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न्याय

nyaay

जहाँआरा सिद्दीकी

और अधिकजहाँआरा सिद्दीकी

    यह एक बेहद दर्दनाक हादसा था जो मैंने अपनी आँखों से देखा था। पारुल और मैं बातें करती हुई कच्ची सड़क से गुज़र रही थी। रास्ते के मोड़ पर पारुल मुझसे थोड़ी आगे निकल गई, जबकि मेरे पैर में ईंट का टुकड़ा चुभने से मैं पीछे रह गई थी। जब मैं अपने को थोड़ा संभाल पाई मैं भी मोड़ तक पहुँची और पारुल के पास हो ली। और तुरंत वह दृश्य दिख गया। मैंने पिछले ही दिन जिन तीन लोफ़रों जैसे लड़कों को देखा था। उन्हीं में से एक ने पारुल पर एसिड से भरी बोतल फेंक मारी। उसी क्षण जलन से बिलखती-चिल्लाती पारुल ज़मीन पर लुढ़क गई। मुझे पूरा यक़ीन था कि उसे गुंडे ने पारुल पर एसिड ही फेंका था। जब तक मैं पास पहुँचकर अपना ग़ुस्सा उन पर उतारती, वे भाग चुके थे। मैं बेहद आतंकित और दुखी हो, एक असहाय स्थिति में खड़ी की खड़ी रह गई।

    चारों तरफ़ से लोग दौड़ पड़े थे। असह्य जलन के कारण पारुल चीख़ती जा रही थी, पर मैं किंकर्तव्यविमूढ़, अपना होशहवास खो चुकी थी। किसी तरह गिरते पड़ते पारुल तक आई तो देखा एसिड का सर्वाधिक प्रभाव उसके एक ओर के गाल और आँख पर हुआ था। भय से मैंने अपनी आँखें फेर लीं। गाँव के लोग पारुल को तुरंत अस्पताल ले जाने को बातें कर रहे थे।

    चारों तरफ़ भीड़ और कोलाहल के माहौल को भेद पारुल को वहाँ से वे उठाकर अस्पताल ले गए। मैंने पीछे मुड़ कर पारुल के घर की ओर क़दम बढ़ाया। कारण पारुल के माँ-बाप को ऐसी हालत में मुझे ही जाकर सांत्वना देनी चाहिए, उन्हें ढांढस भी बँधाना चाहिए, ऐसा मैंने सोचा। मैं आगे तो बढ़ रही थी पर मेरी अनुभूतियाँ सुन्न पड़ गई थीं, सारा विचार-बोध मैं खो बैठी थी।

    गाँव में हमारी पैतृक ज़मीन थी। दो हिस्सा भाई का, और एक हिस्सा मेरा। मेरी माँ कहा करती, अफरोजा लड़की है गाँव जाना, वहाँ ज़मीन जाएदाद की बातें करना उसके वश का नहीं हैं। अत: भाई कह तो नहीं सकता था, पर उसे गाँव जाना और धान की वसूली, यह सब काम स्तरीय नहीं लगते थे। वह ढाका के शहरी वातावरण में पला बड़ा हुआ था। ढाका में वह युनिवर्सिटी में पढ़ता था, साथ ही लेफ्टिस्ट दल में राजनीति करने वाला। इसके बावजूद माँ का दिल रखने के लिए भाई गाँव चला तो जाता था, पर गाँव जाकर वह गाँव वालों को उलटी पट्टी पढ़ाने लगा था। खेतिहर किसानों से वह कहता फिरता, ‘जो जोतेगा खेत उसी का,’ उन्हें समझाने लगा, ‘तुम्हारी मेहनत तो धान भी तुम्हारा। पसीना तुम बहाते हो, मेहनत तुम करते हो और हम शहर से आकर आधे हिस्से पर हाथ जमा लेते हैं। यह सरासर गैर कानूनी हैं, अब से यह भागीदारी बंद। पूरा का पूरा धान तुम रख लिया करो।’

