और फिर, छह बरसों के बाद इसने उसे दोबारा देखा। वह बाँस से बनी उन छोटी-छोटी मेज़ों में से एक पर बैठा था। मेज़ काग़ज़ से बने डेफोडिल फूलों के जापानी गुलदस्ते से सजी हुई थी। सामने फलों की एक बड़ी प्लेट रखी हुई थी और वह अपने उसी ख़ास अंदाज से संतरा छील रहा था, जिसे वह ख़ूब पहचानती थी और इसी वजह से इसने उसे फ़ौरन पहचान लिया।
उसने भी अपने भीतर अचानक पहचान लिए जाने को एक झटके के साथ महसूस किया। क्योंकि जैसे ही उसने सिर उठाया था, उन दोनों की आँखें मिली थीं। नामुमकिन! वह एकदम से पहचान ही नहीं पाया! वह मुस्कराई; इसने त्यौरियाँ चढ़ा लीं। वह उसके क़रीब आई। उसने पल भर के लिए आँखें बंद कीं, पर आँखें खोलते ही उसका चेहरा चमक उठा, जैसे अँधेरे कमरे में माचिस की तीली जलाने से होता है। उसने संतरा रख दिया और कुर्सी पीछे की तरफ़ खिसका दी। इसने गर्माहट भरा अपना हाथ दस्ताने में से बाहर निकाला और उसके हाथ में दे दिया।
“वैरा”, यह विस्मय से चिल्लाया “कितनी अजीब बात है। वाक़ई एक क्षण के लिए तो मैं तुम्हें पहचान ही नहीं पाया। क्या तुम बैठोगी नहीं? तुमने खाना खाया? कॉफ़ी लोगी?” वह हिचकिचाई पर फिर बोली, “ठीक है, कॉफ़ी ले लूँगी”, और वह उसके सामने आकर बैठ गई।
“तुम बदल गई हो, तुम बहुत ज़्यादा बदल गई हो,” वह उसकी ओर लगातार विस्मय और अधीरता से देखता रहा। “यार, तुम सचमुच बहुत अच्छी लग रही हो। मैंने पहले तुम्हें कभी इतना ख़ूबसूरत नहीं पाया।”
“सच”! इसने अपने चेहरे से रूमाल हटाया और गले तक बंद फर कोट के कॉलर का बटन खोल दिया। “मेरी तबियत कुछ ढीली लग रही है। तुम तो जानते हो मुझसे यह मौसम सहा नहीं जाता।”
“अरे, हाँ, तुम्हें तो जाड़े से नफ़रत है...”
“हाँ मुझे यह सख्त नापसंद है।” वह ठंड से काँप रही थी। “और सबसे बेकार बात तो यह है कि जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं...”
उसने बीच में ही उसे टोका, “क्षमा चाहता हूँ” और बैरे को बुलाने के लिए मेज़ थपथपाने लगा। “थोड़ी कॉफ़ी और क्रीम ले आओ” और फिर दोबारा उसकी ओर मुख़ातिब हो गया, “क्या वाक़ई तुम कुछ नहीं खाओगी? थोड़ा-सा फल तो ले ही सकती हो। यहाँ फल बहुत अच्छे हैं।”
“नहीं शुक्रिया।”
“ठीक है,” हँसते हुए उसने दोबारा संतरा उठा लिया। “हाँ, तो तुम कह रही थीं, जो जितना बूढ़ा होता जाता है।” “उतना ठंडा होता जाता है।” वह हँस पड़ी। हालाँकि वह सोच रही थी उसकी यह आदत, बीच में इस तरह टोकने की—आज भी उसे कितनी अच्छी तरह याद है। और कैसे छह बरस पहले उसकी इस आदत से वह कितनी भड़क उठती थी। उसे हमेशा लगता, मानो बात करते-करते उसने अचानक इसके होंठों पर हाथ दिया हो और उसे भूलकर कुछ और करने लग गया हो और फिर हाथ हटाकर अपनी उसी चौड़ी मुस्कान से उसकी ओर मुख़ातिब हो...“हाँ तो अब हम तैयार हैं। अब सब कुछ निपट गया है।”
“उतना ठंडा होता जाता है!” उसने हँसते हुए उसी के शब्दों को ज्यों का त्यों दोहराया। “ऐ, तुम अब भी वैसी ही बातें करती हो और तुम्हारी एक और बात है, जो बिल्कुल भी नहीं बदली, तुम्हारी ख़ूबसूरत आवाज़—बात करने का तुम्हारा मोहक अंदाज।” अब वह काफ़ी गंभीर था। वह इसकी तरफ़ कुछ झुका, इसने संतरे के छिलकों की ताज़ी, तेज़ ख़ुशबू महसूस की। “तुम्हें सिर्फ़ एक शब्द कहना होगा और कई आवाज़ों के बीच भी मैं तुम्हारी आवाज़ को बख़ूबी पहचान लूँगा। मुझे अक्सर ताज्जुब होता है कि ऐसा क्या है, जो तुम्हारी आवाज़ मेरे दिमाग़ में एक न भूलने वाली याद बनकर रह गई है...क्या तुम्हें वह पहली दोपहर याद है, जो हमने साथ-साथ क्यू गार्डन में बिताई थी। तुम्हें कितना अजीब लगा था कि मुझे किसी भी फूल का नाम नहीं पता था। तुम्हारे सारे नाम बताने के बावजूद मैं आज भी फूलों के नामों से उतना ही अनजान हूँ—यह वाक़ई अजीब विस्मय की बात है कि जब भी सब कुछ ख़ुशनुमा और सुखद होता है और मैं कोई चमकदार, चटक रंग देखता हूँ तो मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है—
‘जिरेनियम, मेरीगोल्ड और वैरबोना’। और मुझे लगता है कि उस विस्मृत भूली-बिसरी भाषा के ये तीन शब्द ही मुझे याद रह गए हैं...तुम्हें वह दोपहर याद है?”
“अरे हाँ, बिल्कुल, बहुत अच्छी तरह याद है”, उसने एक गहरी, लंबी साँस ली। मानों दोनों के बीच रखे उन ख़ूबसूरत काग़ज़ी डेफोडिल के फूलों को भी सहना बहुत मुश्किल लग रहा हो। पर फिर भी उस दोपहर की जो याद उसके ज़ेहन में थी, उससे उसे चाय के टेबल पर एक बेतुका-सा दृश्य ही याद आया—चाइनीज़ पेगोडा में काफ़ी बड़ी संख्या में लोग चाय पी रहे थे और इसने बिल्कुल किसी सनकी आदमी की तरह तुनकमिज़ाजी दिखाई थी, वह अपनी पुआल की टोपी से सबके साथ ठिठौली करता रहा, जबकि उसका यह बर्ताव किसी भी तरह उस मौक़े के अनुकूल नहीं था। चाय पीते हुए केवल कुछ सिरफिरे लोग ही उसके इस व्यवहार का आनंद ले रहे थे और कैसे उसे यह सब झेलना पड़ा था।
पर अब, जब वह बोल रहा था, तो वह याद धुँधली पड़ गई थी। वह ठीक ही कह रहा था। हाँ, वह वाक़ई एक अच्छी दोपहर थी। जिरेनियम, मेरीगोल्ड और वेरबोना तथा ख़ुशनुमा धूप से भरी। उसका ध्यान अंतिम दो शब्दों पर ही अटक गया मानो उसने इन शब्दों को अभी-अभी गाया हो।
उस ख़ुशनुमा धूप के साथ एक और याद जुड़ी हुई थी। उसने ख़ुद को एक लॉन में बैठा पाया था और वह उसके पास लेटा हुआ था, और अचानक काफ़ी देर की चुप्पी के बाद वह घूमा और अपना सिर इसकी गोद में रख दिया था।
“काश” उसने फुसफुसाते हुए कहा था “काश, मैंने ज़हर खा लिया होता और अभी, इसी क्षण मैं मर रहा होता!”
उसी क्षण एक नन्हीं-सी लड़की सफ़ेद फ्राक पहने हाथ में बड़ा लिली का फूल लिए झाड़ी के पीछे से दौड़ते हुए आई। उसने इनकी ओर आँखें फाड़कर देखा था और फिर भागकर चली गई थी। पर वो यह सब नहीं देख पाया था। वह उसके ऊपर झुकी हुई थी।
“ऐ, तुम ऐसा क्यों कहते हो? मैं तो कभी ऐसा नहीं कह सकती।”
पर उसने एक हल्की-सी आह भरी और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर ख़ुद के गाल पर रख दिया।
“क्योंकि मैं जानता हूँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ—बेइंतहा प्यार और मुझे बहुत दु:ख झेलना पड़ेगा, क्योंकि वैरा तुम मुझे कभी प्यार नहीं करोगी।”
पहले की तुलना में अब वह काफ़ी बेहतर दिखाई दे रहा था। उसका उस सपनीली दुनिया में रहना और हमेशा अनिश्चत रहना अब एकदम ख़त्म हो गया था। अब उसमें एक पुरुषोचित गंभीरता थी, जिसने जीवन में एक मुक़ाम हासिल कर लिया हो, जो आदमी को आत्मविश्वास और सुरक्षा से भर देता है। कुल मिलाकर अब वह काफ़ी प्रभावशाली लग रहा था। उसने पैसे भी ख़ूब कमाए होंगे, उसके कपड़े बढ़िया थे और उस पर फब रहे थे। उसी क्षण उसने अपनी जेब से रशियन सिगरेट की डिब्बी निकाली।
“तुम लोगी?”
