कार्यालयी लेखन और प्रक्रिया
karyalyi lekhan aur prakriya
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
जवाब देना है किसी ऐरे-ग़ैरे को नहीं बल्कि मुझे समंदर को जवाब देना है।
—वेणु गोपाल हिंदी कवि
आपको किसी आम सरकारी दफ़्तर में जाने का अवसर अवश्य मिला होगा जहाँ आपने काग़ज़ों और फ़ाइलों के ढेर देखे होंगे। ये फ़ाइलें दफ़्तरों के कामकाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सरकारी कामकाज की गाड़ी फ़ाइलों के पहियों पर ही दौड़ती है।
किसी भी विषय पर विचार करने और उस पर निर्णय लेने के लिए उस विषय से संबंधित एक फ़ाइल होती है। उस विषय से संबंधित जो प्रस्ताव या पत्र बाहरी व्यक्तियों या दूसरे कार्यालयों से प्राप्त होते हैं उन्हें फ़ाइल की दाहिनी तरफ़ रखा जाता है। किसी प्रस्ताव या विषय पर विचार के लिए जो टिप्पणियाँ लिखी जाती हैं या मंतव्य प्रकट किए जाते हैं वे फ़ाइल की बाईं तरफ़ लगे पृष्ठों पर होते हैं।
जैसा कि अभी ऊपर बताया गया, फ़ाइल के बाईं तरफ़ का हिस्सा टिप्पण के लिए और दाहिनी तरफ़ का हिस्सा पत्र व्यवहार को संजोकर रखने के लिए होता है।
सरकारी कार्यालयों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इन पत्रों को कई श्रेणियों में बाँट दिया गया है। मसलन, कई पत्र सूचनाएँ माँगने या भेजने के लिए लिखे जाते हैं। कुछ पत्रों द्वारा मुख्यालय या बड़े अधिकारी अपने अधीनस्थ कार्यालयों या अधीनस्थ कर्मचारियों को आदेश भेजते हैं। कुछ पत्र अख़बारों को विभागीय गतिविधियों की जानकारी देने के लिए भेजे जाते हैं। हर श्रेणी के पत्र के लिए एक विशेष स्वरूप निर्धारित कर दिया गया है। इस पाठ में हम इन्हीं अलग-अलग स्वरूपों की चर्चा करेंगे।
इन स्वरूपों की जानकारी प्राप्त करने के लिए हम किसी कार्यालय में चलते हैं। आप इसका नाम जानना चाहेंगे? अजी नाम में क्या रखा है। चलिए हम इसका नाम रखते हैं अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान। यह है संस्थान का मुख्यालय जिसे महानिदेशालय के नाम से जाना जाता है। देशभर में फैले तमाम क्षेत्रीय कार्यालय इसी के नियंत्रण में आते हैं। आइए हम इसके अंदर चलें।
यह है महानिदेशालय का प्रशासन विभाग। यहाँ एक अनुभाग अधिकारी शंकरन जी पूरी गंभीरता से किसी मसले को सुलझाने में व्यस्त हैं। सामने एक पत्र पड़ा है जो मसले का केंद्रबिंदु है। पत्र मुंबई के क्षेत्रीय कार्यालय से आया हुआ है और इस प्रकार है—
औपचारिक पत्र (फ़ॉर्मल लेटर)
अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
क्षेत्रीय कार्यालय : मुंबई
मुंबई, 15 मार्च 2005
फा. संख्याः मुंबई/का./5/2005/206 e
सेवा में,
महानिदेशक
अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान साहित्य एव तिलक मार्ग, नयी दिल्ली-110001
विषयः मोबाइल फ़ोन पर होने वाले व्यय के लिए निर्धारित सीमा
