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एटम बम

atom bam

अमृतलाल नागर

और अधिकअमृतलाल नागर

    चेतना लौटने लगी। साँस में गंधक की तरह तेज़ बदबूदार और दम घुटाने वाली हवा भरी हुई थी। कोबायाशी ने महसूस किया कि बम के उस प्राण-घातक धड़ाके की गूँज अभी-भी उसके दिल में धँस रही है। भय अभी-भी उस पर छाया हुआ है। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा है। उसे साँस लेने में तकलीफ़ होती है, उसकी साँस बहुत भारी और धीमी चल रही है।

    हारे हुए कोबायाशी का ज़र्ज़र मन इन दोनों अनुभवों से खीझकर कराह उठा। उसका दिल फिर ग़फ़लत में डूबने लगा। होश में आने के बाद, मृत्यु के पंजे से छूटकर निकल आने पर जो जीवनदायिनी स्फूर्ति और शांति उसे मिलनी चाहिए थी, उसके विपरीत यह अनुभव होने से ऊबकर, तन और मन की सारी कमज़ोरी के साथ वह चिढ़ उठा। जीवन कोबायाशी के शरीर में अपने अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विद्रोह करने लगा। उसमें बल का संचार हुआ।

    कोबायाशी ने आँखें खोलीं। गहरे कुहासे की तरह दम घुटाने वाला ज़हरीला धुआँ हर तरफ़ छाया हुआ था। उसके स्पर्श से कोबायाशी को अपने रोम-रोम में हज़ारों सुइयाँ चुभने का-सा अनुभव हो रहा था। रोम-रोम से चिनगियाँ छूट रही थी। उसकी आँखों में भी जलन होने लगी; पानी गया। कोबायाशी ने घबराकर आँखें मीच लीं।

    लेकिन आँखें बंद कर लेने से तो और भी ज़्यादा दम घुटता है। कोबायाशी के प्राण घबरा उठे। वे कहीं भी सुरक्षित थे। मौत अँधेरे की तरह उस पर छाने लगी। यह हीनावस्था की पराकाष्ठा थी। कोबायाशी की आत्मा रो उठी। हारकर उसने फिर अपनी आँखें खोल दीं। हठ के साथ वह उन्हें खोले ही रहा। ज़हरीला धुआँ लाल-मिर्च के पाउडर की तरह उसकी आँखों में भर रहा था। लाख तकलीफ़ हो, मगर वह दुनिया को कम-से-कम देख तो रहा है। बम गिरने के बाद भी दुनिया अभी नेस्तनाबूद नहीं हुई—आँखें खुली रहने पर यह तसल्ली तो उसे हो ही रही है। गर्दन घुमाकर उसने हिरोशिमा की धरती को देखा, जिस पर वह पड़ा हुआ था। धरती के लिए उसके मन में ममत्व जाग उठा। कमज़ोर हाथ आप-ही-आप आगे बढ़कर अपने नगर की मिट्टी को स्पर्श करने का सुख अनुभव करने लगे।

    ...मन कहीं खोया। अपने अंदर उसे किसी ज़बरदस्त कमी का एहसास हुआ। यह एहसास बढ़ता ही गया। आंतरिक हृदय से सुख का अनुभव करते ही उसकी कल्पना दुःख की ओर प्रेरित हुई। स्मृति झकोले खाने लगी।

    चेतन बुद्धि पर छाए हुए भय से बचने के लिए अंतर-चेतना की किसी बात की विस्मृति का मोटा पर्दा पड़ रहा था। मौत के चंगुल से छूटकर निकल आने पर, पार्थिवता की बोझ-स्वरूप धरती के स्पर्श से, जीवन को स्पर्श करने का सुख उसे प्राप्त हुआ था; परंतु भावना उत्पन्न होते ही उसके सुख में धुन भी लग गए। भय ने नीवें डगमगा दीं। अपनी अनास्था को दबाने के लिए वह बार-बार ज़मीन को छूता था। अंतर के अविश्वास को चमत्कार का रूप देते हुए, इस खुली जगह में पड़े रहने के बावजूद अपने जीवित बच जाने के बारे में उसे भगवान की लीला दिखाई देने लगी।

