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छह बरस के बाद

chhah baras ke baad

कैथरीन मैन्सफील्ड

कैथरीन मैन्सफील्ड

छह बरस के बाद

कैथरीन मैन्सफील्ड

और अधिककैथरीन मैन्सफील्ड

    और फिर, छह बरसों के बाद इसने उसे दोबारा देखा। वह बाँस से बनी उन छोटी-छोटी मेज़ों में से एक पर बैठा था। मेज़ काग़ज़ से बने डेफोडिल फूलों के जापानी गुलदस्ते से सजी हुई थी। सामने फलों की एक बड़ी प्लेट रखी हुई थी और वह अपने उसी ख़ास अंदाज से संतरा छील रहा था, जिसे वह ख़ूब पहचानती थी और इसी वजह से इसने उसे फ़ौरन पहचान लिया।

    उसने भी अपने भीतर अचानक पहचान लिए जाने को एक झटके के साथ महसूस किया। क्योंकि जैसे ही उसने सिर उठाया था, उन दोनों की आँखें मिली थीं। नामुमकिन! वह एकदम से पहचान ही नहीं पाया! वह मुस्कराई; इसने त्यौरियाँ चढ़ा लीं। वह उसके क़रीब आई। उसने पल भर के लिए आँखें बंद कीं, पर आँखें खोलते ही उसका चेहरा चमक उठा, जैसे अँधेरे कमरे में माचिस की तीली जलाने से होता है। उसने संतरा रख दिया और कुर्सी पीछे की तरफ़ खिसका दी। इसने गर्माहट भरा अपना हाथ दस्ताने में से बाहर निकाला और उसके हाथ में दे दिया।

    “वैरा”, यह विस्मय से चिल्लाया “कितनी अजीब बात है। वाक़ई एक क्षण के लिए तो मैं तुम्हें पहचान ही नहीं पाया। क्या तुम बैठोगी नहीं? तुमने खाना खाया? कॉफ़ी लोगी?” वह हिचकिचाई पर फिर बोली, “ठीक है, कॉफ़ी ले लूँगी”, और वह उसके सामने आकर बैठ गई।

    “तुम बदल गई हो, तुम बहुत ज़्यादा बदल गई हो,” वह उसकी ओर लगातार विस्मय और अधीरता से देखता रहा। “यार, तुम सचमुच बहुत अच्छी लग रही हो। मैंने पहले तुम्हें कभी इतना ख़ूबसूरत नहीं पाया।”

    “सच”! इसने अपने चेहरे से रूमाल हटाया और गले तक बंद फर कोट के कॉलर का बटन खोल दिया। “मेरी तबियत कुछ ढीली लग रही है। तुम तो जानते हो मुझसे यह मौसम सहा नहीं जाता।”

    “अरे, हाँ, तुम्हें तो जाड़े से नफ़रत है...”

    “हाँ मुझे यह सख्त नापसंद है।” वह ठंड से काँप रही थी। “और सबसे बेकार बात तो यह है कि जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं...”

    उसने बीच में ही उसे टोका, “क्षमा चाहता हूँ” और बैरे को बुलाने के लिए मेज़ थपथपाने लगा। “थोड़ी कॉफ़ी और क्रीम ले आओ” और फिर दोबारा उसकी ओर मुख़ातिब हो गया, “क्या वाक़ई तुम कुछ नहीं खाओगी? थोड़ा-सा फल तो ले ही सकती हो। यहाँ फल बहुत अच्छे हैं।”

    “नहीं शुक्रिया।”

    “ठीक है,” हँसते हुए उसने दोबारा संतरा उठा लिया। “हाँ, तो तुम कह रही थीं, जो जितना बूढ़ा होता जाता है।” “उतना ठंडा होता जाता है।” वह हँस पड़ी। हालाँकि वह सोच रही थी उसकी यह आदत, बीच में इस तरह टोकने की—आज भी उसे कितनी अच्छी तरह याद है। और कैसे छह बरस पहले उसकी इस आदत से वह कितनी भड़क उठती थी। उसे हमेशा लगता, मानो बात करते-करते उसने अचानक इसके होंठों पर हाथ दिया हो और उसे भूलकर कुछ और करने लग गया हो और फिर हाथ हटाकर अपनी उसी चौड़ी मुस्कान से उसकी ओर मुख़ातिब हो...“हाँ तो अब हम तैयार हैं। अब सब कुछ निपट गया है।”