महोदय,
कृपया अपने परिपत्र का स्मरण करें जिसकी संख्या 24/13/प्र./2004 थी, जो 23 नवंबर, 2004 को जारी किया गया था। परिपत्र में हिदायत दी गई थी कि मोबाइल फ़ोन पर महीने में दो हजार से अधिक ख़र्च नहीं किया जाना चाहिए। इस संबंध में निवेदन है कि मुंबई स्थित क्षेत्रीय कार्यालय की गतिविधियाँ अत्यंत व्यापक हैं। देश के तमाम फ़िल्म और टेलीविज़न निर्माता मुंबई में ही हैं। इनकी वजह से विभिन्न विधाओं के कलाकार बड़ी संख्या में मुंबई में ही निवास करते हैं। साथ ही निदेशक को देश के विभिन्न नगरों में स्थित कार्यालयों एवं क्षेत्रीय कार्यालय से भी निरंतर संपर्क में रहना पड़ता है। साथ ही संस्थान की गतिविधियों के लिए प्रायोजक जुटाने के सिलसिले में देश के विभिन्न औद्योगिक संगठनों से भी लगातार बात करनी पड़ती है।
ऊपर बताए तथ्यों की वजह से दो हज़ार रुपए मासिक की सीमा मुंबई कार्यालय के लिए कम पड़ रही है। पिछले छह महीनों से यह देखा जा रहा है कि मासिक खर्च छह हज़ार रुपए के आसपास आता है।
अतः निवेदन है कि मुंबई कार्यालय की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए मोबाइल फ़ोन पर मासिक ख़र्च की सीमा बढ़ाकर छह हज़ार रुपए कर दी जाए।
भवदीय
राकेश
(राकेश कुमार)
निदेशक
ध्यान देने की बातें :-
• सरकारी पत्र औपचारिक पत्र की श्रेणी में आते हैं।
• प्रायः ये पत्र एक कार्यालय, विभाग अथवा मंत्रालय से दूसरे कार्यालय, विभाग या मंत्रालय को लिखे जाते हैं।
• पत्र के शीर्ष पर कार्यालय, विभाग या मंत्रालय का नाम व पता लिखा जाता है।
• पत्र के बाईं तरफ फ़ाइल संख्या लिखी जाती है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि पत्र किस विभाग द्वारा किस विषय के तहत कब लिखा जा रहा है।
• जिसे पत्र लिखा जा रहा है उसका नाम, पता आदि बाईं तरफ़ लिखा जाता है। कई बार अधिकारी का नाम भी दिया जाता है।
• ‘सेवा में’ का प्रयोग धीरे-धीरे कम हो रहा है।
• ‘विषय’ शीर्षक के अंतर्गत संक्षेप में यह लिखा जाता है कि पत्र किस प्रयोजन के लिए या किस संदर्भ में लिखा जा रहा है।
• विषय के बाद बाईं तरफ़ ‘महोदय'’ संबोधन लिखा जाता है।
• पत्र की भाषा सरल एवं सहज होनी चाहिए। क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।
• अनेक बार सटीक अर्थ प्रेषित करने के लिए प्रशासनिक शब्दावली का प्रयोग करना ही उचित होता है।
• इस पत्र के बाईं ओर प्रेषक का पता और तारीख़ दी जाती है।
• पत्र के अंत में 'भवदीय' शब्द का प्रयोग अधोलेख के रूप में होता है।
• भवदीय के नीचे पत्र भेजने वाले के हस्ताक्षर होते हैं। हस्ताक्षर के नीचे कोष्ठक में पत्र लिखने वाले का नाम मुद्रित होता है। नाम के नीचे पदनाम लिखा जाता है।
