साइमन ने अपनी पत्नी के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया, यह बात अब तक पड़ोसियों के गले नहीं उतर रही थी, सभी पड़ोसियों के लिए यह आश्चर्यजनक था, आस-पड़ोस की सभी स्त्रियाँ उसे एक आदर्श पति मानती थीं और मिसेज़ साइमन भी एक पतिव्रता स्त्री थीं, दिन-रात खटती रहतीं। मुहल्ले की सभी औरतें मानती थीं कि वह अपने पति के लिए जितना करती है, उतना शायद ही कोई कर सकता है, अब बदले में उसे क्या मिला? शायद वह अचानक पगला गया था।
साइमन से ब्याह करने से पहले मिसेज़ साइमन विधवा थीं और मिसेज़ फोर्ड कहलाती थीं। फोर्ड एक माल जहाज में कुली था, एक दिन वह जहाज उस पर सवार सभी यात्रियों समेत डूब गया। उसे अपनी ज़िद का अच्छा सबक मिला था, वह सैलानी मिज़ाज का था। इसलिए एक अच्छा कारीगर होने के बावजूद उसने जहाज पर नौकरी कर ख़ुद को तबाह कर लिया था, बारह बरस तक ब्याहता रह कर भी मिसेज़ फोर्ड निस्संतान थीं और अब मिसेज़ साइमन के रूप में भी उसके कोई संतान न थी।
जहाँ तक साइमन का सवाल था, सभी मानते थे कि वह बहुत भाग्यशाली है, जो उसे इतनी सुघड़ पत्नी मिली है। वह अच्छा बढ़ई और लुहार था, पर दुनियादारी में बिल्कुल फूहड़ था। उसकी देखभाल के लिए यदि मिसेज़ साइमन न होतीं तो थॉमस का जाने क्या हाल होता? वह दब्बू और शांत स्वभाव का था, उसके बाल सुलभ चेहरे पर मूँछें छितरी हुई थीं, उसे कोई लत नहीं थी। यहाँ तक कि विवाह के बाद उसने सिगरेट पीना भी छोड़ दिया था और मिसेज़ साइमन ने उसमें कई अच्छी आदतें डाल दी थीं। वह हर इतवार बिना नागा एक बड़ी-सी टोपी पहन गिरजाघर जाता और वहाँ इकन्नी चढ़ाता। यह इकन्नी इसी काम के लिए सप्ताह के वेतन में से उसे दी जाती थी। फिर घर आकर मिसेज़ साइमन की निगरानी में वह अपनी बेहतरीन पोशाक उतारता, फिर उसे अच्छी तरह, सावधानी से ब्रश से झाड़कर रख देता। हर शनिवार को दोपहर में वह छुरी-काँटों, बर्तनों, जूतों और खिड़कियों की इत्मीनान और सावधानी से सफ़ाई करता, मंगलवार की शाम वह कपड़े इस्त्री करवाने ले जाता और शनिवार की रात घर का सामान लाने मिसेज़ साइमन के साथ बाज़ार जाता और सामान लादकर लाता।
मिसेज़ साइमन जन्मजात गुणी थीं, बेहद कुशलता से घर के सारे काम निपटातीं, थॉमस को प्रति माह छत्तीस अथवा अड़तीस शिलिंग वेतन मिलता था। उसकी एक-एक पाई का वह सदुपयोग करतीं और साइमन ने कभी यह सोचने की ज़ुर्रत नहीं की, कि इसमें से वह कितना बचाती हैं? वह बेहद सफाई पसंद गृहणी थीं, जिससे कई मर्तबा परेशानी भी झेलनी पड़ती थी। साइमन जब घर लौटता तो वह दरवाज़े पर खड़ी मिलतीं। वहीं उसी वक़्त ठंडे फ़र्श पर एक पैर पर खड़े रह वह जूते उतार चप्पल पहनता, ताकि ज़मीन गंदी न हो, क्योंकि रोज़ मिसेज़ साइमन और नीचे की मंजिल पर रहने वाले परिवार की महिला घिस-घिसकर फ़र्श साफ़ करती थीं। सीढ़ियों पर जो कालीन बिछाया गया था, वह उसका था। काम से लौटने पर वह अपनी नज़रों के सामने पति के हाथ-पैर धुलवातीं, ताकि दीवार पर गंदे पानी की एक बूंद भी न उछले, इतनी सावधानी के बावजूद यदि कभी-कभार दीवार पर कोई धब्बा पड़ जाता तो वह साइमन को डाँट-फटकार लगातीं और उसे स्वार्थी होने पर लंबे भाषण दे डालतीं। शुरू में रेडीमेड कपड़ों की दुकान पर भी वह उसके साथ जाती थीं। उसके लिए कपड़े पसंद करतीं और पैसे भी वही चुकातीं, क्योंकि उसकी नज़र में सभी पुरुष इतने भोंदू होते हैं कि कुछ बोल नहीं पाते और दुकानदार मनमानी क़ीमत वसूल लेते हैं, अब वह थोड़ा सुधर गई थीं।
एक दिन सड़क के नुक्कड़ पर उसने एक व्यक्ति को सस्ते दामों में कटपीस बेचते देखा। फिर क्या था, उसने फौरन तय कर लिया कि ख़ुद ही साइमन के कपड़े सिलेगी। हर बात पर तत्काल अमल करना उसका एक गुण था, इसीलिए उसी दोपहर वह एक पुराने कपड़े में से कोट, पतलून सिलने बैठ गईं। इतना ही नहीं, रविवार तक सूट सिल कर तैयार भी हो गया। साइमन कपड़े देख कर चकरा गया। वह इस धक्के से उबर पाता, उससे पहले ही उसे सूट पहना दिया गया और गिरजाघर भेज दिया गया। कपड़े कतई ठीक नहीं सिले थे। पतलून जाँघ के पास बहुत तंग था, एड़ियों के पीछे इतना खुला कि झूलने लगता। बैठते ही उसमें बल पड़ते और कोट का कालर कंधे पर लटकने लगता। पर धीरे-धीरे आदत पड़ने पर साइमन को कपड़ों का बेढंगापन खलना दूर हो गया। उसके सभी साथी उसके लिबास का जो मज़ाक उड़ाते, वह असहनीय था पर मिसेज़ साइमन थीं, जो एक के बाद एक सूट सिलती चली जाती थीं और हर बार पुराने के नाप से ही नया सूट सिला जाता, इसलिए सूट में जो बेढंगापन था, वह कभी ठीक नहीं होता, बल्कि हर नए सूट के साथ अधिक उभर कर दिखने लगता। साइमन ने कई मर्तबा इशारे से उसे रोकने की बेकार कोशिश की। उसने बड़े स्नेह से कहा कि उसे यह अच्छा नहीं लगता कि उसके लिए वह दिन-रात मेहनत करे और सीने-सिलाने के काम से आँखों पर भी बुरा असर पड़ता है। थोड़ी ही दूरी पर सड़क के किनारे एक दर्ज़ी की नई दुकान खुली है, जो बहुत सस्ते में कपड़े सिल देता है। क्यों न...
