एक गहन वन में दो शिकारी पहुँचे। वे पुराने शिकारी थे। शिकार की टोह में दूर-दूर घूम रहे थे, लेकिन ऐसा घना जंगल उन्हें नहीं मिला था। देखते ही जी में दहशत होती थी। वहाँ एक बड़े पेड़ की छाँह में उन्होंने वास किया और आपस में बातें करने लगे।
एक ने कहा, आह, कैसा भयानक जंगल है।
दूसरे ने कहा, और कितना घना!
इसी तरह कुछ देर बात करके और विश्राम करके वे शिकारी आगे बढ़ गए।
उनके चले जाने पर पास के शीशम के पेड़ ने बड़ से कहा, बड़ दादा, अभी तुम्हारी छाँह में ये कौन थे? वे गए?
बड़ ने कहा, हाँ गए। तुम उन्हें नहीं जानते हो?
शीशम ने कहा, नहीं, वे बड़े अजब मालूम होते थे। कौन थे, दादा?''
दादा ने कहा, जब छोटा था, तब इन्हें देखा था। इन्हें आदमी कहते हैं। इनमें पत्ते नहीं होते, तना ही तना है। देखा, वे चलते कैसे हैं? अपने तने की दो शाखों पर ही चलते चले जाते हैं।
शीशम—ये लोग इतने ही ओछे रहते हैं, ऊँचे नहीं उठते, क्यों दादा?''
बड़ दादा ने कहा, हमारी-तुम्हारी तरह इनमें जड़ें नहीं होतीं। बढ़ें तो काहे पर? इससे वे इधर-उधर चलते रहते हैं, ऊपर की ओर बढ़ना उन्हें नहीं आता। बिना जड़, न जाने वे जीते किस तरह हैं!
इतने में बबूल, जिसमें हवा साफ़ छनकर निकल जाती थी, रुकती नहीं थी और जिसके तन पर काँटे थे, बोला, दादा, ओ दादा, तुमने बहुत दिन देखे हैं। बताओ कि किसी वन को भी देखा है? ये आदमी किसी भयानक वन की बात कर रहे थे। तुमने उस भयावने वन को देखा है?
शीशम ने कहा, दादा, हाँ, सुना तो मैंने भी था। वह वन क्या होता है?
बड़ दादा ने कहा, सच पूछो तो भाई, इतनी उमर हुई, उस भयावने वन को तो मैंने भी नहीं देखा। सभी जानवर मैंने देखे हैं। शेर, चीता, भालू, हाथी, भेड़िया। पर वन नाम के जानवर को मैंने अब तक नहीं देखा।
एक ने कहा, मालूम होता है, वह शेर-चीतों से भी डरावना होता है।
दादा ने कहा, डरावना जाने तुम किसे कहते हो? हमारी तो सबसे प्रीति है।
बबूल ने कहा, दादा प्रीति की बात नहीं हैं। मैं तो अपने पास काँटे रखता हूँ। पर वे आदमी वन को भयावना बताते थे। ज़रूर वह शेर-चीतों से बढ़कर होगा।
दादा, सो तो होता ही होगा। आदमी एक टूटी-सी टहनी से आग की लपट छोड़कर शेर-चीतों को मार देता है। उन्हें ऐसे करते अपने सामने हमने देखा है। पर वन की लाश हमने नहीं देखी। वह ज़रूर कोई बड़ा ख़ौफ़नाक जीव होगा।
इसी तरह उनमें बातें होने लगीं। वन को उनमें में कोई नहीं जानता था। आस-पास के और पेड़ साल, सेमर, सिरस उस बात-चीत में हिस्सा लेने लगे। वन को कोई मानना नहीं चाहता था। उसका कुछ पता नहीं था। पर अज्ञात भाव से उसका डर सबको था। इतने में पास ही जो बाँस खड़ा था और जो ज़रा हवा चलने पर खड़-खड़ सन्-सन् करने लगता था, उसने अपनी जगह से ही सीटी-सी आवाज़ देकर कहा, मुझे बताओ, मुझे बताओ, क्या बात है। मैं पोला हूँ। मैं बहुत जानता हूँ।
बड़ दादा ने गंभीर वाणी से कहा, तुम तीखा बोलते हो। बात यह है कि बताओ तुमने वन देखा है? हम लोग सब उसको जानना चाहते हैं।
बाँस ने रीती आवाज़ से कहा, मालूम होता है, हवा मेरे भीतर के रिक्त में वन-वन-वन ही कहती हुई घूमती रहती है। पर ठहरती नहीं। हर घड़ी सुनता हूँ, वन है, वन है,। पर मैं उसे जानता नहीं हूँ। क्या वह किसी को दीखा है?
