यह उस बीते हुए युग की कहानी है जब यूनान ऐश्वर्य और वैभव के शिखर पर था और संसार की सर्वोत्तम संतान यूनान में उत्पन्न होती थी। रात का समय था। काव्य और कला को कभी न भूलने वाले प्राचीन एथेंस पर अंधकार छाया हुआ था। चारों तरफ़ सन्नाटा था, चारों ओर निस्तब्धता थी—सब बाज़ार ख़ाली थे, सब गलियाँ निर्जन थीं और यह सुंदर और आबाद नगरी रात के अँधेरे में दूर से इस तरह दिखाई देती थी, जैसे किसी जंगल मे धुंधली-सी अपूर्ण छाया का पड़ाव पड़ा हो।
पूरी नगरी पूरा विश्राम कर रही थी। उसके विद्वान विलासी बेटे अपनी-अपनी शय्या पर बेसुध पड़े थे। रंग-शालाएँ ख़ाली हो चुकी थीं, विलास-भवनों के दीपक बुझा दिए गए थे और द्वारपालों की आँखों की पलकें नींद के लगातार आक्रमणों के सामने झुकी जाती थीं; परंतु एक नवयुवक की आँखें नींद की शांति और शांति की नींद से वंचित थीं।
यह देवकुलीश एक विद्यार्थी था, जिसकी आत्मा सत्य-दर्शन की प्यासी थी। वह एक बहुत बड़े धनवान का बेटा था, उसकी संपत्ति उसके लिए हर तरह का विलास ख़रीद सकती थी, वह अत्यंत मनोहर था, यूनान-माता की सबसे सुंदर बेटियाँ उसके प्रेम में पागल हो रही थीं। वह बहुत उच्चकोटि का तत्त्व-वेत्ता था। उसकी साधारण युक्तियाँ भी विद्यालय के अध्यापकों की पहुँच से बाहर थी, परंतु उसे इस पर भी शांति न थी। वह सत्यार्थी था। वह सत्य की खोज में अपने आपको मिटा देने पर तुला हुआ था। वह इस रास्ते में अपना सर्वस्व निछावर कर देने को तैयार था। मर्त्य-लोक की नाशवान ख़ुशियाँ उसके लिए अर्थहीन वस्तुएँ थीं। यौवन और सौंदर्य की सजीव मूर्तियों में उसके लिए कोई आकर्षण न था। वह चाहता था, किसी तरह सत्य को एक बार उसके वास्तविक रूप में देख ले। वह सत्य को बेपरदा, नंगा देखना चाहता था। ऐसा नहीं जैसा वह दिखाई देता है, बल्कि ऐसा जैसा वह वास्तव में है। वह अपनी इस मनोरथ सिद्धि के लिए सब कुछ करने को तैयार था।
देवकुलीश रात-दिन पढ़ता था।
पढ़ता था और सोचता था। सोचता था और पढ़ता था, मगर उसके स्वास्थ्य, चिंतन और मनन से उसके प्यासे हृदय की प्यास मिटती न थी, बढ़ती जाती थी। सत्य का रोगी चिकित्सा से और ज़्यादा बीमार होता जाता था।
(2)
विद्यालय के आँगन में विशाल एक ऊँचा चबूतरा था, जिस पर पता नहीं कब से मिनर्वा, ज्ञान और विवेक की देवी, संगमरमर के वस्त्र पहने खड़ी थी। देवकुलीश पत्थर की इस मूर्ति के बरफ़-समान पैरों के निकट जाकर घंटों बैठा रहता और संसार के रहस्य पर चिंतन किया करता था। यहाँ तक कि उसके मित्रों और सहपाठियों ने समझ लिया कि इसके मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो गया है। वे उसकी इस शोचनीय दशा को देखते थे और कुढ़ते थे।
उस रात भी देवकुलीश देवी के पैरों के निकट बैठा था और रो रहा था—कृपा कर! ऐ विद्या और विज्ञान की सबसे बड़ी देवी, कृपा कर! मेरे मन की अभिलाषा पूरी कर। मैं कई वर्षों से तेरी पूजा कर रहा हूँ। मैंने कई रातें तेरे पैरों को अपने आँसुओं से धोने में गुज़ार दी हैं। मैंने कई दिन केवल तेरे ध्यान में बिता दिए हैं। मेरी प्रार्थना के शब्द सुन और उन्हें स्वीकार कर!
देवकुलीश यह कहकर खड़ा हो गया और देवी के तेजपूर्ण मुँह की तरफ़ देखने लगा, मगर वह उसी तरह चुपचाप थी।
इतने में चंद्रमा आकाश में उदय हुआ। उसके सुवर्ण और सुशीतन प्रकाश में देवी की मूर्ति और भी मनोहर दिखाई देने लगी।
अब देवकुलीश फिर मूर्ति के चरणों में बैठा था और फिर उसी तरह बालकों के सदृश रो-रोकर प्रार्थना कर रहा था, मानो वह संगमरमर की मूर्ति न थी, इस दुनिया की जीती-जागती स्त्री थी, जो सुनती भी है, जवाब भी देती है। बुद्धिमान देवकुलीश ने पागलपन के आवेश में कहा—आज की रात फ़ैसले की रात है। ऐ ज्ञान और विवेक की रानी। तूने मेरे दिल में जिज्ञासा की आग सुलगाई है, तू ही उसे सत्य के शीतल जल से शांत कर सकती है। सत्य कहाँ है?—अजर, अमर, अटल सत्य! वह सत्य जिस पर बुद्धिमान लोग शास्त्रार्थ करते हैं, जिसका पंडित चिंतन करते हैं, जिसे लोग एकांत में तलाश करते हैं, मंदिरों में ढूँढ़ते हैं, जिसके लिए दूर-दूर भटकते हैं। मैं वह उच्च कोटि का सत्य देखने का अभिलाषी हूँ। नहीं तो मैं चाँद की उज्ज्वल चाँदनी के सामने तेरे पैरों की सौगंध खाकर कहता हूँ, कि अपने निरर्थक जीवन को यहीं, इसी जगह समाप्त कर दूँगा। मुझे सत्यहीन जीवन की कोई आवश्यकता नहीं।
यह कहकर देवकुलीश ने अपनी चादर के अंदर से एक कटार निकाली और आत्महत्या करने को तैयार हो गया।
एकाएक सफ़ेद पत्थर की मूर्ति सजीव हो गई। उसने देवकुलीश के हाथ से कटार छीन ली, उसे आँगन के एक अँधेरे कोने में फेंक दिया और कहा...देवकुलीश।
देवीकुलीश काँपता हुआ खड़ा हो गया और आशा, आनंद और संदेह की दृष्टि से देवी की ओर देखने लगा। क्या यह सच है?
