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रानी सारंधा

rani sarandha

प्रेमचंद

प्रेमचंद

रानी सारंधा

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    अँधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी, जैसे घुमर-घुमर करती हुई चक्कियाँ। नदी के दाएँ तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है, जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है। टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गाँव है। यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरकार के कीर्ति-चिह्न हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो गई, बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ, मुसलमान आए और बुंदेला राजा उठे और गिरे, कोई गाँव कोई इलाक़ा ऐसा था जो इन दुर्व्यवस्थाओं से पीड़ित हो, मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका लहराई और इस गाँव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण हुआ। यह उसका सौभाग्य था।

    अनिरुद्ध सिंह वीर राजपूत था। वह ज़माना ही ऐसा था जब मनुष्य-मात्र को अपने बाहु-बल और पराक्रम ही का भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनाएँ पैर जमाए खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे। अनिरुद्ध सिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा मगर सजीव दल था। इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था। उसे कभी चैन से बैठना नसीब होता था। तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतला देवी से हुआ, मगर अनिरुद्ध मौज के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की ख़ैर मनाने में। वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों पर गिरकर रोई थी कि तुम मेरी आँखों से दूर रहो; मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ वनवास स्वीकार है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता। उसने प्यार से कहा जिद से कहा, विनय की, मगर अनिरुद्ध बुंदेला था। शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त कर सकी।

    अँधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी; मगर तारे आकाश में जागते थे। शीतला देवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी ननद सारंधा फ़र्श पर बैठी मधुर स्वर से गाती थी।

    ‘बिनु रघुवीर कटत नहिं रैन।’

    शीतला ने कहा—जी जलाओ। क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती?

    सारंधा—तुम्हें लोरी सुना रही हूँ।

    शीतला-मेरी आँखों से तो नींद लोप हो गई।

    सारंधा—किसी को ढूँढ़ने गई होंगी।

    इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। वह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे, और बदन पर कोई हथियार था। शीतला चारपाई से उतर कर ज़मीन पर बैठ गई।

    सारंधा ने पूछा—भैया यह कपड़े भीगे क्यों हैं?

    अनिरुद्ध—नदी तैर कर आया हूँ।

    सारंधा—हथियार क्या हुआ?

    अनिरुद्ध—छिन गए।

    सारंधा—और साथ के आदमी?

    अनिरुद्ध—सबने वीर गति पाई।

    शीतला ने दबी ज़बान से कहा—ईश्वर ने ही कुशल किया...मगर सारंधा के तेवरों पर बल पड़ गए और मुखमंडल गर्व से सतेज हो गया। बोली—भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी, ऐसा कभी हुआ था।

    सारंधा भाई पर जान देती थी। उसके मुँह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो उठा। वह वीराग्नि, जिसे क्षण-भर के लिए अनुराग ने दबा दिया था, फिर ज्वलंत हो उठी। वह उलटे पाँव लौटा और यह कहकर बाहर चला गया कि सारंधा! तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया। यह बात मुझे कभी भूलेगी।

    अँधेरी रात थी। आकाश-मंडल में तारों का प्रकाश बहुत धुँधला था। अनिरुद्ध क़िले से बाहर निकला।

    पलभर में नदी के उस पार जा पहुँचा और फिर अंधकार में लुप्त हो गया। शीतला उसके पीछे-पीछे क़िले की दीवारों तक आई, मगर जब अनिरुद्ध छलाँग मारकर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी चट्टान पर बैठ कर रोने लगी।

    इतने में सारंधा भी वहीं पहुँची। शीतला ने नागिन की तरह बल खाकर कहा—मर्यादा इतनी प्यारी है?

    सारंधा-हाँ।

    शीतला—अपना पति होता, तो हृदय में छिपा लेती।

    सारंधा—न, छाती में छुरा चुभा देती।

    शीतला ने ऐंठकर कहा—चोली में छिपाती फिरोगी मेरी बात गिरह में बाँध लो।

    सारंधा—जिस दिन ऐसा होगा, मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊँगी।

    इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध मदरौना को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारंधा का विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय से हो गया। मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में काँटे की तरह खटकती रहीं।

    राजा चम्पतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। सारी बुंदेला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुग़ल बादशाहों को कर देना बंद कर दिया और वे अपने बाहुबल से राज्य-विस्तार करने लगे। मुसलमानों की सेनाएँ बार-बार उन पर हमले करती थीं, पर हारकर लौट जाती थीं।

