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गोरांग-नीति का पहला अनुभव

gorang niti ka pahla anubhaw

भवानी दयाल संन्यासी

भवानी दयाल संन्यासी

गोरांग-नीति का पहला अनुभव

भवानी दयाल संन्यासी

और अधिकभवानी दयाल संन्यासी

    पहला परिच्छेद

    गोरांग-नीति का पहला अनुभव

    सन 1912 ई० में पहले-पहल गोरांग नीति का मुझे जो अनुभव हुआ, उसकी दुखद स्मृति आज भी हृदय को दग्ध कर देती है। दिसंबर की पहली तारीख़ को मैं बंबई से जहाज़ पर बैठकर मातृभूमि की गोद से विदा हुआ, और अफ़्रीक़ा के तटवर्ती कई घाटों का पानी पीता हुआ 22 तारीख़ को दरबन पहुँचा। मैं अकेला नहीं था, साथ में परिवार भी था—मेरे अनुज देवीदयाल थे, उनकी अर्धांगिनी थी, मेरी पत्नी जगरानीदेवी थीं और उनकी गोद में पाँच महीने का बच्चा रामदत्त भी था। इस प्रकार हम लोग छोटे-बड़े पाँच प्राणी थे।

    दरबन के मनमोहक बंदरगाह पर जहाज़ पहुँचते ही डॉक्टर, इमिग्रेशन-अफ़सर और पुलिस के दर्शन हुए। नस-नाड़ी की परीक्षा ली गई, पास-पोर्ट उगाहे गए और पुलिस का पक्का पहरा बैठ गया। बंदरगाह में जहाज़ कुछ देर से पहुँचा था, इसलिए इमिग्रेशन वालों को यात्रियों के भाग्य का फ़ैसला करने का अवकाश नहीं मिल सका। जहाज़ पर ही सबको रात काटनी पड़ी। दूसरे दिन सबेरे सब यात्री तो उतार दिए गए, किंतु हमारे परिवार को उस क़ैद से रिहाई मिली।

    मेरा और भाई देवीदयाल का जन्म दक्षिण अफ़्रीक़ा में ही हुआ था और हम लोग वहीं की भूमि पर बाल-क्रीड़ा के दिन व्यतीत कर चुके थे। किंतु इससे क्या? दक्षिण अफ़्रीक़ा के सत्ताधिकारियों की दृष्टि में हमारे जन्म-सिद्ध अधिकार का महत्व ही क्या? अंतर्राष्ट्रीय क़ानून (International Law) के अनुसार जिसका जहाँ जन्म हुआ हो, वहाँ से उसे निर्वासित करने का अधिकार संसार की किसी भी सरकार को नहीं है, पर गोरांग नीति के सामने विश्व मर्यादा की क्या गणना? दक्षिण अफ़्रीक़ा वाले सर्वतंत्र स्वतंत्र हैं और जो कुछ कर डालें, वही थोड़ा है।

    हमारे पास नेटाल का डोमीसाइल सार्टिफ़िकेट, लॉर्ड मिलनर का पीलो परमिट और ट्रान्सवाल का रजिस्ट्रेशन सार्टिफ़िकेट था।

    इनके अतिरिक्त और भी अनेक प्रामाणिक तथा महत्वपूर्ण काग़ज़ात थे, जिनसे हमारे वहाँ रहने का अधिकार सिद्ध होता था; किंतु दक्षिण अफ़्रीक़ा के अमलदारों की दृष्टि में वे सब रद्दी के टोकरे में ही जगह पाने योग्य थे। उस समय यात्रियों के भाग्य-विधाता इमिग्रेशन-अमलदार मि० कज़िन्स थे और आप भारतीयों के प्रति बुरे व्यवहार के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हो रहे थे। आपकी कृपा से हमें भी चार दिन तक जहाज़ पर बंदी रहना पड़ा। वे चार दिन कितने दुःख और कितनी उद्विग्नता से कटे थे, उसका स्मरण कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    बंदरगाह पर जहाज़ था। हित-मित्र, सगे-स्नेही उसके पास ही खड़े थे; लेकिन क्या मजाल कि हम उनसे मिलकर बातचीत भी कर सकें। दूर से ही एक-दूसरे को देखते और आपस में आँसुओं से अभिवादन कर लेते थे। उसी जहाज़ से हमें देश वापिस जाने की आज्ञा मिल चुकी थी, इसलिए चिंता, उद्विग्नता और व्याकुलता की कोई सीमा नहीं थी। यदि केवल हम दोनों भाई होते, तो साहस का बॉध टूटने पाता; किंतु स्त्रियों और बच्चों के साथ होने के कारण रोम-रोम में दुःसह दुःख व्याप रहा था।