    “उतना ठंडा होता जाता है!” उसने हँसते हुए उसी के शब्दों को ज्यों का त्यों दोहराया। “ऐ, तुम अब भी वैसी ही बातें करती हो और तुम्हारी एक और बात है, जो बिल्कुल भी नहीं बदली, तुम्हारी ख़ूबसूरत आवाज़—बात करने का तुम्हारा मोहक अंदाज।” अब वह काफ़ी गंभीर था। वह इसकी तरफ़ कुछ झुका, इसने संतरे के छिलकों की ताज़ी, तेज़ ख़ुशबू महसूस की। “तुम्हें सिर्फ़ एक शब्द कहना होगा और कई आवाज़ों के बीच भी मैं तुम्हारी आवाज़ को बख़ूबी पहचान लूँगा। मुझे अक्सर ताज्जुब होता है कि ऐसा क्या है, जो तुम्हारी आवाज़ मेरे दिमाग़ में एक भूलने वाली याद बनकर रह गई है...क्या तुम्हें वह पहली दोपहर याद है, जो हमने साथ-साथ क्यू गार्डन में बिताई थी। तुम्हें कितना अजीब लगा था कि मुझे किसी भी फूल का नाम नहीं पता था। तुम्हारे सारे नाम बताने के बावजूद मैं आज भी फूलों के नामों से उतना ही अनजान हूँ—यह वाक़ई अजीब विस्मय की बात है कि जब भी सब कुछ ख़ुशनुमा और सुखद होता है और मैं कोई चमकदार, चटक रंग देखता हूँ तो मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है—

    ‘जिरेनियम, मेरीगोल्ड और वैरबोना’। और मुझे लगता है कि उस विस्मृत भूली-बिसरी भाषा के ये तीन शब्द ही मुझे याद रह गए हैं...तुम्हें वह दोपहर याद है?”

    “अरे हाँ, बिल्कुल, बहुत अच्छी तरह याद है”, उसने एक गहरी, लंबी साँस ली। मानों दोनों के बीच रखे उन ख़ूबसूरत काग़ज़ी डेफोडिल के फूलों को भी सहना बहुत मुश्किल लग रहा हो। पर फिर भी उस दोपहर की जो याद उसके ज़ेहन में थी, उससे उसे चाय के टेबल पर एक बेतुका-सा दृश्य ही याद आया—चाइनीज़ पेगोडा में काफ़ी बड़ी संख्या में लोग चाय पी रहे थे और इसने बिल्कुल किसी सनकी आदमी की तरह तुनकमिज़ाजी दिखाई थी, वह अपनी पुआल की टोपी से सबके साथ ठिठौली करता रहा, जबकि उसका यह बर्ताव किसी भी तरह उस मौक़े के अनुकूल नहीं था। चाय पीते हुए केवल कुछ सिरफिरे लोग ही उसके इस व्यवहार का आनंद ले रहे थे और कैसे उसे यह सब झेलना पड़ा था।

    पर अब, जब वह बोल रहा था, तो वह याद धुँधली पड़ गई थी। वह ठीक ही कह रहा था। हाँ, वह वाक़ई एक अच्छी दोपहर थी। जिरेनियम, मेरीगोल्ड और वेरबोना तथा ख़ुशनुमा धूप से भरी। उसका ध्यान अंतिम दो शब्दों पर ही अटक गया मानो उसने इन शब्दों को अभी-अभी गाया हो।

    उस ख़ुशनुमा धूप के साथ एक और याद जुड़ी हुई थी। उसने ख़ुद को एक लॉन में बैठा पाया था और वह उसके पास लेटा हुआ था, और अचानक काफ़ी देर की चुप्पी के बाद वह घूमा और अपना सिर इसकी गोद में रख दिया था।

    “काश” उसने फुसफुसाते हुए कहा था “काश, मैंने ज़हर खा लिया होता और अभी, इसी क्षण मैं मर रहा होता!”

