एक्टिविटीज़) का एक प्रकार उपन्यास के साथ विशेषण के रूप में आ सकता है तो अन्य प्रकार क्यों नहीं आ सकते? दूसरे शब्दों में, ऐतिहासिक उपन्यासों की भाँति ही दार्शनिक, समाजशास्त्रीय या गणित-विज्ञानीय उपन्यास क्यों नहीं हो सकते? परंतु एक निष्कर्ष की ओर संकेत अवश्य करना चाहूँगा : इतिहास उपन्यास के लिए अधिक सहायक है बजाए अन्य ज्ञान-विज्ञान के प्रकारों के, यदि ऐसा न हो तो अबतक मानव-बुद्धि ने इस क्षेत्र को यों ही न छोड़ दिया होता। दर्शन समाजशास्त्र आदि की खोजों का उसने भरपूर उपयोग किया है, परंतु उससे उपन्यास के आंतरिक रूप में ऐसा कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आ सका कि उसे हम एक विशिष्ट रूप में 'ऐतिहासिक उपन्यास' की भाँति स्वीकार करने को बाध्य हो जाएँ। उपन्यासकार को इतिहास से कथावस्तु और चरित्र की प्राप्ति ही नहीं होती, उसमें किसी काल विशेष को वैचारिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि विषय (फ़िनोमेनन) का भी ज्ञान होता है; जबकि अन्य शास्त्र शाखाएँ इतनी दिशाओं से सहायता नहीं दे पातीं।
इतिहास और उपन्यास की पारस्परिक स्थिति पर विचार करने के पहले एक बात ध्यान में रखनी है कि आधुनिक विज्ञान ने हमारे ज्ञान एवं कार्य की विविध दिशाओं को प्रभावित किया है इतिहास और उपन्सास भी इस प्रभाव के अपवाद नहीं हैं।
यह बात संभवतः पाठकों को विरोधाभास-सी लगेगी कि आधुनिक जीवन की बौद्धिक आवश्यकताओं ने ही विज्ञान और उपन्यास (अथवा रसात्मक साहित्य) को अलग-अलग किया और बाद में उसने ही एक प्रकार का सामंजस्य भी इनमें स्थापित किया। आज से 150-200 वर्ष पूर्व तक इतिहास और पुराण कोई अलग चीज़ें न थीं। महाभारत इतिहास भी था तथा पुराण एवं महाकाव्य भी। इस तथ्य को ध्यान में न रखने के कारण ही थोड़े दिन पूर्व तक 'पृथ्वीराज रासो' की ऐतिहासिकता पर विवाद चलता रहा है। परंतु आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि ने इतिहास को विज्ञान की भाँति ही विशुद्ध वस्तुगत दृष्टि से कोरी तथ्यात्मकता तक पहुँचा दिया। जब एक बार इतिहास पुराण एवं किंवदंतियों के शैवाल से मुक्त होकर तटस्थ शुद्ध तथ्यों का भंडार बना, तो मनुष्य की व्यवस्था परायण बुद्धि ने उसे एक सिस्टम का रूप दिया और फिर इस क्रम में सिस्टम की परख भी उसकी प्रयोगशील दृष्टि ने की। सार्थकता की परख के इस दौरान में साहित्य की अनेक व्याख्याएँ उपस्थित की गईं, जिन्हें हम इतिहास-दर्शन के नाम से जानते हैं। धर्म और जाति की श्रेष्ठता, भाग्यवाद, महापुरुषवाद से प्रारंभ कर निकोलाई डेनिलेवस्की, स्पेंग्लर के आवर्तवाद, आर्नल्ड ट्वायनवी के लयात्मक-आरोह-अवरोहवादी विकास से लेकर मार्क्स (और कुछ हद तक सोरोकिन जैसे समाजशास्त्री भी) के रेखावादी विकास तक इतिहास की अनेक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गईं; इन विविध व्याख्याओं एवं दर्शनों ने हमारी विचार-प्रक्रिया को प्रभावित किया है। हमने अपने इतिहास को इन दर्शनों के आलोक में नए ढंग से देखना शुरू किया। अतीत का चित्रण भी इन नई दृष्टियों के आधार पर होने लगा और इसी बिंदु पर ऐतिहासिक उपन्यासों का प्रणयन शुरू होता है। इस प्रकार हम स्पष्ट देखते कि जब इतिहास विशुद्ध तथ्य बना तो वह रसात्मक साहित्य से दूर हटा, पर जब उसने संस्कृतियों, सभ्यताओं एवं समाज के विकास पर दृष्टिपात शुरू किया तब उपन्यासकार (या अन्य लेखक भी) पुनः उसकी ओर गए।