हाँ, यह सच था, देवी के होंठ सचमुच हिल रहे थे—देवकुलीश!
देवकुलीश!—देवकुलीश देवी का एक-एक शब्द पूरे ध्यान से सुन रहा था।
देवकुलीश! मौत का मार्ग अँधेरा है। तू मेरा पुजारी, मेरी आँखों के सामने इस मार्ग पर नहीं जा सकता। मेरे लिए असह्य है कि मेरे सामने कोई आत्महत्या कर जाए। बोल, क्या माँगता है? मैं तेरी हर एक मनोकामना पूरी करने को तैयार हूँ।
देवकुलीश का दिल सफलता के आनंद से धड़क रहा था। उसके मुँह से शब्द न निकलते थे। वह देवी के पैरों के निकट बैठ गया, और श्रद्धाभाव से बोला—पवित्र देवी! मैं सत्य को उसके अपने असली स्वरूप में देखना चाहता हूँ। नंगा, बेपरदा, खुला सत्य। और कुछ नहीं, बस सत्य!
तू सत्य को जानना चाहता है?—देवी के होंठों से आवाज़ आई—तू आप सत्य है। यह आँगन भी सत्य है। मैं सत्य हूँ। आँखें खोल, सत्य दुनिया के चप्पे-चप्पे में मौजूद है।
देवकुलीश—मगर उस पर परदे पड़े हुए है।
देवी—विवेक की आँख उन परदों के अंदर का दृश्य भी देख सकती है।
देवकुलीश—पवित्र माता! में सत्य को विवेक से नहीं, आँखों से देखना चाहता हूँ। मैं सोचकर नहीं देखना चाहता, देखकर सोचना चाहता हूँ।
देवी ने अपना पत्थर का सफ़ेद, ठंडा, भारी हाथ देवकुलीश के कंधे पर रख दिया और मीठे स्वर में बोली—बेपरदा, नंगा सत्य आज तक दुनिया के किसी बेटे ने नहीं देखा, न देवताओं ने किसी मनुष्य को यह वरदान दिया है। तू अन्न का कीड़ा है, तेरी आँतों में यह दृश्य देखने की शक्ति कहाँ? मेरा परामर्श है यह ख़याल छोड़ दे और अपने लिए कोई और वस्तु माँग, मैं अभी इसी जगह दूँगी।
देवकुलीश—यूनान की सबसे बड़ी देवी! मैं केवल नंगा सत्य देखना चाहता हूँ और कुछ नहीं चाहता।
देवी—मगर इसका मूल्य?
देवकुलीश—जो कुछ तू माँगे।
देवी—धन, दौलत, सौंदर्य यह सब तुझसे छूट जाएँगे। तुझे दुनिया को चाँद और सूरज के प्रकाश से भी वंचित करना होगा, इस यज्ञ में तुझे अपने जीवन की भी आहुति देनी पड़े। बोल! क्या अब भी तू सत्य का नंगा रूप देखना चाहता है?
देवकुलीश—मुझे सब कुछ स्वीकार है।
देवी ने सिर झुका लिया।
देवकुलीश—परमेश्वर की सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो मैं इसके लिए न त्याग सकूँ।
देवी ने फिर सिर उठाया और मुस्कराकर कहा—बहुत अच्छा! तू सत्य को देख लेगा, तुझे सत्य दिखा दिया जाएगा, सत्य का नंगा रूप, तेरे सामने होगा, परंतु एक बार नहीं, धीरे-धीरे चल! आज सत्य का एक परदा उठा, बाक़ी एक वर्ष के बाद!
(3)
यह कहते-कहते देवी ने अपनी सफ़ेद पत्थर की चादर उतारकर चबूतरे पर रख दी और देवकुलीश को गोद में उठा लिया। देखते-देखते देवी के दोनों कंधों पर परियों के से दो पर निकल आए। देवी ने पर खोले, और हवा में उड़ने लगी। पहले शहर, मंदिरो के कलश, पर्वत, फिर चाँद, तारे, बादल सब नीचे रह गए। देवी देवकुलीश को लिए आकाश में उड़ी जा रही थी। थोड़ी देर बाद उसने देवकुलीश को बादलों के एक पहाड़ पर खड़ा कर दिया! देवकुलीश ने देखा, पृथ्वी उसके पाँव तले बहुत दूर, बहुत नीचे एक छोटे-से तारे के समान टिमटिमा रही है, और थी वह यह दुनिया, जिसको वह इतना बड़ा समझ रहा था; मगर देवकुलीश का ध्यान इस ओर न था। उसने अपने पास छाया में छिपी हुई एक धुँधली सी चीज़ देखी, और देवी से पूछा—यह क्या है?
देवी—यही सत्य है। यह छिपकर यहाँ रहता है, यहीं से तेरी ओर अनगिनत दूसरी दुनियाओं को अपनी दिव्य-ज्योति भेजता है। इसी के धुँधले प्रकाश में बैठकर सयाने लोग दुनिया की पहेलियाँ हल करते हैं, और गुरु अपने शिष्यों को जीवन की शिक्षा देते हैं। यही प्रकाश सृष्टि का सूरज है, यही ज्योति मानव-चरित्र का आदर्श है। तू कहेगा, यह तो कुछ ज़्यादा प्रकाशमान नहीं, परंतु देवकुलीश! तेरे शहर के निकट जो नदी बहती है, यदि उसकी सारी रेत का एक-एक कण एक-एक सूरज बन जाए, तब भी उसमें इतना प्रकाश न होगा, जितना इस पहाड़ की छाया में है, मगर वह परदों में छिपा हुआ है। चल, आगे बढ़ और इसका एक परदा फाड़ दे।
देवकुलीश ने एक परदा फाड़ दिया। इसके साथ ही उसे ऐसा मालूम हुआ, जैसे संसार में एक नवीन प्रकार का प्रकाश फैल गया है। सच की छाया अब पहले से ज़्यादा साफ़ और चमकदार थी। देवी देवकुलीश को फिर एथेंस में उड़ा लाई और अपनी संगमरमर की चादर ओढ़कर फिर उसी चबूतरे पर उसी तरह चुपचाप खड़ी हो गई।
अव देवकुलीश की दृष्टि में चाँदी और सोने का कोई मूल्य न था। वह लोगों को दौलत के पीछे भागते देखता तो उसे आश्चर्य होता था। वह चाँदी को सफ़ेद लोहा, और सोने को पीला लोहा कहता था, और इनकी प्राप्ति के लिए फिर अपना परिश्रम नष्ट न करता था। उसे पढ़ने की धुन थी, दिन रात पढ़ता रहता था। उसके बाप ने उसका साधु-स्वभाव देख कह दिया कि इसे मेरी जायदाद में से कुछ न मिलेगा, परंतु देवकुलीश को इसकी ज़रा भी चिंता न थी। उसके मित्र-संबंधी कहते—देवकुलीश! यह आयु जवानी और गर्म ख़ून की है। सफ़ेद बालों और झुकी हुई कमर का ज़माना शुरू होने से पहले-पहल कुछ जमा कर ले। नहीं फिर बाद में पछताएगा।