    यही समय था, कि जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चम्पतराय से विवाह कर दिया। सारंधा ने मुँहमाँगी मुराद पाई। उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुंदेला-जाति का कुल-तिलक हो, पूरी हुई। यद्यपि राजा के महल में पाँच रानियाँ थीं, मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी, जो हृदय में मेरी पूजाकरती है, सारंधा है।

    परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ हुई कि चम्पतराय को मुग़ल बादशाह का आश्रित होना पड़ा। वह अपना राज्य अपने भाई पहाड़ सिंह को सौंपकर आप देहली को चला गया। यह शाहजहाँ के शासनकाल का अंतिम भाग था। शाहज़ादा दाराशिकोह राजकीय कार्यों को सँभालते थे। युवराज की आँखों में शील था और चित्त में उदारता। उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं इसलिए उनका बहुत आदर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उसके भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आए-दिन के लड़ाई-झगड़ों से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ। रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी। राजा विलास में डूबे रानियाँ जड़ाऊ गहनों पर रीझीं। मगर सारंधा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती। वह इन रंगरलियों से दूर-दूर रहती ये नृत्य और गान की सभाएँ उसे सूनी प्रतीत होतीं।

    एक दिन चम्पतराय ने सारंधा से कहा—सारन, तुम उदास क्यों रहती हो? मैं तुम्हें कभी हँसते नहीं देखता। क्या मुझसे नाराज़ हो?

    सारंधा की आँखों में जल भर आया। बोली—नाथ! आप ऐसा विचार क्यों करते हैं? जहाँ आप प्रसन्न हैं, वहाँ मैं भी ख़ुश हूँ।

    चम्पतराय—मैं जब से यहाँ आया हूँ मैंने तुम्हारे मुख-क़मल पर कभी मनोहारिणी मुस्कुराहट नहीं देखी।

    तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र नहीं सजाए। कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी?

    सारंधा—प्राणनाथ! आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है। यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त उदास रहता है। मैं बहुत चाहती हूँ कि ख़ुश रहूँ मगर बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है।

    चम्पतराय स्वयं आनंद में मग्न थे। इसलिए उनके विचार में सारंधा को असंतुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। वह भौंहें सिकोड़कर बोले—मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता। ओरछे में कौन-सा सुख था, जो यहाँ नहीं है?

    सारंधा का चेहरा लाल हो गया। बोली—मैं कुछ कहूँ, आप नाराज़ तो होंगे?

    चम्पतराय—नहीं शौक़ से कहो।

    सारंधा—ओरछा में मैं एक राजा की रानी थी, यहाँ मैं एक जागीरदार की चेरी हूँ। ओरछा में मैं वह थी, जो अवध में कौशल्या थीं यहाँ मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूँ। जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं, वह कल आपके नाम से काँपता था। रानी से चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है। आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियाँ बड़े मँहगे दामों में मोल ली हैं।

    चम्पतराय के नेत्रों से एक पर्दा-सा हट गया। वे अब तक सारंधा की आत्मिक उच्चता को जानते थे। जैसे बे-माँ-बाप का बालक माँ की चर्चा सुनकर रोने लगता है, उसी तरह ओरछा की याद से चम्पतराय की आँखें सजल हो गई। उन्होंने आदर-युक्त अनुराग के साथ सारंधा को हृदय से लगा लिया।

    आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की चिंता हुई, जहाँ से धन और कीर्ति की अभिलाषाएँ उन्हें खींच लाई थीं।

    माँ अपने खोए हुए बालक को पाकर निहाल हो जाती है। चम्पतराय के आने से बुंदेलखंड निहाल हो गया। ओरछा के भाग जागे। नौबतें बजने लगीं और फिर सारंधा के कमल-नेत्रों जातीय अभिमान का आभास दिखाई देने लगा!

    यहाँ रहते-रहते महीनों बीत गए। इस बीच में शाहजहाँ बीमार पड़ा। पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी।

    यह ख़बर सुनते ही ज्वाला प्रचंड हुई। संग्राम की तैयारियाँ होने लगीं। शाहज़ादे मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले। वर्षा के दिन थे। उर्वरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भरकर अपने सौंदर्य को दिखाती थी।

    मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए क़दम बढ़ाते चले रहे थे। यहाँ तक की धौलपुर के निकट चंबल के तट पर पहुँचे परंतु यहाँ उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया।

    शाहज़ादे अब बड़ी चिंता में पड़े। सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी किसी योगी के त्याग के सदृश।

    विवश होकर चम्पतराय के पास संदेश भेजा कि ख़ुदा के लिए आकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए।

    राजा ने भवन में जाकर सारंधा से पूछा—इसका क्या उत्तर दूँ?