“हाँ, मैं लूँगी” उसने उन्हें उठा लिया, “ये बढ़िया सिगरेट लग रहे हैं।”
“हाँ, मेरे ख़याल से ये बढ़िया सिगरेट हैं। मैं इन्हें ख़ास अपने लिए सेंट जेम्स स्ट्रीट में एक मामूली से आदमी से बनवाता हूँ। मैं ज़्यादा धूम्रपान नहीं करता। मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ, पर मैं जब भी पीता हूँ मुझे ज़ायक़ेदार और बिल्कुल ताज़ा सिगरेट चाहिए। धुआँ उड़ाना मेरी आदत नहीं, बल्कि सुख का साधन है। बिल्कुल किसी इत्र की तरह। क्या तुम्हें अब भी इत्र बहुत पसंद हैं? जब मैं रूस में था...”
वह बीच में ही बोली “क्या तुम वाक़ई रूस गए हो?”
“अरे हाँ, मैं क़रीब साल भर से ज़्यादा वहाँ रहा था। तुम शायद भूल गई हो, हम हमेशा वहाँ जाने की बातें किया करते थे?”
“नहीं, मैं नहीं भूली हूँ।”
उसके चेहरे पर एक अजीब अधूरी-सी मुस्कान आई और वह कुर्सी के पीछे टिककर बैठ गया। “क्या यह अजीब बात नहीं। मैं वाक़ई उन सभी जगहों पर गया हूँ, जहाँ जाने की हमने योजनाएँ बनाई थीं। हाँ, मैं उन तमाम जगहों पर गया और वहाँ काफ़ी समय तक रहा। जैसा कि तुम कहा करती थी। “वहाँ की हवा को महसूस करना चाहिए।” दरअसल मैंने पिछले तीन साल लगातार यात्राएँ ही की हैं। स्पेन, कोरसीका, साइबेरिया, रूस, मिस्र। अब केवल चीन ही रह गया है और मेरा वहाँ जाने का भी पूरा इरादा है, जब युद्ध समाप्त हो जाएगा।”
जैसे वह बता रहा था—धीरे-धीरे...सिगरेट की राख एश ट्रे में झाड़ते हुए, इसे लगा मानो सालों से उसके अंदर सोया एक अजीब-सा पशु अचानक जाग उठा हो, और उसके भीतर पूरी तरह पसर गया हो और जम्हाई ले रहा हो। उसने अपने कान खड़े कर लिए हैं, कूदकर वह पैरों पर खड़ा हो गया है और अपनी ललचाई, प्यासी नज़रों से उन दूर-दराज़ के इलाक़ों को घूर रहा हो, पर हँसते हुए, धीरे से उसने केवल इतना ही कहा—“मुझे तुमसे ईर्ष्या हो रही है।”
उसने सिर हिलाया ‘‘यह सब बड़ा अद्भुत रहा है, ख़ासकर रूस। रूस में वह सब कुछ है, जिसकी हमने कल्पना की थी और शायद उससे भी बहुत अधिक। मैंने कुछ दिन वोल्गा नदी पर नाव में भी बिताए। क्या तुम्हें मल्लाह का वह गीत याद है, जिसकी धुन तुम अक्सर बजाया करती थीं।?”
“हाँ,” जैसे ही उसने यह कहा वह गीत उसके भीतर बजने लगा।
“क्या तुम अब भी वह धुन बजाती हो?”
“नहीं, मेरे पास पियानो नहीं है।”
वह चकित हो गया। “पर तुम्हारे उस ख़ूबसूरत पियानो का क्या हुआ?”
उसने थोड़ा-सा मुँह बनाया, “सालों पहले बेच दिया।”
“पर तुम्हें तो संगीत का कितना शौक़ था।” उसे अचरज हुआ।
“अब उसके लिए मेरे पास समय नहीं है।” वह बोली। वह कुछ नहीं बोला “नदी पर बिताया जीवन”, वह आगे बताने लगा “कितना कुछ ख़ास तरह का था। एक आध दिन के बाद आपको यह लगता ही नहीं कि आप किसी और जीवन को भी जानते हैं और यह भी ज़रूरी नहीं कि आपको उनकी भाषा की जानकारी हो—नाव पर रहते हुए आपके और उन लोगों के बीच एक बंधन-सा बन जाता है और इतना ही काफ़ी होता है। आप उनके साथ खाते हो, उठते-बैठते हो, पूरा दिन बिताते हो और शाम को शुरू हो जाता है संगीत का एक अंतहीन सिलसिला।”
वह काँपने लगी, उसके भीतर फिर से मल्लाह का गीत, वह पीड़ा भरी धुन ज़ोर-ज़ोर से बजने लगी। उसने देखा कि एक गहरे रंग की नाव पानी पर चल रही है, नदी के दोनों ओर उदास पेड़ खड़े हैं। वह काँपने लगी...“हाँ, मुझे यह सब बहुत पसंद है।” वह अपना दस्ताना सहलाते हुए बोली।
“रूसी जीवन की लगभग हर चीज़ तुम्हें बेहद पसंद आएगी”, उसने बड़ी आत्मीयता से कहा। “वहाँ सब कुछ इतना अनौपचारिक, इतना आवेश से भरा हुआ, इतना मुक्त है कि कहीं किसी संदेह का सवाल ही नहीं, और फिर वहाँ के किसान कितने अद्भुत हैं। वे इतने बढ़िया इंसान हैं—हाँ, वहाँ सब कुछ ऐसा ही है। यहाँ तक कि जो आदमी घोड़ा गाड़ी चलाता है, वह भी आसपास जो कुछ भी घट रहा है उसका एक हिस्सा लगता है। मुझे याद है एक शाम, हम सब यानी मेरे दो दोस्त और उनमें से एक की बीवी ‘ब्लैक सी’ के किनारे पिकनिक मनाने गए थे। हमने अपना खाना और शैंपेन ली और घास पर बैठकर ही खाने-पीने लगे थे। जब हम खा रहे थे तो गाड़ीवान आया —“थोड़ा-सा सोये का अचार लीजिए”—वह बोला। वह सब कुछ हमारे साथ बाँटना चाहता था। मुझे यह सब इतना अच्छा लगा था। तुम समझ सकती हो न मैं क्या कहना चाहता हूँ?”
और उस क्षण इसे लगा, मानो वह उस रहस्यमय ब्लैक सी के किनारे घास पर बैठी हो। समुद्र बिल्कुल मखमल की तरह काला था और उसकी शांत, मखमली लहरें किनारे पर आकर तरंग पैदा कर रही थीं। उसने सड़क के किनारे खड़ी बैलगाड़ी को भी देखा और घास पर बैठे उस दल को भी जिनके चेहरे और हाथ चाँदनी में चमक रहे थे। उस औरत के पीले वस्त्र को भी देखा, जो फैला हुआ था। उसने उसके तह किए हुए छाते को भी देखा जो घास पर इस तरह पड़ा था, जैसे कसीदाकारी करने का मोतियों वाला कोई बड़ा हुक पड़ा हुआ हो। इनसे थोड़ा-सा हटकर घुटने पर कपड़े में अपना खाना लिए बैठा गाड़ीवान भी उसे दिखाई दिया, जो कह रहा था, “सोये का अचार लीजिए” और यद्यपि उसे पता नहीं था कि यह डिल का अचार होता क्या है, फिर भी उसने अंदाज़ लगाया कि हरे काँच की बरनी के भीतर से तोते की चोंच जैसी लाल मिर्च की तरह की कोई चीज़ चमक रही थी। उसने उसे अपने मुँह के भीतर रखकर चूसा; डिल अचार बेहद खट्टा था...