शंकरन जी ने पत्र को पढ़कर बुरा-सा मुँह बनाया। वे पत्र में बताए गए कारणों से कतई सहमत नहीं थे। उन्हें लग रहा था कि ख़र्च की सीमा को बढ़ाना फ़िजूलख़र्ची को दावत देना है। अगर एक जगह ढील दे दी जाए तो ऐसी दस माँगें लेकर लोग सामने आ जाते हैं। लेकिन यह तो उनकी व्यक्तिगत राय थी।
दफ़्तर का एक अपना तरीक़ा होता है और निर्णय में अन्य दूसरे लोगों की भी भूमिका होती है। लिहाज़ा उन्होंने वह पत्र अपने सहायक ज्ञान प्रकाश जी को इस निर्देश के साथ भेजा कि इस पर आवश्यक कार्रवाई की जाए।
ज्ञान प्रकाश जी खुर्राट सहायकों में से एक हैं। विभाग में लंबे अर्से से हैं और इस वजह से वे विभागीय ज्ञान के भंडार हैं। उन्हें कार्यालय नियमावली की चलती-फिरती लाइब्रेरी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
ज्ञान प्रकाश जी ने तुरंत वह फ़ाइल निकाली जो मोबाइल फ़ोन के ख़र्च में कटौती से संबंधित थी। फ़ाइल और इसमें लगे परिपत्र उन्हें मुखाग्र थे। फिर भी उन्होंने उन पर एक नज़र डालने के बाद फ़ाइल पर कुछ इस प्रकार की टिप्पणी लिखी—
ध्यान देने की बातें :-
• किसी भी विचाराधीन पत्र अथवा प्रकरण को निपटाने के लिए उस पर जो राय, मंतव्य, आदेश अथवा निर्देश दिया जाता है वह टिप्पणी कहलाती है।
• टिप्पणी शब्द अँग्रेज़ी के नोटिंग शब्द के अर्थ में प्रयुक्त होता है। टिप्पणी लिखने की प्रक्रिया को हम टिप्पण यानी नोटिंग कहते हैं।
• टिप्पणी का उद्देश्य उन तथ्यों को स्पष्ट तथा तर्कसंगत रूप से प्रस्तुत करना है जिन पर निर्णय लिया जाना है। साथ ही उन बातों की और भी संकेत करना है जिनके आधार पर उक्त निर्णय संभवतः लिया जा सकता है।
• टिप्पण का उद्देश्य मामलों को नियमानुसार निपटाना है।
• टिप्पण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं सहायक स्तर पर टिप्पण तथा अधिकारी स्तर पर टिप्पण।
• कार्यालय में टिप्पण कार्य अधिकतर सहायक स्तर पर होता है।
• इसे आरंभिक टिप्पण या मुख्य टिप्पण कहते हैं जिसमें सहायक विचाराधीन मामले का संक्षिप्त ब्योरा देते हुए उसका विवेचन करता है।
• इस प्रकार के टिप्पण में सबसे पहले मूल पत्र या आवती में दिए गए विवरण या तथ्य का सार दिया जाता है। फिर निहित प्रस्ताव की व्याख्या की जाती है और संबंधित नियमों-विनियमों का हवाला देते हुए अपनी राय दो जाती है।
• टिप्पणी लिखने के बाद सहायक अधिकारी दाहिनी ओर अपने हस्ताक्षर कर उसे अपने अधिकारी के सम्मुख प्रस्तुत करता है। जिस अधिकारी को प्रस्तुत किया जाना है उसका पदनाम वहाँ बाई ओर लिखा जाता है।
• टिप्पणी लिखने से पूर्व सहायक के लिए संबंधित विषय को समझना बहुत आवश्यक होता है।
• टिप्पणी अपने आप में पूर्ण एवं स्पष्ट होनी चाहिए। इसमें असली मुद्दे पर अधिक बल देना चाहिए।
• टिप्पणी संक्षिप्त, विषय-संगत, तर्कसंगत और क्रमबद्ध होनी चाहिए।
• टिप्पणकार को अपने विचार संतुलित एवं शिष्ट भाषा में देने चाहिए। इसमें व्यक्तिगत आक्षेप, उपदेश या पूर्वाग्रहों के लिए कोई स्थान नहीं होता।