बड़ दादा ने कहा, बिना जाने फिर तुम इतना तेज़ क्यों बोलते हो?
बाँस ने सन्- सन् की ध्वनि में कहा, मेरे अंदर हवा इधर से उधर बहती रहती है, मैं खोखला जो हूँ। मैं बोलता नहीं, बजता हूँ। वही मुझमें बोलती है।
बड़ ने कहा, वंश बाबू, तुम घने नहीं हो, सीधे ही सीधे हो। कुछ भरे होते तो झुकना जानते। लंबाई में सब कुछ नहीं है।
वंश बाबू ने तीव्रता से खड़-खड़ सन्- सन् किया कि ऐसा अपमान वह नहीं सहेंगे। देखो, वह कितने ऊँचे हैं!
बड़ दादा ने उधर से आँख हटाकर फिर और लोगों से कहा कि हम सबको घास से इस विषय में पूछना चाहिए। उसकी पहुँच सब कहीं है। वह कितनी व्याप्त है। और ऐसी बिछी रहती है कि किसी को उससे शिकायत नहीं होती।
तब सबने घास से पूछा, घास री घास, तू वन को जानती है?
घास ने कहा, नहीं तो दादा, मैं उन्हें नहीं जानती। लोगों की जड़ों को ही मैं जानती हूँ। उनके फल मुझसे ऊँचे रहते हैं। पदतल के स्पर्श से सबका परिचय मुझे मिलता है। जब मेरे सिर पर चोट ज़्यादा पड़ती है, समझती हूँ यह ताक़त का प्रमाण है। धीमे क़दम से मालूम होता है, यह कोई दुखियारा जा रहा है।
दुख से मेरी बहुत बनती है, दादा! मैं उसी को चाहती हुई यहाँ से वहाँ तक बिछी रहती हूँ। सभी कुछ मेरे ऊपर से निकलता है। पर वन को मैंने अलग करके कभी नहीं पहचाना।
दादा ने कहा, तुम कुछ नहीं बतला सकतीं?
घास ने कहा, मैं बेचारी क्या बतला सकती हूँ, दादा!
तब बड़ी कठिनाई हुई। बुद्धिमती घास ने जवाब दे दिया। वाग्मी वंश बाबू भी कुछ न बता सके। और बड़ दादा स्वयं अत्यंत जिज्ञासु थे। किसी के समझ में नहीं आया कि वन नाम के भयानक जंतु को कहाँ से कैसे जाना जाए।
इतने में पशुराज सिंह वहाँ आए। पैने दाँत थे, बालों से गर्दन शोभित थी, पूँछ उठी थी : धीमी गर्वीली गति से वह वहाँ आए और किलक-किलककर बहते जाते हुए निकट एक चश्मे में से पानी पीने लगे।
बड़ दादा ने पुकारकर कहा, ओ सिंह भाई, तुम बड़े पराक्रमी हो, जाने कहाँ-कहाँ छापा मारते हो। एक बात तो बताओ, भाई?
शेर ने पानी पीकर गर्व से ऊपर को देखा। दहाड़कर कहा, कहो, क्या कहते हो?