देवकुलीश उनकी तरफ़ अद्भुत दृष्टि से देखता और कहता क्या कह रहे हो, मैं कुछ नहीं समझा।
एथेंस के एक बहुत अमीर की कुँआरी बेटी अब भी देवकुलीश की मोटी-मोटी काली आँखों की दीवानी थी। वह देवकुलीश की इस दशा को देखती और कुढ़ती थी। देवकुलीश के खाने-पीने का प्रबंध वही करती थी, वर्ना वह भूखा-प्यासा मर जाता।
इसी तरह एक साल के तीन सौ पैंसठ दिन पूरे हो गए। रात का समय था, एथेंस पर फिर अंधकारपूर्ण सन्नाटा छाया हुआ था। देवकुलीश ने फिर देवी के पैरों पर सिर झुकाया। देवी उसे फिर बादलों के पहाड़ ले गई और देवकुलीश ने सत्य का दूसरा परदा फाड़ दिया। इस बार सत्य का प्रकाश और भी साफ़ हो गया। देवकुलीश ने उसे देखा और आँखों को वह ज्ञानचक्षु मिल गए, जो यौवन और सुकुमारता के लाल लहू के पीछे छिपे हुए बुढ़ापे की एक-एक झुर्री को देख सकते हैं। फिर वह अपनी बनावट और अविद्या की दुनिया को वापस चला आया। देवी फिर संगमरमर का बुत बनकर अपनी जगह पर खड़ी हो गई।
(4)
एक दिन उसके मित्र ने कहा—देवकुलीश आज यूनान की सब कुँआरी लड़कियाँ एथेंस मे जमा हैं और आज यूनान की सबसे सुंदरी युवती को सौंदर्य का पहला इनाम दिया जाएगा। क्या तू भी चलेगा?
देवकुलीश ने उसकी ओर मुस्कराकर देखा और कहा—सत्य वहाँ नहीं है।
दूसरे दिन एक अध्यापक ने कहा—आज यूनान के सारे समझदार लोग विद्यालय में जमा हैं। क्या तुम उनसे मिलोगे?
देवकुलीश ने ठंडी आह भरकर जवाब दिया—सत्य वहाँ भी नहीं है।
तीसरे दिन एक महंत ने कहा—आज चाँद देवी के बड़े मंदिर में देवताओं की पूजा होगी। क्या तुम भी आओगे?
देवकुलीश ने लंबी आह खींची और कहा—सत्य वहाँ भी नहीं है। और इस तरह इस सत्यार्थी ने जवानी ही में जवानी के सारे प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर ली। अब वह पूरा महंत था, मगर वह एथेंस के किसी मेले में नज़र न आता था, उसकी आवाज़ किसी सभा में न सुनाई देती थी।
सत्यार्थी साल भर एकांत में पढ़ता रहता और इसके बाद बादलों के पहाड़ पर जाकर सत्य का एक परदा फाड़ आता था। इसी तरह कई वर्ष बीत गए। उसका ज्ञान दिन-पर-दिन बढ़ता गया; मगर उसकी आँखें अंदर धँस गई थीं, कमर झुक चुकी थी, सिर के सारे बाल सफ़ेद हो गए थे। उसने सत्य की खोज में अपनी जवानी बुढ़ापे की भेंट कर दी थी, मगर उसे इसका दुःख न था, क्योंकि वह जवानी और बुढ़ापे दोनों की सत्ता से परिचित हो चुका था।
और लोग यह समझते थे कि देवकुलीश ने अपने लिए अपनी कोठरी को समाधि बना लिया है।
(5)
आख़िर वह प्यारी रात आ गई, जिसकी प्रतीक्षा में देवकुलीश को अपने जीवन का एक-एक क्षण एक-एक वर्ष, एक-एक शताब्दी से भी लंबा मालूम होता था।
आज सत्य के मुँह से अंतिम परदा उठेगा! आज वह सत्य को नंगा, बे-परदा देखेगा जिसे संसार के किसी नश्वर बेटे ने आज तक नहीं देखा। आज उसके जीवन की सबसे बड़ी साध पूरी हो जाएगी।
आधी रात को उसे विवेक और विज्ञान की देवी ने अंतिम बार गोद में उठाया, और बादलों के पहाड़ पर ले जाकर खड़ा कर दिया।
देवकुलीश ने सत्य की ओर धीर होकर देखा।
देवी ने कहा—देवकुलीश। देख, इसका प्रकाश कैसा साफ़, कैसा तेज़ है। आज तक तूने इसके जितने परदे उतारे हैं, वे इसके परदे न थे, तेरी बुद्धि के परदे थे। सत्य का एक ही परदा है, आगे बढ़ और उसे उतार दे; परंतु अगर तू चाहे, तो अब भी लौट चल। मैं तुझे सातों समुंद्रों के मोती और दुनिया का सारा सोना देने को तैयार हूँ, तेरा गया हुआ स्वास्थ्य वापस मिल सकता है, तेरा उजड़ा हुआ जीवन लौटाया जा सकता है। मुझसे कह, तेरे सिर के सफ़ेद बालों को छूकर फिर से काला कर दूँ। देवकुलीश! अब भी समय है, अपना संकल्प त्याग दे।
मगर बहादुर सत्यार्थी ने देवी का कहना न माना और आगे बढ़ा। उसका कलेजा धड़क रहा था, उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे, उसके हाथ काँप रहे थे, उसका सिर चकरा रहा था, मगर वह फिर भी आगे बढ़ा। उसने अपनी आत्मा और शरीर की सारी शक्तियाँ हाथों में जमा की और उन्हें फैलाकर सत्य का अंतिम परदा फाड़ दिया।
ओ परमात्मा!
चारों ओर अंधकार छा गया था; ऐसा भयानक अंधकार, जैसा इससे पूर्व देवकुलीश ने कभी न देखा था। उसने चिल्लाकर कहा—देवी माता! यह क्या हो गया? मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, वह जो परदे के पीछे था, कहाँ चला गया?
देवी ने मधुर स्वर से कहा—देवकुलीश! देवकुलीश!
देवकुलीश ने अँधेरे में टटोलते हुए कहा—देवी! मुझे बता, वह कहाँ है? मैं कहाँ हूँ, तू कहाँ है?
