मैं एक पतंगबाज़ हूँ। जब से मैंने होश सम्भाला है अपने को पंतग और मंझे में उलझा पाया है। बड़ी बेचैनी से वसंत और गर्मी की ऋतु के गुज़रने का इंतज़ार करता हूँ, ताकि जल्द से जल्द जाड़ा गुज़र आए और मैं पतंग उड़ाऊँ। वैसे मैं हर रंग का मंझा इस्तेमाल करता हूँ—नीला, गुलाबी, पीला, सफ़ेद और चित्तीदार, क्योंकि हर रंग एक ख़ास मौक़े पर भला लगता है। जैसे जब आसमान पर काली घटाएँ छाई हों तो सफ़ेद और चित्तीदार मंझा ठीक है। अगर धूप निकली हो तो पीला और जब आसमान साफ़ हो तो नीला रंग बेहतर है, क्योंकि मंझा ठीक से नज़र नहीं आता है और बच्चों के लंगरों से बचा रहता है।
मेरी गली के सारे लड़के मुझे पहचानते हैं। मेरी इज़्ज़त करते हैं और कभी-कभी आकर मुझसे सलाह भी माँगते हैं। जब कभी आपस में शर्ते लगाते हैं तो मुझसे मेरी राय ज़रूर माँगते हैं।
चूँकि मैं एक पतंगबाज़ हूँ, इसलिए मेरी नज़रें एक पतंगबाज़ की नज़रें हैं जो पहली नज़र में उड़ती पतंग के अंदाज़ को ताड़ लेती हैं कि आसमान पर पेंच लड़ाने वाली पतंगों में कौन-सी पतंग कटेगी, कौन हारेगा और कौन जीतेगा?
जब कभी दो पतंग आपस में पेंच लड़ा रही हों और काफ़ी देर से एक-दूसरे को पैंतरे दिखा रही हों, उस वक़्त छत पर तमाशा देखते लड़के बेचैनी से मुझे पुकार कर पूछते हैं,
‘याकूब... कौन कटेगी?”
‘वह ऊँची वाली लाल रंग की।’ मैं उड़ती पतंगों को ग़ौर से देखकर जवाब देता। एक पल बाद वही होता है, जिसकी भविष्यवाणी मैं करता। पूरे मोहल्ले में सिर्फ़ एक मेरे बराबर का पतंगबाज़ है, जिसका नाम हमीद तुतले हैं। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हमीद मुझसे पतंगबाज़ी में किसी तरह कम नहीं है। मुझसे अच्छी डोर नहीं खींचता और मुझसे कम पेंच नहीं जानता। बल्कि हम पतंगबाज़ी के फन में बराबर हैं, इसलिए हममें मेल है। हम कभी एक-दूसरे के मुक़ाबले में खड़े नहीं होते हैं और कभी एक-दूसरे को काटते नहीं हैं।
हाँ, तो बता रहा था कि मैं एक पतंगबाज़ हूँ और हर इंसान की तरह एक पतंगबाज़ भी अपनी ज़िंदगी में किसी दिलचस्प घटना से दो-चार हो सकता है और मेरे साथ जो घटना घटी थी, उसे आज गुज़रे कोई चार साल के लगभग हो गए हैं, मगर उसकी याद आज भी ताज़ा है।
उस दिन दोपहर के खाने के वक़्त किसी ने दरवाज़े की कुंडी खटखटाई। मैंने जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने हरी चादर में लिपटी एक लड़की को सामने खड़ा पाया, जो घबराई आवाज़ में पूछ रही थी—
‘क्या याकूब आप ही हैं?”
‘याकूब... हाँ, मैं ही हूँ।’ मैं उसे देखकर बौखला-सा गया था। एकदम से चौंक कर बोला। ‘मैं आपकी नई पड़ोसन हूँ। कुछ दिन पहले हम आए हैं। मेरा भाई बीमार है। आपके मंझे ठीक करने की आवाज़ सुन कर वह बेचैन हो उठा और यह तीन रील सद्दी भेज कर आपसे कहलाया है कि क्या आप इस पर शीशा चढ़ा देंगे, चढ़ा देंगे न?’ घबराहट भरी आवाज़ से उसने पूछा।
उसकी आवाज़ दिलनशीन थी। मुझे बड़ी मीठी लगी। उसकी हरी चादर से झाँकती उसकी काली आँखें चमकदार थीं। नाक और माथा सफ़ेद था। मुझे वह एक ऐसी सफ़ेद पतंग की तरह दिखी
जिस पर काले धब्बे आँखों की तरह बने हैं। उसका बढ़ा क़द उसके दुबले होने के कारण काफ़ी लंबा नज़र आ रहा था। मैं गूँगा सा बना उसे ताक रहा था। एकाएक उसने झुँझलाहट भरे ग़ुस्से से पूछा,
‘शीशा चढ़ाएँगे या नहीं?’
“हाँ... चढ़ा दूँगा, चढ़ा दूँगा...” मैंने घबरा कर जल्दी से कहा।
उसके सफ़ेद ख़ूबसूरत हाथों ने जो समंदर की झाग की तरह लगे, चादर से तीन रील सद्दी निकाल कर दी। उसके नाख़ून लाल रंगे हुए थे। मैंने सद्दी पकड़ी और उसने पूछा, ‘कब तक तैयार हो जाएगा?’
‘परसों तक।’
वह चलने को मुड़ी तभी मेरे मुँह से निकल पड़ा, ‘कौन-सा रंग चाहिए?’
‘कौन-सा रंग होना चाहिए?’ उसने चेहरा मेरी तरफ़ मोड़कर मुझसे उलटा सवाल किया।
‘क्या चित्तीदार बना दूँ?’
