—तो तूने चोरी क्यों की? मज़दूरी करती तब भी दिन भर में तीन-चार आने पैसे मिल जाते!
—हमें मज़दूरी नहीं मिलती सरकार। हमारी जाति माँगरोरी है। हम केवल माँगते-खाते हैं।
—और भीख न मिले तो?
—तो फिर चोरी करते हैं। उस दिन घर में खाने को नहीं था। बच्चे भूख से तड़प रहे थे। बाज़ार में बहुत देर तक माँगा। बोझा ढोने के लिए टोकरा लेकर भी बैठी रही। पर कुछ नही मिला। सामने किसी का बच्चा रो रहा था। उसे देखकर मुझे अपने भूखे बच्चे की याद आ गई। वहीं पर किसी की अनाज की गठरी रखी हुई थी। उसे लेकर अभी भाग ही रही थी कि पुलिस ने पकड़ लिया।
अनिता ने एक ठंडी साँस ली। बोली—फिर तूने कहा नहीं कि बच्चे भूखे थे, इसलिए चोरी की। संभव है इस बात से मजिस्ट्रेट कम सज़ा देता।
—‘हम ग़रीबों की कोई नहीं सुनता, सरकार! बच्चे आए थे कचहरी में। मैंने सब-कुछ कहा, पर किसी ने नहीं सुना।’
—‘अब तेरे बच्चे किसके पास है? उनका बाप है?’ अनिता ने पूछा।
राही की आँखों में आँसू आ गए। वह बोली—‘उनका बाप मर गया, सरकार!’
‘जेल में उसे मारा था। और वहीं अस्पताल में वह मर गया। अब बच्चों का कोई नहीं है।’
‘तो तेरे बच्चों का बाप भी जेल में ही मरा। वह क्यों जेल आया था?’ अनिता ने प्रश्न किया।
—‘उसे तो बिना क़सूर के ही पकड़ लिया था, सरकार!’ राही ने कहा—ताड़ी पीने को गया था। दो चार दोस्त उसके साथ थे। मेरे घरवाले का एक वक़्त पुलिस वाले के साथ झगड़ा हो गया था, उसी का उसने बदला लिया। 109 में उसका चलान करके साल भर की सज़ा दिला दी। वहीं वह मर गया।’
अनिता ने एक दीर्घ नि:श्वास के साथ कहा—अच्छा जा, अपना काम कर। राही चली गई।
अनीता सत्याग्रह करके जेल में आई थी। पहिले उसे ‘बी’ क्लास दिया गया था फिर उसके घरवालों ने लिखा-पढ़ी करके उसे ‘ए’ क्लास में दिलवा दिया।
अनीता के सामने आज एक प्रश्न था? वह सोच रही थी, देश की दरिद्रता और इन निरीह ग़रीबों के कष्टों को दूर करने का कोई उपाय नहीं है? हम सभी परमात्मा के संतान हैं। एक ही देश के निवासी। कम-से-कम हम सबको खाने-पहनने का सामान अधिकार तो है ही? फिर यह क्या बात है कि कुछ लोग तो बहुत आराम करते हैं और कुछ लोग पेट के अन्न के लिए चोरी करते हैं? उसके बाद विचारक के अदूरदर्शिता के कारण या सरकारी वकील के चातुर्यपूर्ण जिरह के कारण छोटे-छोटे बच्चों की माताएँ जेल भेज दी जाती हैं। उनके बच्चे भूखों मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। एक ओर तो यह क़ैदी है, जो जेल आकर सचमुच जेल जीवन के कष्ट उठाती है, और दूसरी ओर हम लोग जो अपनी देशभक्ति और त्याग का ढिंढोरा पिटते हुए जेल आते हैं। हमें आमतौर से दूसरे क़ैदियों के मुक़ाबिले अच्छा बर्ताव मिलता है। फिर भी हमें संतोष नहीं होता। हम जेल आकर ‘ए’ और ‘बी’ क्लास के लिए झगड़ते हैं। जेल आकर ही हम कौन सा बड़ा त्याग कर देते हैं? जेल में हमें कौन सा कष्ट रहता है? सिवा इसके कि हमारे माथे पर नेतृत्व का सील लग जाता है। हम बड़े अभिमान से कहते हैं—यह हमारी चौथी जेल यात्रा है, यह हमारी पाँचवी जेल यात्रा है। अपनी जेल यात्रा के क़िस्से बार-बार सुना-सुनाकर आत्मगौरव अनुभव करते हैं; तात्पर्य यह है कि हम जितने बार जेल जा चुके होते हैं, उतनी ही सीढ़ी हम देशभक्ति और त्याग से दूसरों से ऊपर उठ जाते हैं और इसके बल पर जेल से छूटने के बाद, कांग्रेस को राजकीय सत्ता मिलते ही, हम मिनिस्टर, स्थानीय संस्थाओं के मेंबर और क्या-क्या हो जाते हैं।
अनीता सोच रही थी—कल तक तो खद्दर भी नहीं पहनते थे, बात-बात पर कांग्रेस का मज़ाक़ उड़ाते थे, कांग्रेस के हाथों में थोड़ी शक्ति आते ही वे कांग्रेस भक्त बन गए। खद्दर पहनने लगे। यहाँ तक कि जेल में भी दिखाई पड़ने लगे। वास्तव में यह देश भक्ति है या सत्ताभक्ति!