यों प्राचीन आख्यानों की शरण में साहित्य बहुत दिनों से जाता रहा है, पर तब उद्देश्य दूसरा था : कथा प्रामाणिक हो, जनप्रिय हो, जिससे कि रसोद्बोधन में व्याघात उपस्थित न हो, मनोविज्ञान की शब्दावली में ‘स्टॉक रेस्पांस' के लिए इतिहास की शरण ली जाती थी। 'नाटकं ख्यातवृत्तं पंचसंधि-समंवितम्' में ख्यातवृत्तं का मूल कारण यही था। उस वृत्त की ख्याति के विरुद्ध जाना संभव न था पर आधुनिक मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र या इतिहास ने इन वृत्तों की प्रामाणिक ख्याति को नष्ट कर दिया है। राम ही नहीं, रावण और मेघनाद भी साहित्यकार के प्रिय बने। यही नहीं, अज्ञात व्यक्ति भी इतिहास और समाज के मंतव्यों को व्यक्त करने का माध्यम बनने लगा। हरमैन हेस का सिद्धार्थ' अथवा यशपाल की 'अमिता' इस 'आख्यात वृत्त' के उदाहरण हैं। कारण यह है कि उपन्यास मात्र कथानक का स्रोत नहीं रहा उसका सचेष्ट प्रयोग अब संभव हो सका है। उपन्यासकार, नाटककार, कवि आदि प्रसिद्ध चरित्रों एवं घटनाओं में दूसरे मंतव्य ढूँढने लगे हैं। किसी पौराणिक चरित्र को विश्वसनीय घटनाओं के मध्य चित्रित करने के स्थान पर युग विशेष को उसकी व्यापक और प्रबल शक्तियों के साथ उपस्थित किया जाने लगा, या कि किसी प्रसिद्ध अज्ञात या उपेक्षित चरित्र को उसकी समस्त आशा-आकांक्षाओं एवं मानसिक द्वंद्वों तथा बाह्य संघर्षों के साथ उपस्थित किया गया, अथवा फिर अतीत को वर्तमान के साथ जोड़ा गया, प्रेरणा या उपदेश देने के लिए। इन सभी क्षेत्रों के रिकंस्ट्रक्शन के लिए लेखकों की कल्पना को अमित विस्तार मिला। इतिहास और उपन्यास के पारस्परिक संबंधों पर बहुत-से लोगों ने आपत्ति प्रकट की है। सर फ्रांसिस पालग्रेव नामक लेखक ने तो यहाँ तक कहा कि ऐतिहासिक उपन्यास एक ओर इतिहास का शत्रु है और दूसरी ओर कथा का। ऐसे लोग मात्र यह सोचते हैं कि इतिहास केवल घटनाओं या व्यक्तियों का विवरण है तथा उपन्यास मात्र कल्पना का विलास। वे यह भूल जाते हैं कि इतिहास सारे राग-विरागों के साथ अतीत का यथार्थ है और उपन्यासकार सदैव यथार्थ को पकड़ता है, चाहे वह अतीत का हो या वर्तमान का। अतः इतिहास के क्षेत्र में जाना किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं है। फिर क्या कोई इतिहासकार यह कहने का दावा कर सकता है कि उसने इतिहास के लिखने या जानने में कल्पना का रंचमात्र भी उपयोग नहीं किया है। वास्तव में कोई भी मानवीय क्रिया या व्यापार (ह्युमन एक्टिविटीज़) कल्पना के बिना संभव ही नहीं है, गणित भी नहीं। अतः यथार्थ-कल्पना के उपयोग को लेकर इतिहास या उपन्यास में कोई तात्विक विरोध ज्ञात नहीं होता। तो क्या दोनों एक ही हैं? 'नहीं', इसका स्पष्ट उत्तर है। दोनों की रचना-प्रक्रिया एवं उपजीव्य श्रोताओं के अंतर दोनों क्रियाओं के अंतर को भी प्रकट करते हैं। इतिहास विवरण देता है, उपन्यास चित्रण करता है। चित्रण में चयन के आंतरिक मंतव्यों का नैरंतर्य होता है। इसी कारण यह अधिक सूक्ष्म एवं अधिक व्यंजक होता है। उपन्यास का पाठक पढ़ते समय इतिहास की घटनाओं को नहीं जानना चाहता, नाम भी नहीं याद करना चाहता, वह तो चित्रित युग के आंतरिक मंतव्यों, उसके 'चेतना-प्रवाह' को जानना चाहता है और इस प्रकार इतिहास की बढ़ती हुई शक्तियों की अवगति नहीं, 'बिंब ग्रहण' की प्रक्रिया स्वीकार करता है। उपन्यास का चरित्र इस ‘बिंब ग्रहण' की इकाई बनता है, जबकि इतिहास में घटना का विवरण उसके बोध की इकाई होता है। उपन्यास में इतिहास के इस 'बिंब ग्रहण' के कारण पाठक को जो आनंद (या और कुछ) मिलता है, उसे रविबाबू ने 'ऐतिहासिक रस' कहा है। उनका यह मंतव्य द्रष्टव्य है, “पृथ्वी में कुछ ऐसे लोगों का भी अभ्युदय होता है जिनका सुख-दुःख संसार की बृहत् घटनाओं के साथ संबद्ध होता है। राज्यों का उत्थान-पतन, महाकाल की सुदूर की कार्य-परंपरा जो समुद्र के गर्जन के साथ उठती और गिरती है, उसी महान कला संगीत के स्वर में उनका व्यक्तिगत विराग और अनुराग बजा करता है। ...