    सारंधा—आपको मदद करनी होगी।

    चम्पतराय—उनकी मदद करना दारा शिकोह से वैर लेना है।

    सारंधा—यह सत्य है, परंतु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए।

    चम्पतराय—प्रिये तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया।

    सारंधा—प्राणनाथ! मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह मार्ग कठिन है, और अब हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा परंतु हम अपना रक्त बहाएँगे और चंबल की लहरों को लाल कर देंगे। विश्वास रखिए कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी वह हमारे वीरों की कीर्तिगान करती रहेगी। जब तक बुंदेलों का एक भी नामलेवा रहेगा, ये रक्त-बिंदु उसके माथे पर केशर का तिलक बन कर चमकेगा।

    वायुमंडल में मेघराज की सेनाएँ उमड़ रही थीं। ओरछे के क़िले से बुंदेलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चंमल की तरफ़ चली। प्रत्येक सिपाही वीर-रस से झूम रहा था। सारंधा ने दोनों राजकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा देकर कहा—बुंदेलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है।

    आज उसका एक-एक अंग मुस्कुरा रहा है और हृदय हुलसित है। बुंदेलों की यह सेना देख कर शाहज़ादे फूले समाए। राजा वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि से परिचित थे। उन्होंने बुंदेलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फ़ौज को सजाकर नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर चले। दारा शिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है। उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिए। घाट में बैठे हुए बुंदेले उसी ताक में थे। बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरंत ही नदी में घोड़े डाल दिए। चम्पतराय ने शाहज़ादा दारा शिकोह को भुलावा देकर अपनी फ़ौज घुमा दी और वह बुंदेलों के पीछे चलता हुआ उसे पार उतार आया। इस कठिन चाल में सात घंटो का विलंब हुआ परंतु, जाकर देखा तो सात सौ बुंदेलों की लाशें तड़प रही थीं।

    राजा को देखते ही बुंदेलों की हिम्मत बंध गई। शाहज़ादों की सेना ने भी ‘अल्ला हो-अक़बर’ की ध्वनि के साथ धावा किया। बादशाही सेना में हलचल पड़ गई। उनकी पंक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हाथों-हाथ लड़ाई होने लगी यहाँ तक कि शाम हो गई। रणभूमि रुधिर से लाल हो गई और आकाश में अँधेरा हो गया। घमासान की मार हो रही थी। बादशाही सेना शाहज़ादों को दबाए आती थी। अकस्मात् पश्चिम से फिर बुंदेलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही सेना की पुश्त पर टकराई कि उसके क़दम उखड़ गए।

    जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया। लोगों को कुतूहल था कि यह दैवी सहायता कहाँ से आई। सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह फ़तह के फ़रिश्ते हैं शाहज़ादों की मदद के लिए आए हैं परंतु जब राजा चम्पतराय निकट गए तो सारंधा ने घोड़े से उतरकर उनके पैरों पर सिर झुका दिया। राजा को असीम आनंद हुआ। यह सारंधा थी। समर-भूमि का दृश्य इस समय अत्यंत दुःखमय था।

    थोड़ी देर पहले जहाँ सजे हुए वीरों के दल थे, वहाँ अब बे-जान लाशें तड़प रही थीं। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए शुरू से ही अपने भाइयों की हत्या की है।

    अब विजयी सेना लूट पर टूटी। पहले मर्द मर्दों से लड़ते थे, अब वे मुर्दों से लड़ रहे थे। वह वीरता और पराक्रम का चित्र था, यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानिप्रद तसवीर थी। उस समय मनुष्य पशु बना हुआ था, अब वह पशु से भी बढ़ गया था।

    इस नोच-खसोट में लोगों को बादशाही सेना के सेनापति वलीबहादुर ख़ाँ का मूर्छित शरीर दिखाई दिया। उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी दुम से मक्खियाँ उड़ा रहा था। राजा को घोड़ों का शौक़ था। देखते ही वह उस पर मोहित हो गया। यह ईरानी जाति का घोड़ा अति सुंदर था। एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ, सिंह की-सी छाती, चीते की-सी कमर। उसका यह प्रेम और स्वामि-भक्ति देखकर लोगों को बड़ा कुतूहल हुआ।