    दूसरी ओर भाई माँ के पास ढाका आकर कुछ और ही राग अलापता। माँ से गाँव वालों की नालिश करता, मैं गाँव नहीं जाता। गाँव वाले मेरी बिल्कुल नहीं सुनते। मुझे धान देने से इंकार करते हैं। इससे तो भला यही होगा कि हम अपना हिस्सा लेना छोड़ दें। धान उन्हें ही पूरा का पूरा दे दिया जाए।

    अब तो पिताजी भी नहीं थे। माँ प्राय: अस्वस्थ रहतीं। गाँव में जाना, धान की वसूली, यह माँ के बस का नहीं था। पारुल के पिता मेरी माँ के क़रीब-क़रीब मैनेजर बन ही चुके थे। अत: धान के मामले में जितना कुछ बन पड़ता, उनके ऊपर ही माँ भरोसा करने लगी। सारा कुछ वे ही संभालने लगे। बदले में उन्हें मेरी माँ ने अपने पक्के मकान का एक बड़ा कमरा दे दिया था। पारुल के पिता अर्थात् बदरुद्दीन सपरिवार वहाँ रहने लगा था। वह बेहद ग़रीब था। माँ के हिस्से की ज़मीन वही जोतता, जो मकान के साथ था। सारी फसल वही उठा लेता। क़रीब दस-बारह बच्चे थे। छह बच्चों को वह बेच चुका था, कारण बच्चों को खिला पिला नहीं सकता था। मेरे भाई की बात उसने क़तई सुनी, उल्टा माँ से आकर कहने लगा, ‘आप हमारे मालिक हमारे प्रभु हैं। आपकी ज़मीन पर हम हक़ जमा लें यह तो पूरा अधर्म है। इससे ऊपर वाले हमें सज़ा ज़रूर देंगे। आपका पूरा हक़ बनता है कि आप आधा धान लें। आपका बेटा यह सब उल्टी-सीधी गाँव वालों को क्या सलाह दे रहा है इस प्रकार भाई से बदरुद्दीन की नहीं पटती थी।

    इस घटना के बाद माँ ने भी रूठ कर भाई को गाँव भेजना बंद करवा दिया। सारा लेन-देन जैसा जब चाहे, बदरुद्दीन ही करने लगा था।

    इसी बीच भाई एक दिन विदेश उड़ गया। माँ समझ गई अब हमारी ज़मीन की रखवाली नामुनकिन है। अत: माँ ने बदरुद्दीन के जरिए आहिस्ता-आहिस्ता ज़मीन बेचनी शुरू कर दी थी। लेकिन बदरुद्दीन ख़रीदारों के साथ ठीक से पेश नहीं आता था। माँ ने इसी कारण मुझे गाँव भेज कर चाहा था कि बची-खुची ज़मीन मैं बेच बाच कर छुट्टी कर लूँ। दो बार पहले भी मैं इसी कारण गाँव चुकी थी। माँ की बची-खुची ज़मीन मैं बेच कर चली जाऊँ और गाँव से हमारा पूरा रिश्ता ख़त्म हो जाए, यह स्थिति बदरुद्दीन को बहुत भा रही थी कारण उसे हमारा गाँव वाला मकान पूरा मिल जाएगा, माँ इसे ही दे देंगी, वह जानता था।

    मैं गाँव में जाकर जिस कमरे में रहती थी, बदरुद्दीन उसके बग़ल वाले कमरे में ही परिवार सहित रहता था। उसकी एक लड़की क़रीब तेरह-चौदह साल की थी। बड़ी-बड़ी आँखें और भोली भोली सांवली सूरत वह हरदम मेरे पीछे-पीछे घूमती। मेरी हर ज़रूरत पर नज़र रखती, कहती ‘फूफू तुम बैठो मैं ला देती हूँ या मैं कर देती हूँ। कहीं जाना होता तो वह मेरे संग हो लेती। उसका नाम पारुल था, पर हम उसे पारू बुलाते थे।

