वे आएँगे, इस बात का तनाव मेरे ऊपर सुबह से सवार था।
लेकिन जब वे आ गए तो यह भी पता नहीं चल सका कि किसी सवारी से आए हैं या पैदल। दरवाज़े पर बहुत ही हल्के-से ठक-ठक हुई। मुझे उनका इंतज़ार था, इसलिए फ़ौरन समझ गया कि वे ही हैं। लगा जैसे नीचे एक बहुत लंबी गाड़ी आ खड़ी हुई है और वे उससे उतरकर ऊपर चले आए हैं। मैंने अपने हिसाब से घर काफ़ी संवार दिया था। लेकिन जब ठक्-ठक् हुई तो घबराकर चौंक उठा, साथ ही मुझे लगा कि आवाज़ में ही ऐसा कुछ महान और शालीन है कि उनके सिवाय और कोई हो ही नहीं सकता। मैंने इशारे से पत्नी को बताया, वे आ गए हैं। लपककर दरवाज़ा खोला। बड़ा भव्य वेश था, कुर्ता-धोती, कंधों पर क़ीमती शॉल, बड़ा प्रभावशाली मोहक चेहरा, खुली हुई आत्मीय प्रसन्न मुद्रा-शायद एक प्रभामंडल बिखेरती-सी। अपने भविष्य के व्यक्तित्व की जैसी मैं कल्पना किया करता था, ठीक वही रूप था। मैंने नमस्कार के साथ कहा, ‘‘मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।’’ लगा कुछ और कहना चाहिए था। वे बड़े ही सहज अपनेपन से मुस्कुराए। मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रखा और भीतर आ गए, ‘‘सभी हैं?’’
‘‘जी...’’ मैंने हकलाहट रोककर कहा, ‘‘हम सब आपके इंतज़ार में ही थे। लेकिन आपके आने का पता ही नहीं चला। मैं तो सुबह से कई बार नीचे सड़क पर झाँक आया था, हर आहट पर कान लगाए बैठा था। दो बार पानवाले की दुकान तक हो आया, उसे भी कहा कि हमारे एक मेहमान आने वाले हैं, कोई आकर पूछे तो घर बता देना...’’ लेकिन हो सकता है मैंने यह सब उनसे न कहा हो और सुबह से अब तक की अपनी परेशानी को दुहरा-भर लिया हो मन-ही-मन। कहा इतना ही हो, ‘‘पता तो था ही कि आप आज आएँगे। कल भी सोचा था कि शायद एक दिन पहले चले आएँ...अकेले ही हैं?’’
‘‘हाँ भाई, अपना कुछ ठीक थोड़े ही है।’’ उन्होंने शायद, ‘रमते-राम’ शब्द को दबा लिया। ‘‘किस दिन कहाँ होंगे, बस, इतना पता होता है।’’
मैं आगे-आगे चलता हुआ, हाथ धोने की मुद्रा में मुट्ठियाँ मसलता-सा उन्हें लिए हुए अंदर आ रहा था, जैसे ग़लीचे पर ला रहा होऊँ। ‘‘कोई सामान नहीं है?’’
‘‘सामान?’’ वे संयत-से हँसे, ‘‘तुम्हारे यहाँ सामान लेकर आता? देख रहा हूँ, तुमने काफ़ी कुछ जमा लिया है।’’
‘सब आपकी कृपा है’ के भाव से मैंने हैं-हैं की मुद्रा बनाई। सामान नहीं है तो कोई बात नहीं। यह पुष्पा ससुरी कहाँ चली गई? जब भी कोई ऐसा आदमी आता है तो यह अदबदाकर रसोई में घुसी रहती है और स्टोव इत्यादि की आवाज़ पैदा करके ऐसा भाव दिखाती है, जैसे बाहरी दुनिया का इसे कुछ भी पता नहीं। इस कमबख़्त को अहसास ही नहीं है कि हमारे यहाँ कितना बड़ा आदमी आया है।
मैंने बैठक को बड़े ढंग से सजाया था। सारी व्यवस्था उलट-पुलट दी थी। ऐसी कोशिश की थी कि बैठक सारे दिन उठने-बैठने-सोने की जगह न लगे और ऐसा आभास हो, जैसे उनकी तरह के मेहमानों के लिए ही रखा गया स्वतंत्र कमरा है और इसका उपयोग हमेशा नहीं होता। गद्दियों के कवर, पर्दे, मेज़पोश सब बदल दिए गए थे। मेज़ पर घड़ी और किताबें रख दी गई थीं। ये किताबें अभी तक चारपाई के नीचे बंधी धूल खा रही थीं। कुछ नई किताबें माँग लाया था, पुरानी में से चुनकर निकाली थीं। बी. ए. में पढ़ी ‘गोल्डन ट्रेजेरी’ और रस्किन के निबंध मुझे मेज़ पर रखने लायक़ लगे थे। पेन, स्वान-इंक, कुछ पत्रिकाएँ, फूल खिले काँच का गोल पेपरवेट, सभी झाड़-पोंछकर रखे थे। हर चीज़ के वे हिस्से छिपा दिए थे, जो मुझे ख़ुद फूहड़ लगते थे। आज का अख़बार बड़े ढंग से मेज़ पर रख दिया था, जैसे उसे पढ़ते-पढ़ते ही मैं दरवाज़ा खोलने गया था। किसी गंभीर लेखक की मोटी-सी किताब यूँ मेज़ पर डाल दी थी कि लगे, रात को मैं इसका अध्ययन कर रहा था। रबर वाले स्लीपर भी लापरवाही से मेज़ के नीचे ‘व्यवस्थित’ कर दिए थे। मेरा सारा घर उन जैसे बड़े मेहमान के लायक़ भले ही न हो, मगर मैं ऊँचे मूल्यों में संतोष खोजने वाला व्यक्ति हूँ, यह प्रभाव मैं उन पर डालना चाहता था।
वे संतोष और हल्की थकावट से आकर कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने बड़े आराम से दोनों पाँव ऊपर समेट लिए और मुझे बेचैनी होने लगी कि पुष्पा अभी तक क्यों नहीं आ रही? मुझे अपनी बैठक, मेज़-कुर्सियाँ, सारा घर बहुत ही बेकार और साधारण लगने लगा, चाहे कुछ कर लो, यह घर एक फटीचर क्लर्क का घर लगता है, उन जैसे सम्मानित मेहमान के लायक़ बिल्कुल भी नहीं। यह अनुभूति मुझे उनके भीतर क़दम रखते ही होने लगी थी, हालाँकि हफ़्तों से मैं अपने मन को भी समझा रहा था कि जैसा बेकार सब कुछ मैं सोच रहा हूँ, वैसा सब मिलाकर शायद नहीं है। फिर बड़े लोग दूसरों की मजबूरियाँ समझते हैं और ऐसी छोटी-मोटी बातों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते, लेकिन अब लगा, इन कुर्सियों को तो इनके घर के ईंधन के काम में लिया जाता होगा। हालाँकि फ़ौरन ही मैंने अपने को सुधार लिया। इनके यहाँ ईंधन थोड़े ही जलता होगा, बिजली और गैस के नए-से-नए साधन होंगे...लेकिन निश्चय ही ऐसे पर्दों और मेज़पोश से इनके यहाँ फ़र्श पोंछे जाते होंगे...ऐसी किताबें तो इनके यहाँ के बच्चे और नौकर पढ़ते होंगे, इनके नौकरों के घर मेरे घर से लाख दर्जे अच्छे होंगे...यह इनकी महानता ही है कि ऐसे आराम और बेतकल्लुफ़ी से आकर बैठ गए हैं...
मैं अपनी बेचैनी छिपाने के लिए एक बार बाल्कनी में घूम आया, व्यर्थ पड़ी दियासलाई की सींक को बाहर फेंक दिया। नीचे झाँककर देखा, मकान-मालकिन बड़े बेहया ढंग से बैठी कपड़ों में साबुन लगा रही थी। इस मूर्ख को क्या पता कि ऊपर मेरे यहाँ कौन बैठा है? बड़ा अपने को लाटसाहब लगाते हैं ये लोग, यहाँ गंदा मत करो, यहाँ कोयले मत कूटो, सीढ़ियों में चारपाइयाँ मत रखो—एक दिन किराया न दो तो घर छोड़ने की धमकी। तुम्हारे जैसे बीस मकान ख़रीदकर फेंक दें ये। साले अपने स्कूटर की ऐसे सफ़ाई करेंगे, जैसे ऐरावत को नहला रहे हों—इनके पास दर्जन-भर एक-से-एक ख़ूबसूरत गाड़ियाँ हैं...
‘‘माफ़ कीजिए, मैं अभी आया।’’ मैंने धीरे से कहा और डरते हुए-से चौके में चला गया। ‘‘पुष्पा, तुम भी अजीब औरत हो!’’ झल्लाकर गला-भिंचे स्वर में मैंने उसे झिड़का, ‘‘वे आ गए हैं और तुमने अभी तक साड़ी भी नहीं बदली!’’
‘‘आ गए?’’ पहले तो वह चौंकी, फिर अपनी उसी व्यस्तता से बोली, ‘‘अभी बदलती हूँ। चाय का पानी रख दूँ...’’ लीजिए साहब, अब चाय का पानी रखा जाएगा। भीतर वे बैठे हैं और यहाँ अब चाय का पानी रखने की शुरुआत होगी। प्लेटों में मैंने मिठाई-नमकीन पहले ही रख दिए थे, उन्हें एक बार फिर से देखा, एक-एक प्लेट में इस तरह फैला-फैलाकर रख दिया कि कम न लगे, फिर भी लग रहा था कि बेहद कम हैं और घर का दिवालियापन उजागर होता है। फल सुबह नाश्ते में दिए जाते हैं या खाने में-मुझे याद ही नहीं आ रहा था। अकेले बैठे हैं, के बोझ से फिर मैं बैठक में लपक आया।
पलंगपोश आज ही संदूक़ से निकालकर बिछाए थे और उनकी तहों वाले निशानों को देखकर कोई भी समझ सकता था कि ये रोज़ नहीं बिछाए जाते। मैंने हाथ फेरकर सलवटें ठीक कीं। एक तरफ़ के छेद को सावधानी से दबा दिया। फिर भी संतोष नहीं हुआ-की कचोट लिए मैं बैठक में आ गया? वे अख़बार फैलाकर कुछ देखने लगे थे। हाँ, उन्हें तो देश-विदेश की जानकारी रखनी होती है। एक निगाह में सारी परिस्थिति भाँप जाते होंगे। हमारी तरह शुरू से आख़िर तक पढ़कर भी बात समझ में न आने की शिकायत उन्हें थोड़े ही होती होगी। उनकी महत्त्वपूर्ण एकाग्रता में मैंने बाधा दी है—क्षमा-भाव से मैं कुर्सी पर ज़रा-सा टिककर बैठ गया। समझ में नहीं आया, क्या बात करूँ। ‘‘आपको तकलीफ़ तो नहीं हुई?’’ यही सवाल उस समय सूझा। बेवक़ूफ़, उनके लिए ट्रेन में बैठना, जैसे अपने कमरे में बैठना है।
‘‘तकलीफ़ काहे की?’’ उन्होंने अख़बार से सिर उठाया, ‘‘मुझे सब आदत है।’’
‘‘यहाँ उस तरह की सुविधाएँ तो नहीं हैं।’’ मैंने नम्रता से अपने और इस सारे घर के लिए माफ़ी माँगी।
‘‘क्या बातें करते हो? अपना ही घर है। सभी अपने-अपने घर में यूँ ही रहते हैं।’’ वे आत्मीयता से बोले, ‘‘तुम मेरे लिए कुछ भी विशेष मत करो...’’
