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मांस का दरिया

mans ka dariya

कमलेश्वर

कमलेश्वर

मांस का दरिया

कमलेश्वर

और अधिककमलेश्वर

    जुगनू की तबीअत इन दिनों कुछ नासाज़ सी है। पर काम नहीं करेगी तो चलेगा कैसे? इस बीच नियमित ग्राहकों के अलावा एक झोले वाला आदमी भी उसके पास आने लगा है। वह आदमी है मदनलाल। इस बीच बीमारी बढ़ती है, पर कुछ समय बाद मजबूरी जुगनू को दुबारा इस पेशे में आने के लिए मजबूर कर देती है। वह अपने भविष्य को लेकर बेहद चिंतित है और मदनलाल के प्रति जन्मे नए लगाव को लेकर भी उसके मन में उथल-पुथल चल रही है।

    जाँच करने बाली डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि उसे कोई पोशीदा मर्ज़ नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं। उसने एक पर्चा भी लिख दिया था। खाने को गिज़ा बताई थी।

    कमेटी पहले ही पेशे पर रोक लगा चुकी थी। सब परेशान थीं। समझ में नहीं रहा था कि क्‍या होगा? डॉक्टरी जाँच में बहुतों का पेशा और पहले ही ठप्प हो चुका था।

    इब्राहीम ठेकेदार ने जो चुनी थीं, वे सब ‘पास’ हो गई थीं। उनके नख़रे बहुत बढ़ गए थे। वे बड़े ग़रूर से अपने ख़ानदानों की चर्चा करती थीं।

    इब्राहीम ने चुस्त-दुरुस्त लड़कियों को छाँट लिया था। धीरे-धीरे वे शहर के अच्छे हिस्सों में जा बसी थीं। इब्राहीम उनकी देखभाल करता था और जिस ठेके से जितनी ले गया था, उनका पैसा महीने-के-महीने चुकता कर जाता था।

    एक बार जब जुगनू ज़्यादा परेशान थी, तो उसने भी इब्राहीम से कहा था कि किसी ठौर-ठिकाने पर बैठा दे, पर इब्राहीम ने दो-टूक जवाब दे दिया था, ‘शादी तो है नहीं कि किसी की आँख में धूल झोंककर गले मढ़ दूँ! जो आएगा, वह तो बोटी-बोटी देखेगा।’ और वह क़तराकर चला गया था।

    उस दिन उसके दिल पर पहली चोट लगी थी—अब वह इस लायक़ भी नहीं रही? दूसरी चोट तब लगी थी, जब साथ के बारजे से शहनाज़ ने हाथ मटकाते हुए गाली दी थी, ‘अरे, अल्ला तुझे वह दिन भी दिखाएगा जब गाहक तेरी सीढ़ियों पर क़दम तक नहीं रखेगा।’

    शहनाज़ की इस बात पर मुहल्ले में बड़ा बावेला मचा था। यह गाली तो बुरी-से-बुरी को नहीं दी जाती…सबके गाहक जीते-जागते रहें। ख़ुदा मर्दों को रोज़ी दे…जाँघ में ज़ोर दे!

    और उसी दिन पहली बार झिझकता हुआ वह आया था। फत्ते उसे लाया था। उसके हाथ में बड़ा-सा थैला था। ख़ाकी पैंट और नीली क़मीज़ पहने था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। कानों के रोओं और भौंहों पर धूल की हलकी परत थी। कमरे में जाकर जुगनू खाट पर ख़ुद बैठ गई थी, तो वह अचकचाया-सा खड़ा रह गया था। उसकी समझ में नहीं रहा था कि थैला कहाँ रख दे। तभी जुगनू ने बड़ी आसानी से थैला लेकर सिरहाने रख दिया था। वह चुपचाप खाट पर बैठ गया था। कुछ क्षणों की ख़ामोशी के बाद जुगनू ने कहा था, ‘जूते उतार लो…।’ उसने किरमिच के जूते उतारे थे तो बदबू का एक भभका उठा था…कुछ-कुछ वैसा ही जैसा कि बहुतों के कपड़े उतारने पर उठा करता था…ख़ास तौर से उस मनसू किरानी के पास से फूटता था, जो रात के ग्यारह बजे के बाद ही आया करता था और निबट चुकने के बाद कमर में दर्द की वजह से शिला की तरह बैठा रह जाता था। तब जुगनू ही उसे उठाती थी और वह जाँघें खुजलाता हुआ चला जाता था। या फिर कंवरजीत होटल वाले की तरह, जो बदबू तो देता ही था और उठने से पहले खाट पर बैठा हुआ ‘ओं…ओं’ करके डकारें लेता था।

    बह भभक उससे बर्दाश्त नहीं हुई तो बोली, ‘जूते पहन लो!’

    वह जूते पहनकर फिर बैठ गया था। तब उसे बड़ी कोफ़्त हुई थी। एक मिनट वह उसे घूरती रही थी, फिर चिढ़कर बोली थी, ‘यह घर की बैठक नहीं है…फ़ारिग़ होके अपना रास्ता नापो!’ उसने अपमानित महसूस किया था और अपने को संभालने के बाद अचकचाकर बोला था, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

    ‘जुगनू!’ वह बोली थी।

    ‘कहाँ की हो?’

    ‘तुम अपना काम करो…।’ वह फिर चिढ़ गई थी।

    और तब उसने उसकी तरह ही पूछा था, ‘तुम्हें यह पेशा पसंद है?’

    ‘हाँ!…तुम्हें नहीं है?’ कहते हुए वह लेट गई थी। उसने साड़ी जाँघों तक खिसका ली थी। वह भी लेट गया था और उसने ब्लाउज़ के भीतर हाथ डालने की झिझकभरी कोशिश की थी।

    ‘परेशान करो तो अच्छा है…’ वह बोली थी, ‘क्यों खोलते हो…?’