“हाँ, हाँ, वह तुरंत बिगड़ पडीं और ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगीं, “तुम्हें तो जैसे मेरा बहुत ख़याल है, मैं कब कहती हूँ तुम्हें अपनी पत्नी के मुँह पर झूठ बोलने में शर्म आनी चाहिए। क्या मैं तुम्हें जानती नहीं, मैं तुम्हें भली-भाँति पहचानती हूँ। तुम्हें मेरा इतना ख़याल है कि तुम चाहते हो मैं मेहनत नहीं करूँ और तुम दर्ज़ियों से कपड़े सिला-सिला कर पैसे बर्बाद करो। मैं दिन-रात खटती रहती हूँ, ताकि पैसों की बचत हो। मेरा क्या यही पुरस्कार है? लगता है, तुम्हें पैसा सड़क पर पड़ा मिलता है, जिसे उड़ाना चाहते हो। अच्छा होगा, अगर मैं भी औरों की तरह बिस्तर पर पड़ी रोटियाँ तोड़ती रहूँ, शायद इससे तुम्हारी नज़रों में मेरी इज़्ज़त बढ़ेगी।”
उसके बाद थॉमस साइमन ने उस बात का कभी ज़िक्र नहीं किया, यहाँ तक कि जब उसने उसके बाल भी ख़ुद काटने का निर्णय किया तो भी वह चुप रहा।
बरसों यही सिलसिला चलता रहा, एक दिन गर्मियों की शाम थी, मिसेज़ साइमन छोटी-मोटी ख़रीदारी के लिए थैला लेकर बाज़ार गई थीं। साइमन घर में अकेला था। उसने चाय के बर्तन धोए और सजाकर रख दिए। उसके बाद वह उन दो नई पतलूनों को ग़ौर से देखने लगा, जो उसी दिन सिलकर तैयार हुई थीं और दरवाज़े के पीछे लटक रही थीं। अपनी जगह वे निर्दोष भाव से टँगी थीं—पैरों के पास तंग, कमर की तरफ़ खुली, अब तक सिली गई पतलूनों से कहीं अधिक बेढंगी, पतलूनों को देखते-देखते अचानक एक दुष्ट ख़याल उसके मन में उठा। अपने ख़याल पर थोड़ी शर्म भी आई। यकीनन पत्नी के दूसरे तमाम उपकारों की तरह वह इन पतलूनों के लिए भी उसका शुक्रगुज़ार था। फिर भी वह दुष्ट विचार उसके दिमाग़ से दूर नहीं हुआ। मन ही मन वह सोचने लगा कि जब वह इन कपड़ों को पहन काम पर जाएगा तो उसके साथी उसकी कैसी भद्द उड़ाएँगे?
“क्यों न इन्हें कचरे के डिब्बे में फेंक दिया जाए!” मन के दुष्ट विचार ने यही कहा, “आख़िर ये इसी लायक तो हैं!”
साइमन अपने भीतर के इस दुष्ट ख़याल से काँप उठा और अपने इस दुष्ट ख़याल पर क़ाबू पाने के लिए उसने चाय के बर्तनों को फिर से साफ़ करने की ठानी। उठ कर वह पीछे के कमरे की ओर गया, वहाँ से उसने देखा कि सामने का दरवाज़ा खुला है, शायद नीचे की मंज़िल के बच्चे ग़लती से खुला छोड़ गए थे। सामने का दरवाज़ा खुला रहे, यह बात मिसेज़ साइमन को कतई पसंद न थी, यह उसे प्रतिष्ठा घटने जैसा लगता था। इसलिए साइमन नीचे गया, ताकि लौटने पर वह उस पर बरस न पड़े, दरवाज़ा बंद करते वक़्त उसने गली में झाँका।
सड़क के किनारे एक आदमी टहल रहा था और बड़ी उत्सुकता से दरवाज़े की तरफ़ ताक रहा था, दोनों हाथ नीले रंग की ढीली-ढाली पतलून की जेब में थे, सिर पर ऊनी चोंचदार टोपी पहन रखी थी, जो खलासी पहनते हैं, वह दरवाज़े के निकट आया और पूछा, “श्रीमती फोर्ड अंदर हैं या नहीं?”
साइमन तकरीबन पाँच सेंकेंड उसे घूरता रहा और फिर बोला—“उहूँ?”
“वे पहले मिसेज़ फोर्ड थीं, अब मिसेज़ साइमन कहलाती हैं, क्यों ठीक है न?”
यह बात उसने ऐसे धूर्त ढंग से कही कि साइमन को अच्छा नहीं लगा और न ही वह कुछ समझ पाया।
“नहीं”, साइमन ने कहा—“वह इस समय घर पर नहीं है।”
“तुम ही तो उसके पति हो, हाँ, हो न?”
उस आदमी ने मुँह से पाइप लगाया और काफ़ी वक़्त मुँह सिकोड़ उसकी ओर ताकता रहा। आख़िर वह बोला, “बंधु, तुम तो बिल्कुल उसी क़िस्म के हो जैसा वह पसंद करती है,” यह कह वह उसे फिर से निहारने लगा। फिर उसने देखा कि साइमन दरवाज़ा बंद करने जा रहा है तो एक पैर दहलीज़ पर और हाथ दरवाज़े पर रख कर बोला, “दोस्त इतनी जल्दबाज़ी मत करो, मैं तुमसे ही बातें करने के लिए आया हूँ।” और उसने अपनी भौंहें सिकोड़ लीं।
साइमन को बड़ा अजीब लग रहा था, पर दरवाज़ा भी बंद नहीं कर सकता था, इसलिए उसे राज़ी होना पड़ा, “तुम क्या चाहते हो?” उसने पूछा, “मैं तुम्हें नहीं जानता।”
“तो मेरी गुस्ताख़ी माफ़ करो, पहले मैं तुम्हें अपना परिचय दे दूँ।” नकली नम्रता दिखाते हुए उसने अपनी टोपी अभिवादन की मुद्रा में उठाई, “मैं बॉब फोर्ड हूँ।” वह बोला, “मान लो कि मैं एक बिल्कुल अलहदा दुनिया से लौटकर आया हूँ। सभी समझते हैं कि पाँच बरस पहले मैं दूसरे लोगों के साथ जहाज में डूब कर मर गया था। मैं यहाँ अपनी बीवी से मिलने आया हूँ।”
जब वह बोल रहा था तो साइमन के चेहरे का रंग उड़ता जा रहा था, उसकी बात ख़त्म होने पर उसने बालों में उँगलियाँ फिराई, नीचे बिछाई दरी को देखा, ऊपर-पंखे को, फिर बाहर सड़क की ओर देखा और उस आँगतुक पर एक कड़ी निगाह फेंकी, पर मुँह से एक शब्द भी नहीं बोल पाया।
“मैं अपनी पत्नी को देखने आया हूँ,” उस आदमी ने अपनी बात दोहराई, “तो क्या अब हम खुल कर बात कर लें?”