    राजा ने हुक़्म दिया—ख़बरदार! इस प्रेमी पर कोई हथियार चलाए, इसे जीता पकड़ लो, यह मेरे अस्तबल की शोभा बढ़ाएगा। जो इसे पकड़ कर मेरे पास लाएगा, उसे धन से निहाल कर दूँगा।

    योद्धागण चारों ओर से लपके; परंतु किसी को साहस होता था कि उसके निकट जा सके। कोई पुचकारता, था कोई फँदे में फँसाने की फ़िक्र में था पर कोई उपाय सफल होता था। वहाँ सिपाहियों का मेला-सा लगा हुआ था।

    तब सारंधा अपने खेमे से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गई। उसकी आँखों में प्रेम का प्रकाश था, छल का नहीं। घोड़े ने सिर झुका दिया। रानी ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा और वह उसकी पीठ सहलाने लगी। घोड़े ने उसके आँचल में मुँह छिपा लिया। रानी उसकी रास पकड़कर खेमे की ओर चली। घोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला, मानों सदैव से उसका सेवक है।

    पर बहुत अच्छा होता कि घोड़े ने सारंधा से भी निष्ठुरता की होती। यह सुंदर घोड़ा आगे चलकर इस राज-परिवार के निमित्त सोने का मृग सिद्ध हुआ।

    संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदान में उसी सेनापति को विजय-लाभ होता है, जो अवसर को पहचानता है। ऐसा सेनापति अवसर देखकर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है, उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे हट जाता है। वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है।

    पर इस मैदान में कभी-कभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं; जो अवसर पर क़दम बढ़ाना जानते हैं, लेकिन संकट में पीछे हटाना नहीं जानते। ऐसा रणधीर पुरुष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं। वे अपनी सेना का नाम मिटा देगा, किंतु जहाँ एक बार पहुँच गया है, वहाँ से क़दम पीछे हटाएगा। उन में कोई विरला ही संसार-क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है, तथापि प्रायः उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवपूर्ण होती है। अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देने वाला, मुँह मोड़ने वाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है। इसे कार्यछेत्र में चाहे सफलता हो, किंतु जब किसी भाषण या सभा में उसका नाम ज़बान पर जाता है, तो श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारंधा इन्हीं ‘आन पर जान देने वालों’ में थी।

    शाहज़ादा मुहीउद्दीन चंबल के किनारे से आगरे की ओर चला, तो सौभाग्य उसके सिर पर चँवर हिलाता था। जब वह आगरे पहुँचा, तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया।

    औरंगज़ेब गुणज्ञ था। उसने बादशाही सरदारों के अपराध क्षमा कर दिए, उनके राज्य-पद लौटा दिए, और राजा चम्पतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में ‘बारह हज़ारी मनसब’ प्रदान किया। ओरक्षा से बनारस और बनारस से यमुना तक उसकी जागीर नियत की गई। बुंदेला राजा फिर राज-सेवक बना, वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानी सारंधा और पराधीनता के शोक से घुलने लगी।

    वलीबहादुरख़ाँ बड़ा वाक्-चतुर व्यक्ति था। उसकी मृदुलता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया। उस पर राजसभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी।

    ख़ाँ साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था। एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैर को गया था। वह ख़ाँ साहब के महल की तरफ़ जा निकला। वली-बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था। उसने तुरंत अपने सेवकों को इशारा किया। राजकुमार अकेला क्या करता। घोड़ा छिनवाकर वह पैदल घर आया और उसने सारंधा से सब समाचार बयान किया। रानी का चेहरा तमतमा गया, बोली—मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया। शोक इसका है कि तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है! घोड़ा मिलता सही; किंतु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुंदेला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है।

    यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी; स्वयं अस्त्र धारण किए और योद्धाओं के साथ वली बहादुर ख़ाँ के निवास-स्थान पर जा पहुँची। ख़ाँ साहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गए थे सारंधा दरबार की तरफ़ चली और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के समान बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची। यह कैफ़ियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी-वर्ग इधर-उधर से जाकर जमा हो गए। आलमगीर भी सहन में निकल आए। लोग अपनी-अपनी तलवारें सँभालने लगे और चारों तरफ़ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद गई।

    सारंधा ने उच्च स्वर से कहा—ख़ाँ साहब। बड़ी लज्जा की बात है आपने वही वीरता जो चंबल के तट पर दिखानी चाहिए थी, आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?

    वली बहादुरख़ाँ की आँखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज़ से बोले—किसी ग़ैर को क्या मजाल है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाए?