    उसके लिए कुछ भी कर सकना मुमकिन नहीं रह गया था। जुगनू के चेहरे पर सस्ते पाउडर की परत थी…गर्दन में पाउडर ककी डोरियाँ-सी बन गई थीं। होंठों पर ख़ून सूखकर चिपक गया था। कानों के टॉप्स मेंढक की आँखों की तरह उभरे हुए थे। बाल तेल से भीगे थे। तकिया निहायत गंदा था और चादर कुचले हुए चमेली के फूल की तरह मैली थी।

    संकरी कोठरी में अजीब-सी बदबू भरी हुई थी। एक कोने में पानी का घड़ा रखा था और तामचीनी का एक डिब्बा। कोने में ही कुछ चिथड़े भी पड़े थे।

    वह पड़ा-पड़ा इधर-उधर देखता रहा। जुगनू के सिरहाने ही छोटी-सी अलमारी थी। उसका पत्थर तेल के चिकने चकत्तों से भरा हुआ था। वह टूटा हुआ कंघा, सस्ती नेलपॉलिस की शीशी और जूड़े के कुछ पिन उसमें पड़े थे। अलमारी की दीवार पर पेंसिल से कुछ नाम और पते लिखे हुए थे। सिनेमा के गीतों की कुछ किताबें एक कोने में रखी थीं, उन्हीं के पास मरे साँपों की तरह चुटीले पड़े थे। देखते-देखते उसके मन में गिजगिजाहट भर गई थी। आसरे के लिए उसने जुगनू की जाँघ पर हाथ रख लिया था। जाँघ बासी मछली की तरह पुली-पुली और खद्दर की तरह खुरदरी थी। जुगनू के खुले हुए आधे तन से मावे की महक रही थी। उसने हाथ हटाया तो जाँघों के नीचे चादर पर गया था। उसे लगा जैसे चादर भीगी हुई हो…

    ‘यही कमाई का वक़्त होता है…इतने में तो चार ख़ुश हो गए होते!’ जुगनू ने कहा और दोनों बाँहों में कसकर उसे भींच लिया था।

    और जब वह उठकर बैठा तो जुगनू ने मज़ाक़-मज़ाक़ में उसका थैला खोल लिया था, ‘बहुत रुपया भरकर चलते हो!’ उसे लगा कि शायद वह मज़ाक़ में एकाध रुपया और हथियाना चाहती है। तब उसने जुगनू को पहली बार ग़ौर से देखा था और चुपचाप चला गया था।

    जब भी जुगनू बाज़ार से निकलती, तो सिर पर पल्‍ला डालकर। वह इतनी छिछोरी भी नहीं थी कि कोई फ़बती कसता। सब उसे ऐसे देखते थे, जैसे उस पर उनका समान अधिकार हो। वह रास्ता चलते कनखियों से उन लोगों को ज़रूर देख लेती थी, जिन्हें वह अच्छी तरह पहचानती थी और जो उसके मर्दों की तरह उसके पास आते-जाते थे। तभी एक दिन वह दिखाई पड़ा था—वही थैलेवाला आदमी। एक इमारत की पहली मंज़िल के बारजे पर कोहनियाँ टेके वह बीड़ी पी रहा था। वही क़मीज़ पहने था। इमारत पर लाल झंडा लगा हुआ था, जिसकी छाया उसके कंधों पर काँप रही थी।

    टूटी हुई चप्पल जुड़वाने के लिए वह वहीं रुक गई थी। वह शायद भीतर चला गया था।

    रात को वह आया था। उसको आँखों में पहचान थी। इस बार वह सकुचा नहीं रहा था। खाट पर बैठे-बैठे जुगनू ने उससे पूछा था, ‘तुम क्या काम करते हो?’

    ‘कुछ नहीं!’ वह बोला था, ‘मज़दूरों में काम करता हूँ…’

    ‘हमारा भी कुछ काम कर दिया करो…हम भी मज़दूर हैं!’ जुगनू ने मज़ाक़ किया था।

    ‘तुम्हें देर तो नहीं हो रही है!’ उसने कहा था

    ‘आज तबीअत ठीक नहीं है।’ जुगनू अलसाते हुए बोली थी।

    ‘क्या हुआ?’

    ‘कमर बहुत दुःख रही है। सारे बदन में हड़फूटन है…जुगनू बोली थी, ‘पता नहीं क्या हो गया है…तारा को बुला दूँ?…बहुत शराफ़त से पेश आएगी…समझदार औरत है…’

    उसने मना कर दिया था। कुछेक मिनट बैठकर वह चलने लगा था, तो सिर्फ़ इतना ही बोला था, ‘मैं ऐसे ही चला आया था।’ और वह चुपचाप अँधेरी सीढ़ियों में उतर गया था। जुगनू ख़ामोशी से आकर खिड़की पर खड़ी हो गई थी। उसे लगा था कि वह किसी और ज़ीने में चढ़ जाएगा। गली में ज़्यादा आमद-ओ-रफ़्त नहीं थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर आदमियों के तीन-चार गोल खड़े हुए थे। उनमें से फूटकर कभी-कभी कोई किसी ज़ीने में चढ़ जाता था। नानबाई की चिमनी में से धुआँ निकल रहा था…वह उसे देखती रही थी। वह कहीं रुका नहीं। धीरे-धीरे गली पारकर सड़क की तरफ़ मुड़ गया था—उसी सड़क पर, जिस पर वह इमारत थी, जिसमें वह रहता था।

    जुगनू को उसका यूँ लौट जाना बहुत अच्छा लगा था। हल्की-सी ख़ुशी हुई थी। कोठरी के पलंग पर आकर वह लेट रही थी।

    कोठरी में बहुत सीलन थी और घुटी-घुटी-सी बदबू। दरवाज़ा उसने बंद कर लिया था और सिनेमा के गीतों की किताब उठाकर मन ही मन पढ़ती रही थी।

    तभी किवाड़ों पर दस्तक हुई थी और अम्मा की आवाज़ आई थी, ‘जुगनू बेटे! मुआ बेहोश तो नहीं हो गया!’