    करुणा सोते की तरह दिल से फूट निकली। पराजय के आँसू इस तरह अपना रूप बदलकर दिल में घुमेड़े ले रहे थे। ज़हरीले धुएँ के कारण आँखों में भरे हुए पानी के साथ-साथ वे आँसू भी घुल-मिलकर गाल से ढुलकते हुए ज़मीन पर टपकने लगे।

    बेहोश होने से कुछ मिनट पहले उसने जिस प्रलय को देखा था, उसकी विकरालता अपने पूरे वज़न के साथ कोबायाशी की स्मृति पर आघात करके उसके टुकड़े-टुकड़े कर रही थी। वह ठीक-ठीक सोच नहीं पा रहा था कि जो दृश्य उसने देखा, वह सत्य था क्या?...धड़ाका! जूड़ी-बुख़ार की कँपकँपी की तरह ज़मीन काँप उठी थी। बम था—दुश्मनों का हवाई हमला। हज़ारों लोग अपने प्राणों की पूरी शक्ति लगाकर चीख़ उठे थे।...कहाँ हैं वे लोग? वे प्राणांतक चीख़ें, वह आर्त्तनाद जो बम के धड़ाके से भी अधिक ऊँचा उठ रहा था—वह इस समय कहाँ है? ख़ुद वह इस समय कहाँ है? और...

    कुछ खो देने का एहसास फिर हुआ। कोबायाशी विचलित हुआ। उसने कराहते हुए करवट बदलकर उठने की कोशिश की, लेकिन उसमें हिलने की भी ताब थी। उसने फिर अपनी गर्दन ज़मीन पर डाल दी। हवा में काले-काले ज़र्रे भरे हुए थे। धुओं, गर्मी, जलन, प्यास—उसका हलक़ सूखा जा रहा था। बेचैनी बढ़ रही थी। वह उठना चाहता था। उठकर वह अपने चारों तरफ़ देखना चाहता था। क्या?...यह अस्पष्ट था। उसके दिमाग़ में एक दुनिया चक्कर काट रही थी। नगर, इमारतें, जनसमूह से भरी हुई सड़के, आती-जाती सवारियाँ, मोटरें, गाड़ियाँ, साइकिलें... और... और... दिमाग़ इन सब में खोया हुआ कुछ ढूँढ रहा था; अटका, मगर फ़ौरन ही बढ़ गया। जीवन के पच्चीस वर्ष जिस वातावरण से आत्मवत् परिचित और घनिष्ठ रहे थे, वह उसके दिमाग़ की स्क्रीन पर चलती-फिरती तस्वीरों की तरह नुमायाँ हो रहा था; लेकिन सब कुछ अस्पष्ट, मिटा-मिटा-सा! कल्पना में वे चित्र बड़ी तेज़ी के साथ झलक दिखाकर बिखर जाते थे। इससे कोबायाशी का मन और भी उद्विग्न हो उठा।

    प्यास बढ़ रही थी। हलक़ में काँटे पड़ गए थे।—और उसमें उठने की भी ताब थी। एक बूँद पानी के लिए ज़िंदगी देह को छोड़कर चले जाने की धमकी दे रही थी, और शरीर फिर भी नहीं उठ पाता था। कोबायाशी को इस वक़्त मौत ही भली लगी। बड़े दर्द के साथ उसने आँखें बंद कर लीं।

    मगर मौत आई।

    कोबायाशी सोच रहा था— “मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जिसकी यह सज़ा मुझे मिल रही है? अमीरों और अफ़सरों को छोड़कर कौन ऐसा आदमी था, जो यह लड़ाई चाहता था? दुनिया अगर दुश्मनी निकालती, तो उन लोगों से। हमने उनका क्या बिगाड़ा था? हमें क्यों मारा गया?...प्यास लग रही है। पानी मिलेगा। ऐसी बुरी मौत मुझे क्यों मिल रही है? ईश्वर! मैंने ऐसा क्या अपराध किया था?