‘‘जी, वो तो मैं जानता हूँ।’’ मैंने हल्के संतोष से कहा, ‘‘आप महान हैं, इसलिए ऐसा कह रहे हैं। वरना क्या मैं जानता नहीं कि आप कैसे रहते हैं, कैसे हैं और यह सब कितना तुच्छ है।’’ एक क्षण को लगा, हो सकता है जैसी बेचैनी मैं महसूस कर रहा हूँ, वे बिल्कुल भी न कर रहे हों और सचमुच आराम से हों...मैं नीचे पैरों की तरफ़ देखने लगा, लो, अभी तक मैं नंगे पाँव ही घूम रहा था? जाने क्या सोचेंगे? बौखलाकर एकदम कुर्सी के पास रखे स्लीपर पहनने की इच्छा हुई। लेकिन बहुत साफ़ हो जाएगा। धीरे और बेमालूम तरीक़े से पहनूँगा...उँगलियों और अँगूठों से ऊपर सरकाते हुए मैंने पूछा, ‘‘आप नहाएँगे या मुँह-हाथ धोएँगे?’’ बात मुझे ख़ुद बहुत बेवक़ूफ़ी की लगी, हो सकता है, इस समय वे चाय ही पीते हों। कुछ तो पिलाना ही चाहिए था।
‘‘सब कर लेंगे भाई, यहीं तो हैं।’’ वे आत्मीयता से बोले, ‘‘पुष्पा जी नहीं दिख रहीं। तुम्हारे एकाध बच्चा भी तो है न, कहीं पढ़ता है?’’
‘‘जी, वह स्कूल गया है। पढ़ता है। क्या करें, यहाँ कोई अच्छा स्कूल ही नहीं है। हमने तो बहुत कोशिश की...’’ हालाँकि मैंने उसे अपनी हैसियत से ऊँचे स्कूल में दाख़िल करवा रखा था और ‘अच्छे स्कूलों’ के ख़र्चों को सोचकर उनके बारे में पता भी नहीं लगाया था। जिस स्कूल में इस समय वह था, उसे लेकर अपनी तरह मुझे गर्व भी था, लेकिन इस समय मुझे लगा, जैसे वह अनाथालय में आता हो। बोला, ‘‘दोपहर को बस छोड़ जाएगी।’’ सोचा, पता नहीं आज पुष्पा को समय भी मिलेगा या नहीं कि जाकर उसे स्कूल से लिवा लाए।
सहसा पुष्पा ने कमरे में प्रवेश करके मुझे उबार लिया। वह चाय की ट्रे लेकर आई थी। उन्होंने ऊपर समेटे हुए पाँव एकदम नीचे कर लिए। जूते टटोलते हुए—से उठ खड़े हुए, ‘‘नमस्ते पुष्पा जी, कैसी हैं?’’
‘‘आप बैठे रहिए न,’’ कहते हुए मैंने बढ़कर पुष्पा के हाथ से ट्रे ले ली। उसे सावधानी से मेज़ पर रखकर उससे कहा, ‘‘तुम भी बैठो न...’’
वह साड़ी का पल्ला सिर पर ठीक करके नमस्कार कर चुकी थी। ‘‘आपने बड़ा इंतज़ार कराया, ये तो दो हफ़्ते से परेशान थे कि आप आएँगे...’’
उन्होंने गद्गद ढंग से मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, ‘‘ये तो इनकी आदत है।’’
‘‘हाँ, यही तो मैं कहती हूँ कि आ रहे हैं तो आएँ। उनका घर है। उसे लेकर इतना तूफ़ान मचाने की क्या ज़रूरत है! देखिए, मैं तो आपके लिए कुछ भी ख़ास नहीं करूँगी। जैसे हम खाते, रहते हैं—उसी तरह आपको भी रहना पड़ेगा...’’
तुम तो झाड़ू लगवाओगी इनसे...मैंने दाँत भींचकर दोहराया। न मेहमान की हैसियत देखती है, न उम्र। यह बात ज़रूर कहती है। कहा था, साड़ी बदल आओ, लेकिन उसी में चली आ रही है। कोई ख़याल ही नहीं कि कौन आया है, कहाँ से आया है?
‘‘हाँ, हाँ, सो तो है ही।’’ मेहमान की इस बात के जवाब में पुष्पा केतली से टिकोजी उतारती हुई कह रही थी, ‘‘हम तो देखिए, किसी के लिए कुछ कर भी नहीं सकते। साधारण-सी हैसियत वाले लोग हैं। दाल-रोटी खाते हैं, वही आपको भी दे देंगे...’’
जी हाँ, सब बता दीजिए कि हम तो भूखें मरते हैं। ये मिठाई और नमकीन सिर्फ़ आपके लिए ले आए हैं, वरना हमें कहाँ नसीब। इनसे कहकर कोई अच्छी-सी नौकरी लूँगा और फिर इसे मिठाई और फलों से ही न लाद दिया तो मेरा भी नाम नहीं। इस औरत से मैं इसीलिए परेशान हूँ कि मुझे कहीं भी सहयोग नहीं देती। हमेशा यही सिद्ध करेगी जैसे कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा बेवक़ूफ़ और कम-हैसियत वाला आदमी हूँ, और जो हमारे यहाँ आया है वह सड़क पर सफ़ाई करने वाला जमादार! यह शायद जान-बूझकर मानने को तैयार नहीं है कि इनके हमारे यहाँ आने का क्या अर्थ है? इससे हमारी इज़्ज़त कितनी बढ़ी है? जाने कितने ऊँचे-ऊँचे तो इनके संपर्क हैं। वह तो इनकी कृपा है, जो यहाँ आ गए हैं, वरना अशोका और ताज में रुकने वाले आदमी हैं। इस समय यहाँ यूँ कुल्हड़-छाप चाय नहीं पी रहे होते? इस समय इनके चारों तरफ़ छह बैरे मंडरा रहे होते, सेक्रेटरी बैठा सारी हिदायतें नोट कर रहा होता, टेलीफ़ोन घनघना रहे होते...नीचे लकदक वर्दी में बैठा ड्राइवर झटके से निकलकर दरवाज़ा खोलता...और मुझे फिर लगा, जैसे नीचे सड़क पर हवाई जहाजनुमा गाड़ी खड़ी है।
मैं कुछ-कुछ अपराधी और कुछ-कुछ झल्लाए मन से प्लेटें ट्रे में से निकाल-निकालकर बाहर रखने लगा। मिठाई-नमकीन मैं मुहल्ले की सबसे अच्छी दुकान से लाया था, लेकिन इस समय सब एकदम घटिया और बदसूरत लग रही थीं, उनमें ‘बाज़ार’ की गंध थी। प्लेट-प्याले हमारे यहाँ एक भी ऐसे नहीं हैं कि उनमें ढंग के आदमी को कुछ दिया जा सके। ट्रे में बिछी तौलिया धोबी के यहाँ एक बार धुलकर कैसी खजैली-सी हो गई है। तौलिया का एक कोना भी उठ आया है और नीचे ट्रे पर छपा कपड़ा-मिल का विज्ञापन झाँकने लगा है। सोचेंगे, सालों ने मुफ़्ती ट्रे लाकर रख छोड़ी है। मैंने फुर्ती से वह कोना दबाकर उसे ढक दिया। मुझे चाय बेस्वाद इसलिए भी लगती रही कि उनके पास कोना झड़ा कप पहुँच गया था। ख़ैरियत यही थी कि उनका ध्यान उधर नहीं गया था। वे हँस-हँसकर पुष्पा से बातें कर रहे थे। चलो, कहीं तो घर जैसा महसूस कर रहे हैं...
‘‘तुम्हें ऑफ़िस नहीं जाना...?’’ उन्होंने सीधे मुझसे ही पूछा तो मैं चौंक उठा।
‘‘बात यह है कि मैंने आज की छुट्टी ले रखी है। सोचा, आपके आने के बहाने दफ़्तर की दुनिया से बाहर रह लेंगे।’’ मैं बिना सोचे-समझे बोल पड़ा।
‘‘बेकार!’’ वे नाराज़ हो गए, ‘‘ये सब तकल्लुफ़ करने की क्या ज़रूरत है? मुझे तो आज पता नहीं किस-किस से मिलना है। हो सकता है, दोपहर को खाना भी न खाऊँ...’’
‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है?’’ पुष्पा ने अधिकार से कहा, ‘‘आप कहीं भी बाहर नहीं खाएँगे।’’
‘‘देखो पुष्पा, मैं शाम को कहीं नहीं खाऊँगा, लेकिन दोपहर के लिए मुझसे ज़िद मत करो।’’ वे अपनेपन से अंतिम फ़ैसले की तरह बोले। यानी दोपहर के लिए हम लोगों ने जो इतनी चीज़ें बनाई हैं, वे बेकार ही चली गईं। वे शाम को थोड़े ही चलेंगी। शाम के लिए सब्ज़ियाँ वग़ैरह और लानी होंगी।
‘‘तुमने छुट्टी ले ही ली है तो चलो आज हमारे साथ ही रहो। कुछ लोगों से मिला देंगे। हो सकता है, कभी तुम्हारे काम ही आ जाएँ।’’ उन्होंने इतमीनान से मिठाई मुँह में डालकर चाय का घूँट भरा।
‘‘जी, मैं तो ख़ाली ही हूँ।’’ मैं बोला। तो ये पुष्पा जी से पुष्पा पर आ गए!
‘‘मैं दो मिनट में खाना बनाए देती हूँ, आप लोग खाकर ही निकलें।’’ पुष्पा फुर्ती से उठती हुई बोली।
‘‘नहीं, पुष्पा इस समय नहीं।’’ उन्होंने आग्रह किया, ‘‘मैं ज़रा हाथ-मुँह धोते ही निकलूँगा।’’
‘‘रहने दो फिर,’’ मैं मजबूरी के भाव से बोला। मैं नहीं चाहता था कि पुष्पा उन्हें दो मिनट वाला खाना खिलाए। ‘‘माफ़ कीजिए, अभी आता हूँ।’’ कहकर मैं जल्दी से उठा और ग़ुसलख़ाने पहुँच गया। उल्लू के पट्ठों ने कैसा छोटा-सा ग़ुसलख़ाना बनवाया है, एक खूँटी तक तो लगाई नहीं है। बोलो, नहाने वाला तुम्हारे सिर पर कपड़े लटकाएगा? भीतर से किवाड़ बंद करके ग़ुसलख़ाना मैंने झाड़ू से धो दिया। बीवी को तो इस छोटी-सी बात का ख़याल आएगा नहीं। साबुनदानी साफ़ की, तेल की शीशियाँ क़रीने से लगाईं, नया साबुन खोलकर रखा और पटरा साफ़ कर दिया। कोने से एकाध जाला झाड़ा और मुँह धोकर इस तरह निकला, जैसे इसी काम के लिए गया था। इनके यहाँ तो शानदार ग़ुसलख़ाना होगा। गरम-ठंडे पानी के टब होंगे, ग़ुसलख़ाना गर्म रखने का प्रबंध होगा। टब, वाश-बेसिन, कमोड-सब नई-से-नई डिज़ाइन के होंगे-जैसे सिनेमा और होटलों में देखे हैं। क्या करें, अपने यहाँ तो यही हैं। मैंने मजबूरी से साँस ली। पता नहीं, कभी नसीब में होगा भी या नहीं।
पुष्पा इस बीच उनसे काफ़ी खुल गई थी और हँस-हँसकर बातें कर रही थी! जब मैं आया तो वे उसकी तरफ़ इस तरह देख रहे थे, जैसे उसकी सुंदरता को निहार रहे हों। चलो, अपनी बेवक़ूफ़ी और ग़ैर-दुनियादारी के बावजूद अगर वह उन्हें एट-होम महसूस करा सकती है तो क्या हर्ज है। लेकिन महाराज, आप मेहमान हैं, इसलिए यह दूरी बरत रही है, इज़्ज़त करने का भाव दिखा रही है, वरना यह तो आपके सिर पर सवार हो जाएगी। होंगे आप अपने घर के महान, यह एक बार अगर मुँह लग गई तो किसी की महानता नहीं रखती। आपको पता नहीं है, यह कितनी उजड्ड और गँवार है, न किसी को महान मानती है, न मेहमान...इसके लिए...
चाय पी जा चुकी थी। मुझे पता है, पुष्पा ने एक बार भी इनसे किसी चीज़ को लेने का आग्रह नहीं किया होगा, जो ख़ुद ही ले लिया सो ले लिया। आप संकोच करें तो आपकी बला से। अजीब ख़ुदग़र्ज़ औरत से मेरा पाला पड़ा है। मैं अगर ज़रा हाथ खींच लूँ तो न घर में कोई व्यवस्था रहे, न सिलसिला। घर के ज़ियादातर काम अपने ज़िम्मे लेकर मैंने इसकी आदतें ख़राब कर दी हैं। अगर शुरू से ही सख़्ती रखता तो एकदम सीधी रहती।
उन्होंने कंधों का चादर उतारकर कुर्सी की पीठ पर रखते हुए ग़ुसलख़ाने की ओर जाने के भाव से पूछा, ‘‘यहाँ आस-पास टेलीफ़ोन तो होगा? मुझे अपने आने की ख़बर करनी थी— दो-एक लोगों को। तुम्हारे सिवाय किसी को भी नहीं बताया है। अजी, लोग चैन लेने देते?’’