‘हाँ, मैं कोई रंग ख़ास नहीं बता पाऊँगी। फिर भी अपने बचपने की तुतलाहट की आदत से तितदार पसंद करूँगी...बअमान-ए-ख़ुदा।’ वह एक मीठी हँसी हँसते हुए बोली। उसके जाने के बाद जब तक मैंने उसे दोबारा नहीं देखा, तब तक वही छवि मेरी आँखों में टिकी रही, जो बार-बार अपने को दोहरा रही थी।
अपनी बचपन की आदत के मुताबिक कहूँगी...तितदार...बअमान-ए-खुदा।’ उसकी सफ़ेद पेशानी और दो काली आँखें मेरी नज़रों के सामने किसी पतंग की तरह नाचती रहीं और दिल में एक गुदगुदी-सी महसूस होती रही। दिल चाहा गुनगुनाऊँ।
‘आपकी नई पड़ोसन... आपकी नई पड़ोसन।’
माँ को सामने देखकर मैं एकाएक चहक कर बोला, ‘कैसा अच्छा पड़ोस मिला है।’
‘क्या तुम उन्हें जानते हो?’ माँ ने पूछा।
‘हाँ, मैं जानता हूँ।’ मैंने जवाब दिया। दो दिन तक मैं काम में लगा रहा। मेरे पास जितना मसाला था, मैंने उसे ख़र्च कर दिया। वह अपनी मीठी आवाज़ और सफ़ेद पेशानी के साथ हाज़िर हुई।
‘क्या डोरा तैयार है?’
‘तैयार है।’ कहते हुए मैंने मंझे की तेज़ी और मज़बूती को दिखाया, ‘मैंने सफ़ेद और नीला रंग लगाया है, रंग बहुत अच्छा है। आसमान पर बादल हों तो यह रंग ठीक रहता है।’
‘कितना दूँ?’ रंग को देखकर वह ख़ुशी से उछली, फिर मेरे हाथ से चर्खी छीनती हुई पूछने लगी। मैं उसको सवाल का जवाब देने के बजाए उसे बताने लगा यह चर्खी भी शीशम की लकड़ी की है, बहुत मज़बूत है, अगर छत पर से नीचे आ गिरे तो भी नहीं टूटेगी। फौलाद है फौलाद।’
‘कितना दूँ?’ उसने बीच में मेरी बात काट कर पहले दिन की तरह झुँझलाहट से पूछा। उसके इस सवाल से मेरे सारे बदन में एक झिझक-सी लहराई।
‘यह कैसे मुमकिन है कि मैं अपने पड़ोस से पैसा लूँ?”
‘यानी पैसा नहीं लेंगे?”
‘नहीं’ मैंने इंकार में सिर हिलाया।
‘ख़ूब! बहमान-ए-खुदा।’ वह पहले की तरह मीठी हँसी-हँसी। फिर मुझे ग़ौर से देखा और ख़ुदा हाफ़िज कहकर चली गई। उसके जाने के बाद मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा और आवाज़ गूँजी ‘मैं आपकी नई पड़ोसन हूँ।’
मैं घर के अंदर गया। माँ को काम में व्यस्त देखकर चहका, ‘कैसा अच्छा पड़ोस मिला है?”
‘क्या उन्हें जानते हो तुम?’ माँ ने उसी तरह ठण्डे लापरवाह लहजे में पूछा।
‘हाँ मैं जानता हूँ उन्हें।’ घमंड से भर कर मैंने इस बार जवाब दिया। दूसरे दिन मैं छत पर खड़ा होकर उड़ती पतंगों को देख रहा था। हमीद तुतले की पतंग आसमान पर इस तरह से उड़ रही थी, जैसे लड़ाई के मैदान में कोई बहादुर योद्धा, उसकी उड़ती पतंग का एक कोना सफ़ेद और तीन कोने नीले थे और वह किसी अजहदे की तरह कुँकराती आसमान पर तैर रही थी और जिस तरफ़ बढ़ती उधर से दूसरी पतंग ग़ायब हो जाती, क्योंकि उनमें इतना दम नहीं था कि मुक़ाबले में खड़ी हो पाती, बल्कि सभी उससे दूर छटक रही थीं। कुछ पतंग उड़ाने वालों ने अपनी पतंगें आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतारना शुरू कर दी थीं।
तभी एक़दम से नए पड़ोसी के छत से एक पतंग उठती दिखी, जो तीन कोनों से सफ़ेद थी और उसकी दुम और आँखें नीली थीं। एक़दम से पड़ोसी लड़की की याद आई और दिल में गुनगुनाहट गूँजी।
‘मैं आपकी नई पड़ोसन हूँ।’
पड़ोसी की छत हमसे ऊँची थी और उस पर ऊँची मुंडेरें खिंची होने की वजह से मुझे पतंग उड़ाने वाला नज़र नहीं आ रहा था। तो भी मैं अपनी रंगी सद्दी को देखना चाह रहा था कि वह कैसी लग रही है।
पड़ोसी वाली पतंग ऊँची उठी। एक़दम से मेरा ध्यान उस तरफ़ गया कि नीली दुम वाली पतंग तेज़ी से हमीद तुतले की पतंग की तरफ़ बढ़ रही है। मेरा बदन काँप उठा। मेरा दिल चाहा कि पूरी ताकत से चिल्ला कर कहूँ कि उधर मत बढ़ो, मगर देर हो चुकी थी और अब दोनों पतंगों की डोरें एक-दूसरे में उलझ गई थीं।
मेरे बदन पर एक तरह की उदास सुस्ती छा गई—इस ख़याल से कि यह हमारा बीमार पड़ोसी लड़का अभी धुएँ की तरह आसमान में ग़ायब हो जाएगा। उस वक़्त मैं अफ़सोस से उस लड़की की तरफ़ नहीं देख पाऊँगा, क्योंकि पतंग काटने के लिए सिर्फ़ डोर का अच्छा होना ही काफ़ी नहीं हैं, बल्कि महारत और तज़ुर्बा भी बहुत ज़रूरी है और ये दोनों चीज़ें हमीद तुतले के पास हद से ज़्यादा मौजूद हैं।
दोनों पतंगें काफ़ी दूर जा चुकी थीं और पतंग लड़ाने की जंग काफ़ी देर से जारी थी, जिससे मुझे थोड़ी-सी ढाढ़स बँधी कि हमारा पड़ोसी कोई अनाड़ी नहीं है। फिर मैं ख़ुद से कहने लगा—जब वह इतना अच्छा पतंगबाज़ है, तो फिर उसने सद्दी पर शीशा चढ़ाने को मेरे पास क्यों भेजा?