    रानी—वह आपकी चीज़ नहीं, मेरी है। मैंने उसे रणभूमि में पाया है और उस पर मेरा अधिकार है। क्या रणनीति की इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते?

    ख़ाँ साहब—वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नज़र है।

    रानी—मैं अपना घोड़ा लूँगी।

    ख़ाँसाहब—मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ; परंतु घोड़ा नहीं दे सकता।

    रानी—तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा।

    बुंदेला योद्धाओं ने तलवारें सौंत लीं और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाए बादशाह आलमगीर ने बीच में आकर कहा—रानी साहबा! आप सिपाहियों को रोकें। घोड़ा आपको मिल जाएगा परंतु इसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा।

    रानी—मैं उसके लिए अपना सर्वस्व त्यागने पर तैयार हूँ।

    बादशाह—जागीर और मनसब भी?

    रानी—जागीर और मनसब कोई चीज़ नहीं।

    बादशाह—अपना राज्य भी?

    रानी—हाँ, राज्य भी।

    बादशाह—एक घोड़े के लिए?

    रानी—नहीं, उस पदार्थ के लिए जो संसार में सबसे अधिक मूल्यवान है।

    बादशाह—वह क्या है?

    रानी—अपनी आन।

    इस भाँति रानी ने अपने घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर उच्च राज्यपद और राज-सम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं भविष्य के लिए काँटे बोए इस घड़ी से अंत दशा तक चम्पतराय को शांति मिली।

    राजा चम्पतराय ने फिर ओरछे के क़िले में पदार्पण किया। उन्हें मनसब और जागीर के हाथ से निकल जाने का अत्यंत शोक हुआ किंतु उन्होंने अपने मुँह से शिकायत का एक शब्द भी नहीं निकाला वे सारंधा के स्वभाव को भली-भाँति जानते थे। शिकायत इस समय उसके आत्म-गौरव पर कुठार का काम करती। कुछ दिन यहाँ शांतिपूर्वक व्यतीत हुए लेकिन बादशाह सारंधा की कठोर बात भूला था। वह क्षमा करना जानता ही था। ज्यों ही भाइयों की ओर से निश्चिंत हुआ, उसने एक बड़ी सेना चम्पतराय का गर्व चूर्ण करने के लिए भेजी और बाईस अनुभवशील सरदार इस मुहीम पर नियुक्त किए। शुभकरण बुंदेला बादशाह का सूबेदार था। वह चम्पतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था। उसने चम्पतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया। और भी कितने ही बुंदेला सरदार राजा से विमुख होकर बादशाही सूबेदार से मिले। एक घोर संग्राम हुआ। भाइयों की तलवारें रक्त से लाल हुईं। यद्यपि इस समर में राजा को विजय प्राप्त हुई, लेकिन उसकी शक्ति सदा के लिए क्षीण हो गई। निकटवर्ती बुंदेला राजा, जो चम्पतराय के बाहुबल थे बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे। साथियों में कुछ तो काम आए कुछ दगा कर गए। यहाँ तक कि निज संबंधियों ने भी आँखें चुरा लीं परंतु इन कठिनाइयों में भी चम्पतराय ने हिम्मत नहीं हारी धीरज को छोड़ा। उन्होंने ओरछा छोड़ दिया, और वह तीन वर्ष तक बुंदेलखंड के सघन पर्वतों पर छिपे फिरते रहे। बादशाही सेनाएँ शिकारी जानवरों की भाँति सारे देश में मँडरा रही थीं। आए-दिन राजा का किसी-न-किसी से सामना हो जाता था। सारंधा सदैव उनके साथ रहती, और उनका साहस बढ़ाया करती। बड़ी-बड़ी आपत्तियों में भी, जब कि धैर्य लुप्त हो जाता—और आशा साथ छोड़ देती—आत्मरक्षा का धर्म उसे सँभाले रहता था। तीन साल के बाद अंत में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाए और किसी से होगा। उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो। राजा ने समझा, संकट से निवृत्ति हुई; पर वह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई।

    तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रखा है। जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं, उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है। किले में 20 हज़ार आदमी घिरे हुए हैं, लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं, मर्दों की संख्या, दिनों दिन न्यून होती जाती है। आने-जाने के मार्ग चारों तरफ़ से बंद हैं हवा का भी गुज़र नहीं। रसद का सामान बहुत कम रह गया है। स्त्रियाँ पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं। लोग बहुत हताश हो रहे हैं। औरतें सूर्यनारायण की ओर हाथ उठा-उठाकर शत्रु को कोसती हैं। बालकवृंद मारे क्रोध के दीवारों की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते हैं, जो मुश्किल से दीवार के उस पार जा पाते हैं।