    ‘यहाँ कोई नहीं है, अम्मा!’

    ‘तो बारजे पर निकल आ, बेटे…बड़ी अच्छी हवा चल रही है…गली में रौनक़ भी है…’ कहते हुए अम्मा ने दरवाज़ा खोल दिया था, ‘तबीअत तो ठीक है!’

    ‘कुछ गड़बड़ है, अम्मा!’

    ‘तो एक गिलास दूध पी ले, बेटा…अभी तो वक़्त है, कोई ही गया तो…’

    और वह उठ आई थी। उसकी गर्दन पर उल्टा हाथ रखते हुए अम्मा ने बुख़ार देखा था और कमर के ऊपर पीठ के मांस की लौटती सलवटें देखकर बोली थी, ‘सेहत का ख़याल छोड़ दिया है तूने…कमर पर कितनी मोटी पर्तें गिरने लगी हैं…थोड़ी-सी वर्ज़िश कर लिया कर…’ कहती हुई वह दूसरी कोठरी की ओर चली गई थी। दूसरी कोठरी से कुछ तेज़-तेज़ आवाज़ें रही थीं। और अम्मा बड़बड़ाती हुई भीतर चली गई थी, ‘यह चुडैल बिना लड़े लगाम नहीं डालने देती…किसी दिन इस कोठरी में क़तल होगा…!’

    यह रोज़ की बात थी…बिलकीस को अम्मा यूँ ही कोसती थी। ख़ुद बिलकीस का कहना था कि उसके पास से कोई बिना अपनी कमर पकड़े वापस नहीं जा सकता। बिलकीस को इसमें मज़ा भी आता था। आदमी को छोड़ते ही वह दरवाज़े पर आकर खड़ी हो जाती थी और उसे हारकर जाते हुए देखकर तालियाँ चटकाकर बड़ी ऊँची हँसी में हँसती थी, ‘अरी, मरी ज़ुबेदा! ज़री देख…रुस्तम जारिया है! बड़ा आया था पैलवान का बच्चा! ये मरदुआ सोएगा औरत के साथ!’

    एक दिन आदमी बिगड़ गया था, ‘क्या बक रही है?’

    ‘अरे, जा-जा भिश्ती की औलाद…ले, ये चवन्‍नी ले जा, छटाँक-भर मलाई खा लीजे…’

    और वह आदमी बहुत अपमानित-सा सीढ़ियाँ उतर गया था। पूरे कोठे में बिलकीस को लेकर दहशत छाई रहती थी। पता नहीं कब झगड़ा हो जाए! और वह हाथ नचा-नचा कर बड़े फ़ख़्र से हमेशा कहा करती थी, ‘अपने तो बरम्मचारी की औरत हैं…’

    जुगनू को देखकर बिलकीस हमेशा ताना देती थी, ‘तू तो किसी घर बैठ जा…’ पर जुगनू किसी से लड़ी नहीं। वह जानती थी कि बिलकीस बहुत मुँहफट है। अम्मा तक को नहीं धर गाँठती। और अम्मा थी कि सबके तन-बदन का ख़याल रखती थी। बदन चुस्त दरुस्त रखने के लिए वह हमेशा चीख़ती ही रहती थी। ‘भैंस की तरह फैलती ही जा रही है। साटन की पेटीकोट पहना कर। आलू खाना बंन् कर कलमुँही!’

    पेट पर ढलान आते ही वह ज़ुबेदा के लिए भीतर बक्से में से पेटी निकाल लाई थी, ‘दिन में इसे बाँधा कर! चाय पीना कम कर…’ और उसने जीन की हर नाप की अंगियाँ लाकर रख दी थीं। उसे बस एक ही फ़िक्र रहती थी, ‘मेरा बस चले तो उमर रोक दूँ तुम लोगों के लिए…’

    दुपहर में अम्मा बड़े प्यार से कभी किसी के बाल साफ़ करने बैठ जाती, कभी शाम के लिए साड़ियों पर इस्त्री करती और बसंत के दिन तो वह सबके लिए बसंती जोड़ा रंगती थी। फत्ते के लिए रूमाल रँगना भी भूलती। ईद-बक़रीद, होली-दीवाली बड़े हौसले से मनाती और कभी-कभी कमला की याद करके डबडबाई आँखों से कहती, ‘उस जैसी लड़की तो हज़ार कोखें नहीं जनम पाएँगी…ख़ुदा ने क्या ख़ूबसूरती बख़्शी थी, हाथ लगाते मैली होती थी…उसे तो पैसों वालों का डाह खा गया। ज़हर दे दिया कुत्तों ने…बहुत छटपटाई थी बेचारी। हाय, मैं अस्पताल तक ले जा पाई…।’

    …जुगनू बारजे में आकर बैठ गई थी। आते-जातों को देख रही थी। भीड़ धीरे-धीरे हलकी हो रही थो। फूल-गजरेवाले उठकर जा रहे थे और उसने देखा था—रोज़ की तरह मन्नन माली ने जाते हुए एक गजरा कलावती की खिड़की में फेंका था और कलावती ने रोज़ की तरह मुस्कुराकर गालियाँ दी थीं। बन्ने कलईवाला धुला हुआ तहमद और जालीदार बनियान पहने आया था और सीधे शहनाज़ के कोठे पर चढ़ गया था।

    शंकर पनवाड़ी के सामने चबूतरे पर नीम-पागल चुन्नीलाल ने अपना बोरा बिछा दिया था और तामचीनी के मग्गे में चाय पीते हुए बड़बड़ा रहा था, ‘अरे ज़ालिम, उसी दिन हाथ क़लम करवा ले जिस दिन ग़लत सुर निकल जाए! अरे ज़ालिम…यहीं उतरकर आएगी…इसी बोरे पर सुहागरात होगी…ज़ालिम!’