साइमन ने धीरे से मुँह बंद किया और बिल्कुल यंत्रचालित अंदाज़ में सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उँगलियाँ अब भी बालों में ही थीं, धीरे-धीरे सारा मसला ज़ेहन में स्पष्ट होने लगा था और मन में वह दुष्ट ख़याल फिर से उछलने लगा था। मान लो यह शख़्स फोर्ड ही निकला तब? मान लो यह अपनी पत्नी को वापस माँगे तो क्या उसके लिए असहनीय होगा? क्या वह यह चोट सह सकेगा? मन ही मन वह उन पतलूनों, चाय के बर्तनों, छुरी-काँटों, खिड़कियों की साफ़-सफ़ाई के बारे में सोचने लगा, यह सोचते हुए वह ख़ुद को परास्त-सा अनुभव कर रहा था।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए फोर्ड ने उसकी बाँह पकड़ ली और भारी आवाज़ में फुसफुसाते हुए पूछा, “उसके लौटने में अभी कितना वक़्त है?”
“मेरे ख़याल से क़रीब एक घंटा,” साइमन ने जवाब देने से पहले मन-ही-मन सवाल दोहराया, फिर बैठक का दरवाज़ा खोला।
“ओह!” फोर्ड ने चारों ओर नज़र घुमाते हुए कहा, “लगता है तुम बड़े मज़े में हो, ये कुर्सियाँ, ये सारा सामान”—उसने पाइप से इशारा करते हुए कहा—
“उसी का यानी एक तरह से मेरा ही है, चलो अब खुल कर बात कर ली वह बैठ गया और विचारमग्र मुद्रा में सिगार के कश लेते हुए बोला, “हाँ, तो,” उसने बात जारी रखी, “मैं पूरे हाँड़-मांस के साथ ज़िंदा हूँ, लोग समझते हैं कि बॉब फोर्ड ‘मूलतैन’ जहाज के साथ डूबकर मर गया पर, मैं जीवित हूँ।” और उसने पाइप से साइमन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, “मैं मरा नहीं, जानते हो क्यों? क्योंकि जर्मनी के एक जहाज ने मुझे समुद्र से बाहर निकाल लिया और मुझे अमेरिका ले गया, कुछ बरसों तक मैं वहीं भटकता रहा और— अब मैं अपनी बीवी से मिलने आ गया हूँ।”
“वह...वह सिगरेट पीना कतई पसंद नहीं करती,” साइमन ने कहा, मानों अचानक उसे यह बात याद आ गई हो।
“नहीं, मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि वह कुछ नहीं कहेगी,” पाइप मुँह से निकाल हाथ में थामते हुए फोर्ड बोला, “मैं उसके सारे तौर-तरीक़े जानता हूँ, ख़ैर...तुम्हें वह कैसी लगती है? क्या वह तुमसे खिड़कियाँ साफ़ करवाती है?”
“हाँ!” साइमन ने हिचकिचाते हुए हामी भरी। “हाँ, कभी-कभार मैं उसकी मदद कर देता हूँ।”
“ओह! तो वह तुमसे छुरी-काँटे भी साफ़ करवाती होगी, मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ, और बर्तन भी, मुझे सब पता है।” वह उठा और झुक कर साइमन का पीछे से सिर देखने लगा—“मेरे ख़याल से तुम्हारे बाल भी वही काटती होगी, तुम मानों या न मानों पर मैं उसे ख़ूब जानता हूँ।”
शर्म से झेंपते साइमन की उसने हर कोण से जाँच की, फिर दरवाज़े के पीछे लटक रहे पतलून का एक पैर ऊपर उठाया। “मैं शर्तिया कह सकता हूँ, ये पतलून भी उसी ने सिले हैं। कोई और ऐसा पतलून सिल ही नहीं सकता। अच्छा, जो पतलून तुमने पहना हैं, वह भी तो उसी ने सिला है, है न?”
साइमन के मन में लगातार उस दुष्ट भाव से तर्क-वितर्क चल रहा था। अगर यह शख़्स अपनी बीवी माँग लेता है तो ये पतलून उसे ही पहनने पड़ेंगे।
“ओह!” फोर्ड बोलता रहा, “वह तनिक भी नहीं बदली, अरे मेरे यार, यह भी एक अच्छा मज़ाक है।”
साइमन को अचानक लगा कि अब इन बातों में कुछ नहीं धरा। सीधी सी बात यह कि वह इसकी पत्नी है और शिष्टाचार का तक़ाज़ा है कि मैं इस बात को मान लूँ, भीतर दुष्ट भाव ने उसे समझाया कि यही उसका कर्त्तव्य है।
“अच्छा तो,” अचानक फोर्ड बोला, “वक़्त कम है और हम काम की बात नहीं कर रहे हैं। दोस्त मैं तुमसे कठोर नहीं होऊँगा। मुझे अपने अधिकार पर डटे रहना चाहिए, पर मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारी बसी-बसाई गृहस्थी है, तुम आराम से जीवन बसर कर रहे हो और तुम भले आदमी हो, इसलिए मैं,’’ सहसा बड़ी उदारता दिखाते हुए उसने कहा—“मिलाओ हाथ, मैं बस एक मुनासिब रक़म बताए देता हूँ, न कम न ज़्यादा। पाँच पाउंड में मामला तय कर लेते हैं और फिर मैं हमेशा-हमेशा के लिए दूर चला जाऊँगा।”
साइमन के पास पाँच पाउंड तो क्या पाँच पेंस भी नहीं थे—और उसने साफ़-साफ़ कह दिया, “मैं दरअसल पति-पत्नी के बीच आने का ख़याल भी मन में नहीं लाना चाहता।” उसने ज़ोर देकर कहा, “किसी भी क़ीमत पर नहीं, हालाँकि यह मेरे लिए बहुत कठिन था, पर यह मेरा कर्त्तव्य है, मैं अपनी बात से मुकरूँगा नहीं।”
“नहीं, नहीं”—फोर्ड ने साइमन की बाँह पकड़ फौरन कहा, “ऐसा मत करो, मैं थोड़ा कम किए देता हूँ, अच्छा, चलो तीन पाउंड, देखो यह बहुत ही वाजिब दाम है, क्यों है न! इतनी-सी रक़म के बदले मैं सदा के लिए किसी दूर देश चला जाऊँगा। अपनी पत्नी को कभी अपना मुँह तक नहीं दिखाऊँगा। देखो यह मर्द की ज़बान है, मैं अपनी ज़बान को पलटूँगा नहीं, मैं दफ़ा हो जाऊँगा, बोलो, ठीक है न?”