‘‘जी, यहाँ तो नहीं है, बाहर निकलेंगे तो बेकरीवाले के यहाँ से कर लेंगे।’’ मैं अपराधी की तरह बोला। उन्होंने सिर्फ़ मुझे ही सूचना लायक़ समझा, इस बोझ से झुककर मैंने सोचा, आप चाहें तो शाम तक यहीं टेलीफ़ोन लगवा सकते हैं। आपके परिचय-प्रभाव क्या कम हैं? आप क्या नहीं कर सकते? एक बार इच्छा प्रकट कर दें, जनरल-मैनेजर ख़ुद अपनी देखरेख में फ़ोन लगवा दे। और यह सब सोचकर उनकी मूर्ति मेरे दिमाग़ में और भी बड़ी हो गई, इसी तुलना में पुष्पा मुझे और भी फूहड़ और कमीनी लगी। साड़ी लपेटने का यह भी कोई ढंग है, लगती है जैसे साहब लोगों की आया हो। उनके ऐश्वर्यशाली वातावरण के बीच जब मैंने उसे रखकर देखा तो लगा, जैसे वह चंदा माँगने आने वाली शरणार्थी औरतों जैसी लगती है। लेकिन यह मुझे शुरू से ही लग रहा था कि वह जान-बूझकर उन्हें महान आदमी मानने से इनकार करती रही है। उसके यहाँ तो साक्षात् भगवान भी आ जाए तो साले को कुत्ता बनाकर रद्द कर देगी। अरे, तुम मेरी तिल-भर इज़्ज़त नहीं करतीं, न सही, लेकिन जितनी इज़्ज़त मैं दूसरे की करता हूँ, उतनी तो कर ही सकती हो। ऐसा बड़ा आदमी मेरे यहाँ मेहमान है, यही सोचकर थोड़ी-बहुत इज़्ज़त मुझे भी बख़्श देतीं तो क्या टोटा पड़ जाता? लेकिन उस कूढ़-मग्ज से ऐसी उम्मीद ही बेकार है।
वहीं खड़े-खड़े ही पुष्पा कहीं इशारा न कर दे, ‘‘ग़ुसलख़ाना उधर है। चले जाइए!’’ इस डर से मैं आगे-आगे हो लिया, ‘‘इधर आइए, आपको ग़ुसलख़ाना दिखा दूँ!’’ हुँह, जैसे ताजमहल हो। लेकिन मैं उन्हें आगे-आगे वहाँ तक छोड़ आया। ‘‘मैं अभी गर्म पानी लाता हूँ।’’ मैं रसोई की तरफ़ लपका। केतली में पानी खौल रहा था। उसे बाल्टी में उड़ेलकर लाया तो भीतर वे ठंडे पानी से ही हाथ धो रहे थे। मैं घबरा उठा, ‘‘अरे-अरे, ये क्या कर रहे हैं? यह गर्म पानी है।’’
जब उन्होंने दरवाज़ा बंद कर लिया तो मैं पुष्पा के पास आया, ‘‘वहाँ से बर्तन तो उठा लो...’’ अगली बात दबा गया, बेकार इस समय चख-चख होगी।
‘‘अभी उठा लेती हूँ। आप शाम के लिए सब्ज़ी लाकर रख देना।’’
लीजिए साहब, यह साली ने अलग समस्या लाकर खड़ी कर दी। चुटकी बजाते विकटतम समस्याएँ खड़ी कर देना, उसके लिए कितना आसान है। हमेशा आड़े वक़्त में उसे ऐसे काम याद आते हैं। वो तो आटा पिसवा लिया था वरना उसकी भी फ़रमाइश इसी समय हो सकती थी। झल्लाहट पीकर कहा, ‘‘तुम मँगवा लेना किसी से। मुझे तो इनके साथ जाना होगा। नहीं जाऊँगा तो बुरा लगेगा।’’
उसने बुरा-सा मुँह बनाया, यानी मैं उन्हें ज़रा-सी देर बैठाकर सब्ज़ी ला सकता हूँ। इन्हीं से सब्ज़ी लाने को न कह दूँ? उनकी उपस्थिति में ही यह मुझसे कोई ऊँची-नीची बात कह सकती है, इसलिए जल्दी-से-जल्दी निकल जाने में भलाई है।
कल ही सूट पर प्रेस करा लिया था, लेकिन पहनकर लगा, उसे धुला लेना चाहिए था। सामने शीशे में बटलर खड़ा था। धुला लेने से ही क्या होता है, कपड़ा तो वही कबाड़िया है। न जाऊँ साथ? नौकर जैसा लगूँगा। अपने पास तो कहीं आने-जाने लायक़ कुछ भी नहीं है। कोट की बाँहों से क़मीज़ के गंदे कफ-कॉलर ढंकते हुए भी ख़याल रहा कि ये कोई ढके हुए थोड़े ही रहेंगे। जब भी किसी काम के लिए हाथ बढ़ाऊँगा तो दीखेंगे। जेब में कुल बारह रुपए थे, ख़ुशामद से कहा, ‘‘याद दस-पाँच रुपए दे दो न, पता नहीं कहाँ ज़रूरत पड़ जाए।’’
‘‘अभी तो महीना पड़ा है। मेरे पास कुल बीस...’’
‘‘तो वही दे दो, कहीं से मँगा लेंगे।’’ मैंने उसकी बात के बीच में ही जल्दी मचाने के ढंग पर कहा। कमबख़्त, इसी समय सारे महीने का हिसाब समझाएगी। अभी वे निकल आएँगे तो सब धरा रह जाएगा।
वे ताजे होकर निकले थे। हम लोग इस तरह ‘संभल’ गए, जैसे नेपथ्य से निकलकर स्टेज पर आ गए हों। कंधे में मैल और जनाने बालों का गुच्छा उलझा था, उन्हें हाथ से साफ़ करके कमीज़ से पोंछते हुए, तेल की शीशी लिए बाहर बैठक में निकल आया। ‘‘गोले का तेल है।’’ मैंने इस तरह बोतल पेश की कि अगर चाहें तो वे न लें। जवाकुसुम की शीशी कितने की आती होगी?
‘‘ठीक है।’’ लापरवाही से वे बोले। चुंधा-सस्ता शीशा है, मैं कहते-कहते रुक गया। उसे अपने कोट पर ही रगड़कर सामने कर दिया। उन्होंने इतमीनान से कंघा-तेल किया।
‘‘चलिए, आपको भी घुमा लाएँ...’’ वे हँसकर पुष्पा से बोले।
‘‘ये अब कहाँ...आपको तो पता नहीं, कहाँ-कहाँ जाना हो।’’ मैंने इस तरह प्रतिवाद किया, जैसे वह सचमुच ही चलने को कह सकती है। भीतर गहरी साँस ली, काश! मेरी बीवी ऐसी होती कि आप जैसे आदमी के साथ चलती, पढ़ी-लिखी और सलीक़े वाली। छुरी-काँटा पकड़ना तक तो आता नहीं है। मैं भी कहाँ जानता हूँ? लेकिन इसे तो ढंग के बाल बनाने भी तो नहीं आते।
‘‘आते वक़्त कुछ केले-संतरे लेते आइए...’’ लीजिए साहब, निकलते-निकलते एक फ़रमाइश दाग़ ही दी। कद्दू-काशीफल के लिए नहीं कहा? मन हुआ वापस जाकर दोनों हाथों से गला दबा दूँ...अरे, जिससे सब्ज़ी मँगाओगी, उससे यह सब नहीं मँगा सकती? क्यों मेरी फ़जीहत कराने पर तुली हो? दो-चार आने ज़ियादा ही तो दे आएगा न वह?
मैं अनसुनी किए एक तरफ़ हटकर खड़ा रहा। यह बेख़बर अपने मसूड़े दिखाती उनसे जल्दी आने को कहती रही। इसके चेहरे का भाव कितना सख़्त है। वह कहीं और खाकर न आने का अनुरोध कर रही थी।
सड़क पर मैं उनकी बौनी छाया की तरह चल रहा था। काश, सड़क पर निकलते ही गंदी नालियाँ, ख़ाली टीन, काग़ज़ के थैले न पड़े होते, आस-पास के बच्चे कुछ तमीज़दार ढंग से कपड़े पहने होते और औरतें पेटीकोट-ब्लाउज़ पर कुछ और भी डाल लेतीं, कुत्ते झबरे और ख़ूबसूरत होते। बाहर निकलकर मैंने कुछ इस तरह देखा था, जैसे उनकी जहाज़गाड़ी को तलाश कर रहा हूँ। इस गाड़ी का अहसास मेरे दिमाग़ पर लगातार ख़ुदा हुआ था।
बेकरी वाले की दुकान पर मैंने भरसक लापरवाही और आत्मविश्वास से कहा था, ‘‘भाई, एकाध फ़ोन करेंगे...’’ कभी दस पैसे का बिस्कुट भी न लेने आने वाले इस ‘आदमी’ को बेकरी वाले ने भी आश्चर्य से देखा था। वह फ़ोन की तरफ़ इशारा करके उसी संजीदगी से सामने खड़े किसी नौकरनुमा के लिए पहिया घुमा-घुमाकर स्लाइसें तराशता रहा।
घड़ी पर लहराती कुर्ते की भव्य आस्तीन वाले हाथ से टेलीफ़ोन उठाकर वे डायल घुमाने लगे। साले, तुझे क्या पता कि मेरे साथ कौन है? जिन टॉफ़ी और बिस्कुटों को सारे दिन खड़े-खड़े बेचा करता है, उनकी चार-छह तो मिलें होंगी इनकी। मिल होती हैं या फ़ैक्टरी? तुझ जैसे नौकर इनके ऑफ़िस में घुसने की हिम्मत नहीं कर पाते होंगे। हो सकता है किसी मिनिस्टर-कमिश्नर से ही बोल रहे हों, ‘‘नहीं जी, मुझे यहीं ठहरना था। अपना ही घर है।’’ पता नहीं उधर कौन है? एक अच्छी-सी नौकरी मुझे नहीं दिला सकते? दो-तीन फ़ोन किए। मैंने जल्दी से रुपया निकालकर दुकान वाले की तरफ़ बढ़ा दिया। ‘‘अरे, अरे रे...’’ वे कहते ही रह गए। उनकी जेकेट के बटन ही नहीं खुले थे। इतने बड़े आदमी, जिनके एक इशारे पर बड़ी-से-बड़ी सवारी सामने आकर खड़ी हो जाती हो, उनके सामने स्कूटर या बस की बात बड़ी टुच्ची लगेगी। टैक्सी ही ठीक रहेगी। पता नहीं, कहाँ-कहाँ जाएँ, कितना मीटर बने...देखी जाएगी। सुबह का खाना ही खाते तो दस-पंद्रह रुपए ठंडे हो जाते। यही समझूँगा कि वही रुपए यहाँ ख़र्च कर रहा हूँ। हो सकता है मुझे देने ही न दें...और देना पड़ भी गया तो यह इनवेस्टमेंट है...मैंने टैक्सी को संकेत किया...