    और तभी एक क्षण के लिए गली के मोड़ पर जुगनू को उसी नीली क़मीज़ वाले का शक हुआ था। शायद वह फिर लौटकर आया है और चुपके से कहीं चढ़ जाएगा। पर वह उसका भ्रम था। वह नहीं था, कोई और आदमी था।

    फिर बहुत दिन बाद वह लौटा था। और जुगनू की कोठरी में आते ही घर की तरह खाट पर पसर गया था। लेकिन जूते उतारने की फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हुई थी।

    ‘तुम अपना नाम तो बता दो?’ जुगनू ने बग़ल में लेटते हुए पूछा था।

    ‘मदनलाल…क्‍यों?’

    ‘ऐसा ही…यहाँ नहीं थे?’

    ‘जेल में था…गिरफ़्तारियाँ हो गई थीं, उसी में चला गया था…’

    ‘हड़ताल चल रही थी न…मालिकों ने बंद करवा दिया था। बड़ी मुश्किल से रिहाई हुई…’

    ‘इस हड़ताल-वड़ताल से कुछ होता भी है? काहे को की थी?’

    ‘बग़ैर नोटिस छँटनी हुई थी…तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। और भी बहुत-से मसले थे…जूते उतार लूँ?’ मदनलाल ने बहुत सकुचाते हुए कहा था।

    ‘उतार लो।’

    और किरमिच के जूतों और पसीने से सने हुए पैरों से जो भभक निकली थी, उससे जुगनू को कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई थी, धीरे-धीरे जैसे बू ही उसके चारों ओर समा गई थी…और फिर उसके बदन में भर गई थी।

    मदनलाल तो चला गया था, पर उसकी वह गंध रह गई थी। और उन्हीं दिनों सब पेशेवालियों को डॉक्टरी जाँच के लिए हाज़िर होना पड़ा था और डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि कोई पेशोदा मर्ज़ नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं…

    देखते-देखते उसकी खाँसी बढ़ गई थी। बुख़ार रहने लगा था। अम्मा अस्पताल ले जाकर दिखा आई थी पर रोग थमने में नहीं रहा था। धीरे-धीरे वह काम के लायक़ नहीं रह गई थी। एक दिन ख़ून थूका था तो बिलकीस ने आसमान सिर पर उठा लिया था, ‘अरे, इसे डलवाओ कहीं बाहर! हमें मरना है?’ तो अम्मा ने उसे डाँटा था, पर भीतर से वह भी बदल गई थी। तरह-तरह से उसने जुगनू को समझाया था कि वह अपनी सेहत की ख़ातिर कहीं और चली जाए। ज़रूरत के लिए सौ-पचास रुपए भी ले जाए, इस तरह लापरवाही करे…

    पर जुगनू की समझ में नहीं आता था कि वह कहाँ चली जाए। पैसा भी पास नहीं था और सौ-दो-सौ से कितने दिन कट सकते थे। आख़िर हारकर वह तपेदिक अस्पताल में भरती हो गई थी। धीरे-धीरे अम्मा का दिया और अपने पास का सारा रुपया ख़त्म हो गया था। चार महीने लगातार उसे सेनेटोरियम में रहना पड़ा था। उसके बाद भी छुट्टी नहीं मिली थी। हाँ, कहीं थोड़ी-बहुत देर के लिए आने-जाने पर रोक नहीं थी। वहाँ से निकलकर वह दो-चार बार अम्मा के पास आई थी तो अम्मा ने कहा था, ‘किसी को बताना मत बेटे कि कहाँ थी…मैंने तो यही कहा है कि रामपुर चली गई है अपनी बहन के पास, कुछ दिनों में वापस जाएगी…पर मुआ दारोग़ा बहुत परेशान करता था...उसे शक है कि यहीं-कहीं बैठने लगी है…’

    अम्मा की आँखों में अपनापन पाकर उसे बड़ा सहारा-सा मिला था। और अम्मा उसकी हालत देख-देखकर दुखी होती रही थी। सचमुच जुगनू का बदन झुलस-सा गया था…बाल बहुत-झीने हो गए थे और चेहरे की सुर्ख़ी ग़ायब हो गई थी।

    जुगनू जब भी शीशे में अपने को देखती, तो घबरा उठती थी। अब क्या होगा? कैसे बीतेगी यह पहाड़-सी बीमार ज़िंदगी! सहारा…कोई और सहारा भी तो नहीं, कोई हुनर भी नहीं…

    पेशे पर रोक लग जाने के बावजूद कई नई लड़कियाँ लखनऊ-बनारस से गई थीं और उन्होंने बाज़ार बिगाड़ रखा था। सुना था, शहनाज़ की हालत भी ख़राब हो गई थी और कलावती भूखों मरने की हालत में पहुँच गई थी।

    यह सब सुन-जानकर जुगनू का दिल घबराने लगा था।

    चलने से पहले उसने अम्मा से कुछ रुपए माँगे थे, तो वह अपना रोना रोने लगी और तंगहाली का बयान करने लगी थी। उसकी हालत भी ख़स्ता थी।

    और वहाँ से सेनेटोरियम लौटते हुए उसने उन सबकी ओर आसरे से भरी नज़रें डाली थीं, जिन्हें वह जानती थी, जो उफनती जवानी के दिनों में उसके पास आते-जाते रहे थे।

    मनसू किरानी को दुकान पर बैठा देखकर जुगनू के मन में नफ़रत-सी भर आई थी…उसका कमर पकड़ बैठ जाना और फिर जाँघें खुजलाते हुए कोठरी से जैसे-तैसे जाना…

    कंवरजीत होटलवाला मैला पाजामा पहने नोट गिन रहा था—उठने से पहले हमेशा ‘ओं…ओं…’ की डकारें लेता था, तो जुगनू का मन मिचलाने लगता था…

