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शंख घोष

1932 - 2021 | चाँदपुर, अन्य

बांग्ला के समादृत कवि और समालोचक। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।

बांग्ला के समादृत कवि और समालोचक। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।

शंख घोष की संपूर्ण रचनाएँ

कविता 10

उद्धरण 31

प्रतिष्ठान को तोड़ने की चाहत यौवन का धर्म है। जीवन को मृत्यु के सम्मुख रखकर देखना, मृत्यु को जीवन के सामने रखकर देखना यौवन का धर्म है। लगातार हर क्षण मृत्यु पर नज़र रखना, उसपर आघात करना, उसके द्वारा आहत होना यौवन का धर्म है।

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अदृश्य किंतु श्रुतिगोचर छंद के प्रवाह के मध्य ही शब्द बहते चले आते हैं, फलस्वरूप छंद का नक़्शा अत्यंत सुनियमित हो उठने के साथ-साथ शब्द मानों नेत्रहीनों की तरह आकर एक-दूसरे की देह से सट जाते हैं, वे अनिवार्य रूप जाते हैं, इसके द्वारा निपुण और सुगठित एक पद्य-पंक्ति पाई जा सकती है, किंतु उसमें उस समय अकसर सजीव व्यक्तित्व का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता।

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भद्रता का कंठ एक प्रकार की रीति में आबद्ध होने के कारण कई बार सुंदर लेकिन निर्जीव होता है, बात कहने का सही स्वर केवल अंतरंग मित्रों के साथ बातचीत के दौरान ही पता चलता है। कविता भी उस अंतरंग व्यक्तित्व के स्वर की तलाश करती है।

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शब्दों की क्या कोई अपनी पवित्रता होती है? जड़ निष्चल अकेला एक शब्द, उसकी कोई शक्ति नहीं, जनन नहीं, किसी दूसरे शब्द के समवाय संघर्षण से वह जल उठता है। जिस तरह अग्निदेवता समस्त पापहर्ता हैं, कविता भी वैसी ही होती है। उसकी अग्नि में जो कुछ भी समिधा के रूप में पाता है, वही अंत में पवित्रता अर्जित करता है।

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सच्चे लेखक तो भाषा में सत्य को ही उचारना चाहेंगे, वे भाषा के भीतर ही नीरवता के अबाध विस्तार को पकड़ना चाहेंगे! नीरव से नीरव को नहीं, लेखक शब्द के द्वारा ही नि:शब्द को पकड़ना चाहते हैं।

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