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हाइडिलबर्ग

haiDilbarg

सत्यनारायण

सत्यनारायण

हाइडिलबर्ग

सत्यनारायण

और अधिकसत्यनारायण

    हाइडिलबर्ग का विश्वविद्यालय केवल जर्मनी में ही, बल्कि यूरोप के सब देशों में इस बात के लिए प्रसिद्ध है कि वहाँ के विद्यार्थियों का जीवन बड़ा ही सरस होता है। जिन लोगों ने वहाँ पर कभी विद्यार्थी जीवन बिताया है, उनके हृदय से इस शहर के दो स्थानों की याद कभी नहीं भूलती—नेकर नदी के तट पर पड़ी बेंचें; और महल-बाग़!

    प्रेम करना और प्रेम-पाश में बँध जाना हाइडिलबर्ग में अध्ययन करने वाले विद्यार्थी-विद्यार्थिनियों के लिए एक परंपरा सी हो गई है। नेकर नदी के तट की बेंचे प्रेमी जोड़ों से कभी ख़ाली नहीं रहतीं और इसी प्रकार महल-बाग़ की भी हर एक झाड़ी और रास्ता प्रेमी जोड़ों से भरा रहता है। वहाँ के जीवन में इतनी सरसता रहने के कारण ही विद्यार्थी उस जीवन को रोमांटिक लाइफ़ कहा करते हैं।

    एक दिन संध्या समय उस शहर में टहलने निकला। रास्ते बिजली के प्रकाश से जगमगा रहे थे। नेकर नदी के किनारे पहुँच कर एक बार सर उठाया तो देखा कि आकाश बिलकुल स्वच्छ था तथा चाँद ठीक मेरे सर पर खिलखिला कर हँस रहा था।

    मेरे कुछ ही क़दम आगे नेकर नदी का पुल था। सड़क के आगे किनारे के मकानों के साये के कारण वहाँ थोड़ा अँधेरा सा छाया था; पर मैं जहाँ खड़ा था यहाँ से इतना साफ़ दिखलाई दे रहा था कि पुल के किनारे लगे लोहे के रेलिंग पर हाथ टेके कोई स्त्री नीचे नदी की मोर देख रही है। स्त्री के कोट और सर की टोपी का जितना भाग मैं देख सका था, उससे अंदाज़ यही लगा कि वह कोई युवती है। मैं उसके बिलकुल पास तक पहुँच गया; पर मेरी ओर मुड़ कर उसने देखा नहीं, शायद वह मेरे पाँवों की आहट नहीं सुन पाई थी। मैं ज्यों-ज्यों उसके पास पहुँचता जा रहा था, मेरी छाती की धड़कन बढ़ती जा रही थी। पता नहीं, क्यों? स्त्री किसी गहरे विचार में डूबी थी। मैं उससे जो सवाल करने वाला था, वह मेरे मन में ही दबा रह गया। मैं कुछ क़दम आगे बढ़ गया और उसी की तरह नीचे पानी की ओर देखने लगा। अगर वह गहरी नींद में सोती हो तो उसने इस बार अवश्य ही मेरे पाँवों की आहट सुनी होगी; पर इस बार भी उसने मेरी ओर नहीं देखा।

    मुझे ऐसी भी आशंका थी कि मेरे पाँवों की आहट पाकर अथवा पुल के रेलिंग के हिलने से कहीं वह मेरी ओर बिना देखे ही किसी दिशा में तेज़ी से क़दम रखती हुई चली जाए।

    हम लोग उसी तरह थोड़ी देर तक नीचे नदी की ओर देखते रहे। फिर साहस कर और तन कर खड़े हो उसकी ओर देखते हुए मैंने पूछा—

    माफ़ करेंगी। 'फिड-सड़क... मैं इतना ही कह पाया था कि वह ज़ारों से हँस पड़ी।

    आप हँस क्यों रही हैं?—मैंने पूछा।

    'आख़िर इस तरह पैंतरे बदलते हुए पूछने की क्या ज़रूरत थी? आप जैसे ही मेरे निकट आए, मुझसे यही सवाल क्यों नहीं किया?