देवी ने अपना, हाथ धीरे से उसके कंधे पर रखा और जवाब दिया—देवकुलीश! तेरी आँखें नंगे सत्य का दृश्य देखने में असमर्थ होने के कारण फूट गईं। अब संसार की कोई शक्ति ऐसी नहीं, जो उन्हें ठीक कर सके। मैंने तुझसे कहा था, यह विचार छोड़ दे, परंतु तूने न माना और अब तूने देख लिया कि जब मनुष्य सत्य को नंगा देखना चाहता है तो क्या देखता है। सत्य परदों के अंदर ही से देखा जा सकता है। जब उसका परदा उतार दिया जाता है तो मनुष्य वह देखता है, जो कभी नहीं देख सकता।
देवकुलीश बादलों के पहाड़ पर मुँह के बल गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने, लगा।
हज़ारो वर्ष बीत चुके हैं, मगर एथेंस के सत्यार्थी की खोज अभी तक जारी है। अगर कोई आदमी बादलों के पहाड़ की सुनसान घाटियों में जा सके तो उसे देवकुलीश के रोने की आवाज़ अभी उसी तरह सुनाई देगी।
ye us bite hue yug ki kahani hai jab yunan aishwary aur waibhaw ke sikhar par tha aur sansar ki sarwottam santan yunan mein utpann hoti thi raat ka samay tha kawy aur kala ko kabhi na bhulne wale prachin ethens par andhkar chhaya hua tha charon taraf sannata tha, charon or nistabdhata thi—sab bazar khali the, sab galiyan nirjan theen aur ye sundar aur abad nagri raat ke andhere mein door se is tarah dikhai deti thi, jaise kisi jangal mae dhundhli si apurn chhaya ka paDaw paDa ho
puri nagri pura wishram kar rahi thi uske widwan wilasi bete apni apni shayya par besudh paDe the rang shalayen khali ho chuki theen, wilas bhawnon ke dipak bujha diye gaye the aur dwarpalon ki ankhon ki palken neend ke lagatar akramnon ke samne jhuki jati theen; parantu ek nawyuwak ki ankhen neend ki shanti aur shanti ki neend se wanchit theen
ye dewakulish ek widyarthi tha, jiski aatma saty darshan ki pyasi thi wo ek bahut baDe dhanwan ka beta tha, uski sampatti uske liye har tarah ka wilas kharid sakti thi, wo atyant manohar tha, yunan mata ki sabse sundar betiyan uske prem mein pagal ho rahi theen wo bahut uchchkoti ka tattw wetta tha uski sadharan yuktiyan bhi widyalay ke adhyapkon ki pahunch se bahar thi, parantu use is par bhi shanti na thi wo satyarthi tha wo saty ki khoj mein apne aapko mita dene par tula hua tha wo is raste mein apna sarwasw nichhawar kar dene ko taiyar tha marty lok ki nashawan khushiyan uske liye arthahin wastuen theen yauwan aur saundarya ki sajiw murtiyon mein uske liye koi akarshan na tha wo chahta tha, kisi tarah saty ko ek bar uske wastawik roop mein dekh le wo saty ko beparda, nanga dekhana chahta tha aisa nahin jaisa wo dikhai deta hai, balki aisa jaisa wo wastaw mein hai wo apni is manorath siddhi ke liye sab kuch karne ko taiyar tha
dewakulish raat din paDhta tha
paDhta tha aur sochta tha sochta tha aur paDhta tha, magar uske swasthy, chintan aur manan se uske pyase hirdai ki pyas mitti na thi, baDhti jati thi saty ka rogi chikitsa se aur zyada bimar hota jata tha
(2)
widyalay ke angan mein wishal ek uncha chabutara tha, jis par pata nahin kab se minarwa, gyan aur wiwek ki dewi, sangamarmar ke wastra pahne khaDi thi dewakulish patthar ki is murti ke baraf saman pairon ke nikat jakar ghanton baitha rahta aur sansar ke rahasy par chintan kiya karta tha yahan tak ki uske mitron aur sahpathiyon ne samajh liya ki iske mastishk mein wikar utpann ho gaya hai we uski is shochaniy dasha ko dekhte the aur kuDhte the
us raat bhi dewakulish dewi ke pairon ke nikat baitha tha aur ro raha tha—kripa kar! ai widdya aur wigyan ki sabse baDi dewi, kripa kar! mere man ki abhilasha puri kar main kai warshon se teri puja kar raha hoon mainne kai raten tere pairon ko apne ansuon se dhone mein guzar di hain mainne kai din kewal tere dhyan mein bita diye hain meri pararthna ke shabd sun aur unhen swikar kar!
dewakulish ye kahkar khaDa ho gaya aur dewi ke tejpurn munh ki taraf dekhne laga, magar wo usi tarah chupchap thi
itne mein chandrma akash mein uday hua uske suwarn aur sushitan parkash mein dewi ki murti aur bhi manohar dikhai dene lagi
ab dewakulish phir murti ke charnon mein baitha tha aur phir usi tarah balkon ke sadrish ro rokar pararthna kar raha tha, mano wo sangamarmar ki murti na thi, is duniya ki jiti jagti istri thi, jo sunti bhi hai, jawab bhi deti hai buddhiman dewakulish ne pagalpan ke awesh mein kaha—aj ki raat faisle ki raat hai ai gyan aur wiwek ki rani tune mere dil mein jigyasa ki aag sulgai hai, tu hi use saty ke shital jal se shant kar sakti hai saty kahan hai?—ajar, amar, atal saty! wo saty jis par buddhiman log shastrarth karte hain, jiska panDit chintan karte hain, jise log ekant mein talash karte hain, mandiron mein DhunDhate hain, jiske liye door door bhatakte hain main wo uchch koti ka saty dekhne ka abhilashai hoon nahin to main chand ki ujjwal chandni ke samne tere pairon ki saugandh khakar kahta hoon, ki apne nirarthak jiwan ko yahin, isi jagah samapt kar dunga mujhe satyhin jiwan ki koi awashyakta nahin
ye kahkar dewakulish ne apni chadar ke andar se ek katar nikali aur atmahatya karne ko taiyar ho gaya
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dewikulish kanpta hua khaDa ho gaya aur aasha, anand aur sandeh ki drishti se dewi ki or dekhne laga kya ye sach hai?
han, ye sach tha, dewi ke honth sachmuch hil rahe the—dewakulish!