“हाँ, मैं बहुत अच्छी तरह समझ रही हूँ, तुम क्या कहना चाह रहे हो”, वह बोली।
उसके बाद एक क्षण चुप्पी छाई रही। इसी क्षण दोनों ने एक-दूसरे को देखा। अतीत में जब कभी वे इस तरह एक-दूसरे को देखते थे, उन्हें आपस में एक ऐसी असीम समझ का अहसास होता था, जो उनकी आत्माओं में बसी हुई थी। कुछ ऐसे मानो वे एक-दूसरे की बाँहों में खोए हुए शोकमग्न प्रेमियों की तरह समुद्र में कूद पड़ने को तैयार हों। पर अब अचरज की बात यह थी कि उसी ने अपने क़दम पीछे हटा लिए और वह बोला—“तुम कितनी तल्लीनता से सब कुछ सुनती हो। जब तुम अपनी इन बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखती हो तो मुझे लगता है कि मैं तुम्हें वह सब कुछ बता सकता हूँ, जो शायद मैं किसी दूसरे इंसान को कभी नहीं बता पाऊँ।”
क्या उसके स्वर में खिल्ली उड़ाने जैसा कुछ भाव था या यह उसके अपने मन का वहम था? वह कुछ समझ नहीं पाई।
“मैं जब तुमसे मिला नहीं था” वह बोला, “मैंने कभी किसी से अपने बारे में कोई बात नहीं की थी। मुझे वह रात भी अच्छी तरह याद है, जब मैं तुम्हारे लिए एक छोटा-सा क्रिसमस-पेड़ लाया था और तुम्हें अपने बचपन के बारे में सब कुछ बताया था। मैंने बताया था कि कैसे एक दिन मैं इतना दु:खी था कि घर से भागा था और दो दिनों तक अपने अहाते में रखी ठेला गाड़ी के नीचे रहा था। कोई मुझे ख़ोज नहीं पाया था और तुम सुनती रही थी। तुम्हारी आँखें चमक रही थीं और मुझे लगा, जैसे तुम्हारे असर में आकर वह छोटा-सा क्रिसमस पेड़ भी मेरी दास्ताँ सुन रहा था, वैसे ही जैसे परी-कथाओं में होता है।”
पर उस शाम की बात से उसे उस ज़ायक़ेदार मुरब्बे के छोटे डिब्बे की याद आई। उसकी क़ीमत छह या सात पेन्स थी। जो उसे बहुत अधिक लग रही थी और वह इसे सहन नहीं कर पा रहा था। “ज़रा देखो तो इतने छोटे से डिब्बे की इतनी ज़्यादा क़ीमत।” जब तक वह मुरब्बा खाती रही, वह उसे ख़ुशी और अचरज के साथ निहारता रहा।
“नहीं, यह तो एक तरह से पैसे खाना है। तुम इस आकार के छोटे से डिब्बे में सात शिलिंग डाल भी नहीं सकते। ज़रा सोचो ये कितना मुनाफ़ा कमाते होंगे...” और वह किसी जटिल हिसाब-किताब में उलझ गया था। पर अब मछली के उस ज़ायक़ेदार मुरब्बे को अलविदा। क्रिसमस पेड़ मेज़ पर था, और वह नन्हा-सा बच्चा ठेला गाड़ी के नीचे अहाते के कुत्ते पर अपना सिर टिकाकर सो रहा था।
“उस कुत्ते का नाम बीसून था न” वह ख़ुशी से चिल्ला पड़ी।
पर वह कुछ समझ नहीं पाया, “कौन-सा कुत्ता? क्या तुम्हारे पास कोई कुत्ता था? मुझे तो कुत्ते के बारे में बिल्कुल याद नहीं।”
“नहीं, नहीं, मैं तो उस अहाते के कुत्ते की बात कह रही हूँ, जब तुम बहुत छोटे थे।” वह हँसा और उसने सिगरेट की डिब्बी झपटकर खींच ली।
“क्या कोई कुत्ता सचमुच था? मैं तो भूल ही गया हूँ। जैसे यह सब सदियों पहले की बात हो। मुझे विश्वास नहीं होता कि केवल छह साल ही बीते हैं। आज जब मैंने तुम्हें पहचाना तो मुझे अतीत में एक बहुत लंबी छलाँग लगानी पड़ी, उस समय को दोबारा ज़ेहन में लाने के लिए मुझे अपनी पूरी बीती ज़िंदगी के बारे में नए सिरे से सोचना पड़ा।”
“मैं उस समय बिल्कुल बच्चा था”, वह मेज़ को बजाने लगा। “मैं अक्सर सोचता हूँ कि मैं तुम्हें कितना बोर किया करता था और अब मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ कि तुमने जो भी लिखा था, वह क्यों लिखा था—हालाँकि उस वक़्त तो तुम्हारे उस ख़त ने बिल्कुल मेरी जान ही ले ली थी। कुछ अरसा पहले दोबारा वह ख़त मेरे हाथ लगा था और उसे पढ़कर मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाया था। कितना बुद्धिमानी से भरा था तुम्हारा ख़त—मेरी बिल्कुल सही तस्वीर खींची थी तुमने।” उसने नज़र ऊपर उठाई।
“तुम नहीं जाओगी?” वह उठने लगी थी।
उसने दोबारा अपना कॉलर बंद कर लिया था और चेहरे पर झीना आवरण डाल लिया था। “नहीं मुझे जाना ही होगा, वह बोली और किसी तरह मुस्कराई। अब वह जान गई थी कि वह उसका मज़ाक उड़ा रहा था।
“अरे, नहीं बाबा! प्लीज़,” वह गिड़गिड़ाया, “कुछ देर तो रुक जाओ” और उसने मेज़ पर से उसका एक दस्ताना उठा लिया और उसे ऐसे पकड़ लिया मानो, उसी से वह उसे रोक लेगा। “आजकल बात करने के लिए मुझे इतने कम लोग मिलते हैं कि मैं बर्बर होता जा रहा हूँ,” वह बोला। “क्या मैंने तुम्हें ऐसा कुछ कह दिया है, जिससे तुम्हें दु:ख पहुँचा है?”
“बिल्कुल नहीं,” वह झूठ बोल गई। पर जब उसने देखा कि वह उसके दस्ताने को कोमलता से धीरे-धीरे अपनी उँगलियों से सहला रहा है तो उसका ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया और उस क्षण वह उसे छह वर्ष पहले जैसा ही लगा...
“उस समय मैं वाक़ई चाहता था,” उसने धीमे स्वर में बोलना शुरू किया, “कि एक तरह से तुम्हारे लिए एक क़ालीन की तरह बन जाऊँ—उस पर तुम चलो, ताकि तुम्हें पत्थर और मिट्टी पर बिल्कुल भी न चलना पड़े और तुम्हें कोई चोट न लगे। मेरे दिल में इससे अधिक कुछ नहीं था—मेरा कोई स्वार्थ न था। हाँ, बाद में मेरी यह इच्छा ज़रूर थी कि मैं केवल क़ालीन नहीं, बल्कि एक जादुई क़ालीन बन जाऊँ और तुम्हें उड़ाकर उन तमाम देशों में ले जाऊँ जहाँ जाने के लिए तुममें इतनी ललक थी।”
जब वह यह बोल रहा था, उसने अपना सिर ऐसे उठाया जैसे वह कुछ पी रहा हो, और उसके भीतर का वह विचित्र पशु एक बार फिर करवट लेने लगा।
“मुझे लगता था कि तुम इस दुनिया में सबसे ज़्यादा तनहा हो,” वह बोलता गया “और फिर भी शायद तुम ही एकमात्र हो जो दुनिया में वाक़ई सही मायने में ज़िंदा है—अपने समय से अलग,” दस्ताने को सहलाते हुए वह बुदबुदाया, “भाग्यशाली।”
हे ईश्वर! उसने यह क्या कर डाला! कैसे उसने अपने नसीब, अपनी ख़ुशी को इस तरह नकार दिया। यही तो एक शख़्स था जो उसे समझता था। क्या अब वाक़ई देर हो चुकी है? क्या देर जैसा कभी कुछ होता है? वह उस दस्ताने की तरह थी, जिसे उसने अपनी उँगलियों में थाम रखा था।
“और फिर यह भी एक सच था कि तुम्हारे कोई दोस्त नहीं थे और न ही तुम लोगों से दोस्ती करती थीं। मैंने यह कैसे जाना था, क्योंकि मेरे भी कोई दोस्त नहीं थे। क्या अब भी सब कुछ वैसा ही है?”
“हाँ,” उसने साँस खींची। “बिल्कुल वैसा ही है। मैं अब भी हमेशा की तरह अकेली हूँ।”
“मैं भी,” वह धीरे से हँसा, “बिल्कुल वैसा ही।” अचानक तेज़ी से उसने उसका दस्ताना उसे वापस किया और अपनी कुर्सी पीछे खिसकाई। “पर उस समय मुझे जो इतना रहस्यमय लग रहा था, अब मेरे लिए एकदम स्पष्ट है और तुम्हें भी शायद...”