    'लेकिन मैं आपसे परिचित तो नहीं था।'

    'और अब क्या परिचित हैं?

    'जी नहीं। परिचय से मेरा मतलब...'

    'और फिर फ़्रांसीसी ज़बान में क्यों?'

    'मैं आपकी भाषा नहीं जानता।'

    'आप क्या विदेशी हैं?'

    'जी हाँ, अभी कल ही आपके शहर में आया हूँ।'

    'चलिए, मुझे भी आपकी सड़क की ही ओर जाना है।'

    लड़की के बोलने की भगी मुझे पसंद आई। कुछ क़दम आगे बढ़ने पर उसने पूछा—

    'आपको यह शहर कैसा लगा? ...पर आप काँप क्यों रहे हैं?'

    मैं अब तक चकित होकर यही सोच रहा था कि यहाँ के लोग कैसे अच्छे हैं, इनमें कितनी सज्जनता है, एक अपरिचित से रास्ता पूछा और वह मुझे घर तक पहुँचाने चल रही है। इसकी बोली कितनी मीठी है!

    हम लोग बातें करते-करते आगे बढ़ते जा रहे थे। कभी-कभी उसका बायाँ हाथ मेरे दाहिने हाथ से इस प्रकार छू-छू जाता था कि मुझे जान पड़ता मानो वह मेरे हाथ में हाथ मिला कर चल रही है। कल्पना में ही एक विचित्र प्रकार की गुदगुदी सी हो उठी, मेरे रोएँ खड़े हो गए और मैं थोड़ा काँपता हुआ सा दिखाई देने लगा।

    'आप काँप रहे हैं! शायद आपको सर्दी लग रही है। चलिए, जल्दी-जल्दी घर चलें। उसने कहा।

    मैं चुप रहा। जब वह मुझे उस सड़क पर ले आई जिस पर मेरा मकान था तो मैंने कहा—

    'अब मैं पहले आपको आपके घर तक पहुँचा आऊँ, फिर अपने घर जाऊँगा।'

    वह हँसती हुई राज़ी हो गई और बोली—'मुझे आपसे कोई भय नहीं। आप मेरे घर तक मुझे पहुँचा सकते हैं। मैं यहाँ से दूर रहती भी नहीं हूँ, हम लोग पड़ोसी हैं। थोड़ी देर में उसका घर गया।

    'फिर कल', इतना कह, कस कर हाथ दबा, उसने मुझसे विदा ली।

    मैं सारी रात सड़क पर चकर लगाता रहा। घर लौटने की इच्छा नहीं हुई। मेरा हृदय उल्लास से भरा हुआ था और मेरे कानों में गूँज रहा था—

    'फिर कल!'

    उसके चेहरे पर ऐसी रौनक़ थी कि बहुत ही कम युवक उस पर आसक्त होने से अपने को रोक सकते थे। वह भी स्पष्ट ही अपनी उस आकर्षण-शक्ति से परिचित थी, इसलिए उसका चेहरा सारे संसार के ही युवकों को ललकार कर कहता हुआ जान पड़ता—

    'आज़मा लो! मेरे सामने टिक नहीं सकते।'

    इधर हाल में आकर मुझे उसका नाम भी मालूम हो गया था। उसका नाम था 'केटी', और जैसा कि प्रायः इस नाम की लड़कियाँ किया करती हैं, वह अपने बालों के बीच से मांग निकालती थी। जब वह हँसती थी तब उसके गालों के बीच छोटा हलका सा गढ़ा पड़ जाता था, जो एक प्रकार का केंद्र सा बन जाता और उसके चारों ओर रेखाएँ एक प्रकार के जाल का सा प्राकार बना लेतीं। सचमुच ही वे युवकों के फँसाने में जाल का काम देती होंगी।