    उसी क्षण एक नन्हीं-सी लड़की सफ़ेद फ्राक पहने हाथ में बड़ा लिली का फूल लिए झाड़ी के पीछे से दौड़ते हुए आई। उसने इनकी ओर आँखें फाड़कर देखा था और फिर भागकर चली गई थी। पर वो यह सब नहीं देख पाया था। वह उसके ऊपर झुकी हुई थी।

    “ऐ, तुम ऐसा क्यों कहते हो? मैं तो कभी ऐसा नहीं कह सकती।”

    पर उसने एक हल्की-सी आह भरी और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर ख़ुद के गाल पर रख दिया।

    “क्योंकि मैं जानता हूँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ—बेइंतहा प्यार और मुझे बहुत दु:ख झेलना पड़ेगा, क्योंकि वैरा तुम मुझे कभी प्यार नहीं करोगी।”

    पहले की तुलना में अब वह काफ़ी बेहतर दिखाई दे रहा था। उसका उस सपनीली दुनिया में रहना और हमेशा अनिश्चत रहना अब एकदम ख़त्म हो गया था। अब उसमें एक पुरुषोचित गंभीरता थी, जिसने जीवन में एक मुक़ाम हासिल कर लिया हो, जो आदमी को आत्मविश्वास और सुरक्षा से भर देता है। कुल मिलाकर अब वह काफ़ी प्रभावशाली लग रहा था। उसने पैसे भी ख़ूब कमाए होंगे, उसके कपड़े बढ़िया थे और उस पर फब रहे थे। उसी क्षण उसने अपनी जेब से रशियन सिगरेट की डिब्बी निकाली।

    “तुम लोगी?”

    “हाँ, मैं लूँगी” उसने उन्हें उठा लिया, “ये बढ़िया सिगरेट लग रहे हैं।”

    “हाँ, मेरे ख़याल से ये बढ़िया सिगरेट हैं। मैं इन्हें ख़ास अपने लिए सेंट जेम्स स्ट्रीट में एक मामूली से आदमी से बनवाता हूँ। मैं ज़्यादा धूम्रपान नहीं करता। मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ, पर मैं जब भी पीता हूँ मुझे ज़ायक़ेदार और बिल्कुल ताज़ा सिगरेट चाहिए। धुआँ उड़ाना मेरी आदत नहीं, बल्कि सुख का साधन है। बिल्कुल किसी इत्र की तरह। क्या तुम्हें अब भी इत्र बहुत पसंद हैं? जब मैं रूस में था...”

    वह बीच में ही बोली “क्या तुम वाक़ई रूस गए हो?”

    “अरे हाँ, मैं क़रीब साल भर से ज़्यादा वहाँ रहा था। तुम शायद भूल गई हो, हम हमेशा वहाँ जाने की बातें किया करते थे?”

    “नहीं, मैं नहीं भूली हूँ।”

    उसके चेहरे पर एक अजीब अधूरी-सी मुस्कान आई और वह कुर्सी के पीछे टिककर बैठ गया। “क्या यह अजीब बात नहीं। मैं वाक़ई उन सभी जगहों पर गया हूँ, जहाँ जाने की हमने योजनाएँ बनाई थीं। हाँ, मैं उन तमाम जगहों पर गया और वहाँ काफ़ी समय तक रहा। जैसा कि तुम कहा करती थी। “वहाँ की हवा को महसूस करना चाहिए।” दरअसल मैंने पिछले तीन साल लगातार यात्राएँ ही की हैं। स्पेन, कोरसीका, साइबेरिया, रूस, मिस्र। अब केवल चीन ही रह गया है और मेरा वहाँ जाने का भी पूरा इरादा है, जब युद्ध समाप्त हो जाएगा।”