“बेशक-तुमने मुनासिब दाम माँगे हैं” साइमन ने उल्लसित होकर कहा, “यह तो बहुत कम है, यह तुम्हारी कृपा है, पर मैं तुम्हारी भलाई का कोई अनुचित फ़ायदा नहीं उठाऊँगा। मि० फोर्ड, वह तुम्हारी पत्नी है और मैं तुम दोनों के बीच नहीं आऊँगा, मैं माफ़ी चाहता हूँ। तुम यही रहो, अपना हक़ लो। यहाँ से अगर कोई जाएगा तो मैं जाऊँगा।” और उसने दरवाज़े की ओर क़दम बढ़ाए।
“रुक जाओ,’’ फोर्ड ने कहा और साइमन तथा दरवाज़े के बीच आकर खड़ा हो गया। “देखो, जल्दबाज़ी मत करो, ज़रा सोचो तुम्हारे लिए यह कितना नुक़सानदेह होगा। तुम्हारा कोई घर-बार नहीं रहेगा, न ही कोई देखभाल करने वाला होगा। यह वाक़ई भयानक होगा। अच्छा छोड़ो, हम दाम पर नहीं झगड़ेंगे, चलो एक-आध पाउंड ही सही, यह मर्द की ज़बान है, इतना पैसा तुम आसानी से दे सकते हो—देखो यहाँ यह घड़ी है और इतना बढ़िया सामान है, बस एक पाउंड दे दो और मैं चलता बनूँगा।”
सामने के दरवाज़े पर किसी ने दो बार दस्तक दी। इस इलाक़े में दो बार दस्तक देने का मतलब होता है, यह ऊपर वाली मंज़िल के किराएदार के लिए है।
“कौन है?” फोर्ड ने सशंकित होकर पूछा।
“मैं देखता हूँ, “थॉमस साइमन ने कहा और तेज़ी से सीढ़ियों की ओर लपका।
बॉब फोर्ड ने सामने का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनी और खिड़की के निकट जाकर नीचे झाँकने लगा। नीचे उसे एक स्त्री की टोपी दिखाई दी, फिर ओझल हो गई, तभी दरवाज़े के भीतर से उसे वही चिर-परिचित स्त्री कंठ की आवाज़ सुनाई दी।
“ठीक है, ठीक है—ऊपर तुमसे कोई मिलने आया है।” साइमन ने जवाब दिया। फिर घनीभूत होते हुए अंधकार में फोर्ड ने एक आदमी को सरपट भागते देखा। वह थॉमस साइमन था।
फोर्ड तीन क़दमों में ही उछल कर नीचे जा पहुँचा, उसकी बीवी बाहर के दरवाज़े पर हक्की-बक्की साइमन को घूर रही थी, जो पीछे के कमरे में घुसा, खिड़की खोलकर गुसलखाने की छत से पिछवाड़े कूद पड़ा। इसके बाद तेज़ी से मकान की चारदीवारी लाँघकर अँधेरे में ओझल हो गया। किसी ने भी उसे नहीं देखा।
यही वजह थी कि ठीक अपनी बीवी की नज़रों के सामने साइमन के इस तरह नीचतापूर्ण तरीक़े से भाग जाने पर सभी पड़ोसी हैरान थे।
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baDhegi. ”
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barson yahi silsila chalta raha, ek din garmiyon ki shaam thi, misez saiman chhoti moti kharidari ke liye thaila lekar bazar gai theen. saiman ghar mein akela tha. usne chaay ke bartan dhoe aur sajakar rakh diye. uske baad wo un do nai patlunon ko ghaur se dekhne laga, jo usi din silkar taiyar hui theen aur darvaze ke pichhe latak rahi thi. apni jagah ve nirdosh bhaav se tangi theen— paas tang, kamar ki taraf khuli, ab tak sili gai patlunon se kahin adhik beDhangi, patlunon ko dekhte dekhte achanak ek dusht khayal uske man mein utha. apne khayal par thoDi sharm bhi aai. yakinan patni ke dusre tamam upkaron ki tarah wo in patlunon ke liye bhi uska shukraguzar tha. phir bhi wo dusht vichar uske dimagh se door nahin hua. man hi man wo sochne laga ki jab wo in kapDon ko pahan kaam par jayega to uske sathi uski kaisi bhadd uDayenge?
“kyon na inhen kachre ke Dibbe mein phenk diya jaye!” man ke dusht vichar ne yahi kaha, “akhir ye isi layak to hain!”
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saiman takriban paanch senkenD use ghurta raha aur phir bola—”uhun?”
“ve pahle misez phorD theen, ab misez saiman kahlati hain, kyon theek hai na?”
ye baat usne aise dhoort Dhang se kahi ki saiman ko achchha nahin laga aur na hi wo kuch samajh paya.
“nahin”, saiman ne kaha—“vah is samay ghar par nahin hai. ”
“tum hi to uske pati ho, haan, ho na?”
us adami ne munh se paip lagaya aur kafi vaqt munh sikoD uski or takta raha. akhir wo bola, “bandhu, tum to bilkul usi qism ke ho jaisa wo pasand karti hai,” ye kah wo use phir se niharne laga. phir usne dekha ki saiman darvaza band karne ja raha hai to ek pair dahliz par aur haath darvaze par rakh kar bola, “dost itni jaldbazi mat karo, main tumse hi baten karne ke liye aaya hoon. ” aur usne apni bhaunhen sikoD leen.
saiman ko baDa ajib lag raha tha, par darvaza bhi band nahin kar sakta tha, isliye use razi hona paDa, “tum kya chahte ho?” usne puchha, “main tumhein nahin janta. ”
“to meri gustakhi maaf karo, pahle main tumhein apna parichay de doon. ” nakli namrata dikhate hue usne apni topi abhivadan ki mudra mein uthai, “main baub phorD hoon. ” wo bola, “maan lo ki main ek bilkul alahda duniya se lautkar aaya hoon. sabhi samajhte hain ki paanch baras pahle main dusre logon ke saath jahaj mein Doob kar mar gaya tha. main yahan apni bivi se milne aaya hoon. ”
jab wo bol raha tha to saiman ke chehre ka rang uDta ja raha tha, uski baat khatm hone par usne balon mein ungliyan phirai, niche bichhai dari ko dekha, uupar pankhe ko phir bahar saDak ki or dekha aur us angatuk par ek kaDi nigah phenki, par munh se ek shabd bhi nahin bol paya.