    जुगनू ने औरों को भी देखा था…जिनसे थोड़ी-बहुत भी मेल-मुलाक़ात रही थी।

    सेनेटोरियम में और बहुत दिन रुकना नहीं हुआ। आख़िर आना तो था ही। पर वह सभी की शुक्रगुज़ार थी कि उन्होंने मुसीबत और तक़लीफ़ के दिनों में आँखें नहीं पलटी थीं।

    और जो कुछ उसने जिससे लिया था, उसे नुस्ख़े के पीछे ही नोट कर लिया था। इतने दिनों में काफ़ी क़र्ज़ा चढ़ गया था। कंवरजीत होटल वाले ने बड़ा एहसान जताकर सैंतालिस रुपए दिए थे। मनसू ने उतना एहसान तो नहीं जताया था, पर रुपए जल्दी-से-जल्दी लौटा देने की बात ले ली थी-सैंतालीस रुपए से जैसे उसका कारबार ठप्प हुआ जा रहा था।

    संतराम फ़िटर ने बीस दिए थे और चलते-चलते बड़ा गंदा मज़ाक़ किया था, ‘सूद में एक रात…ठीक है न…’ पर उस गंदे मज़ाक़ से उसे लगा था कि आदमी की आँख अभी उस पर टिकती है। बदन गया-बीता नहीं हुआ है, जितना शायद वह समझ रही थी।

    तंगी के उन दिनों में उसने एक रोज़ मदनलाल से मिलकर भी तीस रुपए ले लिए थे। उसने बस यही कहा था, ‘ये चंदे के रुपए हैं, जल्दी दे दोगी तो ठीक रहेगा, मेरे पास भी इतना नहीं होता कि भर सकूँ!’ पर उस बात में निहायत बेचारगी थी। बहुत मजबूरी में उसने कहा था और साथ ही यह भी कहा था कि उसे जुगनू ग़लत समझे…उसकी उतनी औक़ात नहीं। और वह बिना कुछ और बोले पार्टी के दफ़्तर में चला गया था।

    ज़रूरत की वजह से दिल पर पत्थर रखकर जुगनू ने रुपए ले लिए थे, पर तक़लीफ़ भी हुई थी।

    और अब, जब से वह सेनेटोरियम से लौटी थी, तो पुलिसवाले अलग परेशान कर रहे थे। सात महीने का पैसा उन्हें नहीं मिला था। इस कोठे पर उन्होंने सबसे अलग-अलग रक़म बाँध रखी थी।

    लौटकर आने के बाद वह भीतर-ही-भीतर बड़ी कमज़ोरी-सी महसूस करती थी। बदन अब उतना झेल नहीं पाता था। कोई ज़्यादा छेड़ता-छाड़ता तो हलकी खाँसी आने लगती थी…और पाँच-पाँच, सात-सात मिनट के भीतर ही दम फूलने लगता…और लोग थे कि सीने पर ही सारा वज़न रख देते थे…

    रह-रहकर अब वैसी ही उलझन होती थी जैसी कि शुरू-शुरू में हुआ करती थी और उसे लगता था कि उसने यह सब जैसे अब पहली बार ही शुरू किया हो।

    बालों की एक पुरानी चोटी वह सात रुपए में कलावती से ख़रीद लाई थी और छातियों पर भी कप्स लगाने लगी थी। हर बार उन्हें निकालने और लगाने में बड़ी उलझन भी होती थी। कलफ़-लगी धोतियाँ पहनने से उसे हमेशा चिढ़ रही थी, पर अब कलफ़ लगी ही पहनती थी। बदन गुदाज़ लगता था।

    इतना सब करने के बावजूद आमदनी काफ़ी नहीं थी, कोई-कोई रात तो ख़ाली ही चली जाती थी। और अपनी कोठरी में अकेले लेटे हुए वह बहुत घबराती थी…यह पहाड़-सी ज़िंदगी…दिन-दिन टूटता हुआ शरीर…!’

    नपुंसक लोगों से उसे बेहद परेशानी होती थी। वे हद से ज़्यादा परेशान करते थे…बोटी-बोटी टटोलते रहते थे और जोश आने के इंतज़ार में बहुत सताते थे। चट-औचट हाथ डालते थे और तरह-तरह की गंदी फ़रमाइशें करते थे।

    इससे अच्छे तो वे थे, भरी बंदूक़ की तरह आते थे…और अपना काम करके चलते बनते थे। बकवास करते, ज़्यादा सताते थे। पर आमदनी इतनी भी नहीं थी कि गुज़ारा हो जाए। क़र्ज़ा उतरने में नहीं आता था।

    नुस्ख़े के पीछे सबके रुपए नोट कर रखे थे…पर उन्हें चुकाने लायक़ पैसा कभी हाथ में नहीं आता था।

    आख़िर और कोई तरीक़ा नहीं रह गया था। जाँघ के जोड़ पर निकला फोड़ा दिखाने के लिए जुगनू जब जर्राह के पास जा रही थी, तो रास्ते में मनसू ने टोक दिया था, ‘बहुत दिन हो गए…अब तो धंधा भी चल रहा है!’

    चलते-चलते वे एक तरफ़ को गए थे। तब बहुत मजबूरी में उसने मनसू से कहा था, ‘एक पैसा नहीं बचता, क्या करूँ…तुमने तो आना जाना भी छोड़ दिया है…’

    ‘हमने तो गंगाजली उठा ली है…रंडीबाज़ी नहीं करेंगे। तुलसी की कंठी पहन ली है, यह देखो!’ मनसू बोला तो जुगनू को हलकी-सी हँसी गई थी और वह आँखें फाड़े देखता रह गया था।

    जाँघ के जोड़ पर निकले फोड़े के कारण चलने में जुगनू को काफ़ी तक़लीफ़ हो रही थी। वह टाँगें फैला-फैलाकर चल रही थी…मनसू का मन डोल रहा था। गली के मोड़ पर आकर मनसू ने धीरे-से कहा था, ‘तो फिर…बताया नहीं तुमने…कब तक इंतिज़ार करोगी?’