    बीते कल मैं उसी पारुल को साथ लेकर दूर के रिश्ते के अपने चाचा के घर जा रही थी। एक बड़े फैले हुए इमली के पेड़ के नीचे देखा तो पाया कि आवारा लड़के वहाँ खड़े-खड़े अड्डा मार रहे थे। यह देख पारू ढिठक गई, फिर बोली चलो फूफू दूसरा रास्ता पकड़ते हैं। उसकी आँखों में बेहद विरक्ति की भावना झलक रही थी। मैंने पूछा ‘ये लड़के कौन है?’ ‘चेयरमैन का लड़का नाम रमीज़ है और साथ के दो लड़के उसी के दोस्त।’ ‘उन्हें देख तू इतनी डर क्यों गई, मैं तो तेरे साथ हूँ न?’ पारू तब तक मेरी बग़ल में गई थी। जब हम लड़कों के बग़ल से होकर गुज़रे तो उन्होंने हमें देख सीटी बजाई। मुझे तभी ताज्जुब हुआ। कारण मेरे जैसे उम्र वाली महिला पारू के साथ थी फिर भी लड़कों की यह जुर्रत हुई कैसे? तब मैं समझी कि पारू यों ही नहीं डर रही थी।

    मेरे साथ चलते-चलते पारू कहती जा रही थी, ‘रमीज़ बहुत बदमाश है, वह कहता है कि अगर मैं उसके प्रस्ताव से सहमत हुई तो वह मुझे उचित सीख देगा।’

    क्या है वह प्रस्ताव? यह पूछना मेरे लिए उचित नहीं होगा। यह मैं समझ चुकी थी, जैसे ही मैंने पारू की नज़रों में झाँका था।

    ‘तुमने अपने पापा-माँ से यह बताया है?’ ‘फ़ायदा क्या है, वे कुछ कर तो नहीं पाएँगे फिज़ूल ही सोच में पड़ जाएँगे। वे तो इतने शैतान हैं कि गाँव में सभी उनसे दूर भागते हैं।’

    ‘तो उसके पिता जी से तो नालिश कर सकती हो?’ इस बात से पारू हँस पड़ी। मुझे लगा हँसने की बजाए पारू रो पड़ती तो बेहतर था। कारण उसकी वह हँसी बेहद दर्दनाक थी, बेबसी से भरी। टेढ़े भेढ़े रास्ते से गुज़रते समय पारू रमीज़ के बाप के कुकर्मों का वर्णन करने लगी।

    ‘चेयरमैन उस बाप ने तीन-तीन शादियाँ की हैं। आख़िरी वाली को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ निकाह कर के लाया है। लड़की जवान और उसका एक जवान प्रेमी भी है। लड़की के माँ-बाप का मुँह रुपयों से उसने बंद किया था। वह प्रेमी लड़का काम से कहीं बाहर गया तो लौट कर उसने देखा, उसकी प्रेमिका चेयरमैन की तीसरी ब्याहता है। लड़की भी कम ज़िद्दी थी। एक रात प्रेमी के साथ भाग खड़ी हुई।

    चेयरमैन का खौफ़नाक रूप अब बहुतों के लिए डर का कारण बन गया। उस जवान लड़की की बर्बादी अब क़रीब है, ऐसा सब सोचने लगे थे। ख़ौफ़ हकीक़त में बदल गया। एक रात गाँव के कुछ लोग बाहर से लौटते हुए संकरी पगडंडी से गुज़र रहे थे। पूर्णमासी की रात थी। कुछ आहट होते ही टार्च मार कर उन लोगों ने देखा एक लड़की की मृत देह पड़ी है। मुँह कुचला हुआ और सारा शरीर क्षत-विक्षत है। अत: वह पहचान में नहीं रही थी, तो भी लोगों ने अनुमान लगा लिया। इसकी मौत तालाब के पानी में हुई थी। वहीं उसके प्रेमी की मृत देह भी फूल कर तैरती मिली थी। सभी समझ रहे थे कि यह काम किसका है। किसी ने शायद थाने में रपट भी पहुँचाई थी। घटना की जानकारी थाने के दरोगा को भी थी। इतना होते हुए भी केस बीच में ठप्प हो गया था। चेयरमैन के विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण लाने नहीं दिया गया। ऊपर से थाने का दरोगा भी किसी झमेला में फंसना नहीं चाहता था। चेयरमैन की प्रस्तावित रक़म की राशि काफ़ी मन माफिक थी। बनिस्पत इसके कि चेयरमैन के गुंडों की मार खाए।