dewakulish!—dewakulish dewi ka ek ek shabd pure dhyan se sun raha tha
dewakulish! maut ka marg andhera hai tu mera pujari, meri ankhon ke samne is marg par nahin ja sakta mere liye asahy hai ki mere samne koi atmahatya kar jaye bol, kya mangta hai? main teri har ek manokamana puri karne ko taiyar hoon
dewakulish ka dil saphalta ke anand se dhaDak raha tha uske munh se shabd na nikalte the wo dewi ke pairon ke nikat baith gaya, aur shraddhabhaw se bola—pawitra dewi! main saty ko uske apne asli swarup mein dekhana chahta hoon nanga, beparda, khula saty aur kuch nahin, bus saty!
tu saty ko janna chahta hai?—dewi ke honthon se awaz i—tu aap saty hai ye angan bhi saty hai main saty hoon ankhen khol, saty duniya ke chappe chappe mein maujud hai
dewakulish—magar us par parde paDe hue hai
dewi—wiwek ki ankh un pardon ke andar ka drishya bhi dekh sakti hai
dewakulish—pawitra mata! mein saty ko wiwek se nahin, ankhon se dekhana chahta hoon main sochkar nahin dekhana chahta, dekhkar sochna chahta hoon
dewi ne apna patthar ka safed, thanDa, bhari hath dewakulish ke kandhe par rakh diya aur mithe swar mein boli—beparda, nanga saty aaj tak duniya ke kisi bete ne nahin dekha, na dewtaon ne kisi manushya ko ye wardan diya hai tu ann ka kiDa hai, teri anton mein ye drishya dekhne ki shakti kahan? mera paramarsh hai ye khayal chhoD de aur apne liye koi aur wastu mang, main abhi isi jagah dungi
dewakulish—yunan ki sabse baDi dewi! main kewal nanga saty dekhana chahta hoon aur kuch nahin chahta
dewi—magar iska mooly?
dewakulish—jo kuch tu mange
dewi—dhan, daulat, saundarya ye sab tujhse chhoot jayenge tujhe duniya ko chand aur suraj ke parkash se bhi wanchit karna hoga, is yagya mein tujhe apne jiwan ki bhi ahuti deni paDe bol! kya ab bhi tu saty ka nanga roop dekhana chahta hai?
dewakulish—mujhe sab kuch swikar hai
dewi ne sir jhuka liya
dewakulish—parmeshwar ki sirishti mein aisi koi wastu nahin, jo main iske liye na tyag sakun
dewi ne phir sir uthaya aur muskrakar kaha—bahut achchha! tu saty ko dekh lega, tujhe saty dikha diya jayega, saty ka nanga roop, tere samne hoga, parantu ek bar nahin, dhire dhire chal! aaj saty ka ek parda utha, baqi ek warsh ke baad!
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dewi—yahi saty hai ye chhipkar yahan rahta hai, yahin se teri or anaginat dusri duniyaon ko apni diwy jyoti bhejta hai isi ke dhundhale parkash mein baithkar sayane log duniya ki paheliyan hal karte hain, aur guru apne shishyon ko jiwan ki shiksha dete hain yahi parkash sirishti ka suraj hai, yahi jyoti manaw charitr ka adarsh hai tu kahega, ye to kuch zyada prakashaman nahin, parantu dewakulish! tere shahr ke nikat jo nadi bahti hai, yadi uski sari ret ka ek ek kan ek ek suraj ban jaye, tab bhi usmen itna parkash na hoga, jitna is pahaD ki chhaya mein hai, magar wo pardon mein chhipa hua hai chal, aage baDh aur iska ek parda phaD de
dewakulish ne ek parda phaD diya iske sath hi use aisa malum hua, jaise sansar mein ek nawin prakar ka parkash phail gaya hai sach ki chhaya ab pahle se zyada saf aur chamakdar thi dewi dewakulish ko phir ethens mein uDa lai aur apni sangamarmar ki chadar oDhkar phir usi chabutre par usi tarah chupchap khaDi ho gai
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dewakulish unki taraf adbhut drishti se dekhta aur kahta kya kah rahe ho, main kuch nahin samjha
ethens ke ek bahut amir ki kunari beti ab bhi dewakulish ki moti moti kali ankhon ki diwani thi wo dewakulish ki is dasha ko dekhti aur kuDhti thi dewakulish ke khane pine ka prbandh wahi karti thi, warna wo bhukha pyasa mar jata
isi tarah ek sal ke teen sau painsath din pure ho gaye raat ka samay tha, ethens par phir andhkarpurn sannata chhaya hua tha dewakulish ne phir dewi ke pairon par sir jhukaya dewi use phir badlon ke pahaD le gai aur dewakulish ne saty ka dusra parda phaD diya is bar saty ka parkash aur bhi saf ho gaya dewakulish ne use dekha aur ankhon ko wo gyanchakshu mil gaye, jo yauwan aur sukumarta ke lal lahu ke pichhe chhipe hue buDhape ki ek ek jhurri ko dekh sakte hain phir wo apni banawat aur awidya ki duniya ko wapas chala aaya dewi phir sangamarmar ka but bankar apni jagah par khaDi ho gai
(4)
ek din uske mitr ne kaha—dewakulish aaj yunan ki sab kunari laDkiyan ethens mae jama hain aur aaj yunan ki sabse sundri yuwati ko saundarya ka pahla inam diya jayega kya tu bhi chalega?
dewakulish ne uski or muskrakar dekha aur kaha—saty wahan nahin hai
dusre din ek adhyapak ne kaha—aj yunan ke sare samajhdar log widyalay mein jama hain kya tum unse miloge?
dewakulish ne thanDi aah bharkar jawab diya—saty wahan bhi nahin hai
tisre din ek mahant ne kaha—aj chand dewi ke baDe mandir mein dewtaon ki puja hogi kya tum bhi aoge?