    जब हमारे ही जन्म-सिद्ध अधिकार पर कुठार चला दिया गया, तब भारत में जन्म पाने वाली स्त्रियों और बच्चों की क्या विसात? महात्मा गाँधी के आदेशानुसार मैंने ससराम के योरोपियन मैजिस्ट्रेट से शादी की सनद ले ली थी और उसे इमिग्रेशन अमलदार की ख़िदमत में पेश भी किया था, किंतु उसमें त्रुटि यह रह गई थी कि उस पर महिलाओं के अँगूठे के निशान नहीं थे। महिलाएँ भारतीय और उस पर उनके अँगूठे की छाप नदारद; फिर ऐसी सनद भी कहीं जायज़ हो सकती है? जब हमारे जन्म-सिद्ध अधिकार ही रद; भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक प्रमाण-पत्र भी नाजायज़, तब भला सनद की क्या गिनती, चाहे वह एक योरोपियन मैजिस्ट्रेट ही की लिखी हुई क्यों हो और चाहे उस पर एक भारतीय अदालत की मुहर ही क्यों लग चुकी हो।

    इधर तो हमारी दुर्गति और दुश्चिंता की सीमा नहीं थी और प्रतिक्षण एक युग की नाईं बीत रहा था; उधर हमारे मित्रों, हितैषियों और शुभचिंतकों पर जो कुछ आपत्तियाँ छाई हुई थीं, उनकी करुण-कहानी सुप्रसिद्ध भारत-हितैषी मि० हेनरी एस० एल० पोलक साहब की उस चिट्ठी में पाई जाती है, जो उन्होंने दक्षिण अफ़्रीक़ा के गृह-सचिव (Minister of Interior) को लिखी थी, और जो 4 जनवरी के 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशित हुई थी। उसका आशय यहाँ दिया जाता है—श्रीमान्! आप शायद यह जानते होंगे कि मैं ट्रान्सवाल सुप्रीम कोर्ट का अटर्नी और 'इंडियन ओपिनियन' का संपादक हूँ। हाल ही में दरबन आने पर श्री० गाँधी (महात्मा जी) ने दो भारतीय युवक—श्री० भवानीदयाल और श्री० देवीदयाल का मामला मुझे सौंपा। इनकी स्त्रियाँ भी साथ हैं और उनमें से एक की गोद में पाँच मास का एक बच्चा भी है। ये लोग 22 तारीख़ को 'पालम कोटा' जहाज़ से दरबन पहुँचे। दयाल बंधुओं का जन्म ट्रान्सवाल में हुआ है, और नैटाल में इनकी स्थायी संपत्ति भी है। इनसे मिलने के वास्ते मैं जहाज़ पर गया, और मुझे मालूम हुआ कि इमिग्रेशन-अमलदार मि० नजिन्त इनके संबंध में अगले दिन कुछ फ़ैसला करेंगे।