उनके बार-बार आग्रह के बावजूद मैं उनकी बग़ल में न बैठकर ड्राइवर के साथ ही बैठ गया। दिल्ली की टैक्सियों की हालत भीतर से इतनी ख़राब है, यह मैंने पहली ही बार देखा। फटी गंदी गद्दियाँ, खटर-खटर, चूँ-चूँ की आवाज़ें...पहिए चाहे जिस स्पीड से चलें, लेकिन मीटर पर पैसे स्पूतनिक की स्पीड से आते हैं। हर बार पैसे बदलने पर मेरे दिल में खट होता था।
बैठे-बैठे व्यर्थ ही पुष्पा पर ग़ुस्सा आने लगा, साली कमीनी! मैंने यूँ ही सोचा। समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे क्या बात करूँ? कुछ नहीं, कुछ नहीं, इन बीवी-बच्चों और गृहस्थी ने किसी भी लायक़ नहीं छोड़ा। लगा, जो कुछ भी बोलूँगा, वह निहायत ही छिछला और व्यर्थ होगा। सोचेंगे, रहा यह टकियल क्लर्क ही। पता नहीं कैसे, उस क्षण मैं पीछे वाले मेहमान को एकदम भूल गया। गँवार, जाहिल, घुन्नी...मैं अगर जूती बराबर नहीं हूँ तो कोई बात नहीं, लेकिन यह तो कमीनेपन की हद है कि किसी को एक दिन को मेहमान मानकर उसकी ख़ातिर न कर सके! मान लो, एक दिन को कोई बड़ा आदमी अपने यहाँ आ ही गया तब तो...
ve ayenge, is baat ka tanav mere upar subah se savar tha.
lekin jab ve aa gaye to ye bhi pata nahin chal saka ki kisi savari se aaye hain ya paidal. darvaze par bahut hi halke se thak thak hui. mujhe unka intज़aar tha, isliye fauran samajh gaya ki ve hi hain. laga jaise niche ek bahut lambi gaDi aa khaDi hui hai aur ve usse utarkar upar chale aaye hain. mainne apne hisab se ghar kafi sanvar diya tha. lekin jab thak thak hui to ghabrakar chaunk utha, saath hi mujhe laga ki avaz mein hi aisa kuch mahan aur shalin hai ki unke sivay aur koi ho hi nahin sakta. mainne ishare se patni ko bataya, ve aa gaye hain. lapakkar darvaza khola. baDa bhavy vesh tha, kurta dhoti, kandhon par qimti shaul, baDa prabhavashali mohak chehra, khuli hui atmiy prasann mudra shayad ek prabhamanDal bikherti si. apne bhavishya ke vyaktitv ki jaisi main kalpana kiya karta tha, theek vahi roop tha. mainne namaskar ke saath kaha, ‘‘main apaki hi pratiksha kar raha tha. ’’ laga kuch aur kahna chahiye tha. ve baDe hi sahj apnepan se muskuraye. mere kandhe par halke se haath rakha aur bhitar aa gaye, ‘‘sabhi hain?’’
‘‘ji. . . ’’ mainne haklahat rokkar kaha, ‘‘ham sab aapke intज़aar mein hi the. lekin aapke aane ka pata hi nahin chala. main to subah se kai baar niche saDak par jhaank aaya tha, har aahat par kaan lagaye baitha tha. do baar panvale ki dukan tak ho aaya, use bhi kaha ki hamare ek mehman aane vale hain, koi aakar puchhe to ghar bata dena. . . ’’ lekin ho sakta hai mainne ye sab unse na kaha ho aur subah se ab tak ki apni pareshani ko duhra bhar liya ho man hi man. kaha itna hi ho, ‘‘pata to tha hi ki aap aaj ayenge. kal bhi socha tha ki shayad ek din pahle chale ayen. . . akele hi hain?’’
‘‘haan bhai, apna kuch theek thoDe hi hai. ’’ unhonne shayad, ‘ramte raam’ shabd ko daba liya. ‘‘kis din kahan honge, bus, itna pata hota hai. ’’
main aage aage chalta hua, haath dhone ki mudra mein mutthiyan masalta sa unhen liye hue andar aa raha tha, jaise ghaliche par la raha houn. ‘‘koi saman nahin hai?’’
‘‘saman?’’ ve sanyat se hanse, ‘‘tumhare yahan saman lekar ata? dekh raha hoon, tumne kafi kuch jama liya hai. ’’
‘sab apaki kripa hai’ ke bhaav se mainne hain hain ki mudra banai. saman nahin hai to koi baat nahin. ye pushpa sasuri kahan chali gai? jab bhi koi aisa adami aata hai to ye adabdakar rasoi mein ghusi rahti hai aur stov ityadi ki avaz paida karke aisa bhaav dikhati hai, jaise bahari duniya ka ise kuch bhi pata nahin. is kambakht ko ahsas hi nahin hai ki hamare yahan kitna baDa adami aaya hai.
mainne baithak ko baDe Dhang se sajaya tha. sari vyavastha ulat pulat di thi. aisi koshish ki thi ki baithak sare din uthne baithne sone ki jagah na lage aur aisa abhas ho, jaise unki tarah ke mehmanon ke liye hi rakha gaya svatantr kamra hai aur iska upyog hamesha nahin hota. gaddiyon ke kavar, parde, mezposh sab badal diye gaye the. mez par ghaDi aur kitaben rakh di gai theen. ye kitaben abhi tak charpai ke niche bandhi dhool kha rahi theen. kuch nai kitaben maang laya tha, purani mein se chunkar nikali theen. b. e. mein paDhi ‘golDan trejeri’ aur raskin ke nibandh mujhe mez par rakhne layaq lage the. pen, svaan ink, kuch patrikayen, phool khile kaanch ka gol peparvet, sabhi jhaaD ponchhkar rakhe the. har cheez ke ve hisse chhipa diye the, jo mujhe khu phoohD lagte the. aaj ka akhbar baDe Dhang se mez par rakh diya tha, jaise use paDhte paDhte hi main darvaza kholne gaya tha. kisi gambhir lekhak ki moti si kitab yoon mez par Daal di thi ki lage, raat ko main iska adhyayan kar raha tha. rabar vale sleeper bhi laparvahi se mez ke niche ‘vyavasthit’ kar diye the. mera sara ghar un jaise baDe mehman ke layaq bhale hi na ho, magar main unche mulyon mein santosh khojne vala vekti hoon, ye prabhav main un par Dalna chahta tha.
ve santosh aur halki thakavat se aakar kursi par baith gaye. unhonne baDe aram se donon paanv upar samet liye aur mujhe bechaini hone lagi ki pushpa abhi tak kyon nahin aa rahi? mujhe apni baithak, mez kursiyan, sara ghar bahut hi bekar aur sadharan lagne laga, chahe kuch kar lo, ye ghar ek phatichar clerk ka ghar lagta hai, un jaise sammanit mehman ke layaq bilkul bhi nahin. ye anubhuti mujhe unke bhitar qadam rakhte hi hone lagi thi, halanki hafton se main apne man ko bhi samjha raha tha ki jaisa bekar sab kuch main soch raha hoon, vaisa sab milakar shayad nahin hai. phir baDe log dusron ki majburiyan samajhte hain aur aisi chhoti moti baton par bilkul bhi dhyaan nahin dete, lekin ab laga, in kursiyon ko to inke ghar ke indhan ke kaam mein liya jata hoga. halanki fauran hi mainne apne ko sudhar liya. inke yahan indhan thoDe hi jalta hoga, bijli aur gas ke nae se nae sadhan honge. . . lekin nishchay hi aise pardon aur mezposh se inke yahan farsh ponchhe jate honge. . . aisi kitaben to inke yahan ke bachche aur naukar paDhte honge, inke naukaron ke ghar mere ghar se laakh darje achchhe honge. . . ye inki mahanta hi hai ki aise aram aur betakallufi se aakar baith gaye hain. . .
main apni bechaini chhipane ke liye ek baar balkni mein ghoom aaya, byarth paDi diyasalai ki seenk ko bahar phenk diya. niche jhankakar dekha, makan malkin baDe behaya Dhang se baithi kapDon mein sabun laga rahi thi. is moorkh ko kya pata ki upar mere yahan kaun baitha hai? baDa apne ko latsahab lagate hain ye log, yahan ganda mat karo, yahan koyle mat kuto, siDhiyon mein charpaiyan mat rakho—ek din kiraya na do to ghar chhoDne ki dhamki. tumhare jaise bees makan kharidkar phenk den ye. sale apne skutar ki aise safai karenge, jaise airavat ko nahla rahe hon—inke paas darjan bhar ek se ek khubsurat gaDiyan hain. . .
‘‘maaf kijiye, main abhi aaya. ’’ mainne dhire se kaha aur Darte hue se chauke mein chala gaya. ‘‘pushpa, tum bhi ajib aurat ho!’’ jhallakar gala bhinche svar mein mainne use jhiDka, ‘‘ve aa gaye hain aur tumne abhi tak saDi bhi nahin badli!’’
‘‘a gaye?’’ pahle to wo chaunki, phir apni usi vyastata se boli, ‘‘abhi badalti hoon. chaay ka pani rakh doon. . . ’’ lijiye sahab, ab chaay ka pani rakha jayega. bhitar ve baithe hain aur yahan ab chaay ka pani rakhne ki shuruat hogi. pleton mein mainne mithai namkin pahle hi rakh diye the, unhen ek baar phir se dekha, ek ek plate mein is tarah phaila phailakar rakh diya ki kam na lage, phir bhi lag raha tha ki behad kam hain aur ghar ka divaliyapan ujagar hota hai. phal subah nashte mein diye jate hain ya khane men mujhe yaad hi nahin aa raha tha. akele baithe hain, ke bojh se phir main baithak mein lapak aaya.
palangposh aaj hi sanduq se nikalkar bichhaye the aur unki tahon vale nishanon ko dekhkar koi bhi samajh sakta tha ki ye roz nahin bichhaye jate. mainne haath pherkar salavten theek keen. ek taraf ke chhed ko savadhani se daba diya. phir bhi santosh nahin hua ki kachot liye main baithak mein aa gaya? ve akhbar phailakar kuch dekhne lage the. haan, unhen to desh videsh ki jankari rakhni hoti hai. ek nigah mein sari paristhiti bhaanp jate honge. hamari tarah shuru se akhir tak paDhkar bhi baat samajh mein na aane ki shikayat unhen thoDe hi hoti hogi. unki mahattvapurn ekagrata mein mainne badha di hai—kshama bhaav se main kursi par zara sa tikkar baith gaya. samajh mein nahin aaya, kya baat karun. ‘‘apko taklif to nahin hui?’’ yahi saval us samay sujha. bevaquf, unke liye train mein baithna, jaise apne kamre mein baithna hai.
‘‘taklif kahe kee?’’ unhonne akhbar se sir uthaya, ‘‘mujhe sab aadat hai. ’’
‘‘yahan us tarah ki suvidhayen to nahin hain. ’’ mainne namrata se apne aur is sare ghar ke liye mafi mangi.
‘‘kya baten karte ho? apna hi ghar hai. sabhi apne apne ghar mein yoon hi rahte hain. ’’ ve atmiyata se bole, ‘‘tum mere liye kuch bhi vishesh mat karo. . . ’’
‘‘ji, wo to main janta hoon. ’’ mainne halke santosh se kaha, ‘‘aap mahan hain, isliye aisa kah rahe hain. varna kya main janta nahin ki aap kaise rahte hain, kaise hain aur ye sab kitna tuchchh hai. ’’ ek kshan ko laga, ho sakta hai jaisi bechaini main mahsus kar raha hoon, ve bilkul bhi na kar rahe hon aur sachmuch aram se hon. . . main niche pairon ki taraf dekhne laga, lo, abhi tak main nange paanv hi ghoom raha tha? jane kya sochenge? baukhlakar ekdam kursi ke paas rakhe sleeper pahanne ki ichha hui. lekin bahut saaf ho jayega. dhire aur bemalum tariqe se pahnunga. . . ungliyon aur anguthon se upar sarkate hue mainne puchha, ‘‘aap nahayenge ya munh haath dhoenge?’’ baat mujhe khu bahut bevaqufi ki lagi, ho sakta hai, is samay ve chaay hi pite hon. kuch to pilana hi chahiye tha.
‘‘sab kar lenge bhai, yahin to hain. ’’ ve atmiyata se bole, ‘‘pushpa ji nahin dikh rahin. tumhare ekaadh bachcha bhi to hai na, kahin paDhta hai?’’
‘‘ji, wo school gaya hai. paDhta hai. kya karen, yahan koi achchha school hi nahin hai. hamne to bahut koshish ki. . . ’’ halanki mainne use apni haisiyat se unche school mein dakhil karva rakha tha aur ‘achchhe skulon’ ke kharchon ko sochkar unke bare mein pata bhi nahin lagaya tha. jis school mein is samay wo tha, use lekar apni tarah mujhe garv bhi tha, lekin is samay mujhe laga, jaise wo anathalaya mein aata ho. bola, ‘‘dopahar ko bus chhoD jayegi. ’’ socha, pata nahin aaj pushpa ko samay bhi milega ya nahin ki jakar use school se liva laye.
sahsa pushpa ne kamre mein pravesh karke mujhe ubaar liya. wo chaay ki tray lekar i thi. unhonne upar samete hue paanv ekdam niche kar liye. jute tatolte hue—se uth khaDe hue, ‘‘namaste pushpa ji, kaisi hain?’’