अब दोनों पतंगें काग़ज़ के पुर्ज़ों की तरह ऊपर आसमान पर तैरती नज़र आ रही थीं। हमीद तुतले की पतंग खड़ी ठहरी-सी आगे बढ़ रही थी और पड़ोसी की डगमगाती-सी आगे बढ़ रही थी। एकाएक पड़ोसी की पतंग नाचती हुई नीचे की तरफ़ आती नज़र आई। मुँह पर हाथों का गोला बनाकर मैं ज़ोर से चिल्लाया, ‘ढील मत दो! डोर को ताने रहो!’
पड़ोसी की डगमगाती पतंग सचमुच धीरे-धीरे नाचती हुई नीचे की तरफ़ गिरने-सी लगी। मैं झुँझलाया-सा सोचने लगा, ‘यह बीमार लड़का सचमुच बहरा भी है।’ मैं उसकी मुंडेर की तरफ़ लपका और दीवार से छत की तरफ़ जाकर उनकी मुंडेर पर चढ़ गया। आश्चर्य से मैं जम गया। वहाँ पर पड़ोसन लड़की खड़ी थी, जिसके बाएँ हाथ में चर्खी थी और दाएँ हाथ में डोर। बाल बिखरे हुए थे। परेशान और बेचैन नज़र आ रही थी। उसके पीछे जाकर खड़ा होकर मैंने धीरे से कहा, ‘डोर को मज़बूती से तानो।’
‘मुझसे नहीं संभल रही है। ख़ुद आकर संभालो।’ उससे धीरे से कहा, जैसे मेरा वहाँ इस तरह से आना उसे बुरा नहीं लगा था। मैं छत पर कूदा और बड़ी मुश्किल से गिरती पतंग को नात पाया। धीरे-धीरे पतंग ऊँची पेंगें लेने लगी और एकदम से मैंने देखा कि तीन तरफ़ से नीली पतंग कटी हुई नीचे की तरफ़ तेज़ी से गिर रही है। चारों तरफ़ से छतों से एक शोर-सा उठा। लड़की ने ख़ुशी के मारे चीख़ कर कहा, ‘काट दिया...काट दिया उसे!’ फिर छत के दो-तीन बार ख़ुशी में चक्कर लगाए और ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाया।
‘ज़िंदाबाद!’
‘क्या हुआ जैनब?’ नीचे से बूढ़ी आवाज़ उभरी।
‘माँ... हमीद तुतले को काट दिया।’ लड़की ने नीचे झाँक कर जवाब दिया।
‘अरे शैतान!’ बूढ़ी आवाज़ फिर उभरी।
हमारी गली नए पड़ोसी की तारीफ़ों से गूँजने लगी। सभी उस लड़के के बारे में बात कर रहे थे, जिसे उन्होंने अभी देखा नहीं था, मगर जिसने हमीद तुतले की पतंग काट दी थी। पहले दिन लोग आपस में बात कर रहे थे।
‘तीन रील मंझा था, जो हमीद कट गया।’ दूसरे दिन कहने लगे—‘दो रील मंझा था जो हमीद कट गया।’ बाद में फिर कहने लगे-‘एक रील मंझा थी, जो हमीद को काट पाई।’
आख़िर सब सौंगध खाकर कहते—‘वल्लाह! उसने...’
कई दिन इस घटना को गुज़र गए। एक दिन मैं छत पर खड़ा पतंग उड़ा रहा था। एकाएक देखता क्या हूँ कि तीन तरफ़ से सफ़ेद और काली दुम और धब्बे के साथ नए पड़ोसी की छत पर एक पतंग ऊपर उठी है। तेजी से ऊपर उड़ी और पल भर में मेरी पतंग के पास आ गई, जैसे लड़ने की तैयारी में हो। मैं अपनी पतंग को उधर से खींच नहीं पाया, क्योंकि हाथ का सारा एतमाद जैसे ग़ायब हो गया था।
ग़ुस्से से सारा वजूद उबल पड़ा और मैं बड़बड़ाया—‘अरे बेवक़ूफ़ लड़की!’
पतंगों की पेंचें लड़ना शुरू हो गई थीं और अब किसी पल भी दोनों की डोर एक हो सकती थी इस यक़ीन के साथ कि मैं पड़ोसी को अपने अनुभव से दबा लूँगा, अपने को दिलासा देने लगा कि महारत बड़ी चीज़ है। शुरू के तीन मिनट डोर बड़े अनुभवहीन अंदाज़ से खिंचती रही, फिर एक़दम से तड़प कर जो लड़ाई पर आमादा हुई तो उससे मुझे ऐसा लगा, जैसे पिछले बीस साल पतंग उड़ाकर उसने यह महारत हासिल की हो। अब मेरा दिल हर बार पहले से ज़्यादा ग़ुस्से और खौफ़ से घबराने लगा। आस-पास की छत से लड़के आँखों पर हाथ रखे बड़े ध्यान से इस लड़ाई को ताक रहे थे। उनकी आँखों में मेरे प्रति आदर और जिज्ञासा थी। मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी। हवा तेज़ नहीं थी, इसलिए पतंगें ऊपर न जाकर क्षितिज की तरफ़ बढ़ रही थीं और उनकी डोर नीचे की तरफ़ आ रही थी और पतंगें छतों के नज़दीक होती जा रही थीं।
‘बहुत हो गया बस अब खींचों’ मैं एकाएक तेज़ी से चीख़ा। किसी ने जवाब नहीं दिया, बल्कि जवाब में शैतानी से भरी लड़की की हँसी की आवाज़ सुनाई पड़ी। इसके बाद मैंने डोर को ताना और उसे खींचने लगा। डोर धीरे-धीरे करके ऊपर उठने लगी। मुझे उम्मीद बँध गई कि मेरी पड़ोसन भी तानेगी, मगर वह उसी तरह से डोर को ढील देती रही और तेज़ी से डोर, आगे छोड़ती जा रही थी। यह देखकर मैं ग़ुस्से से चीख़ा, ‘खींचो!’
ग़ुस्से से मैं सुन्न पड़ने लगा और मेरा हाथ ढीला पड़ गया। और आसपास की छत से एकसाथ ताज्जुब भरी आवाज़ गूँजी, ‘ओ!’