“एक सीधी-सी बात यह है कि हम दोनों इतने अहंकारी, ख़ुद में डूबे हुए थे कि हमारे दिलों में किसी और के लिए कोई जगह ही न थी। क्या तुम जानती हो,” वह चिल्लाया। अब वह फिर अपने उसी दूसरे, एकदम अनजान रूप में आ गया था, “मैं जब रूस में था मैंने मानव-मस्तिष्क की प्रणाली को समझना शुरू किया था और उससे मैंने जाना कि हम बिल्कुल अलग तरह के नहीं थे। यह एक बहुत जानी पहचानी बात है...”
वह चली गई थी। वह वहीं बैठा रहा, हक्का-बक्का एकदम अचंभित...और फिर महिला वेटर से उसने बिल मँगवाया।
“क्रीम को तो छुआ भी नहीं गया है,” वह बोला “प्लीज़ उसके पैसे मत लगाओ!”
aur phir, chhah barson ke baad isne use dobara dekha. wo baans se bani un chhoti chhoti mezon mein se ek par baitha tha. mez kaghaz se bane DephoDil phulon ke japani guldaste se saji hui thi. samne phalon ki ek baDi plet rakhi hui thi aur wo apne usi khaas andaj se santara chheel raha tha, jise wo khoob pahchanti thi aur isi vajah se isne use fauran pahchan liya.
usne bhi apne bhitar achanak pahchan liye jane ko ek jhatke ke saath mahsus kiya. kyonki jaise hi usne sir uthaya tha, un donon ki ankhen mili theen. namumkin! wo ekdam se pahchan hi nahin paya! wo muskrai; isne tyauriyan chaDha leen. wo uske qarib aai. usne pal bhar ke liye ankhen band keen, par ankhen kholte hi uska chehra chamak utha, jaise andhere kamre mein machis ki tili jalane se hota hai. usne santara rakh diya aur kursi pichhe ki taraf khiska di. isne garmahat bhara apna haath dastane mein se bahar nikala aur uske haath mein de diya.
“vaira”, ye vismay se chillaya “kitni ajib baat hai. vaqii ek kshan ke liye to main tumhein pahchan hi nahin paya. kya tum baithogi nahin? tumne khana khaya? kaufi logi?” wo hichakichai par phir boli, “theek hai, kaufi le lungi”, aur wo uske samne aakar baith gai.
“tum badal gai ho, tum bahut zyada badal gai ho,” wo uski or lagatar vismay aur adhirata se dekhta raha. “yaar, tum sachmuch bahut achchhi lag rahi ho. mainne pahle tumhein kabhi itna khubsurat nahin paya. ”
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“are, haan, tumhein to jaDe se nafrat hai. . . ”
“haan mujhe ye sakht napsand hai. ” wo thanD se kaanp rahi thi. “aur sabse bekar baat to ye hai ki jaise jaise hum buDhe hote jate hain. . . ”
usne beech mein hi use toka, “kshama chahta hoon” aur baire ko bulane ke liye mez thapthapane laga. “thoDi kaufi aur kreem le aao” aur phir dobara uski or mukhatib ho gaya, “kya vaqii tum kuch nahin khaogi? thoDa sa phal to le hi sakti ho. yahan phal bahut achchhe hain. ”
“nahin shukriya. ”
“theek hai,” hanste hue usne dobara santara utha liya. “haan, to tum kah rahi theen, jo jitna buDha hota jata hai. ” “utna thanDa hota jata hai. ” wo hans paDi. halanki wo soch rahi thi uski ye aadat, beech mein is tarah tokne ki—aj bhi use kitni achchhi tarah yaad hai. aur kaise chhah baras pahle uski is aadat se wo kitni bhaDak uthti thi. use hamesha lagta, manon baat karte karte usne achanak iske honthon par haath diya ho aur use bhulkar kuch aur karne lag gaya ho aur phir haath hatakar apni usi chauDi muskan se uski or mukhatib ho. . . “haan to ab hum taiyar hain. ab sab kuch nipat gaya hai. ”
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‘jireniyam, merigolD aur vairbona’. aur mujhe lagta hai ki us vismrit bhuli bisri bhasha ke ye teen shabd hi mujhe yaad rah ge hain. . . tumhein wo dopahar yaad hai?”
“are haan, bilkul, bahut achchhi tarah yaad hai”, usne ek gahri, lambi saans li. manon donon ke beech rakhe un khubsurat kaghazi DephoDil ke phulon ko bhi sahna bahut mushkil lag raha ho. par phir bhi us dopahar ki jo yaad uske zehn mein thi, usse use chaay ke tebal par ek betuka sa drishya hi yaad aya—chainiz pegoDa mein kafi baDi sankhya mein log chaay pi rahe the aur isne bilkul kisi sanki adami ki tarah tunamizaji dikhai thi, wo apni pual ki topi se sabke saath thithauli karta raha, jabki uska ye bartav kisi bhi tarah us mauqe ke anukul nahin tha. chaay pite hue keval kuch siraphire log hi uske is vyvahar ka anand le rahe the aur kaise use ye sab jhelna paDa tha.
par ab, jab wo bol raha tha, to wo yaad dhundhli paD gai thi. wo theek hi kah raha tha. haan, wo vaqii ek achchhi dopahar thi. jireniyam, merigolD aur verbona tatha khushanuma dhoop se bhari. uska dhyaan antim do shabdon par hi atak gaya manon usne in shabdon ko abhi abhi gaya ho.
us khushanuma dhoop ke saath ek aur yaad juDi hui thi. usne khud ko ek laun mein baitha paya tha aur wo uske paas leta hua tha, aur achanak kafi der ki chuppi ke baad wo ghuma aur apna sir iski god mein rakh diya tha.
“kaash” usne phusaphusate hue kaha tha “kaash, mainne zahr kha liya hota aur abhi, isi kshan main mar raha hota!”
usi kshan ek nanhin si laDki safed phraak pahne haath mein baDa lili ka phool liye jhaDi ke pichhe se dauDte hue aai. usne inki or ankhen phaDkar dekha tha aur phir bhagkar chali gai thi. par wo ye sab nahin dekh paya tha. wo uske uupar jhuki hui thi.
“ai, tum aisa kyon kahte ho? main to kabhi aisa nahin kah sakti. ”
par usne ek halki si aah bhari aur uska haath apne haath mein lekar khud ke gaal par rakh diya.
“kyonki main janta hoon main tumhein bahut pyaar karta hun—beintha pyaar aur mujhe bahut duhakh jhelna paDega, kyonki vaira tum mujhe kabhi pyaar nahin karogi. ”
pahle ki tulna mein ab wo kafi behtar dikhai de raha tha. uska us sapnili duniya mein rahna aur hamesha anishchat rahna ab ekdam khatm ho gaya tha. ab usmen ek purushochit gambhirta thi, jisne jivan mein ek muqam hasil kar liya ho, jo adami ko atmavishvas aur suraksha se bhar deta hai. kul milakar ab wo kafi prabhavashali lag raha tha. usne paise bhi khoob kamaye honge, uske kapDe baDhiya the aur us par phab rahe the. usi kshan usne apni jeb se rashiyan sigret ki Dibbi nikali.
“tum logi?”
“haan, main lungi” usne unhen utha liya, “ye baDhiya sigret lag rahe hain. ”
“haan, mere khayal se ye baDhiya sigret hain. main inhen khaas apne liye sent jems street mein ek mamuli se adami se banvata hoon. main zyada dhumrapan nahin karta. main tumhari tarah nahin hoon, par main jab bhi pita hoon mujhe zayqedar aur bilkul taza sigret chahiye. dhuan uDana meri aadat nahin, balki sukh ka sadhan hai. bilkul kisi itr ki tarah. kya tumhein ab bhi itr bahut pasand hain? jab main roos mein tha. . . ”
wo beech mein hi boli “kya tum vaqii roos ge ho?”
“are haan, main qarib saal bhar se zyada vahan raha tha. tum shayad bhool gai ho, hum hamesha vahan jane ki baten kiya karte the?”