dewakulish ne lambi aah khinchi aur kaha—saty wahan bhi nahin hai aur is tarah is satyarthi ne jawani hi mein jawani ke sare prlobhnon par wijay prapt kar li ab wo pura mahant tha, magar wo ethens ke kisi mele mein nazar na aata tha, uski awaz kisi sabha mein na sunai deti thi
satyarthi sal bhar ekant mein paDhta rahta aur iske baad badlon ke pahaD par jakar saty ka ek parda phaD aata tha isi tarah kai warsh beet gaye uska gyan din par din baDhta gaya; magar uski ankhen andar dhans gai theen, kamar jhuk chuki thi, sir ke sare baal safed ho gaye the usne saty ki khoj mein apni jawani buDhape ki bhent kar di thi, magar use iska duःkh na tha, kyonki wo jawani aur buDhape donon ki satta se parichit ho chuka tha
aur log ye samajhte the ki dewakulish ne apne liye apni kothari ko samadhi bana liya hai
(5)
akhir wo pyari raat aa gai, jiski pratiksha mein dewakulish ko apne jiwan ka ek ek kshan ek ek warsh, ek ek shatabdi se bhi lamba malum hota tha
aj saty ke munh se antim parda uthega! aaj wo saty ko nanga, be parda dekhega jise sansar ke kisi nashwar bete ne aaj tak nahin dekha aaj uske jiwan ki sabse baDi sadh puri ho jayegi
adhi raat ko use wiwek aur wigyan ki dewi ne antim bar god mein uthaya, aur badlon ke pahaD par le jakar khaDa kar diya
dewakulish ne saty ki or dheer hokar dekha
dewi ne kaha—dewakulish dekh, iska parkash kaisa saf, kaisa tez hai aaj tak tune iske jitne parde utare hain, we iske parde na the, teri buddhi ke parde the saty ka ek hi parda hai, aage baDh aur use utar de; parantu agar tu chahe, to ab bhi laut chal main tujhe saton samundron ke moti aur duniya ka sara sona dene ko taiyar hoon, tera gaya hua swasthy wapas mil sakta hai, tera ujDa hua jiwan lautaya ja sakta hai mujhse kah, tere sir ke safed balon ko chhukar phir se kala kar doon dewakulish! ab bhi samay hai, apna sankalp tyag de
magar bahadur satyarthi ne dewi ka kahna na mana aur aage baDha uska kaleja dhaDak raha tha, uske panw laDkhaDa rahe the, uske hath kanp rahe the, uska sir chakra raha tha, magar wo phir bhi aage baDha usne apni aatma aur sharir ki sari shaktiyan hathon mein jama ki aur unhen phailakar saty ka antim parda phaD diya
o parmatma!
charon or andhkar chha gaya tha; aisa bhayanak andhkar, jaisa isse poorw dewakulish ne kabhi na dekha tha usne chillakar kaha—dewi mata! ye kya ho gaya? mujhe kuch dikhai nahin deta, wo jo parde ke pichhe tha, kahan chala gaya?
dewi ne madhur swar se kaha—dewakulish! dewakulish!
dewakulish ne andhere mein tatolte hue kaha—dewi! mujhe bata, wo kahan hai? main kahan hoon, tu kahan hai?
dewi ne apna, hath dhire se uske kandhe par rakha aur jawab diya—dewakulish! teri ankhen nange saty ka drishya dekhne mein asmarth hone ke karan phoot gain ab sansar ki koi shakti aisi nahin, jo unhen theek kar sake mainne tujhse kaha tha, ye wichar chhoD de, parantu tune na mana aur ab tune dekh liya ki jab manushya saty ko nanga dekhana chahta hai to kya dekhta hai saty pardon ke andar hi se dekha ja sakta hai jab uska parda utar diya jata hai to manushya wo dekhta hai, jo kabhi nahin dekh sakta
dewakulish badlon ke pahaD par munh ke bal gir paDa aur phoot phutkar rone, laga
hazaro warsh beet chuke hain, magar ethens ke satyarthi ki khoj abhi tak jari hai agar koi adami badlon ke pahaD ki sunsan ghatiyon mein ja sake to use dewakulish ke rone ki awaz abhi usi tarah sunai degi
ye us bite hue yug ki kahani hai jab yunan aishwary aur waibhaw ke sikhar par tha aur sansar ki sarwottam santan yunan mein utpann hoti thi raat ka samay tha kawy aur kala ko kabhi na bhulne wale prachin ethens par andhkar chhaya hua tha charon taraf sannata tha, charon or nistabdhata thi—sab bazar khali the, sab galiyan nirjan theen aur ye sundar aur abad nagri raat ke andhere mein door se is tarah dikhai deti thi, jaise kisi jangal mae dhundhli si apurn chhaya ka paDaw paDa ho
puri nagri pura wishram kar rahi thi uske widwan wilasi bete apni apni shayya par besudh paDe the rang shalayen khali ho chuki theen, wilas bhawnon ke dipak bujha diye gaye the aur dwarpalon ki ankhon ki palken neend ke lagatar akramnon ke samne jhuki jati theen; parantu ek nawyuwak ki ankhen neend ki shanti aur shanti ki neend se wanchit theen
ye dewakulish ek widyarthi tha, jiski aatma saty darshan ki pyasi thi wo ek bahut baDe dhanwan ka beta tha, uski sampatti uske liye har tarah ka wilas kharid sakti thi, wo atyant manohar tha, yunan mata ki sabse sundar betiyan uske prem mein pagal ho rahi theen wo bahut uchchkoti ka tattw wetta tha uski sadharan yuktiyan bhi widyalay ke adhyapkon ki pahunch se bahar thi, parantu use is par bhi shanti na thi wo satyarthi tha wo saty ki khoj mein apne aapko mita dene par tula hua tha wo is raste mein apna sarwasw nichhawar kar dene ko taiyar tha marty lok ki nashawan khushiyan uske liye arthahin wastuen theen yauwan aur saundarya ki sajiw murtiyon mein uske liye koi akarshan na tha wo chahta tha, kisi tarah saty ko ek bar uske wastawik roop mein dekh le wo saty ko beparda, nanga dekhana chahta tha aisa nahin jaisa wo dikhai deta hai, balki aisa jaisa wo wastaw mein hai wo apni is manorath siddhi ke liye sab kuch karne ko taiyar tha
dewakulish raat din paDhta tha
paDhta tha aur sochta tha sochta tha aur paDhta tha, magar uske swasthy, chintan aur manan se uske pyase hirdai ki pyas mitti na thi, baDhti jati thi saty ka rogi chikitsa se aur zyada bimar hota jata tha
(2)
widyalay ke angan mein wishal ek uncha chabutara tha, jis par pata nahin kab se minarwa, gyan aur wiwek ki dewi, sangamarmar ke wastra pahne khaDi thi dewakulish patthar ki is murti ke baraf saman pairon ke nikat jakar ghanton baitha rahta aur sansar ke rahasy par chintan kiya karta tha yahan tak ki uske mitron aur sahpathiyon ne samajh liya ki iske mastishk mein wikar utpann ho gaya hai we uski is shochaniy dasha ko dekhte the aur kuDhte the
us raat bhi dewakulish dewi ke pairon ke nikat baitha tha aur ro raha tha—kripa kar! ai widdya aur wigyan ki sabse baDi dewi, kripa kar! mere man ki abhilasha puri kar main kai warshon se teri puja kar raha hoon mainne kai raten tere pairon ko apne ansuon se dhone mein guzar di hain mainne kai din kewal tere dhyan mein bita diye hain meri pararthna ke shabd sun aur unhen swikar kar!