‘‘aap baithe rahiye na,’’ kahte hue mainne baDhkar pushpa ke haath se tray le li. use savadhani se mez par rakhkar usse kaha, ‘‘tum bhi baitho na. . . ’’
wo saDi ka palla sir par theek karke namaskar kar chuki thi. ‘‘apne baDa intज़aar karaya, ye to do hafte se pareshan the ki aap ayenge. . . ’’
unhonne gadgad Dhang se mere kandhe par haath rakh diya, ‘‘ye to inki aadat hai. ’’
‘‘haan, yahi to main kahti hoon ki aa rahe hain to ayen. unka ghar hai. use lekar itna tufan machane ki kya zarurat hai! dekhiye, main to aapke liye kuch bhi khaas nahin karungi. jaise hum khate, rahte hain—usi tarah aapko bhi rahna paDega. . . ’’
tum to jhaDu lagvaogi inse. . . mainne daant bhinchkar dohraya. na mehman ki haisiyat dekhti hai, na umr. ye baat zarur kahti hai. kaha tha, saDi badal aao, lekin usi mein chali aa rahi hai. koi khayal hi nahin ki kaun aaya hai, kahan se aaya hai?
‘‘haan, haan, so to hai hi. ’’ mehman ki is baat ke javab mein pushpa ketli se tikoji utarti hui kah rahi thi, ‘‘ham to dekhiye, kisi ke liye kuch kar bhi nahin sakte. sadharan si haisiyat vale log hain. daal roti khate hain, vahi aapko bhi de denge. . . ’’
ji haan, sab bata dijiye ki hum to bhukhen marte hain. ye mithai aur namkin sirf aapke liye le aaye hain, varna hamein kahan nasib. inse kahkar koi achchhi si naukari lunga aur phir ise mithai aur phalon se hi na laad diya to mera bhi naam nahin. is aurat se main isiliye pareshan hoon ki mujhe kahin bhi sahyog nahin deti. hamesha yahi siddh karegi jaise ki main duniya ka sabse baDa bevaquf aur kam haisiyat vala adami hoon, aur jo hamare yahan aaya hai wo saDak par safai karne vala jamadar! ye shayad jaan bujhkar manne ko taiyar nahin hai ki inke hamare yahan aane ka kya arth hai? isse hamari izzat kitni baDhi hai? jane kitne unche unche to inke sanpark hain. wo to inki kripa hai, jo yahan aa gaye hain, varna ashoka aur taaj mein rukne vale adami hain. is samay yahan yoon kulhaD chhaap chaay nahin pi rahe hote? is samay inke charon taraf chhah baire manDra rahe hote, sekretari baitha sari hidayaten not kar raha hota, telephone ghanaghna rahe hote. . . niche lakdak vardi mein baitha Draivar jhatke se nikalkar darvaza kholta. . . aur mujhe phir laga, jaise niche saDak par havai jahajanuma gaDi khaDi hai.
main kuch kuch apradhi aur kuch kuch jhallaye man se platen tray mein se nikal nikalkar bahar rakhne laga. mithai namkin main muhalle ki sabse achchhi dukan se laya tha, lekin is samay sab ekdam ghatiya aur badsurat lag rahi theen, unmen ‘bazar’ ki gandh thi. plate pyale hamare yahan ek bhi aise nahin hain ki unmen Dhang ke adami ko kuch diya ja sake. tray mein bichhi tauliya dhobi ke yahan ek baar dhulkar kaisi khajaili si ho gai hai. tauliya ka ek kona bhi uth aaya hai aur niche tray par chhapa kapDa mil ka vij~naapan jhankne laga hai. sochenge, salon ne mufti tray lakar rakh chhoDi hai. mainne phurti se wo kona dabakar use Dhak diya. mujhe chaay besvad isliye bhi lagti rahi ki unke paas kona jhaDa kap pahunch gaya tha. khairiyat yahi thi ki unka dhyaan udhar nahin gaya tha. ve hans hansakar pushpa se baten kar rahe the. chalo, kahin to ghar jaisa mahsus kar rahe hain. . .
‘‘tumhen office nahin jana. . . ?’’ unhonne sidhe mujhse hi puchha to main chaunk utha.
‘‘baat ye hai ki mainne aaj ki chhutti le rakhi hai. socha, aapke aane ke bahane daftar ki duniya se bahar rah lenge. ’’ main bina soche samjhe bol paDa.
‘‘bekar!’’ ve naraz ho gaye, ‘‘ye sab takalluf karne ki kya zarurat hai? mujhe to aaj pata nahin kis kis se milna hai. ho sakta hai, dopahar ko khana bhi na khaun. . . ’’
‘‘vaah, ye kaise ho sakta hai?’’ pushpa ne adhikar se kaha, ‘‘aap kahin bhi bahar nahin khayenge. ’’
‘‘dekho pushpa, main shaam ko kahin nahin khaunga, lekin dopahar ke liye mujhse zid mat karo. ’’ ve apnepan se antim faisle ki tarah bole. yani dopahar ke liye hum logon ne jo itni chizen banai hain, ve bekar hi chali gain. ve shaam ko thoDe hi chalengi. shaam ke liye sabziyan vaghairah aur lani hongi.
‘‘tumne chhutti le hi li hai to chalo aaj hamare saath hi raho. kuch logon se mila denge. ho sakta hai, kabhi tumhare kaam hi aa jayen. ’’ unhonne itminan se mithai munh mein Dalkar chaay ka ghoont bhara.
‘‘ji, main to khali hi hoon. ’’ main bola. to ye pushpa ji se pushpa par aa gaye!
‘‘main do minat mein khana banaye deti hoon, aap log khakar hi niklen. ’’ pushpa phurti se uthti hui boli.
‘‘nahin, pushpa is samay nahin. ’’ unhonne agrah kiya, ‘‘main zara haath munh dhote hi niklunga. ’’
‘‘rahne do phir,’’ main majburi ke bhaav se bola. main nahin chahta tha ki pushpa unhen do minat vala khana khilaye. ‘‘maaf kijiye, abhi aata hoon. ’’ kahkar main jaldi se utha aur ghusalkhane pahunch gaya. ullu ke patthon ne kaisa chhota sa ghusalkhana banvaya hai, ek khunti tak to lagai nahin hai. bolo, nahane vala tumhare sir par kapDe latkayega? bhitar se kivaD band karke ghusalkhana mainne jhaDu se dho diya. bivi ko to is chhoti si baat ka khayal ayega nahin. sabundani saaf ki, tel ki shishiyan qarine se lagain, naya sabun kholkar rakha aur patra saaf kar diya. kone se ekaadh jala jhaDa aur munh dhokar is tarah nikla, jaise isi kaam ke liye gaya tha. inke yahan to shanadar ghusalkhana hoga. garam thanDe pani ke tub honge, ghusalkhana garm rakhne ka parbandh hoga. tub, vaash besin, commode sab nai se nai design ke honge jaise cinema aur hotalon mein dekhe hain. kya karen, apne yahan to yahi hain. mainne majburi se saans li. pata nahin, kabhi nasib mein hoga bhi ya nahin.
pushpa is beech unse kafi khul gai thi aur hans hansakar baten kar rahi thee! jab main aaya to ve uski taraf is tarah dekh rahe the, jaise uski sundarta ko nihar rahe hon. chalo, apni bevaqufi aur ghair duniyadari ke bavjud agar wo unhen et hom mahsus kara sakti hai to kya harj hai. lekin maharaj, aap mehman hain, isliye ye duri barat rahi hai, izzat karne ka bhaav dikha rahi hai, varna ye to aapke sir par savar ho jayegi. honge aap apne ghar ke mahan, ye ek baar agar munh lag gai to kisi ki mahanta nahin rakhti. aapko pata nahin hai, ye kitni ujaDD aur ganvar hai, na kisi ko mahan manti hai, na mehman. . . iske liye. . .
chaay pi ja chuki thi. mujhe pata hai, pushpa ne ek baar bhi inse kisi cheez ko lene ka agrah nahin kiya hoga, jo khu hi le liya so le liya. aap sankoch karen to apaki bala se. ajib khudgharz aurat se mera pala paDa hai. main agar zara haath kheench loon to na ghar mein koi vyavastha rahe, na silsila. ghar ke ziyadatar kaam apne zimme lekar mainne iski adten kharab kar di hain. agar shuru se hi sakhti rakhta to ekdam sidhi rahti.
unhonne kandhon ka chadar utarkar kursi ki peeth par rakhte hue ghusalkhane ki or jane ke bhaav se puchha, ‘‘yahan aas paas telephone to hoga? mujhe apne aane ki khabar karni thee— do ek logon ko. tumhare sivay kisi ko bhi nahin bataya hai. aji, log chain lene dete?’’
‘‘ji, yahan to nahin hai, bahar niklenge to bekrivale ke yahan se kar lenge. ’’ main apradhi ki tarah bola. unhonne sirf mujhe hi suchana layaq samjha, is bojh se jhukkar mainne socha, aap chahen to shaam tak yahin telephone lagva sakte hain. aapke parichai prabhav kya kam hain? aap kya nahin kar sakte? ek baar ichha prakat kar den, general manager khu apni dekhrekh mein phone lagva de. aur ye sab sochkar unki murti mere dimagh mein aur bhi baDi ho gai, isi tulna mein pushpa mujhe aur bhi phoohD aur kamini lagi. saDi lapetne ka ye bhi koi Dhang hai, lagti hai jaise sahab logon ki aaya ho. unke aishvaryashali vatavarn ke beech jab mainne use rakhkar dekha to laga, jaise wo chanda mangne aane vali sharnarthi aurton jaisi lagti hai. lekin ye mujhe shuru se hi lag raha tha ki wo jaan bujhkar unhen mahan adami manne se inkaar karti rahi hai. uske yahan to sakshat bhagvan bhi aa jaye to sale ko kutta banakar radd kar degi. are, tum meri til bhar izzat nahin kartin, na sahi, lekin jitni izzat main dusre ki karta hoon, utni to kar hi sakti ho. aisa baDa adami mere yahan mehman hai, yahi sochkar thoDi bahut izzat mujhe bhi bakhsh detin to kya tota paD jata? lekin us kooDh magj se aisi ummid hi bekar hai.
vahin khaDe khaDe hi pushpa kahin ishara na kar de, ‘‘ghusalkhana udhar hai. chale jaiye!’’ is Dar se main aage aage ho liya, ‘‘idhar aiye, aapko ghusalkhana dikha doon!’’ hunh, jaise tajamhal ho. lekin main unhen aage aage vahan tak chhoD aaya. ‘‘main abhi garm pani lata hoon. ’’ main rasoi ki taraf lapka. ketli mein pani khaul raha tha. use balti mein uDelkar laya to bhitar ve thanDe pani se hi haath dho rahe the. main ghabra utha, ‘‘are are, ye kya kar rahe hain? ye garm pani hai. ’’
jab unhonne darvaza band kar liya to main pushpa ke paas aaya, ‘‘vahan se bartan to utha lo. . . ’’ agli baat daba gaya, bekar is samay chakh chakh hogi.