    पिछले महीनों में मेरा उससे बहुत अच्छी तरह परिचय हो गया था, इसलिए वह मेरे नाम के बदले मुझे 'काले बाल वाले' और 'तू' कह कर पुकारा करती और मैं भी उसके वासंती रंग के ब्लाउज़ के कारण उसे 'वासंती' कहा करता था।

    गर्मी का मौसम आने पर हम लोग एक साथ ही नदी में नहाने जाया करते। वहाँ युवा-युवती एक ही घाट पर केवल स्नान ही नहीं, बल्कि जी भर कर जल-क्रीड़ा भी कर सकते हैं। उस मौसम में नदी-किनारों का दृश्य बिलकुल बैलेट-नृत्य के रूप में नाटक सा दीखता है, पर इसमें स्वाभाविकता रहने के कारण यह और भी अधिक मनोरम होता है। युवा-युक्ती एक साथ तैरते हुए नदी के दूसरी ओर जा पहुँचते हैं: कुछ लोग बीच में ही एक-दूसरे की ओर गेंद फेंकने लगते हैं; कई किनारे पर ही पानी में शीर्षासन करने लगती हैं। कुछ लोग एक दूसरे को डुबाने का प्रयत्न करते हैं। लड़कियाँ चिल्लाने लगती हैं—

    'शरम नहीं आती? गोते खा गई—कई घूँट-कई घूँट।'

    फिर वादा करती हैं—

    'खाने के बाद फिर यहाँ आएगे।'

    तीसरे पहर हम लोग नाव खेने निकलते। रास्ते में ही मेरी संगिनी मुझे नाविक कौशल दिखलाया करती और हमारी नाव शराबी की तरह झूमती-झामती, दाएँ-बाएँ होती हुई, कभी-कभी पीछे भी लौट कर पैंतरा सी काटती हुई, नाव बढ़ती। नाव के सामने ठीक नीचे देखने पर ऐसा मालूम पड़ता मानो पश्चिम की ओर का प्राकाश चुपके-चुपके वहाँ पर पानी में गोते लगा रहा हो—वह भी अपने पूरे साज बाज के साथ; सभी रंग के बादल तथा निर्मल आकाश भी उनके साथ रहते। उनके इरा लुक-छिप कर स्नान करते रहने में कोई कोई उन्हें दुलखता नज़र नहीं आता। हाँ, हमारे डाँड़ द्वारा पानी में छपछप करने को आवाज़ अवश्य ही सुनाई देती, जिससे थोड़ी देर के लिए वहाँ पर स्नान करता हुआ पश्चिम की ओर का भाकाश भी चंचल सा हो उठता; पर हमारी नाव के वहाँ से निकल जाते ही फिर पहले की भाँति शांति में मग्न हो स्नान करने लगता।

    मेरी संगिनी धीरे-धीरे गुनगुनाती जाती। मैं बहुत देर तक उसे छेड़ता; पर कभी-कभी जान-बूझ कर डाँड़ इस प्रकार पानी पर पटकता कि उसके छींटे उसके बदन पर जा पड़ते। वह 'तू' कह कर हँसने लगती।

    रास्तों पर रौशनी जल जाने पर हम शहर वापस लौटते, और बहुत रात बीते अपने घर।

    हमें यही अचरज होता कि आख़िर इतनी जल्दी सारा दिन कैसे बीत गया।

    एक बार उसने अपनी वर्षगाँठ के उपलक्ष में मुझे अपने घर आने का न्योता दिया। खाने के कमरे में पहुँच कर मैंने दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे घूम कर देखा और जो कोई भी दिखलाई दिया उसे सर झुका कर नमस्कार किया। केटी ने बारी-बारी से एक-एक के साथ मेरा इस तरह परिचय कराया—

    'हिमालय की तराई में रहने वाले, फ़क़ीरों के देश के, बाध-सिंहों से दोस्ती रखने वाले, वहाँ से यहाँ तक हाथी और ऊँट की सवारी पर यात्रा करने वाले, यहाँ के विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी महाशय...'