    जैसे वह बता रहा था—धीरे-धीरे...सिगरेट की राख एश ट्रे में झाड़ते हुए, इसे लगा मानो सालों से उसके अंदर सोया एक अजीब-सा पशु अचानक जाग उठा हो, और उसके भीतर पूरी तरह पसर गया हो और जम्हाई ले रहा हो। उसने अपने कान खड़े कर लिए हैं, कूदकर वह पैरों पर खड़ा हो गया है और अपनी ललचाई, प्यासी नज़रों से उन दूर-दराज़ के इलाक़ों को घूर रहा हो, पर हँसते हुए, धीरे से उसने केवल इतना ही कहा—“मुझे तुमसे ईर्ष्या हो रही है।”

    उसने सिर हिलाया ‘‘यह सब बड़ा अद्भुत रहा है, ख़ासकर रूस। रूस में वह सब कुछ है, जिसकी हमने कल्पना की थी और शायद उससे भी बहुत अधिक। मैंने कुछ दिन वोल्गा नदी पर नाव में भी बिताए। क्या तुम्हें मल्लाह का वह गीत याद है, जिसकी धुन तुम अक्सर बजाया करती थीं।?”

    “हाँ,” जैसे ही उसने यह कहा वह गीत उसके भीतर बजने लगा।

    “क्या तुम अब भी वह धुन बजाती हो?”

    “नहीं, मेरे पास पियानो नहीं है।”

    वह चकित हो गया। “पर तुम्हारे उस ख़ूबसूरत पियानो का क्या हुआ?”

    उसने थोड़ा-सा मुँह बनाया, “सालों पहले बेच दिया।”

    “पर तुम्हें तो संगीत का कितना शौक़ था।” उसे अचरज हुआ।

    “अब उसके लिए मेरे पास समय नहीं है।” वह बोली। वह कुछ नहीं बोला “नदी पर बिताया जीवन”, वह आगे बताने लगा “कितना कुछ ख़ास तरह का था। एक आध दिन के बाद आपको यह लगता ही नहीं कि आप किसी और जीवन को भी जानते हैं और यह भी ज़रूरी नहीं कि आपको उनकी भाषा की जानकारी हो—नाव पर रहते हुए आपके और उन लोगों के बीच एक बंधन-सा बन जाता है और इतना ही काफ़ी होता है। आप उनके साथ खाते हो, उठते-बैठते हो, पूरा दिन बिताते हो और शाम को शुरू हो जाता है संगीत का एक अंतहीन सिलसिला।”

    वह काँपने लगी, उसके भीतर फिर से मल्लाह का गीत, वह पीड़ा भरी धुन ज़ोर-ज़ोर से बजने लगी। उसने देखा कि एक गहरे रंग की नाव पानी पर चल रही है, नदी के दोनों ओर उदास पेड़ खड़े हैं। वह काँपने लगी...“हाँ, मुझे यह सब बहुत पसंद है।” वह अपना दस्ताना सहलाते हुए बोली।

    “रूसी जीवन की लगभग हर चीज़ तुम्हें बेहद पसंद आएगी”, उसने बड़ी आत्मीयता से कहा। “वहाँ सब कुछ इतना अनौपचारिक, इतना आवेश से भरा हुआ, इतना मुक्त है कि कहीं किसी संदेह का सवाल ही नहीं, और फिर वहाँ के किसान कितने अद्भुत हैं। वे इतने बढ़िया इंसान हैं—हाँ, वहाँ सब कुछ ऐसा ही है। यहाँ तक कि जो आदमी घोड़ा गाड़ी चलाता है, वह भी आसपास जो कुछ भी घट रहा है उसका एक हिस्सा लगता है। मुझे याद है एक शाम, हम सब यानी मेरे दो दोस्त और उनमें से एक की बीवी ‘ब्लैक सी’ के किनारे पिकनिक मनाने गए थे। हमने अपना खाना और शैंपेन ली और घास पर बैठकर ही खाने-पीने लगे थे। जब हम खा रहे थे तो गाड़ीवान आया —“थोड़ा-सा सोये का अचार लीजिए”—वह बोला। वह सब कुछ हमारे साथ बाँटना चाहता था। मुझे यह सब इतना अच्छा लगा था। तुम समझ सकती हो मैं क्या कहना चाहता हूँ?”