    दूसरे दिन 23 तारीख़ को मि० कजिन्स दिन भर अदालत की कार्रवाई में व्यस्त रहे, और बहुत देर में ऑफ़िस लौटे। उस दिन तो कोई फ़ैसला नहीं हो सका; किंतु मैंने उसी दिन ट्रान्सवात के एक जवाबदार और प्रतिष्टित सज्जन का लिखित साक्षी-पत्र उनकी सेवा में उपस्थित किया, जिसमें कहा गया था कि वे व्यक्तिगत रूप से प्रार्थियों को जानते हैं और यह भी जानते हैं कि दोनों प्रार्थी 31 मई 1902 ई० के दिन ट्रान्सवाल में मौजूद थे। अतएव सन् 1908 ई० के 36 वें क़ानून के अनुसार प्रार्थियों का ट्रान्सवात में प्रवेश करने का दावा उचित और न्याय-संगत है। 24 तारीख़ को मैं फिर मि० कज़िन्स के पास पहुँचा और मुझसे कहा गया कि उन्होंने दयाल-बंधुओं को दान्तवाल में प्रवेश करने के लिए प्रार्थना-पत्र भेजने के संबंध में कोई विचार नहीं किया है और जब तक ट्रान्सवाल के एशियाटिक रजिस्ट्रार की अनुमति मिल जाएगी, तब तक वे इस विषय पर कोई भी कार्यवाही करने में असमर्थ हैं। अंतिम घड़ी में मिः कजिन्स ने प्रार्थियों को बड़े ही असमंजस में डाल दिया। ख़ैर, मैंने तुरंत रजिस्ट्रार के पास तार भेजा, और शाम तक जवाब आगया कि वे इस प्रकार के प्रार्थना-पत्र की क़दर नहीं कर सकते। इस परिस्थिति मैंने मि० कज़िन्स से पुनः निवेदन किया कि ऋतु बहुत ख़राब हो गई है, और जहाज़ पर कोयला लदने वाला है, अतएव दयाल बंधुओं को मामूली ज़मानत तथा मेरी व्यक्तिगत जवाबदारी पर उतरने दिया जाए, किंतु उन्होंने ऐसा करने से एकबारगी इंकार कर दिया।

    रजिस्ट्रार से अधिक पत्र-व्यवहार करने के लिए यथेष्ट समय नहीं था, इसलिए मैंने मि० गुड्रिक और मि० लौटन से अनुरोध किया कि वे दयाल-बंधुओं के संबंध में मि० कज़िन्स के निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की आज्ञाप्राप्त करने की व्यवस्था करें। फिर इसी बात की सूचना देकर मैंने मि० कज़िन्स से पूछा कि वे क्रिसमस के दिन कहाँ मिलेंगे, ताकि उनके पास अदालत की आज्ञा पहुँचाई जा सके। जवाब में उन्होंने कहा कि वे उस दिन कहाँ रहेंगे, यह सर्वथा अनिश्चित है। इस उत्तर का मैंने इसलिए तीव्र प्रतिवाद किया कि प्रार्थियों की न्यायपूर्ण स्वाधीनता उनके व्यक्तिगत कार्यों की मुहताज होनी चाहिए। इस पर मुझे प्रत्युत्तर मिला कि वे मुझसे अधिक कुछ नहीं कह सकते।

    क्रिसमस-दिवस के प्रातः मेरीत्सबर्ग के मि० जे० एस० टेथम, के० सी० ने जस्टिस ब्रूम के मकान पर पहुँचकर यह आज्ञा प्राप्त की कि प्रार्थियों को सौ पाउंड की ज़मानत पर उतरने दिया जाए। मेरोत्सबर्ग से ख़बर मिलने पर मैंने अपने संदेश-वाहक द्वारा मि० टेथम का संदेश और दरबन के महान् प्रतिभाशाली और परम प्रतिष्ठित व्यापारी पारसी रुस्तमजी का सौ पाउंड का चेक ज़मानत रूप में मि० कज़िन्स के पास भेजा। पहले तो उन्होंने मेरे संदेश-वाहक का बहुत सा समय निष्प्रयोजन ही नष्ट किया, और फिर मेरा पत्र पढ़कर भी उसे लेने से साफ़ इंकार कर दिया तथा चेक भी लौटा दिया। मैं स्वयं नहीं जा सका था, क्योंकि इस मामले की दौड़-धूप से मेरे घुटने पर सख़्त चोट लग गई थी। इस बात की सूचना पाकर फिर मैं स्वयं ज़मानत की नक़द रक़म साथ लेकर मि० कज़िन्स के बँगले पर पहुँचा। यद्यपि मैं मि० टेथम के एजेंट के तौर पर काम कर रहा था, तो भी मि० कज़िन्स ने बड़े कड़े और रूखे स्वर में कहा कि मुझे उन पर अदालत की आज्ञा तामील करने का कोई हक़ नहीं है। वे ज़मानत की नक़द रक़म लेने से भी साफ़ मुकर गए और मुझे अगले दिन 26 तारीख़ को नौ बजे फिर बुलाया।