    करुणासागर ईश्वर कोबायाशी के दिल में उमड़ने लगा। आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी। सबसे बड़े मुंसिफ़ के हुज़ूर में लाठी और भैंसवाले न्याय के विरुद्ध वह रो-रोकर फ़रियाद कर रहा था। आँसू हलाकान किए दे रहे थे। लंबी-लंबी हिचकियाँ बँध रही थी, जिनसे पसलियों को और सारे शरीर को, बार-बार झटके लग रहे थे। इस तरह, रोने से दम घोंटने वाला ज़हरीला धुआँ जल्दी-जल्दी पेट में जाता था। उसका जी मिचलाने लगा। उसके प्राण अटकने लगे।

    —प्राणों के भय से एक लंबी हिचकी को रोकते हुए जो साँस खींची तो कई पल तक वह उसे अंदर ही रोके रहा; फिर सुबकियों में वह धीरे-धीरे टूटी। रो भी नहीं सकता!—कोबायाशी की आँखों में फिर पानी भर आया। कमज़ोर हाथ उठाकर उसने बेजान-सी उँगलियों से अपने आँसू पोंछे।

    आँखों के पानी से उँगलियों के दो पोर गीले हुए; उतनी जगह में तरावट आई। कोबायाशी की काँटों-पड़ी ज़बान और हलक़ को फिर से तरावट की तलब हुई। प्यास बगुले-सी फिर भड़क उठी। हठात् उसने अपनी आँसुओं से नम उँगलियाँ ज़बान से चाट लीं। दो उँगलियों के बीच में बिखरी हुई आँसुओं की एक बूँद उसकी ज़बान का ज़ायक़ा बदल गई। और उसे पछतावा होने लगा—इतनी देर रोया, मगर बेकार ही गया। उसकी फिर से रोने की तबिअत होने लगी, मगर आँसू अब निकलते थे। कोबायाशी के दोनों हाथों में ताक़त गई। नम आँखों से लेकर गीले गालों के पीछे कनपटियों तक आँसू की एक बूँद जुटाकर अपनी प्यास बुझाने के लिए वह उँगलियाँ दौड़ाने लगा। आँसू ख़ुश्क हो चले थे; और कोबायाशी की प्यास दम तोड़ रही थी।