    और उस क्षण इसे लगा, मानो वह उस रहस्यमय ब्लैक सी के किनारे घास पर बैठी हो। समुद्र बिल्कुल मखमल की तरह काला था और उसकी शांत, मखमली लहरें किनारे पर आकर तरंग पैदा कर रही थीं। उसने सड़क के किनारे खड़ी बैलगाड़ी को भी देखा और घास पर बैठे उस दल को भी जिनके चेहरे और हाथ चाँदनी में चमक रहे थे। उस औरत के पीले वस्त्र को भी देखा, जो फैला हुआ था। उसने उसके तह किए हुए छाते को भी देखा जो घास पर इस तरह पड़ा था, जैसे कसीदाकारी करने का मोतियों वाला कोई बड़ा हुक पड़ा हुआ हो। इनसे थोड़ा-सा हटकर घुटने पर कपड़े में अपना खाना लिए बैठा गाड़ीवान भी उसे दिखाई दिया, जो कह रहा था, “सोये का अचार लीजिए” और यद्यपि उसे पता नहीं था कि यह डिल का अचार होता क्या है, फिर भी उसने अंदाज़ लगाया कि हरे काँच की बरनी के भीतर से तोते की चोंच जैसी लाल मिर्च की तरह की कोई चीज़ चमक रही थी। उसने उसे अपने मुँह के भीतर रखकर चूसा; डिल अचार बेहद खट्टा था...

    “हाँ, मैं बहुत अच्छी तरह समझ रही हूँ, तुम क्या कहना चाह रहे हो”, वह बोली।

    उसके बाद एक क्षण चुप्पी छाई रही। इसी क्षण दोनों ने एक-दूसरे को देखा। अतीत में जब कभी वे इस तरह एक-दूसरे को देखते थे, उन्हें आपस में एक ऐसी असीम समझ का अहसास होता था, जो उनकी आत्माओं में बसी हुई थी। कुछ ऐसे मानो वे एक-दूसरे की बाँहों में खोए हुए शोकमग्न प्रेमियों की तरह समुद्र में कूद पड़ने को तैयार हों। पर अब अचरज की बात यह थी कि उसी ने अपने क़दम पीछे हटा लिए और वह बोला—“तुम कितनी तल्लीनता से सब कुछ सुनती हो। जब तुम अपनी इन बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखती हो तो मुझे लगता है कि मैं तुम्हें वह सब कुछ बता सकता हूँ, जो शायद मैं किसी दूसरे इंसान को कभी नहीं बता पाऊँ।”

    क्या उसके स्वर में खिल्ली उड़ाने जैसा कुछ भाव था या यह उसके अपने मन का वहम था? वह कुछ समझ नहीं पाई।

    “मैं जब तुमसे मिला नहीं था” वह बोला, “मैंने कभी किसी से अपने बारे में कोई बात नहीं की थी। मुझे वह रात भी अच्छी तरह याद है, जब मैं तुम्हारे लिए एक छोटा-सा क्रिसमस-पेड़ लाया था और तुम्हें अपने बचपन के बारे में सब कुछ बताया था। मैंने बताया था कि कैसे एक दिन मैं इतना दु:खी था कि घर से भागा था और दो दिनों तक अपने अहाते में रखी ठेला गाड़ी के नीचे रहा था। कोई मुझे ख़ोज नहीं पाया था और तुम सुनती रही थी। तुम्हारी आँखें चमक रही थीं और मुझे लगा, जैसे तुम्हारे असर में आकर वह छोटा-सा क्रिसमस पेड़ भी मेरी दास्ताँ सुन रहा था, वैसे ही जैसे परी-कथाओं में होता है।”