    ‘क़ुव्वत हो तो वसूल कर ले जाओ!’ जुगनू ने अपनी मजबूरी को पीते हुए बनावटी शोख़ी से कहा था और गली में मुड़ गई थी। अपनी ही बात पर उसे बड़ी शर्म आई थी…फिर लगा था कि ठीक ही तो कहा उसने…ख़ामख़्वाह की इज़्ज़त का क्‍या मतलब? और फिर किसी का क़र्ज़ा लेकर क्यों मरे? जो उतर जाए सो अच्छा ही है।

    जर्राह ने बताया था कि अभी फोड़ा पकने में दिन लगेंगे। बाँधने के लिए पूल्टिस दे दी थी। जब वह लौटी तो दुपहर हो रही थी। सब अपने-अपने चबूतरों पर बैठी मिसकौट कर रही थीं। यही वक़्त होता है, जब सब जागकर उठ जाती हैं और शाम की तैयारी से पहले मिल-बैठ लेती हैं। गली में से कच्ची उमर के लौंडों का गोल गुज़र रहा था। वे गंदे इशारे कर-कर के औरतों को चिढ़ा रहे थे और बापों को दी जानेवाली गालियों का मज़ा ले रहे थे। आवारा लौंडे रोज़ गुज़रते थे…और उनका रोज़ का यही शग़ल था। ढलती उमर की औरतें गंदे इशारे देख-देखकर उनके बापों को गालियाँ देती थीं और जवान औरतें मुस्कुराती रहती थीं। कभी-कभी हसन, बनवारी या लँगड़ा मातादीन उन लौंडों को दौड़ा भी देता था, तब वे गली के मुहाने पर पहुँचकर गालियाँ देते थे और नेकर या घुटना उठा-उठाकर अश्लील हरकतें करते थे। लौंडों का यह गोल मस्जिद के पीछे वाली बस्ती से आया करता था…

    दुपहर में ही दुख-सुख की बातें हुआ करती थीं। और चुग़ली-चबाव भी। ज़्यादातर चुग़ली उनकी हुआ करती थी, जो इस मुहल्ले से उठकर शरीफ़ों की बस्तियों में चली गई थीं…जिन्हें छाँट-छाँटकर इब्राहीम ले गया था।

    शाम होते ही गली गरमाने लगती थी। फूल-हारवाले जाते थे। पनवाड़ियों की दुकानें सज जाती और ग़फ़ूर की दुकान पर आकर एक पुलिसवाला बैठ जाता था…उसके बैठते ही ग़फ़ूर खुलेआम बोतलें बेचना शुरू कर देता था।

    जुगनू शाम को पुल्टिस हटा देती थी और बड़े बेमन से सिंगार करके बैठ जाती थी। फोड़ा गाँठ बनकर रह गया था, दर्द बहुत करता था। फिर भी वह जैसे-तैसे एकाध को ख़ुश कर ही देती थी।

    बारजे पर बैठे-बैठे जब वह सोच में डूब जाती और बेसहारा पहाड़-सी ज़िंदगी सामने फैल जाती, तब बहुत घबराती थी। आख़िर क्या होगा? वह तो दाने-दाने को मोहताज हो जाएगी। लँगड़ी घोड़ी की ज़िंदगी वह कैसे जी पाएगी?…क्या उसे भी मस्जिद की सीढ़ियों पर बुर्क़ा पहनकर बैठना होगा और अल्लाह के नाम पर हाथ फैलाना होगा? अख़्तरी की तरह…बिहब्बो और चंपा की तरह…जी जब बहुत घबराता तो वह ज़हर खाने की बात सोचती…या डूब मरने की।

    सैकड़ों मरद आए और गए…पर कोई एक ऐसा नहीं, जिसकी परछाईं तले उम्र कट जाए।

    ज़रा ज़्यादा जान-पहचान तो उन्हीं से थी, जिनसे रुपए लिए थे। पर आसरा वहाँ भी नहीं था। किसका क्‍या भरोसा…कौन कहाँ चला जाए! उम्र के साथ सब लौट जाते हैं। जहाँ बाल-बच्चे बड़े हुए कि उनका आना-जाना बंद। जहाँ उम्र ढली कि आदमी ने दूसरा शौक़ और शग़ल खोजा…तब कौन आएगा? पुरानी पहचानी शक्लें भी नहीं दिखाई देंगी। तब कितना अजीब और अकेला लगेगा!…बीते हुए वक़्त में बैठकर जीना कितना तकलीफ़देह होगा…!

    पिछले दिनों में उसे बस यही एक तस्कीन मिली है कि सभी क़र्ज़दार अपना पैसा वसूलने के लिए उसके पास आते रहे हैं…उसे उम्मीद थी कि मनसू ज़रूर आएगा, वह अपना पैसा ज़रूर वसूल करेगा…और बस आया था।

    मनसू के बदन से वैसा ही भभका उठा था और वह आया भी ग्यारह के बाद ही था और निबट जाने के बाद कमर पकड़कर बैठ गया था। जुगनू भी मस्त पड़ी हुई थी। फोड़े पर दबाव पड़ने की वजह से वह बिल-बिला उठी थी। और उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मनसू को उठाकर दरवाज़े तक पहुँचा आए ताकि वह हमेशा की तरह जाँघें खुजलाता हुआ चला जाए।

    मनसू की अकड़ी कमर जब कुछ ढीली पड़ी, तो बोला था, ‘याद रखना…’