• टिप्पणी सदैव अन्य पुरुष में लिखी जाती है।
श्री ज्ञान प्रकाश जी के ज्ञान से प्रकाशित होने के बाद फ़ाइल अब शंकरन जी के पास आ गई। वे तो पहले से ही भरे बैठे थे।
ज्ञान प्रकाश जी की टिप्पणी को पढ़ने के बाद उनकी बाछें खिल गई। ज्ञान प्रकाश जी की मुख्य टिप्पणी के नीचे उन्होंने अपनी आनुषंगिक टिप्पणी कुछ इस प्रकार से दर्ज़ की—
ध्यान देने की बातें :-
• सहायक, आरंभिक या मुख्य टिप्पणी को जब संबंधित अधिकारी के पास भेजता है तो वह अधिकारी टिप्पणी पड़ने के बाद नीचे मंतव्य लिखता है। इसे आनुषंगिक टिप्पणी कहते हैं और यह क्रिया आनुषंगिक टिप्पण कहलाती है।
• अगर अधिकारी अपने अधीनस्थ की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत है तो इस प्रकार की टिप्पणी को आवश्यकता नहीं होती। अधिकारी अधीनस्थ की टिप्पणी के नीचे या तो केवल हस्ताक्षर भर करता है या ‘मैं उपर्युक्त टिप्पणी से सहमत हूँ’, लिखता है।
• अगर अधिकारी अपने अधीनस्थ की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत है मगर उसे और सशक्त एवं तर्कसंगत बनाने के लिए अपनी ओर से भी कुछ जोड़ना चाहता है तो वह अपना मंतव्य आनुषंगिक टिप्पणी के रूप में दर्ज़ कर देता है।
• यदि अधिकारी पूर्णतः असहमत है या आंशिक रूप से सहमत है तो वह अपने तर्क और कारणों के साथ अपनी आनुषंगिक टिप्पणी करता है।
• अधिकारी को अधीनस्थ की टिप्पणी को काटने, बदलने या हटाने का अधिकार नहीं है। वह केवल अपनी सहमति, आंशिक सहमति या असहमति व्यक्त कर सकता है।
• अनुषंगिक टिप्पणी प्रायः संक्षिप्त होती है लेकिन असहमति की स्थिति में कई बार इस प्रकार की टिप्पणी बड़ी भी हो सकती है।
अब फ़ाइल एक और सीढ़ी चढ़कर राजकुमार शर्मा जी की मेज़ पर आ गई जो उपनिदेशक (प्रशासन) हैं। कामकाज को वे बड़ी ही दक्षता और फुर्ती से निपटाते हैं. वे नियमों के पाबंद हैं और उसमें कोताही उन्हें पसंद नहीं। जब भी कोई फ़ाइल उन तक पहुँचती है, तो वे उसमें किसी ग़ोताख़ोर की तरह डुबकी लगाते हैं और मोती निकाल लाते हैं। इस फ़ाइल की गहराई में भी वे कुछ इसी प्रकार उतरे। विचार के जो मोती निकले उसे उन्होंने फ़ाइल पर इस प्रकार जोड़ा—
फ़ाइल अब गुफ़रान अहमद, उप महानिदेशक (प्रशासन) के पाले में थी। उन्होंने फ़ाइल को पढ़ने के बाद सहमति स्वरूप हस्ताक्षर कर दिए। फ़ाइल का अगला पड़ाव महानिदेशक के पास था। मणिकांत मंडल, महानिदेशक थे। अपनी पूरी व्यस्तता के बावजूद वे हर फ़ाइल पूरी गहराई से पढ़ते थे। दफ़्तर में दस घंटे बैठने पर भी काम का बोझ बना रहता था और जब वे देर रात घर लौटते तो फ़ाइलों का गट्टर साथ-साथ जाता। घर आई फ़ाइलें उनकी पत्नी को सौत की तरह लगती मगर वह भी थक-हारकर समझौता कर चुकी थी।