    पर उस शाम की बात से उसे उस ज़ायक़ेदार मुरब्बे के छोटे डिब्बे की याद आई। उसकी क़ीमत छह या सात पेन्स थी। जो उसे बहुत अधिक लग रही थी और वह इसे सहन नहीं कर पा रहा था। “ज़रा देखो तो इतने छोटे से डिब्बे की इतनी ज़्यादा क़ीमत।” जब तक वह मुरब्बा खाती रही, वह उसे ख़ुशी और अचरज के साथ निहारता रहा।

    “नहीं, यह तो एक तरह से पैसे खाना है। तुम इस आकार के छोटे से डिब्बे में सात शिलिंग डाल भी नहीं सकते। ज़रा सोचो ये कितना मुनाफ़ा कमाते होंगे...” और वह किसी जटिल हिसाब-किताब में उलझ गया था। पर अब मछली के उस ज़ायक़ेदार मुरब्बे को अलविदा। क्रिसमस पेड़ मेज़ पर था, और वह नन्हा-सा बच्चा ठेला गाड़ी के नीचे अहाते के कुत्ते पर अपना सिर टिकाकर सो रहा था।

    “उस कुत्ते का नाम बीसून था न” वह ख़ुशी से चिल्ला पड़ी।

    पर वह कुछ समझ नहीं पाया, “कौन-सा कुत्ता? क्या तुम्हारे पास कोई कुत्ता था? मुझे तो कुत्ते के बारे में बिल्कुल याद नहीं।”

    “नहीं, नहीं, मैं तो उस अहाते के कुत्ते की बात कह रही हूँ, जब तुम बहुत छोटे थे।” वह हँसा और उसने सिगरेट की डिब्बी झपटकर खींच ली।

    “क्या कोई कुत्ता सचमुच था? मैं तो भूल ही गया हूँ। जैसे यह सब सदियों पहले की बात हो। मुझे विश्वास नहीं होता कि केवल छह साल ही बीते हैं। आज जब मैंने तुम्हें पहचाना तो मुझे अतीत में एक बहुत लंबी छलाँग लगानी पड़ी, उस समय को दोबारा ज़ेहन में लाने के लिए मुझे अपनी पूरी बीती ज़िंदगी के बारे में नए सिरे से सोचना पड़ा।”

    “मैं उस समय बिल्कुल बच्चा था”, वह मेज़ को बजाने लगा। “मैं अक्सर सोचता हूँ कि मैं तुम्हें कितना बोर किया करता था और अब मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ कि तुमने जो भी लिखा था, वह क्यों लिखा था—हालाँकि उस वक़्त तो तुम्हारे उस ख़त ने बिल्कुल मेरी जान ही ले ली थी। कुछ अरसा पहले दोबारा वह ख़त मेरे हाथ लगा था और उसे पढ़कर मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाया था। कितना बुद्धिमानी से भरा था तुम्हारा ख़त—मेरी बिल्कुल सही तस्वीर खींची थी तुमने।” उसने नज़र ऊपर उठाई।

    “तुम नहीं जाओगी?” वह उठने लगी थी।

    उसने दोबारा अपना कॉलर बंद कर लिया था और चेहरे पर झीना आवरण डाल लिया था। “नहीं मुझे जाना ही होगा, वह बोली और किसी तरह मुस्कराई। अब वह जान गई थी कि वह उसका मज़ाक उड़ा रहा था।

    “अरे, नहीं बाबा! प्लीज़,” वह गिड़गिड़ाया, “कुछ देर तो रुक जाओ” और उसने मेज़ पर से उसका एक दस्ताना उठा लिया और उसे ऐसे पकड़ लिया मानो, उसी से वह उसे रोक लेगा। “आजकल बात करने के लिए मुझे इतने कम लोग मिलते हैं कि मैं बर्बर होता जा रहा हूँ,” वह बोला। “क्या मैंने तुम्हें ऐसा कुछ कह दिया है, जिससे तुम्हें दु:ख पहुँचा है?”