    बॉक्सिंग-दिन के प्रातः ठीक समय पर मैं इस आशा से वहाँ पहुँचा कि प्रार्थियों को तत्क्षण छुट्टी मिल जाएगी। आधे घंटे तक प्रतीक्षा करने के बाद मि० कज़िन्स मेरे पास आए और कहने लगे कि मि० टेथम का तार उन्हें भी मिल गया है, किंतु अदालत की आज्ञा में ज़मानत के विषय पर कोई स्पष्टीकरण नहीं है। उनकी समझ में आज्ञा का आदेश यह है कि प्रार्थी एक बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर करके उतरें, पहरे के अंदर नज़रबंद रहें और जब तक ट्रान्सवाल के प्रवेशाधिकार के संबंध में कोई निर्णय हो जाए, तब तक ज़मानत की रक़म से अपना ख़र्च चलाएँ। मैंने मि० कज़िन्स को बतलाया कि यह शर्त बिलकुल अनावश्यक है। दयाल-बंधु प्रतिष्ठित पुरुष है, और मैं ख़ुद भी व्यक्तिगत रूप से उनको निश्चित समय पर हाज़िर कर देने के लिए ज़िम्मेदार होता हूँ। परंतु मेरी बातों पर विचार करने से उन्होने साफ़ इंकार कर दिया। मैंने पुन: निवेदन किया कि उनका यह कार्य ग़ैर-क़ानूनी है, और उच्च अदालत की आज्ञा के विपरीत है। यह बात मैं दयाल बंधुओं को भी समझा देना चाहता हूँ। इस पर मि० कज़िन्स ने कहा कि मेरी जो ख़ुशी हो, प्रार्थियों को समझा दूँ किंतु वे तब तक उतरने की इजाज़त नहीं देंगे, जब तक कि प्रार्थी बंदी-पत्र पर दस्तख़त करें या जब तक कि प्रार्थियों को बिना किसी शर्त के उतारने देने के लिए अदालत की आज्ञा ख़ुद उन्हें मिल जाए।

    मैंने प्रार्थियों को सब बातें समझाकर यह सलाह दी कि वे बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर करें। यह बात उन्होंने मान ली। फिर प्रार्थियों ने मेरे आदेश से अदालत की आज्ञानुसार ज़मानत की रक़म मि० कज़िन्स के सामने रख दी, लेकिन बंदी-पत्र पर प्रार्थियों के हस्ताक्षर किए बिना उन्होंने ज़मानत की रक़म छूना अस्वीकार कर दिया। जहाज़ के कप्तान एक मेज़ पर पड़ी हुई ज़मानत की रक़म उठाकर मि० कज़िन्स के हवाले करने की चेष्टा करने लगे। इस पर मि० कज़िन्स बोल उठे कि कप्तान ने अपनी निजी ज़िम्मेदारी पर रक़म में हाथ लगाया है।