बड़ दादा ने कहा, हमने सुना है कि कोई वन होता है, जो यहाँ आस-पास है और बड़ा भयानक है। हम तो समझते थे कि तुम सबको जीत चुके हो। उस वन से कभी तुम्हारा मुक़ाबला हुआ है? बताओ वह कैसा होता है?
शेर ने दहाड़कर कहा, लाओ सामने वह वन, जो अभी मैं उसे फाड़-चीरकर न रख दूँ। मेरे सामने वह भला क्या हो सकता है!
बड़ दादा ने कहा, तो वन से कभी तुम्हारा सामना नहीं हुआ?
शेर ने कहा, सामना होता, तो क्या वह जीता बच सकता था। मैं अभी दहाड़ देता हूँ। हो अगर कोई वन, तो आए वह सामने। खुली चुनौती है। या वह है या मैं हूँ।
ऐसा कहकर उस वीर सिंह ने वह तुमुल घोर गर्जन किया कि दिशाएँ काँपने लगीं। बड़ दादा के देह के पत्र खड़-खड़ करने लगे। उनके शरीर के कोटर में वास करते हुए शावक चीं-चीं कर उठे। चहुँओर जैसे आतंक भर गया। पर वह गर्जन गूँज कर रह गई। हुंकार का उत्तर कोई नहीं आया।
सिंह ने उस समय गर्व से कहा, तुमने यह कैसे जाना कि कोई वन है और वह आस-पास रहता है। जब मैं हूँ, आप सब निर्भय रहिए कि वन कोई नहीं है, कहीं नहीं है। मैं हूँ, तब किसी और का खटका आपको नहीं रखना चाहिए।
बड़ दादा ने कहा, आपकी बात सही है। मुझे यहाँ सदियाँ हो गई हैं। वन होता तो दीखता अवश्य। फिर आप हो, तब कोई और क्या होगा। पर वे दो शाखा पर चलने वाले जीव जो आदमी होते हैं, वे ही यहाँ मेरी छाँह में बैठकर उस वन की बात कर रहे थे। ऐसा मालूम होता है कि ये बे-जड़ के आदमी हमसे ज़्यादा जानते हैं।
सिंह ने कहा, आदमी को मैं ख़ूब जानता हूँ। मैं उसे खाना पसंद करता हूँ। उसका माँस मुलायम होता है; लेकिन वह चालाक जीव है। उसको मुँह मारकर खा डालो, तब तो वह अच्छा है, नहीं तो उसका भरोसा नहीं करना चाहिए। उसकी बात-बात में धोखा है।
बड़ दादा तो चुप रहे, लेकिन औरों ने कहा कि सिंहराज, तुम्हारे भय से बहुत-से जंतु छिपकर रहते हैं। वे मुँह नहीं दिखाते। वन भी शायद छिपकर रहता हो। तुम्हारा दबदबा कोई कम तो नहीं है। इससे जो साँप धरती में मुँह गाड़कर रहते हैं, ऐसी भेद की बातें उनसे पूछनी चाहिए। रहस्य कोई जानता होगा, तो अँधेरे में मुँह गाड़कर रहने वाला साँप जैसा जानवर ही जानता होगा। हम पेड़ तो उजाले में सिर उठाए खड़े रहते हैं। इसलिए हम बेचारे क्या जानें।
शेर ने कहा कि जो मैं कहता हूँ, वही सच है। उसमें शक करने की हिम्मत ठीक नहीं है। जब तक मैं हूँ, कोई डर न करो। कैसा साँप और कैसा कुछ और। क्या कोई मुझसे ज़्यादा जानता है?