    राजा चम्पतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं। उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी। उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढारस होता था, लेकिन उनकों बीमारी से सारे क़िले में नैराश्य छाया हुआ है।

    राजा ने सारंधा से कहा—आज शत्रु ज़रूर क़िले में घुस आएँगे।

    सारंधा—ईश्वर करे कि इन आँखों से वह दिन देखना पड़े।

    राजा—मुझे बड़ी चिंता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है। गेहूँ के साथ यह घुन भी पिस जाएँगे।

    सारंधा—हम लोग यहाँ से निकल जाएँ तो कैसा रहेगा?

    राजा—इन अनाथों को छोड़कर?

    सारंधा—इस समय इन्हें छोड़ देने में ही कुशल है। हम होंगे, तो शत्रु इन पर कुछ दया ही करेंगे।

    राजा—नहीं, यह लोग मुझसे छोड़े जाएँगे। मर्दों ने अपनी जान हमारी सेवा में अर्पण कर दी है, उनकी स्त्रियों और बच्चों को मैं कदापि नहीं छोड़ सकता।

    सारंधा—लेकिन यहाँ रहकर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते।

    राजा—उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं? मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूँगा। उनके लिए बादशाही सेना की ख़ुशामद करूँगा कारावास की कठिनाइयाँ सहूँगा किंतु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता।

    सारंधा ने लज्जित होकर सिर झुका दिया और सोचने लगी निस्संदेह प्रिय साथियों को आग की आँच में छोड़कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है। मैं ऐसी स्वार्थांध क्यों हो गई हूँ?

    लेकिन एकाएक विचार उत्पन्न हुआ। बोली—यदि आपको विश्वास हो जाए कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय किया जाएगा, तब तो आपको चलने में कोई बाधा होगी?

    राजा—[सोचकर कौन] विश्वास दिलाएगा?

    सारंधा—बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञा-पत्र।

    राजा—हाँ, तब मैं सानंद चलूँगा।

    सारंधा विचार-सागर में डूबी। बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह-प्रतिज्ञा कराऊँ? कौन यह प्रस्ताव लेकर वहाँ जाएगा और निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे उन्हें तो अपनी विजय की पूरी आशा है। मेरे यहाँ ऐसा नीति-कुशल वाक्पटु चतुर कौन है जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे। छत्रसाल चाहे तो कर सकता है। उसमें ये सब गुण मौजूद हैं।

    इस तरह मन में निश्चय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया। यह उसके चारों पुत्रों में बुद्धिमान और साहसी था। रानी उससे सबसे अधिक प्यार करती थीं। जब छत्रसाल ने आकर रानी को प्रणाम किया तो उनके कमल-नेत्र सजल हो गए और हृदय से दीर्घ निःश्वास निकल आया।

    छत्रसाल—माता, मेरे लिए क्या आज्ञा है?

    रानी— लड़ाई का क्या ढंग है?

    छत्रसाल—हमारे पचास योद्धा अब तक काम चुके हैं।

    रानी—बुंदेलों की लाज अब ईश्वर के हाथ है।

    छत्रसाल—हम आज रात को छापा मारेंगे।

    रानी ने संक्षेप में अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा—यह काम किसे सौंपा जाए?

    छत्रसाल—मुझको।

    “तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?”

    “हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।”

    “अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे।”

    छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठाकर कहा—दयानिधि, मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुंदेलों की आन के आगे भेंट कर दिया। अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है। मैंने बड़ी मूल्यवान वस्तु अर्पित की है इसे स्वीकार करो।

    दूसरे दिन प्रातःकाल सारंधा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिए मंदिर को चली। उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और आँखों तले अँधेरा छाया जाता था। वह मंदिर के द्वार पर पहुँची थी कि उसके थाल में बाहर से आकर एक तीर गिरा। तीर की नोक पर एक काग़ज़ का पुरज़ा लिपटा हुआ था। सारंधा ने थाल मंदिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्ज़े को खोलकर देखा, तो आनंद से चेहरा खिल; गया लेकिन यह आनंद क्षण-भर का मेहमान था। हाय! इस पुर्ज़ें के लिए मैंने अपना प्रिय पुत्र हाथ से खो दिया है। काग़ज़ के टुकड़े को इतने महँगे दामों किसने लिया होगा।

    मंदिर से लौटकर सारंधा राजा चम्पतराय के पास गई और बोली—प्राणनाथ! आपने जो वचन दिया था, उसे पूरा कीजिए।

    राजा ने चौंककर पूछा—तुमने अपना वादा पूरा कर लिया?