“nahin, main nahin bhuli hoon. ”
uske chehre par ek ajib adhuri si muskan aai aur wo kursi ke pichhe tikkar baith gaya. “kya ye ajib baat nahin. main vaqii un sabhi jaghon par gaya hoon, jahan jane ki hamne yojnayen banai theen. haan, main un tamam jaghon par gaya aur vahan kafi samay tak raha. jaisa ki tum kaha karti thi. “vahan ki hava ko mahsus karna chahiye. ” darasal mainne pichhle teen saal lagatar yatrayen hi ki hain. spen, korsika, saiberiya, roos, misr. ab keval cheen hi rah gaya hai aur mera vahan jane ka bhi pura irada hai, jab yuddh samapt ho jayega. ”
jaise wo bata raha tha—dhire dhire. . . sigret ki raakh esh tre mein jhaDte hue, ise laga manon salon se uske andar soya ek ajib sa pashu achanak jaag utha ho, aur uske bhitar puri tarah pasar gaya ho aur jamhai le raha ho. usne apne kaan khaDe kar liye hain, kudkar wo pairon par khaDa ho gaya hai aur apni lalchai, pyasi nazron se un door daraz ke ilaqon ko ghoor raha ho, par hanste hue, dhire se usne keval itna hi kaha—”mujhe tumse iirshya ho rahi hai. ”
usne sir hilaya ‘‘yah sab baDa adbhut raha hai, khaskar roos. roos mein wo sab kuch hai, jiski hamne kalpana ki thi aur shayad usse bhi bahut adhik. mainne kuch din volga nadi par naav mein bhi bitaye. kya tumhein mallah ka wo geet yaad hai, jiski dhun tum aksar bajaya karti theen. ?”
“haan,” jaise hi usne ye kaha wo geet uske bhitar bajne laga.
“kya tum ab bhi wo dhun bajati ho?”
“nahin, mere paas piyano nahin hai. ”
wo chakit ho gaya. “par tumhare us khubsurat piyano ka kya hua?”
usne thoDa sa munh banaya, “salon pahle bech diya. ”
“par tumhein to sangit ka kitna shauq tha. ” use achraj hua.
“ab uske e mere paas samay nahin hai. ” wo boli. wo kuch nahin bola “nadi par bitaya jivan”, wo aage batane laga “kitna kuch khaas tarah ka tha. ek aadh din ke baad aapko ye lagta hi nahin ki aap kisi aur jivan ko bhi jante hain aur ye bhi zaruri nahin ki aapko unki bhasha ki jankari ho—nav par rahte hue aapke aur un logon ke beech ek bandhan sa ban jata hai aur itna hi kafi hota hai. aap unke saath khate ho, uthte baithte ho, pura din bitate ho aur shaam ko shuru ho jata hai sangit ka ek
anthin silsila. ”
wo kanpne lagi, uske bhitar phir se mallah ka geet, wo piDa bhari dhun zor zor se bajne lagi. usne dekha ki ek gahre rang ki naav pani par chal rahi hai, nadi ke donon or udaas peD khaDe hain. wo kanpne lagi. . . ”haan, mujhe ye sab bahut pasand hai. ” wo apna dastana sahlate hue boli.
“rusi jivan ki lagbhag har cheez tumhein behad pasand ayegi”, usne baDi atmiyata se kaha. “vahan sab kuch itna anaupacharik, itna avesh se bhara hua, itna mukt hai ki kahin kisi sandeh ka saval hi nahin, aur phir vahan ke kisan kitne adbhut hain. ve itne baDhiya insaan hain—han, vahan sab kuch aisa hi hai. yahan tak ki jo adami ghoDa gaDi chalata hai, wo bhi asapas jo kuch bhi ghat raha hai uska ek hissa lagta hai. mujhe yaad hai ek shaam, hum sab yani mere do dost aur unmen se ek ki bivi ‘blaik see’ ke kinare piknik manane ge the. hamne apna khana aur shaimpen li aur ghaas par baithkar hi khane pine lage the. jab hum kha rahe the to gaDivan aaya —“thoDa sa soye ka achar lijiye”—vah bola. wo sab kuch hamare saath bantna chahta tha. mujhe ye sab itna achchha laga tha. tum samajh sakti ho na main kya kahna chahta hoon?”
aur us kshan ise laga, manon wo us rahasyamay blaik si ke kinare ghaas par baithi ho. samudr bilkul makhmal ki tarah kala tha aur uski shaant, makhamli lahren kinare par aakar tarang paida kar rahi theen. usne saDak ke kinare khaDi bailgaDi ko bhi dekha aur ghaas par baithe us dal ko bhi jinke chehre aur haath chandni mein chamak rahe the. us aurat ke pile vastra ko bhi dekha, jo phaila hua tha. usne uske tah kiye hue chhate ko bhi dekha jo ghaas par is tarah paDa tha, jaise kasidakari karne ka motiyon vala koi baDa huk paDa hua ho. inse thoDa sa hatkar ghutne par kapDe mein apna khana liye baitha gaDivan bhi use dikhai diya, jo kah raha tha, “soye ka achar lijiye” aur yadyapi use pata nahin tha ki ye Dil ka achar hota kya hai, phir bhi usne andaz lagaya ki hare kaanch ki barni ke bhitar se tote ki chonch jaisi laal mirch ki tarah ki koi cheez chamak rahi thi. usne use apne munh ke bhitar rakhkar chusa; Dil achar behad khatta tha. . .
“haan, main bahut achchhi tarah samajh rahi hoon, tum kya kahna chaah rahe ho”, wo boli.
uske baad ek kshan chuppi chhai rahi. isi kshan donon ne ek dusre ko dekha. atit mein jab kabhi ve is tarah ek dusre ko dekhte the, unhen aapas mein ek aisi asim samajh ka ahsas hota tha, jo unki atmaon mein basi hui thi. kuch aise manon ve ek dusre ki banhon mein khoe hue shokmagn premiyon ki tarah samudr mein kood paDne ko taiyar hon. par ab achraj ki baat ye thi ki usi ne apne qadam pichhe hata liye aur wo bola—“tum kitni tallinta se sab kuch sunti ho. jab tum apni in baDi baDi ankhon se mujhe dekhti ho to mujhe lagta hai ki main tumhein wo sab kuch bata sakta hoon, jo shayad main kisi dusre insaan ko kabhi nahin bata paun. ”
kya uske svar mein khilli uDane jaisa kuch bhaav tha ya ye uske apne man ka vahm tha? wo kuch samajh nahin pai.
“main jab tumse mila nahin tha” wo bola, “mainne kabhi kisi se apne bare mein koi baat nahin ki thi. mujhe wo raat bhi achchhi tarah yaad hai, jab main tumhare liye ek chhota sa krismas peD laya tha aur tumhein apne bachpan ke bare mein sab kuch bataya tha. mainne bataya tha ki kaise ek din main itna duhkhi tha ki ghar se bhaga tha aur do dinon tak apne ahate mein rakhi thela gaDi ke niche raha tha. koi mujhe khoj nahin paya tha aur tum sunti rahi thi. tumhari ankhen chamak rahi theen aur mujhe laga, jaise tumhare asar mein aakar wo chhota sa krismas peD bhi meri dastan sun raha tha, vaise hi jaise pari kathaon mein hota hai. ”
par us shaam ki baat se use us zayqedar murabbe ke chhote Dibbe ki yaad aai. uski qimat chhah ya saat pens thi. jo use bahut adhik lag rahi thi aur wo ise sahn nahin kar pa raha tha. “zara dekho to itne chhote se Dibbe ki itni zyada qimat. ” jab tak wo murabba khati rahi, wo use khushi aur achraj ke saath niharta raha.
“nahin, ye to ek tarah se paise khana hai. tum is akar ke chhote se Dibbe mein saat shiling Daal bhi nahin sakte. zara socho ye kitna munafa kamate honge. . . ” aur wo kisi jatil hisab kitab mein ulajh gaya tha. par ab machhli ke us zayqedar murabbe ko alavida. krismas peD mez par tha, aur wo nanha sa bachcha thela gaDi ke niche ahate ke kutte par apna sir tikakar so raha tha.
“us kutte ka naam bisun tha na” wo khushi se chilla paDi.
par wo kuch samajh nahin paya, “kaun sa kutta? kya tumhare paas koi kutta tha? mujhe to kutte ke bare mein bilkul yaad nahin. ”
“nahin, nahin, main to us ahate ke kutte ki baat kah rahi hoon, jab tum bahut chhote the. ” wo hansa aur usne sigret ki Dibbi jhapat kar kheench li.
kya koi kutta sachmuch tha? main to bhool hi gaya hoon. jaise ye sab sadiyon pahle ki baat ho. mujhe vishvas nahin hota ki keval chhah saal hi bite hain. aaj jab mainne tumhein pahchana to mujhe atit mein ek bahut lambi chhalang lagani paDi, us samay ko dobara zehn mein lane ke liye mujhe apni puri biti zindagi ke bare mein ne sire se sochna paDa. ”
“main us samay bilkul bachcha tha”, wo mez ko bajane laga. “main aksar sochta hoon ki main tumhein kitna bor kiya karta tha aur ab main achchhi tarah samajh sakta hoon ki tumne jo bhi likha tha, wo kyon likha tha—halanki us vaqt to tumhare us khat ne bilkul meri jaan hi le li thi. kuch arsa pahle dobara wo khat mere haath laga tha aur use paDhkar main apni hansi rok nahin paya tha. kitna buddhimani se bhara tha tumhara khat—meri bilkul sahi tasvir khinchi thi tumne. ” usne nazar uupar uthai.