    “बिल्कुल नहीं,” वह झूठ बोल गई। पर जब उसने देखा कि वह उसके दस्ताने को कोमलता से धीरे-धीरे अपनी उँगलियों से सहला रहा है तो उसका ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया और उस क्षण वह उसे छह वर्ष पहले जैसा ही लगा...

    “उस समय मैं वाक़ई चाहता था,” उसने धीमे स्वर में बोलना शुरू किया, “कि एक तरह से तुम्हारे लिए एक क़ालीन की तरह बन जाऊँ—उस पर तुम चलो, ताकि तुम्हें पत्थर और मिट्टी पर बिल्कुल भी चलना पड़े और तुम्हें कोई चोट लगे। मेरे दिल में इससे अधिक कुछ नहीं था—मेरा कोई स्वार्थ था। हाँ, बाद में मेरी यह इच्छा ज़रूर थी कि मैं केवल क़ालीन नहीं, बल्कि एक जादुई क़ालीन बन जाऊँ और तुम्हें उड़ाकर उन तमाम देशों में ले जाऊँ जहाँ जाने के लिए तुममें इतनी ललक थी।”

    जब वह यह बोल रहा था, उसने अपना सिर ऐसे उठाया जैसे वह कुछ पी रहा हो, और उसके भीतर का वह विचित्र पशु एक बार फिर करवट लेने लगा।

    “मुझे लगता था कि तुम इस दुनिया में सबसे ज़्यादा तनहा हो,” वह बोलता गया “और फिर भी शायद तुम ही एकमात्र हो जो दुनिया में वाक़ई सही मायने में ज़िंदा है—अपने समय से अलग,” दस्ताने को सहलाते हुए वह बुदबुदाया, “भाग्यशाली।”

    हे ईश्वर! उसने यह क्या कर डाला! कैसे उसने अपने नसीब, अपनी ख़ुशी को इस तरह नकार दिया। यही तो एक शख़्स था जो उसे समझता था। क्या अब वाक़ई देर हो चुकी है? क्या देर जैसा कभी कुछ होता है? वह उस दस्ताने की तरह थी, जिसे उसने अपनी उँगलियों में थाम रखा था।

    “और फिर यह भी एक सच था कि तुम्हारे कोई दोस्त नहीं थे और ही तुम लोगों से दोस्ती करती थीं। मैंने यह कैसे जाना था, क्योंकि मेरे भी कोई दोस्त नहीं थे। क्या अब भी सब कुछ वैसा ही है?”

    “हाँ,” उसने साँस खींची। “बिल्कुल वैसा ही है। मैं अब भी हमेशा की तरह अकेली हूँ।”

    “मैं भी,” वह धीरे से हँसा, “बिल्कुल वैसा ही।” अचानक तेज़ी से उसने उसका दस्ताना उसे वापस किया और अपनी कुर्सी पीछे खिसकाई। “पर उस समय मुझे जो इतना रहस्यमय लग रहा था, अब मेरे लिए एकदम स्पष्ट है और तुम्हें भी शायद...”

    “एक सीधी-सी बात यह है कि हम दोनों इतने अहंकारी, ख़ुद में डूबे हुए थे कि हमारे दिलों में किसी और के लिए कोई जगह ही थी। क्या तुम जानती हो,” वह चिल्लाया। अब वह फिर अपने उसी दूसरे, एकदम अनजान रूप में गया था, “मैं जब रूस में था मैंने मानव-मस्तिष्क की प्रणाली को समझना शुरू किया था और उससे मैंने जाना कि हम बिल्कुल अलग तरह के नहीं थे। यह एक बहुत जानी पहचानी बात है...”

    वह चली गई थी। वह वहीं बैठा रहा, हक्का-बक्का एकदम अचंभित...और फिर महिला वेटर से उसने बिल मँगवाया।

    “क्रीम को तो छुआ भी नहीं गया है,” वह बोला “प्लीज़ उसके पैसे मत लगाओ!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 57)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : कैथरीन मेन्सफील्ड
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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