‘‘abhi utha leti hoon. aap shaam ke liye sabzi lakar rakh dena. ’’
lijiye sahab, ye sali ne alag samasya lakar khaDi kar di. chutki bajate vikattam samasyayen khaDi kar dena, uske liye kitna asan hai. hamesha aaDe vaqt mein use aise kaam yaad aate hain. wo to aata pisva liya tha varna uski bhi farmaish isi samay ho sakti thi. jhallahat pikar kaha, ‘‘tum mangva lena kisi se. mujhe to inke saath jana hoga. nahin jaunga to bura lagega. ’’
usne bura sa munh banaya, yani main unhen zara si der baithakar sabzi la sakta hoon. inhin se sabzi lane ko na kah doon? unki upasthiti mein hi ye mujhse koi unchi nichi baat kah sakti hai, isliye jaldi se jaldi nikal jane mein bhalai hai.
kal hi soot par press kara liya tha, lekin pahankar laga, use dhula lena chahiye tha. samne shishe mein butler khaDa tha. dhula lene se hi kya hota hai, kapDa to vahi kabaDiya hai. na jaun saath? naukar jaisa lagunga. apne paas to kahin aane jane layaq kuch bhi nahin hai. coat ki banhon se qamiz ke gande kaph collar Dhankte hue bhi khayal raha ki ye koi Dhake hue thoDe hi rahenge. jab bhi kisi kaam ke liye haath baDhaunga to dikhenge. jeb mein kul barah rupae the, khushamad se kaha, ‘‘yaad das paanch rupae de do na, pata nahin kahan zarurat paD jaye. ’’
‘‘abhi to mahina paDa hai. mere paas kul bees. . . ’’
‘‘to vahi de do, kahin se manga lenge. ’’ mainne uski baat ke beech mein hi jaldi machane ke Dhang par kaha. kambakht, isi samay sare mahine ka hisab samjhayegi. abhi ve nikal ayenge to sab dhara rah jayega.
ve taje hokar nikle the. hum log is tarah ‘sambhal’ gaye, jaise nepathy se nikalkar stage par aa gaye hon. kandhe mein mail aur janane balon ka guchchha uljha tha, unhen haath se saaf karke kamiz se ponchhte hue, tel ki shishi liye bahar baithak mein nikal aaya. ‘‘gole ka tel hai. ’’ mainne is tarah botal pesh ki ki agar chahen to ve na len. javakusum ki shishi kitne ki aati hogi?
‘‘theek hai. ’’ laparvahi se ve bole. chundha sasta shisha hai, main kahte kahte ruk gaya. use apne coat par hi ragaDkar samne kar diya. unhonne itminan se kangha tel kiya.
‘‘chaliye, aapko bhi ghuma layen. . . ’’ ve hansakar pushpa se bole.
‘‘ye ab kahan. . . aapko to pata nahin, kahan kahan jana ho. ’’ mainne is tarah prativad kiya, jaise wo sachmuch hi chalne ko kah sakti hai. bhitar gahri saans li, kaash! meri bivi aisi hoti ki aap jaise adami ke saath chalti, paDhi likhi aur saliqe vali. chhuri kanta pakaDna tak to aata nahin hai. main bhi kahan janta hoon? lekin ise to Dhang ke baal banane bhi to nahin aate.
‘‘ate vaqt kuch kele santre lete aiye. . . ’’ lijiye sahab, nikalte nikalte ek farmaish daagh hi di. kaddu kashiphal ke liye nahin kaha? man hua vapas jakar donon hathon se gala daba doon. . . are, jisse sabzi mangaogi, usse ye sab nahin manga sakti? kyon meri fajih karane par tuli ho? do chaar aane ziyada hi to de ayega na vah?
main anasuni kiye ek taraf hatkar khaDa raha. ye beख़bar apne masuDe dikhati unse jaldi aane ko kahti rahi. iske chehre ka bhaav kitna sakht hai. wo kahin aur khakar na aane ka anurodh kar rahi thi.
saDak par main unki bauni chhaya ki tarah chal raha tha. kaash, saDak par nikalte hi gandi naliyan, khali teen, kaghaz ke thaile na paDe hote, aas paas ke bachche kuch tamizdar Dhang se kapDe pahne hote aur aurten petikot blouse par kuch aur bhi Daal letin, kutte jhabre aur khubsurat hote. bahar nikalkar mainne kuch is tarah dekha tha, jaise unki jahazgaDi ko talash kar raha hoon. is gaDi ka ahsas mere dimagh par lagatar khuda hua tha.
bakery vale ki dukan par mainne bharsak laparvahi aur atmavishvas se kaha tha, ‘‘bhai, ekaadh phone karenge. . . ’’ kabhi das paise ka biscuit bhi na lene aane vale is ‘adami’ ko bakery vale ne bhi ashchary se dekha tha. wo phone ki taraf ishara karke usi sanjidgi se samne khaDe kisi naukaranuma ke liye pahiya ghuma ghumakar slaisen tarashta raha.
ghaDi par lahrati kurte ki bhavy astin vale haath se telephone uthakar ve dial ghumane lage. sale, tujhe kya pata ki mere saath kaun hai? jin toffe aur biskuton ko sare din khaDe khaDe becha karta hai, unki chaar chhah to milen hongi inki. mil hoti hain ya factory? tujh jaise naukar inke office mein ghusne ki himmat nahin kar pate honge. ho sakta hai kisi minister commissioner se hi bol rahe hon, ‘‘nahin ji, mujhe yahin thaharna tha. apna hi ghar hai. ’’ pata nahin udhar kaun hai? ek achchhi si naukari mujhe nahin dila sakte? do teen phone kiye. mainne jaldi se rupaya nikalkar dukan vale ki taraf baDha diya. ‘‘are, are re. . . ’’ ve kahte hi rah gaye. unki jeket ke button hi nahin khule the. itne baDe adami, jinke ek ishare par baDi se baDi savari samne aakar khaDi ho jati ho, unke samne skutar ya bus ki baat baDi tuchchi lagegi. taxi hi theek rahegi. pata nahin, kahan kahan jayen, kitna meter bane. . . dekhi jayegi. subah ka khana hi khate to das pandrah rupae thanDe ho jate. yahi samjhunga ki vahi rupae yahan kharch kar raha hoon. ho sakta hai mujhe dene hi na den. . . aur dena paD bhi gaya to ye investament hai. . . mainne taxi ko sanket kiya. . .
unke baar baar agrah ke bavjud main unki baghal mein na baithkar Draivar ke saath hi baith gaya. dilli ki taxiyon ki haalat bhitar se itni kharab hai, ye mainne pahli hi baar dekha. phati gandi gaddiyan, khatar khatar, choon choon ki avazen. . . pahiye chahe jis speed se chalen, lekin meter par paise sputnik ki speed se aate hain. har baar paise badalne par mere dil mein khat hota tha.
baithe baithe byarth hi pushpa par ghussa aane laga, sali kamini! mainne yoon hi socha. samajh mein nahin aa raha tha ki unse kya baat karun? kuch nahin, kuch nahin, in bivi bachchon aur grihasthi ne kisi bhi layaq nahin chhoDa. laga, jo kuch bhi bolunga, wo nihayat hi chhichhla aur byarth hoga. sochenge, raha ye takiyal clerk hi. pata nahin kaise, us kshan main pichhe vale mehman ko ekdam bhool gaya. ganvar, jahil, ghunni. . . main agar juti barabar nahin hoon to koi baat nahin, lekin ye to kaminepan ki had hai ki kisi ko ek din ko mehman mankar uski khatir na kar sake! maan lo, ek din ko koi baDa adami apne yahan aa hi gaya tab to. . .
ve ayenge, is baat ka tanav mere upar subah se savar tha.
lekin jab ve aa gaye to ye bhi pata nahin chal saka ki kisi savari se aaye hain ya paidal. darvaze par bahut hi halke se thak thak hui. mujhe unka intज़aar tha, isliye fauran samajh gaya ki ve hi hain. laga jaise niche ek bahut lambi gaDi aa khaDi hui hai aur ve usse utarkar upar chale aaye hain. mainne apne hisab se ghar kafi sanvar diya tha. lekin jab thak thak hui to ghabrakar chaunk utha, saath hi mujhe laga ki avaz mein hi aisa kuch mahan aur shalin hai ki unke sivay aur koi ho hi nahin sakta. mainne ishare se patni ko bataya, ve aa gaye hain. lapakkar darvaza khola. baDa bhavy vesh tha, kurta dhoti, kandhon par qimti shaul, baDa prabhavashali mohak chehra, khuli hui atmiy prasann mudra shayad ek prabhamanDal bikherti si. apne bhavishya ke vyaktitv ki jaisi main kalpana kiya karta tha, theek vahi roop tha. mainne namaskar ke saath kaha, ‘‘main apaki hi pratiksha kar raha tha. ’’ laga kuch aur kahna chahiye tha. ve baDe hi sahj apnepan se muskuraye. mere kandhe par halke se haath rakha aur bhitar aa gaye, ‘‘sabhi hain?’’
‘‘ji. . . ’’ mainne haklahat rokkar kaha, ‘‘ham sab aapke intज़aar mein hi the. lekin aapke aane ka pata hi nahin chala. main to subah se kai baar niche saDak par jhaank aaya tha, har aahat par kaan lagaye baitha tha. do baar panvale ki dukan tak ho aaya, use bhi kaha ki hamare ek mehman aane vale hain, koi aakar puchhe to ghar bata dena. . . ’’ lekin ho sakta hai mainne ye sab unse na kaha ho aur subah se ab tak ki apni pareshani ko duhra bhar liya ho man hi man. kaha itna hi ho, ‘‘pata to tha hi ki aap aaj ayenge. kal bhi socha tha ki shayad ek din pahle chale ayen. . . akele hi hain?’’
‘‘haan bhai, apna kuch theek thoDe hi hai. ’’ unhonne shayad, ‘ramte raam’ shabd ko daba liya. ‘‘kis din kahan honge, bus, itna pata hota hai. ’’
main aage aage chalta hua, haath dhone ki mudra mein mutthiyan masalta sa unhen liye hue andar aa raha tha, jaise ghaliche par la raha houn. ‘‘koi saman nahin hai?’’
‘‘saman?’’ ve sanyat se hanse, ‘‘tumhare yahan saman lekar ata? dekh raha hoon, tumne kafi kuch jama liya hai. ’’
‘sab apaki kripa hai’ ke bhaav se mainne hain hain ki mudra banai. saman nahin hai to koi baat nahin. ye pushpa sasuri kahan chali gai? jab bhi koi aisa adami aata hai to ye adabdakar rasoi mein ghusi rahti hai aur stov ityadi ki avaz paida karke aisa bhaav dikhati hai, jaise bahari duniya ka ise kuch bhi pata nahin. is kambakht ko ahsas hi nahin hai ki hamare yahan kitna baDa adami aaya hai.
mainne baithak ko baDe Dhang se sajaya tha. sari vyavastha ulat pulat di thi. aisi koshish ki thi ki baithak sare din uthne baithne sone ki jagah na lage aur aisa abhas ho, jaise unki tarah ke mehmanon ke liye hi rakha gaya svatantr kamra hai aur iska upyog hamesha nahin hota. gaddiyon ke kavar, parde, mezposh sab badal diye gaye the. mez par ghaDi aur kitaben rakh di gai theen. ye kitaben abhi tak charpai ke niche bandhi dhool kha rahi theen. kuch nai kitaben maang laya tha, purani mein se chunkar nikali theen. b. e. mein paDhi ‘golDan trejeri’ aur raskin ke nibandh mujhe mez par rakhne layaq lage the. pen, svaan ink, kuch patrikayen, phool khile kaanch ka gol peparvet, sabhi jhaaD ponchhkar rakhe the. har cheez ke ve hisse chhipa diye the, jo mujhe khu phoohD lagte the. aaj ka akhbar baDe Dhang se mez par rakh diya tha, jaise use paDhte paDhte hi main darvaza kholne gaya tha. kisi gambhir lekhak ki moti si kitab yoon mez par Daal di thi ki lage, raat ko main iska adhyayan kar raha tha. rabar vale sleeper bhi laparvahi se mez ke niche ‘vyavasthit’ kar diye the. mera sara ghar un jaise baDe mehman ke layaq bhale hi na ho, magar main unche mulyon mein santosh khojne vala vekti hoon, ye prabhav main un par Dalna chahta tha.
ve santosh aur halki thakavat se aakar kursi par baith gaye. unhonne baDe aram se donon paanv upar samet liye aur mujhe bechaini hone lagi ki pushpa abhi tak kyon nahin aa rahi? mujhe apni baithak, mez kursiyan, sara ghar bahut hi bekar aur sadharan lagne laga, chahe kuch kar lo, ye ghar ek phatichar clerk ka ghar lagta hai, un jaise sammanit mehman ke layaq bilkul bhi nahin. ye anubhuti mujhe unke bhitar qadam rakhte hi hone lagi thi, halanki hafton se main apne man ko bhi samjha raha tha ki jaisa bekar sab kuch main soch raha hoon, vaisa sab milakar shayad nahin hai. phir baDe log dusron ki majburiyan samajhte hain aur aisi chhoti moti baton par bilkul bhi dhyaan nahin dete, lekin ab laga, in kursiyon ko to inke ghar ke indhan ke kaam mein liya jata hoga. halanki fauran hi mainne apne ko sudhar liya. inke yahan indhan thoDe hi jalta hoga, bijli aur gas ke nae se nae sadhan honge. . . lekin nishchay hi aise pardon aur mezposh se inke yahan farsh ponchhe jate honge. . . aisi kitaben to inke yahan ke bachche aur naukar paDhte honge, inke naukaron ke ghar mere ghar se laakh darje achchhe honge. . . ye inki mahanta hi hai ki aise aram aur betakallufi se aakar baith gaye hain. . .
main apni bechaini chhipane ke liye ek baar balkni mein ghoom aaya, byarth paDi diyasalai ki seenk ko bahar phenk diya. niche jhankakar dekha, makan malkin baDe behaya Dhang se baithi kapDon mein sabun laga rahi thi. is moorkh ko kya pata ki upar mere yahan kaun baitha hai? baDa apne ko latsahab lagate hain ye log, yahan ganda mat karo, yahan koyle mat kuto, siDhiyon mein charpaiyan mat rakho—ek din kiraya na do to ghar chhoDne ki dhamki. tumhare jaise bees makan kharidkar phenk den ye. sale apne skutar ki aise safai karenge, jaise airavat ko nahla rahe hon—inke paas darjan bhar ek se ek khubsurat gaDiyan hain. . .