“tum nahin jaogi?” wo uthne lagi thi.
usne dobara apna kaular band kar liya tha aur chehre par jhina avran Daal liya tha. “nahin mujhe jana hi hoga, wo boli aur kisi tarah muskrai. ab wo jaan gai thi ki wo uska mazak uDa raha tha.
“are, nahin baba! pleej,” wo giDgiDaya, “kuchh der to ruk jao” aur usne mez par se uska ek dastana utha liya aur use aise pakaD liya manon, usi se wo use rok lega. ” ajkal baat karne ke liye mujhe itne kam log milte hain ki main barbar hota ja raha hoon,” wo bola. “kya mainne tumhein aisa kuch kah diya hai, jisse tumhein duhakh pahuncha hai?”
“bilkul nahin,” wo jhooth bol gai. par jab usne dekha ki wo uske dastane ko komalta se dhire dhire apni ungliyon se sahla raha hai to uska ghussa kafur ho gaya aur us kshan wo use chhah varsh pahle jaisa hi laga. . .
“us samay main vaqii chahta tha,” usne dhime svar mein bolna shuru kiya, “ki ek tarah se tumhare liye ek qalin ki tarah ban jaun—us par tum chalo, taki tumhein patthar aur mitti par bilkul bhi na chalna paDe aur tumhein koi chot na lage. mere dil mein isse adhik kuch nahin tha—mera koi svaarth na tha. haan, baad mein meri ye ichchha zarur thi ki main keval qalin nahin, balki ek jadui qalin ban jaun aur tumhein uDakar un tamam deshon mein le jaun jahan jane ke liye tummen itni lalak thi.
jab wo ye bol raha tha, usne apna sir aise uthaya jaise wo kuch pi raha ho, aur uske bhitar ka wo vichitr pashu ek baar phir karvat lene laga.
“mujhe lagta tha ki tum is duniya mein sabse zyada tanha ho,” wo bolta “aur phir bhi shayad tum hi ekmaatr ho jo duniya mein vaqii sahi mayne mein zinda hai—apne samay se alag,” dastane ko sahlate hue wo budabudaya, “bhagyashali. ”
he iishvar! usne ye kya kar Dala! kaise usne apne nasib, apni khushi ko is tarah nakar diya. yahi to ek shakhs tha jo use samajhta tha. kya ab vaqii der ho chuki hai? kya der jaisa kabhi kuch hota hai? wo us dastane ki tarah thi, jise usne apni ungliyon mein thaam rakha tha.
“aur phir ye bhi ek sach tha ki tumhare koi dost nahin the aur na hi tum logon se dosti karti theen. mainne ye kaise jana tha, kyonki mere bhi koi dost nahin the. kya ab bhi sab kuch vaisa hi hai?”
“haan,” usne saans khinchi. “bilkul vaisa hi hai. main ab bhi hamesha ki tarah akeli hoon. ”
“main bhi,” wo dhire se hansa, “bilkul vaisa hi. ” achanak tezi se usne uska dastana use vapas kiya aur apni kursi pichhe khiskai. “par us samay mujhe jo itna rahasyamay lag raha tha, ab mere liye ekdam aspasht hai aur tumhein bhi shayad. . . ”
“ek sidhi si baat ye hai ki hum donon itne ahankari, khud mein Dube hue the ki hamare dilon mein kisi aur ke liye koi jagah hi na thi. kya tum janti ho,” wo chillaya. ab wo phir apne usi dusre, ekdam anjan roop mein aa gaya tha, “main jab roos mein tha mainne manav mastishk ki prnali ko samajhna shuru kiya tha aur usse mainne jana ki hum bilkul alag tarah ke nahin the. ye ek bahut jani pahchani baat hai. . .
wo chali gai thi. wo vahin baitha raha, hakka bakka ekdam achambhit. . . aur phir mahila vetar se usne bil mangvaya.
“kreem ko to chhua bhi nahin gaya hai,” wo bola “pleez uske paise mat lagao!”
aur phir, chhah barson ke baad isne use dobara dekha. wo baans se bani un chhoti chhoti mezon mein se ek par baitha tha. mez kaghaz se bane DephoDil phulon ke japani guldaste se saji hui thi. samne phalon ki ek baDi plet rakhi hui thi aur wo apne usi khaas andaj se santara chheel raha tha, jise wo khoob pahchanti thi aur isi vajah se isne use fauran pahchan liya.
usne bhi apne bhitar achanak pahchan liye jane ko ek jhatke ke saath mahsus kiya. kyonki jaise hi usne sir uthaya tha, un donon ki ankhen mili theen. namumkin! wo ekdam se pahchan hi nahin paya! wo muskrai; isne tyauriyan chaDha leen. wo uske qarib aai. usne pal bhar ke liye ankhen band keen, par ankhen kholte hi uska chehra chamak utha, jaise andhere kamre mein machis ki tili jalane se hota hai. usne santara rakh diya aur kursi pichhe ki taraf khiska di. isne garmahat bhara apna haath dastane mein se bahar nikala aur uske haath mein de diya.
“vaira”, ye vismay se chillaya “kitni ajib baat hai. vaqii ek kshan ke liye to main tumhein pahchan hi nahin paya. kya tum baithogi nahin? tumne khana khaya? kaufi logi?” wo hichakichai par phir boli, “theek hai, kaufi le lungi”, aur wo uske samne aakar baith gai.
“tum badal gai ho, tum bahut zyada badal gai ho,” wo uski or lagatar vismay aur adhirata se dekhta raha. “yaar, tum sachmuch bahut achchhi lag rahi ho. mainne pahle tumhein kabhi itna khubsurat nahin paya. ”
“sach”! isne apne chehre se rumal hataya aur gale tak band phar kot ke kaular ka batan khol diya. “meri tabiyat kuch Dhili lag rahi hai. tum to jante ho mujhse ye mausam saha nahin jata. ”
“are, haan, tumhein to jaDe se nafrat hai. . . ”
“haan mujhe ye sakht napsand hai. ” wo thanD se kaanp rahi thi. “aur sabse bekar baat to ye hai ki jaise jaise hum buDhe hote jate hain. . . ”
usne beech mein hi use toka, “kshama chahta hoon” aur baire ko bulane ke liye mez thapthapane laga. “thoDi kaufi aur kreem le aao” aur phir dobara uski or mukhatib ho gaya, “kya vaqii tum kuch nahin khaogi? thoDa sa phal to le hi sakti ho. yahan phal bahut achchhe hain. ”
“nahin shukriya. ”
“theek hai,” hanste hue usne dobara santara utha liya. “haan, to tum kah rahi theen, jo jitna buDha hota jata hai. ” “utna thanDa hota jata hai. ” wo hans paDi. halanki wo soch rahi thi uski ye aadat, beech mein is tarah tokne ki—aj bhi use kitni achchhi tarah yaad hai. aur kaise chhah baras pahle uski is aadat se wo kitni bhaDak uthti thi. use hamesha lagta, manon baat karte karte usne achanak iske honthon par haath diya ho aur use bhulkar kuch aur karne lag gaya ho aur phir haath hatakar apni usi chauDi muskan se uski or mukhatib ho. . . “haan to ab hum taiyar hain. ab sab kuch nipat gaya hai. ”
“utna thanDa hota jata hai!” usne hanste hue usi ke shabdon ko jyon ka tyon dohraya. “ai, tum ab bhi vaisi hi baten karti ho aur tumhari ek aur baat hai, jo bilkul bhi nahin badli, tumhari khubsurat avaz—bat karne ka tumhara mohak andaj. ” ab wo kafi gambhir tha. wo iski taraf kuch jhuka, isne santre ke chhilkon ki tazi, tez khushbu mahsus ki. “tumhen sirf ek shabd kahna hoga aur kai avazon ke beech bhi main tumhari avaz ko bakhubi pahchan lunga. mujhe aksar tajjub hota hai ki aisa kya hai, jo tumhari avaz mere dimagh mein ek na bhulne vali yaad bankar rah gai hai. . . kya tumhein wo pahli dopahar yaad hai, jo hamne saath saath kyu garDan mein bitai thi. tumhein kitna ajib laga tha ki mujhe kisi bhi phool ka naam nahin pata tha. tumhare sare naam batane ke bavjud main aaj bhi phulon ke namon se utna hi anjan hun—yah vaqii ajib vismay ki baat hai ki jab bhi sab kuch khushanuma aur sukhad hota hai aur main koi chamakdar, chatak rang dekhta hoon to mujhe tumhari avaz sunai deti hai—
‘jireniyam, merigolD aur vairbona’. aur mujhe lagta hai ki us vismrit bhuli bisri bhasha ke ye teen shabd hi mujhe yaad rah ge hain. . . tumhein wo dopahar yaad hai?”