    चक्कर आने लगे। ग़फ़लत फिर बढ़ने लगी। बराबर सुन्न पड़ते जाने की चेतना अपनी हार पर बुरी तरह से चिढ़ उठी। और उसकी चिढ़ विद्रोह में बदल गई। ग़ुस्सा शक्ति बनकर उसके शरीर में दमकने लगा—क़ाबू से बाहर होने लगा। माथे की नसें तड़कने लगीं। वह एकदम अपने क़ाबू से बाहर हो गया। दोनों हाथ टेककर उसने बड़े ज़ोम के साथ उठने की कोशिश की। वह कुछ उठा भी। कमज़ोरी की वजह से माथे में फिर मुरछा आने लगी। उसने सँभाला—मन भी, तन भी। दोनों हाथ मज़बूती से ज़मीन पर टेके रहा। हाँफते हुए, मुँह से एक लंबी साँस ली; और अपनी भुजाओं के बल पर घिसटकर वह कुछ और उठा। पीठ लगी तो घूमकर देखा—पीछे दीवार थी। उसने ज़िंदगी की एक और निशानी देखी। कोबायाशी का हौसला बढ़ा। मौत को पहली शिकस्त देकर पुरुषार्थ ने गर्व का बोध किया; परंतु पीड़ा और जड़ता का ज़ोर अभी भी कुछ कम था। फिर भी उसे शांति मिली। दीवार की तरफ़ देखते ही ध्यान बदला। सिर उठाकर ऊँचे देखा, दीवार टूट गर्इ थी। उसे आश्चर्यमय प्रसन्नता हुई। दीवार से टूटा हुआ मलबा दूसरी तरफ़ गिरा था। भगवान ने उसकी कैसी रक्षा की। जीवन के प्रति फिर से आस्था उत्पन्न होने लगी। टूटी हुई दीवार की ऊँचाई के साथ-साथ उसका ध्यान और ऊँचा गया। उसे ध्यान आया कि यह तो अस्पताल की दीवार है।...अभी-अभी वह अपनी पत्नी को भरती करा के बाहर निकला था। सबेरे से उसे दर्द उठ रहे थे, नई ज़िंदगी आने को थी। पत्नी, जिसे बच्चा होने वाला था...डॉक्टर, नर्स, मरीज़ों के पलंग...डॉक्टर ने उससे कहा था—‘बाहर जाकर इंतिज़ार करो।’ वह फिर बाहर आकर अस्पताल के नीचे ही कंकड़ों की कच्ची सड़क पर सिगरेट पीते हुए टहलने लगा था। आज उसने काम से भी छुट्टी ले रखी थी। वह बहुत ख़ुश था।—जब अचानक आसमान पर कानों के पर्दे फाड़ने वाला धमाका हुआ था। अँधा बना देने वाली तीन प्रकाश की किरणें कहीं से फूटकर चारों तरफ़ बिखर गर्इं। पलक मारते ही काले धुएँ की मोटी चादर बादलों से घिरे हुए आसमान पर तेज़ी से बिछती चली गई। काले धुएँ की बरसात होने लगी। चमकते हुए विद्युत्कण सारे वातावरण में फैल गए थे। सारा शरीर झुलस गया; दम घुटने लगा था। सैकड़ों चीख़ें एक साथ सुनाई दी थी। इस अस्पताल से भी गई होंगी। दीवार उसी तरफ़ गिरी है। और उन चीख़ों में उसकी पत्नी की चीख भी ज़रूर शामिल रही होगी।... कोबायाशी का दिल तड़प उठा। उसे अपनी पत्नी को देखने की तीव्र उत्कंठा हुई।

    होश में आने के बाद पहली बार कोबायाशी को अपनी पत्नी का ध्यान आया था। बहुत देर से जिसकी स्मृति खोई हुई थी, उसे पाकर कोबायाशी को एक पल के लिए राहत हुई। इससे उसकी उत्कंठा का वेग और भी तीव्र हो गया।

    साल-भर पहले उसने विवाह किया था। एक वर्ष का यह सुख उसके जीवन की अमूल्य निधि बन गया था। दुःख, यातना और संघर्ष के पिछले चौबीस वर्षों के मरुस्थल-से जीवन में आज की यह महायंत्रणा जुड़कर सुख-शांति के एक वर्ष को पानी की एक बूँद की तरह सोख गई थी।

    बचपन में ही उसके माँ-बाप मर गए थे। एक छोटा भाई था, जिसके भरण-पोषण के लिए कोबायाशी को दस बरस की उम्र में ही बुज़ुर्गों की तरह मर्द बनना पड़ा था। दिन और रात जी तोड़कर मेहनत-मजूरी की, उसे शाहज़ादे की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। तीन बरस हुए वह फ़ौज में भरती होकर चीन की लड़ाई पर चला गया। और फिर कभी लौटा।

    अपने भाई को खोकर कोबायाशी ज़िंदगी से ऊब गया था। जीवन से लड़ने के लिए उसे कहीं से प्रेरणा नहीं मिलती थी। वह निराश हो चुका था। बेवा मकान-मालकिन की लड़की उसके जीवन में नया रस ले आई। उनका विवाह हुआ।...और उसके घर में एक नई ज़िंदगी आने वाली थी। आज सवेरे से ही वह बड़े जोश में था। उसके सारे जोश और उल्लास पर यह गाज गिरी! ज़हरीले धुएँ की तपिश ने उसके अंतर तक को भून दिया था। वेदना असह्य हो गई थी—और चेतना लुप्त हो गई।

    अपनी पत्नी से मिलने के लिए कोबायाशी सब खोकर तड़प रहा था। वह जैसे बच गया। वैसे ही भगवान ने शायद उसे भी बचा लिया हो; लेकिन दीवार तो उधर गिरी है।—“नहीं!”