“main apni patni ko dekhne aaya hoon,” us adami ne apni baat dohrai, “to kya ab hum khul kar baat kar len?”
saiman ne dhire se munh band kiya aur bilkul yantrchalit andaz mein siDhiyan chaDhne laga. ungliyan ab bhi balon mein hi theen, dhire dhire sara masla zehn mein aspasht hone laga tha aur man mein wo dusht khayal phir se uchhalne laga tha. maan lo ye shakhs phorD hi nikla tab? maan lo ye apni patni ko vapas mange to kya uske liye asahniy hoga? kya wo ye chot sah sakega? man hi man wo un patlunon, chaay ke bartnon, chhuri kanton, khiDakiyon ki saaf safai ke bare mein sochne laga, ye sochte hue wo khud ko parast sa anubhav kar raha tha.
siDhiyan chaDhte hue phorD ne uski baanh pakaD li aur bhari avaz mein phusaphusate hue puchha, “uske lautne mein abhi kitna vaqt hai?”
“mere khayal se qarib ek ghanta,” saiman ne javab dene se pahle man hi man saval dohraya, phir baithak ka darvaza khola.
“oh!” phorD ne charon or nazar ghumate hue kaha, “lagta hai tum baDe maze mein ho, ye kursiyan, ye sara saman”—usne paip se ishara karte hue kaha—
“usi ka yani ek tarah se mera hi hai, chalo ab khul kar baat kar li wo baith gaya aur vicharmagr mudra mein sigar ke kash lete hue bola, “haan, to,’ usne baat jari rakhi, “main pure haanD maans ke saath zinda hoon, log samajhte hain ki baub phorD ‘multain’ jahaj ke saath Dubkar mar gaya par, main jivit hoon. ” aur usne paip se saiman ka dhyaan apni or akarshit kiya, “main mara nahin, jante ho kyon? kyonki jarmni ke ek jahaj ne mujhe samudr se bahar nikal liya aur mujhe amerika le gaya, kuch barson tak main vahin bhatakta raha aur ab main
apni bivi se milne aa gaya hoon. ”
“vah. . . wo sigret pina katii pasand nahin karti,” saiman ne kaha, manon achanak use ye baat yaad aa gai ho.
“nahin, main shartiya kah sakta hoon ki wo kuch nahin kahegi,” paip munh se nikal haath mein thamte hue phorD bola, “main uske sare taur tariqe janta khair. . . tumhein wo kaisi lagti hai? kya wo tumse khiDkiyan saaf karvati hai?”
“haan!” saiman ne hichkichate hue hami bhari. “haan, kabhi kabhar main uski madad kar deta hoon. ”
“oh! to wo tumse chhuri kante bhi saaf karvati hogi, main yaqin ke saath kah sakta hoon, aur bartan bhi, mujhe sab pata hai. wo utha aur jhuk kar saiman ka pichhe se sir dekhne laga— “mere khayal se tumhare baal bhi vahi katti hogi, tum manon ya na manon par main use khoob janta hoon. ”
sharm se jhempte saiman ki usne har kon se jaanch ki, phir darvaze ke pichhe latak rahe patlun ka ek pair uupar uthaya. “main shartiya kah sakta hoon, ye patlun bhi usi ne sile hain. koi aur aisa patlun sil hi nahin sakta. achchha, jo patlun tumne pahna hain, wo bhi to usi ne sila hai, hai na?”
saiman ke man mein lagatar us dusht bhaav se tark vitark chal raha tha. agar ye shakhs apni bivi maang leta hai to ye patlun use hi pahanne paDenge.
“oh!” phorD bolta raha, “vah tanik bhi nahin badli, are mere yaar, ye bhi ek achchha mazak hai. ”
saiman ko achanak laga ki ab in baton mein kuch nahin dhara. sidhi si baat ye ki wo iski patni hai aur shishtachar ka taqaza hai ki main is baat ko maan loon, bhitar dusht bhaav ne use samjhaya ki yahi uska karttavya hai.
“achchha to,” achanak phorD bola, “vaqt kam hai aur hum kaam ki baat nahin kar rahe hain. dost main tumse kathor nahin hounga. mujhe apne adhikar par Date rahna chahiye, par main dekh raha hoon ki tumhari basi basai grihasthi hai, tum aram se jivan basar kar rahe ho aur tum bhale adami ho, isliye main, sahsa baDi udarta dikhate hue usne kaha—“milao haath, main bas ek munasib raqam bataye deta hoon, na kam na zyada. paanch paunD mein mamla tay kar lete hain aur phir main hamesha hamesha ke liye door chala jaunga. ”
saiman ke paas paanch paunD to kya paanch pens bhi nahin the—aur usne saaf saaf kah diya, “main darasal pati patni ke beech aane ka khayal bhi man mein nahin lana chahta. ” usne zor dekar kaha, “kisi bhi qimat par nahin, halanki ye mere liye bahut kathin tha, par ye mera karttavya hai, main apni baat se mukrunga nahin. ”
“nahin, nahin”—phorD ne saiman ki baanh pakaD phauran kaha, “aisa mat karo, main thoDa kam kiye deta hoon, achchha, chalo teen paunD, dekho ye bahut hi vajib daam hai, kyon hai na! itni si raqam ke badle main sada ke liye kisi door desh chala jaunga. apni patni ko kabhi apna munh tak nahin dikhaunga. dekho ye mard ki jaban hai main apni zaban ko paltunga nahin, main dafa ho jaunga, bolo, theek hai na?”
“beshak tumne munasib daam mange hain” saiman ne ullasit hokar kaha, “yah to bahut kam hai, ye tumhari kripa hai, par main tumhari bhalai ka koi anuchit fayda nahin uthaunga. mi० phorD, wo tumhari patni hai aur main tum donon ke beech nahin auunga, main mafi chahta hoon. tum yahi raho, apna hak lo. yahan se agar koi jayega to main jaunga. ” aur usne darvaza ki or qadam baDhaye.
“ruk jao, phorD ne kaha aur saiman tatha darvaze ke beech aakar khaDa ho gaya. “dekho, jaldbazi mat karo, jara socho tumhare liye ye kitna nuksandeh hoga. tumhara koi ghar baar nahin rahega, na hi koi dekhbhal karne vala hoga. ye vaqii bhayanak hoga. achchha chhoDo, hum daam par nahin jhagDenge, chalo ek aadh paunD hi sahi, ye mard ki zaban hai, itna paisa tum asani se de sakte ho dekho yahan ye ghaDi hai aur itna baDhiya saman hai, bas ek paunD de do aur main chalta banunga. ”
samne ke darvaze par kisi ne do baar dastak di. is ilaqe mein do baar dastak dene ka matlab hota hai, ye uupar vali manzil ke kirayedar ke liye hai.