‘‘maaf kijiye, main abhi aaya. ’’ mainne dhire se kaha aur Darte hue se chauke mein chala gaya. ‘‘pushpa, tum bhi ajib aurat ho!’’ jhallakar gala bhinche svar mein mainne use jhiDka, ‘‘ve aa gaye hain aur tumne abhi tak saDi bhi nahin badli!’’
‘‘a gaye?’’ pahle to wo chaunki, phir apni usi vyastata se boli, ‘‘abhi badalti hoon. chaay ka pani rakh doon. . . ’’ lijiye sahab, ab chaay ka pani rakha jayega. bhitar ve baithe hain aur yahan ab chaay ka pani rakhne ki shuruat hogi. pleton mein mainne mithai namkin pahle hi rakh diye the, unhen ek baar phir se dekha, ek ek plate mein is tarah phaila phailakar rakh diya ki kam na lage, phir bhi lag raha tha ki behad kam hain aur ghar ka divaliyapan ujagar hota hai. phal subah nashte mein diye jate hain ya khane men mujhe yaad hi nahin aa raha tha. akele baithe hain, ke bojh se phir main baithak mein lapak aaya.
palangposh aaj hi sanduq se nikalkar bichhaye the aur unki tahon vale nishanon ko dekhkar koi bhi samajh sakta tha ki ye roz nahin bichhaye jate. mainne haath pherkar salavten theek keen. ek taraf ke chhed ko savadhani se daba diya. phir bhi santosh nahin hua ki kachot liye main baithak mein aa gaya? ve akhbar phailakar kuch dekhne lage the. haan, unhen to desh videsh ki jankari rakhni hoti hai. ek nigah mein sari paristhiti bhaanp jate honge. hamari tarah shuru se akhir tak paDhkar bhi baat samajh mein na aane ki shikayat unhen thoDe hi hoti hogi. unki mahattvapurn ekagrata mein mainne badha di hai—kshama bhaav se main kursi par zara sa tikkar baith gaya. samajh mein nahin aaya, kya baat karun. ‘‘apko taklif to nahin hui?’’ yahi saval us samay sujha. bevaquf, unke liye train mein baithna, jaise apne kamre mein baithna hai.
‘‘taklif kahe kee?’’ unhonne akhbar se sir uthaya, ‘‘mujhe sab aadat hai. ’’
‘‘yahan us tarah ki suvidhayen to nahin hain. ’’ mainne namrata se apne aur is sare ghar ke liye mafi mangi.
‘‘kya baten karte ho? apna hi ghar hai. sabhi apne apne ghar mein yoon hi rahte hain. ’’ ve atmiyata se bole, ‘‘tum mere liye kuch bhi vishesh mat karo. . . ’’
‘‘ji, wo to main janta hoon. ’’ mainne halke santosh se kaha, ‘‘aap mahan hain, isliye aisa kah rahe hain. varna kya main janta nahin ki aap kaise rahte hain, kaise hain aur ye sab kitna tuchchh hai. ’’ ek kshan ko laga, ho sakta hai jaisi bechaini main mahsus kar raha hoon, ve bilkul bhi na kar rahe hon aur sachmuch aram se hon. . . main niche pairon ki taraf dekhne laga, lo, abhi tak main nange paanv hi ghoom raha tha? jane kya sochenge? baukhlakar ekdam kursi ke paas rakhe sleeper pahanne ki ichha hui. lekin bahut saaf ho jayega. dhire aur bemalum tariqe se pahnunga. . . ungliyon aur anguthon se upar sarkate hue mainne puchha, ‘‘aap nahayenge ya munh haath dhoenge?’’ baat mujhe khu bahut bevaqufi ki lagi, ho sakta hai, is samay ve chaay hi pite hon. kuch to pilana hi chahiye tha.
‘‘sab kar lenge bhai, yahin to hain. ’’ ve atmiyata se bole, ‘‘pushpa ji nahin dikh rahin. tumhare ekaadh bachcha bhi to hai na, kahin paDhta hai?’’
‘‘ji, wo school gaya hai. paDhta hai. kya karen, yahan koi achchha school hi nahin hai. hamne to bahut koshish ki. . . ’’ halanki mainne use apni haisiyat se unche school mein dakhil karva rakha tha aur ‘achchhe skulon’ ke kharchon ko sochkar unke bare mein pata bhi nahin lagaya tha. jis school mein is samay wo tha, use lekar apni tarah mujhe garv bhi tha, lekin is samay mujhe laga, jaise wo anathalaya mein aata ho. bola, ‘‘dopahar ko bus chhoD jayegi. ’’ socha, pata nahin aaj pushpa ko samay bhi milega ya nahin ki jakar use school se liva laye.
sahsa pushpa ne kamre mein pravesh karke mujhe ubaar liya. wo chaay ki tray lekar i thi. unhonne upar samete hue paanv ekdam niche kar liye. jute tatolte hue—se uth khaDe hue, ‘‘namaste pushpa ji, kaisi hain?’’
‘‘aap baithe rahiye na,’’ kahte hue mainne baDhkar pushpa ke haath se tray le li. use savadhani se mez par rakhkar usse kaha, ‘‘tum bhi baitho na. . . ’’
wo saDi ka palla sir par theek karke namaskar kar chuki thi. ‘‘apne baDa intज़aar karaya, ye to do hafte se pareshan the ki aap ayenge. . . ’’
unhonne gadgad Dhang se mere kandhe par haath rakh diya, ‘‘ye to inki aadat hai. ’’
‘‘haan, yahi to main kahti hoon ki aa rahe hain to ayen. unka ghar hai. use lekar itna tufan machane ki kya zarurat hai! dekhiye, main to aapke liye kuch bhi khaas nahin karungi. jaise hum khate, rahte hain—usi tarah aapko bhi rahna paDega. . . ’’
tum to jhaDu lagvaogi inse. . . mainne daant bhinchkar dohraya. na mehman ki haisiyat dekhti hai, na umr. ye baat zarur kahti hai. kaha tha, saDi badal aao, lekin usi mein chali aa rahi hai. koi khayal hi nahin ki kaun aaya hai, kahan se aaya hai?
‘‘haan, haan, so to hai hi. ’’ mehman ki is baat ke javab mein pushpa ketli se tikoji utarti hui kah rahi thi, ‘‘ham to dekhiye, kisi ke liye kuch kar bhi nahin sakte. sadharan si haisiyat vale log hain. daal roti khate hain, vahi aapko bhi de denge. . . ’’
ji haan, sab bata dijiye ki hum to bhukhen marte hain. ye mithai aur namkin sirf aapke liye le aaye hain, varna hamein kahan nasib. inse kahkar koi achchhi si naukari lunga aur phir ise mithai aur phalon se hi na laad diya to mera bhi naam nahin. is aurat se main isiliye pareshan hoon ki mujhe kahin bhi sahyog nahin deti. hamesha yahi siddh karegi jaise ki main duniya ka sabse baDa bevaquf aur kam haisiyat vala adami hoon, aur jo hamare yahan aaya hai wo saDak par safai karne vala jamadar! ye shayad jaan bujhkar manne ko taiyar nahin hai ki inke hamare yahan aane ka kya arth hai? isse hamari izzat kitni baDhi hai? jane kitne unche unche to inke sanpark hain. wo to inki kripa hai, jo yahan aa gaye hain, varna ashoka aur taaj mein rukne vale adami hain. is samay yahan yoon kulhaD chhaap chaay nahin pi rahe hote? is samay inke charon taraf chhah baire manDra rahe hote, sekretari baitha sari hidayaten not kar raha hota, telephone ghanaghna rahe hote. . . niche lakdak vardi mein baitha Draivar jhatke se nikalkar darvaza kholta. . . aur mujhe phir laga, jaise niche saDak par havai jahajanuma gaDi khaDi hai.
main kuch kuch apradhi aur kuch kuch jhallaye man se platen tray mein se nikal nikalkar bahar rakhne laga. mithai namkin main muhalle ki sabse achchhi dukan se laya tha, lekin is samay sab ekdam ghatiya aur badsurat lag rahi theen, unmen ‘bazar’ ki gandh thi. plate pyale hamare yahan ek bhi aise nahin hain ki unmen Dhang ke adami ko kuch diya ja sake. tray mein bichhi tauliya dhobi ke yahan ek baar dhulkar kaisi khajaili si ho gai hai. tauliya ka ek kona bhi uth aaya hai aur niche tray par chhapa kapDa mil ka vij~naapan jhankne laga hai. sochenge, salon ne mufti tray lakar rakh chhoDi hai. mainne phurti se wo kona dabakar use Dhak diya. mujhe chaay besvad isliye bhi lagti rahi ki unke paas kona jhaDa kap pahunch gaya tha. khairiyat yahi thi ki unka dhyaan udhar nahin gaya tha. ve hans hansakar pushpa se baten kar rahe the. chalo, kahin to ghar jaisa mahsus kar rahe hain. . .
‘‘tumhen office nahin jana. . . ?’’ unhonne sidhe mujhse hi puchha to main chaunk utha.
‘‘baat ye hai ki mainne aaj ki chhutti le rakhi hai. socha, aapke aane ke bahane daftar ki duniya se bahar rah lenge. ’’ main bina soche samjhe bol paDa.
‘‘bekar!’’ ve naraz ho gaye, ‘‘ye sab takalluf karne ki kya zarurat hai? mujhe to aaj pata nahin kis kis se milna hai. ho sakta hai, dopahar ko khana bhi na khaun. . . ’’
‘‘vaah, ye kaise ho sakta hai?’’ pushpa ne adhikar se kaha, ‘‘aap kahin bhi bahar nahin khayenge. ’’
‘‘dekho pushpa, main shaam ko kahin nahin khaunga, lekin dopahar ke liye mujhse zid mat karo. ’’ ve apnepan se antim faisle ki tarah bole. yani dopahar ke liye hum logon ne jo itni chizen banai hain, ve bekar hi chali gain. ve shaam ko thoDe hi chalengi. shaam ke liye sabziyan vaghairah aur lani hongi.
‘‘tumne chhutti le hi li hai to chalo aaj hamare saath hi raho. kuch logon se mila denge. ho sakta hai, kabhi tumhare kaam hi aa jayen. ’’ unhonne itminan se mithai munh mein Dalkar chaay ka ghoont bhara.
‘‘ji, main to khali hi hoon. ’’ main bola. to ye pushpa ji se pushpa par aa gaye!
‘‘main do minat mein khana banaye deti hoon, aap log khakar hi niklen. ’’ pushpa phurti se uthti hui boli.