मंडल जी एक अनुभवी और सुलझे इंसान थे। फ़ाइल पढ़कर उन्होंने महसूस किया कि नीचे के अधिकारियों ने नियमानुसार सही टिप्पणी लिखी है। लेकिन वे मुंबई कार्यालय के निदेशक के पक्ष से भी सहमत थे। दौरे पर मुंबई आते-जाते उन्हें वहाँ की परिस्थितियों का ज्ञान था। उन्होंने सोच-विचार के बाद अपनी टिप्पणी इस प्रकार लिखी।
उधर अपने पत्र का कोई जवाब न पा कर मुंबई केंद्र के निदेशक राकेश कुमार जी चिंता में पड़ गए। उन्होंने महानिदेशालय को अपनी पहली चिट्ठी की याद दिलाने के लिए स्मरण पत्र या अनुस्मारक (रिमाइंडर) भेजा जो इस प्रकार था—
ध्यान देने की बातें :-
• जब किसी पत्र, ज्ञापन इत्यादि क उत्तर समय पर आया नहीं होता तो याद दिलाने के लिए ‘अनुस्मारक’ भेजा जाता है। इसे 'स्मरण पत्र' भी कहते हैं।
• इसका प्रारूप औपचारिक पत्र की तरह ही होता है मगर आकार छोटा होता है।
• अनुस्मारक के शुरू में पूर्व पत्र का हवाला दिया जाता है।
• जब एक से अधिक अनुस्मारक भेजे जाते हैं, तो पहले अनुस्मारक को ‘अनुस्मारक-1, दूसरे को ‘अनुस्मारक-2', तीसरे को ‘अनुस्मारक-3’ इत्यादि लिखते हैं।
महानिदेशक ने इस अनुस्मारक को गुफ़रान अहमद, उपमहानिदेशक के पास इस हिदायत के साथ भेजा कि मुंबई कार्यालय के निदेशक को एक अंतरिम उत्तर भेज दिया जाए।
गुफ़रान अहमद के पास फ़ाइल भी लौट चुकी थी। महानिदेशक ने निचले अधिकारियों द्वारा की गई अनुशंसा को बिलकुल ही उलट दिया था। यह बात एक क्षण के लिए गुफ़रान अहमद
को चुभी तो ज़रूर, लेकिन अनुभव ने उन्हें अच्छी तरह सिखा दिया था कि कार्यालय के दैनिक कार्यव्यापार में ऐसी उलट-फेर होती ही रहती है और इसे खेल भावना से ही लिया जाना चाहिए। उन्होंने तय किया कि बोर्ड की स्वीकृति के लिए भेजी जाने वाली टिप्पणी वे स्वयं ही तैयार करेंगे और राकेश कुमार को अंतरिम उत्तर भी ख़ुद ही भेजेंगे। मुंबई केंद्र के निदेशक राकेश कुमार को उन्होंने एक अंतरिम उत्तर अर्धसरकारी पत्र (डी.ओ. लेटर) के रूप में कुछ इस प्रकार भेजा—
ध्यान देने की बातें :-
• औपचारिक-पत्र के विपरीत अर्ध-सरकारी पत्र में अनौपचारिकता का पुट होता है। इसमें एक मैत्री भाव होता है।
• अर्ध-सरकारी पत्र तब लिखे जाते हैं जब लिखने वाला अधिकारी संबंधित अधिकारी को व्यक्तिगत स्तर पर जानता है।
• इस प्रकार का पत्र ऐसी स्थिति में भी लिखा जाता है जब किसी ख़ास मसले पर संबोधित अधिकारी का ध्यान व्यक्तिगत रूप से आकर्षित कराया जाता है या उसका व्यक्तिगत परामर्श लिया जाए।
• प्रारूप में बाई और शीर्ष पर प्रेषक का नाम होता है। इसके नीचे उसका पदनाम होता है
• अर्ध-सरकारी पत्र के लिए अमूमन कार्यालय के ‘लेटर हेड’ का प्रयोग होता है, अगर उपलब्ध हो।
• पत्र के प्रारंभ में संबोधन के रूप में महोदय या प्रिय महोदय का प्रयोग नहीं होता। ऐसे पत्र में आमतौर पर प्रयोग किया जाने वाला संवोधन ‘प्रिय श्री...’ या ‘प्रियकर श्री... हो सकता है?