    जाँच करने पर मुझे यह भी मालूम हुआ कि मि० कज़िन्स ने जहाज़ के कप्तान को अदालत की आज्ञा के संबंध में कोई सूचना नहीं दी है। मैंने तुरंत कप्तान को सब बातें समझा दी, और ताकीद कर दी कि यदि प्रार्थियों को नेटाल के किनारे से हटाया गया, तो अदालत की आज्ञा भंग करने की जवाबदारी उन पर और मि० कज़िन्स पर होगी। जहाज़ खुलने का वक़्त हो गया था। मि० कज़िन्स ने जहाज़ के कप्तान से कहा कि जब तक जज की विशेष आज्ञा प्राप्त हो जाए, तब तक जहाज़ ज़रूर रुका रहेगा, और इस विलंब का मुख्य कारण मेरी वह सम्मति है, जो मैंने दयाल-बंधुओं को दी है। मैंने उत्तर में निवेदन किया कि मैं वहाँ उनकी ग़ैर-क़ानूनी कार्यवाही का प्रतिवाद करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ।

    इस पर मि० कज़िन्स बेतरह बिगड़ उठे, और प्रार्थियों को यह भय दिखाकर कि बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर किए बिना कदापि नहीं उतरने दिया जाएगा, मुझे एक अफ़सर के पहरे के अंदर उसी क्षण जहाज़ से चले जाने की अपमानजनक इजाज़त दी। मैं वहाँ से चुपचाप चला गया, क्योंकि मैं टेलीफ़ोन द्वारा अदालत की आज्ञा का स्पष्टीकरण कराके इस परिस्थिति का अंत लाने के वास्ते विशेष रूप से चिंतित था। मेरे चले जाने पर मि० कज़िन्स ने पुनः प्रार्थियों को धमकाना शुरू किया कि बंदी-पत्र पर सही बनाए बिना उनको तथा उनकी युवती पत्नियों को देश लौट जाना ही पड़ेगा। इस भय से भीत होकर प्रार्थियों ने बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर बना दिए और जहाज़ से उतर कर पहरे के अंदर इमिग्रेशन-ऑफ़िस पहुँचे।

    इधर मैंने टेलीफ़ोन द्वारा मेरीत्सबर्ग के मि० टेथम को सब समाचार सुनाया, और यह भी अनुरोध किया कि वे जज से मिल कर अदालत की आज्ञा का स्पष्टीकरण कराएँ। जैसा कि मेरा विश्वास था, जज ने तुरंत कहा कि अदालत की आज्ञा का वह अर्थ और भावार्थ नहीं है, जो इमिग्रेशन-अमलदार ने समझा है। वहाँ से हुक्म आने पर मि० कज़िन्स ने प्रार्थियों को चौदह दिन की मुलाक़ाती सनद (Visiting Pass) देकर रिहा कर दिया।

    27 तारीख़ को मैंने मि० कज़िन्स से पूछा कि वे ट्रान्सवाल के एशियाटिक-रजिस्ट्रार के एजेंट की हैसियत से प्रार्थियों की अर्ज़ी क़ुबूल करके वहाँ भेज दें, लेकिन उन्होंने यह बात भी मंज़ूर की। विवश होकर प्रार्थियों को स्वयं अपनी अर्ज़ी सीधे रजिस्ट्रार के पास भेजनी पड़ी।

    इसके बाद मि० हेनरी पोलक ने इमिग्रेशन-अमलदार की इन कार्यवाहियों को अनेक प्रमाणों और युक्तियों से ग़ैर-क़ानूनी अन्याययुक्त और दुष्टतापूर्ण सिद्ध करके गृह-सचिव से विशेष विचार करने के लिए प्रार्थना की। मि० पोलक का पत्र बहुत बड़ा है और क़ानूनी दलीलों से भरा हुआ है। मैंने उसमें से केवल रोचक घटनाओं का ही आशय ऊपर दिया है, जिससे पाठक समझ जाएँ कि मेरे जीवन के वे चार दिन कितने स्मरणीय हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दक्षिण-अफ्रीका के मेरे अनुभव (पृष्ठ 1)
    • रचनाकार : स्वामी भवानीदयाल सन्यासी
    • प्रकाशन : चाँद कार्यालय, इलाहाबाद

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