‘‘nahin, pushpa is samay nahin. ’’ unhonne agrah kiya, ‘‘main zara haath munh dhote hi niklunga. ’’
‘‘rahne do phir,’’ main majburi ke bhaav se bola. main nahin chahta tha ki pushpa unhen do minat vala khana khilaye. ‘‘maaf kijiye, abhi aata hoon. ’’ kahkar main jaldi se utha aur ghusalkhane pahunch gaya. ullu ke patthon ne kaisa chhota sa ghusalkhana banvaya hai, ek khunti tak to lagai nahin hai. bolo, nahane vala tumhare sir par kapDe latkayega? bhitar se kivaD band karke ghusalkhana mainne jhaDu se dho diya. bivi ko to is chhoti si baat ka khayal ayega nahin. sabundani saaf ki, tel ki shishiyan qarine se lagain, naya sabun kholkar rakha aur patra saaf kar diya. kone se ekaadh jala jhaDa aur munh dhokar is tarah nikla, jaise isi kaam ke liye gaya tha. inke yahan to shanadar ghusalkhana hoga. garam thanDe pani ke tub honge, ghusalkhana garm rakhne ka parbandh hoga. tub, vaash besin, commode sab nai se nai design ke honge jaise cinema aur hotalon mein dekhe hain. kya karen, apne yahan to yahi hain. mainne majburi se saans li. pata nahin, kabhi nasib mein hoga bhi ya nahin.
pushpa is beech unse kafi khul gai thi aur hans hansakar baten kar rahi thee! jab main aaya to ve uski taraf is tarah dekh rahe the, jaise uski sundarta ko nihar rahe hon. chalo, apni bevaqufi aur ghair duniyadari ke bavjud agar wo unhen et hom mahsus kara sakti hai to kya harj hai. lekin maharaj, aap mehman hain, isliye ye duri barat rahi hai, izzat karne ka bhaav dikha rahi hai, varna ye to aapke sir par savar ho jayegi. honge aap apne ghar ke mahan, ye ek baar agar munh lag gai to kisi ki mahanta nahin rakhti. aapko pata nahin hai, ye kitni ujaDD aur ganvar hai, na kisi ko mahan manti hai, na mehman. . . iske liye. . .
chaay pi ja chuki thi. mujhe pata hai, pushpa ne ek baar bhi inse kisi cheez ko lene ka agrah nahin kiya hoga, jo khu hi le liya so le liya. aap sankoch karen to apaki bala se. ajib khudgharz aurat se mera pala paDa hai. main agar zara haath kheench loon to na ghar mein koi vyavastha rahe, na silsila. ghar ke ziyadatar kaam apne zimme lekar mainne iski adten kharab kar di hain. agar shuru se hi sakhti rakhta to ekdam sidhi rahti.
unhonne kandhon ka chadar utarkar kursi ki peeth par rakhte hue ghusalkhane ki or jane ke bhaav se puchha, ‘‘yahan aas paas telephone to hoga? mujhe apne aane ki khabar karni thee— do ek logon ko. tumhare sivay kisi ko bhi nahin bataya hai. aji, log chain lene dete?’’
‘‘ji, yahan to nahin hai, bahar niklenge to bekrivale ke yahan se kar lenge. ’’ main apradhi ki tarah bola. unhonne sirf mujhe hi suchana layaq samjha, is bojh se jhukkar mainne socha, aap chahen to shaam tak yahin telephone lagva sakte hain. aapke parichai prabhav kya kam hain? aap kya nahin kar sakte? ek baar ichha prakat kar den, general manager khu apni dekhrekh mein phone lagva de. aur ye sab sochkar unki murti mere dimagh mein aur bhi baDi ho gai, isi tulna mein pushpa mujhe aur bhi phoohD aur kamini lagi. saDi lapetne ka ye bhi koi Dhang hai, lagti hai jaise sahab logon ki aaya ho. unke aishvaryashali vatavarn ke beech jab mainne use rakhkar dekha to laga, jaise wo chanda mangne aane vali sharnarthi aurton jaisi lagti hai. lekin ye mujhe shuru se hi lag raha tha ki wo jaan bujhkar unhen mahan adami manne se inkaar karti rahi hai. uske yahan to sakshat bhagvan bhi aa jaye to sale ko kutta banakar radd kar degi. are, tum meri til bhar izzat nahin kartin, na sahi, lekin jitni izzat main dusre ki karta hoon, utni to kar hi sakti ho. aisa baDa adami mere yahan mehman hai, yahi sochkar thoDi bahut izzat mujhe bhi bakhsh detin to kya tota paD jata? lekin us kooDh magj se aisi ummid hi bekar hai.
vahin khaDe khaDe hi pushpa kahin ishara na kar de, ‘‘ghusalkhana udhar hai. chale jaiye!’’ is Dar se main aage aage ho liya, ‘‘idhar aiye, aapko ghusalkhana dikha doon!’’ hunh, jaise tajamhal ho. lekin main unhen aage aage vahan tak chhoD aaya. ‘‘main abhi garm pani lata hoon. ’’ main rasoi ki taraf lapka. ketli mein pani khaul raha tha. use balti mein uDelkar laya to bhitar ve thanDe pani se hi haath dho rahe the. main ghabra utha, ‘‘are are, ye kya kar rahe hain? ye garm pani hai. ’’
jab unhonne darvaza band kar liya to main pushpa ke paas aaya, ‘‘vahan se bartan to utha lo. . . ’’ agli baat daba gaya, bekar is samay chakh chakh hogi.
‘‘abhi utha leti hoon. aap shaam ke liye sabzi lakar rakh dena. ’’
lijiye sahab, ye sali ne alag samasya lakar khaDi kar di. chutki bajate vikattam samasyayen khaDi kar dena, uske liye kitna asan hai. hamesha aaDe vaqt mein use aise kaam yaad aate hain. wo to aata pisva liya tha varna uski bhi farmaish isi samay ho sakti thi. jhallahat pikar kaha, ‘‘tum mangva lena kisi se. mujhe to inke saath jana hoga. nahin jaunga to bura lagega. ’’
usne bura sa munh banaya, yani main unhen zara si der baithakar sabzi la sakta hoon. inhin se sabzi lane ko na kah doon? unki upasthiti mein hi ye mujhse koi unchi nichi baat kah sakti hai, isliye jaldi se jaldi nikal jane mein bhalai hai.
kal hi soot par press kara liya tha, lekin pahankar laga, use dhula lena chahiye tha. samne shishe mein butler khaDa tha. dhula lene se hi kya hota hai, kapDa to vahi kabaDiya hai. na jaun saath? naukar jaisa lagunga. apne paas to kahin aane jane layaq kuch bhi nahin hai. coat ki banhon se qamiz ke gande kaph collar Dhankte hue bhi khayal raha ki ye koi Dhake hue thoDe hi rahenge. jab bhi kisi kaam ke liye haath baDhaunga to dikhenge. jeb mein kul barah rupae the, khushamad se kaha, ‘‘yaad das paanch rupae de do na, pata nahin kahan zarurat paD jaye. ’’
‘‘abhi to mahina paDa hai. mere paas kul bees. . . ’’
‘‘to vahi de do, kahin se manga lenge. ’’ mainne uski baat ke beech mein hi jaldi machane ke Dhang par kaha. kambakht, isi samay sare mahine ka hisab samjhayegi. abhi ve nikal ayenge to sab dhara rah jayega.
ve taje hokar nikle the. hum log is tarah ‘sambhal’ gaye, jaise nepathy se nikalkar stage par aa gaye hon. kandhe mein mail aur janane balon ka guchchha uljha tha, unhen haath se saaf karke kamiz se ponchhte hue, tel ki shishi liye bahar baithak mein nikal aaya. ‘‘gole ka tel hai. ’’ mainne is tarah botal pesh ki ki agar chahen to ve na len. javakusum ki shishi kitne ki aati hogi?
‘‘theek hai. ’’ laparvahi se ve bole. chundha sasta shisha hai, main kahte kahte ruk gaya. use apne coat par hi ragaDkar samne kar diya. unhonne itminan se kangha tel kiya.
‘‘chaliye, aapko bhi ghuma layen. . . ’’ ve hansakar pushpa se bole.
‘‘ye ab kahan. . . aapko to pata nahin, kahan kahan jana ho. ’’ mainne is tarah prativad kiya, jaise wo sachmuch hi chalne ko kah sakti hai. bhitar gahri saans li, kaash! meri bivi aisi hoti ki aap jaise adami ke saath chalti, paDhi likhi aur saliqe vali. chhuri kanta pakaDna tak to aata nahin hai. main bhi kahan janta hoon? lekin ise to Dhang ke baal banane bhi to nahin aate.
‘‘ate vaqt kuch kele santre lete aiye. . . ’’ lijiye sahab, nikalte nikalte ek farmaish daagh hi di. kaddu kashiphal ke liye nahin kaha? man hua vapas jakar donon hathon se gala daba doon. . . are, jisse sabzi mangaogi, usse ye sab nahin manga sakti? kyon meri fajih karane par tuli ho? do chaar aane ziyada hi to de ayega na vah?
main anasuni kiye ek taraf hatkar khaDa raha. ye beख़bar apne masuDe dikhati unse jaldi aane ko kahti rahi. iske chehre ka bhaav kitna sakht hai. wo kahin aur khakar na aane ka anurodh kar rahi thi.
saDak par main unki bauni chhaya ki tarah chal raha tha. kaash, saDak par nikalte hi gandi naliyan, khali teen, kaghaz ke thaile na paDe hote, aas paas ke bachche kuch tamizdar Dhang se kapDe pahne hote aur aurten petikot blouse par kuch aur bhi Daal letin, kutte jhabre aur khubsurat hote. bahar nikalkar mainne kuch is tarah dekha tha, jaise unki jahazgaDi ko talash kar raha hoon. is gaDi ka ahsas mere dimagh par lagatar khuda hua tha.
bakery vale ki dukan par mainne bharsak laparvahi aur atmavishvas se kaha tha, ‘‘bhai, ekaadh phone karenge. . . ’’ kabhi das paise ka biscuit bhi na lene aane vale is ‘adami’ ko bakery vale ne bhi ashchary se dekha tha. wo phone ki taraf ishara karke usi sanjidgi se samne khaDe kisi naukaranuma ke liye pahiya ghuma ghumakar slaisen tarashta raha.
ghaDi par lahrati kurte ki bhavy astin vale haath se telephone uthakar ve dial ghumane lage. sale, tujhe kya pata ki mere saath kaun hai? jin toffe aur biskuton ko sare din khaDe khaDe becha karta hai, unki chaar chhah to milen hongi inki. mil hoti hain ya factory? tujh jaise naukar inke office mein ghusne ki himmat nahin kar pate honge. ho sakta hai kisi minister commissioner se hi bol rahe hon, ‘‘nahin ji, mujhe yahin thaharna tha. apna hi ghar hai. ’’ pata nahin udhar kaun hai? ek achchhi si naukari mujhe nahin dila sakte? do teen phone kiye. mainne jaldi se rupaya nikalkar dukan vale ki taraf baDha diya. ‘‘are, are re. . . ’’ ve kahte hi rah gaye. unki jeket ke button hi nahin khule the. itne baDe adami, jinke ek ishare par baDi se baDi savari samne aakar khaDi ho jati ho, unke samne skutar ya bus ki baat baDi tuchchi lagegi. taxi hi theek rahegi. pata nahin, kahan kahan jayen, kitna meter bane. . . dekhi jayegi. subah ka khana hi khate to das pandrah rupae thanDe ho jate. yahi samjhunga ki vahi rupae yahan kharch kar raha hoon. ho sakta hai mujhe dene hi na den. . . aur dena paD bhi gaya to ye investament hai. . . mainne taxi ko sanket kiya. . .
unke baar baar agrah ke bavjud main unki baghal mein na baithkar Draivar ke saath hi baith gaya. dilli ki taxiyon ki haalat bhitar se itni kharab hai, ye mainne pahli hi baar dekha. phati gandi gaddiyan, khatar khatar, choon choon ki avazen. . . pahiye chahe jis speed se chalen, lekin meter par paise sputnik ki speed se aate hain. har baar paise badalne par mere dil mein khat hota tha.
baithe baithe byarth hi pushpa par ghussa aane laga, sali kamini! mainne yoon hi socha. samajh mein nahin aa raha tha ki unse kya baat karun? kuch nahin, kuch nahin, in bivi bachchon aur grihasthi ne kisi bhi layaq nahin chhoDa. laga, jo kuch bhi bolunga, wo nihayat hi chhichhla aur byarth hoga. sochenge, raha ye takiyal clerk hi. pata nahin kaise, us kshan main pichhe vale mehman ko ekdam bhool gaya. ganvar, jahil, ghunni. . . main agar juti barabar nahin hoon to koi baat nahin, lekin ye to kaminepan ki had hai ki kisi ko ek din ko mehman mankar uski khatir na kar sake! maan lo, ek din ko koi baDa adami apne yahan aa hi gaya tab to. . .
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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