    —कोबायाशी चीख़ उठा। होश में आने के बाद पहली बार उसका कंठ फूटा था। सारे शरीर में उत्तेजना की एक लहर दौड़ गई। स्वर की तेज़ी से उसके सूखे हुए निष्प्राण कंठ में ख़राश पैदा हुई। प्यास फिर होश में आर्इ। कोबायाशी के लिए बैठा रहना असह्य हो गया। अंदरूनी ज़ोम का दौरा कमज़ोर शरीर को झिझोड़कर उठाने लगा। दीवार का सहारा लेकर वह अपने पागल जोश के साथ तेज़ी से उठा। वह दौड़ना चाहता था। दिमाग़ में दौड़ने की तेज़ी लिए हुए, कमज़ोर और डगमगाते हुए पैरों से वह धीरे-धीरे अस्पताल के फाटक की तरफ़ बढ़ा।

    फाटक टूटकर गिर चुका था। अंदर मलबा-मिट्टी ज़मीन की सतह से लगा हुआ पड़ा था। कुछ नहीं—वीरान! जैसे यहाँ कभी कुछ बना ही था। सब मिट्टी और खंडहर! दूर-दूर तक वीरान—ख़ाली! ख़ाली! ख़ाली! उसकी पत्नी नहीं है। उसकी दुनिया नहीं है। वह दुनिया, जो उसने पच्चीस बरसों तक देखी, समझी और बरती थी, आज उसे कहीं भी नहीं दिखाई पड़ती। सपने की तरह वह काफ़ूर हो चुकी है।

    मीलों तक फैली हुई वीरानी को देखकर वह अपने को भूल गया, अपनी पत्नी को भूल गया। इस महानाश के विराट शून्य को देखकर उसका अपनापन उसी में विलीन हो गया। उसकी शक्ति उस महाशून्य में लय हो गर्इ। जीवन के विपरीत यह अनास्था उसे चिढ़ाने लगी। टूटी दीवार का सहारा छोड़कर वह बेतहाशा दौड़ पड़ा। वह ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था—“मुझे क्यों मारा? मुझे क्यों मारा?”—मीलों तक उजड़े हुए हिरोशिमा नगर के इस खंडहर में लाखों निर्दोष प्राणियों की आत्मा बनकर पागल कोबायाशी चीख़ रहा था—“मुझे क्यों मारा? मुझे क्यों मारा?”

    ***

    कैंप अस्पताल में हज़ारों ज़ख़्मी और पागल लाए जा रहे थे। डॉक्टरों को फ़ुर्सत नहीं, नर्सों को आराम नहीं; लेकिन इलाज कुछ भी नहीं हो रहा था। क्या इलाज करे? चारों ओर चीख़-चिल्लाहट, दर्द और यंत्रणा का हंगामा! “गोरा—दुश्मन! ख़ुदा—दुश्मन! बादशाह—दुश्मन!”—पागलपन के उस शोर में हर तरफ़ अपने लिए दर्द का, अपने परिवार और बच्चों के लिए सवाल था, जिसकी यह सज़ा उन्हें मिली है! और दुश्मनों के लिए नफ़रत थी, जिन्होंने बिना किसी अपराध के उनकी जान ली।

    अस्पताल के बरामदे में एक मरीज़ दहन फाड़कर चिल्ला उठा—“मुझे क्यों मारा? मुझे क्यों मारा?”