• पत्र के अंत में अभीलेख के रूप में दाहिनी ओर ‘भवदीय’ के स्थान पर ‘आपका’ का प्रयोग किया जाता है।
• अंत में बाई ओर संबोधित अधिकारी का नाम, पदनाम और पूरा पता दिया जाता है।
गुफ़रान अहमद की अगली जवाबदेही इस मसले को बोर्ड के समक्ष रखने की थी। उन्होंने पूरी फ़ाइल को विस्तार से पढ़ा और बोर्ड के विचारार्थ एक विस्तृत टिप्पणी तैयार की जिसमें पूरे मसले की पृष्ठभूमि और निदेशक के अनुरोध के औचित्य का विश्लेषण था और अंत में यह सिफ़ारिश की गई थी कि मुंबई केंद्र के लिए सीमा बढ़ा दी जाए। टिप्पणी इस प्रकार थी :
ध्यान देने की बातें :-
• यह अपने स्वरूप में आरंभिक या मुख्य टिप्पणी से काफ़ी मिलती है।
• चूँकि यह टिप्पणी फ़ाइल के ऊपर लिख कर स्वतंत्र रूप से भेजी जाती है अतः इसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि यह अपने आप में संपूर्ण हो और केवल इस टिप्पणी को पढ़ लेने भर से पूरा मसला समझ में आ जाए।
• यदि आवश्यक हो तो संदर्भ के लिए किसी पिछली टिप्पणी, पत्र, ज्ञापन इत्यादि को संलग्नक के रूप में टिप्पणी के साथ लगाया जा सकता है।
• बोर्ड के पास भेजी जाने वाली स्वतः स्पष्ट टिप्पणी किसी मसले पर बोर्ड की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए होती है। इसके लिए प्रारंभ में मसले की पृष्ठभूमि दी जाती है और उसके विभिन्न पहलुओं का विवेचन किया जाता है। इसके बाद स्वीकृति क्यों दी जानी चाहिए उसके समर्थन में तर्क दिए जाते हैं। अंत में स्वीकृति प्रदान किए जाने का अनुरोध होता है।
श्री गुफ़रान अहमद ने बोर्ड को भेजी जाने वाली टिप्पणी के मसौदे को महानिदेशक के पास स्वीकृति के लिए भेजा। स्वीकृति मिलते ही यह टिप्पणी बोर्ड के सचिव श्री विष्णु सहाय के पास इस अनुरोध के साथ भेज दी गई कि इसे बोर्ड की पचपनवीं बैठक के समक्ष स्वीकृति के लिए प्रस्तुत कर दिया जाए जो 17 मई, 2005 को निर्धारित है।
श्री सहाय को जब यह अनुरोध मिला तो वे 17 मई को होने वाली बैठक की कार्यसूची बना रहे थे। उन्होंने इस मुद्दे को भी कार्य सूची में शामिल कर लिया। कार्यसूची (एजेंडा) इस प्रकार थी—
ध्यान देने की बातें :-
किसी भी संस्था की औपचारिक बैठक की कार्यसूची उस बैठक में चर्चा के लिए निधारित विषयों को अधम जानकारी देती है। इससे बैठक के अनुशासित संचालन में साहायता मिलती है।
निर्धारित विषयों से संबंधित स्वतः स्पष्ट टिप्पणियाँ अपने संलग्नकों के साथ सदस्यों को कार्यसूची के साथ अग्रिम रूप से भेजी जानी चाहिए ताकि वे बैठक में पूरी तैयारी से आ सकें।
बोर्ड की बैठक अपनी निर्धारित तिथि यानी 17 मई 2005 को संपन्न हो गई। यह बोर्ड एक शीर्ष संगठन था जिसका काम अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संगठन के कामकाज पर निगरानी रखना और इसके लिए आवश्यक नीतियाँ तय करना था। इस बोर्ड में संस्थान के उच्च अधिकारियों के अलावा बाहरी सदस्य भी थे जो अपने-अपने क्षेत्रों के जाने-माने लोग थे। इन्होंने पूरे मसले पर जम कर चर्चा की और हर पक्ष को अच्छी तरह जाँचा परखा और बैठक को समाप्ति के बाद बोर्ड के सचिव श्री विष्णु सहाय ने बैठक का कार्यवृत्त तैयार किया जो इस प्रकार था—