अनीता के विचारों का ताँता लगा हुआ था। वह दार्शनिक हो रही थी। उसे अनुभव हुआ जैसे कोई भीतर-ही-भीतर उसे काट रहा हो। अनीता की विचारवाली अनीता को ही खाए जा रही थी। उसे बार-बार यह लग रहा था कि उसकी देशभक्ति सच्ची देशभक्ति नहीं वरन् मज़ाक़ है। अनीता की आत्मा बोल उठी—वास्तव में सच्ची देशभक्ति तो इन ग़रीबों के कष्ट-निवारण में है। ये कोई दूसरे नहीं हैं, हमारी ही भारत माता की संतानें हैं। इन हज़ारों, लाखों भूखे-नंगे भाई-बहनों की यदि हम कुछ भी सेवा कर सकें, तो सचमुच हमने अपने देश की सेवा की। हमारा वास्तविक जीवन तो देहातों में ही है। किसानों की दुर्दशा से हम सभी थोड़े-बहुत परिचित हैं, पर इन ग़रीबों के पास न घर है, न द्वार। अशिक्षा और अज्ञानता का इतना पर्दा इनकी आँखों पर है कि होश सँभालते ही माता पुत्री को और सास बहू को चोरी की शिक्षा देती है। और उनका यह विश्वास है कि चोरी करना और भीख माँगना ही उनका काम है। इससे अच्छा जीवन विताने की वह कल्पना ही नहीं कर सकते। आज यहाँ डेरा डाले तो कल कहीं और चोरी की। बचे तो बचे, नहीं तो फिर दो साल के लिए जेल। क्या मानव जीवन का यही लक्ष्य है? लक्ष्य है भी अथवा नहीं? यदि नहीं है तो विचारादर्श की उच्च सतह पर टिके हुए हमारे जन-नायकों और युग-पुरुषों की हमें क्या आवश्यकता? इतिहास धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का कोई अर्थ नहीं होता? पर जीवन का लक्ष्य है, अवश्य है। संसार की मृगमरीचिका में हम लक्ष्य को भूल जाते हैं। सतह के ऊपर तक पहुँच पानेवाली कुछेक महान आत्माओं को छोड़कर सारा जन-समुदाय संसार में अपने को खोया हुआ पाता है, कर्तव्याकर्तव्य का उसे ध्यान नहीं, सत्यासत्य की समझ नहीं, अन्यथा मानवीयता से बढ़कर कौन-सा मानव धर्म है? पतित मानवता को जीवन-दान देने की अपेक्षा भी कोई महतर पुण्य है? राही जैसी भोली-भाली किंतु गुमराह आत्माओं के कल्याण की साधना होनी चाहिए। सत्याग्रही की यही प्रथम प्रतिज्ञा क्यों न हो? देशभक्ति का यही मापदंड क्यों न बने? अनीता दिन भर इन्हीं विचारों में डूबी रही। शाम को वह इसी प्रकार कुछ सोचते-सोचते सो गई।
रात में उसने सपना देखा कि जेल से छुटकर वह इन्हीं माँगरोरी लोगों के गाँव में पहुँच गई है। वहाँ उसने एक छोटा सा आश्रम खोल दिया है। उसी आश्रम में एक तरफ़ छोटे-छोटे बच्चे पढ़ते हैं और स्त्रियाँ सूत काटती हैं। दूसरी तरफ़ मर्द कपड़ा बुनते हैं और रुई धुनते हैं। शाम को रोज़ उन्हें धार्मिक पुस्तकें पढ़कर सुनाई जाती हैं और देश में कहाँ क्या हो रहा है, यह सब सरल भाषा में समझाया जाता है। वही भीख माँगने और चोरी करने वाले लोग अब आदर्श ग्रामवासी हो रहे हैं। रहने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे अपना घर बना लिए हैं। राही के अनाथ बच्चों को अनीता अपने साथ रखने लगी है। अनीता यही सुख स्वप्न देख रही थी। रात में वह देर से सोई थी। सुबह सात बजे तक उसकी नींद नहीं खुली। अचानक एक स्त्री जेलर ने उसे आकर जगा दिया और बोली—आप घर जाने को तैयार हो जाइए। आपके पिता बीमार हैं। आप बिना शर्त छोड़ी जा रही हैं।
अनीता अपने स्वप्न को सच्चाई में परिवर्तित करने की एक मधुर कल्पना ले घर चली गई।
—tera naam kya hai?