मेरी पतंग कट गई थी। डोर मैंने छोड़ दी। छत से नीचे दीवार पर चढ़ा। जो भी गाली मुझे याद थी, वह मैं उस लड़की पर क़ुर्बान करना चाहता था। इस इरादे से मैं उसकी मुंडेर की तरफ़ लपका और ऊपर चढ़ते ही जो मंजर मैंने देखा, उससे मेरी नज़रें सामने की छत पर जमी रह गईं। गला सूख गया। हाथ-पैर ढीले पड़ गए। पतंग की डोर हमीद तुतले के हाथ में थी। पड़ोसी लड़की उसी तरह ख़ुशी से छत के चक्कर लगा रही थी। नीचे से आवाज़ आई, ‘क्या हुआ जैनब?”
‘माँ, याकूब को काटा।’ उसने छत से नीचे झाँककर कहा।
‘अरे शैतान।’ बूढ़ी आवाज़ दोबारा उभरी।
हमीद तुतले पतंग को आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतार रहा था और बिना लड़की की ख़ुशी की तरफ़ ध्यान दिए वह कह रहा था, ‘जब प्रतिद्वंद्वी डोर ताने तो तुम ढील छोड़ो... तेज़ी से ढील छोड़ो।’
main ek patangbaz hoon. jab se mainne hosh sambhala hai apne ko pantag aur manjhe mein uljha paya hai. baDi bechaini se vasant aur garmi ki ritu ke guzarne ka intzaar karta hoon, taki jald se jald jaDa guzar aaye aur main patang uDaun. vaise main har rang ka manjha istemal karta hun—nila, gulabi, pila, safed aur chittidar, kyonki har rang ek khaas mauqe par bhala lagta hai. jaise jab asman par kali ghatayen chhai hon to safed aur chittidar manjha theek hai. agar dhoop nikli ho to pila aur jab asman saaf ho to nila rang behtar hai, kyonki manjha theek se nazar nahin aata hai aur bachchon ke langron se bacha rahta hai.
meri gali ke sare laDke mujhe pahchante hain. meri izzat karte hain aur kabhi kabhi aakar mujhse salah bhi mangte hain. jab kabhi aapas mein sharte lagate hain to mujhse meri raay zarur mangte hain.
chunki main ek patangbaz hoon, isliye meri najren ek patangbaz ki nazren hain jo pahli nazar mein uDti patang ke andaj ko taaD leti hain ki asman par pench laDane vali patangon mein kaun si patang kategi, kaun harega aur kaun jitega?
jab kabhi do patang aapas mein pench laDa rahi hon aur kafi der se ek dusre ko paintre dikha rahi hon, us vaqt chhat par tamasha dekhte laDke bechaini se mujhe pukar kar puchhte hain,
‘yakub. . . kaun kategi?”
‘vah uunchi vali laal rang ki. ’ main uDti patangon ko ghaur se dekhkar javab deta. ek pal baad vahi hota hai, jiski bhavishyvani main karta. pure mohalle mein sirf ek mere barabar ka patangbaz hai, jiska naam hamid tutle hain. mujhe ye svikar karne mein koi hichak nahin hai ki hamid mujhse patangbazi mein kisi tarah kam nahin hai. mujhse achchhi Dor nahin khinchta aur mujhse kam pench nahin janta. balki hum patangbazi ke phan mein barabar hain, isliye hammen mel hai. hum kabhi ek dusre ke muqable mein khaDe nahin hote hain aur kabhi ek dusre ko katte nahin hain.
haan, to bata raha tha ki main ek patangbaz hoon aur har insaan ki tarah ek patangbaz bhi apni zindagi mein kisi dilchasp ghatna se do chaar ho sakta hai aur mere saath jo ghatna ghati thi, use aaj gujre koi chaar saal ke lagbhag ho ge hain, magar uski yaad aaj bhi taza hai.
us din dopahar ke khane ke vaqt kisi ne darvaze ki kunDi khatakhtai. mainne jakar darvaza khola to samne hari chadar mein lipti ek laDki ko samne khaDa paya, jo ghabrai avaz mein poochh rahi thee—
‘kya yakub aap hi hain?”
‘yakub. . . haan, main hi hoon. ’ main use dekhkar baukhla sa gaya tha. eqdam se chaunk kar bola. ‘main apaki nai paDosan hoon. kuch din pahle hum ayen hain. mera bhai bimar hai. aapke manjhe theek karne ki avaz sun kar wo bechain ho utha aur ye teen reel saddi bhej kar aapse kahlaya hai ki kya aap is par shisha chaDha denge, chaDha denge na?’ ghabrahat bhari avaz se usne punchha.
uski avaz dilanshin thi. mujhe baDi mithi lagi. uski hari chadar se jhankti uski kali ankhen chamakdar theen. naak aur matha safed tha. mujhe wo ek aisi safed patang ki tarah dikhi jis par kale dhabbe ankhon ki tarah bane hain. uska buDha kad uske duble hone ke karan kafi lamba nazar aa raha tha. main gunga sa bana use taak raha tha. ekayek usne jhunjhlahat bhare ghusse se puchha,
‘shisha chaDhayenge ya nahin?’
“haan. . . chaDha dunga, chaDha dunga. . . ” mainne ghabra kar jaldi se kaha.
uske safed khubsurat hathon ne jo samandar ki jhaag ki tarah lage, chadar se teen reel saddi nikal kar di. uske nakhun laal range hue the. mainne saddi pakDi aur usne puchha, ‘kab tak taiyar ho jayega?’
‘parson tak. ’
wo chalne ko muDi tabhi mere munh se nikal paDa, ‘kaun sa rang chahiye?’
‘
kaun sa rang hona chahiye?” usne chehra meri taraf moDkar mujhse ulta saval kiya.
‘kya chittindar bana doon?’
‘haan, main koi rang khaas nahin bata paungi. phir bhi apne bachpane ki tutlahat ki aadat se titdar pasand karungi. . . baman e khuda. ’ wo ek mithi hansi hanste hue boli. uske jane ke baad jab tak mainne use dobara nahin dekha, tab tak vahi chhavi meri ankhon mein tiki rahi, jo baar baar apne ko dohra rahi thi.
apni bachpan ki aadat ke mutabik kahungi. . . titdar. . . baman e khuda. ’ uski safed peshani aur do kali ankhen meri najron ke samne kisi patang ki tarah nachti rahin aur dil mein ek gudgudi si mahsus hoti rahi. dil chaha gungunaun.