कार्यवृत्त (मिनिट्स)
दिनांक 17 मई, 2005 को आयोजित अखिल भारतीय साहित्य एवं सस्कृति बोर्ड की पचपनवीं बैठक का कार्यवृत
अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति बोर्ड को पचपनवीं बैठक मुख्यालय के समिति कक्ष में दिनांक 17 मई 2005 को संपन्न हुई। बैठक की अध्यक्षता बोर्ड के अध्यक्ष को नरेंद्र देसाई ने की। बैठक में भाग लेने वाले माननीय सदस्यों की सूची इस प्रकार है :-
1. विंसेंट अब्राहम, मुख्य कार्यकारी
2. श्रीमती देविका घोषाल सदस्य (वित्त)
3. श्री राजकुमार मीना, सदस्य (कार्मिक)
4. श्री अक्षय पटनायक, सदस्य (योजना एवं विकास)
5. श्री मणिकांत मंडल, महानिदेशक, अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
6. श्रीमती राधिका बरुआ, सदस्य
7. श्री सुदीप हेम्ब्रम, सदस्य
8. श्री आर. कृष्णास्वामी, सदस्य
कार्रवाई के प्रारंभ में अध्यक्ष ने अपनी दक्षिण अफ़्रीका यात्रा की चर्चा करते हुए वहाँ की संस्कृति पर भूमंडलीकरण के प्रभावों का ज़िक्र किया। उन्होंने यह भी बताया कि दक्षिण अफ़्रीका के अनुभवों से हम क्या सबक ले सकते हैं।
उपर्युक्त सामान्य चर्चा के बाद बैठक की कार्यसूची में वर्णित विषयों पर विमर्श हुआ जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है—
1. चौवनवीं बैठक के कार्यवृत्त को संपुष्टि।
बोर्ड ने चौवनवीं बैठक के कार्यवृत्त की संपुष्टि कर दी। इसमें लिए गए निर्णयों के अनुपालन पर एक प्रतिवेदन अगली बैठक में प्रस्तुत किया जाएगा।
2. पिछली बैठकों में लिए गए निर्णयों के अनुपालन की समीक्षा।
बोर्ड ने पिछली बैठक में लिए गए निर्णयों के अनुपालन संबंधी प्रतिवेदन की विस्तार से समीक्षा की। जहाँ उन्होंने यह संतोष व्यक्त किया कि अधिकांश निर्णयों का पूर्ण रूप से अनुपालन हो चुका है वहीं उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जिन निर्णयों का अनुपालन शेष है उन्हें अगली बैठक के पहले कार्यान्वित कर दिया जाना चाहिए।
3. लेखकों, कलाकारों और विशेषज्ञों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक की समीक्षा।
बोर्ड ने लेखकों, कलाकारों और विशेषज्ञों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक पर विस्तृत चर्चा की। ऐसा महसूस किया गया कि लेखकों, कलाकारों और विशेषज्ञों को दिया जाने वाला मौजूदा पारिश्रमिक पाँच वर्ष पूर्व निर्धारित किया गया था, जो समय और परिस्थितियों के आलोक में अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। अतः पारिश्रमिक की दरों में वृद्धि अत्यावश्यक है ताकि अच्छे लेखक, कलाकार और विशेषज्ञ, संस्थान से जुड़े रहें और उनका सर्वश्रेष्ठ योगदान संस्थान को प्राप्त हो। इस संबंध में बोर्ड ने संस्थान द्वारा प्रस्तावित नई दरों पर दृष्टि डाली और उन्हें संतोषजनक पाते हुए अपनी स्वीकृति दे दी। बोर्ड ने यह भी टिप्पणी की कि ये दरें अविलंब लागू की जानी चाहिए।