—rahi.
—tujhe kis apradh mein saza hui?
—chori ki thi sarkar.
—chori? kya churaya tha?
—naaj ki gathri.
—kitna anaj tha?
—hoga paanch chhah ser.
—aur saza kitne din ki hai?
—saal bhar ki.
—to tune chori kyon kee? mazduri karti tab bhi din bhar mein teen chaar aane paise mil jate!
—to phir chori karte hain. us din ghar mein khane ko nahin tha. bachche bhookh se taDap rahe the. bazar mein bahut der tak manga. bojha Dhone ke liye tokra lekar bhi baithi rahi. par kuch nahi mila. samne kisi ka bachcha ro raha tha. use dekhkar mujhe apne bhukhe bachche ki yaad aa gai. vahin par kisi ki anaj ki gathri rakhi hui thi. use lekar abhi bhaag hi rahi thi ki police ne pakaD liya.
anita ne ek thanDi saans li. boli—phir tune kaha nahin ki bachche bhukhe the, isliye chori ki. sambhav hai is baat se magistrate kam saza deta.
—‘ham gharibon ki koi nahin sunta, sarkar! bachche aaye the kachahri mein. mainne sab kuch kaha, par kisi ne nahin suna. ’
rahi ki ankhon mein ansu aa gaye. wo boli—‘unka baap mar gaya, sarkar!’
‘jel mein use mara tha. aur vahin aspatal mein wo mar gaya. ab bachchon ka koi nahin hai. ’
‘to tere bachchon ka baap bhi jel mein hi mara. wo kyon jel aaya tha?’ anita ne parashn kiya.
—‘use to bina qasu ke hi pakaD liya tha, sarkar!’ rahi ne kaha—taDi pine ko gaya tha. do chaar dost uske saath the. mere gharvale ka ek vaqt police vale ke saath jhagDa ho gaya tha, usi ka usne badla liya. 109 mein uska chalan karke saal bhar ki saza dila di. vahin wo mar gaya. ’
anita ne ek deergh nihashvas ke saath kaha—achchha ja, apna kaam kar. rahi chali gai.
anita satyagrah karke jel mein i thi. pahile use ‘b’ class diya gaya tha phir uske gharvalon ne likha paDhi karke use ‘e’ class mein dilva diya.
anita ke samne aaj ek parashn tha? wo soch rahi thi, desh ki daridrata aur in nirih gharibon ke kashton ko door karne ka koi upaay nahin hai? hum sabhi pamatma ke santan hain. ek hi desh ke nivasi. kam se kam hum sabko khane pahanne ka saman adhikar to hai hee? phir ye kya baat hai ki kuch log to bahut aram karte hain aur kuch log pet ke ann ke liye chori karte hain? uske baad vicharak ke aduradarshita ke karan ya sarkari vakil ke chaturypurn jirah ke karan chhote chhote bachchon ki matayen jel bhej di jati hain. unke bachche bhukon marne ke liye chhoD diye jate hain. ek or to ye qaidi hai, jo jel aakar sachmuch jel jivan ke kasht uthati hai, aur dusri or hum log jo apni deshabhakti aur tyaag ka DhinDhora pitte hue jel aate hain. hamein amtaur se dusre qaidiyon ke muqabile achchha bartav milta hai. phir bhi hamein santosh nahin hota. hum jel aakar ‘e’ aur ‘b’ class ke liye jhagaDte hain. jel aakar hi hum kaun sa baDa tyaag kar dete hain? jel mein hamein kaun sa kasht rahta hai? siva iske ki hamare mathe par netritv ka seel lag jata hai. hum baDe abhiman se kahte hain—yah hamari chauthi jel yatra hai, ye hamari panchavi jel yatra hai. apni jel yatra ke qisse baar baar suna sunakar atmagaurav anubhav karte hain; tatpary ye hai ki hum jitne baar jel ja chuke hote hain, utni hi siDhi hum deshabhakti aur tyaag se dusron se upar uth jate hain aur iske bal par jel se chhutne ke baad, congress ko rajakiy satta milte hi, hum minister, asthaniya sansthaon ke membar aur kya kya ho jate hain.