    लोग मुझसे हाथ मिलाते और अपना नाम गुनगुनाते हुए कहते—'बड़ी प्रसन्नता हुई।'

    लोगों ने कुछ विस्मय के साथ मेरी ओर देखा। उनमें से कई ऐसे थे जिन्होंने अपने जीवन में पहले-पहल, मेरे ही रूप में, एक भारतवासी देखा था। कुछ लोगों को थोड़ी निराशा भी हुई। केटी ने अपनी एक सहेली की पीठ थपथपाते हुए कहा—

    'क्यों इंगे—तू समझ रही थी कि भारतवासियों के हाथियों जैसे बड़े-बड़े दाँत होते होंगे और बाघों के जैसे चमड़े। इन्हें देख कर डर तो नहीं मालूम होता?'

    इंगे कुछ लज्जित सी हुई दीखने लगी। एक छोटी बच्ची बोल उठी—'ये तो हम लोगों-जैसे ही हैं।'

    सब लोग हँस पड़े।

    'लेकिन फ़क़ीरों की करामात तो ये अवश्य ही जानते होंगे।' एक बूढ़ी ने कहा। उनके लिए भारतवासी होने का यही प्रमाण था।

    'इनके सर पर हीरा लगी हुई पगड़ी तो है ही नहीं! ये भारतवासी नहीं हो सकते। स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की ने कहा। इस लड़की ने अपने जीवन में एक बार पहले एक भारतीय महाराजा को देखा था और उसीसे उसकी धारणा बँध गई थी कि प्रत्येक भारतवासी वैसा ही होता होगा। उस संध्या को भी वह इसी आशा से वहाँ पहुँची थी कि यदि वास्तव में आमंत्रित आगंतुक महाराजा हुआ तो वह अवश्य ही उसे भारत-भ्रमण के लिए साथ लेता जाएगा!

    जब मेरी ओर से कुतूहल शांत हुआ तब गपशप शुरू हुई। इसके लिए लोग कई टुकड़ियों में बँट गए। कोई किसी प्रोफ़ेसर की, कोई शराब की और दूसरा कोई आज की मिठाई की ही तारीफ़ करने लगा। कुछ दूसरे बिअर' और 'शैम्पेन' का गुण-दोष बखान करने लगे, और कुछ इस विवेचना में लग गए कि गाँव की औरतों के लिए बिना ऊँची एड़ी की जूतियाँ पहने किस प्रकार नाचना संभव हो पाता है।

    भोजन समाप्त कर जिस समय हम लोग बैठक-घर में पहुँचे, वहाँ ग्रामोफ़ोन बजने लगा था। लोग बराबरी के जोड़ों में विभक्त हो चुके थे और नाचना शुरू कर दिया था। नाच बड़े ही विचित्र ढंग का था। नाच के बदले यदि उसे मल्लयुद्ध, दौड़ा-दौड़ी अथवा 'मिलिट्री-मार्च नाम दिया जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। मैं चुपचाप खड़ा देख रहा था। केटी ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा—

    'आओ'

    'मुझे नाचना नहीं आता—'

    उसने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया था। अब और कोई चारा नहीं था। यह सोच कर कि दूसरे मेरा नाचना देख कर किस प्रकार हँसते होंगे मुझे कुछ झेप सी अवश्य लगी, पर वह अधिक देर तक नहीं रही। यूरोपीय लोगों के लिए उनके नाच का मतलब एक प्रकार के आमोद के सिवा और कुछ नहीं होता। यह एक सामाजिक आनंद सा है, जिसमें मनुष्य अपना अकेलापन बिलकुल ही भूल जाता है। नाच के वक़्त परिचित-अपरिचित का बिलकुल ही भेद नहीं रखा जाता।