4. संस्थान द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की गुणवत्ता बढ़ाए जाने संबंधी प्रतिवेदन पर चर्चा बोर्ड ने संस्थान द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की गुणवत्ता बढ़ाए जाने संबंधी राधानंदन समिति की सिफ़ारिशों पर भी चर्चा की। बोर्ड ने महसूस किया कि इन सिफ़ारिशों का अध्ययन और भी गहनता से किया जाना चाहिए। इसके लिए बोर्ड ने श्रीमती देविका घोषाल, सदस्य (वित्त) की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया। समिति के अन्य सदस्य श्री सुदीप हेम्ब्रम और श्री आर. कृष्णास्वामी होंगे। समिति अपनी रिपोर्ट दो माह के अंदर देगी।
5. मोबाइल फ़ोन पर होनेवाले व्यय पर लगाई गई सीमा की समीक्षा समिति ने इस मुद्दे पर विचार करते हुए संबंधित प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
बैठक में यह निर्णय भी लिया गया कि बोर्ड की अगली बैठक 14 और 15 जुलाई, 2005 को बंगलौर में होगी।
ध्यान देने की बातें :-
• कार्यसूची में रेखांकित कार्यों पर हुए विचार-विमर्श का संक्षिप्त विवरण कार्यवृत में प्रस्तुत किया जाता है।
• इसमें क्रमशः उपस्थित लोगों की राय का पूरा विवरण दिया जाना चाहिए।
• उपस्थित व्यकिायों के नाम पदानुसार दिए जाने चाहिए।
बोर्ड में लिए गए फ़ैसले के अनुसार लेखकों, कलाकारों और विशेषज्ञों के पारिश्रमिक में बढ़ोतरी के संबंध में एक प्रेस विज्ञप्ति भी जारी करनी थी। उन्होंने जनसंपर्क अधिकारी श्री देवेंद्र शर्मा से इस बारे में अनुरोध किया। श्री शर्मा ने जो विज्ञप्ति जारी की वह इस प्रकार थी—
ध्यान देने की बातें :-
कोई संस्थान या व्यक्ति किसी विषय या किसी बैठक में जो निर्णय लेता है, उसे प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सर्वसामान्य तक पहुँचाया जाता है। निर्णय में विलंब का कारण और उससे होने वाले लाभ के बारे में भी जानकारी दी जाती है।
हम प्रेस विज्ञप्ति के चक्कर में मुख्य कथानक से हट गए हैं। आइए वापस लौटें। वैसे अब पटाक्षेप ही शेष है और यह काम गुफ़रान अहमद जी को सौंपा गया है। उन्हें बोर्ड के व्यय सीमा संबंधी फ़ैसले को कार्यान्वित करने के लिए एक परिपत्र जारी करना है। इस कथानक की चरम परिणति इस परिपत्र (सर्कुलर) के रूप में हुई—
ध्यान देने की बातें :-
बैठक में के लिए महत्त्वपूर्ण निर्णयों को कार्यान्वित करने के लिए परिपत्र जारी किया जाता है। जिस मुद्दे को लेकर पहला परिपत्र जारी किया जाता है उस मुद्दे पर होने वाला फ़ैसला भी परिपत्र के रूप में जारी किया जाता है जिसमें निर्णय को कार्यान्वित किए जाने के निर्देश होते हैं।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 165)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.