    यह दस वर्ष पहले की बात है। केस दब गया था, कारण गाँव के लोग तब इतने सचेत थे। अब वे ही किसान चालाक, समझदार भी हैं। अब बाप की कुर्सी लड़के ने ले ली है, अत: उसके विरुद्ध नालिश करना विपत्ति को न्योता देना है। बात तो बस पिछले ही दिन की थी। मैंने सोचा ही नहीं था कि दूसरे ही दिन रमीज़ ऐसा कांड कर बैठेगा। अगर मैंने एसिड वाली घटना आँखों से देखी होती तो इन बातों की अनसुनी कर जाती।

    मैं घर की ओर लौट ही रही थी कि घर के सामने एक बड़े से आम के वृक्ष के नीचे बदरुद्दीन की औरत गुमसुम बैठी दिखी। मुझे देखते ही बुक्का फाड़कर रोने लगी। चारों ओर से महिलाएँ उसे घेरे हुए थीं। मैं समझ गई कि ख़बर उसे पहले ही मिल गई है। उसे ढांढस दिलाते हुए मैं बोली, ‘उस लड़के को मैं जेल भिजवा कर रहूँगी।’ बदरुद्दीन की बीवी का कहना था—‘सर्वनाश तो हो चुका है, मेरी बेटी से अब निकाह कौन करेगा?’ मैं आक्रोश से पागल हो रही थी। भीतर ही भीतर आग उगल रही थी और सोच रही थी कि चेयरमैन कितना भी शक्तिशाली क्यों हो, मैं उससे टक्कर लेकर रहूँगी। इतना आत्म-विश्वास मुझमें था। अत: बदरुद्दीन के एक लड़के को लेकर मैं थाने पहुँची, जो कोई ख़ास दूर नहीं था। एक स्वच्छ सफ़ेद चौपाल थी, जिसके सामने और पीछे आम के बग़ीचे थे। गेट पर पहरेदार भी थे। भीतर कुर्सी पर ओ० सी० (दरोगा) बैठे थे। आसपास गाँव के कुछ लोग उन्हें घेरे हुए थे। शायद घटना का वर्णन कर रहे होंगे। मुझे देखते ही खिसक गए। ओ०सी० कम उम्र का लम्बे डील डौल काला नौजवान था। कुर्सी से उठकर उसने मेरा अभिवादन किया। मेरे वहाँ पहुँचने पर अवाक् होकर बोला, ‘मुझे ही बुला लिया होता, मैडम! मैं जो यूनिवर्सिटी में आपसे पत्रकारिता पढ़ता था। अनेक छात्रों की भीड़ में शायद आप मुझे पहचान पाई हों।’.

    ‘आप किस बैच में थे’—मैंने पूछा था। ‘पहले आप बैठिए। कैसे आना हुआ?’ मुझे एहसास हुआ—पुलिस अधिकारी होने पर भी यह मनुष्यत्व भूला नहीं है। मैं ख़ुश हुई। ‘मैडम! मैं 1980 के बैच में था। मेरा नाम अज़ीजुल हक है।’ ‘चलिए ख़ुशी हुई कि आप ही यहाँ पर पोस्टेड मिले। मुझे डर था, कहीं मेरी बात सुनने से दरोगा इनकार कर दे।’ हंसते हुए अज़ीजुल हक ने कहा—‘दुख तो इसी बात का है कि इस पेशे में पहले ही हमे उलआ समझ लिया जाता है।’