‘apaki nai paDosan. . . apaki nai paDosan. ’
maan ko samne dekhkar main ekayek chahak kar bola, ‘kaisa achchha paDos mila hai. ’
‘kya tum unhen jante ho?’ maan ne puchha.
‘haan, main janta hoon. ’ mainne javab diya. do din tak main kaam mein laga raha. mere paas jitna masala tha, mainne use kharch kar diya. wo apni mithi avaz aur safed peshani ke saath hazir hui.
‘kya Dora taiyar hai?’
‘taiyar hai. ’ kahta hua mainne manjhe ki tezi aur mazbuti ko dikhaya, ‘mainne safed aur nila rang lagaya hai, rang bahut achchha hai. asman par badal hon to ye rang theek rahta hai. ’
‘kitna doon?’ rang ko dekhkar wo khushi se uchhli, phir mere haath se charkhi chhinti hui puchhne lagi. main usko saval ka javab dene ke bajaye use batane laga ye charkhi bhi shisham ki lakDi ki hai, bahut mazbut hai, agar chhat par se niche aa gire to bhi nahin tutegi. phaulad hai phaulad. ’
‘kitna doon?’ usne beech mein meri baat kaat kar pahle din ki tarah jhunjhlahat se puchha. uske is saval se mere sare badan mein ek jhijhak si lahrai.
‘yah kaise mumkin hai ki main apne paDos se paisa loon?”
‘yani paisa nahin lenge?”
‘nahin’ mainne inkaar mein sir hilaya.
‘khoob! bahman e khuda. ’ wo pahle ki tarah mithi hansi hansi. phir mujhe ghaur se dekha aur khuda hafij kahkar chali gai. uske jane ke baad mera dil tezi se dhaDakne laga aur avaz gunji ‘main apaki nai paDosan hoon. ’
main ghar ke andar gaya. maan ko kaam mein vyast dekhkar chahka, ‘kaisa achchha paDos mila hai?”
‘kya unhen jante ho tum?’ maan ne usi tarah thanDe laparvah lahze mein puchha.
‘haan main janta hoon unhen. ’ ghamanD se bhar kar mainne is baar javab diya. dusre din main chhat par khaDa hokar uDti patangon ko dekh raha tha. hamid tutle ki patang asman par is tarah se uD rahi thi, jaise laDai ke maidan mein koi bahadur yoddha uski uDti patang ka ek kona safed aur teen kone nile the aur wo kisi ajahde ki tarah kunkrati asman par tair rahi thi aur jis taraf baDhti udhar se dusri patang ghayab ho jati, kyonki unmen itna dam nahin tha ki muqable mein khaDi ho pati, balki sabhi usse door chhatak rahi theen. kuch patang
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tabhi eqdam se ne paDosi ke chhat se ek patang uthti dikhi, jo teen konon se safed thi aur uski dum aur ankhen nili theen. eqdam se paDosi laDki ki yaad aai aur dil mein gungunahat gunji.
‘main apaki nai paDosan hoon. ’
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paDosi vali patang uunchi uthi. eqdam se mera dhyaan us taraf gaya ki nili dum vali patang teji se hamid tutle ki patang ki taraf baDh rahi hai. mera badan kaanp utha. mera dil chaha ki puri takat se chilla kar kahun ki udhar mat baDho, magar der ho chuki thi aur ab donon patangon ki Doren ek dusre mein ulajh gai theen.
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ab donon patangen kaghaj ke purjon ki tarah uupar asman par tairti nazar aa rahi theen. hamid tutle ki patang khaDi thahri si aage baDh rahi thi aur paDosi ki Dagmagati si aage baDh rahi thi. ekayek paDosi ki patang nachti hui niche ki taraf aati nazar aai. munh par hathon ka gola banakar main zor se chillaya, ‘Dheel mat do! Dor ko tane raho!’
paDosi ki Dagmagati patang sachmuch dhire dhire nachti hui niche ki taraf girne si lagi. main jhunjhlaya sa sochne laga, ‘yah bimar laDka sachmuch bahra bhi hai. ’ main uski munDer ki taraf lapka aur divar se chhat ki taraf jakar unki munDer par chaDh gaya. ashcharya se main jam gaya. vahan par paDosan laDki khaDi thi, jiske bayen haath mein charkhi thi aur dayen haath mein Dor. baal bikhre hue the. pareshan aur bechain nazar aa rahi thi. uske pichhe jakar khaDa hokar mainne dhire se kaha, ‘Dor ko mazbuti se tano. ’
‘mujhse nahin sambhal rahi hai. khud aakar sambhalo. ’ usse dhire se kaha, jaise mera vahan is tarah se aana use bura nahin laga tha. main chhat par kuda aur baDi mushkil se girti patang ko naat paya. dhire dhire patang uunchi pengen lene lagi aur ekdam se mainne dekha ki teen taraf se nili patang kati hui niche ki taraf tezi se gir rahi hai. charon taraf se chhaton se ek shor sa utha. laDki ne khushi ke mare cheekh kar kaha, ‘kaat diya. . . kaat diya use!’ phir chhat ke do teen baar khushi mein chakkar lagaye aur zor zor se nara lagaya.
‘jindabad!’
‘kya hua jainab?’ niche se buDhi avaz ubhri.
‘maan. . . hamid tutle ko kaat diya. ’ laDki ne niche jhaank kar javab diya.
‘are shaitan !’ buDhi avaz phir ubhri.
hamari gali ne paDosi ki tariphon se gunjne lagi. sabhi us laDke ke bare mein baat kar rahe the, jise unhonne abhi dekha nahin tha, magar jisne hamid tutle ki patang kaat di thi. pahle din log aapas mein baat kar rahe the.