“kaun hai?” phorD ne sashankit hokar puchha.
“main dekhta hoon, “thaumas saiman ne kaha aur tezi se siDhiyon ki or lapka.
baub phorD ne samne ka darvaza khulne ki avaz suni aur khiDki ke nikat jakar niche jhankne laga. niche use ek stri ki topi dikhai di, phir ojhal ho gai, tabhi darvaze ke bhitar se use vahi chir parichit stri kanth ki avaz sunai di.
“theek hai, theek hai—uupar tumse koi milne aaya hai. ” saiman ne javab diya. phir ghanibhut hote hue andhkar mein phorD ne ek adami ko sarpat bhagte dekha. wo thaumas saiman tha.
phorD teen qadmon mein hi uchhal kar niche ja pahuncha, uski bivi bahar ke darvaze par hakki bakki saiman ko ghoor rahi thi, jo pichhe ke kamre mein ghusa, khiDki kholkar gusalkhane ki chhat se pichhvaDe kood paDa. iske baad tezi se makan ki charadivari langhakar andhere mein ojhal ho gaya. kisi ne bhi use nahin dekha.
yahi vajah thi ki theek apni bivi ki nazron ke samne saiman ke is tarah nichtapurn tariqe se bhaag jane par sabhi paDosi hairan the.
saiman ne apni patni ke saath bahut bura bartav kiya, ye baat ab tak paDosiyon ke gale nahin uttar rahi thi, sabhi paDosiyon ke liye ye ashcharyajnak tha, aas paDos ki sabhi striyan use ek adarsh pati manti theen aur shrimti saiman bhi ek pativrata stri thi, din raat khatti rahti. muhalle ki sabhi aurten manti theen ki wo apne pati ke liye jitna karti hai, utna shayad hi koi kar sakta hai, ab badle mein use kya mila? shayad wo achanak pagla gaya tha.
saiman se byaah karne se pahle misez saiman vidhva thi aur misez phorD kahlati theen. phorD ek maal jahaj mein kuli tha, ek din wo jahaj us par savar sabhi yatriyon samet Doob gaya. use apni zid ka achchha sabak mila tha, wo sailani mizaj ka tha. isliye ek achchha karigar hone ke bavjud usne jahaj par naukari kar khud ko tabah kar liya tha, barah baras tak byahta rah kar bhi misez phorD nissantan theen aur ab shrimti saiman ke roop mein bhi uske koi santan na thi.
jahan tak saiman ka saval tha, sabhi mante the ki wo bahut bhagyashali hai, jo use itni sughaD patni mili hai. wo achchha baDhii aur luhar tha, par duniyadari mein bilkul phoohD tha. uski dekhbhal ke liye yadi misez saiman na hotin to thaumas ka jane kya haal hota? wo dabbu aur shaant svbhaav ka tha, uske baal sulabh chehre par munchhen chhitri hui theen, use koi lat nahin thi. yahan tak ki vivah ke baad usne sigret pina bhi chhoD diya tha aur misez saiman usmen kai achchhi adten Daal di theen. wo har itvaar bina naga ek baDi si ne topi pahan girjaghar jata aur vahan ikanni chaDhata. ye ikanni isi kaam ke liye saptah ke vetan mein se use di jati thi. phir ghar aakar misez saiman ki nigrani mein wo apni behtarin poshak utarta, phir use achchhi tarah, savadhani se brash se jhaDkar rakh deta. har shanivar ko dopahar mein wo chhuri kanton, bartnon, juton aur khiDakiyon ki itminan aur savadhani se safai karta, mangalvar ki shaam wo kapDe istri karvane le jata aur shanivar ki raat ghar ka saman lane misez saiman ke saath bajar jata aur saman ladkar lata.
misez saiman janmajat guni theen, behad kushalta se ghar ke sare kaam niptatin, thaumas ko prati maah chhattis athva aDtis shiling vetan milta tha. uski ek ek pai ka wo sadupyog karti aur saiman ne kabhi ye sochne ki zurrat nahin ki, ki ismen se wo kitna bachati hai? wo behad saphai pasand grihni theen, jisse kai martaba pareshani bhi jhelni paDti thi. saiman jab ghar lautta to wo darvaze par khaDi milti. vahin usi vaqt thanDe farsh par ek pair par khaDe rah wo jute utaar chappal pahanta, taki zamin gandi na ho, kyonki roz misez saiman aur niche ki manjil par rahne vale parivar ki mahila ghis ghiskar farsh saaf karti thi. siDhiyon par jo kalin bichhaya gaya tha, wo uska tha. kaam se lautne par wo apni nazron ke samne pati ke haath pair dhulvati, taki divar par gande, pani ki ek boond bhi na uchhle, itni savadhani ke bavjud yadi kabhi kabhar divar par koi dhabba paD jata to wo saiman ko Daant phatkar lagati aur use svarthi hone par lambe bhashan de Dalti. shuru mein reDimeD kapDon ki dukan par bhi wo uske saath jati thi. uske liye kapDe pasand kartin aur paise bhi vahi chukati, kyonki uski nazar mein sabhi purush itne bhondu hote hain ki kuch bol nahin pate aur dukandar manmani qimat vasul lete hain, ab wo thoDa sudhar gai thi.
ek din saDak ke nukkaD par usne ek vyakti ko saste damon mein katpis bechte dekha. phir kya tha, usne phauran tay kar liya ki khud hi saiman ke kapDe silegi. har baat par tatkal amal karna uska ek gun tha, isiliye usi dopahar wo ek purane kapDe mein se kot, patlun silne baith gai. itna hi nahin, ravivar tak soot sil kar taiyar bhi ho gaya. saiman kapDe dekh kar chakra gaya. wo is dhakke se ubar pata, usse pahle hi use soot pahna diya gaya aur girjaghar bhej diya gaya. kapDe katii theek nahin sile the. patlun jaangh ke paas bahut tang tha, eDiyon ke pichhe itna khula ki jhulne lagta. baithte hi usmen bal paDte aur kot ka kalar kandhe par latakne lagta. par dhire dhire aadat paDne par
saiman ko kapDon ka beDhangapan khalna door ho gaya. uske sabhi sathi uske libas ka jo mazak uDate, wo asahniy tha par misez saiman theen, jo ek ke baad ek soot silti chali jati theen aur har baar purane ke naap se hi naya soot sila jata, isliye soot mein jo beDhangapan tha, wo kabhi theek nahin hota, balki har ne soot ke saath adhik ubhar kar dikhne lagta. saiman ne kai martaba ishare se use rokne ki bekar koshish ki. usne baDe sneh se kaha ki use ye achchha nahin lagta ki uske liye wo din raat mehnat kare aur sine silane ke kaam se ankhon par bhi bura asar paDta hai. thoDi hi duri par saDak ke kinare ek
darzi ki nai dukan khuli hai, jo bahut saste mein kapDe sil deta hai. kyon na. . .