    ‘ख़ैर, मैं तो इंसान हूँ—हर पेशे में कोई कोई ईमानदार तो होता ही होगा। आप बताइए, घटना तो आपने सुन ही ली है। मैंने स्वयं आँखों से देखा है और चाहती हूँ कि रमीज़ को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले। ‘हाँ, जितना मैंने सुना है, मैं आपसे सहमत हूँ, गुनहगार को सज़ा तो मिलनी चाहिये जिससे कि आइंदा ऐसी दुर्घटनाएँ हों।’

    मैंने कहा, ‘हर रोज अख़बार खोलते ही बस यही सब दुर्घटनाएँ। पर ऐसा क्यों होता है? कारण, कानून का बन जाना ही काफ़ी नहीं है। उस पर ठीक अमल भी होना चाहिए। कानून एक मखौल बनकर रह गया है। दोषी के भागने के वहाँ अनेक सुराख हैं। अज़ीजुल सहमति जताते हुए बोला—‘मैडम! घटना जो घटती है वह विचार तक पहुँचते हुए क्या रूप लेती है, यही बड़ी बात है। कारण, अमीर लोग गवाहों को मोटी रक़म देकर उनका मुँह पहले से ही बंद कर देते हैं और सारा क़सूर पुलिस के सिर मढ़ दिया जाता है।’ अज़ीजुल ने मेरा समर्थन

    पाकर अपना दु:खड़ा सुनाया था—‘मैडम जानती हैं, बेहद क्षमता और बेहद संपन्नता, समाज में विचार को शिथिल बनाती है। क़रीब दो साल पहले की बात है, दस साल की बच्ची से गाँव के लड़के ने रेप किया। मैंने ही रेप का मामला दर्ज किया था। वह लड़का एक प्रभावशाली और धनाढ्य बाप का था। लड़की की चीख़ स्वयं उसकी चाची ने सुनी थी और बाहर आकर देख लिया था। लड़का भाग खड़ा हुआ और भागते समय एक पाँव की चप्पल छूट गई थी। जब गवाही देने प्रधान रूप् में चाची कोर्ट में बुलाई गई तो जो सच उसने थाने में कहा था वह बोल कर वह बोली—‘मैने लड़के को धान के खेत से भागते हुए देखा था, लड़की के आसपास से नहीं।’ जज साफ़ समझ गए थे कि गवाह रुपया खाकर पलट गया है, अत: कुछ किया जा सका और दोषी बेकसूर छूट गया था। आज भी वह छाती फुलाकर घूम रहा है। उस जज से मैं एक जलसे में मिला था। वह मेरे रिश्तेदार थे। मैंने उनसे पूछा था, ऐसा ग़लत काम आपने कैसे किया? उत्तर में उन्होंने कुछ इस प्रकार कहा—‘कानून में अंदाज़न कोई बात नहीं होती। प्रमाण का लिखित बयान सत्य से मिलता होना चाहिए। दोनों हालातों में यह कमज़ोर साबित हुआ और मैं कुछ नहीं कर सका। यहाँ तक कि कम से कम दो साल की जेल की सजा उसे मिलनी ही चाहिए थी।’

    अब तक मैं साँस रोके सुन रही थी। मेरे मुँह से इतना ही निकला—‘बड़े-बड़े वकीलों को बड़े लोग ख़रीद लेते हैं और न्याय के सुराखों से बाहर हो जाते हैं। सज़ा केवल ग़रीब भुगतते हैं।’ मेरे चेहरे की नसें क्रोध से तन गई थीं। मैंने कहा, ‘किसी भी हालत में इस केस को कमज़ोर नहीं होने दूँगी। जहाँ तक बन पड़ेगा, रिपोर्टर, अख़बार, ऊँचे से ऊँचे ओहदे के अधिकारी तक पहुँचूँगी। सो, अज़ीजुल से मैंने बार-बार निवेदन किया कि लड़का छूटना नहीं चाहिए। अज़ीजुल ने मुझे आश्वस्त किया।