यदि हम उन्हें व्यक्ति-विशेष के रूप में नहीं परंतु महाकाल के एक अंग के रूप में देखना चाहें तो हमें दूर खड़ा होना पड़ता है। अतीत के अंदर उनकी स्थापना करनी पड़ती है, वे जिस महान् रंगभूमि के नायक थे, उसको और उनको मिलाकर देखना पड़ता है। इस कथन के महापुरुषवादी स्वर को संशोधित कर कहा जा सकता है कि मुख्य बात यह ‘महाकाल की सुदूर कार्य-परंपरा' यानी कि इतिहास-बोध ही है। महाकाल में महापुरुष ही नहीं, नगण्य व्यक्ति भी देखा जा सकता है। इस महाकाल अथवा इतिहास की कार्य-परंपरा की अभिव्यक्ति ऐतिहासिक उपन्यासकार का दायित्व है एक लेखक की आत्मकथा के माध्यम से हर्षयुगीन भारत की समस्त कार्य-परंपरा की अभिव्यक्ति कर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी दायित्व का पालन किया है। यहाँ यह बात याद रखने की है कि दोनों एक नहीं हैं पर इतिहास और ऐतिहासिक उपन्यास के महाकाल-बोध के मूल मंतव्यों में तनिक भी विरोध नहीं है। ऐतिहासिक उपन्यासों के समीक्षण में उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है; जो व्यक्ति कहानी कहने के लिए केवल तथ्य इतिहास से चुनता है, उसकी विवेचना उन तथ्यों को ध्यान में रखकर करनी होगी और ऐसी ही स्थिति में हम किशोरी लाल गोस्वामी जैसे लोगों को अनैतिहासिक कह सकते हैं। अगर कोई ‘महापुरुष’ चित्रित करना उद्देश्य रहा हो तब फिर उसके चरित्र की उदात्तता उन ऐतिहासिक परिस्थितियों में देखी जानी चाहिए। जैसे कि सत्यकेतु विद्यालंकार ने हिंदी में ‘आचार्य चाणक्य' नामक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा, पर तात्कालिक राजनीति के विश्रृंखल वातावरण में उनके क्रियाकलाप का ऐसा चित्रण प्राप्त नहीं होता जिससे कि वह अपने समकालिकों का अगुआ घोषित किया जा सके। परिणामतः समस्त उपन्यास पढ़ जाने के बावजूद 'चाणक्य' का चरित्र हमें गहरे ढंग से प्रभावित नहीं कर पाता। इस कमी का कारण है उपन्यास की विवरणात्मक परिपाटी उपन्यासकार ने चरित्र की यूनिट को नहीं, विवरण की इकाई को स्वीकार किया है। यदि लेखक किसी युग-विशेष को 'रिकंस्ट्रक्ट' कर रहा हो तो उस समय मूल आलोच्य वस्तु होगी, उस युग का आंतरिक रूप। यदि युग के आंतरिक मंतव्यों को उपस्थित करने में लेखक सफल हुआ तो, यदि कुछ घटनाएँ या चरित्र इतिहास के तथ्यों के अनुवर्ती न भी हों तब भी वह सफल कहा जाएगा। इस संबंध में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि युग के आंतरिक मंतव्य वेशभूषा, चाल-ढाल और बाह्य वातावरण की अपेक्षा आंतरिक विचारधाराओं, इतिहास की विकासमान शक्तियों एवं उस युग के ‘सोशल मोर्स' (Social Mores) के संपूर्ण चित्रण पर अधिक आधारित होते हैं। कभी-कभी ये सारी बातें होते हुए भी वर्तमान जीवन की विचार-प्रक्रिया हमको इस तरह अभिभूत किए रहती है कि बहुधा प्राचीन पात्रों और घटनाओं से उसकी अभिव्यक्ति जाने-अनजाने हो जाती है। स्पष्टतः यह एक अनैतिहासिक तत्त्व है और ऐतिहीसिक उपन्यास को कमजोर बनाने वाला है। हिंदी में राहुल सांकृत्यायन एवं यशपाल के ऐतिहासिक उपन्यास इस कमजोरी के शिकार बने हैं। 'बाणभट्ट की आत्मकथा' इसी कमजोरी के न होने के कारण अधिक शक्तिशाली रचना बन सकी है।