    जुगनू ने ‘अच्छा’ कहा था और मनसू को सहारा देकर उठा दिया था।

    रात काफ़ी हो गई थी। वह वहीं पड़ी-पड़ी कोठरी की दीवारों को देखती रही थी। पर उनमें देखने को कुछ भी नहीं था। मटमैली भद्दी दीवारें जिन पर कभी उसने रद्‌दी रिसालों से काट-काटकर फ़िल्मी सितारों की तस्वीरें चिपकाई थीं। कोने में कील पर एक डोरी में पुरानी चूड़ियों का लच्छा लटक रहा था और दीवार की किनारी के सहारे नेलपॉलिश की ख़ाली शीशी पड़ी थी…

    खाट के नीचे गूदड़ था और टीन का बक्सा-बकसे में बारह बरस पहले का एक पर्चा पड़ा हुआ है, जिसके हुरुफ़ भी उड़ गए हैं…अब उस पर्चे का कोई मतलब नहीं रह गया है। मुसव्विदा मुर्दा हो चुका है। और अब कौन जाता है वापस…और कौन बुलाता है वापस…ज़िंदगियों के बीच से वक़्त का दरिया किनारे काटता हुआ निकल गया है…कहीं कोई नहीं है…कोई कहीं नहीं है।

    सुबह उठी तो बदन टूट रहा था। फोड़े में बहुत दर्द था। जाँघ का जोड़ फटा जा-रहा था। उसने फिर पुल्टिस बाँध ली थी। और शाम को जैसे-तैसे तैयार हो गई थी। कोठरी में जाकर सबका हिसाब जोड़ने लगी थी। अलमारी की दीवार पर उसने निशान लगा रखे थे कि कौन कितनी मर्तबा आया था और कितने रुपए पट गए थे। संतराम फ़िटर सचमुच बहुत बदतमीज़ी से पेश आया था। बीस रुपए के बदले में वह चार बार हो गया था और पांचवीं बार जब जाने लगा था, तो जुगनू ने बहुत आहिस्ता से कहा था, ‘यूँ ही जा रहे हो?’

    ‘क्यों?’ संतराम की निगाहों में शैतानी थी।

    ‘रुपया तो पिछली बार ही पट गया था!’ उसने बहुत झिझकते हुए पर साफ़-साफ़ कहा था।

    ‘एक बारी सूद की?’ संतराम ने बड़े गंदे लहज़े में कहा था, ‘फोकट का पैसा नहीं आता, समझी?’ और कोठरी से निकलकर सीढ़ियाँ उतर गया था।

    जुगनू हताश-सी देखती रह गई थी। और हमजोलियों की तरह वह झगड़ा भी नहीं कर पाती थी। चीख़-चिल्ला भी नहीं पाती थी और आदमी को बे-इज़्ज़त करके भेजते नहीं बनता था।

    कंवरजीत होटलवाले के सबसे ज़्यादा पैसे चढ़े हुए थे। वह सिर्फ़ तीन बार आया था। कुल पंद्रह रुपए पटे थे। मनसू के भी बीस उतर गए थे…हलकी राहत मिली थी उसे कि तभी फोड़ा टीस उठा था। वह टाँगें फैलाकर वहाँ बिस्तर पर लेट गई थी।

    दरवाज़े पर आहट हुई तो देखा मदनलाल था। उसे देखते ही एक क्षण को वह भीतर-ही-भीतर झल्ला उठी थी। जैसे एक और सूदखोर पठान सामने आकर खड़ा हो गया हो…अपनी वसूलयाबी के लिए।

    मदनलाल इस बीच नहीं आया था। इस वक़्त उसका आना जुगनू को खल गया था। फिर भी बेचारगी में उसने उसे भीतर बुला लिया था…मदनलाल खाट पर बैठ गया था। अपना थैला उसने सिरहाने सरका दिया था। जुगनू ख़ामोशी से थैले को टटोलने लगी थो। उसमें कुछ पोस्टर थे और तह किया हुआ एक झंडा। एकाध पुराने-से रजिस्टर भी थे। उसका दिल धड़क उठा था कि कहीं वह नक़द पैसे की माँग कर दे। फोड़ा अलग टीस रहा था।

    मदनलाल वही पुराने कपड़े पहने हुए था और वही जूते। पसीने की गंध पूरी कोठरी में भर गई थी।

    ‘बहुत दिनों बाद आना हुआ!’ जैसे-तैसे जुगनू ने कहा।

    ‘जूते उतार लूँ!’ मदनलाल ने हलकेपन से कहा था।

    ‘उतार लो…’

    ‘दरवाज़ा बंद कर दूँ?’

    ‘आज बहुत तक़लीफ़ है…जाँघ के जोड़ पर फोड़ा निकला हुआ है। सीधी तो लेट भी जाऊँ पर जाँघ मोड़ते जान निकलती है…’ जुगनू ने कहा था तो मदनलाल तस्मे खोलते-खोलते ठिठक गया था। मन-ही-मन वह शरमा भी गया था। जुगनू भी बहुत अटपटा महसूस कर रही थी। पर मदनलाल ने उसे उबार लिया था। इधर-उधर की बातें करता रहा था, पर हर क्षण जुगनू को डर लगा रहता था कि घूम-फिर कर बात रुपयों पर जाए…

    ‘अच्छा तो चलता हूँ…’ मदनलाल थैला लेकर खड़ा हो गया था। उसने बहुत भरी-भरी नज़रों से जुगनू को देखा था…जैसे आज लौटते हुए उसे तक़लीफ़ हो रही थी।

    और सारी बातों के बावजूद जुगनू अब दुबारा उससे रुकने को कह भी नहीं सकती थी। बहुत संकोच से उसने कहा था, ‘वह तुम्हारे रुपए…’

    ‘उनके लिए नहीं…’ मदनलाल ने कहा, ‘तुम्हारे लिए आया था!’