    उस दिन सूर्योदय हो जाने पर घर लौटा।

    दो दिन तक लगातार बादल छाए रहने और पानी बरसते रहने के बाद आज फिर धूप निकली। बाहर खुली हवा में कहीं टहलने जा सकने के कारण तबीअत थोड़ी ऊबी सी थी। आज दूर तक ठहलने जाऊँगा, ऐसा सोच कर घर से निकला। कुछ क़दम आगे बढ़ने पर ही दीखने लगा कि जितनी दूरी तक टहलने जाना चाहता हूँ, अकेला नहीं जा सकूँगा। इधर कई महीनों से मेरी आदत सी पड़ गई थी कि अकेला बहुत ही कम टहलने जाया करता था। प्राकृतिक दृश्यों का सुख लूटते समय उसका बँटवारा करने के लिए किसी का अपने साथ रहना ज़रूरी लगता था—नहीं तो उस चहल-क़दमी में कुछ मज़ा ही नहीं पाता था।

    उसने अपनी वर्षगाँठ के उपलक्ष में जबसे मुझे न्योता देकर बुलाया था, उस दिन से उसके पास पहुँचने पर तो मेरे पाँव ही भारी हो आते थे और हृदय में ही किसी प्रकार की धड़कन सी शुरू होती थी। यदि यह अपने बाग़ में बैठी हुई मिलती तो उसके घर का दरवाज़ा तक खटखटा देता और यदि कोई विशेष बात करनी रहती तो केवल सलाम-अलेकुम करके ही चला पाता।

    साथ टहलने आने के लिए मुझे उससे दुबारा-तिबारा कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। मेरे पहली बार कहते ही उसने वासंती रंग के ब्लाउज़ पर एक जाकेट पहना और मेरे साथ टहलने के लिए चलने को निकल आई। हम जब कभी इस प्रकार टहलने निकला करते थे, हम किस दिशा में जाएँ'—इस विषय में वाद-विवाद करने के लिए दरवाज़े, चौराहे अथवा किसी अन्य स्थान पर रुकने की आदत नहीं थी। जिधर पाँव बढ़ते जाते, हम उधर ही चलते चले जाते। हममें से एक को जो दिशा पसंद पाती उसमें दूसरा आपत्ति नहीं करता था।

    महल बाग़ के पीछे छूट जाने पर हम लोगों ने सदर सड़क भी छोड़ दी और एक पगडंडी पकड़ कर ऊपर पहाड़ी की ओर बढ़ने लगे। उस पहाड़ी पर अंगूर की झाड़ें लगी थीं। उस पगडंडी, पहाड़ी तथा उन झाड़ियों का मेरी स्मृति में सदा के लिए स्थान बन गया है। उधर से होकर हम लोग कितनी ही बार निकल चुके थे और हर बार ही आनंद में मग्न रहते। बातें करते-करते कभी थकते नहीं। उन बे-सिर-पैर की बातों में भी सदा रस मिला करता और उनमें किसी-न-किसी प्रकार की नवीनता दीखती और हम ख़ूब जी खोल कर हँसा करते। नीचे धूप रहने पर भी कभी-कभी ऐसा होता कि पहाड़ी के ऊपर पहुँचने पर वहाँ हलका-हलका कुहरा सा छाया होता। पर उस कुहरे में भी कैसा अद्भुत सौंदर्य छिपा हुआ दीखता, कहते नहीं बनता। उसी हलके कुहरे में हमारा आनंदमय जीवन, हमारा भाग्य ढका हुआ सा जान पड़ता और सामने के रास्ते के संकीर्ण होते जाने पर भी उस पर चलते रहने से कभी जी नहीं ऊबता था।

    आज हम अपने उसी पूर्व-परिचित रास्ते से होकर गुज़र रहे थे; पर मेरी संगिनी का चेहरा पहले जैसा खिला हुआ नहीं था। आज ऊपर पहाड़ी पर भी धूप निकली हुई थी और चारों ओर बहुत दूर तक सब साफ़ दिखलाई देता था, फिर भी मेरी संगिनी के चेहरे पर उदासी सी छाई हुई थी।

    उससे उदासी का कारण पूछना मैंने अच्छा नहीं समझा।

    पर थोड़ी देर बाद केटी ही सहसा बोल उठी—

    एक बात कहूँ? बुरा तो नहीं मानोगे?'