बहुधा व्यक्ति-प्रधान ऐतिहासिक उपन्यासों में दो प्रकार के दोष आ जाते हैं : या तो तमाम घटना-जाल में उद्दिष्ट व्यक्ति अप्रमुख हो जाता है क्योंकि इतिहास का चक्र किसी एक व्यक्ति के चलाए तो चलता नहीं है अथवा फिर ऐसा उपन्यास अत्यधिक यांत्रिक हो उठता है। वृंदावन लाल वर्मा के उपन्यास ‘मृगनयनी' में पहला दोष है जिसमें मृगनयनी की अपेक्षा लाखी अधिक प्रमुख हो उठी है तथा 'झांसी की रानी' में यांत्रिकता का दोष आ गया है। चतुर उपन्यासकार इसी कारण दूसरे रास्ते अपनाते हैं। सुदूर इतिहास को अपनाने से अपने उद्दिष्ट चरित्र को अपेक्षाकृत महिमा दी जा सकती है क्योंकि वहाँ घटना के यथार्थ का बंधन नहीं होता। मुंशी का ‘भगवान परशुराम' इसी कारण ‘भगवान कौटिल्य' की अपेक्षा अधिक सफल बन पड़ा है। अधिक अलौकिक एवं काल्पनिक होते हुए भी वह अधिक सफल बन पड़ा है। अधिक अलौकिक एवं काल्पनिक होते हुए भी वह अधिक यथार्थ लगता है। लिखित इतिहास से बाहर होने के कारण लोक-कथानायकों एवं किंवदंतियों पर आधारित उपन्यास भी इसी कोटि के अंतर्गत आते हैं। वर्मा जी के ‘गढ़कुंडार', 'विराटा की पद्मिनी' या 'कचनार' इसीलिए अधिक सफल हैं। किसी घटना या घटना-श्रृंखला पर लिखे गए ऐतिहासिक उपन्यास भी ऊपर गिनाए दोषों से मुक्त होते हैं क्योंकि वहाँ पर घटना या घटना-श्रृंखला को उसके पूर्ण परिपाक तक पहुँचने के लिए मददगार सारे चरित्र एवं कार्य-व्यापार प्रयोग में लाए जा सकते हैं एवं अधिक नाटकीयता की स्थापना भी की जा सकती है। मुंशी का ‘पाटन का प्रमुख' अथवा गुजरात सीरीज के अन्य उपन्यास ऐसे ही हैं। इस प्रकार का लेखन लेखक से व्यापक ऐतिहासिक अनुशीलन की माँग करता है। इसके लिए आवश्यक होता है कि वह उन तमाम व्यक्तियों को पहचान सके जिन्होंने उस घटना की चरम परिणति में सहायता की है।
किसी अप्रमुख पात्र के माध्यम से एक संपूर्ण युग के पुनर्निमाण की पद्धति सर्वाधिक नवीन है। इसमें चरित्र-चित्रण के ऊपर कोई साहित्येतर अंकुश भी नहीं रहता है तथा ऐतिहासिक उपन्यास की मूल वस्तु वातावरण निर्माण पर अपेक्षित ध्यान दिया जा रहा है। यह बात ध्यान में रखने की है कि ऐतिहासिक उपन्यास की बड़ी शक्ति, वातावरण की स्थापना में ही है। वातावरण से मेरा तात्पर्य बाहरी ही नहीं, आंतरिक मंतव्यों से भी है तथा आंतरिक मंतव्यों तक पहुँचना तभी संभव है जब समाज की द्वंद्वात्मक गति का वैज्ञानिक ज्ञान हो और मानवीय चेतना के विविध स्तरों की आंतरिक एकता का स्पष्ट आभास रहे।
स्वतंत्रता के बाद इधर हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यासों (ऐतिहासिक कथनाकों की ओर कहना अधिक युक्ति-संगत होगा!) की ओर लोगों का ध्यान गया है, परंतु अपवादों को छोड़कर बहुधा उनमें या तो रसीली कहानी कहने की प्रवृत्ति मिलती है या फिर एक प्रकार का पुनरुत्थानवाद (revivalism) ऐतिहासिक काव्यों एवं नाटकों के क्षेत्र में इतिहास-दर्शन की दृष्टि अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ है। नए ऐतिहासिक उपन्यासकारों से मेरा अनुरोध है कि वे इतिहास की गति और अतीत के मंतव्यों का अधिक सचेत बोध ग्रहण करें एवं कराएँ।
('आलोचना और आलोचना' नामक पुस्तक से)
- रचनाकार : देवीशंकर अवस्थी
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