“haan, haan, wo turant bigaD paDi aur zor zor se bolne lagi, “tumhen to jaise mera bahut khayal hai, main kab kahti hoon tumhein apni patni ke munh par jhooth bolne mein sharm aani chahiye. kya main tumhein janti nahin, main tumhein bhali bhanti pahchanti hoon. tumhein mera itna khayal hai ki tum chahte ho main mehnat nahin karun aur tum darziyon se kapDe sila sila kar paise barbad karo. main din raat khatti rahti hoon, taki paison ki bachat ho. mera kya yahi puraskar hai? lagta hai, tumhein paisa saDak par paDa milta hai, jise uDana chahte ho. achchha hoga, agar main bhi auron ki tarah bistar par paDi rotiyan toDti rahun, shayad isse tumhari nazron mein meri izzat
baDhegi. ”
uske baad thaumas saiman ne us baat ka kabhi zikr nahin kiya, yahan tak ki jab usne uske baal bhi khud katne ka nirnay kiya to bhi wo chup raha.
barson yahi silsila chalta raha, ek din garmiyon ki shaam thi, misez saiman chhoti moti kharidari ke liye thaila lekar bazar gai theen. saiman ghar mein akela tha. usne chaay ke bartan dhoe aur sajakar rakh diye. uske baad wo un do nai patlunon ko ghaur se dekhne laga, jo usi din silkar taiyar hui theen aur darvaze ke pichhe latak rahi thi. apni jagah ve nirdosh bhaav se tangi theen— paas tang, kamar ki taraf khuli, ab tak sili gai patlunon se kahin adhik beDhangi, patlunon ko dekhte dekhte achanak ek dusht khayal uske man mein utha. apne khayal par thoDi sharm bhi aai. yakinan patni ke dusre tamam upkaron ki tarah wo in patlunon ke liye bhi uska shukraguzar tha. phir bhi wo dusht vichar uske dimagh se door nahin hua. man hi man wo sochne laga ki jab wo in kapDon ko pahan kaam par jayega to uske sathi uski kaisi bhadd uDayenge?
“kyon na inhen kachre ke Dibbe mein phenk diya jaye!” man ke dusht vichar ne yahi kaha, “akhir ye isi layak to hain!”
saiman apne bhitar ke is dusht khayal se kaanp utha aur apne is dusht khayal par qabu pane ke liye usne chaay ke bartnon ko phir se saaf karne ki thani. uth kar wo pichhe ke kamre ki or gaya, vahan se usne dekha ki samne ka darvaza khula hai, shayad niche ki manjil ke bachche galti se khula chhoD ge the. samne ka darvaza khula rahe, ye baat misez saiman ko katii pasand na thi, ye use pratishtha ghatne jaisa lagta tha. isliye saiman niche gaya, taki lautne par wo us par baras na paDe, darvaza band karte vaqt usne gali mein jhanka.
saDak ke kinare ek adami tahal raha tha aur baDi utsukta se darvaze ki taraf taak raha tha, donon haath nile rang ki Dhili Dhali patlun ki jeb mein the, sir par uuni chonchdar topi pahan rakhi thi, jo khalasi pahante hain, wo darvaze ke nikat aaya aur puchha, “shrimti phorD andar hain ya nahin?”
saiman takriban paanch senkenD use ghurta raha aur phir bola—”uhun?”
“ve pahle misez phorD theen, ab misez saiman kahlati hain, kyon theek hai na?”
ye baat usne aise dhoort Dhang se kahi ki saiman ko achchha nahin laga aur na hi wo kuch samajh paya.
“nahin”, saiman ne kaha—“vah is samay ghar par nahin hai. ”
“tum hi to uske pati ho, haan, ho na?”
us adami ne munh se paip lagaya aur kafi vaqt munh sikoD uski or takta raha. akhir wo bola, “bandhu, tum to bilkul usi qism ke ho jaisa wo pasand karti hai,” ye kah wo use phir se niharne laga. phir usne dekha ki saiman darvaza band karne ja raha hai to ek pair dahliz par aur haath darvaze par rakh kar bola, “dost itni jaldbazi mat karo, main tumse hi baten karne ke liye aaya hoon. ” aur usne apni bhaunhen sikoD leen.
saiman ko baDa ajib lag raha tha, par darvaza bhi band nahin kar sakta tha, isliye use razi hona paDa, “tum kya chahte ho?” usne puchha, “main tumhein nahin janta. ”
“to meri gustakhi maaf karo, pahle main tumhein apna parichay de doon. ” nakli namrata dikhate hue usne apni topi abhivadan ki mudra mein uthai, “main baub phorD hoon. ” wo bola, “maan lo ki main ek bilkul alahda duniya se lautkar aaya hoon. sabhi samajhte hain ki paanch baras pahle main dusre logon ke saath jahaj mein Doob kar mar gaya tha. main yahan apni bivi se milne aaya hoon. ”
jab wo bol raha tha to saiman ke chehre ka rang uDta ja raha tha, uski baat khatm hone par usne balon mein ungliyan phirai, niche bichhai dari ko dekha, uupar pankhe ko phir bahar saDak ki or dekha aur us angatuk par ek kaDi nigah phenki, par munh se ek shabd bhi nahin bol paya.
“main apni patni ko dekhne aaya hoon,” us adami ne apni baat dohrai, “to kya ab hum khul kar baat kar len?”
saiman ne dhire se munh band kiya aur bilkul yantrchalit andaz mein siDhiyan chaDhne laga. ungliyan ab bhi balon mein hi theen, dhire dhire sara masla zehn mein aspasht hone laga tha aur man mein wo dusht khayal phir se uchhalne laga tha. maan lo ye shakhs phorD hi nikla tab? maan lo ye apni patni ko vapas mange to kya uske liye asahniy hoga? kya wo ye chot sah sakega? man hi man wo un patlunon, chaay ke bartnon, chhuri kanton, khiDakiyon ki saaf safai ke bare mein sochne laga, ye sochte hue wo khud ko parast sa anubhav kar raha tha.
siDhiyan chaDhte hue phorD ne uski baanh pakaD li aur bhari avaz mein phusaphusate hue puchha, “uske lautne mein abhi kitna vaqt hai?”
“mere khayal se qarib ek ghanta,” saiman ne javab dene se pahle man hi man saval dohraya, phir baithak ka darvaza khola.