    सब कुछ निपटा कर घर लौटी तो शाम ढल चुकी थी। पारुल के माँ-बाप अस्पताल में ही थे। केवल कुछ पड़ोसी घर पर भीड़ लगाये थे। उन्हीं से पता चला कि पारुल के एक गाल और आँख पर पट्टी है, जहाँ उसे ख़ासी चोट पहुँची है। वह कह रहे थे—शायद आँख चली जाएगी। वह अस्पताल में पड़ी-पड़ी दर्द से बेहद कराह रही है। मुहल्ले के एक लड़के को साथ लेकर मैं अस्पताल के लिए रवाना हुई, पर मूसलाधार बारिश ने हमारा रास्ता रोक लिया। इतने में रोती-बिलखती पारुल की माँ देर रात घर लौटी। बाप पारुल के साथ ही अस्पताल में ठहरा था।

    मैंने अपने मोबाइल का इस्तेमाल कर कई-कई अख़बारों में ख़बर दी। सभी को मैंने खुल कर भंडाफोड़ करने की सलाह दी। दूसरी सुबह मुझे फ़ोन पर बताया गया कि काफ़ी बड़े अख़बारों में एक पन्ने की ख़बरें छप चुकी हैं। और यह भी बताया गया कि काफ़ी बड़े रिपोर्टर गाँव की ओर रवाना हो चुके हैं, आँखों देखा हाल दर्ज करने के लिए। अब मेरे मन को कुछ सुकून मिला। दोपहर तक संवाददाताओं के साथ मैं अज़ीजुल हक के थाने में जाकर मिली। अज़ीज़ुल ने पुन: मुझे तसल्ली देते हुए घर चले जाने को कहा और भरोसा दिया कि हादसे की छोटी-मोटी बातें भी वह दर्ज कर लेगा। और लड़की की एक आँख नष्ट हो जाने की ख़बर पाकर दु:ख भी जताया। यह भी बताया कि लड़का फरार है और उसके पिता अज़ीजुल के पास आए थे। सुनते ही मैं आगबबूला हो गई और बोली—‘किस मतलब से आया था वह बदमाश?’

    ‘रुपयों से मुझे ख़रीदना किसी भी हालत में संभव नहीं।’ इसलिए चेयरमैन मुझे मीठी-मीठी बातों से पटा रहा था। पारुल के इलाज का सारा ख़र्च वह देगा। यह भी कह रहा था कि इस घिनौने काम के लिए दोषी को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाई जाएगी।’ ‘इस प्रकार पलटी खाना तो उस जैसे बदमाश के लिए यक़ीन के क़ाबिल नहीं है। ज़रूर वह कोई नई चाल चल रहा है। भला अपना लड़का जानकर भी।’ मैंने कहा अज़ीजुल ने बात काटते हुए कहा—‘हाँ, उसने कहा अगर और प्रमाण से साबित होता है कि यह काम मेरे लड़के ने किया है, मैं ख़ुद उसे पकड़कर थाने के सुपुर्द कर दूँगा। पर यदि मेरे विपक्ष में किसी दुश्मन के द्वारा की गई वारदात है तो मैं लड़ जाऊँगा और किसी बनावटी बात का सहारा लिए बिना अपने लड़के को बचा लूँगा। मैं ग़ुस्से में धधक उठी—‘इन बातों का अर्थ?’

    अज़ीजुल पुन: बोला, ‘आप शांत हों। पारुल के अस्पताल से घर लौटते ही मैं सारे बयान उसके मुँह से सुनकर रिकार्ड कर लूँगा।’

    मेरे दिमाग़ में तरह-तरह की चिंताएँ दौड़ने लगी। अस्पताल से लौटते समय कहीं चेयरमैन के गुंडे पारुल को मार तो नहीं डालेंगे। सारे गाँव का चक्कर लगाकर अब तक संवाददाताओं ने काफ़ी समाचार इकट्ठे कर लिए थे।

    चिंताओं से मुझे मुक्ति मिली, जब पारू को लेकर उसका बाप घर लौटा। अज़ीजुल भी अपने सिपाहियों को लेकर पहुँच गया था। कई पत्रकार भी हाज़िर थे। सबको चौंकाते हुए चेयरमैन स्वयं अपने संगी साथियों सहित पारू के घर हाज़िर हो गए थे। उनका परिचय अज़ीजुल ने मुझसे कराया। अदब के साथ मुझे सलाम करते हुए बोले, ‘आप जैसी इज़्ज़तदार हस्ती इस गाँव की गरिमा हैं। यदि ज़मीन जाएदाद बेचकर गाँव छोड़कर चली जाएँगी तो हम जैसे मूर्खो को कौन पढ़ाएगा, कौन सिखाएगा?