anita soch rahi thi—kal tak to khaddar bhi nahin pahante the, baat baat par kangres ka mazaq uDate the, congress ke hathon mein thoDi shakti aate hi ve congress bhakt ban gaye. khaddar pahanne lage. yahan tak ki jel mein bhi dikhai paDne lage. vastav mein ye desh bhakti hai ya sattabhakti!
anita ke vicharon ka tanta laga hua tha. wo darshanik ho rahi thi. use anubhav hua jaise koi bhitar hi bhitar use kaat raha ho. anita ki vicharavli anita ko hi khaye ja rahi thi. use baar baar ye lag raha tha ki uski deshabhakti sachchi deshabhakti nahin varan maज़aक़ hai. anita ki aatma bol uthi—vastav mein sachchi deshabhakti to in gharibon ke kasht nivaran mein hai. ye koi dusre nahin hain, hamari hi bharat mata ki santanen hain. in hazaron, lakhon bhukhe nange bhai bahnon ki yadi hum kuch bhi seva kar saken, to sachmuch hamne apne desh ki seva ki. hamara vastavik jivan to dehaton mein hi hai. kisanon ki durdasha se hum sabhi thoDe bahut parichit hain, par in gharibon ke paas na ghar hai, na dvaar. ashiksha aur agyanta ka itna parda inki ankhon par hai ki hosh sambhalte hi mata putri ko aur saas bahu ko chori ki shiksha deti hai. aur unka ye vishvas hai ki chori karna aur bheekh mangna hi unka kaam hai. isse achchha jivan vitane ki wo kalpana hi nahin kar sakte. aaj yahan Dera Dale to kal kahin aur chori ki. bache to bache, nahin to phir do saal ke liye jel. kya manav jivan ka yahi lakshya hai? lakshya hai bhi athva nahin? yadi nahin hai to vicharadarsh ki uchch satah par tike hue hamare jan naykon aur yug purushon ki hamein kya avashyakta? itihas dharm darshan, gyaan vigyan ka koi arth nahin hota? par jivan ka lakshya hai, avashy hai. sansar ki mrigamrichika mein hum lakshya ko bhool jate hain. satah ke upar tak pahunch panevali kuchhek mahan atmaon ko chhoDkar sara jan samuday sansar mein apne ko khoya hua pata hai, kartavyakartavya ka use dhyaan nahin, satyasatya ki samajh nahin, anyatha manviyta se baDhkar kaun sa manav dharm hai? patit manavta ko jivan daan dene ki apeksha bhi koi mahtar puny hai? rahi jaisi bholi bhali kintu gumrah atmaon ke kalyan ki sadhana honi chahiye. satyagrahi ki yahi pratham pratigya kyon na ho? deshabhakti ka yahi mapadanD kyon na bane? anita din bhar inhin vicharon mein Dubi rahi. shaam ko wo isi prakar kuch sochte sochte so gai.
raat mein usne sapna dekha ki jel se chhutkar wo inhin mangrori logon ke gaanv mein pahunch gai hai. vahan usne ek chhota sa ashram khol diya hai. usi ashram mein ek taraf chhote chhote bachche paDhte hain aur striyan soot katti hain. dusri taraf mard kapDa bunte hain aur rui dhunte hain. shaam ko roz unhen dharmik pustken paDhkar sunai jati hain aur desh mein kahan kya ho raha hai, ye sab saral bhasha mein samjhaya jata hai. vahi bheekh mangne aur chori karne vale log ab adarsh gramavasi ho rahe hain. rahne ke liye unhonne chhote chhote apna ghar bana liye hain. rahi ke anath bachchon ko anita apne saath rakhne lagi hai. anita yahi sukh svapn dekh rahi thi. raat mein wo der se soi thi. subah saat baje tak uski neend nahin khuli. achanak ek istri jailor ne use aakar jaga diya aur boli—ap ghar jane ko taiyar ho jaiye. aapke pita bimar hain. aap bina shart chhoDi ja rahi hain.
anita apne svapn ko sachchai mein parivartit karne ki ek madhur kalpana le ghar chali gai.