    रानी ने वह प्रतिज्ञा-पत्र राजा को दे दिया। चम्पतराय ने उसे गौरव से देखा, फिर बोले—अब मैं चलूँगा और ईश्वर ने चाहा तो एक बार फिर शत्रुओं की ख़बर लूँगा, लेकिन सारन सच बताओं इस पत्र के लिए क्या देना पड़ा?

    रानी ने कुंठित स्वर से कह—बहुत कुछ।

    राजा—सुनूँ

    रानी—एक जवान पुत्र।

    राजा को बाण-सा लगा। पूछा—कौन अंगदराय?

    रानी—नहीं।

    राजा—रतनसंहि?

    रानी—नहीं।

    राजा—छत्रसाल?

    रानी—हाँ।

    जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परों को फड़फड़ाता है और तब बे दम होकर गिर पड़ता है, उसी भाँति चम्पतराय पलंग से उछले और फिर अचेत होकर गिर पड़े। छत्रसाल उनका परमप्रिय पुत्र था। उनके भविष्य की सारी कामनाएँ उसी पर अवलंबित थीं।

    जब चेत हुआ, तब बोले—सारन, तुमने बुरा किया। अगर छत्रसाल मारा गया, तो बुंदेला वंश का नाश हो जाएगा।

    अँधेरी रात थी। रानी सारंधा घोड़े पर सवार होकर चम्पतराय को पालकी में बैठाकर क़िले के गुप्त मार्ग से निकली जाती थी। आज से बहुत समय पहले एक दिन ऐसी ही अँधेरी, दुःखमय रात्रि थी, तब सारंधा ने शीतलादेवी को कुछ कठोर वचन कहे थे। शीतलादेवी ने उस समय जो भविष्यवाणी की थी, वह आज पूरी हुई। क्या सारंधा ने उसका जो उत्तर दिया था, वह भी पूरा होकर रहेगा?

    मध्याह्न था। सूर्यनारायण सिर पर आकर अग्नि की वर्षा कर रहे थे। शरीर को झुलसाने वाली प्रचंड, प्रखर वायु वन और पर्वत में आग लगाती फिरती थी। ऐसा प्रतीत होता था मानों अग्निदेव की समस्त सेना गुरजती हुई चली रही है। गगन मंडल इस भय से काँप रहा था। रानी सारंधा घोड़े पर सवार चम्पतराय को लिए पश्चिम की तरफ़ चली जाती थी। ओरछा दस कोस पीछे छूट चुका था और प्रतिक्षण यह अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम भय के क्षेत्र से बाहर निकल आए। राजा पालकी में अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीने में शराबोर थे। पालकी के पीछे पाँच सवार घोड़ा बढ़ाए चले आते थे। प्यास के मारे सबका बुरा हाल था। तालू सूखा जाता था। किसी वृक्ष की छाँह और कुएँ की तलाश में आँखें चारों ओर दौड़ रही थीं।

    अचानक सारंधा ने पीछे की तरफ़ फिर कर देखा, तो उसे सवारों का एक दल आता हुआ दिखाई दिया। उसका माथा ठनका, कि अब कुशल नहीं है। यह लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं। फिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार अपने आदमियों को लिए हमारी सहायता को रहे हैं। नैराश्य में भी आशा साथ नहीं छोड़ती। कई मिनट तक वह इसी आशा और भय की अवस्था में रही। यहाँ तक कि वह दल निकट गया और सिपाहियों के वस्त्र साफ़ नज़र आने लगे। रानी ने एक ठंडी साँस ली, उसका शरीर तृणवत काँपने लगा। यह बादशाही सेना के लोग थे।

    सारंधा ने कहारों से कहा—डोली रोक लो। बुंदेला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं। राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी, किंतु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है, उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उनके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी। वे पालकी का पर्दा उठाकर बाहर निकल आए। धनुष-बाण हाथ में ले लिया, किंतु वह धनुष जो उनके हाथ में इंद्र का वज्र बन जाता था, इस समय ज़रा भी झुका। सिर में चक्कर आया पैर थर्राए और वे धरती पर गिर पड़े। भावी अमंगल की सूचना मिल गई। उस पंख रहित पक्षी के सदृश, जो साँप को अपनी तरफ़ आते देखकर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है, राजा चम्पतराय फिर सँभल उठे और फिर गिर पड़े। सारंधा ने उन्हें सँभालकर बैठाया और रोकर बोलने की चेष्टा की परंतु मुँह से केवल इतना निकला—प्राणनाथ!—इसके आगे मुँह से एक शब्द भी निकल सका। आन पर मरने वाली सारंधा इस समय साधारण स्त्रियों की भाँति शक्तिहीन हो गई, लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्री-जाति की शोभा है!