dewakulish ye kahkar khaDa ho gaya aur dewi ke tejpurn munh ki taraf dekhne laga, magar wo usi tarah chupchap thi
itne mein chandrma akash mein uday hua uske suwarn aur sushitan parkash mein dewi ki murti aur bhi manohar dikhai dene lagi
ab dewakulish phir murti ke charnon mein baitha tha aur phir usi tarah balkon ke sadrish ro rokar pararthna kar raha tha, mano wo sangamarmar ki murti na thi, is duniya ki jiti jagti istri thi, jo sunti bhi hai, jawab bhi deti hai buddhiman dewakulish ne pagalpan ke awesh mein kaha—aj ki raat faisle ki raat hai ai gyan aur wiwek ki rani tune mere dil mein jigyasa ki aag sulgai hai, tu hi use saty ke shital jal se shant kar sakti hai saty kahan hai?—ajar, amar, atal saty! wo saty jis par buddhiman log shastrarth karte hain, jiska panDit chintan karte hain, jise log ekant mein talash karte hain, mandiron mein DhunDhate hain, jiske liye door door bhatakte hain main wo uchch koti ka saty dekhne ka abhilashai hoon nahin to main chand ki ujjwal chandni ke samne tere pairon ki saugandh khakar kahta hoon, ki apne nirarthak jiwan ko yahin, isi jagah samapt kar dunga mujhe satyhin jiwan ki koi awashyakta nahin
ye kahkar dewakulish ne apni chadar ke andar se ek katar nikali aur atmahatya karne ko taiyar ho gaya
ekayek safed patthar ki murti sajiw ho gai usne dewakulish ke hath se katar chheen li, use angan ke ek andhere kone mein phenk diya aur kaha dewakulish
dewikulish kanpta hua khaDa ho gaya aur aasha, anand aur sandeh ki drishti se dewi ki or dekhne laga kya ye sach hai?
han, ye sach tha, dewi ke honth sachmuch hil rahe the—dewakulish!
dewakulish!—dewakulish dewi ka ek ek shabd pure dhyan se sun raha tha
dewakulish! maut ka marg andhera hai tu mera pujari, meri ankhon ke samne is marg par nahin ja sakta mere liye asahy hai ki mere samne koi atmahatya kar jaye bol, kya mangta hai? main teri har ek manokamana puri karne ko taiyar hoon
dewakulish ka dil saphalta ke anand se dhaDak raha tha uske munh se shabd na nikalte the wo dewi ke pairon ke nikat baith gaya, aur shraddhabhaw se bola—pawitra dewi! main saty ko uske apne asli swarup mein dekhana chahta hoon nanga, beparda, khula saty aur kuch nahin, bus saty!
tu saty ko janna chahta hai?—dewi ke honthon se awaz i—tu aap saty hai ye angan bhi saty hai main saty hoon ankhen khol, saty duniya ke chappe chappe mein maujud hai
dewakulish—magar us par parde paDe hue hai
dewi—wiwek ki ankh un pardon ke andar ka drishya bhi dekh sakti hai
dewakulish—pawitra mata! mein saty ko wiwek se nahin, ankhon se dekhana chahta hoon main sochkar nahin dekhana chahta, dekhkar sochna chahta hoon
dewi ne apna patthar ka safed, thanDa, bhari hath dewakulish ke kandhe par rakh diya aur mithe swar mein boli—beparda, nanga saty aaj tak duniya ke kisi bete ne nahin dekha, na dewtaon ne kisi manushya ko ye wardan diya hai tu ann ka kiDa hai, teri anton mein ye drishya dekhne ki shakti kahan? mera paramarsh hai ye khayal chhoD de aur apne liye koi aur wastu mang, main abhi isi jagah dungi
dewakulish—yunan ki sabse baDi dewi! main kewal nanga saty dekhana chahta hoon aur kuch nahin chahta
dewi—magar iska mooly?
dewakulish—jo kuch tu mange
dewi—dhan, daulat, saundarya ye sab tujhse chhoot jayenge tujhe duniya ko chand aur suraj ke parkash se bhi wanchit karna hoga, is yagya mein tujhe apne jiwan ki bhi ahuti deni paDe bol! kya ab bhi tu saty ka nanga roop dekhana chahta hai?
dewakulish—mujhe sab kuch swikar hai
dewi ne sir jhuka liya
dewakulish—parmeshwar ki sirishti mein aisi koi wastu nahin, jo main iske liye na tyag sakun
dewi ne phir sir uthaya aur muskrakar kaha—bahut achchha! tu saty ko dekh lega, tujhe saty dikha diya jayega, saty ka nanga roop, tere samne hoga, parantu ek bar nahin, dhire dhire chal! aaj saty ka ek parda utha, baqi ek warsh ke baad!
(3)
ye kahte kahte dewi ne apni safed patthar ki chadar utarkar chabutre par rakh di aur dewakulish ko god mein utha liya dekhte dekhte dewi ke donon kandhon par pariyon ke se do par nikal aaye dewi ne par khole, aur hawa mein uDne lagi pahle shahr, mandiro ke kalash, parwat, phir chand, tare, badal sab niche rah gaye dewi dewakulish ko liye akash mein uDi ja rahi thi thoDi der baad usne dewakulish ko badlon ke ek pahaD par khaDa kar diya! dewakulish ne dekha, prithwi uske panw tale bahut door, bahut niche ek chhote se tare ke saman timtima rahi hai, aur thi wo ye duniya, jisko wo itna baDa samajh raha tha; magar dewakulish ka dhyan is or na tha usne apne pas chhaya mein chhipi hui ek dhundhli si cheez dekhi, aur dewi se puchha—yah kya hai?