    चेयरमैन की चिकनी-चुपड़ी बातों से मन ही मन मैं जल भुन रही थी, पर ऊपर से काफ़ी शांत और भद्र बनी हुई थी। आम और बेर के वृक्ष तले बड़ा सा आँगन था, जहाँ कुर्सियाँ लगाई गई थीं। हमारे बैठक का अच्छा इंतज़ाम किया गया था। चेयरमैन शायद जान-बूझकर अज़ीजुल के बग़ल की कुर्सी पर बैठ गए। मैंने काफ़ी फासला रखकर आमने-सामने होकर बैठना ठीक समझा। एक पत्रकार युवक अपनी कुर्सी खींचकर मेरी बग़ल में बैठा। गाँव के बड़े-बूढ़े जवान सभी हमें घेरकर खड़े हुए थे, सबकी आँखें कुतूहल से भरी थीं। बदरुद्दीन पारू को बुलाने घर के अंदर घुसा। उसका व्यवहार मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लग रहा था। मैं इंतज़ार में थी, मुझसे सलाह के लिए ज़रूर मेरे पास आएगा, जबकि वह मेरे आस-पास भी नहीं फटका। मुझसे ज़रूर मिले ऐसा मैंने दोपहर को उसकी बीवी से कह दिया था। बीवी ने मुझसे हामी भी भरी थी, पर वह आया ही नहीं। उसकी बीवी भी कुछ अलग-थलग रह रही थी, मानो मेरे साथ पारू निकली थी इसी कारण उसे एसिड की बोतल का शिकार होना पड़ा, पर मैंने सोचा आज नहीं तो कल रमीज़ उसे शिकार ज़रूर बनाता उसने तो पारू से कह ही दिया था।

    पारुल इस बीच माँ-बाप के साथ धीरे-धीरे घर से बाहर आती दिखी। चारों तरफ़ भीड़ ही भीड़ और तरह-तरह की बातें गूँज रही थीं। मेरे कान के पास मुँह लाकर फिसफिसा कर रिपोर्टर बोला, ‘आज सुबह चेयरमैन के संगी साथी अस्पताल में बदरुद्दीन से मिलकर आए हैं।’ मैं काफ़ी सतर्क होकर थोड़ी हिल-डुलकर बैठी। पारुल आँगन के बीच कुर्सी पर बैठाई जा चुकी थी। पारुल मुझसे आँखें नहीं मिला रही थी। अभी सूरज आम के पत्तों के झुरमुट में से झाँक रहा था। एक मुर्ग़ी झुँड में अपने बच्चों के साथ कंक्-कंक् करती हुई हमारे बीच गई थी। पेड़ पर कौवे एक साथ काँव-काँव कर उठें। इस बीच बुलंद आवाज़ में अज़ीजुल ने पारुल से पूछा, ‘तुम पर जिसने ऐसिड फेंका है, उसे तुम पहचानती हो?’

    चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। पारू ने बाप को एक बार देखकर आँखें ज़मीन पर गड़ा लीं। माँ-बाप दोनों ने मेरी ओर पीठ कर रखी थी, पारुल की ओर मुँह। दुबारा अज़ीजुल ने पूछा, ‘घबराओ मत, हम सब तुम्हारे साथ हैं कहो किसने फेंका था ऐसिड? उसे पहचानती हो। उसका नाम बताओ।’ अब फिसफिसा कर पारू क्या बोली कुछ भी सुनाई नहीं दिया। तीसरी बार और एक कोशिश की गई। दरोगा ने अपना सिर थोड़ा झुकाते हुए एक बार फिर पूछा। चेयरमैन ने पारुल के मुँह के पास मुँह ले जाकर पूछा—‘बोलो माँ बोलो क्या तुम उसे पहचानती हो? प्यारी मेरी माँ बोलो।’ मानो दुनियाँ भर में पारुल को प्यार करने वाला एक वही फ़रिश्ता था। पारुल ने पल भर आँखें उनकी आँखों में डाली और बोली, ‘नहीं’ और आँखें पुन: ज़मीन पर गड़ा लीं।