‘teen reel manjha tha, jo hamid kat gaya. ’ dusre din kahne lage ’do reel manjha tha jo hamid kat gaya. baad mein phir kahne lage ’ek reel manjha thi, jo hamid ko kaat pai. ’
akhir sab saungadh khakar kahte ’vallah! usne. . . ’
kai din is ghatna ko guzar ge. ek din main chhat par khaDa patang uDa raha tha. ekayek dekhta kya hoon ki teen taraf se safed aur kali dum aur dhabbe ke saath ne paDosi ki chhat par ek patang uupar uthi hai. teji se uupar uDi aur pal bhar mein meri patang ke paas aa gai, jaise laDne ki taiyari mein ho. main apni patang ko udhar se kheench nahin paya, kyonki haath ka sara etmaad jaise ghayab ho gaya tha.
ghusse se sara vajud ubal paDa aur main baDabDaya ‘are bevaquf laDki!’
patangon ki penchen laDna shuru ho gai theen aur ab kisi pal bhi donon ki Dor ek ho sakti thi is yaqin ke saath ki main paDosi ko apne anubhav se daba lunga, apne ko dilasa dene laga ki maharat baDi cheez hai. shuru ke teen minat Dor baDe anubhavhin andaj se khinchti rahi, phir eqdam se taDap kar jo laDai par amada hui to usse mujhe aisa laga, jaise pichhle bees saal patang uDakar usne ye maharat hasil ki ho. ab mera dil har baar pahle se zyada ghusse aur khauf se ghabrane laga. aas paas ki chhat se laDke ankhon par haath rakhe baDe dhyaan se is laDai ko taak rahe the. unki ankhon mein mere prati aadar aur jigyasa thi. mere dil ki dhaDkan baDhne lagi. hava tez nahin thi, isliye patangen uupar na jakar kshitij ki taraf baDh rahi theen aur unki Dor niche ki taraf aa rahi thi aur patangen chhaton ke najdik hoti ja rahi theen.
‘bahut ho gaya bas ab khinchon’ main ekayek tezi se chikha. kisi ne javab nahin diya, balki javab mein shaitani se bhari laDki ki hansi ki avaz sunai paDi. iske baad mainne Dor ko tana aur use khinchne laga. Dor dhire dhire karke uupar uthne lagi. mujhe ummid bandh gai ki meri paDosan bhi tanegi, magar wo usi tarah se Dor ko Dheel deti rahi aur tezi se Dor, aage chhoDti ja rahi thi. ye dekhkar main ghusse se chikha, ‘khincho !’
ghusse se main sunn paDne laga aur mera haath Dhila paD gaya. aur asapas ki chhat se eksaath tajjub bhari avaz gunji, ‘o!’
meri patang kat gai thi. Dor mainne chhoD di. chhat se niche divar par chaDha. jo bhi gali mujhe yaad thi, wo main us laDki par qurban karna chahta tha. is irade se main uski munDer ki taraf lapka aur uupar chaDhte hi jo manjar mainne dekha, usse meri nazren samne ki chhat par jami rah gain. gala sookh gaya. haath pair Dhile paD ge. patang ki Dor hamid tutle ke haath mein thi. paDosi laDki usi tarah khushi se chhat ke chakkar laga rahi thi. niche se avaz aai, ‘kya hua jainab?”
‘maan, yakub ko kata. ’ usne chhat se niche jhankakar kaha.
‘are shaitan. ’ buDhi avaz dobara ubhri.
hamid tutle patang ko ahista ahista niche utaar raha tha aur bina laDki ki khushi ki taraf dhyaan diye wo kah raha tha, ‘jab prtidvandvi Dor tane to tum Dheel chhoDo. . . tezi se Dheel chhoDo. ’
main ek patangbaz hoon. jab se mainne hosh sambhala hai apne ko pantag aur manjhe mein uljha paya hai. baDi bechaini se vasant aur garmi ki ritu ke guzarne ka intzaar karta hoon, taki jald se jald jaDa guzar aaye aur main patang uDaun. vaise main har rang ka manjha istemal karta hun—nila, gulabi, pila, safed aur chittidar, kyonki har rang ek khaas mauqe par bhala lagta hai. jaise jab asman par kali ghatayen chhai hon to safed aur chittidar manjha theek hai. agar dhoop nikli ho to pila aur jab asman saaf ho to nila rang behtar hai, kyonki manjha theek se nazar nahin aata hai aur bachchon ke langron se bacha rahta hai.
meri gali ke sare laDke mujhe pahchante hain. meri izzat karte hain aur kabhi kabhi aakar mujhse salah bhi mangte hain. jab kabhi aapas mein sharte lagate hain to mujhse meri raay zarur mangte hain.
chunki main ek patangbaz hoon, isliye meri najren ek patangbaz ki nazren hain jo pahli nazar mein uDti patang ke andaj ko taaD leti hain ki asman par pench laDane vali patangon mein kaun si patang kategi, kaun harega aur kaun jitega?
jab kabhi do patang aapas mein pench laDa rahi hon aur kafi der se ek dusre ko paintre dikha rahi hon, us vaqt chhat par tamasha dekhte laDke bechaini se mujhe pukar kar puchhte hain,
‘yakub. . . kaun kategi?”
‘vah uunchi vali laal rang ki. ’ main uDti patangon ko ghaur se dekhkar javab deta. ek pal baad vahi hota hai, jiski bhavishyvani main karta. pure mohalle mein sirf ek mere barabar ka patangbaz hai, jiska naam hamid tutle hain. mujhe ye svikar karne mein koi hichak nahin hai ki hamid mujhse patangbazi mein kisi tarah kam nahin hai. mujhse achchhi Dor nahin khinchta aur mujhse kam pench nahin janta. balki hum patangbazi ke phan mein barabar hain, isliye hammen mel hai. hum kabhi ek dusre ke muqable mein khaDe nahin hote hain aur kabhi ek dusre ko katte nahin hain.
haan, to bata raha tha ki main ek patangbaz hoon aur har insaan ki tarah ek patangbaz bhi apni zindagi mein kisi dilchasp ghatna se do chaar ho sakta hai aur mere saath jo ghatna ghati thi, use aaj gujre koi chaar saal ke lagbhag ho ge hain, magar uski yaad aaj bhi taza hai.
us din dopahar ke khane ke vaqt kisi ne darvaze ki kunDi khatakhtai. mainne jakar darvaza khola to samne hari chadar mein lipti ek laDki ko samne khaDa paya, jo ghabrai avaz mein poochh rahi thee—
‘kya yakub aap hi hain?”