dewi—yahi saty hai ye chhipkar yahan rahta hai, yahin se teri or anaginat dusri duniyaon ko apni diwy jyoti bhejta hai isi ke dhundhale parkash mein baithkar sayane log duniya ki paheliyan hal karte hain, aur guru apne shishyon ko jiwan ki shiksha dete hain yahi parkash sirishti ka suraj hai, yahi jyoti manaw charitr ka adarsh hai tu kahega, ye to kuch zyada prakashaman nahin, parantu dewakulish! tere shahr ke nikat jo nadi bahti hai, yadi uski sari ret ka ek ek kan ek ek suraj ban jaye, tab bhi usmen itna parkash na hoga, jitna is pahaD ki chhaya mein hai, magar wo pardon mein chhipa hua hai chal, aage baDh aur iska ek parda phaD de
dewakulish ne ek parda phaD diya iske sath hi use aisa malum hua, jaise sansar mein ek nawin prakar ka parkash phail gaya hai sach ki chhaya ab pahle se zyada saf aur chamakdar thi dewi dewakulish ko phir ethens mein uDa lai aur apni sangamarmar ki chadar oDhkar phir usi chabutre par usi tarah chupchap khaDi ho gai
aw dewakulish ki drishti mein chandi aur sone ka koi mooly na tha wo logon ko daulat ke pichhe bhagte dekhta to use ashchary hota tha wo chandi ko safed loha, aur sone ko pila loha kahta tha, aur inki prapti ke liye phir apna parishram nasht na karta tha use paDhne ki dhun thi, din raat paDhta rahta tha uske bap ne uska sadhu swbhaw dekh kah diya ki ise meri jayadad mein se kuch na milega, parantu dewakulish ko iski zara bhi chinta na thi uske mitr sambandhi kahte—dewakulish! ye aayu jawani aur garm khoon ki hai safed balon aur jhuki hui kamar ka zamana shuru hone se pahle pahal kuch jama kar le nahin phir baad mein pachhtayega
dewakulish unki taraf adbhut drishti se dekhta aur kahta kya kah rahe ho, main kuch nahin samjha
ethens ke ek bahut amir ki kunari beti ab bhi dewakulish ki moti moti kali ankhon ki diwani thi wo dewakulish ki is dasha ko dekhti aur kuDhti thi dewakulish ke khane pine ka prbandh wahi karti thi, warna wo bhukha pyasa mar jata
isi tarah ek sal ke teen sau painsath din pure ho gaye raat ka samay tha, ethens par phir andhkarpurn sannata chhaya hua tha dewakulish ne phir dewi ke pairon par sir jhukaya dewi use phir badlon ke pahaD le gai aur dewakulish ne saty ka dusra parda phaD diya is bar saty ka parkash aur bhi saf ho gaya dewakulish ne use dekha aur ankhon ko wo gyanchakshu mil gaye, jo yauwan aur sukumarta ke lal lahu ke pichhe chhipe hue buDhape ki ek ek jhurri ko dekh sakte hain phir wo apni banawat aur awidya ki duniya ko wapas chala aaya dewi phir sangamarmar ka but bankar apni jagah par khaDi ho gai
(4)
ek din uske mitr ne kaha—dewakulish aaj yunan ki sab kunari laDkiyan ethens mae jama hain aur aaj yunan ki sabse sundri yuwati ko saundarya ka pahla inam diya jayega kya tu bhi chalega?
dewakulish ne uski or muskrakar dekha aur kaha—saty wahan nahin hai
dusre din ek adhyapak ne kaha—aj yunan ke sare samajhdar log widyalay mein jama hain kya tum unse miloge?
dewakulish ne thanDi aah bharkar jawab diya—saty wahan bhi nahin hai
tisre din ek mahant ne kaha—aj chand dewi ke baDe mandir mein dewtaon ki puja hogi kya tum bhi aoge?
dewakulish ne lambi aah khinchi aur kaha—saty wahan bhi nahin hai aur is tarah is satyarthi ne jawani hi mein jawani ke sare prlobhnon par wijay prapt kar li ab wo pura mahant tha, magar wo ethens ke kisi mele mein nazar na aata tha, uski awaz kisi sabha mein na sunai deti thi
satyarthi sal bhar ekant mein paDhta rahta aur iske baad badlon ke pahaD par jakar saty ka ek parda phaD aata tha isi tarah kai warsh beet gaye uska gyan din par din baDhta gaya; magar uski ankhen andar dhans gai theen, kamar jhuk chuki thi, sir ke sare baal safed ho gaye the usne saty ki khoj mein apni jawani buDhape ki bhent kar di thi, magar use iska duःkh na tha, kyonki wo jawani aur buDhape donon ki satta se parichit ho chuka tha
aur log ye samajhte the ki dewakulish ne apne liye apni kothari ko samadhi bana liya hai
(5)
akhir wo pyari raat aa gai, jiski pratiksha mein dewakulish ko apne jiwan ka ek ek kshan ek ek warsh, ek ek shatabdi se bhi lamba malum hota tha
aj saty ke munh se antim parda uthega! aaj wo saty ko nanga, be parda dekhega jise sansar ke kisi nashwar bete ne aaj tak nahin dekha aaj uske jiwan ki sabse baDi sadh puri ho jayegi
adhi raat ko use wiwek aur wigyan ki dewi ne antim bar god mein uthaya, aur badlon ke pahaD par le jakar khaDa kar diya
dewakulish ne saty ki or dheer hokar dekha
dewi ne kaha—dewakulish dekh, iska parkash kaisa saf, kaisa tez hai aaj tak tune iske jitne parde utare hain, we iske parde na the, teri buddhi ke parde the saty ka ek hi parda hai, aage baDh aur use utar de; parantu agar tu chahe, to ab bhi laut chal main tujhe saton samundron ke moti aur duniya ka sara sona dene ko taiyar hoon, tera gaya hua swasthy wapas mil sakta hai, tera ujDa hua jiwan lautaya ja sakta hai mujhse kah, tere sir ke safed balon ko chhukar phir se kala kar doon dewakulish! ab bhi samay hai, apna sankalp tyag de
magar bahadur satyarthi ne dewi ka kahna na mana aur aage baDha uska kaleja dhaDak raha tha, uske panw laDkhaDa rahe the, uske hath kanp rahe the, uska sir chakra raha tha, magar wo phir bhi aage baDha usne apni aatma aur sharir ki sari shaktiyan hathon mein jama ki aur unhen phailakar saty ka antim parda phaD diya
o parmatma!
charon or andhkar chha gaya tha; aisa bhayanak andhkar, jaisa isse poorw dewakulish ne kabhi na dekha tha usne chillakar kaha—dewi mata! ye kya ho gaya? mujhe kuch dikhai nahin deta, wo jo parde ke pichhe tha, kahan chala gaya?
dewi ne madhur swar se kaha—dewakulish! dewakulish!
dewakulish ne andhere mein tatolte hue kaha—dewi! mujhe bata, wo kahan hai? main kahan hoon, tu kahan hai?
dewi ne apna, hath dhire se uske kandhe par rakha aur jawab diya—dewakulish! teri ankhen nange saty ka drishya dekhne mein asmarth hone ke karan phoot gain ab sansar ki koi shakti aisi nahin, jo unhen theek kar sake mainne tujhse kaha tha, ye wichar chhoD de, parantu tune na mana aur ab tune dekh liya ki jab manushya saty ko nanga dekhana chahta hai to kya dekhta hai saty pardon ke andar hi se dekha ja sakta hai jab uska parda utar diya jata hai to manushya wo dekhta hai, jo kabhi nahin dekh sakta
dewakulish badlon ke pahaD par munh ke bal gir paDa aur phoot phutkar rone, laga
hazaro warsh beet chuke hain, magar ethens ke satyarthi ki khoj abhi tak jari hai agar koi adami badlon ke pahaD ki sunsan ghatiyon mein ja sake to use dewakulish ke rone ki awaz abhi usi tarah sunai degi
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।