“are haan, bilkul, bahut achchhi tarah yaad hai”, usne ek gahri, lambi saans li. manon donon ke beech rakhe un khubsurat kaghazi DephoDil ke phulon ko bhi sahna bahut mushkil lag raha ho. par phir bhi us dopahar ki jo yaad uske zehn mein thi, usse use chaay ke tebal par ek betuka sa drishya hi yaad aya—chainiz pegoDa mein kafi baDi sankhya mein log chaay pi rahe the aur isne bilkul kisi sanki adami ki tarah tunamizaji dikhai thi, wo apni pual ki topi se sabke saath thithauli karta raha, jabki uska ye bartav kisi bhi tarah us mauqe ke anukul nahin tha. chaay pite hue keval kuch siraphire log hi uske is vyvahar ka anand le rahe the aur kaise use ye sab jhelna paDa tha.
par ab, jab wo bol raha tha, to wo yaad dhundhli paD gai thi. wo theek hi kah raha tha. haan, wo vaqii ek achchhi dopahar thi. jireniyam, merigolD aur verbona tatha khushanuma dhoop se bhari. uska dhyaan antim do shabdon par hi atak gaya manon usne in shabdon ko abhi abhi gaya ho.
us khushanuma dhoop ke saath ek aur yaad juDi hui thi. usne khud ko ek laun mein baitha paya tha aur wo uske paas leta hua tha, aur achanak kafi der ki chuppi ke baad wo ghuma aur apna sir iski god mein rakh diya tha.
“kaash” usne phusaphusate hue kaha tha “kaash, mainne zahr kha liya hota aur abhi, isi kshan main mar raha hota!”
usi kshan ek nanhin si laDki safed phraak pahne haath mein baDa lili ka phool liye jhaDi ke pichhe se dauDte hue aai. usne inki or ankhen phaDkar dekha tha aur phir bhagkar chali gai thi. par wo ye sab nahin dekh paya tha. wo uske uupar jhuki hui thi.
“ai, tum aisa kyon kahte ho? main to kabhi aisa nahin kah sakti. ”
par usne ek halki si aah bhari aur uska haath apne haath mein lekar khud ke gaal par rakh diya.
“kyonki main janta hoon main tumhein bahut pyaar karta hun—beintha pyaar aur mujhe bahut duhakh jhelna paDega, kyonki vaira tum mujhe kabhi pyaar nahin karogi. ”
pahle ki tulna mein ab wo kafi behtar dikhai de raha tha. uska us sapnili duniya mein rahna aur hamesha anishchat rahna ab ekdam khatm ho gaya tha. ab usmen ek purushochit gambhirta thi, jisne jivan mein ek muqam hasil kar liya ho, jo adami ko atmavishvas aur suraksha se bhar deta hai. kul milakar ab wo kafi prabhavashali lag raha tha. usne paise bhi khoob kamaye honge, uske kapDe baDhiya the aur us par phab rahe the. usi kshan usne apni jeb se rashiyan sigret ki Dibbi nikali.
“tum logi?”
“haan, main lungi” usne unhen utha liya, “ye baDhiya sigret lag rahe hain. ”
“haan, mere khayal se ye baDhiya sigret hain. main inhen khaas apne liye sent jems street mein ek mamuli se adami se banvata hoon. main zyada dhumrapan nahin karta. main tumhari tarah nahin hoon, par main jab bhi pita hoon mujhe zayqedar aur bilkul taza sigret chahiye. dhuan uDana meri aadat nahin, balki sukh ka sadhan hai. bilkul kisi itr ki tarah. kya tumhein ab bhi itr bahut pasand hain? jab main roos mein tha. . . ”
wo beech mein hi boli “kya tum vaqii roos ge ho?”
“are haan, main qarib saal bhar se zyada vahan raha tha. tum shayad bhool gai ho, hum hamesha vahan jane ki baten kiya karte the?”
“nahin, main nahin bhuli hoon. ”
uske chehre par ek ajib adhuri si muskan aai aur wo kursi ke pichhe tikkar baith gaya. “kya ye ajib baat nahin. main vaqii un sabhi jaghon par gaya hoon, jahan jane ki hamne yojnayen banai theen. haan, main un tamam jaghon par gaya aur vahan kafi samay tak raha. jaisa ki tum kaha karti thi. “vahan ki hava ko mahsus karna chahiye. ” darasal mainne pichhle teen saal lagatar yatrayen hi ki hain. spen, korsika, saiberiya, roos, misr. ab keval cheen hi rah gaya hai aur mera vahan jane ka bhi pura irada hai, jab yuddh samapt ho jayega. ”
jaise wo bata raha tha—dhire dhire. . . sigret ki raakh esh tre mein jhaDte hue, ise laga manon salon se uske andar soya ek ajib sa pashu achanak jaag utha ho, aur uske bhitar puri tarah pasar gaya ho aur jamhai le raha ho. usne apne kaan khaDe kar liye hain, kudkar wo pairon par khaDa ho gaya hai aur apni lalchai, pyasi nazron se un door daraz ke ilaqon ko ghoor raha ho, par hanste hue, dhire se usne keval itna hi kaha—”mujhe tumse iirshya ho rahi hai. ”
usne sir hilaya ‘‘yah sab baDa adbhut raha hai, khaskar roos. roos mein wo sab kuch hai, jiski hamne kalpana ki thi aur shayad usse bhi bahut adhik. mainne kuch din volga nadi par naav mein bhi bitaye. kya tumhein mallah ka wo geet yaad hai, jiski dhun tum aksar bajaya karti theen. ?”
“haan,” jaise hi usne ye kaha wo geet uske bhitar bajne laga.
“kya tum ab bhi wo dhun bajati ho?”
“nahin, mere paas piyano nahin hai. ”
wo chakit ho gaya. “par tumhare us khubsurat piyano ka kya hua?”
usne thoDa sa munh banaya, “salon pahle bech diya. ”
“par tumhein to sangit ka kitna shauq tha. ” use achraj hua.
“ab uske e mere paas samay nahin hai. ” wo boli. wo kuch nahin bola “nadi par bitaya jivan”, wo aage batane laga “kitna kuch khaas tarah ka tha. ek aadh din ke baad aapko ye lagta hi nahin ki aap kisi aur jivan ko bhi jante hain aur ye bhi zaruri nahin ki aapko unki bhasha ki jankari ho—nav par rahte hue aapke aur un logon ke beech ek bandhan sa ban jata hai aur itna hi kafi hota hai. aap unke saath khate ho, uthte baithte ho, pura din bitate ho aur shaam ko shuru ho jata hai sangit ka ek
anthin silsila. ”
wo kanpne lagi, uske bhitar phir se mallah ka geet, wo piDa bhari dhun zor zor se bajne lagi. usne dekha ki ek gahre rang ki naav pani par chal rahi hai, nadi ke donon or udaas peD khaDe hain. wo kanpne lagi. . . ”haan, mujhe ye sab bahut pasand hai. ” wo apna dastana sahlate hue boli.
“rusi jivan ki lagbhag har cheez tumhein behad pasand ayegi”, usne baDi atmiyata se kaha. “vahan sab kuch itna anaupacharik, itna avesh se bhara hua, itna mukt hai ki kahin kisi sandeh ka saval hi nahin, aur phir vahan ke kisan kitne adbhut hain. ve itne baDhiya insaan hain—han, vahan sab kuch aisa hi hai. yahan tak ki jo adami ghoDa gaDi chalata hai, wo bhi asapas jo kuch bhi ghat raha hai uska ek hissa lagta hai. mujhe yaad hai ek shaam, hum sab yani mere do dost aur unmen se ek ki bivi ‘blaik see’ ke kinare piknik manane ge the. hamne apna khana aur shaimpen li aur ghaas par baithkar hi khane pine lage the. jab hum kha rahe the to gaDivan aaya —“thoDa sa soye ka achar lijiye”—vah bola. wo sab kuch hamare saath bantna chahta tha. mujhe ye sab itna achchha laga tha. tum samajh sakti ho na main kya kahna chahta hoon?”
aur us kshan ise laga, manon wo us rahasyamay blaik si ke kinare ghaas par baithi ho. samudr bilkul makhmal ki tarah kala tha aur uski shaant, makhamli lahren kinare par aakar tarang paida kar rahi theen. usne saDak ke kinare khaDi bailgaDi ko bhi dekha aur ghaas par baithe us dal ko bhi jinke chehre aur haath chandni mein chamak rahe the. us aurat ke pile vastra ko bhi dekha, jo phaila hua tha. usne uske tah kiye hue chhate ko bhi dekha jo ghaas par is tarah paDa tha, jaise kasidakari karne ka motiyon vala koi baDa huk paDa hua ho. inse thoDa sa hatkar ghutne par kapDe mein apna khana liye baitha gaDivan bhi use dikhai diya, jo kah raha tha, “soye ka achar lijiye” aur yadyapi use pata nahin tha ki ye Dil ka achar hota kya hai, phir bhi usne andaz lagaya ki hare kaanch ki barni ke bhitar se tote ki chonch jaisi laal mirch ki tarah ki koi cheez chamak rahi thi. usne use apne munh ke bhitar rakhkar chusa; Dil achar behad khatta tha. . .