बड़ दादा यह सुनते हुए अपनी दाढ़ी की जटाएँ नीचे लटकाए बैठे रह गए, कुछ नहीं बोले। औरों ने भी कुछ नहीं कहा। बबूल के काँटे ज़रूर उस वक़्त तनकर कुछ उठ आए थे। लेकिन फिर भी बबूल ने धीरज नहीं छोड़ा और मुँह नहीं खोला।
अंत में जम्हाई लेकर मंथर गति से सिंह वहाँ से चले गए।
भाग्य की बात कि साँझ का झुटपुटा होते-होते चुप-चुप घास में से जाते हुए दीख गए चमकीली देह के नागराज। बबूल की निगाह तीखी थी। झट से बोला, दादा! ओ बड़ दादा, वह जा रहे हैं सर्पराज। ज्ञानी जीव हैं। मेरा तो मुँह उनके सामने कैसे खुल सकता है। आप पूछो तो ज़रा कि वन का ठौर-ठिकाना क्या उन्होंने देखा है?
बड़ दादा शाम से ही मौन हो रहते हैं। वह उनकी पुरानी आदत है। बोले, संध्या आ रही है। इस समय वाचालता नहीं चाहिए।
बबूल झक्की ठहरे। बोले, बड़ दादा, साँप धरती से इतना चिपककर रहते हैं कि सौभाग्य से हमारी आँखें उन पर पड़ती हैं। और यह सर्प अतिशय श्याम हैं, इससे उतने ही ज्ञानी होंगे। वर्ण देखिए न, कैसा चमकता है। अवसर खोना नहीं चाहिए। इनसे कुछ रहस्य पा लेना चाहिए।
बड़ दादा ने तब गंभीर वाणी से साँप को रोककर पूछा कि हे नाग, हमें बताओ कि वन का वास कहाँ है और वह स्वयं क्या है?
साँप ने साश्चर्य कहा, किसका वास? वह कौन जंतु है? और उसका वास पाताल तक तो कहीं है नहीं।
बड़ दादा ने कहा कि हम कोई उसके संबंध में कुछ नहीं जानते। तुमसे जानने की आशा रखते हैं। जहाँ ज़रा छिद्र हो, वहाँ तुम्हारा प्रवेश है। कोई टेढ़ा-मेढ़ापन तुमसे बाहर नहीं है। इससे तुमसे पूछा है।
साँप ने कहा, मैं धरती के सारे गर्त जानता हूँ, भीतर दूर तक पैठकर उसी के अंतर्भेद को पहचानने में लगा रहा हूँ। वहाँ ज्ञान की खान है। तुमको अब क्या बताऊँ। तुम नहीं समझोगे। तुम्हारा वन, लेकिन कोई गहराई की सचाई नहीं जान पड़ती। वह कोई बनावटी सतह की चीज़ है। मेरा वैसा ऊपरी और उथली बातों से वास्ता नहीं रहता।
बड़ दादा ने कहना चाहा कि तो वह...
साँप ने कहा, वह फ़र्ज़ी है। यह कहकर वह आगे बढ़ गए।
मतलब यह है कि सब जीव-जंतु और पेड़-पौधे आपस में मिले और पूछताछ करने लगे कि वन को कौन जानता है और वह कहाँ है, क्या है? उनमें सबको ही अपना-अपना ज्ञान था। अज्ञानी कोई नहीं था। पर उस वन का जानकार कोई नहीं था। एक नहीं जाने, दो नहीं जानें, दस-बीस नहीं जानें। लेकिन जिसको कोई नहीं जानता, ऐसी भी भला कोई चीज़ कभी हुई है या हो सकती है? इसलिए उन जंगली जंतुओं में और वनस्पतियों में ख़ूब चर्चा, ख़ूब चर्चा हुई। दूर-दूर तक उनकी तू-तू मैं-मैं सुनाई देती थी। ऐसी चर्चा हुई कि विद्याओं पर विद्याएँ उसमें से प्रस्तुत हो गईं। अंत में तय पाया कि दो टाँगों वाला आदमी ईमानदार जीव नहीं है। उसने तभी वन की बात बनाकर कह दी है। वन बन गया है। सच में वह नहीं है।
उस निश्चय के समय बड़ दादा ने कहा कि भाइयो, उन आदमियों को फिर आने दो। इस बार साफ़-साफ़ उनसे पूछना है कि बताएँ, वन क्या है। बताएँ तो बताएँ, नहीं तो ख़ामख़ाह झूठ बोलना छोड़ दें। लेकिन उनसे पूछने से पहले उस वन से दुश्मनी ठानना हमारे लिए ठीक नहीं है। वह भयावना बताते हैं। जाने वह और क्या हो?