    अस्पताल के इंचार्ज डॉक्टर सुज़ुकी इन तमाम आवाज़ों के बीच में खोए हुए खड़े थे। वह हार चुके थे। कल से उन्हें नींद नहीं, आराम नहीं, भूख-प्यास नहीं। ये पागलों का शोर, दर्द, चीख़, कराह! उनका दिल, दिमाग़ और जिस्म थक चुका था। अभी थोड़ी देर पहले उन्हें ख़बर मिली थी, नागासाकी पर भी बम गिराया गया। वे इससे चिढ़ उठे थे—“क्यों नहीं बादशाह और वज़ीर हार मान लेते? क्या अपनी झूठी आन के लिए वह जापान को तबाह कर देंगे?” उन्हें दुश्मनों पर भी ग़ुस्सा रहा था “इन्हें क्यों मारा गया? ये किसी के दुश्मन नहीं थे। इन्हें अपने लिए साम्राज्य की चाह नहीं थी। अगर इनका अपराध है, तो केवल यही कि यह अपने बादशाह के मजबूरन बनाए हुए ग़ुलाम हैं। व्यक्ति की सत्ता के शिकार हैं। संस्कारों के ग़ुलाम हैं।...दुश्मन इन्हें मारकर ख़ुश है। जापान की निर्दोष और मूक जनता ने दुश्मनों का क्या बिगाड़ा था, जो उन पर एटम बम बरसाए गए? विज्ञान की नर्इ खोज की शक्ति आज़माने के लिए उन्हें लाखों बे-ज़बान बे-गुनाहों की जान लेने का क्या अधिकार था? क्या यह धर्म युद्ध है?—सदादर्शो के लिए लड़ाई हो रही है? एटम का विनाशकारी प्रयोग विश्व को स्वतंत्र करने की योजना नहीं, उसे ग़ुलाम बनाने की ज़िद है। ऐसी ज़िद, जो इंसान को तबाह करके ही छोड़ेगी।...और इंसानियत के दुश्मन कहते हैं कि एटम का आविष्कार मानव-बुद्धि की सबसे बड़ी सफलता है!... हिः पागल कहीं के!...

    नर्स आई। उसने कहा— “डॉक्टर! सेंटर से ख़बर आई है, और नए मरीज़ भेजे जा रहे हैं।”

    डॉक्टर सुज़ुकी के थके चेहरे पर सनक-भरी सूखी हँसी दिखाई दी। उन्होंने जवाब दिया— “इन नए मुर्दा मरीज़ों के लिए नई ज़िंदगी कहाँ से लाऊँगा, नर्स? विनाश-लोलुप स्वार्थी मनुष्य शक्ति का प्रयोग भी जीवन नष्ट करने के लिए ही कर रहा है। फिर निर्माण का दूसरा ज़रिया ही क्या रहा? फेंक दो उन ज़िंदा लाशों को, हिरोशिमा की वीरान धरती पर!—या उन्हें ज़हर दे दो! अस्पताल और डॉक्टरों का अब दुनिया में कोई काम नहीं रहा।”

    नर्स के पास इन फ़िज़ूल की बातों के लिए समय नहीं था।—नए मरीज़ रहे हैं। सैकड़ों अस्पताल में पड़े हैं। वह डॉक्टर पर झुँझला उठी—

    “यह वक़्त इन बातों का नहीं है डॉक्टर! हमें ज़िंदगी को बचाना है। यह हमारा पेशा है, फ़र्ज़ है। एटम की शक्ति से हारकर क्या हम इंसान और इंसानियत को चुपचाप मरते हुए देखते रहेंगे? चलिए, आइए, मरीज़ों को इंजेक्शन लगाना है, आगे का काम करना है।”

    नर्स डॉक्टर सुज़ुकी का हाथ पकड़कर तेज़ी से आगे बढ़ गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : इक्कीस कहानियाँ (पृष्ठ 277)
    • संपादक : रायकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक
    • रचनाकार : अमृतलाल नागर
    • प्रकाशन : भारती भंडार, इलाहाबाद

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