    मुझे लगा पारू पागल हो गई है। भला वह क्यों इतना बड़ा झूठ बोल रही है। मुझसे रहा गया तड़ाक से बोली, ‘हाँ पारू ने रमीज़ को पहचाना था। मैंने भी पहचाना, क्योंकि मैं भी उसके साथ थी।’

    बड़ी विनयपूर्वक चेयरमैन बोले, ‘आप उसे पहचानती थी?’

    ‘नहीं पिछले ही दिन पारू ने उसे दिखलाया था और नाम रमीज़ बताया था।’

    शाम हो गई थी ऊपर से एक दिन का देखा चेहरा, आप ग़लत भी देख सकती हैं।’ ‘नहीं शाम नहीं काफ़ी धूप थी तब तक।’

    ‘लेकिन पारू तो कह रही है नहीं पहचानती। फिर आप कैसे...’

    केस का फल क्या होगा, मैं समझ गई थी। भीड़ में कानाफूसी जारी थी। सब संदेह की दृष्टि से माहौल को परख रहे थे। भीड़ धीरे-धीरे हल्की होती गई। पारू को उसके माँ-बाप पकड़कर अंदर ले जाने लगे। पल भर के लिए पारू ने मेरी आँखों में झाँका। वहाँ मुझे दिखा—केवल दुख-दर्द का अहसास और प्रार्थना। उस असहाय दृष्टि को मैं भूल नहीं पाई।

    मेरा शहर लौटने का समय होने लगा। अकेली स्टेशन की ओर चल पड़ी। हर बार बदरुद्दीन साथ आता था, वैसा हुआ। उसकी बीवी भी मुझसे भेंट करने नहीं आई, किसी ने विदाई दी। स्टेशन के क़रीब एक पेड़ की आड़ में अज़ीजुल हक खड़ा मिला—‘मैडम आप जा रही हैं।’ ‘हाँ, ‘चलिए आपको ट्रेन तक छोड़ आता हूँ।’ बदरुद्दीन की अहसानफरामोशी पर दरोगा भी दुखी था। दोनों चुपचाप चल रहे थे। धीरे से अज़ीजुल ने कान तक मुँह ले जाकर कहा, ‘पारू झूठ क्यों बोली मैं जानता हूँ। बदरुद्दीन को बीस हज़ार रुपए चेयरमैन ने दिए हैं। ‘बीस हज़ार! आश्चर्य से मैं दरोगा का मुँह देखती रही।

    ‘हाँ, यदि लेता तो उसे केस करना पड़ता। गाँव शहर की दौड़ा-दौड़ी। यहाँ-वहाँ जाना। ख़र्च अलग। बदमाश लोग और जाने क्या-क्या नुक़सान करते? आप कब तक पहरा देतीं?’

    मैं कड़वी हँसी हँस कर बोली, ‘यह कानून है? न्याय है?’

    ‘हाँ न्याय! कारण काफ़ी हद तक सच क्या है, गाँव वाले सभी जान चुके हैं! चेयरमैन का सिर भी झुका है। उसे ज़ुर्माना भी देना पड़ा है 2000 रुपए। धीरे-धीरे गाँव वाले और जाग उठेंगे। तब यह न्याय का तमाश नहीं चलेगा। सिद्धांत सिर उठाकर देखेगा।’

    दूर से ट्रेन की सीटी सुनाई दी। उसकी रफ़्तार काफ़ी धीमी थी। इंजन की तेज़ बत्ती ट्रेन के स्टेशन आने का समाचार दे रही थी।