‘yakub. . . haan, main hi hoon. ’ main use dekhkar baukhla sa gaya tha. eqdam se chaunk kar bola. ‘main apaki nai paDosan hoon. kuch din pahle hum ayen hain. mera bhai bimar hai. aapke manjhe theek karne ki avaz sun kar wo bechain ho utha aur ye teen reel saddi bhej kar aapse kahlaya hai ki kya aap is par shisha chaDha denge, chaDha denge na?’ ghabrahat bhari avaz se usne punchha.
uski avaz dilanshin thi. mujhe baDi mithi lagi. uski hari chadar se jhankti uski kali ankhen chamakdar theen. naak aur matha safed tha. mujhe wo ek aisi safed patang ki tarah dikhi jis par kale dhabbe ankhon ki tarah bane hain. uska buDha kad uske duble hone ke karan kafi lamba nazar aa raha tha. main gunga sa bana use taak raha tha. ekayek usne jhunjhlahat bhare ghusse se puchha,
‘shisha chaDhayenge ya nahin?’
“haan. . . chaDha dunga, chaDha dunga. . . ” mainne ghabra kar jaldi se kaha.
uske safed khubsurat hathon ne jo samandar ki jhaag ki tarah lage, chadar se teen reel saddi nikal kar di. uske nakhun laal range hue the. mainne saddi pakDi aur usne puchha, ‘kab tak taiyar ho jayega?’
‘parson tak. ’
wo chalne ko muDi tabhi mere munh se nikal paDa, ‘kaun sa rang chahiye?’
‘
kaun sa rang hona chahiye?” usne chehra meri taraf moDkar mujhse ulta saval kiya.
‘kya chittindar bana doon?’
‘haan, main koi rang khaas nahin bata paungi. phir bhi apne bachpane ki tutlahat ki aadat se titdar pasand karungi. . . baman e khuda. ’ wo ek mithi hansi hanste hue boli. uske jane ke baad jab tak mainne use dobara nahin dekha, tab tak vahi chhavi meri ankhon mein tiki rahi, jo baar baar apne ko dohra rahi thi.
apni bachpan ki aadat ke mutabik kahungi. . . titdar. . . baman e khuda. ’ uski safed peshani aur do kali ankhen meri najron ke samne kisi patang ki tarah nachti rahin aur dil mein ek gudgudi si mahsus hoti rahi. dil chaha gungunaun.
‘apaki nai paDosan. . . apaki nai paDosan. ’
maan ko samne dekhkar main ekayek chahak kar bola, ‘kaisa achchha paDos mila hai. ’
‘kya tum unhen jante ho?’ maan ne puchha.
‘haan, main janta hoon. ’ mainne javab diya. do din tak main kaam mein laga raha. mere paas jitna masala tha, mainne use kharch kar diya. wo apni mithi avaz aur safed peshani ke saath hazir hui.
‘kya Dora taiyar hai?’
‘taiyar hai. ’ kahta hua mainne manjhe ki tezi aur mazbuti ko dikhaya, ‘mainne safed aur nila rang lagaya hai, rang bahut achchha hai. asman par badal hon to ye rang theek rahta hai. ’
‘kitna doon?’ rang ko dekhkar wo khushi se uchhli, phir mere haath se charkhi chhinti hui puchhne lagi. main usko saval ka javab dene ke bajaye use batane laga ye charkhi bhi shisham ki lakDi ki hai, bahut mazbut hai, agar chhat par se niche aa gire to bhi nahin tutegi. phaulad hai phaulad. ’
‘kitna doon?’ usne beech mein meri baat kaat kar pahle din ki tarah jhunjhlahat se puchha. uske is saval se mere sare badan mein ek jhijhak si lahrai.
‘yah kaise mumkin hai ki main apne paDos se paisa loon?”
‘yani paisa nahin lenge?”
‘nahin’ mainne inkaar mein sir hilaya.
‘khoob! bahman e khuda. ’ wo pahle ki tarah mithi hansi hansi. phir mujhe ghaur se dekha aur khuda hafij kahkar chali gai. uske jane ke baad mera dil tezi se dhaDakne laga aur avaz gunji ‘main apaki nai paDosan hoon. ’
main ghar ke andar gaya. maan ko kaam mein vyast dekhkar chahka, ‘kaisa achchha paDos mila hai?”
‘kya unhen jante ho tum?’ maan ne usi tarah thanDe laparvah lahze mein puchha.
‘haan main janta hoon unhen. ’ ghamanD se bhar kar mainne is baar javab diya. dusre din main chhat par khaDa hokar uDti patangon ko dekh raha tha. hamid tutle ki patang asman par is tarah se uD rahi thi, jaise laDai ke maidan mein koi bahadur yoddha uski uDti patang ka ek kona safed aur teen kone nile the aur wo kisi ajahde ki tarah kunkrati asman par tair rahi thi aur jis taraf baDhti udhar se dusri patang ghayab ho jati, kyonki unmen itna dam nahin tha ki muqable mein khaDi ho pati, balki sabhi usse door chhatak rahi theen. kuch patang
uDane valon ne apni patangen ahista ahista niche utarna shuru kar di theen.
tabhi eqdam se ne paDosi ke chhat se ek patang uthti dikhi, jo teen konon se safed thi aur uski dum aur ankhen nili theen. eqdam se paDosi laDki ki yaad aai aur dil mein gungunahat gunji.
‘main apaki nai paDosan hoon. ’
paDosi ki chhat hamse uunchi thi aur us par uunchi munDeren khinchi hone ki vajah se mujhe patang uDane vala nazar nahin aa raha tha. to bhi main apni rangi saddi ko dekhana chaah raha tha ki wo kaisi lag rahi hai.
paDosi vali patang uunchi uthi. eqdam se mera dhyaan us taraf gaya ki nili dum vali patang teji se hamid tutle ki patang ki taraf baDh rahi hai. mera badan kaanp utha. mera dil chaha ki puri takat se chilla kar kahun ki udhar mat baDho, magar der ho chuki thi aur ab donon patangon ki Doren ek dusre mein ulajh gai theen.
mere badan par ek tarah ki udaas susti chha gai—is khayal se ki ye hamara bimar paDosi laDka abhi dhuen ki tarah asman mein ghayab ho jayega. us vaqt main aphsos se us laDki ki taraf nahin dekh paunga, kyonki patang katne ke liye sirf Dor ka achchha hona hi kafi nahin hain, balki maharat aur tazurba bhi bahut zaruri hai aur ye donon chizen hamid tutle ke paas had se zyada maujud hain.