“oh!” phorD ne charon or nazar ghumate hue kaha, “lagta hai tum baDe maze mein ho, ye kursiyan, ye sara saman”—usne paip se ishara karte hue kaha—
“usi ka yani ek tarah se mera hi hai, chalo ab khul kar baat kar li wo baith gaya aur vicharmagr mudra mein sigar ke kash lete hue bola, “haan, to,’ usne baat jari rakhi, “main pure haanD maans ke saath zinda hoon, log samajhte hain ki baub phorD ‘multain’ jahaj ke saath Dubkar mar gaya par, main jivit hoon. ” aur usne paip se saiman ka dhyaan apni or akarshit kiya, “main mara nahin, jante ho kyon? kyonki jarmni ke ek jahaj ne mujhe samudr se bahar nikal liya aur mujhe amerika le gaya, kuch barson tak main vahin bhatakta raha aur ab main
apni bivi se milne aa gaya hoon. ”
“vah. . . wo sigret pina katii pasand nahin karti,” saiman ne kaha, manon achanak use ye baat yaad aa gai ho.
“nahin, main shartiya kah sakta hoon ki wo kuch nahin kahegi,” paip munh se nikal haath mein thamte hue phorD bola, “main uske sare taur tariqe janta khair. . . tumhein wo kaisi lagti hai? kya wo tumse khiDkiyan saaf karvati hai?”
“haan!” saiman ne hichkichate hue hami bhari. “haan, kabhi kabhar main uski madad kar deta hoon. ”
“oh! to wo tumse chhuri kante bhi saaf karvati hogi, main yaqin ke saath kah sakta hoon, aur bartan bhi, mujhe sab pata hai. wo utha aur jhuk kar saiman ka pichhe se sir dekhne laga— “mere khayal se tumhare baal bhi vahi katti hogi, tum manon ya na manon par main use khoob janta hoon. ”
sharm se jhempte saiman ki usne har kon se jaanch ki, phir darvaze ke pichhe latak rahe patlun ka ek pair uupar uthaya. “main shartiya kah sakta hoon, ye patlun bhi usi ne sile hain. koi aur aisa patlun sil hi nahin sakta. achchha, jo patlun tumne pahna hain, wo bhi to usi ne sila hai, hai na?”
saiman ke man mein lagatar us dusht bhaav se tark vitark chal raha tha. agar ye shakhs apni bivi maang leta hai to ye patlun use hi pahanne paDenge.
“oh!” phorD bolta raha, “vah tanik bhi nahin badli, are mere yaar, ye bhi ek achchha mazak hai. ”
saiman ko achanak laga ki ab in baton mein kuch nahin dhara. sidhi si baat ye ki wo iski patni hai aur shishtachar ka taqaza hai ki main is baat ko maan loon, bhitar dusht bhaav ne use samjhaya ki yahi uska karttavya hai.
“achchha to,” achanak phorD bola, “vaqt kam hai aur hum kaam ki baat nahin kar rahe hain. dost main tumse kathor nahin hounga. mujhe apne adhikar par Date rahna chahiye, par main dekh raha hoon ki tumhari basi basai grihasthi hai, tum aram se jivan basar kar rahe ho aur tum bhale adami ho, isliye main, sahsa baDi udarta dikhate hue usne kaha—“milao haath, main bas ek munasib raqam bataye deta hoon, na kam na zyada. paanch paunD mein mamla tay kar lete hain aur phir main hamesha hamesha ke liye door chala jaunga. ”
saiman ke paas paanch paunD to kya paanch pens bhi nahin the—aur usne saaf saaf kah diya, “main darasal pati patni ke beech aane ka khayal bhi man mein nahin lana chahta. ” usne zor dekar kaha, “kisi bhi qimat par nahin, halanki ye mere liye bahut kathin tha, par ye mera karttavya hai, main apni baat se mukrunga nahin. ”
“nahin, nahin”—phorD ne saiman ki baanh pakaD phauran kaha, “aisa mat karo, main thoDa kam kiye deta hoon, achchha, chalo teen paunD, dekho ye bahut hi vajib daam hai, kyon hai na! itni si raqam ke badle main sada ke liye kisi door desh chala jaunga. apni patni ko kabhi apna munh tak nahin dikhaunga. dekho ye mard ki jaban hai main apni zaban ko paltunga nahin, main dafa ho jaunga, bolo, theek hai na?”
“beshak tumne munasib daam mange hain” saiman ne ullasit hokar kaha, “yah to bahut kam hai, ye tumhari kripa hai, par main tumhari bhalai ka koi anuchit fayda nahin uthaunga. mi० phorD, wo tumhari patni hai aur main tum donon ke beech nahin auunga, main mafi chahta hoon. tum yahi raho, apna hak lo. yahan se agar koi jayega to main jaunga. ” aur usne darvaza ki or qadam baDhaye.
“ruk jao, phorD ne kaha aur saiman tatha darvaze ke beech aakar khaDa ho gaya. “dekho, jaldbazi mat karo, jara socho tumhare liye ye kitna nuksandeh hoga. tumhara koi ghar baar nahin rahega, na hi koi dekhbhal karne vala hoga. ye vaqii bhayanak hoga. achchha chhoDo, hum daam par nahin jhagDenge, chalo ek aadh paunD hi sahi, ye mard ki zaban hai, itna paisa tum asani se de sakte ho dekho yahan ye ghaDi hai aur itna baDhiya saman hai, bas ek paunD de do aur main chalta banunga. ”
samne ke darvaze par kisi ne do baar dastak di. is ilaqe mein do baar dastak dene ka matlab hota hai, ye uupar vali manzil ke kirayedar ke liye hai.
“kaun hai?” phorD ne sashankit hokar puchha.
“main dekhta hoon, “thaumas saiman ne kaha aur tezi se siDhiyon ki or lapka.
baub phorD ne samne ka darvaza khulne ki avaz suni aur khiDki ke nikat jakar niche jhankne laga. niche use ek stri ki topi dikhai di, phir ojhal ho gai, tabhi darvaze ke bhitar se use vahi chir parichit stri kanth ki avaz sunai di.
“theek hai, theek hai—uupar tumse koi milne aaya hai. ” saiman ne javab diya. phir ghanibhut hote hue andhkar mein phorD ne ek adami ko sarpat bhagte dekha. wo thaumas saiman tha.
phorD teen qadmon mein hi uchhal kar niche ja pahuncha, uski bivi bahar ke darvaze par hakki bakki saiman ko ghoor rahi thi, jo pichhe ke kamre mein ghusa, khiDki kholkar gusalkhane ki chhat se pichhvaDe kood paDa. iske baad tezi se makan ki charadivari langhakar andhere mein ojhal ho gaya. kisi ne bhi use nahin dekha.
yahi vajah thi ki theek apni bivi ki nazron ke samne saiman ke is tarah nichtapurn tariqe se bhaag jane par sabhi paDosi hairan the.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 24)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।