    उसकी बग़लों के नीचे भरा हुआ पसीना स्याही के धब्बे की तरह चमक रहा था। बाँहों की उभरी हुई नसें पसीजी हुईं थी। उसने पसीजे हाथ से जुगनू का हाथ पकड़ा था, तो लगा था जैसे हथेली में गृदारी रोटी की हलकी-सी तपिश गई हो।

    ‘मैं फिर आऊँगा…’ कहकर मदनलाल चला गया था। जुगनू सीधी बारजे पर गई थी। मन में कहीं अफ़सोस भी था कि उसे ऐसे ही लौट जाना पड़ा। मदनलाल को वह देखती रही थी…वह गली में तीन-चार घर पार करके खड़ा हो गया था। उसका गली में रुकना जैसे उससे सहा नहीं जा रहा था। फिर वह ऊपर बारजे पर एक नज़र डालकर पाँचवें कोठे की सीढ़ियाँ चढ़ गया था। पता नहीं, कैसी तिलमिलाहट उसे हुई थी। फोड़ा और ज़ोर से टीस उठा था!…फिर धीरे-धीरे जलन शांत हो गई थी। अगर उसने रोका होता तो वह शायद नहीं जाता…आख़िर उसे भी तो जलन बर्दाश्त होने लगी थी। वह तो सिर्फ़ उसकी तक़लीफ़ का ख़याल करके लौट गया था, उसके पसीजे हाथ की गरमाहट में किसी तरह का धोखा नहीं था…

    तभी कंवरजीत गया था। एकाएक लगा था जैसे कोई पराया घर में घुस आया हो। पर अपने को संभालते हुए उसने मुस्कुराकर उसे देखा था।

    बिलकीस उधर कोने में खड़ी किसी पहलवान से बात कर रही थी। जुगनू चुपचाप कंवरजीत को लेकर कोठरी में चली गई थी। दरवाज़े भेड़ लिए थे। कंवरजीत ने कुंडी चढ़ा दी थी।

    ‘आज बहुत तक़लीफ़ है…फोड़ा पक गया है।’ जुगनू ने जैसे आजिज़ी से उसे समझाया था।

    ‘अभी तक ठीक नहीं हुआ?’ कंवरजीत ने पूछा था।

    ‘हूँ, शायद दो-तीन दिन में फट जाए!’ जुगनू ने जैसे माफ़ी माँगी थी।

    ‘बिल्कुल तक़लीफ़ नहीं होने दूँगा…बहुत आसानी से…’ कहते हुए कंवरजीत खाट पर लेट गया था।

    ‘आज…’ जुगनू ने कहा, तो उसने बहुत नरमी से उसे अपनी बग़ल में लिटा लिया था और बोला था, ‘ज़रा-सी भी तक़लीफ़ नहीं होने दूँगा…’

    जुगनू बहुत बेबस हो गई थी। समझ में नहीं रहा था कि उसे कैसे समझाए, तभी उसने उसकी छातियों पर हाथ रख लिया था। धीरे-से करवट लेकर जुगनू ने लाइट बुझा दी थी और ब्लाउज़ में हाथ डालकर कप्स निकाले और खाट के नीचे सरका दिए थे।

    बहुत बार उसने कराह दबाई और कंवरजीत को रोका। आँखों के सामने अँधेरा छा-छा जाता था और ज़ोर पड़ते ही जाँघ फटने लगती थी। कंवरजीत तीन-चार बार रुका, फिर जैसे उस पर शैतान सवार हो गया था…

    ‘अरे, रुक तो…’ वह चीख़ा था और जुगनू की टाँगें दबाकर वह हावी हो गया था।

    ‘अरी, अम्मा रे…मार डाला…!’ वह पूरी आवाज़ से चीख़ी थी जैसे किसी ने क़त्ल कर दिया हो और छटपटाकर बेहोश-सी हो गई थी।

    ‘साली!’ हाँफ़ते हुए कंवरजीत बोला और उसे छोड़कर निढाल-सा बैठ गया था।

    कुछेक मिनट बाद जुगनू को होश आया था। दर्द कुछ थमा था तो उसके हाथ-पैर हिले थे। तकिए के नीचे से कपड़ा निकालकर उसने लाइट जलाई थी, तो पूरी जाँघ फटे हुए फोड़े के मवाद से भरी हुई थी और कंवरजीत उससे बिल्कुल अलग बैठा ‘ओं…ओं…’ करके डकारें ले रहा था।

    ‘फूट गया न…’ वह खड़ा होता हुआ बोला था, तो उसने जाँघ पर साड़ी खिसका ली थी।

    ‘ध्यान रखना, चौथी बारी हुई!’ कंवरजीत ने कहा और कुंडी खोलकर कोठरी से बाहर निकल गया था।

    साड़ी खिसकाकर वह मवाद पोंछने लगी थी। एकाएक मन बहुत घबरा उठा था। उसने धीरे-से फत्ते को आवाज़ दी थी। फत्ते आया था, तो उसने घड़े से पानी निकलवाया था और कपड़ा भिगोकर मवाद पोंछते हुए बोली थी, ‘देख, फत्ते…उधर विमला के घर एक आदमी गया है…चला गया हो तो ज़रा बुला ला। नीली क़मीज़ पहने है, थैला है उसके पास।’

    ‘गाहक आदमी है?’ फत्ते बोला था।

    ‘नहीं, आपसी का आदमी है!’ जुगनू ने कहा, ‘ज़रा-सा पानी और दे दे…’

    फत्ते घड़े से पानी निकाल कर लाया, तो फिर सोचते हुए बोली, ‘रहने दे…तू अपना काम कर। वह कह गया है, जाएगा कभी…’ कहते-कहते उसने फोड़े को हलके-से दाबा, तो कुछ और मवाद निकल पड़ा था; और दर्द से फिर चेहरे पर पसीना छलछला आया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दस प्रतिनिधि कहानियाँ (पृष्ठ 98)
    • रचनाकार : कमलेश्वर
    • प्रकाशन : किताबघर, दिल्ली
    • संस्करण : 2007
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