donon patangen kafi door ja chuki theen aur patang laDane ki jang kafi der se jari thi, jisse mujhe thoDi si DhaDhas bandhi ki hamara paDosi koi anaDi nahin hai. phir main khud se kahne laga jab wo itna achchha patangbaz hai, to phir usne saddi par shisha chaDhane ko mere paas kyon bheja?
ab donon patangen kaghaj ke purjon ki tarah uupar asman par tairti nazar aa rahi theen. hamid tutle ki patang khaDi thahri si aage baDh rahi thi aur paDosi ki Dagmagati si aage baDh rahi thi. ekayek paDosi ki patang nachti hui niche ki taraf aati nazar aai. munh par hathon ka gola banakar main zor se chillaya, ‘Dheel mat do! Dor ko tane raho!’
paDosi ki Dagmagati patang sachmuch dhire dhire nachti hui niche ki taraf girne si lagi. main jhunjhlaya sa sochne laga, ‘yah bimar laDka sachmuch bahra bhi hai. ’ main uski munDer ki taraf lapka aur divar se chhat ki taraf jakar unki munDer par chaDh gaya. ashcharya se main jam gaya. vahan par paDosan laDki khaDi thi, jiske bayen haath mein charkhi thi aur dayen haath mein Dor. baal bikhre hue the. pareshan aur bechain nazar aa rahi thi. uske pichhe jakar khaDa hokar mainne dhire se kaha, ‘Dor ko mazbuti se tano. ’
‘mujhse nahin sambhal rahi hai. khud aakar sambhalo. ’ usse dhire se kaha, jaise mera vahan is tarah se aana use bura nahin laga tha. main chhat par kuda aur baDi mushkil se girti patang ko naat paya. dhire dhire patang uunchi pengen lene lagi aur ekdam se mainne dekha ki teen taraf se nili patang kati hui niche ki taraf tezi se gir rahi hai. charon taraf se chhaton se ek shor sa utha. laDki ne khushi ke mare cheekh kar kaha, ‘kaat diya. . . kaat diya use!’ phir chhat ke do teen baar khushi mein chakkar lagaye aur zor zor se nara lagaya.
‘jindabad!’
‘kya hua jainab?’ niche se buDhi avaz ubhri.
‘maan. . . hamid tutle ko kaat diya. ’ laDki ne niche jhaank kar javab diya.
‘are shaitan !’ buDhi avaz phir ubhri.
hamari gali ne paDosi ki tariphon se gunjne lagi. sabhi us laDke ke bare mein baat kar rahe the, jise unhonne abhi dekha nahin tha, magar jisne hamid tutle ki patang kaat di thi. pahle din log aapas mein baat kar rahe the.
‘teen reel manjha tha, jo hamid kat gaya. ’ dusre din kahne lage ’do reel manjha tha jo hamid kat gaya. baad mein phir kahne lage ’ek reel manjha thi, jo hamid ko kaat pai. ’
akhir sab saungadh khakar kahte ’vallah! usne. . . ’
kai din is ghatna ko guzar ge. ek din main chhat par khaDa patang uDa raha tha. ekayek dekhta kya hoon ki teen taraf se safed aur kali dum aur dhabbe ke saath ne paDosi ki chhat par ek patang uupar uthi hai. teji se uupar uDi aur pal bhar mein meri patang ke paas aa gai, jaise laDne ki taiyari mein ho. main apni patang ko udhar se kheench nahin paya, kyonki haath ka sara etmaad jaise ghayab ho gaya tha.
ghusse se sara vajud ubal paDa aur main baDabDaya ‘are bevaquf laDki!’
patangon ki penchen laDna shuru ho gai theen aur ab kisi pal bhi donon ki Dor ek ho sakti thi is yaqin ke saath ki main paDosi ko apne anubhav se daba lunga, apne ko dilasa dene laga ki maharat baDi cheez hai. shuru ke teen minat Dor baDe anubhavhin andaj se khinchti rahi, phir eqdam se taDap kar jo laDai par amada hui to usse mujhe aisa laga, jaise pichhle bees saal patang uDakar usne ye maharat hasil ki ho. ab mera dil har baar pahle se zyada ghusse aur khauf se ghabrane laga. aas paas ki chhat se laDke ankhon par haath rakhe baDe dhyaan se is laDai ko taak rahe the. unki ankhon mein mere prati aadar aur jigyasa thi. mere dil ki dhaDkan baDhne lagi. hava tez nahin thi, isliye patangen uupar na jakar kshitij ki taraf baDh rahi theen aur unki Dor niche ki taraf aa rahi thi aur patangen chhaton ke najdik hoti ja rahi theen.
‘bahut ho gaya bas ab khinchon’ main ekayek tezi se chikha. kisi ne javab nahin diya, balki javab mein shaitani se bhari laDki ki hansi ki avaz sunai paDi. iske baad mainne Dor ko tana aur use khinchne laga. Dor dhire dhire karke uupar uthne lagi. mujhe ummid bandh gai ki meri paDosan bhi tanegi, magar wo usi tarah se Dor ko Dheel deti rahi aur tezi se Dor, aage chhoDti ja rahi thi. ye dekhkar main ghusse se chikha, ‘khincho !’
ghusse se main sunn paDne laga aur mera haath Dhila paD gaya. aur asapas ki chhat se eksaath tajjub bhari avaz gunji, ‘o!’
meri patang kat gai thi. Dor mainne chhoD di. chhat se niche divar par chaDha. jo bhi gali mujhe yaad thi, wo main us laDki par qurban karna chahta tha. is irade se main uski munDer ki taraf lapka aur uupar chaDhte hi jo manjar mainne dekha, usse meri nazren samne ki chhat par jami rah gain. gala sookh gaya. haath pair Dhile paD ge. patang ki Dor hamid tutle ke haath mein thi. paDosi laDki usi tarah khushi se chhat ke chakkar laga rahi thi. niche se avaz aai, ‘kya hua jainab?”
‘maan, yakub ko kata. ’ usne chhat se niche jhankakar kaha.
‘are shaitan. ’ buDhi avaz dobara ubhri.
hamid tutle patang ko ahista ahista niche utaar raha tha aur bina laDki ki khushi ki taraf dhyaan diye wo kah raha tha, ‘jab prtidvandvi Dor tane to tum Dheel chhoDo. . . tezi se Dheel chhoDo. ’
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 381)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।