    चम्पतराय बोले—सारन देखो! हमारा एक वीर ज़मीन पर गिरा। शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवन डरता रहा, उसने इस अंतिम समय में घेरा। मेरी आँखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगाएँगे और मैं जगह से हिल भी सकूँगा। हाय! मृत्यु, तू कब आएगी! यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया। तलवार की तरफ़ हाथ बढ़ाया मगर हाथों में दम था। तब सारंधा से बोले—प्रिय! तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभाई है।

    इतना सुनते ही सारंधा के मुरझाए हुए मुख पर लाली दौड़ गई, आँसू सूख गए। इस आशा में कि मैं पति के कुछ काम सकती हूँ, उसके हृदय में बल का संचार कर दिया। वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देखकर बोली—ईश्वर ने चाहा, तो मरते दम तक निभाऊँगी।

    रानी ने समझा, राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं। चम्पतराय—तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली।

    सारंधा—मरते दम तक टालूँगी।

    “यह मेरी अंतिम याचना है। इसे अस्वीकार करना।”

    सारंधा ने तलवार को निकालकर अपने वक्षस्थल पर रख लिया और कहा—यह आपकी आज्ञा नहीं है, मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो।

    चम्पतराय—तुमने मेरा मतलब नहीं समझा। क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं बेड़िय़ाँ पहने हुए दिल्ली की गलियों में निंदा का पात्र बनूँ?

    रानी ने जिज्ञासा की दृष्टि से राजा को देखा। वह उनका मतलब समझी।

    राजा—मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।

    रानी—सहर्ष आज्ञा किजिए।

    राजा—यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा करोगी?

    रानी—सिर के बल करूँगी।

    राजा—देखो, तुमने वचन दिया है। इनकार करना।

    रानी—(काँपकर) आपके कहने की देर है।

    राजा-अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो।

    रानी के हृदय पर वज्रपात-सा हो गया। बोली—जीवननाथ इसके आगे वह और कुछ बोल सकी। आँखों में नैराश्य छा गया!

    राजा—मैं बेड़ियाँ पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता।

    रानी—हाय, मुझसे यह कैसे होगा।

    पाँचवाँ और अंतिम सिपाही धरती पर गिरा। राजा ने झुँझलाकर कहा—इसी जीवन पर आन निभाने का गर्व था?

    बादशाह के सिपाही राजा की तरफ़ लपके। राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा। रानी क्षण भर अनिश्चित-रूप से खड़ी रही; लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान हो जाती है। निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारंधा ने दामिनी की भाँति लपककर तलवार राजा के हृदय में चुभा दी।

    प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गई। राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी; पर चेहरे पर शांति छाई हुई थी।

    कैसा करूण हृदय है! वह स्त्री, जो अपने पति पर प्राण देती थी, आज उसकी प्राणघातिका है! जिस हृदय से उसने यौवनसुख लूटा, जो हृदय उसकी अभिलाषाओं का केंद्र था, जो हृदय उसके अभिमान का पोषक था, उसी हृदय को सारंधा की तलवार छेद रही है। किसी स्त्री की तलवार से ऐसा काम हुआ है?

    आह! आत्माभिमान का कैसा विषादमय अंत है। उदयपुर और मारवाड़ के इतिहास में भी आत्म-गौरव की ऐसी घटनाएँ नहीं मिलतीं।

    बादशाही सिपाही सारंधा का यह साहस और धैर्य देखकर दंग रह गए। सरदार ने आगे बढ़कर कहा—रानी साहिबा! ख़ुदा गवाह है, हम सब आपके ग़ुलाम हैं। आपका जो हुक़्म हो, उसे ब-सरोचश्म बजा लाएँगे।

    सारंधा ने कहा—अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना।

    यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी, तो उसका सिर राजा चम्पतराय की छाती पर था!

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (पृष्ठ 71)
    • रचनाकार : प्रेमचंद
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संज़ लाहौर
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