    'क्यों, बुरा क्यों मानूँगा? ज़रूर कहो।'

    वह मेरा हाथ अपने हाथ में ले कहने लगी—

    'मुझे केवल इसी बात पर आश्चर्य होता है कि लोग मेरा दुखी चेहरा ही क्यों देखना चाहते हैं? मैंने कभी उनका कुछ बिगाड़ा हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता; फिर भी मालूम नहीं क्यों उन्होंने मुझे दुखी बनाने का निश्चय सा कर लिया है।'

    थोड़ी देर रुक कर वह फिर बोली

    'मेरे जन्म-दिन के दिन से कुछ लोग मुझसे बेतरह नाराज़ हो गए हैं। उन्होंने मेरा यहाँ पर रहना बिलकुल असंभव सा बना दिया है। उनके लिए तुम्हारा निमंत्रण सुखकर नहीं, बल्कि अत्यंत कष्टकारी सिद्ध हुआ है। वे मुझसे इसका बदला लेना चाहते हैं। मैं अपनी काकी के पास बर्लिन जा रही हूँ।

    उसने मुझे अपना पता दिया।

    'आख़िर इसका कारण क्या?' मैंने पूछा।

    उसने मेरा हाथ कस कर दबाते हुए कहा—मैंने जिस वर्ग में जन्म लेने का पाप किया है, वह किसी भारतीय को अपनी बराबरी का स्थान नहीं देना चाहता। वह नहीं चाहता कि मैं तुम्हें...वह नहीं चाहता कि हर मनुष्य एक दृष्टि से देखा जाए।

    वह आगे नहीं बोल सकी। हम दोनों बड़ी देर तक उसी तरह खड़े रहे। अंत में मैंने ख़ुद मौन भंग करते हुए कहा—

    'चलो, घर चलें।'

    उससे बिदा लेकर मैं पहले अपने घर लौट आना चाहता था, पर पता नहीं क्या मन में आया कि जिस जंगल के रास्ते से होकर उस दिन टहलने गया था, फिर उधर ही बढ़ने लगा।

    जंगल पार कर चुकने पर अंगूर के झाड़ों से ढकी पहाड़ी से होकर गुज़रने लगा। वहीं एक स्थान पर बैठ गया। चारों ओर पहले की ही तरह स्तब्धता छाई हुई थी, पर मुझे कुछ ऐसा भान हो रहा था मानो मेरे चारों तरफ़ जो कुछ भी झाड़ी, दर्र, जक़्ल आदि दीख रहे हैं—सबके कान खड़े हुए हैं और वे सब एकटक केवल मुझे ही देख रहे हैं। उनकी निगाह बचाने के लिए मैंने घुटनों में सिर छिपा लिपा।

    थोड़ी देर में ही मैं एक प्रकार का स्वप्न सा देखने लगा। किसी ने अपनी बाँहें मेरे गले में डाल दी। मैंने अपनी आँखें बंद कर ली थीं। मुझे उस सुख की वास्तविकता पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था; पर जाने क्यों मैं पूछ बैठा—

    'यह क्या?'

    'रोमैंस!' उत्तर मिला।

    'क्या यह सच है?'

    'नहीं, हमारा समाज नहीं चाहता कि हर मनुष्य एक दृष्टि से देखा जाए। तुम भारतीय...।'

    'फिर यह कैसा धोखा?' कहता हुआ मैं जाग सा पड़ा।

    नींद सी टूट गई। छाती धड़कने लगी थी। चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा; कोई भी दिखलाई नहीं दिया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : यूरोप के झकोरे में (पृष्ठ 130)
    • रचनाकार : सत्यनारायण
    • प्रकाशन : वर्त्तमान संसार, कलकत्ता
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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