लेकिन बड़ दादा की वहाँ विशेष चली नहीं। जवानों ने कहा कि ये बूढ़े हैं, इनके मन में तो डर बैठा है। और जंगल के न होने का फ़ैसला पास हो गया।
एक रोज़ आफ़त के मारे फिर वे शिकारी उस जगह आए। उनका आना था कि जंगल जाग उठा। बहुत-से जीव-जंतु, झाड़ी-पेड़ तरह-तरह की बोली बोलकर अपना विरोध दरसाने लगे। वे मानो उन आदमियों की भर्त्सना कर रहे थे। आदमी बिचारों को अपनी जान का संकट मालूम होने लगा। उन्होंने अपनी बंदूक़ें सँभालीं। इस टूटी-सी टहनी को, जो आग उगलती है, वह बड़ दादा पहचानते थे। उन्होंने बीच में पड़कर कहा, अरे तुम लोग अधीर क्यों होते हो? इन आदमियों के खतम हो जाने से हमारा-तुम्हारा फ़ैसला निर्भ्रम कहलाएगा। ज़रा तो ठहरो। ग़ुस्से से कहीं ज्ञान हासिल होता है? ठहरो इन आदमियों से उस सवाल पर मैं ख़ुद निपटारा किए लेता हूँ। यह कहकर बड़ दादा आदमियों को मुख़ातिब करके बोले, भाई आदमियो, तुम भी पोली चीज़ों का नीचा मुँह करके रखो जिनमें तुम आग भरकर लाते हो। डरो मत। अब यह बताओ कि वह जंगल क्या है, जिसकी तुम बात किया करते हो? बताओ, वह कहाँ है?
आदमियों ने अभय पाकर अपनी बंदूक़ें नीची कर लीं और कहा, यह जंगल ही तो है, जहाँ हम सब हैं।
उनका इतना कहना था कि चींची-कींकीं, सवाल पर सवाल होने लगे।
जंगल यहाँ कहाँ है! कहीं नहीं है।
तुम हो। मैं हूँ। यह है। वह है। जंगल फिर हो कहाँ सकता है?
तुम झूठे हो।
धोखेबाज़।
स्वार्थी!
खतम करो इनको।
आदमी यह देखकर डर गए। बंदूक़ें सँभालना चाहते थे कि बड़ दादा ने मामला सँभाला और पूछा, सुनो आदमियो, तुम झूठे साबित होगे, तभी तुम्हें मारा जाएगा। क्या यह आगफेंकनी लिए फिरते हो! तुम्हारी बोटी का पता न मिलेगा। और अगर झूठे नहीं हो, तो बताओ जंगल कहाँ है?
उन दोनों आदमियों में से प्रमुख ने विस्मय से और भय से कहा, हम सब जहाँ हैं, वही तो जंगल है।
बबूल ने अपने काँटे खड़े करके कहा, बको मत, वह सेमर है, वह सिरस है, साल है, वह घास है। वह हमारे सिंहराज हैं। वह पानी है। वह धरती है। तुम जिनकी छाँह में हो, वह हमारे बड़ दादा हैं। तब तुम्हारा जंगल कहाँ है, दिखाते क्यों नहीं? तुम हमको धोखा नहीं दे सकते।
प्रमुख पुरुष ने कहा, यह सब कुछ ही जंगल है।
इस पर ग़ुस्से में भरे हुए कई वनचरों ने कहा, बात से बचो नहीं। ठीक बताओ, नहीं तो तुम्हारी ख़ैर नहीं है।
अब आदमी क्या कहें, परिस्थिति देखकर वे बेचारे जान से निराश होने लगे। अपनी मानवी बोली में (अब तक प्राकृतिक बोली में बोल रहे थे) एक ने कहा, यार, कह क्यों नहीं देते कि जंगल नहीं है। देखते नहीं, किनसे पाला पड़ा है!