—tera naam kya hai?
—rahi.
—tujhe kis apradh mein saza hui?
—chori ki thi sarkar.
—chori? kya churaya tha?
—naaj ki gathri.
—kitna anaj tha?
—hoga paanch chhah ser.
—aur saza kitne din ki hai?
—saal bhar ki.
—to tune chori kyon kee? mazduri karti tab bhi din bhar mein teen chaar aane paise mil jate!
—to phir chori karte hain. us din ghar mein khane ko nahin tha. bachche bhookh se taDap rahe the. bazar mein bahut der tak manga. bojha Dhone ke liye tokra lekar bhi baithi rahi. par kuch nahi mila. samne kisi ka bachcha ro raha tha. use dekhkar mujhe apne bhukhe bachche ki yaad aa gai. vahin par kisi ki anaj ki gathri rakhi hui thi. use lekar abhi bhaag hi rahi thi ki police ne pakaD liya.
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—‘ham gharibon ki koi nahin sunta, sarkar! bachche aaye the kachahri mein. mainne sab kuch kaha, par kisi ne nahin suna. ’
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anita satyagrah karke jel mein i thi. pahile use ‘b’ class diya gaya tha phir uske gharvalon ne likha paDhi karke use ‘e’ class mein dilva diya.
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anita soch rahi thi—kal tak to khaddar bhi nahin pahante the, baat baat par kangres ka mazaq uDate the, congress ke hathon mein thoDi shakti aate hi ve congress bhakt ban gaye. khaddar pahanne lage. yahan tak ki jel mein bhi dikhai paDne lage. vastav mein ye desh bhakti hai ya sattabhakti!
anita ke vicharon ka tanta laga hua tha. wo darshanik ho rahi thi. use anubhav hua jaise koi bhitar hi bhitar use kaat raha ho. anita ki vicharavli anita ko hi khaye ja rahi thi. use baar baar ye lag raha tha ki uski deshabhakti sachchi deshabhakti nahin varan maज़aक़ hai. anita ki aatma bol uthi—vastav mein sachchi deshabhakti to in gharibon ke kasht nivaran mein hai. ye koi dusre nahin hain, hamari hi bharat mata ki santanen hain. in hazaron, lakhon bhukhe nange bhai bahnon ki yadi hum kuch bhi seva kar saken, to sachmuch hamne apne desh ki seva ki. hamara vastavik jivan to dehaton mein hi hai. kisanon ki durdasha se hum sabhi thoDe bahut parichit hain, par in gharibon ke paas na ghar hai, na dvaar. ashiksha aur agyanta ka itna parda inki ankhon par hai ki hosh sambhalte hi mata putri ko aur saas bahu ko chori ki shiksha deti hai. aur unka ye vishvas hai ki chori karna aur bheekh mangna hi unka kaam hai. isse achchha jivan vitane ki wo kalpana hi nahin kar sakte. aaj yahan Dera Dale to kal kahin aur chori ki. bache to bache, nahin to phir do saal ke liye jel. kya manav jivan ka yahi lakshya hai? lakshya hai bhi athva nahin? yadi nahin hai to vicharadarsh ki uchch satah par tike hue hamare jan naykon aur yug purushon ki hamein kya avashyakta? itihas dharm darshan, gyaan vigyan ka koi arth nahin hota? par jivan ka lakshya hai, avashy hai. sansar ki mrigamrichika mein hum lakshya ko bhool jate hain. satah ke upar tak pahunch panevali kuchhek mahan atmaon ko chhoDkar sara jan samuday sansar mein apne ko khoya hua pata hai, kartavyakartavya ka use dhyaan nahin, satyasatya ki samajh nahin, anyatha manviyta se baDhkar kaun sa manav dharm hai? patit manavta ko jivan daan dene ki apeksha bhi koi mahtar puny hai? rahi jaisi bholi bhali kintu gumrah atmaon ke kalyan ki sadhana honi chahiye. satyagrahi ki yahi pratham pratigya kyon na ho? deshabhakti ka yahi mapadanD kyon na bane? anita din bhar inhin vicharon mein Dubi rahi. shaam ko wo isi prakar kuch sochte sochte so gai.
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anita apne svapn ko sachchai mein parivartit karne ki ek madhur kalpana le ghar chali gai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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