“haan, main bahut achchhi tarah samajh rahi hoon, tum kya kahna chaah rahe ho”, wo boli.
uske baad ek kshan chuppi chhai rahi. isi kshan donon ne ek dusre ko dekha. atit mein jab kabhi ve is tarah ek dusre ko dekhte the, unhen aapas mein ek aisi asim samajh ka ahsas hota tha, jo unki atmaon mein basi hui thi. kuch aise manon ve ek dusre ki banhon mein khoe hue shokmagn premiyon ki tarah samudr mein kood paDne ko taiyar hon. par ab achraj ki baat ye thi ki usi ne apne qadam pichhe hata liye aur wo bola—“tum kitni tallinta se sab kuch sunti ho. jab tum apni in baDi baDi ankhon se mujhe dekhti ho to mujhe lagta hai ki main tumhein wo sab kuch bata sakta hoon, jo shayad main kisi dusre insaan ko kabhi nahin bata paun. ”
kya uske svar mein khilli uDane jaisa kuch bhaav tha ya ye uske apne man ka vahm tha? wo kuch samajh nahin pai.
“main jab tumse mila nahin tha” wo bola, “mainne kabhi kisi se apne bare mein koi baat nahin ki thi. mujhe wo raat bhi achchhi tarah yaad hai, jab main tumhare liye ek chhota sa krismas peD laya tha aur tumhein apne bachpan ke bare mein sab kuch bataya tha. mainne bataya tha ki kaise ek din main itna duhkhi tha ki ghar se bhaga tha aur do dinon tak apne ahate mein rakhi thela gaDi ke niche raha tha. koi mujhe khoj nahin paya tha aur tum sunti rahi thi. tumhari ankhen chamak rahi theen aur mujhe laga, jaise tumhare asar mein aakar wo chhota sa krismas peD bhi meri dastan sun raha tha, vaise hi jaise pari kathaon mein hota hai. ”
par us shaam ki baat se use us zayqedar murabbe ke chhote Dibbe ki yaad aai. uski qimat chhah ya saat pens thi. jo use bahut adhik lag rahi thi aur wo ise sahn nahin kar pa raha tha. “zara dekho to itne chhote se Dibbe ki itni zyada qimat. ” jab tak wo murabba khati rahi, wo use khushi aur achraj ke saath niharta raha.
“nahin, ye to ek tarah se paise khana hai. tum is akar ke chhote se Dibbe mein saat shiling Daal bhi nahin sakte. zara socho ye kitna munafa kamate honge. . . ” aur wo kisi jatil hisab kitab mein ulajh gaya tha. par ab machhli ke us zayqedar murabbe ko alavida. krismas peD mez par tha, aur wo nanha sa bachcha thela gaDi ke niche ahate ke kutte par apna sir tikakar so raha tha.
“us kutte ka naam bisun tha na” wo khushi se chilla paDi.
par wo kuch samajh nahin paya, “kaun sa kutta? kya tumhare paas koi kutta tha? mujhe to kutte ke bare mein bilkul yaad nahin. ”
“nahin, nahin, main to us ahate ke kutte ki baat kah rahi hoon, jab tum bahut chhote the. ” wo hansa aur usne sigret ki Dibbi jhapat kar kheench li.
kya koi kutta sachmuch tha? main to bhool hi gaya hoon. jaise ye sab sadiyon pahle ki baat ho. mujhe vishvas nahin hota ki keval chhah saal hi bite hain. aaj jab mainne tumhein pahchana to mujhe atit mein ek bahut lambi chhalang lagani paDi, us samay ko dobara zehn mein lane ke liye mujhe apni puri biti zindagi ke bare mein ne sire se sochna paDa. ”
“main us samay bilkul bachcha tha”, wo mez ko bajane laga. “main aksar sochta hoon ki main tumhein kitna bor kiya karta tha aur ab main achchhi tarah samajh sakta hoon ki tumne jo bhi likha tha, wo kyon likha tha—halanki us vaqt to tumhare us khat ne bilkul meri jaan hi le li thi. kuch arsa pahle dobara wo khat mere haath laga tha aur use paDhkar main apni hansi rok nahin paya tha. kitna buddhimani se bhara tha tumhara khat—meri bilkul sahi tasvir khinchi thi tumne. ” usne nazar uupar uthai.
“tum nahin jaogi?” wo uthne lagi thi.
usne dobara apna kaular band kar liya tha aur chehre par jhina avran Daal liya tha. “nahin mujhe jana hi hoga, wo boli aur kisi tarah muskrai. ab wo jaan gai thi ki wo uska mazak uDa raha tha.
“are, nahin baba! pleej,” wo giDgiDaya, “kuchh der to ruk jao” aur usne mez par se uska ek dastana utha liya aur use aise pakaD liya manon, usi se wo use rok lega. ” ajkal baat karne ke liye mujhe itne kam log milte hain ki main barbar hota ja raha hoon,” wo bola. “kya mainne tumhein aisa kuch kah diya hai, jisse tumhein duhakh pahuncha hai?”
“bilkul nahin,” wo jhooth bol gai. par jab usne dekha ki wo uske dastane ko komalta se dhire dhire apni ungliyon se sahla raha hai to uska ghussa kafur ho gaya aur us kshan wo use chhah varsh pahle jaisa hi laga. . .
“us samay main vaqii chahta tha,” usne dhime svar mein bolna shuru kiya, “ki ek tarah se tumhare liye ek qalin ki tarah ban jaun—us par tum chalo, taki tumhein patthar aur mitti par bilkul bhi na chalna paDe aur tumhein koi chot na lage. mere dil mein isse adhik kuch nahin tha—mera koi svaarth na tha. haan, baad mein meri ye ichchha zarur thi ki main keval qalin nahin, balki ek jadui qalin ban jaun aur tumhein uDakar un tamam deshon mein le jaun jahan jane ke liye tummen itni lalak thi.
jab wo ye bol raha tha, usne apna sir aise uthaya jaise wo kuch pi raha ho, aur uske bhitar ka wo vichitr pashu ek baar phir karvat lene laga.
“mujhe lagta tha ki tum is duniya mein sabse zyada tanha ho,” wo bolta “aur phir bhi shayad tum hi ekmaatr ho jo duniya mein vaqii sahi mayne mein zinda hai—apne samay se alag,” dastane ko sahlate hue wo budabudaya, “bhagyashali. ”
he iishvar! usne ye kya kar Dala! kaise usne apne nasib, apni khushi ko is tarah nakar diya. yahi to ek shakhs tha jo use samajhta tha. kya ab vaqii der ho chuki hai? kya der jaisa kabhi kuch hota hai? wo us dastane ki tarah thi, jise usne apni ungliyon mein thaam rakha tha.
“aur phir ye bhi ek sach tha ki tumhare koi dost nahin the aur na hi tum logon se dosti karti theen. mainne ye kaise jana tha, kyonki mere bhi koi dost nahin the. kya ab bhi sab kuch vaisa hi hai?”
“haan,” usne saans khinchi. “bilkul vaisa hi hai. main ab bhi hamesha ki tarah akeli hoon. ”
“main bhi,” wo dhire se hansa, “bilkul vaisa hi. ” achanak tezi se usne uska dastana use vapas kiya aur apni kursi pichhe khiskai. “par us samay mujhe jo itna rahasyamay lag raha tha, ab mere liye ekdam aspasht hai aur tumhein bhi shayad. . . ”
“ek sidhi si baat ye hai ki hum donon itne ahankari, khud mein Dube hue the ki hamare dilon mein kisi aur ke liye koi jagah hi na thi. kya tum janti ho,” wo chillaya. ab wo phir apne usi dusre, ekdam anjan roop mein aa gaya tha, “main jab roos mein tha mainne manav mastishk ki prnali ko samajhna shuru kiya tha aur usse mainne jana ki hum bilkul alag tarah ke nahin the. ye ek bahut jani pahchani baat hai. . .
wo chali gai thi. wo vahin baitha raha, hakka bakka ekdam achambhit. . . aur phir mahila vetar se usne bil mangvaya.
“kreem ko to chhua bhi nahin gaya hai,” wo bola “pleez uske paise mat lagao!”
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 57)
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