दूसरे ने कहा, मुझसे तो कहा नहीं जाएगा।
तो क्या मरोगे?
सदा कौन जिया है? इससे इन भोले प्राणियों को भुलावे में कैसे रखूँ?
यह कहकर प्रमुख पुरुष ने सबसे कहा, भाइयो, जंगल कहीं दूर या बाहर नहीं है। आप लोग सभी वह हो।
इस पर फिर गोलियों-से सवालों की बौछार उन पर पड़ने लगी।
क्या कहा? मैं जंगल हूँ? तब बबूल कौन है?
झूठ! क्या मैं यह मानूँ कि मैं बाँस नहीं जंगल हूँ। मेरा रोम-रोम कहता है, मैं बाँस हूँ।
और मैं घास।
और मैं शेर।
और मैं साँप।
इस भाँति ऐसा शोर मचा कि उन बेचारे आदमियों की अक़ल गुम होने को आ गई। बड़ दादा न हों, तो आदमियों का काम वहाँ तमाम था।
उस समय आदमी और बड़ दादा में कुछ ऐसी धीमी-धीमी बातचीत हुई कि वह कोई सुन नहीं सका। बातचीत के बाद वह पुरुष उस विशाल बड़ के वृक्ष के ऊपर चढ़ता दिखाई दिया। चढ़ते-चढ़ते वह उसकी सबसे ऊपर की फुनगी तक पहुँच गया। वहाँ दो नए-नए पत्तों की जोड़ी खुले आसमान की तरफ़ मुस्कराती हुई देख रही थी। आदमी ने उन दोनों को बड़े प्रेम से पुचकारा। पुचकारते समय ऐसा मालूम हुआ, जैसे मंत्ररूप में उन्हें कुछ संदेश भी दिया है।
वन के प्राणी यह सब कुछ स्तब्ध भाव से देख रहे थे। उन्हें कुछ समझ में न आ रहा था।
देखते-देखते पत्तों की वह जोड़ी उद्ग्रीव हुई। मानो उनमें चैतन्य भर आया। उन्होंने अपने आस-पास और नीचे देखा। जाने उन्हें क्या दिखा कि वे काँपने लगे। उनके तन में लालिमा व्याप गई। कुछ क्षण बाद मानो वे एक चमक से चमक आए। जैसे उन्होंने खंड को कुल में देख लिया। देख लिया कि कुल है, खंड कहाँ है।
वह आदमी अब नीचे उतर आया था और अन्य वनचरों के समकक्ष खड़ा था। बड़ दादा ऐसे स्थिर-शांत थे, मानो योगमग्न हों कि सहसा उनकी समाधि टूटी। वे जागे। मानो उन्हें अपने चरमशीर्ष से, अभ्यंतराभ्यंतर में से, तभी कोई अनुभुति प्राप्त हुई हो।
उस समय सब ओर सप्रश्न मौन व्याप्त था। उसे भंग करते हुए बड़ दादा ने कहा—
वह है।
कहकर वह चुप हो गए। साथियों ने दादा को संबोधित करते हुए कहा, दादा, दादा! ...
दादा ने इतना ही कहा—
वह है, वह है?
कहाँ है? कहाँ है?
सब कहीं है। सब कहीं है।
और हम?
हम नहीं, वह है।
- पुस्तक : हिंदी कहानियाँ (पृष्ठ 170)
- संपादक : जैनेंद्र कुमार
- रचनाकार : जैनेंद्र कुमार
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 1977
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